साहित्यकार : व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति (निबंध) : महादेवी वर्मा

Sahityakar : Vyaktitva Aur Abhivyakti (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

सामान्य शब्दार्थ की दृष्टि से जो कुछ व्यक्त होता है, उसे व्यक्ति कहा जा सकता है; परंतु अपने परंपरागत प्रयोग में रूढ़ हो जाने के कारण, व्यक्ति शब्द से बुद्धि- हृदय सम्पन्न मानव ही संकेतिक होता है। हम पर्वत जैसे उन्नत, निर्झर जैसे गतिशील और समुद्र जैसे अगाध प्राकृतिक तत्वों को भी व्यक्ति नहीं कह सकते तथा विशालकाय पशु और लघुतम कीट को भी व्यक्ति की संज्ञा में नहीं बाँधते । प्राकृतिक तत्व जड़ है तथा पशु से कीटाणु तक सब जीवन-संपन्न होने पर भी चेतना के उस स्तर पर नहीं हैं, जहाँ बुद्धि और हृदय का स्वेच्छया उपयोग किया जा सके।

इस दृष्टि से केवल मनुष्य में ही व्यक्ति तथा उसकी विशेषताएँ व्यक्तित्व कही जाएंगी। यह व्यक्ति, विशेष सामाजिक परिवेश में मानव-सामान्य मूल प्रवृत्तियों के साथ जन्म तथा विकास की सुविधाएँ प्राप्त करता है। परंतु परिवेश की समानता और मूल प्रवृत्तियों की एकता भी मनुष्य को एक दूसरे की अनुकृति मात्र नहीं बनाती।

धरती, धूप, जल आदि समान होने पर भी तथा विकासोन्मुखी प्रवृत्ति एक होने पर भी बीज से उत्पन्न वनस्पतियाँ भिन्न होती हैं और फूलों के आकार, रंग, सौरभ तथा फलों के रस, स्वाद, प्रभाव आदि में पृथकता अनिवार्य है। इसी प्रकार एक प्राकृतिक परिवेश में भी और एक ही सामाजिक, राजनैतिक स्तर पर भी मानव की मूल प्रवृत्तियाँ समान विकास नहीं करतीं। इसी से मानव का अभिज्ञान उसके व्यक्तित्व की विशेषता ही में निहित है ।

जब हम किसी जाति की विशेषता की चर्चा करते हैं तब उसके बहुसंख्यक व्यक्तियों की समान रुझान ही हमारा लक्ष्य रहती है। परंतु जब किसी व्यक्ति की विशेषता का मूल्यांकन करते हैं, तब हमारी दृष्टि उसके समाज से उसकी भिन्नता पर ही केंद्रित रहती है।

मनोविश्लेषकों ने इस भिन्नता के प्रत्यक्ष बाह्य और अव्यक्त आंतरिक कारणों पर विविध दृष्टियों से प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। परंतु कारण का अनुमान, कार्य के प्रमाण को अस्वीकार नहीं करता ।

व्यक्ति की दृष्टि से न तो मानवों के बौद्धिक विकास की ऊँचाई एक रेखा पर स्थिति रखती है और न उनकी रागात्मक वृत्तियों की गहराई । एक ही वस्तु दो व्यक्तियों को न एक जैसी दृष्टिगोचर होती है और न उन्हें समान रूप से प्रभावित करती है, अतः उनकी प्रतिक्रियाएँ भी भिन्न हों, यह स्वाभाविक है।

सामान्य में यह विशेषता, मानव की उस मूल प्रकृति से संबंध रखती है, जिसके द्वारा वह अनुकूलता का शोध और ग्रहण करता रहता है।

मानव शिशु को माता के उदर में ही न जाने कितने रस-विषों और मारक-पोषक परिस्थितियों में रहकर अपनी रक्षा करनी पड़ती है। वह अपने और माता के अनजाने ही पोषक रसों तथा रक्षात्मक परिस्थितियों को ग्रहण कर अपना निर्माण करता है। जन्म के उपरांत भी उसका यह त्याग और ग्रहण का क्रम समाप्त नहीं हो जाता। व्यक्तित्व मानों उसके बाह्य तथा अंतर्जगत के संघर्ष का प्रमाण-पत्र है।

एक संपूर्ण वृत्त के दो अर्द्धांशों के समान ही व्यक्तित्व के बहिरंग और अंतरंग दो पक्ष हैं। बाह्य पक्ष के संयोजक वे करण या इंद्रियाँ हैं, जिनसे उसे अपने प्रतिकूल अनुकूल स्थितियों तथ्यों आदि का बोध संवेदन उपलब्ध होता है और अंतरंग पक्ष का शिल्पी स्वयं उसका अंतःकरण है, जिसे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का संघात माना गया है। दोनों पक्ष परस्पर एक दूसरे पर प्रतिफलित होते रहकर ही पूर्ण हैं ।

व्यक्तित्व के निर्माण में बाह्यकरण तथा अंतःकरण दोनों की स्थिति अनिवार्य रहेगी, क्योंकि इन दोनों की क्रिया-प्रतिक्रिया की मात्रा और क्षमता के अनुसार ही मानव-व्यक्तित्वों में परस्पर पृथक करने वाली विशेषताएँ उत्पन्न होती हैं।

यह व्यक्तित्व अंतर्जगत के सूक्ष्म दर्शन, कल्पना, स्वप्न आदि से लेकर स्थूल जगत के कर्म तक सबसे संस्कार ग्रहण कर विकसित होता हुआ एक निश्चित स्थिरता प्राप्त कर लेता है । परंतु अनेक बार जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं जब यह स्थिरता चंचल हो उठती है और व्यक्ति अपनी निश्चित दिशा की अवज्ञा कर देता है।

यह परिवर्तन कभी क्षणों के लिए हो सकता है और कभी दीर्घकाल के लिए ।

सामाजिक इकाई की दृष्टि से, मनुष्य के बौद्धिक तथा मानसिक संस्कार के क्रम में, कुछ प्रवृत्तियों का दमन और कुछ का विकास अनिवार्य आवश्यकता है। मिट्टी में दबे बीज के समान ये मूल प्रवृत्तियाँ किसी अनुकूल अवसर रूपी वर्षा की प्रतीक्षा में कभी-कभी आजीवन अव्यक्त रह जाती हैं। परंतु अव्यक्त स्थिति में भी यह व्यक्तित्व पर अपने चिह्न छोड़े बिना नहीं रहतीं।

साहित्यकार भी समष्टि का अंग होने के कारण सभी प्रकृति निर्मित ऋत् और मानव निर्मित नियमों की सीमा रेखा में विकास करता है। उसकी विशेषता भी किसी नियम का अपवाद न होकर उसका कालसिद्ध प्रमाण ही मानी जाएगी। जैसे समुद्र के गहरे तल से उठी सतह और उसकी तह पर बनी लहर में बाह्य विविधता और तात्विक एकता है, उसी प्रकार साहित्यकार की, समष्टि के अन्य सदस्यों से एकता में भिन्नता स्वाभाविक है। जीवन के जिस सामंजस्य को उसका अंतःकरण छू लेता है, वह भी समष्टि की गहनता में निहित है और जिस विषमता को, वह बाह्य करण द्वारा प्रत्यक्ष जगत में देखता है, वह भी समष्टि की ऊपरी सतह पर स्थिति रखती है। अतः उसके व्यक्तित्व में भी इस व्यक्त-अव्यक्त विशेषता की द्वाभा रहे, यह स्वाभाविक है; परंतु यह द्वाभा हल्के गहरे रंगों की हो सकती है, परस्पर विरोधी रंगों की नहीं, क्योंकि तब उसकी लक्ष्यगत एकता नष्ट हो जाएगी।

अभिव्यक्ति जीवन का पर्याय है, परंतु मानव जीवन केवल श्वास-प्रश्वास की परंपरा मात्र न होकर चेतना के कई स्तरों का संघात है; अतः उसकी अभिव्यक्ति भी बौद्धिक, मानसिक आदि कई स्तरों की प्रक्रिया का परिणाम है।

साहित्य को जीवन की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें जीवन के अनेक स्तरों की रागात्मक स्वीकृति और मूल्यांकन अनिवार्य है।

साहित्यकार अपने व्यक्तित्व से तटस्थ रहकर सृजन कर सकता है या नहीं, यह भी प्रश्न है। व्यक्ति की अनेक अभिव्यक्तियों के समान साहित्य भी एक अभिव्यक्ति है। उसे हम पूर्णतम अभिव्यक्ति मानें या न मानें, परंतु वह व्यक्ति संबद्ध तो रहेगी ही। समाज का सामान्य सदस्य अपने जीवनोल्लास या विषाद को अन्य सदस्यों के समक्ष व्यक्त करके जिस संतोष का अनुभव करता है, साहित्यकार का आत्मतोष उससे भिन्न नहीं है।

परंतु व्यक्तित्व-निरपेक्षता से यदि व्यक्तिगत संकीर्ण सीमाओं से मुक्ति अभिप्रेत है, तो रचना का, व्यक्तित्व-निरपेक्ष होना ही उसकी देश कालातीत स्थिति का कारण कही जा सकती है।

जहाँ तक संवेदन, बौद्धिक-निकर्ष या जीवन-दृष्टि का प्रश्न है, साहित्य अपने निर्माता में ही स्थिति रखता है और इस प्रकार उसके व्यक्तित्व की अंतरंगता में ही ढलता बनता है। अभिव्यक्ति की शैली से लेकर अपने अंतर्निहित सूक्ष्म संकेत तक साहित्य, साहित्यकार के व्यक्तित्व के संस्पर्श से रूपरेखा पाता है ।

'शैली साहित्यकार का व्यक्तित्व है' कथन में यही तथ्य उद्घाटित हुआ है। जीवन की असंख्य परिस्थितियों में से विशेष परिस्थिति का चयन, अटूट संवेदन परंपरा में से संवेदन विशेष का चुनाव, व्यक्त करने के लिए भाषा, शब्द आदि का अंगीकरण, विराट चेतना समुद्र से किसी कूलखंड का शोधन आदि विशेष व्यक्तित्व-संपन्न साहित्यकार ही करता है।

विश्व की समस्त रूपात्मक तथा जैवी विवृति अणु-परमाणुओं के विशेष संघटन का परिणाम है और इस संघटन की ऊर्जा की न्यूनाधिक मात्रा में ही जीवन के सचेतन, प्रसुप्त, चेतन, अवचेतन आदि रूपों की स्थिति संभव है। यह निष्कर्ष दर्शन का तार्किक सत्य ही नहीं, विज्ञान की अनुसंधानिक उपलब्धि भी है।

मानव-जीवन में अणु-परमाणुओं की संघटन- ऊर्जा अत्यंत रहस्यमय तथा जटिल रूपों में परिवर्तित होती रहती है। मानव एक भौतिक परिवेश में ही नहीं, सचेतन परिवेश में भी विकास पाता है अतः उसके जीवन का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, स्थूल सूक्ष्म, सरल-जटिल दो विपरीत छोरों की ओर आकर्षित रहना स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य कहा जाएगा।

गति या क्रियाशीलता जीवन का धर्म है। चाहे वह ऊर्ध्व हो, चाहे सम, चाहे अधः और यह क्रियात्मक गतिशीलता किसी अन्य को स्पर्श किए बिना संभव नहीं होती। इस स्पर्श का परिणाम क्रिया प्रतिक्रियात्मक होने के कारण वह अनंत विविधता का सृजन करता चलता है।

जल की जलीयता विशेष प्राकृतिक संघटन की परिणति है और उसकी गति की क्रिया-प्रतिक्रिया से अनेक परस्पर भिन्न तथा विपरीत रूपों का संघटन होता चलता है। उसके तरल स्पर्श से कठिन शिलाएँ कटकर कणों में परिवर्तित हो सकती हैं और कण-कण जुड़ कर शिला का रूप पा सकते हैं।

मनुष्य का जीवन भी अपने अंतः बाह्य परिवेशों से क्रिया-प्रतिक्रियात्मक संपर्क स्थापित करता हुआ ही गतिशील है।

विशेष विकास क्रम में उसकी क्रियाशीलता इतनी जटिल और रहस्यमयी रही है कि एक-एक सहज प्रवृत्ति का प्रसार सहस्र- सहस्र अर्जित प्रवृत्तियों में हो गया है और अब एक को दूसरी से भिन्न करना भी एक विशेष शोध की अपेक्षा रखता है।

जैसे एक वटवृक्ष की शाखायें आकाश की ओर चढ़ती हैं तथा जटायें धरती के अंतराल में उतरती हैं, वैसे ही मानव की प्रवृत्तियाँ मूलतः एक होकर भी सर्वथा विपरीत दिशाओं में विकासात्मक प्रसार करती हैं।

प्राणिमात्र को अपने परिवेश का परिचय प्रकृतिदत्त करणों (इंद्रियों द्वारा ही प्राप्त होता है, परंतु यह भी सत्य है कि उसे अपने दोहरे परिवेश के दोहरे परिचय के लिए कोई ऐसी वृत्तिविशेष या करणविशेष भी प्राप्त है, जो इंद्रियों के समान प्रत्यक्ष नहीं ।

मानवेतर जीवन में भी यह सहज वृत्ति उसकी आत्मरक्षात्मक गतिशीलता में निरंतर सहायक रहती है। जो सहज-वृत्ति शीत के अभाव में भी उसके आगमन की पूर्व सूचना देकर कुछ पक्षियों को उष्ण भूखंडों में प्रवास की प्रेरणा देती है, जो प्रकृति की निःस्तब्धता में भी आनेवाली आँधी की चाप सुनाकर पशु-पक्षियों को आत्मरक्षा की ओर प्रेरित करती है, वह इंद्रियों के समान प्रत्यक्ष नहीं ।

मानव तक पहुँचते-पहुँचते यह सहज चेतना कितनी गहराई और विस्तार पा गई होगी, इसका अनुमान कठिन नहीं है। मनुष्य की दोहरी विकासात्मक गति केवल प्रत्यक्ष इंद्रियजन्य ज्ञान से सीमित नहीं हो सकती; परिणामतः अपने अंतः बाह्य विकास के लिए उसे सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करणों का सहयोग लेना पड़ा तो आश्चर्य नहीं ।

अपने मानसी और भौतिक परिवेशों की क्रिया-प्रतिक्रिया के ग्रहण संप्रेषण के लिए उसके पास बुद्धि और हृदय की ऐसी दो रहस्यमयी वृत्तियाँ हैं, जो उसकी शारीरिक-मानसिक समस्त क्रियाशीलता को संचालित करते हुए भी स्वयं अप्रत्यक्ष रहती है।

जीवन की क्रिया-प्रतिक्रिया-जनित किसी भी भौतिक या मानसिक स्थिति की सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूति हृदय का धर्म है और उसका मूल्यात्मक ज्ञान बुद्धि का अधिकार ।

काव्य वास्तव में मानव के सुख-दुःखात्मक संवेदनों की ऐसी कथा है, जो उक्त संवेदनों को संपूर्ण परिवेश के साथ दूसरे की अनुभूति का विषय बना देती है । परंतु यह ग्रहण संप्रेषण बुद्धि के सहयोग की भी विशेष अपेक्षा रखता है। किसी विक्षिप्त व्यक्ति के सुख-दुःखात्मक संवेदन उसी रूप में अन्य व्यक्तियों की अनुभूति का विषय नहीं बन पाते, क्योंकि संवेदन की सारी तीव्रता के साथ भी उसका बौद्धिक विघटन संवेदन की संश्लिष्टता को विघटित कर देता है। परिणामतः उसके सुख-दुःख से वांछित तादात्म्य न होने के कारण श्रोता या दर्शक के हृदय में सर्वथा विपरीत भाव उदय हो जाते हैं, यथा उसके हँसने पर करुणा या रोने पर हास्य ।

वस्तुतः काव्य बुद्धि के आलोक में संवेदन का संप्रेषण है। मानव के जितने सृजन हैं, कविता उन सबसे अधिक रहस्यमय सृजन है, जिसमें उसके अंतःकरण का संगठन करनेवाले सभी अवयव मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार एक साथ सामंजस्यपूर्ण स्थिति में कार्य करते हैं।

अंतःकरण का संगठन करनेवाले अवयवों में मन जो कार्य की दृष्टि से उभयेंद्रिय माना जाता है, समस्त संकल्प - विकल्पों का कारण है और संकल्प-विकल्प के अभाव में किसी प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया संभव नहीं रहती । चित्त, धारणा या स्मृति से संबंध रखता है, जिसके संरक्षण के बिना मनुष्य के बौद्धिक तथा संवेदनजन्य संस्कार पानी पर खींची लकीर के समान मिटते जाते हैं ।

बुद्धि संकल्प-विकल्प की नाप-जोख और मूल्यांकन करने वाली निर्णयात्मिका वृत्ति है, जो स्वयं सर्जनात्मिका न होने पर भी सर्जक तत्वों की रेखाओं को उद्भासित और इस प्रकार संचालित करती चलती है।

अहंकार द्वारा हमें ऐसा आत्मबोध प्राप्त होता है, जिसके अभाव में व्यक्ति सत्ता तथा समष्टि-सत्ता में मानवीय आस्था संभव नहीं रहती ।

अंतःकरण की इन विभिन्न वृत्तियों के सम्मिलित निर्माण की विशेषता एक ऐसी सामंजस्यपूर्ण स्थिति पर निर्भर रहेगी, जो सामान्य नहीं कही जा सकती। यह स्थिति जितनी पूर्ण होगी, उसका निर्माण उतना ही जीवन को सब ओर से स्पर्श करनेवाला और युगयुगांतरगामी होगा ।

समुद्र की अतल गहराई से उठी हुई तरंग समुद्र की सतह से भी ऊपर उठ जाती है, उसके तटों की सीमाओं का भी उल्लंघन कर जाती है, परंतु रहती वह समुद्र की ही है। अपने जन्म, अपनी स्थिति तथा अपने लय के लिए उसे समुद्र की ही आवश्यकता रहती है।

इसी प्रकार मानवीय बौद्धिक या संवेदनात्मक सृजन अपनी असाधारणता में भी रहता जीवन का ही है। पूर्णतम निर्मिति भी जीवन के विस्तार में अतिपरिचित ही रहेगी और उसका सही निजत्व काल की असंख्य समविषम घाटियाँ पार करके भी जीवन के साथ अनेक पूर्वरागों से बँधा रहता है। दर्शन इन पूर्वरागों की कड़ियाँ काटता है, विज्ञान उनकी उपयोगिता - अनुपयोगिता की परीक्षा करता है, परंतु काव्य और अधिक गहरे स्नेहिल रंग चढ़ाकर हर कड़ी को आत्मीय स्वीकृति देता है।

काव्य की पूर्णता में अनेक पूर्वरागों का संस्कार प्रतिफलित होता रहा है।

पारदर्शी शीशे के अनेक आवरणों में से हम एक ही वस्तु को एक साथ समीप और दूर देखते हैं।

बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति काव्यबोध की है। समय के पारदर्शी स्तरों में मानव के संवेगात्मक संस्कार इस प्रकार प्रतिफलित होते रहते हैं कि अखंड काल से युग-खंडों को पृथक करने वाली दृष्टि ही उन्हें जोड़ने लगती है। वस्तुतः अखंड समय को हमने अपने संवेगों के आविर्भाव तिरोभाव से नापा है और अपने घटित वृत्तों में विभाजित किया है।

जो घटित हो चुका है, वह अतीत है, जो घटित हो रहा है, वह वर्तमान है और जिसके घटित होने का हमें अनुमान है, वह भविष्य है।

परंतु काव्य-दृष्टि समय की खंडशः स्थिति को अपनी सीमा नहीं मानती। वह एक संवेदन से चलकर संवेदन - संसृति के चरम बिंदु तक पहुँच जाती है। नदी तट के एक छोर पर बैठ हम यदि उसके जल में हाथ डुबाते हैं, तो वह संपूर्ण नदी का स्पर्श है, जल के अंश - विशेष का नहीं ।

काव्य का सत्य युग विशेष को स्पर्श करके ही युगयुगांतर को छू लेता है, अतः उसकी सार्थकता के लिए समय का अखंड विस्तार अनिवार्य ही रहेगा।

यदि एक उग्र मनोविकार, युग विशेष में जीवित एक ही मानव में उत्पन्न और तिरोहित हुआ है, तो काव्य के लिए न वह भीषण है न उग्र इसी प्रकार यदि एक कोमल मनोविकार युग विशेष में किसी एक व्यक्ति में सीमित रहा हो तो वह काव्य के लिए आकर्षण नहीं रखता।

वस्तुतः काव्य के लिए वे ही संवेदन, वे ही मनोविकार महत्व रखते हैं, जो जीवन की युग-युगांतर दीर्घ मात्रा में नव-नव रूपों में परिवर्तित और संस्कृत होते चले आ रहे हैं।

मनोविकारों का वाहक ही नहीं संस्कारक भी होने के कारण काव्य युग-विशेष में सीमित नहीं हो पाता। कोई ऐसा मानवीय संवेदन या कोई ऐसी मानसिक या बौद्धिक विकास पद्धति संभव नहीं, जो अपने पूर्व रूप और भावी परिणति के साथ मध्य स्थिति न रखती हो। जो मध्य स्थिति को स्वीकृति देता है, वह उसकी पूर्वापर स्थितियों को भी स्वीकृति देने के लिए बाध्य है।

इसके विपरीत युग विशेष का संवेदनात्मक, बौद्धिक या मानसिक आकलन विशेष समय खंड में सीमित रह कर ही अपना परिचय देने में समर्थ है। युगबोध के लिए तात्कालिक सीमायें अनिवार्य हैं, परंतु काव्य-बोध की सार्थकता उसकी बंधन मुक्ति में ही रहती है।

इसका यह तात्पर्य नहीं कि काव्य युग-बोध से शून्य रहता है। एक विशेष युग और विशेष परिवेश में जीवित व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी ही परिस्थितियों से प्रभावित और संचालित होता है। उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया, ग्रहण-संप्रेषण भी अपने परिवेश में ही संभव हैं, परंतु उसकी वह युगसीमित क्रियाशीलता जीवन के व्यापक विस्तार में भी स्थिति रखती है। धरती की आर्द्र हरीतिमा में खिला फूल धरती के सिकता - विस्तार में भी खिला है, क्योंकि धरती अपनी विविधता में भी एक है। अंतर केवल उस दृष्टि में है जो विस्तार को नाप नहीं पाती ।

काव्य-दृष्टि किसी वस्तु या घटना को पूर्वापर संबंधों में रख कर देखती है, अतः उसके निकट युग विशेष की अभिव्यक्तियाँ अतीत और अनागत युगों के सत्य को भी व्यक्त करने में समर्थ हैं। किसी भी युग की घटना, किसी भी युग का संवेदन कवि के लिए त्याज्य नहीं होता, क्योंकि वह उसके माध्यम से अपने युग-सत्य को कालातीत विराट सत्य से जोड़ कर उसे नूतन रूप में अवतरित करने की क्षमता रखता है।

राम की कथा हर युग में काव्य का विषय रही है, परंतु युग-सत्य के साथ उसे जो रूप मिलता रहा है वह सर्वथा नवीन है। सामान्य जीवन में भी एक वृत्त या घटना, कहने वालों की मानसिक स्थितियों के अनुसार कितने भिन्न रूप पा लेती है, यह नित्य अनुभव का विषय है।

कवि का मानसिक गठन तथा उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया, अधिक व्यापक फलक पर स्थिति रखती है, अतः उसका कथ्य व्यक्तिगत रुचि मात्र नहीं रह जाता।

सहस्र दल कमल के धीरे-धीरे खुलने वाले संपुट के समान ही जीवन का सत्य धीरे-धीरे प्रस्फुटित होता है और यह खुलने का क्रम मधु पहचानती है, पंखड़ियों पर मँडराता भ्रमर केवल सौरभ से परिचित है, पर उससे पृथक स्थिति रख कर उसे सब ओर से तरल स्पर्श देने वाली दृष्टि ही मधु-परिमल से युक्त संपूर्ण कमल को देखने की शक्ति रखती है।

जीवन के सत्य के समक्ष कवि-दृष्टि की ऐसी ही स्थिति है। केवल अपने व्यक्तिगत सुख-दुःखात्मक संवेदन तक सीमित रहने वाली दृष्टि जीवन को अपनी विशेष परिस्थिति के अनुसार कभी सुंदर कभी असुंदर, कभी सुखद कभी 'दुःखद, कभी उपयोगी कभी अनुपयोगी आदि सीमाओं में विभाजित कर देखती है। कवि का कार्य उस व्यष्टि-वंदिनी दृष्टि के लिए ऐसा गवाक्ष खोल देना है, जिससे उसे मुक्त क्षितिज का विस्तार देखने का साधन प्राप्त हो सके।

मानव-जीवन अनुभूतियों की संसृति है। अपने परिवेश से संपर्क, मनुष्य में किसी न किसी सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूति को जन्म देता है और इन सम्पर्क-जनित संवेदनों पर बुद्धि की क्रिया-प्रतिक्रिया मूल्यात्मक चिंतन के संस्कार बनाती चलती है।

विकास की दृष्टि से संवेदन चिंतन के अग्रज रहे हैं, क्योंकि बुद्धि की क्रियाशीलता से पहले ही मनुष्य की रागात्मिका वृत्ति सक्रिय हो जाती है।

बालक आलोक और अंधकार का नाम और कारण जानने से पहले ही उनकी स्थिति से क्रमशः सुखात्मक और दुःखात्मक संवेदन प्राप्त करने लगता है, जिनकी शब्दहीन अभिव्यक्ति उसके हास और रोदन में होती रहती है।

जब मनुष्य दुःखात्मक संवेदनों से दूर रहने का प्रयास करता है और सुखात्मक संवेदनों की आवृत्ति चाहता है, तब बुद्धि की क्रियाशीलता उसकी सहायक होती है।

सामान्यतः अनुभूति तो किसी व्यक्ति की होती है, परंतु स्वानुभूति संज्ञा में व्यक्ति की विशेष मानसिक स्थिति भी संकेतित है ।

अनुभूति बालक की भी हो सकती है, जिसका मानसिक विकास न हुआ हो और ऐसे व्यक्ति की भी हो सकती है, जिसका मानसिक विघटन हो चुका हो। परंतु स्वानुभूति के लिए ऐसा मानसिक परिवेश अनिवार्य रहता है, जिसमें हम किसी सुख-दुःखात्मक संवेदन या मनोराग को निज का स्वीकार करते हैं। स्वानुभूत सत्य केवल सत्य की अनुभूति ही नहीं, वरन् अपने विशेष मानसिक परिवेश में परीक्षित स्वीकृत सत्य है ।

मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण अपने समानधर्मा व्यक्तियों के सुख-दुःख से किसी सीमा तक सुखी या दुःखी होता है, परंतु इस सहानुभूति का मार्ग स्वानुभूति के मार्ग के समान सरल नहीं है। कभी स्वार्थों के संघर्ष के कारण, कभी अनभ्यास से, कभी अतिशय अहं के कारण और कभी जीवन के प्रति विशेष वीतरागिनी दृष्टि के कारण, हमारी रागात्मक वृत्तियाँ कुंठित हो जाती हैं ।

समाज में ऐसे व्यक्तियों की संख्या कम नहीं, जिनके हृदय में किसी के सुख-दुःख से तादात्म्य करने की क्षमता शेष नहीं रह गई है। ऐसी अवस्था में समाज की मनःस्थिति कुतूहली भीड़ के समान हो जाती है, जिसके लिए क्रूरता भी विनोद का साधन मात्र रह जाती है ।

काव्यानुभूति में हमारी बुद्धि और रागात्मिका वृत्ति एक ऐसे बिंदु पर मिलती हैं, जिसमें अपने परिवेश तथा निजत्व से हमारी तटस्थता स्वाभाविक तथा काव्यागत जीवन के प्रति हमारे ममत्वपूर्ण पूर्वराग की स्थिति सहज हो जाती है।

अपनी उत्कृष्टता में काव्य-सृजन परम रहस्यमय तथा चमत्कारिक सृजन है। काव्य-सृजन में कवि की मानसिक क्रियाओं, उसके अनुभव, कल्पना, शब्द-योजना आदि द्वारा जीवन का ऐसा संयोजन होता है, जो पाठक के अंतर्जगत में प्रतिफलित होते ही विशाल और सजीव हो उठता है ।

यह मानसी सृष्टि प्रत्यक्ष जगत से भी अधिक प्रभविष्णु हो जाती है, क्योंकि उसे पाठक के अहं और व्यष्टिगत सीमाओं से वैसा संघर्ष नहीं करना पड़ता, जैसा व्यवहार जगत में अनिवार्य हो सकता है।

प्रत्यक्ष जगत में एक व्यक्ति को अपनी अनुभूति दूसरे तक पहुँचाने के लिए उसके व्यक्तित्व की कठिन रेखाओं से ही नहीं, उसके संशयालु मन और संकीर्ण अहं से भी संघर्ष करना पड़ता है। अहं की ग्रंथि अनुभूति की तीव्रता में ही गल सकती है और काव्य भावना का महाछंद होने के कारण इस तीव्रता को सहज करने में समर्थ है।

काव्य कृति में मनुष्य का अहं अपनी संकीर्ण रेखाएँ गला कर विस्तार ही नहीं पाता, वह एक अनिर्वचनीय मुक्ति का आनंद भी प्राप्त करता है।

जिसे हम रस दशा या भाव योग की संज्ञा से जानते हैं, उसके मूल में मानव की वही आत्म-विस्मृति है, जो उसे अपनी परिस्थितियों को पार कर समष्टि के स्पंदन में स्पंदित होने की क्षमता देती है ।

यथार्थ और सत्य का अंतर भी कम उलझाने वाला नहीं है ।

व्यवहार जगत में यथार्थ शब्द से हमारा अभिप्रेत किसी वस्तु या घटना का वही रूप रहता है, जिसका हमें प्रत्यक्ष ज्ञान हो।

परंतु सत्य की स्थिति इससे विपरीत है, क्योंकि वह इंद्रियों की सीमा से परे स्वतः उद्भासित बोध है।

वस्तुओं का ज्ञान हमें संवेदन के रूप में भी उपलब्ध हो सकता है। रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श के संवेदन द्वारा ही हम किसी वस्तु को जानते और अपनी धारणा में इन्हीं संवेदनों के संस्कार सुरक्षित रखते हैं।

यदि हम किसी वस्तु के अंतिम तत्व तक पहुँचना चाहें तो उसके अवयवों को विघटित करते-करते ऐसे अणु तक पहुँच सकते हैं, जो पुनः हमारे इंद्रिय प्रत्यक्ष की सीमा से बाहर रहेगा ।

यदि हमारी यात्रा तत्व से आरंभ हो तो सहज चेतना या अंतः प्रज्ञा हमारी मार्गदर्शिका रहेगी और यदि हम वस्तु से चलें तो प्रत्यक्ष ज्ञान या संवेदन हमारे संगी बनेंगे ।

विविध रूपात्मक जगत हमारी दृष्टि की सीमा में प्रत्यक्ष है, परंतु उसमें अंतर्निहित तत्वगत एकता ऐसा सत्य है, जो प्रत्यक्ष ज्ञान की सीमा से परे स्वतः उद्भासित रहता है।

बाह्य रूपात्मक जगत हमारी इंद्रिय सीमा में स्थिति रखता है, परंतु उसमें अंतर्निहित तत्व अप्रत्यक्ष होने पर भी हमारी अंतश्चेतना के निकट अपने अस्तित्व को प्रमाणित कर देता है ।

यथार्थ का यथातथ्य ज्ञान भी संदिग्ध ही रहता है। आकाश की महाशून्यता में कोई रंग न होने पर भी हमारी दृष्टि उसमें गहरी नीलिमा भी देख लेती है और प्रभात - सन्ध्या वेला में रंगों का ज्वार भी ।

प्रत्येक वस्तु भिन्न कोण से भिन्न दिखाई दे सकती है। दृष्टि की अपूर्णता भी प्रत्यक्ष ज्ञान को प्रभावित करती है और दृष्टि के सहायक यंत्र भी जब प्रत्यक्ष ज्ञान की ऐसी स्थिति है, तब अन्य ज्ञानेंद्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान की यथार्थता के विषय में कुछ कहना ही व्यर्थ है ।

सामान्यतः साहित्य और विशेषतः काव्य यथार्थ और इतिवृत्त को इतना महत्व नहीं देता जितना व्यवहार - जगत में संभव है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि काव्य न इतिहास के समान घटनाओं और तिथियों का कोश है और न दर्शन-विज्ञान आदि के समान ऐसे सिद्धांतों का संग्रह जो अनंत प्रयोगों द्वारा अपने-अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने की प्रतीक्षा में ही जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं।

काव्य का सत्य तो तीव्र संवेदनों की तरल उज्ज्वल ज्वाला में गल-गल कर रूप और जीवन की ऊष्मा से स्पंदन पाता है।

कवि जिस सत्य को अपनी अनुभूति में जी लेता है, उसी को, दूसरों को जीने के लिए देता है। इस सत्य को न जरा का भय है, न मरण का, प्रत्युत् वह काव्य की आत्मा बन कर अनंत संवेदन-संसृति में संचरण करता हुआ नव-नव जीवन ऊष्मा प्राप्त करता रहता है। इसके अतिरिक्त कवि सत्य के अनेक व्यक्त-अव्यक्त खंडों को जोड़ कर एक संपूर्ण और यथार्थ मूर्ति गढ़ता है। वह मिथ्या नहीं होती, केवल विशेष काल-खंड की सीमा में खड़े होकर हम उसके अखंड सौंदर्य को प्रायः दृष्टि का विषय नहीं बना पाते।

काव्य में कल्पना की क्या स्थिति रहती है, यह जिज्ञासा भी स्वाभाविक है।

वस्तुतः कल्पना ऐसी अनुरंजनशील विधायक-वृत्ति है जिसके द्वारा हम संभाव्य, किंतु अभीप्सित वस्तु का मानसिक अंकन करते हैं, इस दृष्टि से सभी स्थूल सूक्ष्म निर्माणों में उसका न्यूनाधिक उपयोग आवश्यक रहेगा ही । मानसी संयोजन के अभाव में वस्तु-जगत में किसी प्रकार का संयोजन असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है।

परंतु पूर्णतम विधायक कल्पना भी अपूर्ण अनुभूति का स्थान लेने में समर्थ नहीं, क्योंकि उसमें रागात्मक तीव्रता और संवेदनीयता संभव नहीं रहती ।

हमें कल्पना-विधान में अनुरंजन प्राप्त हो सकता है, एक प्रकार की बौद्धिक तन्मयता की उपलब्धि हो सकती है; परंतु कल्पना-विधान की रेखाओं के बीच किसी तीव्र मनोवेग का उद्वेलन संभव नहीं रहता ।

मनोवेगों के आरोह-अवरोह में उनके आधारों का संयोजन हमारी भावना करती है, जो कल्पना से अधिक स्थिर और कोमल वृत्ति है। मन की एकाग्रता के लिए भी आंतरिक या बाह्य आधार या आलंबन भावना द्वारा ही प्रस्तुत किए जाते हैं, कल्पना द्वारा नहीं। भक्त अपने इष्ट की भावना करता है, कल्पना नहीं ।

इसका मनोवैज्ञानिक कारण है। कल्पना मन की वृत्ति होने के कारण उसी के समान निरंतर क्रियाशील और चंचल रहती है। कल्पना विधायक या संयोजक अवश्य है, परंतु अपने पूर्णतम विधान या संयोजन के प्रति भी तीव्र अनुभूति उत्पन्न करने की क्षमता उसमें नहीं रहती। कभी-कभी तो उसके विधान- वैचित्र्य या संयोजन की असाधारणता की परिणति एक अविश्वास या कुतूहल में होती है । ऐसी स्थिति में रस-निमग्नता या तन्मय एकाग्रता का प्रश्न ही नहीं उठता।

सौंदर्य बोध स्वयं एक भाव है, अतः उसकी अनुभूति के लिए बाह्य रेखाओं से अधिक, ग्रहण करने वाले की मानसिक स्थिति का महत्व रहता है।

किसी वस्तु की आकृति, रेखाएँ, रंग आदि का सामंजस्य भी मानसिक स्वीकृति की अपेक्षा रखता है।

इसके विपरीत भावना में हमारी रागात्मक सत्ता ऐसे संश्लिष्ट रूप में प्रतिफलित होती है कि उसके संयमित न रहने पर रागात्मक सत्ता के विघटित होने की भी संभावना है।

काव्य जीवन को जितनी अधिक गहराई में स्पर्श करता है, उसे उतनी ही गंभीर आस्था की आवश्यकता रहती है और आस्था तो रागात्मक सौंदर्य भावना से ही प्राप्त हो सकती है।

काव्य के मुक्ताकाश-विचरण के लिए कल्पना और अनुभूति पक्षी के दो डैनों के समान हैं।

मनुष्य की सृजनात्मक प्रवृत्तियों के विकास से उसकी भाषा भी अविच्छिन्न संबंध में जुड़ी हुई है।

मानव को मनोविकार और मूलप्रवृत्तियाँ तो प्रकृति से प्राप्त हुई हैं, परंतु उन्हें व्यक्त करने का साधन भाषा स्वयं उसका सृजन है।

आदिम जीवन से आज तक उसकी जो सृजनात्मक उपलब्धियाँ हैं, उनकी दीर्घ सूची में भाषा सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार और सबसे स्थायी सामाजिक कर्म है।

आंगिक चेष्टाओं और संकेतों से चित्रलिपि और चित्रलिपि से सार्थक ध्वनि-समूह तक विकसित होने वाली अभिव्यक्ति का इतिहास मानव विकास के इतिहास के समान ही विविध और विस्मयकारक है ।

जैसे-जैसे मानव-ज्ञान अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में विस्तार पाता गया, वैसे-वैसे शब्द भी वर्गों और परिवारों में संगठित होते गए।

धर्म, नीति, दर्शन आदि ने अपने-अपने सिद्धांतों की व्याख्या में प्रयुक्त शब्दावली को विशेष - विशेष पारिभाषिक रूप दे डाले ।

प्रयोग के परिवर्तनशील संदर्भों में शब्दों का कभी रूप परिवर्तन हुआ, कभी अर्थ परिवर्तन, कभी अर्थ- गौरव बढ़ा, कभी घटा।

वास्तव में साहित्य जीवन को ऐसी समग्रता में स्वीकृति देता है कि ऐसी सीमित माँग के लिए अवकाश ही नहीं रहता।

दर्शन, दर्शन-शास्त्रियों या दर्शन के जिज्ञासुओं के लिए लिखा जाएगा, अर्थशास्त्र, अर्थशास्त्रियों तथा अर्थशास्त्र के जिज्ञासुओं के लिए। यही स्थिति ज्ञान-विज्ञान की अन्य शाखाओं के लिए अनिवार्य रहेगी। परिणामतः इनके लिए एक विशेष पारिभाषिक शब्दावली निर्मित होती गई।

साहित्य की स्थिति इससे भिन्न है क्योंकि वह सबका और सबके लिए रहेगा - कथ्य की दृष्टि से भी, भाषा की दृष्टि से भी । भाषा की किसी संकीर्ण सीमा में आबद्ध होकर वह अपना लक्ष्य ही खो देता है। इसके अतिरिक्त शैली की दृष्टि से भी एक साहित्यकार दूसरे से भिन्न रहता है और यह शैलीगत भिन्नता विशेष शब्द चयन पर निर्भर है। एक ही संस्कृत भाषा में लिखने के कारण कालिदास और भवभूति एक समान नहीं हैं।

भाषा संबंधी मुक्ति किसी साहित्यकार के कर्त्तव्य को सरल नहीं बनाती, क्योंकि उसे अपने सृजन में विशेषता लाने के लिए, शब्द-समुद्र में बार-बार डूबकर ऐसे महार्घ शब्द चुनने पड़ते हैं, जिनसे उसके सृजन को अन्य सृजनों से भिन्न व्यक्तित्व भी प्राप्त हो सके और उसका कथ्य अपनी संपूर्ण मर्मस्पर्शिता के साथ संप्रेषणीय भी बन सके।

देश-काल विशेष में विकास करनेवाले मानव समूह की भाषा में उसके भौतिक जीवन की आवश्यकताओं से लेकर सूक्ष्म सौंदर्यबोध, चिंतन, दर्शन आदि भी व्यक्त होते हैं, अतः यह अभिव्यक्ति भाषा की दोहरी बाह्य और आंतरिक स्थिति अनिवार्य कर देती है। कालांतर में यह भाषा एक व्यक्ति की ही नहीं, जाति विशेष के साथ देश-विशेष का व्यक्तित्व बन जाती है।

वस्तुतः भाषा का संबंध मनुष्य के अंतःकरण से होने के कारण वह उनके संपूर्ण भावजगत का संचालन करने की क्षमता रखती है, जिसकी गति की दिशा मनुष्य की क्रियाशीलता को प्रभावित किए बिना नहीं रहती ।

उपयोग की विविधता के कारण एक शब्द द्वारा अनेक अर्थों का बोध भी सहज हो गया और भिन्न अर्थों का बोध करानेवाली शब्द- शक्तियाँ भी निश्चित रूप-रेखा में बँध गईं।

मनुष्य अपने भाव या विचार दूसरे मनुष्यों के अंतःकरण में प्रतिफलित करना चाहता है, और इस संक्रमण की सफलता, भावानुकूल शब्दावली, अभिव्यक्ति की शैली तथा शब्दों की प्रभविष्णु शक्ति पर निर्भर रहती है।

वक्ता की मानसिक क्रिया के उत्तर में श्रोता की मानसिक प्रतिक्रिया अनिवार्य है, जो कभी साधर्म्य, कभी वैधर्म्य और कभी उदासीन हो सकती है।

श्रोता में जो भाव उस समय जाग्रत नहीं है, उसे जाग्रत करने के लिए, अभिव्यक्ति की पृष्ठभूमि में वक्ता की मानसिक क्रिया का, सत्य और अनुकूल भाषा से संपृक्त होना, आवश्यक रहता है।

यह भी संभव है कि तीव्र भावावेश में मनुष्य उस भाव की शब्दाभिव्यक्ति में असमर्थ रहे और उसका भाव विशेष इंगितों और कायिक चेष्टाओं में बिखर कर समाप्त हो जावे ।

संभवतः इन्हीं समस्याओं के निराकरण के लिए हमारे अतीत काल के ऋषि कवियों ने भाषा के संगोपन संयोजन द्वारा शब्दों को शक्ति के ऐसे प्रभामंडल से घेर दिया है कि उसकी प्रभविष्णुता निष्कंप और अक्षय हो गई।

जिसे हम मंत्र की संज्ञा से जानते हैं, वह एक विशेष मानसिक क्रिया से समन्वित शब्ब- संयोजन है, जो ध्वनि के आरोह-अवरोह के साथ काल का दीर्घ व्यवधान पार कर मानव-मानस में वैसी ही क्रियाशीलता उत्पन्न कर देता है, जैसी एक सधे मिले तारोंवाली वीणा की झंकृति से, दूसरी वीणा के तारों पर संभव है ।

हमारे प्राचीन वाङ्मय में कवि मंत्र दृष्टा है, मंत्रों का रचयिता मात्र नहीं। दूसरे शब्दों में, कवि एक विशेष मानसिक क्रिया द्वारा सत्य से साक्षात्कार करके उसे विशेष शब्द-संयोजन में रूपात्मकता देता है । इस शब्द- शरीरी सत्य के साथ कवि की स्थिति, दृश्य और दृष्टा की ही रहती है, अतः 'ऋषयः मंत्र दुष्टारः' कहकर इसी संबंध को स्वीकृति दी गई है।

मन की विभिन्न स्थितियों में, क्षिप्त स्थिति अपनी अस्थिरता के कारण, विक्षिप्त बाह्य चेतना के अभाव में, मूढ़ अपनी जड़ता में और निरुद्ध अपनी शून्यता के कारण निर्माण के लिए अनुपयुक्त है। केवल एकाग्र मनःस्थिति ही किसी महत्वपूर्ण सृजन के लिए आवश्यक मानसिक भूमि प्रस्तुत करती है ।

एक एकाग्रता की स्थिति में मानव-मानस की सब शक्तियाँ जब एक बिंदु पर, शब्द शक्तियों से एकाकार होती हैं तब दृष्टा का सत्य, काव्य या साहित्य में रूपायित होकर संपूर्ण सजीवता के साथ अपने आपको दूसरों के अंतःकरण में प्रतिफलित करता है ।

हाथ से फेंके हुए बाण और धनुष पर संधान कर दृष्टि से बाण की नोक और लक्ष्य को मिलाते हुए चलाए गए बाण में, रूप और फेंके जाने की स्थितियाँ समान रहती हैं।

परंतु परिणाम की दृष्टि से वे दोनों एक दूसरे से सर्वथा भिन्न रहेंगे, क्योंकि एक अपेक्षित वेग के अभाव में निकट ही गिर जाता है और दूसरा लक्ष्य तक पहुँच कर उसे वेध लेता है।

एकाग्रता के भाव और अभाव की स्थितियाँ भी इसी प्रकार परिणामतः भिन्न रहेंगी ।

साहित्य और विशेषतः काव्य व्यक्ति या समूह के भाव जगत को अनुकूल दिशा में क्रियाशील बनाने का लक्ष्य रखता है, अतः उसे भाषा की संपूर्ण शक्तियों और अंतःकरण की समस्त संभावनाओं का उपयोग करना पड़े, तो आश्चर्य नहीं ।

एक मानस के भाव का, अन्य मानस में प्रक्षेप और उसका परिणाम, संदर्भ, परिस्थिति, संस्कार आदि पर निर्भर रहता है।

सामान्यतः एक मनोवेग का, दूसरे मानस से संबंध महत्वपूर्ण, विरोधी या उदासीन हो सकता है। विरोध या उदासीनता की स्थिति काव्य की गतिशीलता में बाधक सिद्ध होती है; केवल महत्वपूर्ण स्वीकृति ही उसे लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ है।

तात्पर्य यह नहीं है कि काव्य की भाषा में असाधारणता आवश्यक है। वस्तुतः काव्य की तुलना में अन्य, ज्ञान, विज्ञान आदि अधिक जटिल और विशेष व्यक्तियों के लिए ही संबोध्य भाषा का प्रयोग करते हैं। दर्शन, विज्ञान आदि विषयों में शब्द केवल संकेत हैं जिनका अर्थ, संकेतों का ज्ञान रखनेवालों के निकट ही उद्घाटित हो सकता है।

साहित्य या काव्य की भाषा न संकेत मात्र है और न उसके अर्थ-बोध के लिए किसी विशेष प्रकार की बौद्धिक विशेषता अपेक्षित रहती है। वह तो ऐसी मानव-सामान्य अनुभूतियों की चित्र - लेखा है, जिनका संप्रेषण मानव-सामान्य मनोजगत में ही संभव रहेगा। मानव अनुभूतियों या संवेदनों की सार्थकता उनकी अतिसामान्यता में रहती है, असामान्यता में नहीं, किंतु वे अपनी उद्भावना के लिए जिन परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं, उनकी संयोजिका होने के कारण भाषा को एक विशेष भंगिमा, विशेष विच्छित्ति प्राप्त हो जाना स्वाभाविक है।

हमारे मनोविकारों में भी श्वेत, कृष्ण, पीत आदि रंग हैं, हमारी ध्वनियों के भी कोमल, कठोर आदि रूप हैं, परंतु यह समस्त रंग- रूपमयता, अव्यक्त को ऐसे परिवेश और ऐसी रूप-रेखा में व्यक्त करने के लिए हैं, जिससे मानव-मानस अति परिचित रहता है।

मन की सीमा के बाहर स्थिति रखनेवाले सत्य और इंद्रियों के लिए दुर्गम मर्म को, भाषा द्वारा ही मानसी स्थिति और इंद्रियजन्य ज्ञान की आत्मीयता प्राप्त हो जाती है। भाषा का ऐसा संयोजन, जो अपरिचित और असाधारण को परिचित और साधारण बना देता है, स्वयं अपरिचित और असाधारण कैसे हो सकता है। स्वयं संबोध्य न रह कर भाषा अपनी विधायक शक्ति से रहित हो जाती है। काव्य के संबंध में विचार करते ही छंद और लय पर दृष्टि अनायास ठहर जाती है।

भाषा की प्रकृति लयवती है। प्रत्येक उच्चारित शब्द वायु में विशेष कंपन उत्पन्न करता है और इसी कंपन की लहर - संसृति से हमारी श्रवणेंद्रिय का स्पर्श होता है। हमारे प्राचीनतम वाङ्मय वेद के उद्गाताओं ने इस सत्य का अनुभव करने के उपरांत ही प्रत्येक शब्द को उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि उच्चारण-भेदों से विशेष व्यक्तित्व में बाँधा है। उच्चारण वास्तव में शब्द और अर्थ को लय- समन्वित करने का साधन है। सामान्य जीवन में भी हमारी उच्चारण का विशेष उतार-चढ़ाव ही एक शब्द को दूसरे से भिन्न या एक शब्द को दूसरे अर्थ से संयुक्त करता है। भाषा की लक्षणा, व्यंजना आदि शक्तियाँ शब्द ध्वनि के उतार-चढ़ाव में ही व्यक्त होती हैं।

हमारा प्रत्यक्ष जगत अनंत रूपात्मक ही नहीं, विविध ध्वन्यात्मक भी है। भाषा के निर्माण के पहले मनुष्य ने जिन ध्वनियों द्वारा अपने भावों को व्यक्त किया होगा, वे उसके प्राकृतिक परिवेश में व्याप्त ध्वनियों से साम्य रखती हों, तो उसे स्वाभाविक ही कहा जाएगा। कालांतर में ध्वनियों के वर्गीकरण ने शब्दों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। जल की तरंग-भंगिमा से उत्पन्न कल-कल, पवन के वेग से पत्तों का मर्मर आदि इसी तथ्य के साक्षी हैं ।

मानव द्वारा प्रयुक्त ध्वनियाँ, स्वर आदि पशुपक्षियों की बोलियों के भी ऋणी हैं।

संगीत का स्वर - सप्तक इसको विशेष रूप से प्रमाणित कर सकता है, जिसमें मयूर की केका से षडज, कोकिल की कुहू से पंचम का साम्य माना जाता है। वस्तुतः संगीत के सभी स्वर, किसी न किसी पशु-पक्षी की बोली से संबद्ध कहे जाते हैं।

हमारा समस्त दृश्य जगत परिवर्तनशील है, जो अपनी निरंतरता से एक लययुक्त आकर्षण विकर्षण को छंदायित करता है। काव्यं व्यष्टिगत तथा समष्टिगत जीवन को एक विशेष गति-क्रम की ओर प्रेरित करने का साधन है, अतः उसकी शब्द-योजना में भी एक प्रवाह, एक लय अपेक्षित रहेगी।

इसके अतिरिक्त काव्य के लिए जैसा शब्द संयोजन आवश्यक है, वह भी अपनी अर्थ समन्विति की क्रिया-प्रतिक्रिया में विशेष प्रवाह उत्पन्न कर लेता है। यह प्रवाह और लय मानव के मनोजगत में एक आकर्षण की स्थिति सहज कर देते हैं ।

मनुष्य के चलने के निश्चित क्रम में प्रवाह है, किंतु बार-बार गिरते उठते हुए चलने में गति का छंद-भंग हो जाने के कारण वह प्रमविष्णु नहीं रह जाती ।

सारांश यह कि यदि कविता के लिए विशेष शब्द चयन आवश्यक है, व्यंजित अर्थ-बोध की भाव-परिणति अनिवार्य है, तो शब्द एक विशेष क्रम में छंदायित रहेंगे ही।

विशेष भौतिक तत्वों के संघात से जो विद्युत् उत्पन्न हो जाती है, उसके सदुपयोग, दुरुपयोग और अनुपयोग मनुष्य की इच्छा और आवश्यकता पर निर्भर रहते हैं। काव्य के संबंध में भी यही सत्य है । जब काल - सिद्ध हो जाने पर भी काव्य उपयोग की दृष्टि से असंदिग्ध नहीं हो सका, तब उसकी छंदाकृति के संबंध में क्या कहा जावे ?

परंतु उपयोग मात्र सत्य का प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्येक उपयोग, उपयोगकर्ता की आवश्यकता पर निर्भर होने के कारण क्षण-क्षण परिवर्तित होता रहता है।

फिर उपयोग की भी श्रेणियाँ हैं । अन्न आँधी-धूप-वर्षा झेलता हुआ खेत में भी रहता है, कृषक के खलिहान में भी और पाकशाला की अग्नि पर तपते हुए पात्र में भी। भूखे की दृष्टि से तो पाकशाला के पात्र ही में अन्न की स्थिति उपयोगी है। परंतु क्या उसी खौलते जल से भरे पात्र में धान की बालियाँ उगाई भी जा सकती हैं ? उपयोग के किसी अलक्ष्य छोर पर स्थिति रखनेवाला खेत ही बीज को अपनी मिट्टी की गहराई में छिपाकर अंकुरित होने की सुविधा देता है ।

उपयोग के किसी तत्कालिक अंश पर दृष्टि रखने के कारण कभी-कभी हम वस्तुओं के ठीक मूल्यांकन में समर्थ नहीं होते। परंतु केवल उपयोग की दृष्टि से भी काव्य की छंदस्थिति लोक हृदय में समर्थन पा लेती हैं।

गद्य में विशेष शब्द संयोजन की आवश्यकता नहीं रहती, अतः अनावश्यक शब्द भी अनाहूत तमाशबीनों के समान स्थान घेर लेते हैं, जिससे उसके अर्थ प्रवाह में अवरोध भी उत्पन्न हो सकता है । गद्य में भाव भी प्रायः चिंतन के माध्यम से व्यक्त होने के कारण व्याख्यात्मक ही रहते हैं, अतः उन्हें काव्य के समान प्रवाहात्मक लय की आवश्यकता नहीं होती ।

इसके विपरीत काव्य में, भावानुकूल विशेष शब्द-संयोजन अनिवार्य होने के कारण एक प्रवाहात्मक लय स्वतः उत्पन्न हो जाती है।

वास्तव में छंद की सीमा में शब्दों को धारण, स्मरण आदि मानसी वृत्तियों का ऐसा संरक्षण प्राप्त हो जाता है, जिसकी छाया में वे न्यूनतम परिवर्तनशीलता के साथ दीर्घायु हो जाते हैं ।

हमारे वाङ्मय की छंदासी सृष्टि ही सहस्रों वर्षों से कंठ से कंठ में संचरण करती हुई भी, प्रत्येक ध्वनि और प्रत्येक शब्द को अक्षय रख सकी है।

मनुष्य की मानसिक वृत्तियाँ भी विकासतः वहिर्मुखी तथा अपने ऐंद्रिक ज्ञान के विषयों में प्रक्षिप्त रहती हैं। इसके विपरीत कवि अपनी मर्मानुभूति का, उसके आधार तथा परिवेश के साथ दूसरे व्यक्ति के मनोजगत में प्रक्षेपण चाहता है। यह संक्रमण बिना तादात्म्य के संभव नहीं होता, अतः पाठक या श्रोता को भी अपनी बिखरी मानसिक वृत्तियों को विशेष तन्मय एकाग्रता में समेटना पड़ता है।

काव्य की लयात्मकता ऐसी स्थिति उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण सहयोग दे सकती है और वह छंद प्रवाह में अधिक संभव है।

परंतु यह किसी शिल्पी से नहीं, उसके औजारों से विवाद है । कवि यदि अपनी भाव सृष्टि को वहन करने के लिए छंद को उपयुक्त समझता है तो छंद में रूपायित करे; छंद-बंधन से मुक्ति को उपयुक्त समझता है, निर्बंध रहने दे। परंतु काव्य की कोटि में रहने के लिए उसे अनुभूति और अभिव्यक्ति में जैसा तारतम्य रखना पड़ता है, वह स्वयं एक बंधन है।

भाषा की प्रकृति परिवर्तनशील होने के कारण शब्द संयोजन- विधान में परिवर्तन अनिवार्य हो जाते हैं। वैदिक वाङ्मय का अत्यंत महत्वपूर्ण गायत्री छंद आज के काव्य-संदेश का वाहक न हो सकेगा। आदि कवि का आदिछंद होने पर भी अनुष्टुप को आज की भाषा में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकेगा।

इसी प्रकार माधुर्य का अक्षयकोष ब्रजभाषा का लचीला सवैया छंद खड़ी बोली के साथ न चल सकेगा। रामचरितमानस जैसे काव्य की गरिमा सँभालने वाली अवधी के दोहा चौपाई से आज के काव्य की संगति न बैठ सकेगी।

वस्तुतः काव्य की भाषा अपनी प्रभविष्णुता का साथ देने वाले छंद-बंध ही स्वीकार करती है, परंतु उसकी स्वीकृति के मूल में चिंतन से अधिक अनुभूति और विज्ञान से अधिक संस्कृति की प्रेरणा रहती है। खड़ी बोली के रूप और उसकी प्रकृति में अभी ऐसा परिवर्तन नहीं आया, जिसके कारण उसके काव्य के शिल्प-विधान को आमूल परिवर्तित होना पड़े। प्रयोग केवल वैयक्तिक रुचि से संबंध रखते हैं, अतः उनकी सफलता असफलता भी व्यक्ति तक सीमित है ।

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