सैलाब (कहानी) : उपेन्द्रनाथ अश्क
Sailab (Hindi Story) : Upendranath Ashk
सर ग़रूर बुलंद कर के साहिल ने समुंदर से कहा, मेरी शान ही से तेरी शान है।
समुंदर ने पुर-शोर क़हक़हा लगाया और किनारे को बहा दिया।
पण्डित राधे शाम एक रुजअत-पसंद अख़बार के एडिटर और मालिक थे। उनका ज़मीर इस पज़मुर्दा चिंगारी की तरह था, जो ख़ुशामद और चापलूसी की मनों राख के नीचे दब गई हो। क़ौमी तहारीक से वो दूर भागते थे। तरक़्क़ी-पसंद अंजुमनों की कमज़ोरियों को बे-नक़ाब कर के उन्हें कोसना, उनका रोज़ का मामूल था और उनकी इस ख़िदमत के इवज़ उन्हें सरकारी इश्तिहारात मिलते थे। अगरचे उनके अख़बार की इशाअत चंदाँ हौसला अफ़्ज़ा न थी।
उस वक़्त जब सूबा भर के अख़बारात क़ौमी तहरीक की हिमायत कर रहे थे। नौजवानों की क़ुर्बानियों पर उनकी हौसला अफ़ज़ाई कर रहे थे। नमक के क़ानून को तोड़ने की तलक़ीन करते हुए उसके पर्दे में वो देर से सोई हुई क़ौमी तहरीक की बेदारी के ख़्वाब देख रहे थे। उनके दिन रात तहरीक की मुख़ालिफ़त करने में सर्फ़ हो रहे थे।
वो तहरीक के ख़िलाफ़ लिखते थे। उसके मुहर्रिकों का मज़ाक़ उड़ाते थे और कहते थे, "क़ौम की ताक़त और वक़्त एक निहायत फ़ुज़ूल और बेमानी तहरीक के लिए सर्फ़ किए जा रहे हैं। मुल्क में बीसियों क़िस्म के टैक्स वसूल किए जाते हैं। नमक का टैक्स कोई बड़ा भारी टैक्स नहीं। अगर उसे मंसूख़ भी कर दिया गया तो इससे कोई ख़ास फ़ायदा नहीं पहुँचेगा। साठ हज़ार! सिर्फ़ साठ हज़ार, हालाँकि लाखों रुपया ऐश-ओ-इशरत में सर्फ़ हो रहा है।"
लेकिन जब उन्हें कोई बताता कि नमक के टैक्स का बार मुफ़लिस लोगों पर ज़्यादा पड़ता है और ग़रीबों के लिए साठ हज़ार रुपया साठ लाख के बराबर है तो वो एक फीकी हंसी हंसकर बे-ज़ारी से सर हिला देते।
वो सिर्फ़ नमक की तहरीक के ख़िलाफ़ हों, ये बात न थी। वो हर तरक़्क़ी पसंद तहरीक के ख़िलाफ़ थे। वो उन क़दामत पसंद लोगों में से थे जो ब्रिटिश राज को हिन्दोस्तान के लिए रहमत तसव्वुर करते हैं और सोचा करते हैं कि अगर ये राज न रहा तो हिन्दोस्तान में फिर अबतरी का दौर दौरा हो जाएगा।
सूबा भर के अख़बार और रिसाले उनका मज़ाक़ उड़ाया करते। अपने ग़पशप के कालमों में उस पर फब्तियां कसा करते। अंग्रेज़ी दानों में वो YES MAN और उर्दू वालों में 'जी हुज़ूरिये' के नाम से मशहूर थे। लेकिन उन्हें इस बात की शर्म न थी। बल्कि सरकार की ख़ुशनुदी हासिल करने में, इश्तिहारात लेने में, उनके हमअसरों के दिए हुए यही ख़ताबात उनके काम आते थे और सितम ज़रीफ़ी ये कि उनके अख़बार का नाम 'रहबर' था।
कांग्रस की तरफ़ से शहर में नमक के क़ानून को तोड़ने का ऐलान कर दिया गया था। एक अज़ीमुश्शान जलूस की तैयारियां हो रही थीं। प्रोग्राम मुरत्तिब हो चुका था। इतवार का दिन था और अख़बारों में चूँकि छुट्टी थी। इस लिए हर अख़बार ने अपने ज़मीमे निकालने का इंतिज़ाम कर रखा था और लोग बड़ी बेताबी से उनका इंतिज़ार कर रहे थे। ताकि सही प्रोग्राम से रुशनास हो सकें। कमला भी घर के काम काज से फ़ारिग़ हो कर अख़बार की मुंतज़िर थी।
वो पण्डित राधे शाम की आज़ाद ख़याल बीवी थी। वो उसे हमेशा 'रहबर' ही पढ़ने के लिए देते थे। वो दफ़्तर में चाहे कितने अख़बार मँगाएं। लेकिन घर उनमें से एक को भी न जाने देते थे और कमला हमेशा चाहा करती थी कि वो तस्वीर का दूसरा रुख भी देखे, अपनी सहेलियों से जो वो सुनती थी, अगरचे उसका एक लफ़्ज़ भी अपने ख़ावंद के सामने ज़बान से न निकलने देती थी। लेकिन वो चाहती थी कि उसके ख़ावंद ये सब चापलूसी छोड़ दें। ख़ुशामद की सारी से ख़ुद्दारी की आधी भली, लेकिन अपने ख़ावंद के मुँह पर उसने कभी कुछ भी न कहा था।
चपरासी आकर 'रहबर' का ज़मीमा फेंक गया। इस दो वर्क़ के अख़बार में भी उन्होंने इस तहरीक के ख़िलाफ़ एक छोटा सा लीड लिख रखा था। रंज और ग़ुस्सा के मारे कमला ने अख़बार के पुर्जे़ पुर्जे़ कर दिए और उन्हें कोने में फेंक कर कोच में धँस गई। तभी उसके ख़ावंद, 'रहबर' के क़दामत पसंद एडिटर श्री राधे शाम कमरे में दाख़िल हुए। फटे हुए अख़बार के पुर्ज़ों को देखकर उन्होंने ज़रा तीखे लहजे में कहा, "ये क्या बेहूदगी है?"
कमला चप कोच पर बैठी थी।
उन्होंने फिर गरज कर कहा, "ये क्या बेहूदगी है।"
कमला अब के भी चुप रही, उसने सिर्फ़ एक-बार अपने ख़ावंद की तरफ़ आँख उठा कर देखा।
बरस ही पड़ने को तैयार बादल की तरह उसकी आँखें भरी हुई थीं।
राधे शाम आहिस्ता से उसके पास कोच पर बैठ गए। उन्होंने कहा, "देख कमला, मैं ये सब बर्दाश्त नहीं कर सकता। मुझे ये सब झगड़ा बिल्कुल नापसंद है, बाहर ही मेरी कम मुख़ालिफ़त नहीं होती जो घर में इस की ज़रूरत बाक़ी रह जाये।"
"आप मुख़ालिफ़त की वजह क्यों पैदा करते हैं।"
पण्डित राधे शाम ने फिर जोश से कहा, "मैं हर फ़ुज़ूल तहरीक की तक़लीद नहीं कर सकता। मैं न आम लोगों की तरह दिमाग़ से आरी हूँ कि जो कोई कहे उसे मान कर अंधा धुंद उसकी तक़लीद करूँ, न में बेकार हूँ कि कुछ करते रहने के लिए हर तहरीक का फ़ायदा उठाने की कोशिश करूँ। और न मुझे शोहरत की तमन्ना है कि अवाम को ग़लत रास्ते पर लगा कर अपनी लीडरी क़ायम रखूं।"
कमला ने चीख़ कर कहा, "आप देश का कुछ फ़ायदा नहीं कर सकते तो देश भगतों को गालियां तो न दें। अपनी ख़ुदग़रज़ी को छुपाने के लिए कोई दूसरा बहाना आपके पास नहीं क्या?"
और सारी के दामन में मुँह छुपा कर वो रोने लगी।
राधे शाम हँसे, "ख़ुदग़रज़ी!" ज़ेर-ए-लब उन्होंने कहा और फिर बोले, "सादा-लौह अवाम को छोड़कर कौन ग़रज़मंद नहीं। सब अपनी अपनी ग़रज़ के लिए तहरीकों का फ़ायदा उठाते हैं। किसी को इज़्ज़त की तमन्ना है, किसी को शोहरत की। किसी को काम की ख़्वाहिश है किसी को नाम की, मुझे उनमें से किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं, फिर मैं क्यों मुफ़्त में अवाम को धोका दूं, जो मुनासिब समझता हूँ लिखता हूँ।"
कमला अब कुछ भी न कहना चाहती थी लेकिन रुक न सकी। उसने कहा, "यूं क्यों नहीं कहते कि ऐश-ओ-आराम आपको इतना प्यारा है। ये बड़े बड़े कमरे, ये कुर्सियाँ-मेज़, ये काउच, ये क़ीमती कपड़े और ये सब ऐश-ओ-आराम के सामान आपको इतने अज़ीज़ हैं कि इसकी ख़ातिर आप अपने ज़मीर को फ़रोख़्त कर सकते हैं।"
"तो क्या मैं अकेला ही इन सबको इस्तिमाल करता हूँ, क्या तुम्हारे आराम के लिए मैं ये सब नहीं करता।" उन्होंने गरज कर कहा।
"मुझे इन सबकी कोई ज़रूरत नहीं।" और वो उठकर अंदर कमरे में चली गई। कुछ लम्हा तक मब्हूत से राधे शाम वहीं बैठे रहे। फिर वो हँसे और ज़ेर-ए-लब उन्होंने कहा, "बेवक़ूफ़! और फिर...औरत!" और बेज़ारी से सर हिला कर वो उठे और बाहर चले गए।
"क़ानून नमक को...तोड़दो!"
"क़ानून नमक को...तोड़ दो!"
"क़ानून नमक को...तोड़दो!"
और फिर, "लंगोटी वाले की जय और बंदे मातरम।"
पण्डित राधे शाम बाज़ार के एक कोने में खड़े जलूस देख रहे थे। जूँ-जूँ जलूस गुज़रता जाता लोग दूकानों से उठकर, काम छोड़कर उसके साथ शामिल होते जाते। मर्दों-औरतों का एक बेपनाह हुजूम था। एक समुंदर था कि बहता बहाता चला जा रहा था।
सबसे आगे 'बाल भारत सभा' के लड़के थे। मासूमियत के नन्हे अवतार, छोटे छोटे झंडे लिये। "क़ानून नमक...तोड़दो।" के नारे लगाते जा रहे थे। उनके चेहरे जोश की वजह से सुर्ख़ हो रहे थे और उन पर एक जलाल बरस रहा था। थकावट की उन्हें परवा न थी। धूल की या धूप की उन्हें फ़िक्र न थी। बस एक ही धुन थी कि जब उनका 'नायक' ऊंची आवाज़ में कहे, "क़ानून नमक" तो वो उछल कर झंडियां हिला कर उस से भी ऊंची आवाज़ में नारा लगाऐं, "तोड़ दो।"
वहीं खड़े खड़े राधे शाम ने महसूस किया। जैसे उनका भी दिल एक मासूम बच्चे के क़ालिब में चला गया है और वो उन बच्चों के साथ इस अफ़्सानी समुंदर में लहरों सा बहा जा रहा है, तभी वो चौंक पड़े।
एक टोली के आगे आगे एक शख़्स बेतरह उछल रहा था। चेहरा जोश से सुर्ख़ था। सर के बालों की, क़मीज़ के गिरेबान या आस्तीनों की, उसे कुछ भी चिंता न थी। जुनूनियों की तरह वो उछल कर और बार-बार वो सामने ख़ला में इशारा कर के कहता था, "ओह की आया?" और सारी की सारी टोली चिल्ला उठती। "इन्क़िलाब" और ये शख़्स शहर का मशहूर वकील था। एम.ए, एल.एलबी.।
पंडित जी के सारे जिस्म में सनसनी दौड़ गई और उनके रौंगटे खड़े हो गए और वो दूर तक उसे देखते रहे। उछल उछल कर यही नारा लगाते देखते रहे।
जब वो चौंके तो फ़िज़ा में लेडी वालंटियरों का गीत गूंज रहा था और बाज़ारों की छतों पर बैठी हुई औरतें उनकी आवाज़ के साथ आवाज़ मिला कर गाने लगी थीं:
"असीं चीन लवांगे
क़ानून नमक नूं तोड़ के। असीं चीन..."
पंडित जी की आँखें खुली की खुली रह गईं। सबसे आगे आगे, हाथ में क़ौमी झंडा उठाए कमला, उनकी अपनी बीवी गा रही थी। "असीं चीन लवांगे" और सब उसकी आवाज़ में आवाज़ मिला कर गा रही थीं, "क़ानून नमक नूं तोड़ के।"
ख़वातीन का जुलूस गुज़र गया। उसके बाद शहर के सरकरदा लीडर नमक बनाने का सामान उठाए चले आ रहे थे। छतों से और दूकानों से उन पर फूलों की बारिश हो रही थी। उनके चेहरे मामूल से दुगुने मालूम होते थे।
और उनके बाद हज़ारों का हुजूम जैसे बहता हुआ चला जा रहा था। पंडित जी अपनी जगह से उतरे और हुजूम में शामिल हो गए।
तभी किसी ने ज़ोर से नारा लगाया,
"क़ानून नमक को"
सब बोले
"तोड़ दो।"
हुजूम की इस आवाज़ में पण्डित राधे शाम की आवाज़ भी शामिल थी लेकिन ये आवाज़ मुख़्तलिफ़ नहीं थी। अपने भाईयों की आवाज़ से हम-आहंग...एक आवाज़।