साहित्यकार की आस्था (निबंध) : महादेवी वर्मा

Sahityakar Ki Aastha (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

जीवन के गूढ़ रहस्यों को अंशतः व्यक्त करने के लिए मनुष्य ने जिन भाषा-संकेतों का आविष्कार किया है, वे प्रायः अपनी रूढ़ परिभाषाओं की सीमा पार कर हृदय और बुद्धि के अनेक स्तरों तक फैल जाते हैं। जल पृथ्वी पर तट बनाता है, ऊँचे-नीचे कगारों में बँधता है; पर धरती के नीचे जल, जल से, ज्वाला से, शिला-खंडों से और अनेक धातुओं से अनायास ही मिल जाता है, इनके बीच तट रेखाओं का प्रश्न नहीं उठता।

आस्था शब्द भी इसी प्रकार का संकेत में एक, पर संकेतित लक्ष्य में विविध रूपात्मक कहा जाएगा। आस् और स्था, अस्तित्व और स्थिति दोनों का उसमें ऐसा समन्वय है कि धर्म के आस्तिक से लेकर वैज्ञानिक युग के नास्तिक तक सब उसे स्वीकृति देते हैं।

जहाँ तक आस्था की भावभूमि का प्रश्न है वह जीवन की सहजात चेतना के विकास क्रम में ही निर्मित होती चलती है।

हमारे चारों ओर जो प्रत्यक्ष जगत है उसमें सब कुछ निरंतर परिवर्तित होता, बनता मिटता रहता है। पर अबोध बालक के लिए भी यह शंका स्वाभाविक नहीं कि सूर्य सबेरे लौटेगा या नहीं।

इस धारणा के पीछे अनंत युगों के अनुभवजन्य संस्कार हैं। मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा के लिए जो पाथेय लेकर चलता है उसका बहुत-सा अंश उसे जन्म के साथ उत्तराधिकार में प्राप्त हो जाता है। शेष की उपलब्धि उसे यात्राक्रम में अपने अनुभव, कल्पना, चिंतन आदि से होती रहती है।

इस प्रकार आधुनिक अणुयुग का मानव भी अपने अनेक संस्कारों के लिए आदिम पूर्वज का आभारी है।

आस्था के संबंध में भी यही सत्य है-उसका मूल्य संस्कार - जन्य है, पर प्रसार और व्याप्ति व्यक्तिगत अनुभवों की उपलब्धि है। कोई भी अस्तित्व, चाहे वह भौतिक हो चाहे भावात्मक, अकेला नहीं हो सकता, क्योंकि अनेक अस्तित्वों के साथ होने के कारण ही उसे एक संज्ञा प्राप्त है और वह ज्ञेय कहा जा सकता है। इसी प्रकार कोई भी स्थिति एकाकी नहीं है, क्योंकि उसे स्थिति विशेष बनने के लिए स्थितियों की समष्टि में अपना परिचय देना पड़ता है; अतः आस्था व्यक्तिगत होने पर भी सीमित नहीं हो सकेगी। वस्तुतः आस्था मानव के युगांतर से प्राप्त दार्शनिक लक्ष्य पर केंद्रित रागात्मक दृष्टि है। हर मानव में किसी-न-किसी रूप और सीमा तक इसका होना अनिवार्य है । पर पात्र की सीमा और रेखारंग के अनुसार परिवर्तित जल के समान व्यक्तिगत सीमा में उसका विकास सीमित रहे, यह स्वाभाविक ही है।

आस्था, जिसका एक अर्थ स्वीकारोक्ति भी है, वस्तुतः व्यक्ति के द्वारा समष्टि की स्वीकृति है । इस स्वीकृति के लिए मनुष्य को अपने से बाहर स्थित जीवन से परिचित होना पड़ता है, अनेक परोक्ष और प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर एक जीवन दर्शन बनाना और उससे रागात्मक संबंध स्थापित करना पड़ता है।

व्यक्तिगत आस्था का किसी सामाजिक रूढ़ि से विरोध हो सकता है, पर विकासगत सामाजिक या व्यापक जीवन लक्ष्य से नहीं ।

'मैं केवल अपने सुख में आस्था रखता हूँ', 'मैं केवल अपने जीने की उपयोगिता में आस्था रखता हूँ' आदि भौतिक तथ्य होने पर भी आस्था के विरोधी हैं। पर मैं दिव्य जीवन में आस्था रखता हूँ', 'मैं जीवन की आध्यात्मिक परिणति में आस्था रखता हूँ', आदि भावात्मक स्थिति रखने पर भी आस्था के निकट हैं। कारण स्पष्ट है। पहले तथ्य में समष्टि की अस्वीकृति और दूसरी भावना में उसकी स्वीकृति है ।

जीवन की दृष्टि से आस्तिक और नास्तिक दोनों एक ही रेखा के दो छोरों पर रहते हैं । एक जीवन के उदात्तीकरण के लिए अलौकिक साधनों की शोध में लगा रहता है और दूसरा उसी की भौतिक स्थिति में सामंजस्य लाने के लिए लौकिक माध्यमों का उपयोग करता है।

देवता एक होने के कारण पूजा के उपकरणों की भिन्नता भी उन्हें लक्ष्यतः एक रखती है । समष्टि की इकाई होने के कारण साहित्यकार के जीवन-दर्शन और आस्था का निर्माण भी समाज विशेष और युग विशेष में होता है। पर उसका सृजन-कर्म उसकी आस्था के साथ जैसा अभिन्न और प्रगाढ़ संबंध रखता है वैसा अन्य व्यक्तियों और उनके व्यवसायों में नहीं रहता।

एक लौहकार अच्छी तलवार गढ़ कर भी मारने में आस्था नहीं रखता। एक व्यापारी को, सफलता के लिए सत्य में आस्था की आवश्यकता नहीं होती ।

पर साहित्यकार का सृजन आस्था की धरती से इतना रस ग्रहण करता है कि उसे अस्वीकार करके वह स्वयं अपने निकट असत्य बन जाता है। आस्था किसी अन्य कर्म व्यापार के परिणाम को प्रभावित कर सकती है, परंतु साहित्य को तो वह स्पंदित और दीप्त जीवन देती है। साहित्य जीवन का अलंकार नहीं है, वह स्वयं जीवन है। साहित्यकार सृजन के क्षणों में इस जीवन में जीता है और पाठक पढ़ने के क्षणों में।

इस प्रकार साहित्य में हम जीवन के अनेक गहरे अपरिचित स्तरों में, मनोवृत्तियों के अनेक अज्ञात छायालोकों में जीवित होकर अपने जीवन को विस्तार, अनुभूतियों को गहराई और चिंतन को व्यापकता देकर उसे समष्टि से आत्मीय संबंधों में जोड़ते हैं। इस प्रकार एक जीवन में अनेक जीवन जीने के उल्लास के पीछे यदि कोई गंभीर विश्वास नहीं है तो यह बाजीगर का खेल मात्र रह जाएगा।

हमारे चिंतकों ने जीवन और जगत की गतिमय और परिवर्तनशीलता को संभालने वाले जिस महान् नियम को ऋत् की संज्ञा दी है, आस्था उसी की रागात्मक स्वीकृति है ।

अतः जीवन की गतिशीलता से आस्था का कोई विरोध संभव नहीं-वैसे ही जैसे अनेक पथों पर चलनेवालों का क्षितिज से कोई विरोध संभव नहीं ।

आस्था में और विशेषतः साहित्यकार की आस्था में समसामयिक तत्व कितना है और शाश्वत कितना, यह प्रश्न भी कुछ कम उलझन नहीं उत्पन्न करता ।

आस्था जीवन-क्रम में निर्मित होती है, अतः उसे कोई जड़ीभूत तत्व मान लेना उचित न होगा।

जब मनुष्य के हृदय और बुद्धि की परिधि परिवार ही था, तब उसी के प्रसाधन-संरक्षण तक उसकी आस्था सीमित थी। जैसे-जैसे उसकी बुद्धि और हृदय ने समाज, ग्राम, नगर, देश आदि के क्रम पार कर विश्व की सत्ता को स्वीकार किया, उससे रागात्मक संबंध जोड़े, वैसे-वैसे ही उसकी आस्था नये क्षितिजों को अपनाती गई । व्यक्ति जैसे विश्व तक फैल गया है, वैसे ही उसके सुख-दुःखों का विस्तार हुआ है। दुःख भोजन-वस्त्र के प्रत्यक्ष अभाव से लेकर परतंत्रता, उपेक्षा, अप्रतिष्ठा आदि की अप्रत्यक्ष भावना तक फैल गया है। सुख शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकर स्नेह, समता, बंधुता, आत्मीयता जैसी भावनाओं में सूक्ष्म व्यापकता पा गया है। आज किसी को भोजन-वस्त्र देना मात्र पर्याप्त नहीं है, उसे स्नेह और बंधुता की छाया भी देनी होगी। और यह एक की नहीं विश्व भर की आवश्यकता है।

इस प्रत्यक्ष के अतिरिक्त जीवन के विकास की अन्य रहस्यमय सूक्ष्म दिशायें भी हैं।

अतः आज के व्यक्ति को अपनी आस्था में विराट् मानव का कर्त्तव्य सँभालना पड़ता है। विज्ञान ने भू-खंडों को एक दूसरे के इतना निकट पहुँचा दिया है कि यह कर्त्तव्य हर व्यक्ति को प्राप्त हो गया है। ध्वंस और निर्माण दोनों ही के लिए पहले अधिक संख्या की आवश्यकता थी। आज देशविशेष के ध्वंस के लिए उद्जन बम ले जाने वाला कोई भी एक व्यक्ति पर्याप्त है। पर इसी प्रकार उसे रोकने के लिए भी कोई एक पर्याप्त हो सकता है। यह एक समष्टि का कोई भी व्यक्ति हो सकता है । परिणामतः समय के आवाहन का उत्तर देने के लिए समष्टि को एक व्यक्ति की तरह तैयार रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में साहित्यकार का कर्त्तव्य कितना गुरु हो सकता है, इसका अनुमान सहज है।

समसामयिक और शाश्वत् परस्पर विरोधी स्थितियाँ नहीं हैं। उनमें 'है' और 'होना चाहिए' का अंतर मात्र है। अनेक समसामयिक, अतीत बनकर ही शाश्वत् का सृजन करते हैं। एक इतिवृत्त है और दूसरा अनेक इतिवृत्तों के अनुभव संघात से निर्मित भावात्मक लक्ष्य है । कोई भी व्यापक लक्ष्य स्वयं तक पहुँचाने वाले साधनों का विरोध नहीं करता और साधनों का अस्तित्व समसामयिक परिस्थितियों में रहता है।

'गंगा सीधे समुद्र में गिरती है' का अर्थ यह नहीं होता कि उसका मार्ग बाण की तरह सीधा है और उसे कोई टीला, गर्त्त, मोड़ पार नहीं करना पड़ता । तट लक्ष्य होने पर क्या हर लहर से नाव को संघर्ष नहीं करना होगा ?

मनुष्यता का सर्वांगीण विकास, मनुष्य के जीवन की दुःख दैन्य-रहित गरिमा, शिवता और सौंदर्य हमारा लक्ष्य है। और इस विराट् शाश्वत् का सृजन उस क्षण आरंभ हुआ होगा जब कि आदिम युग के दो अहेरियों ने एक दूसरे के आघातों को देखकर अस्त्र फेंक दिए होंगे और एक दूसरे को गले लगा लिया होगा ।

जिन युगों में एक भू-खंड दूसरे से परिचित नहीं था, उनमें भी मनुष्य ने वसुधा को कुटुंब के ने रूप में स्वीकार कर अनदेखे सहयात्रियों के प्रति आस्था व्यक्त की है। तब आज के मंगल ग्रह खोजी वैज्ञानिक युग को आस्था का अभाव क्यों हो ? आज साहित्यकार की आस्था का क्षेत्र अधिक व्यापक हो गया है, पर यह व्यापकता उसे समसामयिक परिस्थितियों से संघर्ष कर उन्हें लक्ष्योन्मुख बना लेने की शक्ति दे सकती है।

उसे विस्तृत मानव परिवार को ममता देनी है। इतना ही नहीं यदि मंगल ग्रह-निवासियों को विज्ञान खोज ले तो उन्हें भी उसकी ममता की आवश्यकता पड़ सकती है। और ममता श्रद्धामय आत्मदान है।

माता जिस प्रकार आस्था के बिना अपने रक्त से संतान का सृजन नहीं कर सकती, धरती जिस प्रकार ऋत् के बिना अंकुर को विकास नहीं दे सकती, साहित्यकार भी उसी प्रकार गंभीर विश्वास के बिना अपने जीवन को अपने सृजन में अवतार नहीं दे पाता।

यह आस्था सृजन की दृष्टि से व्यक्तिगत पर प्रसार की दृष्टि से समष्टिगत ही रहेगी।

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