सजा (बांग्ला कहानी) : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Saja (Bangla Story in Hindi) : Rabindranath Tagore

दुखी और छदामी कोरी, दोनों भाई सवेरे उठकर जब हंसिया-गंड़ासा हाथ में लिए काम पर निकले तब उन दोनों की बहुओं में खूब जोर की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। मुहल्लेवाले प्रकृति की और और प्रकार की खटपट और शोर-शराबे की तरह इस घर के कलह और उससे पैदा हुए शोरगुल के आदी हो गए थे। जोर की चीख-चिल्लाहट और नारी-कंठ की गाली-गलौज कान में पड़ते ही लोग आपस में कहने लगते, 'लो, हो गया शुरू' यानी जैसी कि आशा थी, आज भी उस स्वाभाविक नियम में कोई फर्क नहीं पड़ा। सवेरा होते ही पूरब में सूरज निकलने पर जैसे कोई उसका कारण नहीं पूछता, ठीक वैसे ही कोरियों के इस घर में जब दोनों बहुओं में तकरार और गाली-गलौज शुरू हो जाती, तो फिर उसका कारण जानने के लिए मुहल्ले में किसी को भी रत्ती भर आश्चर्य नहीं होता।

हां, इतना जरूर है कि कलह-आन्दोलन पड़ोसियों की अपेक्षा दोनों पतियों को ज्यादा परेशान करता है, किन्तु फिर भी वे उसे किसी खास दिक्कत में नहीं गिनते। उनके मन का भाव ऐसा है, मानो दोनों भाई संसार-यात्रा का लम्बा सफर किसी इक्के में बैठकर तय कर रहे हैं, और उनके दोनों बिना कमानी के पहियों के लगातार घड़घड़-खड़खड़ शब्द को उन्होंने जीवन-रथयात्रा के बाकायदा नियमों में ही शामिल कर लिया है। बल्कि, घर में जिस रोज कोई शोरगुल नहीं होता, चारों ओर सन्नाटा-सा रहता है, उस दिन कब क्या आफत आ खड़ी हो, कोई कुछ अन्दाज लगाकर नहीं कह सकता।

हमारी कहानी की घटना जिस दिन से शुरू होती है उस दिन शाम को दोनों भाई मेहनत-मजूरी करके हारे-थके जब घर लौटे, तो देखा कि घर में सन्नाटा छाया हुआ है।

बाहर भी काफी उमस है। दोपहर को एक बार खूब जोर से पानी बरस चुका है और अब भी बादल घुमड़ रहे हैं। हवा का नामो-निशान तक नहीं, वर्षा से घर के चारों तरफ का जंगल और घास-पौधे वगैरह बहुत बढ़ गए हैं, वहां से, और पानी में डूबे हुए पटसन के खेतों में से एक तरफ की घनी बदबूदार भाप-सी निकल रही है, और उसने चारों तरफ मानो एक निश्चल चारदीवारी-सी खड़ी कर दी है। गुहाल के बगलवाली छोटी-सी तलैया में मेंढक टर्र-टर्र कर रहे हैं, और शाम का सूना आकाश मानो झींगुरों की झनकार से बिलकुल भर-सा गया है।

पास ही बरसात की पद्मा नदी नए बादलों से छाई हुई होकर बेहद ठहरी और भयंकर रूप धारण करके आजादी से बह रही है। ज्यादातर खेतों को नष्ट करके वह बस्ती के करीब तक आ पहुंची है। यहां तक कि उसने आसपास के दो-चार आम-कटहल के पेड़ तक उखाड़कर गिरा दिए हैं, और उनकी जड़ें पानी से बाहर दीख रही हैं। मानो वे अपनी मुट्ठी की उंगलियों को आकाश में फैलाकर किसी आखिरी सहारे को पकड़ने की कोशिश कर रही हों।

दुक्खी और छदामी उस दिन गांव के जमींदार के यहां बेगार खटने गए थे। उस पार की रेती पर धान पक गए हैं। बरसात के पानी में डूब जाने के पहले ही धान काट लेने के लिए देश के गरीब किसान और मजदूर सब कोई अपने-अपने खेत के कामों में या पटसन काटने में लग गए हैं। सिर्फ इन दोनों भाइयों को जमींदार के लोग जबरदस्ती बेगारी में पकड़ ले गए थे। जमींदार की कचहरी के छप्पर में से जगह-जगह पानी चू रहा था। उसकी मरम्मत के लिए कुछ टट्टियां बनाने के लिए वे दिन-भर कड़ी मेहनत करते रहे हैं। खाने तक की छुट्टी न मिली कि घर आकर पेट में कुछ डाल जाते, कचहरी की तरफ से थोड़े-से चने खाने को मिल गए थे। बीच-बीच में मेह में भी भीगे हैं। हक की मजूरी भी मिल जाती सो भी नहीं, बल्कि उसके बदले जो उन्हें गालियां और फटकार मिली है वह उनकी मजूरी से बहुत ज्यादा थी।

कीच कद्दड़ और पानी में होकर बड़ी मुश्किल से दोनों भाई शाम को घर आए। देखा तो, छोटी बहू चन्दा जमीन पर आंचल बिछाए चुपचाप औंधी पड़ी है, आज के बदली के दिन की तरह उसने भी दोपहर को बहुत आंसू बरसाकर शाम होते-होते खामोश होकर अपने अन्दर जोरों की उमस कर रखी है। और बड़ी बहू राधा मुंह फुलाए दरवाजे पर बैठी थीं; उसका डेढ़ बरस का छोटा बच्चा रो रहा था। अब दोनों भाइयों ने जब घर में पैर रखा तो देखा कि बच्चा नंग-धड़ंग आंगन में एक तरफ चित्त पड़ा सो रहा है।

भूखे दुक्खी ने आते के साथ ही कहा, "चल उठ, परोस खाने को। "बड़ी बहू एकदम गरज उठी, मानो बारूद के बोरे में चिनगारी पड़ गई हो," खाने को है कहां, जो परोस दूं? चावल तू दे गया था? मैं क्या आप कहीं जाकर रोजगार कर लाती!"

सारे दिन की थकावट और डांट-फटकार सहने के बाद बिना अन्न के बेमजा अंधेरे घर में जलती हुई भूख की आग पर स्त्री के रूखे वचन खासकर अन्तिम वाक्य का छिपा हुआ भद्दा श्लेष दुक्खी को सहसा न जाने कैसे बर्दाश्त के बाहर हो उठा।

क्रोधित बाघ की तरह वह फंसी हुई गम्भीर गरज के साथ बोला, "क्या कहा!" और उसी दम उसने हंसिया उठाकर स्त्री के सिर पर जमा दिया।

राधा अपनी देवरानी के पास जाकर गिर पड़ी और पड़ते के साथ ही मर गई।

चन्दा के कपड़े खून से सराबोर हो गए। वह 'हाय अम्मा, क्या हो गया' कहकर चिल्ला उठी। छदामी ने आकर उसका मुंह दबा दिया। दुक्खी हंसिया फेंककर गाल पर हाथ रखके भौंचक्के की तरह जमीन पर बैठ गया। लड़का जग गया और डर के मारे चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।

बाहर तब पूरी शान्ति थी। अहीरों के लड़के गाय-भैंस चराकर गांव को लौट रहे थे। उस पार की रेती पर जो लोग पके धान काटने गए थे, उनमें से पांच-पांच सात-सात जने एक-एक छोटी नाव पर बैठकर, इस पार आकर दिन-भर की मेहनत-मजूरी में मिले दो-चार पूला धान सिर पर लादे, लगभग सभी कोई अपने-अपने घर आ पहुंचे हैं।

गांव के रामलोचन चाचा डाकखाने में चिट्ठी डालकर घर लौट आए थे, और निश्चिन्त होकर चुपचाप बैठे तमाकू पी रहे थे। एकाएक उन्हें याद उठ आई-उनके शिकमी काश्तकार दुक्खी पर लगान के रुपये बाकी हैं। दिन वह देने का वादा कर गया था। यह सोचकर कि अब वह घर आ गया होगा, रामलोचन कन्धे पर दुपट्टा डाल, छतरी उठा चल दिए।

दुक्खी-छदामी के घर में घुसते ही उनके रोंगटे खड़े हो गए। देखा तो, घर में दिया तक नहीं जल रहा है। आंगन में अंधेरा है, और उस अंधेरे में दो-चार काली मूर्तियां धुंधली दिखाई दे रही हैं। रह-रहकर बरामदे के एक कोने से रोने का धीमा शब्द सुनाई दे रहा है, और लड़का ज्यों-ज्यों 'अम्मा, अम्मा' पुकारता हुआ रोने की कोशिश कर रहा है त्यों-त्यों छदामी उसका मुंह दबाता जा रहा है। रामलोचन ने कुछ डरते हुए पूछा, “दुक्खी है क्या?"

दुक्खी अब तक पत्थर की मूर्ति की तरह चुपचाप बैठा था। उसका नाम लेकर पुकारते ही वह सिसक-सिसकके नासमझ बच्चे की तरह रोने लगा। छदामी झटपट बरामदे से उतरकर रामलोचन चाचा के पास आंगन में आ गया। रामलोचन ने पूछा, “औरतें लड़ाई करके मुंह फुलाए पड़ी। होंगी, इसी से अंधेरा है क्या? आज तो दिन-भर चिल्लाती ही रही हैं।"

छदामी अभी तक, क्या करना चाहिए, कुछ भी सोच नहीं पाया था। तरह-तरह की असम्भव कल्पनाएं उसके दिमाग में चक्कर काट रही थीं। फिलहाल उसने यही तय किया था कि कुछ रात बीते लाश को कहीं गायब कर देगा। इसी बीच में चौधरी चाचा आ पहुंचे, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी, चटू-से कोई ठीक जवाब न सूझा, वह कह बैठा, "हां, आज बहुत झगड़ा हो गया।"

चौधरी जी बरामदे की ओर बढ़ते हुए बोले, "लेकिन उसके लिए दुक्खी क्यों रो रहा है?"

छदामी ने देखा कि अब खैर नहीं, एकाएक वह कह बैठा, “तकरार करते-करते छोटी बहू ने बड़ी बहू के माथे पर हंसिया मार दिया है।"

मनुष्य आई हुई मुसीबत को ही बड़ा समझता है, उसके अलावा और भी कोई परेशानी आ सकती है-यह बात जल्दी उसके दिमाग में नहीं आती। छदामी उस समय सोच रहा था कि इस खतरनाक सत्य के पंजे से कैसे बचे? किन्तु झूठ उससे बढ़कर खतरा ला सकता है- इस बात का उसे होश ही न था। रामलोचन के पूछते ही चट्-से उसके दिमाग में एक बाब सूझा, और उसी वक्त उसने उसे कह डाला।

रामलोचन चौंककर कह उठा, “ऐं क्या कहा! मरी तो नहीं?"

छदामी ने कहा, "मर गई।" और तुरन्त उनके पांव पर गिर पड़ा।

चौधरी बड़े असमंजस में पड़ गए, सोचने लगे, 'राम-राम, ऐन शाम के समय कहां आ फंसे! अदालत में गवाही देते-देते जान निकल जाएगी।'

छदामी ने किसी भी तरह उनके पांव नहीं छोड़े, बोला, "चौधरी चाचा, अब मैं अपनी बहू को बचाने के लिए क्या करूं?”

मामले-मुकदमों के बारे में सलाह देने में रामलोचन गांव-भर के मुख्यमन्त्री थे। उन्होंने जरा सोचकर कहा, “देख, एक काम कर तू, अभी दौड़ा जा थाने में, कहना कि 'मेरे बड़े भाई दुक्खी ने शाम को घर आकर खाने को मांगा था, खाना तैयार नहीं था, सो उसने अपनी बहू के माथे में हंसिया मार दिया है। 'मैं ठीक कहता हूं, ऐसा कहने से तेरी बहू बच जाएगी।"

छदामी का कंठ सूखने लगा, उठकर बोला, “चौधरी चाचा, बहू और भी मिल जाएगी, पर भाई को फांसी हो जाने पर फिर भाई नहीं मिलने का।" किन्तु जब उसने अपनी स्त्री पर दोष लगाया था, तब ये बातें नहीं सोची थीं। घबराहट में एक बात मुंह से निकल गई, अब अलक्षित-भाव से उसका मन अपने लिए तरकीबें और तसल्ली इकट्ठा करने लगा।'

चाचा ने भी उसकी बात को युक्तिसंगत पाना, बोले, "तो फिर जैसा हुआ है, वैसा ही कहना। सब तरफ से बचाव होना तो मुश्किल बात है।" इतना कहकर रामलोचन वहां से चल दिए। और देखते-देखते सारे गांव में हल्ला हो गया कि 'कोरियों के घर की चन्दा ने लड़ते-लड़ते गुस्से में आकर अपनी जेठानी जी के माथे में हंसिया दे मारा है।

बांध टूटने पर जैसे बाढ़ आती है, वैसे ही गांव में पुलिस आ धमकी। अपराधी और निरपराध सभी कोई बहुत घबरा उठे।

छदामी ने सोचा कि जो रास्ता बना लिया है, उसी पर चलना ठीक होगा। उसने रामलोचन के सामने अपने मुंह से जो बात कह डाली है उस बात को गांव सब लोग जान गए हैं। अब अगर दूसरी कोई बात कही जाए तो न जाने उसका क्या नतीजा निकले, क्या से क्या हो जाए। उसकी अकल चकरा गई। उसने समझ लिया कि किसी तरह अपने वचनों की रक्षा करते हुए उसमें और भी दो-चार बातें जोड़-जाड़कर बहू को भले ही बचाया जा सकता है, और कोई रास्ता नहीं।

छदामी ने अपनी बहू चन्दा से अनुरोध किया कि वह कसूर अपने ऊपर ले ले। सुनते ही उस पर मानो बिजली-सी पड़ गई। छदामी ने उसे तसल्ली देकर कहा, "मैं जो कह रहा हूं उसमें तुझे किसी बात का डर नहीं, हम लोग तुझे बचा लेंगे।" तसल्ली दी तो सही, पर उसका गला सूख गया, मुंह फक पड़ गया।

चन्दा की उम्र सत्रह अठारह साल से ज्यादा न होगी। चेहरा भरा हुआ और गोल-मटोल, शरीर मंझोला, कसा हुआ, स्वस्थ और सबल, अंग-अंग के गठन में ऐसा एक सुडौलपन भरा हुआ है कि चलने-फिरने में, हिलने-डुलने में देह कहीं से भी जरा बेडौल नहीं मालूम देती। वह नई बनी हुई नाव की तरह छोटी और सुडौल है, बहुत ही आसानी से सरकती है और उसकी कहीं भी कोई ग्रन्थि ढीली नहीं हुई। संसार के विषय में उसके अन्दर एक तरह का कौतूहल है, मुहल्ले में दूसरों के घर जाकर गपशप करना उसे बहुत पसन्द है, और कांख में पानी की गागर लिए। पनघट आते समय वह दो उंगलियों से घूंघट में जरा-सा छेद करके चमकीली चंचल काली आंखों से रास्ते में जो कुछ देखने लायक चीज होती है उसे देख लिया करती है।

बड़ी बहू ठीक इससे उलटी थी। बहुत ही आलसिन, फूहड़ और बेशऊर। सिर का कपड़ा, गोद का लड़का, घर का काम कुछ भी उससे न सम्हलता था। हाथ में न तो कोई खास काम-काज होता और न फुरसत। छोटी बहू उससे ज्यादा कुछ कहती-सुनती न थी। हाँ, मीठे स्वर में दो-एक पैने दांत गड़ा देती, और वह हाय-हाय करके गुस्से में बकती रहती, और इस तरह मुहल्ले-भर की नाक में दम करती रहती।

इन दो दम्पतियों में भी स्वभाव की एक आश्चर्यजनक एकता थी। दुक्खी देह में कुछ लम्बा-चौड़ा, हट्टा-कट्टा है, चौड़ी हड़िया-सी भद्दी नाक, आंखें ऐसी कि मानो इस दुनिया को वे अच्छी तरह समझतीं ही नहीं, और न उससे किसी तरह का सवाल ही करना चाहती हैं। ऐसा भोला-भाला किन्तु खतरनाक, ऐसा सबल किन्तु निरीह आदमी बिरला ही मिलेगा।

और छदामी तो ऐसा लगता है, जैसे किसी चमकीले काले पत्थर को बड़ी मेहनत से तराशकर मूर्ति बनाई गई हो। जरा भी कहीं अधिकता नहीं, कहीं भी जरा दचका तक नहीं पड़ा। बल और निपुणता ने मिलकर उसके प्रत्येक अंग को भरा-पूरा बना दिया है। चाहे तो नदी की ऊंची पाड़ पर से नीचे कूद पड़े, चाहे लग्गी चलावे, चाहे बांस की झाड़ियों में चढ़कर छांट-छांटकर उसकी टहनियां काट लावे; हर एक काम में उसकी पूरी होशियारी पाई जाती है, मानो सभी काम उसके लिए बहुत आसान हैं। बड़े-बड़े काले बालों में तेल डालकर और बड़े यत्न से उन्हें काढ़कर कन्धे तक लटकाए रहता है, देह की सजावट के विषय में उसका काफी ध्यान है।

और और गांव की वधुओं के सौन्दर्य के प्रति यद्यपि उसकी उदासीन दृष्टि न थी, और अपने को उनकी निगाहों में खूबसूरत जंचाने की इच्छा भी उसकी काफी थी, फिर भी अपनी यूवा पत्नी को वह जरा कुछ ज्यादा प्यार करता था। दोनों में कलह भी होता और मेल भी। कोई किसी को हरा नहीं सकता था। और भी एक कारण था, जिससे दोनों का बन्धन काफी मजबूत था। छदामी समझता था कि चन्दा जैसी नटखट प्रकृति की चंडूल स्त्री है, उस पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए, और चन्दा समझती थी कि उसके मालिक की चारों तरफ निगाह दौड़ती रहती है, उसे अगर कुछ कसके न बांधा गया, तो किसी दिन हाथ से निकल जाने का डर है।

इस दुर्घटना के कई दिन पहले से स्त्री-पुरुष में बड़ी भारी तनातनी चल रही थी। बात यह थी कि चन्दा ने देखा, उसका मालिक काम के बहाने कभी-कभी दूर चला जाता है, यहां तक कि दो-एक दिन बाहर बिताकर फिर घर लौटता है, और कुछ पैदा करके लाता नहीं। पति के लक्षण अच्छे न देखे तो वह भी कुछ ज्यादती करने लगी। उसने जब हैं तब पनघट जाना शुरू कर दिया और मुहल्ले-भर में घूम-फिरकर घर आकर काशीप्रसाद के मझले लड़के की बहुत ज्यादा व्याख्या करने लगी।

छदामी के दिन और रातों में मानो किसी ने जहर घोल दिया। काम-धन्धे में कहीं भी उसे घड़ी-भर के लिए चैन न पड़ता। इसके लिए एक दिन उसने भौजाई को बड़ी डांट-फटकार बताई।

जवाब में भौजाई ने हाथ हिला-हिलाकर झमक-झमककर उसके अनुपस्थित मृत पिता को सम्बोधित करके कहा, "वह औरत आंधी के आगे दौड़ती है, उसे मैं सम्हालूं! मैं तो जानती हूं, किसी दिन वो खानदान की नाक कटा बैठेगी!"

बगल की कोठरी में चन्दा बैठी थी, उसने बाहर आकर धीरे-से कहा, "जीजी, तुम्हें इतना डर क्यों है?"

बस, फिर क्या था, दोनों में खूब ठन गई।

छदामी ने आँखें घुन्नाकर कहा, “देख, अबकी अगर सुना कि तू अकेली पानी भरने गई है,तो तेरी हड्डी तोड़ दूंगा।"

चन्दा ने कहा, "तब तो मेरा कलेजा ही ठंडा हो जाए!" यह कहती हुई। यह उसी वक्त बाहर जाने को तैयार हो गई।

छदामी ने लपककर चोटी पकड़के घसीटकर उसे कोठरी के भीतर ढकेल दिया और बाहर से दरवाजा बन्द कर दिया।

शाम को छदामी जब घर लौटा तो देखा कि कोठरी खुली पड़ी है, उसमें कोई भी नहीं! चन्दा तीन गांव पार करके सीधी अपनी ननसाल पहुंच गई थी।

छदामी बड़ी मुश्किल से मना-मुनूकर वहां से उसे घर ले आया, और अबकी बार उसने अपनी हार मान ली। उसने देख लिया कि जैसे अंजुली-भर पारे को मुट्ठी के अन्दर जोर से दबाकर रखना मुश्किल है वैसे ही इस स्त्री को भी मजबूती से पकड़ रखना असम्भव है, पारे की तरह यह भी दसों उंगलियों की संधों में से इधर-उधर छिटक पड़ती है।

उसने किसी तरह की जबरदस्ती नहीं की, किन्तु वह बड़ा अशान्त रहने लगा। इस नटखट पत्नी के प्रति उसका सदा शंका-भरा प्रेम तेज पीड़ा की तरह उसको दुख देने लगा। यहां तक कि कभी-कभी वह सोचता कि यह मर जाए तो निश्चिन्त होकर वह जरा शान्ति से रहे। आदमी से आदमी की जितनी जलन होती है, उतनी शायद यमराज से नहीं होती।

इसी बीच यह दुर्घटना हो गई।

चन्दा से जब उसके मालिक ने हत्या मंजूर कर लेने के लिए कहा, तो वह भौंचक्की होकर देखती रह गई। उसकी काली-काली दोनों आंखें काली आग की तरह चुपचाप अपने पति को दग्ध करने लगीं। उसका सारा शरीर और मन धीरे-धीरे सिकुड़कर पति-राक्षस के पंजे से निकल भागने की कोशिश करने लगा। उसकी सारी अन्तरात्मा विमुख होकर पति के खिलाफ विद्रोह ठान बैठी।

छदामी ने बहुत तसल्ली दी कि तुझे डरने की कोई बात नहीं। इसके बाद उसने थाने में और अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने उसे क्या कहना होगा, बार-बार सिखा-पढ़ाकर सब ठीक कर दिया। मगर चन्दा ने उसकी लम्बी-लम्बी बातें कुछ भी नहीं सुनीं, पत्थर की मूर्ति की तरह वह चुपचाप बैठी रही।

सभी कामों में दुक्खी छदामी के भरोसे रहता है। छदामी ने जब उससे चन्दा पर सारा दोष मढ़ने की बात कही तो उसने कहा, "फिर बहू का क्या होगा?"

छदामी ने कहा, “उसे मैं बचा लूंगा।"

भाई की बात सुनकर हट्टा-कट्टा दुक्खी निश्चिन्त हो गया।

छदामी ने अपनी बहू को सिखा दिया कि तू कहना, 'जिठानी मुझे हंसिया लेकर मारने आई थी, सो मैं भी उसे हंसिया उठाकर रोकने लगी, सोन जाने कैसे अचानक लग गई। 'ये सब बातें रामलोचन की बनाई हुई थीं। इसके अनुकूल जिन-जिन वर्णनों और सबूतों की जरूरत थी वे सब बातें भी उन्होंने विस्तार के साथ छदामी को समझा दी थीं।

पुलिस आकर जोरों से तहकीकात करने लगी। लगभग सभी गांववालों के मन में यह बात तह तक बैठ गई थी कि चन्दा ने ही जिठानी की हत्या की है। प्रायः सभी गांववालों के बयानों से ऐसा ही साबित हुआ।

पुलिस की तरफ से चन्दा से जब पूछा गया, तो चन्दा ने कहा, "हां, मैंने ही खून किया है।"

"क्यों खून किया?"

'मुझे वह सुहाती नहीं थी।"

"कोई झगड़ा हुआ था?"

"नहीं।"

“वह तुम्हें पहले मारने आई थी?"

"नहीं।"

"तुम पर किसी तरह का जुल्म किया था?"

"नहीं।"

इस तरह का जवाब सुनकर सब दंग रह गए।

छदामी एकदम घबरा गया, बोला, "यह ठीक नहीं कह रही है। पहले बड़ी बहू ...

दारोगा ने बड़े जोर से डांटकर उसे चुप कर दिया। अन्त तक बार-बार नियमानुसार जिरह करने पर भी, वही एक ही तरह का जवाब मिला। बड़ी बहू की तरफ से किसी तरह का हमला होना चन्दा ने किसी भी तरह मंजूर नहीं किया तो नहीं ही किया।

ऐसी अपनी जिद की पक्की औरत शायद ही कहीं देखने में आती हो। एक रुख से जी-जान से कोशिश करके फांसी के तख्ते की तरफ झुकी जा रही है, किसी भी तरह रोके नहीं रुकती! यह कैसा खतरनाक रूठना है! चन्दा शायद मन-ही-मन कह रही थी कि 'मैं तुम्हें छोड़कर अपने इस नवयौवन को लेकर फांसी के तख्ते पर चढ़ जाऊंगी, फांसी की रस्सी को गले लगाऊंगी, मेरे इस जन्म का आखिरी बन्धन उसी के साथ है।

बन्दिनी होकर चन्दा, एक भोली-भाली छोटी-सी चंचल कौतूहल-प्रिय गांव की वधू, चिरपरिचित गांव के रास्ते से, जगन्नाथ के मन्दिर के सामने से, बीच बाजार से, घाट के किनारे से, मजुमदारों के घर के सामने से, डाकखाना और स्कूल के बगल से, सभी परिचित लोगों की आंखों के सामने से, कलंक की छाप लिए हमेशा के लिए घर छोड़कर चली गई। लड़कों का एक झुंड पीछे-पीछे चला जा रहा था, और गांव की औरतें, उसकी सखी-सहेलियां, कोई घूंघट की संध में से, कोई दरवाजे की बगल से और कोई पेड़ की ओट में खड़ी होकर सिपाहियों से घिरी चन्दा को जाती देख शर्म से, घृणा से, डर से रोमांचित हो उठीं।

डिप्टी मजिस्ट्रेट के समाने भी चन्दा ने अपना ही कसूर कबूल किया। और 'दुर्घटना से पहले बड़ी बहू ने उस पर किसी तरह की ज्यादती या जुल्म किया था' यह बात उसके मुंह से किसी भी तरह निकली ही नहीं।

पर छदामी उस दिन गवाही के कठघरे में पहुंचते ही रो दिया और हाथ जोड़कर बोला, "दुहाई है, हजूर, मेरी बहू का कोई कसूर नहीं।"

हाकिम ने धमकाकर उससे उच्छ्वास को रोककर उससे सवाल करना शुरू कर दिया। उसने एक-एक करके सारा-का-सारा कच्चा चिट्ठा कह सुनाया।

किन्तु हाकिम ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। कारण, मुख्य विश्वस्त और शरीफ गवाह रामलोचन ने कहा, “खून होने के थोड़ी देर बाद मैं घटनास्थल पर पहुंचा था। गवाह छदामी ने मेरे सामने सब कबूल करके मेरे पैरों पर गिरकर कहा था कि 'बहू को किस तरह बचाऊं, कोई रास्ता बताइए। मैंने भला-बुरा कुछ भी नहीं कहा गवाह ने मुझसे पूछा कि 'मैं अगर कहूं कि मेरे बड़े भाई ने खाने को मांगा था, सो उसने दिया नहीं, इस पर गुस्से में आकर भाई ने स्त्री को मार डाला, तो यह बच' जाएगी? 'मैंने कहा, 'खबरदार, हरामजादे, अदालत में एक हरूफ भी झूठ न बोलना, इससे बढ़कर महापाप और नहीं है।" इत्यादि-इत्यादि।

रामलोचन ने पहले चन्दा को बचाने के लिए बहुत-सी बातें गढ़ डाली थीं, किन्तु जब देखा कि चन्दा खुद ही अड़कर फंस रही है, तब सोचा कि 'अरे बाप रे, अन्त में कहीं मुझे ही झूठी गवाही के जुल्म में न पड़ना पड़े! इससे जितना जानता हूं उतना ही कहना अच्छा। यह सोचकर उसने उतना ही कहा, बल्कि उससे भी कुछ ज्यादा कहने में कसर न रखीं।

डिप्टी मजिस्ट्रेट ने मामला सेशन सुपुर्द कर दिया।

इस बीच में खेती-बारी, हाट-बाजार, रोना-हंसना आदि संसार के सभी काम चलने लगे। पहले की तरह फिर हरे धान के खेतों में सावन की बरसाती बौछार झरने लगी।

पुलिस मुलजिम और गवाहों को लेकर सेशन जज की अदालत में हाजिर हुई। इजलास में बहुत से लोग अपने-अपने मुकदमे की पेशी की इन्तजारी में बैठे हैं। रसोईघर के पीछे की एक छोटी-सी गन्दी तलैया के कुछ हिस्से को लेकर एक मामला चल रहा है, जिसकी पैरवी के लिए कलकत्ते से वकील बुलाए गए हैं, और फरियादी की तरफ से उनतालीस रती-रत्ती बाल की खाल निकालनेवाला फैसला कराने के लिए व्याकुल गवाह हाजिर हुए हैं। सब अपने-अपने हक-हिसाब का कौड़ी-कौड़ी, होकर दौड़े आए हैं- उनकी धारणा है, फिलहाल उनके लिए इससे बढ़कर संसार में और कोई जरूरी काम नहीं है।

छदामी खिड़की में से रोजमर्रा की इस बेहद बेचैन दुनिया की तरफ एकटक देख रहा है, सबकुछ उसे सपना-सा मालूम होता है। अदालत के अहाते के भीतर के वटवृक्ष पर एक कोयल बोल रही है, उनके यहां किसी तरह का संविधान, कानून और अदालत नहीं है।

चन्दा ने जज के सामने झुंझलाकर कहा, "अरे हजूर साहब, अब एक ही बात को बार-बार कितनी बार बताऊं?"

जज ने उसे समझाकर कहा, "तुम जिस कसूर को मंजूर कर रही हो उसकी सजा क्या है, जानती हो?"

चन्दा ने कहा, "नहीं।"

जज ने कहा, "उसकी सजा है फांसी, मौत!"

चन्दा ने कहा, "हजूर साहब, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, मुझे तुम वही सजा दे दो, अब मुझसे सहा नहीं जाता।"

जब छदामी को अदालत में पेश किया गया, तो चन्दा ने उसकी तरफ से मुंह फेर लिया।

जज ने कहा, "सुनो, इधर गवाह की तरफ देखकर बताओ, यह तुम्हारा कौन लगता है?"

चन्दा ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढंककर कहा, "यह मेरा मालिक लगता है।"

जज ने पूछा, “तुम्हें यह चाहता है?"

चन्दा ने जवाब दिया, “उफ्! बहुत ज्यादा चाहता है कि!"

जज ने पूछा, “तुम इसे नहीं चाहतीं?"

चन्दा ने जवाब दिया, "बहुत ज्यादा चाहती हूं कि"

छदामी से जब पूछा गया तो उसने कहा, "मैंने खून किया है।"

जज ने पूछा, "क्यों?"

छदामी ने कहा, "खाने को मांगा था, सो उसने दिया नहीं।"

दुक्खी गवाही देने आया तो वह मूर्च्छिल हो गया। होश आने पर उसने जवाब दिया, "हजूर साहब, खून मैंने किया है।"

"खाने को मांगा था, सो उसने दिया नहीं था।"

बहुत जिरह करके तथा और और गवाहों के बयान सुनकर जज साहब ने साफ-साफ समझ लिया कि घर की बहू को फांसी की बेइज्जती से बचाने के लिए ही दोनों भाई कसूर मंजूर कर रहे हैं।

किन्तु चन्दा थाने से लेकर सेशन-अदालत तक बराबर एक ही बात कहती आ रही है, उसकी बात में जरा भी कहीं फर्क नहीं पड़ा।

वकीलों ने खुद आगे आकर उसे फांसी से बचाने के लिए बहुत कोशिश की, लेकिन अन्त में उन्हें हार माननी पड़ी।

जिस दिन जरा-सी उमर की एक काली काली छोटी-मोटी लड़की अपना गोल-मटोल मुंह लिए, गुड्डा-गुड़िया फेंककर, अपना बाप महतारी का घर छोड़कर ससुराल आई थी, उस दिन रात को शुभलग्न के समय आज के इस दिन की भला कौन कल्पना कर सकता था? उसका बाप मरते समय यह कहकर निश्चिन्त हुआ था कि 'खैर, कुछ भी हो, मेरी लड़की तो ठीक-ठिकाने से लग गई।'

जेलखाने में फांसी के पहले मेहरबान सिविल सर्जन साहब ने चन्दा से पूछा, "किसी को देखने की मन में है?"

चन्दा ने कहा, "एक बार अपनी मां को देखना चाहती हूं।"

डाक्टर ने कहा, "तुम्हारा मालिक तुम्हें देखना चाहता है, उसे बुलवा लिया जाए?"

चन्दा बोली, "हूं: हू, मौत भी न आई?"

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