सखी (कहानी) : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Sakhi (Hindi Story) : Suryakant Tripathi Nirala

आज थिएटर जाने की बात है। माडल हौसेज़ की छात्रा—तरुणियों में निश्चय हो गया है, सब एकसाथ जायँगी। निर्मला, माधवी, कमला, ललिता, शुभा और श्यामा आदि सज-सजकर एक दूसरी से मिलती हुई एकत्र होने लगीं। कमला के मकान में पहले से सबके मिलने का निश्चय हो चुका था। ज्योतिर्मयी उर्फ़ जोत अभी नहीं आई। समय थिएटर जाने का क़रीब आ गया।

ललिता बोली—"वह आज कॉलेज में इतनी खुश थी कि अवकाशवाली लड़कियों से ग़प लड़ाती मज़ाक़ करती हुई, समय से पहले घर चली आई थी। पूरे उच्छ्वास से थिएटर चलना स्वीकार किया था। मैंने पूछा भी कि क्या है, जो आज ज़मीनपर क़दम नहीं पड़ रहे हैं। जवाब न देकर मेरी ओर देखकर हँसने लगी।"

शुभा—"तो क्लास नहीं किया?"

"नः," ललिता बोली।

श्यामा—"मुझसे कहा कि पढ़ना-लिखना तो अब यहीं तक समझो।"

निर्मला—"क्यों, उसे कोई अड़चन तो है नहीं; फिर पढ़ाई क्यों बन्द कर रही है?"

श्यामा हँसने लगी। बोली—"वह कहती है, अब पढ़ना छोड़कर पढ़ाना पड़ेगा, इसकी तैयारी करनी है।"

सब हँसती हुई एक दूसरी की ओर देखने लगीं।

माधवी—"इसका मतलब?"

श्यामा हँसकर बोली—"उसे बड़ी चिन्ता है कि शिक्षार्थी आई॰ सी॰ एस्॰ है।"

"अच्छा", कई एकसाथ कह उठीं—"यह बात है!"

ललिता—"तो चलो, उसीके मकान से चला जाय। देखें, आपने अपनी तैयारी में कहाँ तक तरक़्क़ी की।"

सब जोत के मकान चलीं। सब आइसाबेला थाबर्न कॉलेज की छात्राएँ हैं। कोई तीसरे, कोई चौथे, कोई पाँचवें, कोई छठे साल में है। जोत का अभी तीसरा ही साल है।

घर पहुँचकर दंगल-का-दंगल जोत के कमरे में पैठा। वह जैसी जोत है, उसका पहनावा भी वैसा ही जगमगाता हुआ। उस समय वह आईने के सामने खड़ी मुस्करा रही थी। एकाएक संगनियों को देखकर लजा गई। बोली—"मुझे ज़रा देर हो गई।" वजह कोई न थी। सोचकर कुछ कह दे, हृदय और मस्तिष्क में उतनी जगह न थी—एक अजीब भाव में सारी देह भरी हुई थी, अतः देर के लिए दबनेवाले स्वर में भी उच्छ्वास उमड़ रहा था।

श्यामा बोली—"अब तो हर काम के लिए देर होगी। जल्दबाज़ी सिर्फ़ ख़ास विद्यार्थी को अवैतनिक पढ़ाने के वक़्त हो तो हो।"

सब हँसने लगीं। ललिता ने देखा—मेज़ पर एक खुला अँगरेज़ी लिफ़ाफ़ा पड़ा हुआ है। उठा लिया।

उठाते ही जोत तीर-सी ललिता पर टूटी। पर श्यामा ने पकड़ लिया—"अरे-अरे, अभी से। अभी तो पढ़ने की दरख़्वास्त मंज़ूर होने को आई होगी।"

ललिता ऊँचे स्वर से पढ़ने लगी। श्यामा जोत को पकड़े रही। चिट्ठी अंग्रेज़ी में थी। आवश्यकता से अधिक लम्बी। बायरन, शेली आदि के उद्धरण थे ही, विद्यापति भी नहीं बचे थे। पकड़ी हुई जोत ख़ुशी में छलक रही थी।

पत्र समाप्तकर सब चलने को हुई; अमीनाबाद से ताँगे कर लेंगी, एक जोत की मोटर में सब अट सकतीं नहीं, क्योंकि सामने ड्राइवर की वजह सीट खाली रहेगी।

जोत को लीला की याद आई। बोली—"भई, लीला रही जाती है, उसे भी ले लें।"

"उससे चलने की बात तो हुई नहीं, वह शायद ही जाय।" माधवी बोली।

"पक्की कंजूस है। पैसा दाँत से पकड़ती है।" श्यामा ने कहा—"सौ रुपये कम-से-कम ट्यूशन से पाती है, पर हालत देखो, तो मालूम होगा महादरिद्र।"

जोत लजाकर बोली—"तुम्हें तो उसका जीवन-चरित लिखने को मिले, तो चौपट करके छोड़ो। हमारे कॉलेज में एक ही कैरेक्टर है। कहो तो, उसके यहाँ पैदा करनेवाला कौन है? ट्यूशन से अपना ख़र्च चलाती है, छोटे भाइयों को भी पढ़ाती है, साथ घर का ख़र्च भी है। बूढ़ी माँ को कोई तकलीफ़ न हो, इसके लिए बेचारी कितना खटती है! मेहनत की मारी सूखकर काँटा हो रही है। चेहरे में आँखें ही आँखें तो हैं।"

लीला का घर आ गया। सब भीतर धंस गई। लीला पढ़ रही थी।

जोत ने हाथ से किताब छीन ली, थप से मेज़ पर रखकर बोली—"मिस लैला, मजनू के मज़मून में दीवानी न बनो। प्रेम का परिणाम बुरा होता है प्यारी! चलो, कलकत्ते से पारसी कम्पनी आई हुई है, वहाँ हम लोग धार्मिक शिक्षा ग्रहण करें।"

लीला जोत से दो साल आगे, एम्॰ ए॰ में है। जोत चंचल है। लीला क्षमा करती है। शीर्ण मुख की बड़ी-बड़ी सकरुण आँखों से देखती हुई बोली—"भई, तुम लोग जाओ। मुझे इतना समय कहाँ?"

"समय नहीं, पैसे कहो।" श्यामा बोली।

"अच्छा, पैसे सही। कालेज के अलावा पाँच घंटे पढ़ाती हूँ। डाक्टर साहब बड़े आदमी हैं। लड़कियों की पढ़ाई के लिये साठ देते हैं। मेरी हालत भी जानते हैं। तअल्लुक़दार रघुनाथसिंह की नई पत्नी को पढ़ाती हूँ, चालिस वहाँ मिलते हैं। इसी में घर का कुल ख़र्च है। इतने के बाद अपने पढ़ने के लिये भी समय निकालना पड़ता है। दिक़्क़त तुम लोग समझ सकती हो। ऐसी हालत में समय और पैसों की मुझे कितनी तंगदस्ती हो सकती है।"

"अच्छा महाशयाजी, चलिए।" जोत बोली—"आपके लिये फ़्री पास का प्रबन्ध हो जायगा।"

"तुम तो आज म्यान से निकली तलवार-सी चमक रही हो जोत! क्या ख़ुशी है?" लीला ने धीर स्नेह-कंठ से पूछा।

"महाशयाजी, जो किसी के हलक़ से नीचे उतरकर सर चढ़ी हो, वह शराब हैं यह अब।" मुस्कराकर सुभा ने कहा।

"नहीं", कमला बोली—"अभी तो—देख लो न इनकी तरफ़—होठों प' हँसी, अबरू पर ख़म, इसलिये इक़रार भी है, इनकार भी है।"

"बात क्या है?" अनजान की तरह देखते हुए लीला ने पूछा।

"पूरा रहस्यवाद उर्फ़ छायावाद।" निर्मला ने कहा—"वाद-विवाद में देर हो रही है। प्रकाशवाद यह है कि इनके पास मिस्टर श्यामलाल आई॰ सी॰ एस्॰ का पत्र आया है कि आप अगर मंज़ूर करें, आपको अपना सर्वस्व—तीन हज़ार मासिक—प्रेम की पर्मानेंट शिक्षा के लिये देकर मिस्ट्रेस बनाने की प्रार्थना करता हूँ। अब तो आया समझ में?"

"तो क्या तुम्हारे पिताजी राज़ी हो गए?" लीला ने जोत से पूछा।

"ख़ूब कही!" जोत बोली—"जहाँ आई॰ सी॰ एस्॰ वर मिलता हो, वहाँ पिताजी ख़ुद ब्याह करने को तैयार हो जायें।"

कमरा खिलखिलाहट से गूँज उठा।

"तुम लोग भई जाओ, माफ़ करो, मुझे समय नहीं है।"

"नहीं महाशयाजी, आप तो फ़र्स्ट क्लास लें, और हम लोग वहीं पैर रगड़ते रहें, ऐसा नहीं होने को। आपको चलना होगा, कपड़े बदलिए।"

जोत लीला को प्यार करती है, सम्मान भी देती है। लीला भी जानती है, जोत की खुली ज़बान में हृदय की क़ीमती बहुत-सी चीज़ें खुली रहती हैं। इसलिए उसका प्रस्ताव मंज़ूर कर, कपड़े बदलकर साथ चल दी।

तीन बजे से पहले ही लीला का क्लास खत्म हो जाता है। वहाँ से वह तअल्लुक़दार साहब की पत्नी को पढ़ाने के लिये भैंसाकुंड जाया करती है। रोज़ बहुत चलना पड़ता। किसी तरह साइकिल ख़रीद सकती है। पर सीखने की लाज कि मैदान में मर्दों के सामने बेहयाई होगी, कौन पकड़कर चलाएगा, गिरूँगी तो लोग हँसेंगे आदि-आदि—बाधक होती है। इसलिये चलने की काफ़ी मेहनत गवारा करती है।

भैंसाकुंड से साढ़े पाँच-छ के क़रीब लौटती हुई कई रोज़ से देखती है—दो मुसलमान उसका पीछा करते हैं। वे आपस में न जाने क्या बातचीत करते हैं। कभी-कभी पास आ जाते हैं। हृदय धड़कने लगता है। पर वह जल्द-जल्द चली आती है। ज्यों-ज्यों तेज़ चलती है, वे भी त्यों-त्यों तेज़ पीछा करते हैं। किससे कहे? भेंसाकुंड का बहुत-सा रास्ता बँगलों तथा बग़ीचों के कारण सुनसान निर्जन रहता है। धड़कते कलेजे से साधारण बस्ती के पास आकर साँस लेती है।

मन-ही-मन अपनी असमर्थता पर लीला को बड़ा क्षोभ हुथा। दुबलों को सब सताते हँ। पर आप ही शान्त हो जाना पड़ा, क्योंकि अपनी हद में वही अपना उपाय सोचनेवाली थी। माता से नहीं कहा कि कहीं वह रोक न दें; ख़र्च के लिये फिर क्‍या होगा?

एक दिन लौटते हुए उन्हीं में से एक को अश्लील बकते हुए सुना—जैसे सुनाकर बातें कही जा रही हों। वह तेज़ क़दम चलने लगी। वे भी उसी हिसाब से बढ़ते गए—तीन-ही-चार हाथ का फ़ासला था। ऐसे समय उनके साहस की ऐसी बात उसने सुनी, जो उसकी मर्यादा के प्रतिकूल थी। भय से एक प्रकार दौड़ने लगी। सामने एक हैट-कोट पहने देशी साहब आते हुए देख पड़े। लीला उनकी तरफ़ कुछ तेज़ बढ़ी। उन्हें देखकर बदमाश लौट गये। लीला उनके पास पहुँचकर हाँफती हुई बोली—"आज कई रोज़ से दो बदमाश मेरा पीछा करते हें। में तअल्लुक़दार रघुनाथसिंह की पत्नी को पढ़ाने जाती हूँ। लौटते समय राह पर मिल जाते हैं। मुझे ऐसी-ऐसी बातें आज कहीं—" कह-कर अपने को सँभालने लगी।

बिजली की रोशनी में बड़ी-बड़ी आँखों से आँसू गिरते हुए देखकर साहब क्रोध से रास्ते की ओर देखने लगे। बोलें—"वे लोग मुझे देख-कर भाग गये शायद। यह सामने मेरा ही बँगला है। आइए, आपको मोटर पर भेज दूँ।" "पर, फिर?—" साहब सोचते हुए चले, पीछे-पीछें लीला।

अहाते के भीतर बग़ीचे के पास साहब खड़े हो गए। बँगले के सामने की बिजली से लीला का दुबला सुन्दर कुछ लम्बा गोरा मुख, बड़ी-बड़ी आँखें दीख रही हैं। साहब ने दुख के करुण चित्र का सौंदर्य देख कर पूछा—"आपका शुभ नाम?"

"मुझे लीला कहते हैं।" निगाह झुकाती हुई लीला बोली।

"आप ही को अपनी सँभाल करनी पड़ती है; आप—आप शादीशुदा तो है?"

"जी नहीं, मैं आइसाबेला थाबर्न कालेज की छात्रा हूँ।"

"किस क्लास में आप हैं?"

"एम॰ ए॰ में।" धीमे स्वर से कहकर समझ की लाजभरी पलकें झुका लीं।

कुछ आग्रह से साहब ने पूछा—"आप ब्राह्मण हैं?"

"जी नहीं, कायस्थ हूँ।"

"यहाँ कहाँ रहती हैं?"

"माडेल हौसेज़ में।"

साहब कुछ चौंके। पूछा—"आपके वहाँ कोई ज्योतिर्मयी रहती हैं? आपके कालेज की बी॰ ए॰ पहले साल की छात्रा हैं।"

लीला भी चौंकी। कुछ हिम्मत हुई। लजाकर पूछा—"जनाब का नाम?"

"मुझे श्यामलाल कहते हैं।—अरे ए, कार तो ले आने को कह दे।"

लीला का संकोच बहुत कुछ दूर हो गया। बोली—"हाँ, आपका ज़िक्र मैंने सुना है।"

साहब की उत्सुकता बढ़ गई। बड़ी उतावली से "कहाँ सुनी?" पूछा।

लीला मुस्कराई। कहा—"जोत की सखियों से, उसकी एक चिट्ठी चुरा गई थी।"

साहब उतरे स्वरों में बोले—"उनका कोई जवाब अभी नहीं मिला। उनके पिताजी मेरे वलायत रहते समय मेरे पिताजी से मिले थे। मेरे पास उनका चित्र गया था। वलायत से लौटकर एक पत्र मैंने लिखा था अभी मैंने उन्हें देखा नहीं। तारीफ़ सुनी है।" कहकर साहब कुछ चिन्ता करने लगे।

मोटर आ गई।

मुस्कराकर लीला ने वादा किया कि वह जोत से पत्र लिखने के लिये कहेगी। साहब आँखें झुकाए चुपचाप खड़े रहे। कुछ देर बाद बोले—नहीं, आप ऐसा कुछ मत कहें।" फिर मोटर पर चढ़ने के लिए लीला को आमंत्रित किया।

नमस्कार कर लीला बैठ गई। मोटर चल दी।

तीसरे दिन बाबू श्यामलाल को जोत का उत्तर मिला। लिखा था—जनाब,

मैंने आपको जवाब इसलिए नहीं दिया कि जवाब देना सभ्यता के खिलाफ़ है। आज लीला दीदी से आपके मिलने की सांगोपांग बातें मालूम हुईं। जिस मजनू की जो लैला होती है, वह इसी तरह उसे आप मिलती है। अपनी लैला की आप हमेशा रक्षा करें, आपसे सविनय मेरी प्रार्थना है। तब मेरा-आपका रिश्ता और मधुर हो जायगा, क्योंकि बहन जिसे ब्याहती है, वह अगर पत्नी की बहन को साली कह सकते हैं, तो पत्नी की बहन भी उन्हें वही पुरुष-संबोधन कर सकती है। आशा है, मेरा-आपका यह सम्बन्ध स्थायी होगा।

आपकी-

जोत

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