सहपाठी (बांग्ला कहानी) : सत्यजित राय
Sahpathi (Bangla Story in Hindi) : Satyajit Ray
अभी सुबह के सवा नौ बजे हैं।
मोहित सरकार ने गले में टाई का फंदा डाला ही था कि उस की
पत्नी अरुणा कमरे में आई और बोली, 'तुम्हारा फोन।'
'अब अभी कौन फोन कर सकता है भला! '
मोहित का ठीक साढ़े नौ बज़े दफ़्तर जाने का नियम रहा है। अब
घर से दफ़्तर को निकलते वक्त 'तुम्हारा फोन' सुन कर स्वभावत:
मोहित की त्यौरियां चढ़ गई।
अरुणा ने बताया, 'वह कभी तुम्हारे साथ स्कूल में पढ़ता था।'
'स्कूल में। अच्छा नाम बताया?'
'उस ने कहा कि जय नाम बताने पर ही वह समझ जाएगा।
मोहित सरकार ने कोई तीस साल पहले स्कूल छोड़ा होगा। उस की
क्लास में चालीस लड़के रहे होंगे। अगर वह बड़े ध्यान से सोचे
भी तो ज़्यादा-से-ज़्यादा बीस साथियों के नाम याद कर सकता है
और इस के साथ उनका चेहरा भी। सौभाग्य से जय या जयदेव के नाम
और चेहरे की याद अब भी उसे है लेकिन वह क्लास के सब से अच्छे
लड़कों में एक था। गोरा, सुंदर-सा चेहरा, पढ़ने-लिखने में
होशियार, खेल-कूद में भी आगे, हाई जंप में अव्वल। कभी-कभी वह
ताश के खेल भी दिखाया करता और हाँ, कैसेबियांका की आवृत्ति
में उस ने कोई पदक भी जीता था। स्कूल से निकलने के बाद मोहित
ने उसके बारे में कभी कोई खोज-ख़बर नहीं ली।
लेकिन
आज इतने सालों के बाद अपनी दोस्ती के बावजूद और कभी अपने
सहपाठी रहे इस आदमी के बारे में कोई ख़ास लगाव महसूस नही कर
रहा था।
खैर, मोहित ने फोन का रिसीवर पकड़ा।
'हैलो...'
'कौन मोहित! मुझे पहचान रहे हो भाई, मैं वहीं तुम्हारा जय...
जयदेव बोस। बाली गंज स्कूल का सहपाठी।'
'भई अब आवाज से तो पहचान नहीं रहा हाँ चेहरा ज़रूर याद है, बात
क्या है?
'तुम तो अब बड़े अफ़सर हो गए हो भई। मेरा नाम तुम्हें अब तक
याद रहा, यही बहुत है।'
'अरे यह सब छोड़ो बताओ बात क्या है?'
'बस यों ही थोड़ी ज़रूरत थी। एक बार मिलना चाहता हूँ तुम से।'
'कब?'
'तुम जब कहो। लेकिन थोड़ी जल्दी हो तो अच्छा...'
'तो फिर आज ही मिलो। मैं शाम को छह बजे घर आ जाता हूँ तुम सात
बजे आ सकोगे?'
'क्यों नहीं ज़रूर आऊँगा अच्छा तो धन्यवाद। तभी सारी बातें
होंगी।'
अभी हाल ही में
ख़रीदी गई आसमानी रंग की कार में दफ़्तर जाते हुए मोहित सरकार
ने स्कूल में घटी कुछ घटनाओं को याद करने की कोशिश की।
हेड-मास्टर गिरींद्र सुर की पैनी नज़र और बेहद गंभीर स्वभाव के
बावजूद स्कूली दिन भी सचमुच कैसी-कैसी खुशियों से भरे दिन थे।
मोहित खुद भी एक अच्छा विद्यार्थी था। शंकर, मोहित और जयदेव-
इन तीनों में ही प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। पहले, दूसरे और
तीसरे नंबर पर इन्हीं तीनों का बारी-बारी कब्ज़ा रहता। छठी से
ले कर मोहित सरकार और जयदेव बोस एक साथ ही पढ़ते रहते थे। कई
बार एक ही बेंच पर बैठ कर पढ़ाई की थी। फुटबॉल में भी दोनों का
बराबरी का स्थान था। मोहित राइट इन खिलाड़ी था तो जयदेव राइट
आउट। तब मोहित को जान पड़ता कि यह दोस्ती आज की नहीं, युगों की
हैं। लेकिन स्कूल छोड़ने के बाद दोनों के रास्ते अलग-अलग हो
गए। मोहित के पिता एक रईस आदमी थे, कलकत्ता के नामी वकील।
स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद, मोहित का दाखिला एक अच्छे
से कॉलेज में हो गया और यहाँ की पढ़ाई समाप्त हो जाने के दो
साल बाद ही उस की नियुक्ति एक बड़ी कारोबारी कंपनी के अफ़सर के
रूप में हो गई। जयदेव किसी दूसरे शहर में किसी कॉलेज में भर्ती
हो गया था। दर असल उसके पिताजी की नौकरी बदली वाली थी। सबसे
हैरानी की बात यह थी कि कॉलेज में जाने के बाद मोहित ने जयदेव
की कमी को कभी महसूस नहीं किया। उस की जगह कॉलेज के एक दूसरे
दोस्त ने ले ली। बाद में यह दोस्त भी बदल गया, जब कॉलेज जीवन
भी पूरा हो जाने के बाद मोहित की नौकरी वाली ज़िन्दगी शुरू हो
गई। मोहित अपनी दफ़्तरी दुनिया में चार बड़े अफ़सरों में से एक
है और उसके सबसे अच्छे दोस्तों में उसका ही एक सहकर्मी है।
स्कूल के साथियों में एक प्रज्ञान सेनगुप्त है। लेकिन स्कूल की
यादों में प्रज्ञान की कोई जगह नहीं हैं। लेकिन जयदेव- जिस के
साथ पिछले तीस सालों से मुलाक़ात तक नहीं हुई हैं... उसकी
यादों ने अपनी काफी जगह बना रखी है। मोहित ने उन पुरानी बातों
को याद करते हुए इस बात की सच्चाई को बड़ी गहराई से महसूस
किया।
मोहित का दफ़्तर सेंट्रल
एवेन्यू में हैं। चौरंगी और सुरेन्द्र बॅनर्जी रोड के मोड़ पर
पहुँचते ही गाड़ियों की भीड़, बसों के हॉर्न और धुएँ से मोहित
सरकार की यादों की दुनिया ढह गई और वह सामने खड़ी दुनिया के
सामने था। अपनी कलाई घड़ी पर नज़र दौड़ाते हुए ही वह समझ गया
कि वह आज तीन मिनट देर से दफ़्तर पहुँच रहा है।
दफ़्तर का काम निपटा कर,
मोहित जब ली रोड स्थित अपने घर पहुँचा तो बाली गंज गवर्नमेंट
स्कूल के बारे में उसके मन में रत्ती भर याद नहीं बची थी। यहाँ
तक कि वह सुबह टेलीफोन पर हुई बातों के बारे में भी भूल चुका
था। उसे इस बात की याद तब आई, जब उसका नौकर विपिन ड्राइंग रूम
में आया और उसने उस के हाथों में एक पुर्जा थमाया। यह किसी
लेखन-पुस्तिका में से फाड़ा गया पन्ना था... मोड़ा हुआ। इस पर
अँग्रेज़ी में लिखा था - 'जयदेव बोस एज़ पर अपाइंटमेंट।'
रेडियो पर बी.बी.सी. से आ रही ख़बरों को सुनना बंद कर मोहित ने
विपिन को कहा, 'उसे अन्दर आने को कहो।'
लेकिन उसने दूसरे ही पल यह
महसूस किया कि जय इतने दिनों बाद मुझ से मिलने आ रहा है, उस के
नाश्ते के लिए कुछ मँगा लेना चाहिए था। दफ़्तर से लौटते हुए
पार्क स्ट्रीट से वह बड़े आराम से केक या पेस्ट्री वगैरह कुछ
भी ला ही सकता था, लेकिन उसे जय के आने की बात याद ही नहीं
रही। पता नहीं, उसकी घरवाली ने इस बारे में कोई इंतज़ाम कर रखा
है या नहीं।
'पहचान रहे हो?'
इस सवाल को सुन कर और इसके बोलने वाले की ओर देख कर मोहित
सरकार की मनोदशा कुछ ऐसी हो गई कि बैठक वाले कमरे की सीढ़ी पार
करने के बाद भी उसने नीचे की ओर एक कदम और बढ़ा दिया था - जब
कि वहाँ कोई सीढ़ी नहीं थी।
कमरे की चौखट पार करने के
बाद, जो सज्जन अंदर दाखिल हुए थे, उन्होंने एक ढीली-ढाली सूती
पतलून पहन रखी थी। इस के ऊपर एक घटिया छापे वाली सूती क़मीज़।
दोनों पर कभी इस्तरी की गई हो, ऐसा नहीं जान पड़ा। कमीज़ की
कॉलर से जो सूरत झाँक रही थी, उसे देख कर मोहित अपनी याद में
बसे जयदेव से उसका कोई तालमेल नहीं बिठा सका। आने वाले का
चेहरा सूखा, गाल पिचके, आँखे धँसी, देह का रंग धूप में तप-तप
कर काला पड़ गया था। इस चेहरे पर तीन-चार दिनों की कच्ची-पक्की
मूँछें उगी थी। माथे के उपर एक मस्सा और कनपटियों पर बेतरतीब
ढंग से फैले ढेर सारे पके हुए बाल।
उस आदमी ने यह सवाल झूठी हँसी
के साथ पूछा था- उसकी दाँतों की कतार भी मोहित को दिख पड़ी।
पान खा-खा कर सड़ गए ऐसे दाँतों के साथ हँसने वाले को सबसे
पहले अपना मुँह हथेली से ढाँप लेना चाहिए।
'काफी बदल गया हूँ न?'
'बैठो।'
मोहित अब तक खड़ा था। सामने वाले सोफ़े पर उस के बैठ जाने के
बाद मोहित भी अपनी जगह पर बैठ गया। मोहित के विद्यार्थी जीवन
की तस्वीर उस के एलबम में पड़ी है। उस तस्वीर में चौदह साल के
मोहित के साथ आज के मोहित को पहचान पाना बहुत मुश्किल नहीं है।
तो फिर सामने बैठे जय को पहचान पाना इतना कठिन क्यों हो रहा
है? सिर्फ़ तीस सालों में क्या चेहरे में इतना बदलाव आ जाते
हैं?
'तुम्हें पहचान पाने में कोई मुश्किल नहीं हो रही है। रास्ते
पर भी देख लेता तो पहचान जाता।' भला आदमी आते ही शुरू हो गया
था, 'दर असल मुझ पर मुसीबतों का पहाड़-सा टूट पड़ा है। कॉलेज
में ही था कि पिता जी गुज़र गए। मैं पढ़ना-लिखना छोड़ कर नौकरी
की तलाश में भटकता रहा और बाकी तुम्हें पता है ही। अच्छी
किस्मत और सिफ़ारिश न हो तो आज के ज़माने में हम जैसे लोगों के
लिए...'
'चाय तो पियोगे?'
'चाय हाँ लेकिन।'
मोहित ने विपिन को बुला कर चाय लाने को कहा। इसके साथ उसे यह
सोच कर राहत मिली कि केक या मिठाई न भी हो तो कोई ख़ास बात
नहीं। इसके लिए बिस्कुट ही काफ़ी होगा।
'ओह!' उस भले आदमी ने कहा, 'आज दिन भर न जाने कितनी पुरानी
बातें याद करता रहा। तुम्हें क्या बताऊँ...'
मोहित का भी कुछ समय ऐसे ही बीता है। लेकिन उसने ऐसा कुछ कहा
नहीं।
'एल.सी.एम. और जी.सी.एम. की बातें याद हैं?'
मोहित को इस बारे में पता न था लेकिन प्रसंग आते ही उसे याद आ
गया, एल.सी.एम. यानी पी.टी. मास्टर लालचांद मुखर्जी और
जी.सी.एम. यानी गणित के टीचर गोपेन्द्र चंद्र मितिर।
'स्कूल में ही पानी की टंकी के पीछे हम दोनों को ज़बरदस्ती
आसपास खड़ा कर बॉक्स कैमरे से किसी ने हमारी तस्वीर खींची थी,
याद है?'
अपने होठों के कोने पर एक
मीठी मुस्कान चिपका कर मोहित ने यह जता दिया कि उसे अच्छी तरह
याद है। आश्चर्य, ये सब तो सच्ची बातें हैं और अब भी अगर यह
जयदेव न हो तो इतनी बातों के बारे में इसे पता कैसे चला?
'स्कूली जीवन के वे पाँचों साल, मेरे जीवन के सब से अच्छे साल
थे।' आने वाले ने बताया और फिर अफ़सोस जताया, 'वैसे दिन अब
दोबारा कभी नहीं आएँगे भाई!'
'लेकिन तुम तो लगभग मेरी ही उम्र के हो।' मोहित इस बात को कहे
बिना रह नहीं पाया।
'मैं तुम से कोई तीन-चार महीने छोटा ही हूँ।'
'तो फिर तुम्हारी यह हालत कैसे हुई? तुम तो गंजे हो गए?'
'परेशानी और तनाव के सिवा और क्या वजह होगी?' आगंतुक ने बताया,
'हालाँकि गंजापन तो हमारे परिवार में पहले से ही रहा है। मेरे
बाप और दादा दोनों ही गंजे हो गए थे सिर्फ़ पैंतीस साल की उम्र
में। मेरे गाल धँस गए हैं- हाड़-तोड़ मेहनत की वजह से और ढंग
का खाना कहाँ नसीब होता है? और तुम लोगों की तरह मेज़-कुर्सी
पर बैठ कर तो हम लोग काम नहीं करते। पिछले सात साल से एक
कारखाने में काम कर रहा हूँ, इसके बाद मेडिकल सेल्समैन के नाते
इधर-उधर की भाग-दौड़, बीमे की दलाली, इसकी दलाली, उसकी दलाली।
किसी एक काम में ठीक से जुटे रहना अपने नसीब में कहाँ! अपने ही
जाल में फँसी मकड़ी की तरह इधर-उधर घूमता रहता हूँ। कहते हैं न
देह धरे का दंड। देखना है यह देह भी कहाँ तक साथ देती है। तुम
तो मेरी हालत देख ही रहे हो!'
विपिन चाय ले आया था। चाय के
साथ संदेश और समोसा भी। गनीमत है, पत्नी ने इस बात का ख़याल
रखा था। लेकिन अपने सहपाठी की इस टूटी-फूटी तस्वीर देख कर वह
क्या सोच रही होगी...इसका अंदाज़ उसे नहीं हो पाया।
'तुम नहीं लोगे?' आगंतुक ने पूछा।
मोहित ने सिर हिला कर कहा, 'नहीं, अभी-अभी पी है।'
'संदेश तो ले लो।'
'नहीं तुम शुरू तो करो ।'
भले आदमी ने समोसा उठा कर मुँह में रखा और इस का एक टुकड़ा
चबाते-चबाते बोला, 'बेटे का इम्तिहान सिर पर है और मेरी
परेशानी यह है मोहित भाई कि मैं उसके लिए फीस के रुपए कहाँ से
जुटाऊँ? कुछ समझ में नहीं आता।'
अब आगे कुछ कहने की ज़रूरत
नहीं थी। मोहित समझ गया। इसके आने के पहले ही उसे समझ लेना
चाहिए था कि क्या माजरा है? आर्थिक सहायता और इसके लिए
प्रार्थना। आख़िर यह कितनी रकम की मदद माँगेगा? अगर बीस-पच्चीस
रुपए दे देने पर भी पिंड छूट सके तो वह खुशकिस्मती ही होगी और
अगर यह मदद नहीं दी गई तो यह बला टल पाएगी ऐसा नहीं कहा जा
सकता।
''पता
है, मेरा बेटा बड़ा होशियार है! अगर उसे अभी यह मदद नहीं मिली
तो उस की पढ़ाई बीच में ही रुक जाएगी।
मैं जब-जब इस बारे में सोचता हूँ तो मेरी रातों की नींद हराम
हो जाती है।'
प्लेट से दूसरा समोसा उड़ चुका था। मोहित ने मौका पा कर किशोर
जयदेव के चेहरे से इस आगंतुक के चेहरे को मिला कर देखा और अब
उसे पूरा यकीन हो गया कि उस बालक के साथ इस अधेड़ आदमी का कहीं
कोई मेल नहीं।
'इसलिए कह रहा था कि ' चाय की चुस्की भरते आगंतुक ने आगे कहा,
'अगर तुम सौ-डेढ़ सौ रुपए अपने इस पुराने दोस्त को दे सको
तो...'
'वेरी सॉरी।'
'क्या?'
मोहित ने मन-ही-मन यह सोच रखा था कि अगर बात रुपए-पैसे पर आई
तो वह एकदम 'ना' कर देगा। लेकिन अब जा कर उसे लगा कि इतनी
रुखाई से मना करने की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए अपनी गलती की
मरम्मत करते हुए उसने बड़ी नरमी से कहा, 'सॉरी भाई। अभी मेरे
पास कैश रुपए नहीं हैं।'
'मैं कल आ सकता हूँ।'
'मैं कलकत्ता के बाहर रहूँगा। तीन दिनों के बाद लौटूँगा। तुम
रविवार को आ जाओ।'
'रविवार को?'
आगंतुक
थोड़ी देर तक चुप रहा। मोहित ने भी मन-ही-मन में कुछ ठान लिया
था। यह वही जयदेव है, इस का कोई प्रमाण नहीं है। कलकत्ता के
लोग एक -दूसरे को ठगने के ही हज़ार तरीके जान गए हैं। किसी के
पास से तीस साल पहले के बाली गंज स्कूल की कुछ घटनाओं के बारे
में जान लेना कोई मुश्किल काम नहीं था। वही सही।
'मैं रविवार को कितने बजे आ जाऊँ?'
'सवेरे -सवेरे ही ठीक रहेगा।'
शुक्रवार को ईद की छुट्टी है।
मोहित ने पहले से ही तय कर रखा है कि यह अपनी पत्नी के साथ
बारूईपुर के एक मित्र के यहाँ उन के बागान बाड़ी में जा कर
सप्ताहांत मनाएगा। वहाँ दो-तीन दिन तक रुक कर रविवार की रात को
ही घर लौट पाएगा। इसलिए वह भला आदमी जब रविवार की सुबह घर पर
आएगा तो मुझ से मिल नहीं पाएगा। इस बहाने की ज़रूरत नहीं
पड़ती, अगर मोहित ने दो टूक शब्द में उससे 'ना' कह दिया होता।
लेकिन ऐसे भी लोग होते हैं जो एकदम ऐसा नहीं कह सकते। मोहित
ऐसे ही स्वभाव का आदमी है। रविवार को उससे मुलाक़ात न हाने के
बावजूद वह कोई दूसरा तरीका ढूँढ़ निकाले तो मोहित उससे भी बचने
की कोशिश करेगा। शायद इस के बाद किसी दूसरी परेशानी का सामना
करने की नौबत नहीं आएगी।
आगंतुक ने आखिरी बार चाय की
चुस्की ली और कप को नीचे रखा था कि कमरे में एक और सज्जन आ गए।
ये मोहित के अंतरंग मित्र थे - वाणीकांत सेन। दो अन्य सज्जनों
के भी आने की बात है, इसके बाद यहीं ताश का अड्डा जमेगा। उसने
भले आगंतुक की तरफ़ शक की नज़रों से देखा। मोहित इसे भाँप गया।
आगंतुक के साथ अपने दोस्त का परिचय कराने की बात मोहित बुरी
तरह टाल गया।
'अच्छा तो फिर मिलेंगे, अभी चलता हूँ।' कह कर अजनबी आगंतुक उठ
ख़ड़ा हुआ, 'तू मुझ पर यह उपकार कर दे, मैं सचमुच तेरा ऋणी
रहूँगा।'
उस भले आदमी के चले जाने के बाद वाणीकांत ने मोहित की ओर
हैरानी से देखा और पूछा, 'यह आदमी तुम से 'तू' कह कर बातें कर
रहा था - बात क्या है?'
'इतनी देर तक तो तुम ही कहता
रहा था। बाद में तुम्हें सुनाने के लिए ही अचानक तू कह गया।'
'कौन है यह आदमी?'
मोहित कोई जवाब दिए बिना बुक-शेल्फ की ओर बढ़ गया और उस पर से
एक पुराना फोटो एलबम बाहर निकाल लाया। फिर इसका एक पन्ना उलट
कर वाणीकांत को सामने बढ़ा दिया।
'यह तुम्हारे स्कूल का ग्रुप है शायद?'
'हाँ, बोटोनिक्स में हम सब पिकनिक के लिए गए थे।' मोहित ने
बताया।
'ये पाँचों कौन-कौन हैं?'
'मुझे नहीं पहचान रहे?'
'रुको, ज़रा देखने तो दो।'
एलबम को अपनी आँखों के थोड़ा
नज़दीक ले जाते ही बड़ी आसानी से वाणीकांत ने अपने मित्र को
पहचान लिया।
'अच्छा, अब मेरी बाईं ओर खड़े इस लड़के को अच्छी तरह देखो।'
तस्वीर को अपनी आँखों के कुछ और नज़दीक ला कर वाणीकांत ने कहा,
'हाँ, देख लिया।'
'अरे, यही तो है वह भला आदमी, जो अभी-अभी यहाँ से उठ कर गया।'
मोहित ने बताया।
'स्कूल से ही तो जुआ खेलने की लत नहीं लगी है इसे?' एलबम को
तेज़ी से बंद कर इसे सोफ़े पर फेंकते हुए वाणीकांत ने फिर कहा,
'मैंने इस आदमी को कम-से-कम तीस-बत्तीस बार रेस के मैदान में
देखा हैं।'
'तुम ठीक कह रहे हो,' मोहित सरकार ने हामी भरी और इस के बाद
आगंतुक के साथ क्या-क्या बातें हुई, इस बारे में बताया।
'अरे, थाने में खबर कर दो।' वाणीकांत ने उसे सलाह दी, 'कलकत्ता
अब ऐसे ही चोरों, लुटेरों और उचक्कों का डिपो हो गया है। इस
तस्वीर वाले लड़के का ऐसा पका जुआड़ी बन जाना नामुमकिन है
असंभव।'
मोहित हौले-से मुस्कुराया और फिर बोला, 'रविवार को जब मैं उसे
घर पर नहीं मिलूँगा तो पता चलेगा। मुझे लगता है इस के बाद यह
इस तरह की हरकतों से बाज़ आएगा।'
अपने बारूइपुर वाले मित्र के
यहाँ पोखर की मच्छी, पॉल्टरी के ताज़े अंडे और पेड़ों में लगे
आम, अमरूद, जामुन डाब और सीने से तकिया लगा ताश खेल कर, तन-मन
की सारी थकान और जकड़न दूर कर मोहित सरकार रविवार की रात
ग्यारह बजे जब अपने घर लौटा तो अपने नौकर विपिन से उसे खबर
मिली कि उस दिन शाम को जो सज्जन आए थे - वे आज सुबह भी घर आए
थे।
'कुछ कह कर गए हैं?'
'जी नहीं।' विपिन ने बताया।
चलो जान बची। एक छोटी-सी जुगत से बड़ी बला टली। अब वह नहीं
आएगा। पिंड छूटा।
लेकिन नहीं। आफत रात भर के
लिए ही टली थी। दूसरे दिन सुबह यही कोई आठ बजे, मोहित जब अपनी
बैठक में अख़बार पढ़ रहा था तो विपिन ने उस के सामने एक और
तहाया हुआ पुर्जा ला कर रख दिया। मोहित ने उसे खोल कर देखा। वह
तीन लाइनों वाली चिट्ठी थी -- 'भाई मोहित, मेरे दाएँ पैर में
मोच आ गई है, इसलिए बेटे को भेज रहा हूँ। सहायता के तौर पर जो
थोड़ा-बहुत बन सके, इस के हाथ में दे देना, बड़ी कृपा होगी।
निराश नहीं करोगे, इस आशा के साथ, इति।' - तुम्हारा जय
मोहित समझ गया अब कोई चारा नहीं हैं। जैसे भी हो, थोड़ा-बहुत
दे कर जान छुड़ानी है - यह तय कर उसने नौकर को बुलाया और कहा,
'ठीक है, छोकरे को बुलाओ।'
थोड़ी देर बाद ही, एक
तेरह-चौदह साल का लड़का दरवाजे से अंदर दाखिल हुआ। मोहित के
पास आ कर उसने उसे प्रणाम किया और फिर कुछ कदम पीछे हट कर
चुपचाप खड़ा हो गया।
मोहित उसकी तरफ़ कुछ देर तक बड़े गौर से देखता रहा। इसके बाद
कहा, 'बैठ जाओ।'
लड़का थोड़ी देर तक किसी उधेड़बुन में पड़ा रहा, फिर सोफ़े के
एक किनारे अपने दोनों हाथों को गोद में रख कर बैठ गया।
'मैं अभी आया।'
मोहित ने दूसरे तल्ले पर जा कर अपनी घरवाली के आँचल से चाबियों
का गुच्छा खोला। इसके बाद अलमारी खोल कर पचास रुपए के चार नोट
बाहर निकाल, इन्हें एक लिफ़ाफ़े में भरा और अलमारी बंद कर नीचे
बैठकखाने में वापस आया।
'क्या नाम है तुम्हारा?'
'जी, संजय कुमार बोस।'
'इसमें रुपए हैं। बड़ी सावधानी से ले जाना होगा।'
लड़के ने सिर हिला कर हामी भरी।
'कहाँ रखोगे?'
'इधर, ऊपर वाली जेब में।'
'ट्राम से जाओगे या बस से?'
'जी, पैदल।'
'पैदल? तुम्हारा घर कहाँ है?'
'मिर्ज़ापुर स्ट्रीट में।'
'भला इतनी दूर पैदल जाओगे?'
'पिताजी ने पैदल ही आने को कहा है।'
'अच्छा तो फिर एक काम करो। तुम एक घंटा यहीं बैठो ठीक है।
नाश्ता कर लो। यहाँ ढेर सारी किताबें हैं, इन्हें देखो। मैं नौ
बजे दफ़्तर निकलूँगा। मुझे दफ़्तर छोड़ने के बाद मेरी गाड़ी
तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देगी। तुम ड्राइवर को अपना रास्ता
बता सकोगे न?' मोहित ने पूछा।
लड़के ने सिर हिला कर कहा, 'जी हाँ।'
मोहित ने विपिन को बुलाया और
इस लड़के संजय बोस के लिए चाय वगैरह लाने का आदेश दिया। फिर
दफ़्तर के लिए तैयार होने ऊपर अपने कमरे में चला आया।
आज वह अपने को बहुत ही हल्का महसूस कर रहा था। और साथ ही बहुत
ही खुश।
जय को देख कर पहचान न पाने के बावजूद, उस के बेटे संजय में
उसने अपना तीस साल पुराना सहपाठी पा लिया था।
(रुपांतरकार - डॉ रंजीत साहा)