साहित्यकार का साहस (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Sahityakar Ka Saahas (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
पं. सुंदरलाल ने 'विशाल भारत' के प्रथम अंक (जनवरी, सन् 1928) में लिखा था-
"लोकमान्य के कारावास के विरोध में एक सभा की गयी थी। मुख्य वक्ता था इन पंक्तियों का लेखक और सभापति थे पंडित बालकृष्ण भट्ट । श्रोताओं की संख्या लगभग सौ के रही होगी, जिसमें आधे स्कूलों व मुहल्ले के लड़के थे और आधे में थोड़े-से हिम्मतवाले बड़ी उम्र के लोग, और शेष पुलिसवाले । वक्ता ने लोकमान्य की जीवनी पर व्याख्यान दिया और अंत में उनके कारावास पर दुख प्रकट करते हुए अपना स्थान लिया । भट्टजी उठे । वह सदा अपनी सामान्य भाषा में ही बोला करते थे । अत्यंत सरल स्वभाव, किंतु भरे हुए हृदय से पूर्व वक्ता की बात को एक प्रकार काटते हुए भट्टजी कहने लगे-
'का तिलक - तिलक करत हौ ? अपने देश के लिए गए हैं। फिर आय जइहैं। हमको दुख उन लोगन का है जो फिर कभी हमसे आयकर न मिलिहैं, जो बिन खिले ही मुर्झाय गए। हमको दुख खुदीराम बोस का है...'
लेखक खुदीराम बोस का नाम सुनते ही कुछ डरा । उसने पीछे से बूढ़े भट्टजी को सावधान करने के लिए हल्के से उनका पल्ला खींचा। भट्टजी तुरंत पीछे को लौट पड़े और चिल्लाकर बोले, 'हमरा पल्ला काहे खींचत हौ ? सच तो कहित हैं।' फिर श्रोताओं की ओर मुँह करके कहने लगे, 'हमरा पल्ला खींचत हैं? हमसे कहत हैं, न कहो ? कही काहे न ? हिए में तो लगी आग; कही काहे न ?'
भट्टजी के भाषण की रिपोर्ट अधिकारियों तक पहुँची । शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर ने उन्हें आगाह करने के लिए बुला भेजा। अभी डाइरेक्टर के कमरे में कुर्सी पर बैठे कुछ मिनट ही हुए थे और डाइरेक्टर साहब ने असली विषय की ओर रुख ही किया था कि भट्टजी फौरन 'राम-राम, राम-राम ! हमका अस नौकरी न चाही!' कहते हुए उठ खड़े हुए और बिना इजाजत चिक उठाकर बाहर निकल आए। फिर डाइरेक्टर साहब की ओर रुख न किया ! इस स्पष्ट वक्तृत्व के मूल्य में भट्टजी को कायस्थ पाठशाला की प्रोफेसरी से हाथ धो डालने पड़े। उनके जीवन के अंतिम छह वर्ष बड़े ही जबरदस्त आर्थिक कष्ट के साथ बीते...
स्व. पं. बालकृष्ण भट्ट की सत्यनिष्ठा, दिलेरी, आत्माभिमान और देशभक्ति की एक झलक इस घटना से मिलती है।
पुरातन काल से कलाकार को राजसिंहासन के आसपास परिक्रमा करने के लिए बाध्य करने का प्रयास किया गया है, उसके कंठ को राजभय से अवरुद्ध करने की कोशिश की गयी है, उसके मुँह में लोभ के ताले जड़ना चाहा है !
अनेक कलाकारों ने असत्य से समझौता किया है, अन्याय का समर्थन किया है।
फिर अनेक कलाकार ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने सत्य के लिए जीवन की आहुति दे दी, जो टूट गए, पर झुके नहीं। अकबर ने जब गोस्वामीजी को मनसबदारी ' आफ़र' की, तो संतकवि ने उत्तर दिया-
हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार ।
अब 'तुलसी' का होंहिंगे, नर के मनसबदार ।।
अंग्रेजकाल में भारत में देशभक्ति की बात करना राजद्रोह था। उस समय हिंदी के कितने ऐसे कवि थे, जिन्होंने क्रांति का आह्वान किया ? कितने स्वातंत्र्य का उद्घोष कर जेल गए? बहुत थोड़े।
इस युग में जब सारे देश में इतना बड़ा तूफान आया था; जब चालीस कोटि नर-नारी स्वातंत्र्य-प्राप्ति के लिए कसमसा रहे थे; जब इतनी बड़ी क्रांति हो रही थी तब कितने ही बड़े कवि गढ़वाल की शोभा देख रहे थे, पत्तों पर किरण का नर्तन देख रहे थे, रजनीगंधा की सुगंध ले रहे थे; मेघों के साथ आसमान में घूम रहे थे, तरंगों का संगीत सुन रहे थे। अनेक इस कुतूहल में मग्न थे कि विद्युत में कौन चमकता है? कुसुम में कौन हँसता है ? और पूर्वाकाश से प्रातःकाल कौन झाँकता है? बड़ी विचित्र समाज-निरपेक्षता थी यह ! जन-समाज इतने बड़े संघर्ष में से गुजर रहा है, और तुम आत्मकेंद्रित !
स्वतंत्रता के इस युग में यह खरीद कुछ कम नहीं चल रही है। कुछ माल बिकता जाता है-रेडियो के दलाल के मार्फत, सरकारी पदों के दलाल के मार्फत ! कितने क्रांतिवादी और जनवादी अब धीरे-धीरे शून्यवादी या 'ब्लाउजवादी' होते जा रहे हैं!
सरकारी पुरस्कार-योजना और टेक्स्ट बुक योजना जैसे नए प्रलोभन हैं, जिनमें पुरस्कार देनेवालों को अच्छी लगनेवाली बात लिखने के लोभ में कितनी बार आत्मा की आवाज दबानी पड़ती है ।
आजकल राजशक्ति और साहित्य का संघर्ष बहुत तीव्र होता जा रहा है। राजनेता सरकते हुए धीरे-धीरे साहित्य के मंच पर आसीन होते जाते हैं; कुछ 'पीछे के दरवाजे' से घुस आते हैं और कुछ तो राजशक्ति के बल पर ससैन्य आ धमकते हैं। लज्जा तो हमारे ही हिस्से पड़ी है कि हम जुलूस बनाकर, बाजे-गाजे के साथ साहित्य के मंदिर में राजनीति की प्रतिमा स्थापित कर देते हैं। फिर नमन तो करते ही हैं, जो नहीं करते उन्हें बुरा कहते हैं।
उधर राजनीति अपने क्षेत्र में साहित्य को फटकने नहीं देती। आदरणीय पदुमलाल बख्शी एक छोटा-सा चुनाव लड़ना चाहते थे- उन्हें राजनीति ने निकाल बाहर कर दिया ! पं. माखनलाल चतुर्वेदी जीवन-भर भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़े; कभी प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपसभापति थे । पर राजनीति ने केवल भाषण देने के लिए उनका उपयोग किया ! बाकी के लिए जाति से बाहर !
जीवन की दरिद्रता और अभाव से तंग आकर अनेक साहित्यकार राजनीति की गोद में जाने को मजबूर होते हैं । फिर तो उसके स्तन -पान करके उसकी समस्त कूटनीति, अवसरवादिता, छल और प्रपंच सीख लेते हैं और उनके सत्य का स्वर उठ नहीं पाता। कुछ संपन्न होते हुए भी, ऊँचे पद और सम्मान और धन के लोभ में अपने को 'होलसेल' बेच देते हैं।
हमने अनेक साहित्य-समारोह देखे हैं, जिनमें 'पुच्छविषाणहीन' राजपुरुष पधारे हैं। तब उनके आसपास उज्ज्वल दंतावलि को दिखाते हुए अनेक साहित्यकार ऐसे घूमते हैं कि लगता है उन्हें पछतावा होता है - 'हाय रे ! आज अगर हमारी पूँछ होती तो हिलाने के काम आती!' रावण के दस सिरों में उन्हें एक ही लाभ दिखता है - दस बार सिज़दा करने का उसे था।
जो नहीं समर्पण करते हैं- वे बहुत दुखी हैं। जीवन उनके लिए काँटों का जाल है। लेकिन वे ही धन्य हैं। उन्हीं की वाणी युग की वाणी है। उन्हीं की वाणी से समाज का नव-निर्माण होता है। साहित्य हमारे यहाँ व्यापार कभी नहीं रहा, वह धर्म रहा है। अभी भी वह धर्म है, एक mission है। इसमें मिटना पड़ता है। जो इसमें बनना चाहते हैं, वे बेहतर है कि आढ़त की दुकान खोलें। इसमें तो कबीर की तरह घर फूँककर बाहर निकलना पड़ता है; यह 'खाला का घर' नहीं है ।
'वसुधा, वर्ष 1, अंक 3 जुलाई 1956