Sahitya Par Vigyan Ka Prabhav (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव : रामधारी सिंह 'दिनकर'

कवि और वैज्ञानिक के बीच समता क्या है , भेद क्या है ? समता सिर्फ एक बात को लेकर है कि कवि और वैज्ञानिक , दोनों प्रेरणा के आलोक में काम करते हैं । जैसे संसार की सभी श्रेष्ठं कविताएँ प्रेरणा की कौंध से जनमी हैं , उसी प्रकार विज्ञान के भी आविष्कार प्रेरणा की कौंध से उत्पन्न होते हैं । सत्य की झलक पाने के लिए यह आवश्यक है कि हमारी चेतना की सुई ठीक ध्रुव की ओर हो । यह अवस्था समाधि और एकाग्रता से प्राप्त होती है । इसी अवस्था में पहुँचने पर कवि को कविता सूझती है और वैज्ञानिक को आविष्कार सूझता है । लेकिन इस एक साम्य के बाद मुझे कविता और विज्ञान के बीच भेद - ही - भेद दिखाई देते हैं । वैज्ञानिक नियम की खोज में रहता है , शब्दों का व्यवहार वह सुनिश्चित अर्थ के लिए करता है और उसकी हर चीज परिभाषित होती है । किन्तु कविता मनुष्य के जिस अनुभूति - क्षेत्र से आती है , उसकी परिभाषा नहीं दी जा सकती । और शब्द को सुनिश्चित अर्थ कवि कैसे देगा ? वह तो विचार और शब्द , शब्द और उसके अर्थ के बीच भटकता रहता है ।

वैज्ञानिक केवल शरीर पर काम करता है । कवि की यात्रा शरीर और आत्मा के बीच है ।

वैज्ञानिक केवल सत्य को देख सकता है । कविता सत्य , शिव और सुन्दर - तीनों , का दर्शन एक साथ कर सकती है ।

कविता नैतिक भी हो सकती है तथा अनैतिक भी । किन्तु विज्ञान नैतिक अनैतिक , कुछ भी नहीं होता । वह दोनों से तटस्थ होता है । ( यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जिस वैज्ञानिक ने परमाणु बम बनाया था , उसने हिरोशिमा - कांड के बाद स्वीकार किया था कि बम बनाकर मैंने पाप किया है । तब विज्ञान पर भी नैतिकता के नियम लागू क्यों नहीं किए जाते हैं , जैसे वे साहित्य पर लागू हैं ? )

विज्ञान मनुष्य के हाथ में जो शक्ति देता जा रहा है , उसका उपयोग मनुष्य किस उद्देश्य के लिए करे , यह बात विज्ञान नहीं बता सकता । किन्तु कविता उसे बता सकती है , यदि कवि केवल शब्दों की आराधना में अपने को समाप्त न कर दे । कविता परदानशीन , आरामतलब औरत है , जो बादलों पर लेटकर फूल सूंघती है । उसके मुख से केवल सुगन्धित वाक्य निकलते हैं ।

विज्ञान चीर - फाड़ के कमरे में खड़ा यन्त्र - मानव है , जो केवल फार्मूले बोलता है ।

आधुनिक कवि (यूरोपीय से ज्यादा भारतीय कवि) विज्ञान की नकल करने को ललचा रहे हैं । वे इस बात को भूल गए हैं कि कविता जहाँ - जहाँ से रस और संजीवनी हैं लेती थी , वे सभी स्रोत विज्ञान के ताप से सूखते जा रहे हैं । कौतुक के लिए पद्य की रचना शायद कम्प्यूटर भी कर सकता है । किन्तु विज्ञान को कविता मैं तब मानूँगा जब वह मनुष्य को प्रेरित करने वाली कविता लिख दे । लेकिन यह वह कभी नहीं करेगा । कम्प्यूटर वही चीज उगलेगा , जो मनुष्य उसे खिलाएगा । विज्ञान का सारा क्षेत्र मन की सीमा के भीतर है । किन्तु कविता मन की सीमा के बाहर से भी आती है । सुररियलिस्ट कवि मन की सीमा से बाहर जाने वाले कवि थे । वे मन की सतह से भागकर मन के चंगुल से छूटना चाहते थे । वे किसी ऐसी गहराई में पहुंचना चाहते थे , जहाँ मन और विज्ञान नहीं पहुँच सकते । श्री अरविन्द का तो कहना है कि भविष्य की कविता मन्त्र होगी और यह मन्त्र मन से नहीं , मन के क्षितिज के पार से आएगा ।

विज्ञान ने मनुष्य के जीवन में जो उलट - फेर कर दिया , जो उथल - पुथल मचा दी , उस पर संवेदनशील कवियों ने विलाप किया है ।

औद्योगिक सभ्यता जब इंग्लैंड में जोर से फैली , मैथ्यू आर्नल्ड घबरा गए थे । अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा था , “ आधुनिक जीवन विचित्र रोग से ग्रस्त हो गया है , जल्दबाजी इसकी बीमारी है , उद्देश्य इसके केन्द्रित नहीं , छिन्न - भिन्न हैं , इसके दिमाग पर इतना बोझ है कि वह उसे ढो नहीं सकता और इसका दिल हरदम धड़कता रहता है । "

इलियट ने कहा था कि लय के बारे में हमारी आधुनिक धारणा शायद अन्दर से जलने वाले इंजिन की गति से प्रभावित हो गई है । यह स्पष्ट ही गूढ़ व्यंग्य की उक्ति है , क्योंकि इलियट को वैज्ञानिक सभ्यता से निराशा हुई थी :

मन्दिर बनाने के बदले ,
हम प्रयोगशालाएँ बनाते हैं ।
यज्ञ करने के बदले ,
हम प्रयोग करते हैं ।
प्रार्थना करने के बदले ,
हम प्वायंटर पढ़ते हैं ।
हम मनमौजी होने के बदले ,
कार्यकुशल और मुस्तैद हो गए हैं ।

कोई यह मत समझे कि आर्नल्ड या इलियट के समय में आकर ही कवियों के भीतर विज्ञान के खिलाफ प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई थी । यह प्रतिक्रिया रोमांटिक सम्प्रदाय के कवियों में ही उत्पन्न हो गई थी । एकालाजी से उत्पन्न संवेदना वर्ड्सवर्थ में थी और इसी कारण उन्हें पेड़ काटकर कारखाना बनाने का काम पसन्द नहीं आया था ।

इलियट जिस धारा से उत्पन्न हुए , उसके आदि - स्रोत फ्रेंच के कवि रैंबू थे, जिनका ‘इलूमिनेशंस' काव्य 1872 में प्रकाशित हुआ था। लाजिक और बुद्धिवाद के बन्धन को तोड़ने की प्रवृत्ति तथा मन के धरातल से छूटकर कहीं और निकल भागने का भाव सबसे पहले उन्हीं में दिखाई पड़ा था । विज्ञान शृंखला और अनुशासन कायम करता है , क्योंकि उसकी मार्गदर्शिका बुद्धि है । किन्तु मनुष्य के भीतर ऐसी भी शक्तियाँ हैं , जो बुद्धि से बहुत आगे तक देखती हैं , जहाँ लाजिक के सम्बन्ध काम नहीं करते । रैंबू हमें अराजकता के इसी केन्द्र में धकेल देते हैं , विज्ञान से जनमी पद्धति और तर्कबद्ध विचारों से मुक्त कर देते हैं । रैंबू का विश्वास था कि कवि अपने मन की गहराई में जहाँ तक डूब सकता है , वहाँ तक डूबकर वह अपनी अनुभूति को वाणी दे और इस बात की परवाह नहीं करे कि उस गहराई में उस लाजिक के नियम चलते हैं या नहीं , जिससे मन की सतह पर हमारा परिचय है ।

विज्ञान धर्मनिरपेक्ष होता है , श्रेष्ठ कविता किसी - न - किसी अर्थ में धार्मिक होती है । रैंबू काम के अतिचार के लिए बहुत बदनाम थे , लेकिन यूरोप में ऐसे भी आलोचक हैं , जो उन्हें धार्मिक मानते हैं और कहते हैं कि रैंबू की वाणी धुंधली इसलिए हो गई कि भारतीय रहस्यवाद का उन पर प्रभाव पड़ा था । विज्ञान द्वारा प्रदत्त सम्पन्नता के मारे जब संसार अपनी आत्मा का तिरस्कार करने लगा , तब रैंबू उस सभ्यता के विरुद्ध विद्रोह बनकर आए थे ।

वैज्ञानिक लोग कारीगर , मिस्तरी और मजदूर के समान होते हैं । कवि का स्वभाव किसान के स्वभाव से मिलता - जुलता है । कहते हैं , रैंबू का मिजाज भी किसान का मिजाज था ।

मनुष्य पर प्रभाव तो दुर्जन की भी संगति का पड़ता है । विज्ञान को न हम दुर्जन कह सकते हैं , न सज्जन । फिर भी उसके साथ बढ़ने वाले बुद्धिवाद ने हमारी धारणाओं को बदल दिया है । अतएव यह जानना रोचक है कि विज्ञान का प्रभाव साहित्य पर कहाँ तक पड़ा है ।

वैज्ञानिक युग का साहित्य उस युग से पूर्व के साहित्य से किन रूपों में भिन्न है ?

पहले जब राम या कृष्ण के चरित्र लिखे जाते थे , तब उन्हें धर्म - संस्थापक और दुष्कृत -विनाशक ईश्वरावतार के रूप में चित्रित किया जाता था । यह विज्ञान का प्रभाव है कि अब वे समाज - सुधारक , लोक - आराधक अथवा संशयग्रस्त मनुष्य के रूप में दिखाए जाते हैं । साधुओं और संन्यासियों के चरित्र भी पहले उच्च कोटि के दिखाए जाते थे । केवल ' प्रबोध - चन्द्रोदय ' में उन्हें व्यभिचारी के रूप में चित्रित किया गया था । लेकिन , यह अपवाद था । किन्तु ' थाय ' और ' चित्रलेखा ' में काम के समक्ष संन्यास की पराजय का जो दृश्य अंकित हुआ है , उसे नए जमाने ने खूब पसन्द किया है । इसी प्रकार अगर कर्ण के रथ के चक्के धरती में धंस गए थे , तो यह बात अब खोलकर कहनी होगी कि वहाँ दलदल था । और कौरवों की सभा में यदि भगवान कृष्ण ने विराट रूप दिखाया था, तो पाठकों को अब यह बात भी समझा देनी होगी कि भगवान के विराट होने पर छतें नहीं टूटी थीं , दीवारें नहीं गिरी थीं । और कच - देवयानी की कथा कहनी हो , तो इसका उल्लेख नहीं करना चाहिए कि कच ने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या कैसे सीखी थी । उस कहानी में कच और देवयानी का प्रेम ही प्रधान है ।

विज्ञान और टेक्नोलॉजी के प्रचार से साहित्य के परिवेश में परिवर्तन आ गया और उसका बड़ा भारी प्रभाव साहित्य पर पड़ा है , यह बिलकुल स्पष्ट है । संध्या के भीतर एथेराइज्ड रोगिणी का रूपक पहले नहीं देखा जा सकता था । वैसे ही ' एल्युमूनियम के हंस ' की कल्पना उस समय नहीं की जा सकती थी , जब हवाई जहाज नहीं थे । किन्तु विज्ञान का प्रभाव रूपकों और बिम्बों तक ही सीमित नहीं रहा है । साहित्य के भीतर वह अत्यन्त गहराई में उतर गया है । उसका प्रभाव साहित्य की शैली पर भी पड़ा है और उससे साहित्य का भाव भी आक्रान्त हुआ है ।

भाव - पक्ष में सबसे बड़ा परिवर्तन शायद बुद्धिवाद को लेकर आया है । बुद्धिवाद का चरम प्रभाव यह हुआ कि सृष्टि यन्त्र समझी जाने लगी , जिसके पुर्जे गणित और यन्त्रविज्ञान के अनुसार काम करते हैं । इस मान्यता से स्वभावतः ही यह अनुमान निकल आया कि सृष्टि यदि यन्त्र है , तो इसके निर्माण के लिए ईश्वर की कल्पना अनिवार्य नहीं है । फिर खगोलवादियों ने यह कल्पना रखी कि पृथ्वी गोल है और असंख्य गोल नक्षत्रों की तरह वह भी शून्य में लटकी हुई है । इससे मनुष्य की यह कल्पना नष्ट हो गई कि पृथ्वी सृष्टि का केन्द्र है तथा ईश्वर की योजना में उसका कोई खास स्थान है ।

तब डारविन का ‘ जीवों की उत्पत्ति ' नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ , जिसमें उन्होंने यह स्थापना रखी कि आदमी ईश्वर का पुत्र नहीं है , वह बन्दर से बढ़कर आदमी हुआ है । फिर मार्क्स आए । उन्होंने स्थापना यह रखी कि धर्म , नैतिकता , कला और अध्यात्म के क्षेत्र में मनुष्य ने जो भी मूल्य निरूपित किए हैं , वे लोकोत्तर मूल्य नहीं हैं । इन मूल्यों का विकास समाज की अर्थव्यवस्था के अनुसार हुआ है । अतएव धर्म अधर्म , नैतिकता - अनैतिकता तथा पाप और पुण्य की भावनाओं को लोकोत्तर चेतना , से सम्पृक्त मानना कोरा अन्धविश्वास है । आदमी अपना कोई भी निर्णय लेने में स्वतन्त्र नहीं है । सभी निर्णय वह उस अर्थव्यवस्था के अनुसार लेता है , जिसमें उसका जन्म और विकास हुआ है ।

और सबके अन्त में फ्रायड का मनोविज्ञान आया , जिसने यह कहा कि आदमी का जप - तप , योग और वैराग्य , सभी ऊपरी बातें हैं । वह अपने किसी भी कार्य में स्वाधीन नहीं है । उसके भीतर अपनी और मनुष्य - जाति की युगों की अगणित अदम्य वासनाएँ दबी पड़ी हैं और आदमी के कर्म इन्हीं अज्ञात वासनाओं की प्रेरणा का अनुगमन करते हैं । सच तो यह है कि हम इन वासनाओं का उपभोग नहीं करते , ये वासनाएँ ही हमारा उपभोग करती हैं, हम उन्हें नहीं जीते, उन्हीं के द्वारा हम जिये जाते हैं ।

मनोविज्ञान की एक अन्य शाखा आचरणवाद ने यह सिद्ध कर दिखाया कि मनुष्य अपने आचरण में स्वतन्त्र नहीं है । परिस्थितियाँ जैसी होती हैं , मनुष्य का आचरण भी वैसा ही होता है ।

डारविन ने मनुष्य से उसका देवत्व छीन लिया । मार्क्स ने आदमी की सदाशयता की जड़ खोद डाली । और फ्रायड ने यह सिद्ध कर दिखाया कि आदमी का अपने को बुद्धिवादी समझना बिलकुल फालतू बात है । सो बुद्धिवाद का असली प्रभाव यह निकला कि आदमी को यह मान लेना पड़ा कि वह बुद्धिवादी नहीं है ।

न्यूटन , डारविन , मार्क्स और फ्रायड , इन सभी चिन्तकों का प्रभाव एक - दूसरे को पुष्ट करनेवाला है । किन्तु , वर्गीकरण करने का प्रयास किया जाए , तो पता चलेगा कि आस्तिकता को अवलम्ब देनेवाला आधार सबसे अधिक न्यूटन और डारविन के कारण नष्ट हुआ है , यह कहा जाता है कि न्यूटन खुद आस्तिक मनुष्य थे । साहित्य है में जो प्रगतिवादी धारा फूटी , उसके उत्स मार्क्स हैं । और अभिनव साहित्य में जो काम की अन्धी आराधना प्रचलित हो गई है , उस धारा को सर्वाधिक प्रेरणा फ्रायड से मिली है ।

जब से समाज में विज्ञान को अपरिमित प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई , विद्या की ऐसी अनेक शाखाएँ अपने को विज्ञान कहने को ललचाने लगी हैं , जो सचमुच विज्ञान नहीं हैं । सबसे आश्चर्य की बात यह है कि अब कवि भी भाव और शैली , दोनों ही क्षेत्रों में विज्ञान का अनुकरण करना चाहता है । चूंकि विज्ञान आवेशमयी भाषा का प्रयोग नहीं करता , इसलिए नए कवि और लेखक भी आवेशमयता से बचे रहना चाहते हैं । चूँकि विज्ञान शब्दों के मामले में मितव्ययी होता है , अतएव नवलेखन भी शब्दों की मितव्ययिता बरतना चाहता है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि शब्दों की मितव्ययिता से साहित्य की शक्ति बढ़ती है । उसे पहले के भी साहित्यकार सदैव बरतते थे । और चूँकि विज्ञान का लक्ष्य वस्तुओं का यथातथ्य वर्णन होता है , अतएव नए लेखक और कवि भी कल्पना की लगाम हमेशा अपने हाथ में रखते हैं और बराबर सतर्क रहते हैं कि उनका वर्णन अतिरंजित न हो जाए । वैज्ञानिक का एक लक्षण यह भी है कि वह दूसरों को प्रभावित करने को न तो एक शब्द लिखता है , न एक शब्द बोलता है । अगर वह दूसरों को प्रभावित करने की इच्छा से लिखने या बोलने लग जाए , तो जनता वैज्ञानिक पर श्रद्धा नहीं , सन्देह करने लगेगी । मेरा खयाल है , यह विज्ञान का ही प्रभाव है कि साहित्य में अब ‘ ढ़ेटारिक ' गुण नहीं , दोष माना जाने लगा है । विज्ञान का एक गुण यह भी है कि वह निन्दा और स्तुति , दोनों से तटस्थ रहकर सत्य की शोध में लगा रहता है । वैज्ञानिक युग के उत्तम साहित्यकार भी लिखते समय निन्दा और स्तुति से परे रहकर केवल यह सोचते रहते हैं कि जो कुछ वे लिखना चाहते हैं, वह चीज ठीक से उनकी समझ में आ रही है या नहीं तथा लिखते समय वे उसी का यथातथ्य वर्णन करते हैं अथवा निन्दा के भय या प्रशंसा के लोभ से कुछ इधर - उधर भी बहक रहे हैं । केवल एक कठिनाई है जिस पर कवियों को विजय नहीं मिल रही है और वह यह कि विज्ञान में एक शब्द एक ही अर्थ देता है , किन्तु साहित्य में एक शब्द से अनेक अर्थ ध्वनित होते हैं । मेरा सोचना यह है कि यह अच्छा है कि कवि इस कठिनाई का पार नहीं पा रहा है । क्योंकि जिस दिन साहित्य में प्रयुक्त शब्द भी एक ही अर्थ देने लगेगा , उस दिन लक्षणा और व्यंजना की लीला समाप्त हो जाएगी और एकमात्र अभिधा पर अवलम्बित हो जाने के कारण साहित्य भी साहित्य न रहकर किसी प्रकार का विज्ञान बन जाएगा ।

विज्ञान के प्रभावों को स्वीकृत करने का लोभ सबसे पहले अंग्रेजी के मेटाफिजिकल कवियों में जगा था । मेटाफिजिकल कवि बुद्धि और मन की सीमा से परे देखने की कोशिश नहीं करता , वह चिन्तन का अभ्यासी होता है । वह कल्पना को कुहासे के पास नहीं छोड़ता , चीजों को वह अधिक - से - अधिक पास लाकर देखता है । प्रीति भी ऐसे कवियों में हृदय की वस्तु न रहकर मस्तिष्क की चीज बन जाती है । विचार को भावना के धरातल पर लाकर देखने से मेटाफिजिकल कविता बनती है । मेटाफिजिकल से अध्यात्म की ध्वनि निकलती है , किन्तु मेटाफिजिकल काव्य आध्यात्मिक काव्य नहीं है । डोन आध्यात्मिक कवि नहीं थे , आध्यात्मिक कवि ब्लेक थे और वे मेटाफिजिकल नहीं थे । मेटाफिजिकल विशेषण से तात्पर्य यह है कि जैसे दार्शनिक और वैज्ञानिक अपने तर्कों को ठीक कसावट में रखते हैं , वैसे ही मेटाफिजिकल कवि की कविता में भी तरंग और फेन नहीं , लोहे का कसाव होता है । यहाँ शब्दों में तो मितव्ययिता होती ही है , मितव्ययिता विचार में भी बरती जाती है और कल्पना कभी भी बेलगाम नहीं हो पाती । स्पष्ट है कि यह शैली विज्ञान से प्रभावित होती है , अतएव वह कड़ी और कुछ रुक्ष भी होती है ।

मेटाफिजिकल काव्य का आनन्द सम्बुद्धि ( इनटुइशन ) की लहर का आनन्द नहीं होता । यह वह आनन्द है , जो बुद्धि की विजय और तर्कों की सार्थकता से उत्पन्न होता है । विज्ञान और मेटाफिजिकल काव्य - दोनों का ध्येय बुद्धि को संतृप्ति देना है ।

साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव पड़ रहा है और वह हमारे रोके रुकने वाला नहीं है । किन्तु सोचने की बात यह है कि क्या वह प्रभाव सर्वथा वांछनीय है ? क्या वह अमिश्रित वरदान है ? साहित्य के भाव और शैली - पक्ष पर विज्ञान के जो प्रभाव पड़े हैं , उनमें से अनेक वांछनीय रहे हैं , मगर अनेक ऐसे भी हैं , जिन्हें देखकर मुझे चिन्ता होती है । विज्ञान की ' एकुरेसी ' यानी यथातथ्यता को अपनाने की चिन्ता कवियों में बहुत अधिक हो गई है और इसे मैं चिन्ता का विषय मानता हूँ । कविता का विलोम गद्य नहीं , विज्ञान है । फिर विज्ञान का अनुकरण हम कहाँ तक करेंगे ? ' क्या और क्यों ' पर सोचते-सोचते दर्शनों का जन्म हुआ था। ‘कैसे' पर सोचते-सोचते विज्ञान उत्पन्न हुआ है । कथ्य दर्शन है , शैली विज्ञान है । अगर कथ्य को छोड़कर हम सारा जोर शैली पर देंगे , तो निश्चय ही कविता से कवित्व का लोप हो जाएगा ।

कविता संस्कृति है , सभ्यता विज्ञान है । संस्कृति का नाम सुनते ही हमें कृष्टि , खेती या गाँव की याद आती है । किन्तु सभ्यता नगरों का गुण है । विज्ञान ने महानगरों की संख्या भी बढ़ा दी है । और दिनोंदिन वह उनकी संख्या में वृद्धि करता ही जाता है । आज संसार के दस - बारह महानगरों की समस्या मानव - जाति की समस्या समझी जा रही है , दस - बारह महानगरों की रुचि मानव मात्र की अभिरुचि बताई जा रही है । साहित्य पर महानगरों का आज जितना प्रभाव है , उतना प्रभाव पहले कभी नहीं था । इसे भी हम विज्ञान का ही प्रभाव मानते हैं ।

वैज्ञानिक सभ्यता सबसे बड़ा ढिंढोरा इस बात का पीटती है कि बुद्धिवाद के तीखे औजार से उसने मनुष्य की सभी जंजीरें काटकर उसे सभी दासताओं से मुक्त कर दिया है , जो दावा एक तरह से ठीक भी है । अफसोस की बात यह है कि मनुष्य को यही मालूम नहीं है कि इस मुक्ति को लेकर वह क्या करे ! बुद्धिवाद , टेक्नोलॉजी और विज्ञान द्वारा सिद्ध मुक्ति , उस गरुड़ की मुक्ति नहीं है , जो डैने खोलकर आकाश में उड़ता है , बल्कि वह उस कुत्ते की मुक्ति है , जो जंजीरों से छूटकर सड़क पर आ गया है और ट्रॉफिक में कुचल जाने के भय से इधर - उधर भाग रहा है । खुला कुत्ता जो भी चाहे , कर सकता है , जहाँ भी चाहे , जा सकता है । लेकिन उसे यह कौन बताए कि उसे कहाँ जाना चाहिए और चारों ओर के खतरों से अपनी रक्षा कैसे करनी चाहिए । विज्ञान शक्ति देता है , यह बात ठीक है । किन्तु आदमी उस शक्ति का उपयोग किस उद्देश्य के लिए करे , यह संकेत बराबर धर्म दिया करता था । और चूँकि विज्ञान के प्रतापी होने से धर्म निरादृत हो गया , इसीलिए विज्ञान से अर्जित शक्तियाँ मनुष्य के लिए अभिशाप बन गई हैं ।

जो साहित्य विज्ञान के प्रभाव में रचा गया है और जो वैज्ञानिक युग के पूर्व रचा के गया था , उन दोनों की तुलना से मुझे तो यही दिखाई देता है कि मध्यकालीन जगत में केवल दोष - ही - दोष नहीं थे । वह गहरे अन्धकार के साथ उज्ज्वल प्रकाश का भी समय था । यह ठीक है कि उस समय मनुष्य अपने परिवेश को कम जानता था , मगर इसीलिए वह अपनी आलोचना भी थोड़ी ही करता था । जब दुनिया अँधेरी थी , आसमान साफ था । जब दुनिया रोशनी से भर गई , आसमान पर अँधियाली छा गई । पहले मनुष्य को सत्य वहाँ भी दिखलाई पड़ता था , जहाँ वह था नहीं । अब जो सत्य है , उस पर भी आदमी का विश्वास टिकता दिखाई नहीं देता है । मध्यकालीन युग केवल तिमिर - ग्रस्तता का शिकार नहीं था , वह आनन्द और सन्तोष से भी प्रकाशित काल था , जब आदमी चीजों में विश्वास करता था और खुशी की रोशनी में जीता था । लन्दन के घंटाघर की आवाज उस समय संसार भर के लोग भले ही न सुनते रहे हों, लेकिन अपने पड़ोसियों के कराहने की आवाज उन्हें सुनाई देती थी। उस समय आँसू आज की अपेक्षा ज्यादा बहते थे और अधिक सहजता से बहते थे । उस समय कारीगर के बनाए सामान ही बेचे जाते थे , खुद कारीगर नहीं बिकता था ।

मध्यकालीनता की ये बातें बड़ी अच्छी थीं । किन्तु विज्ञान की गर्म हवा के लगने से मनुष्य का भावना - स्रोत सूख गया । अब साहित्य में हम ऐसे लोगों का चरित्र - चित्रण देखने लगे हैं , जो मिलते तो बहुत लोगों से हैं , मगर जिनका परिचय किसी से भी नहीं हो पाता । निःसंगता , अकेलापन और जिन्दगी से ऊब इस कदर बढ़ गई है कि अब दार्शनिक पूरी गम्भीरता से यह सोचने लगे हैं कि आखिर जिन्दगी जीने के योग्य है भी या नहीं । साहित्य पर यह सारा प्रभाव वैज्ञानिक सभ्यता ने डाला है ।

मगर इतना कुछ हो जाने पर भी हमारे हाथ क्या लगा है ? आदमी क्या चीज है ? जन्म के पहले वह कहाँ रहता है ? मृत्यु के उपरान्त वह कहाँ चला जाता है ? यह संसार किसी योजना के अधीन है अथवा वह अकस्मात् उछलकर हमारे सामने आ गया है ? ईश्वर हो सकता है या नहीं ? अगर वह है , तो इसका सबूत क्या है ? अगर वह नहीं है , तो इसका क्या प्रमाण है ? ये और ऐसे अनेक प्रश्न जो मनुष्य को पहले हैरान करते थे ; आज भी हैरान कर रहे हैं । हाँ , पहले का आदमी इन प्रश्नों पर सोचते - सोचते सृष्टि को ईश्वर की लीला कहकर सन्तोष कर लेता था , आज वह यह कहकर इन प्रश्नों से छुट्टी ले लेता है कि सृष्टि एक समस्या है , एक अभेद्य रहस्य है । मुझे लीला और अभेद्य रहस्य में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता ।

('आधुनिक बोध' पुस्तक से)

कहानियाँ और अन्य गद्य कृतियाँ : रामधारी सिंह दिनकर

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