Sahitya Ki Pragati (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand

साहित्य की प्रगति (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद

साहित्य की सैंकड़ों परिभाषाएँ की गई हैं और उनमें से हम अपना मतलब निकालने के लिए एक ही लेंगे। परिभाषा है तो पंडितों की वस्तु, मगर जब घर बनाना है तो नींव डालनी ही पड़ेगी। हवा में मकान बना सकते तो क्या बात थी, लेकिन अभी विज्ञान वह विद्या नहीं जान पाया है। साहित्य जीवन की आलोचना है, इस उद्देश्य से कि सत्य कि खोज की जाए। सत्य क्या है और असत्य क्या है, इसका निर्णय हम आज तक नहीं कर सके। एक के लिए जो सत्य है वह दूसरे के लिए असत्य। एक श्रद्धालु हिन्दू के लिए चौबीसों अवतार महान सत्य हैं – संसार की कोई भी वस्तु धन, धरती, पुत्र, पत्नी उसकी नजरों में इतनी सत्य नहीं हैं। उस सत्य की रक्षा के लिए बह अपनी ही नहीं, अपने पुत्रों की आहुति भी दे देगा। इसी प्रकार दया एक के लिए सत्य है, पर दूसरा उसे संसार के सब दु:ख का मूल समझता है और इसलिए असत्य कहता है। इसी सत्य और असत्य का संग्राम साहित्य है। दर्शन और विज्ञान का उद्देश्य भी यही है, लेकिन वह बुद्धि के रास्ते से वहाँ पहुँचा चाहता है। बेचारा साहित्य भी वही यात्रा कर रहा है लेकिन गंभीर विचार से, मौन न रहकर, केवल थकन मिटाने के लिए अपनी खंजरी बजाकर गाता भी जाता है। यह रास्ता तो काटना ही पड़ेगा, तो क्यों न हंस-खेलकर काटे। इसी ‘दया’ सत्य पर बड़े-बड़े धर्मों की बुनियाद पड़ी , यह मानों मानव जाति की ओर से इंद्र को ललकार थी, उनका सिंहासन छीनने के लिए, लेकिन आज उसका मजाक उड़ाया जा रहा है।

यह सत्य और असत्य की यात्रा उसी वक्त से शुरू हुई जब से मनुष्य में आत्मा का विकास हुआ। इसके पहले तो उसकी सारी शक्तियाँ प्रकृति से अपने भोजन के लिए लड़ने में ही खर्च हो जाती थीं। जब ये चिंता लगी हो कि आज बच्चे खायेंगे क्या या आज रात की सर्दी काटने के लिए आग कैसे बने, तो सत्य और असत्य के रोग कौन गाता। उस वक्त सबसे बड़ा सत्य वह भूख और ठंड थी। साहित्य और दर्शन सभ्य जीवन के लक्षण हैं, जब हममें इतना सामर्थ्य आ जाए कि पेट के सिवा कुछ और भी सोच सकें । रोटी-दाल से निश्चिंत होने के बाद ही खीर और पकौड़ी की सूझती है। आदि में मनुष्य में पशु-प्रकृति की ही प्रधानता थी। केवल पशुबल ही सबसे बड़ा अधिकार था। मगर जब मनुष्य आये दिन के कलह और संघर्ष से तंग आ गया तो तरह-तरह के नियम बने और मतों की सृष्टि हुई। नये-नये सत्यों का आविष्कार हुआ, जो प्रकृत सत्य न थे, वरन् मानव सत्य थे। मनुष्य ने अपने को नीति के बंधनों से जकड़ना शुरू कर दिया। जातियाँ बनीं, उपजातियाँ बनीं और जायदाद के आधार पर समाज का संगठन हो गया। पहले दस-पाँच भेड़-बकरियाँ और थोडा-सा अनाज ही संपत्ति थी। फिर स्थावर संपत्ति का आविर्भाव हुआ और चूँकि मनुष्य ने इस संपत्ति के लिए बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ की थीं, बड़े-बड़े कष्ट उठाये थे, वह उसकी नजरों से सबसे बहुमूल्य वस्तु थी। उसकी रक्षा के लिए वह अपनी और अपने पुत्रों के प्राणों की बाजी लगा सकता था। विवाह-प्रथा को ऐसा रूप दिया गया कि संपत्ति घर से बाहर न जाने पावे। और उस धुँधले अतीत से आज तक का मानव-इतिहास केवल संपत्ति-रक्षा का इतिहास है। तब समाज में दो बड़े-बड़े भेद हो गए। जो संसार के इस संग्राम में परास्त हो गए, उन्होंने ईश्वर-भजन का आश्रय लिया और संसार को माया कहकर उससे विरक्त हो गए और नये-नये बंधन बनने लगे, यहाँ तक कि हमारे क्षेत्र संकुचित होते- होते रूढ़ियों का एक कारागार-सा बन गया। धर्म के नाम पर हजारों तरह के पाखंड समाज में घुस आये, जिनमे उलझकर मानव समाज की गति रुक गयी। अति सब चीज की दु:खकर होती है। यह प्रकृति का नियम है। वही संस्थाएं जिनका निर्माण समाज में कल्याण के निमित्त किया गया था अंत में समाज के पाँव की बेड़ियाँ बन गई। वही दूध, जो एक मात्रा में अमृत है उस मात्रा से बढ़कर विष हो जाता है। मानव-समाज में शांति का स्थापन करने क लिए जो-जो योजनाएं सोच निकाली गईं वह सभी कालांतर में या तो जीर्ण हो जान के कारण अपना काम न कर सकीं या कठोर हो जाने के कारण कष्ट देने लगी। जो पहले कुलपति था वह राजा बने। फिर इतना शक्तिशाली बन बैठा कि अपने को भगवान का कारकुन समझने लगा, जिससे बाजपुर्स (सवाल-जवाब) करने का किसी मनुष्य को अधिकार न था। उसकी अधिकार-तृष्णा बढ़ने लगी। उसकी इस तृष्णा पर समाज का रक्त बहने लगा। अंत में आदम जाति में इन दशाओं के प्रति विद्रोह का भाव उत्पन्न हो गया। मनुष्य की आत्मा इन निरर्थक ही नहीं, घातक बंधनों को मकड़ी के जाले की भांति तोड़-फोड़ करके निर्मल, स्वच्छ, मुक्त आकाश और वायु में विचरण करने के लिए आतुर हो उठी। बीच-बीच में कितनी ही बार ऐसे विद्रोह उठे। हमारे जितने मत हैं, वह सब इसी विद्रोह के स्मारक हैं, किंतु उन विद्रोह में कलह की जो मुख्य वस्तु थी, वह ज्यों की त्यों बनी रही। संपत्ति में हाथ लगाने का किसी को या तो साहस ही न हुआ या तो किसी को सूझी ही नहीं। जो इन सारे दुर्व्यवस्थाओं का मूल था वह इतने सौम्य वेश में धर्म और विद्या और नीति के आवरण में महान बना हुआ बैठा था, कि किसी को उसकी ओर संदेह कर की भी प्रेरणा न हुई। हालांकि उसी के इशारे और सहयोग से समाज पर नित नये बंधन लगाए जा रहे हैं। यह बड़े-बड़े न्यायालय और यह साम्राज्यवाद और ये बड़े बड़े व्यापार के केंद्र उसी के रचे हुए खिलौने हैं। ये भिन्न-भिन्न मत उसके खिलौनों के सिवा और क्या हैं। यह जात-पांत ऊँच-नीच का भेद उसी की छोड़ी हुई फुलझडियाँ हैं। यह चकले, जो मानव-समाज के कोढ़ हैं, उनके क्रूर विनोद हैं। यह हमारी असंख्य विधवाएँ, यह हमारे लाखों मजूर जो पशुओं की भांति जीवन काट रहे हैं, उसी भानमती के छू-मंतर की विभूतियाँ हैं, उसने Puritanism [1] का कुछ ऐसा निषेधात्मक रूप ग्रहण कर लिया है, कि जो उससे अणु मात्र भी विमुख हो जाएँ उसकी खैरियत नहीं। उसका कानून मार्शल-ला से कहीं कठोर, कहीं जान-लेवा है। उसकी अपील के लिए कहीं कोई tribunal (न्यायपालिका) नहीं है । सारांश यह कि उसने जीवन को इतना संकीर्ण, इतना उलझनदार, इतना अन्यायपूर्ण, इतना स्वार्थमय, इतना कृत्रिम बना दिया है कि मानवता उससे भयभीत हो उठी है और उसको उखाड़ फेंकने के लिए, उसके पंजों से निकल जाने के लिए वह अपना पूरा जोर लगा रही है। इन रूढ़ियों ने, इन बंधनों ने, इन असत्य बाधाओं ने, ब्राह्मण की व्यापक चेतना में जो दर्बे-से बना दिये हैं, जिनमे बन्द होकर वह अपनी स्वच्छंदता खो बैठे हैं, आज हमारी आत्मा उन दर्बों को तोड़कर उस व्यापक चेतना से सामंजस्य प्राप्त करने के लिए उतारू हो गयी है। संभव है, रस्सी को जोर से खींचकर इसके टूटने के साथ ही वह अपने ही जोर में गिर पड़े। संभव है पिंजरे में बन्द पक्षी की भांति पिंजरे से निकलकर वह शिकारी चिड़ियों का ग्रास बन जाए, पर उसे गिरना मंजूर है, ग्रास बन जाना मंजूर है, उन दर्बों में रहना मंजूर नहीं। संसार को जी भरकर भोगने की अबाध लालसा जिसे सदियों की Puritanism ने खूं-ख्वार बना दिया है, सर्व-भक्षी बन जाना चाहती है। निषेधों की उसे बिल्कुल परवाह नहीं है। वह पाप को पुण्य, असत्य को सत्य और अपूर्ण को पूर्ण बना देना ठान बैठी है उसने Puritanism का सदियों तक व्यवहार करके देख लिया है और अब बिना उसे जमीन में दफन किये उसे चैन नहीं। झूठ बोलना पाप है । क्यों पाप है? अगर उस झूठ से समाज का अहित होता है तो वह बेशक पाप है अगर उससे समाज का कल्याण होता है, तो वह पुण्य है। निरपेक्ष सत्य के अस्तित्व को ही वह स्वीकार न करती। चोरी को तुम पाप कहते हो? तुम चाहते हो कि संसार की सारी संपत्ति बटोरकर उस पर एकाधिपत्य जमा लो। कोई उसे छूए तो उसके लिए जेल है, फांसी है। हममें और तुम्हें इसके सिवा और क्या अंतर है, तुम सफल चोर हो और हम चोर-कला में तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकते। इस Puritanism ने हमारी आत्मा को कितना शुष्क काठ का-सा कठोर बना दिया है कि उसमे रस का लोप हो गया। कविता कितनी ही सुंदर और भावमयी हो, वह उसका आनंद नहीं उठा सकती। इससे वासनाओं का उद्दीपन होता है। चित्रकला से तो उसे दुश्मनी है। भला मनुष्य की क्या मजाल है कि वह परमात्मा के काम में दखल दे। सृष्टि परमात्मा का काम है: मनुष्य अगर उसकी नकल करता है, तो उसे सूली पर चढ़ा दो, फांसी पर लटका दो। इतिहास में ऐसे धर्मात्माओं की कमी नहीं हे जिन्होंने पुस्तकालय जला दिए, चित्रालयों को भूमिस्थ कर दिया, संगीत के उपासकों को निर्वासित कर दिया। तीर्थ स्थानों में जो पिशाच-लीलाएँ होती हैं वह इसी Puritanism का प्रसाद हैं। आज भारत में जो पाँच करोड़ अछूत, नौ करोड़ मुसलमान और शायद एक करोड़ ईसाई हैं और जिस अनैक्य के कारण राष्ट्र के विकास में बाधाएं खड़ी हो गयी हैं, उसका जिम्मेदार इस Puritanism के सिवा और कौन है? और जगहों में तो प्यरिुटेनिज्म से ज्यादा हानि नहीं होती, मत शराब पियो, मत मांस खाओ। इसके बगैर समाज की कोई हानि नहीं। दरिद्र देश में पैसे का दरुपयोग किसी तरह भी क्षम्य नहीं। लेकिन इससे पैदा होने वाली अहम्मन्यता तो और भी जघन्य है। त्याग और संयम स्तुत्य हैं, उसी हालत में, जब वह अहंकार को न अंकुरित होने दे, लेकिन दुर्भाग्य से इन दोनों में कारण और कार्य सा निबंध पाया जाता है। जो जितना ही नीतिवान है, वह उतना ही अहंकारी भी है। इसलिए समाज आचारवानों को संदेह की आँखों से देखता है। एक शराबी या ऐयाश आदमी अगर उदार हो, सहानुभूति रखता हो, क्षमाशील हो, सेवा-भाव रखता हो तो समाज के लिए वह एक पक्के आचारवादी किंतु अनुदार, घमंडी, संकीर्ण हृदय पुरुष से कहीं ज्यादा उपयोगी है। प्यरिुटन मनोवृत्ति जैसे इस ताक में रहती है कि किसका पाँव फिसले और वह तालियाँ बजाये। प्यरिुटनिज्म और अनुदारता दो पर्याय-से हो गए हैं और जहाँ सेक्स का प्रश्न आ जाता है, वहाँ तो वह नंगी तलवार बारूद का ढेर है। यहाँ वह किसी तरह की नर्मी नहीं कर सकता। उसे अपने नियमों की रक्षा के लिए किसी का जीवन नष्ट कर देने में एक प्रकार का गौरव युक्त आनंद प्राप्त होता है। भोग उसकी दृष्टि में सबसे बड़ा पाप है। चोरी करके हम समाज में रह सकते हैं, धोखा देकर, झूठी गवाही देकर, निर्बलों को कुचलकर मित्रों से विश्वासघात करके, अपने स्त्री को डंडों से पीटकर हम समाज में रह सकते है, उसी शान और अकड़ के साथ, लेकिन भोग अक्षम्य अपराध है। उसके लिए कोई प्रायश्चित नहीं। पुरुषों के लिए तो चाहे किसी तरह क्षमा सुलभ भी हो जाए, किंतु स्त्रियों के लिए क्षमा का द्वार बन्द है और उन पर अलीगढ़ वाला बारह लीवर का ताला पड़ा हुआ है। इसी का यह प्रसाद है कि हमारी बहनें और बेटियाँ आये दिन तीर्थ-स्थान में लाकर छोड़ दी जाती हैं और इस तरह उन्हें कुत्सित जीवन बिताने के लिए मजबूर किया जाता है। हम केवल अपराधी को दंड देकर संतुष्ट नहीं होते, उसके कुटुम्ब का, उसकी संतान का और संतानों की भी संतान का बहिष्कार कर देते हैं। हम स्त्री या पुरुष किसी के लिए भी व्यभिचार के समर्थक नहीं, लेकिन यह कहाँ का न्याय है कि जिस अपराध के लिए पुरुष को दंड देने में हम असमर्थ हों, उसी अपराध के लिए कुमारियों या विधवाओं को कलंकित किया जाए? सौभाग्यवतियों को हमने इसलिए छोड़ दिया है कि परिस्थितियाँ उनके अनुकूल हैं और समाज उन्हें दंड देने में असमर्थ है। जो पुरुष स्वयं बड़े धड़ल्ले से व्यभिचार करता है, वह भी अपनी स्त्री को पिंजरे में बन्द रखना चाहता है और यदि वह मानव स्वभाव से प्रेरित होकर पिंजरे से निकलने की इच्छा करें, तो उसकी गरदन पर छुरी फेरने से भी नहीं हिचकता। यह सामाजिक विषमता असह्य हो उठी है और वह बड़ी तेजी से विद्रोह का रूप धारण कर रही है।

इन सामाजिक दशाओं का हमने इसलिए संक्षिप्त वर्णन किया है कि जैसा हमने आरंभ में कहा है – साहित्य जीवन की आलोचना है, इस उद्देश्य से कि उससे सत्य और सुंदर की खोज की जाए। बाह्य जगत हमारे मन के अंदर प्रवेश करके एक दूसरा जगत बन जाता है, जिस पर हमारे सुख-दु:ख , भय-विस्मय, रुचि या अरुचि का गहरा रंग चढ़ा होता है। एक ही तत्त्व भिन्न-भिन्न हृदयों में भिन्न भाव उत्पन्न करता है। एक आदमी अपने लड़के को इसलिए पीट रहा है कि लड़का खिलाड़ी मन लगाकर नहीं पढ़ता। इस पर तरह-तरह की आलोचनाएँ होती हैं। बाप का धर्म है कि लड़के को कुराह चलते देखे, तो उसे ताड़ना दे। यह सनातन रीति है। दूसरा कहता है – नहीं लड़का केवल इस लिए खिलाड़ी हो गया है कि उसे प्रेम से पढ़ाया नहीं जाता। यह बाप का दोष है। तीसरा आदमी एक कदम और आगे जाता है और कहता है – खेलना लड़कों का स्वाभाविक धर्म है, यही उनकी शिक्षा है। बाप को कोई अधिकार नहीं है कि वह लड़के के प्राकृतिक विकास में बाधक हो। एक चौथा आदमी बाप की इस ताड़ना में पुत्र-स्नेह का नहीं – स्वार्थ, लोभ, दंभ का रंग झलकता हुआ देखता है। बाह्य जगत और मनुष्य में यही अंतर है। साहित्य की रचना करने वाले तो वही होते हैं जो जगत-गति से विशेष-रूप से प्रभावित होते हैं, जिनके मन में संसार को कुछ अधिक सुंदर, कुछ अधिक उत्कृष्ट देखने की महत्त्वाकांक्षा, होती है। वे असुंदर को देखकर जितने दु:खी होते हैं, उतना ही सुंदर को देखकर प्रसन्न होते हैं। और वे अपने हर्ष या शोक का एक भाग देना चाहते हैं। भाव को अपना बनाकर सबका बना देना, यही साहित्य है। डा. रवीन्द्रनाथ ने अपने ‘सौंदर्य और साहित्य’ नामक निबंध में लिखा है –

‘सौंदर्य-बोध जितना विकसित होता जाता है, उतना स्वतंत्रता के स्थान पर सुसंगति, आघात के स्थान पर आकर्षण, आधिपत्य के स्थान पर सामंजस्य हमें आनंद देता है।’

हम उसमे इतना और मिला देंगे – अनुदारता की जगह उदारता, भेद की जगह मेल, घृणा की जगह प्रेम।

नवीन साहित्य की रुचि में बिल्कुल यही विकास नजर आ रहा है। वह अब आदर्श चरित्रों की कल्पना नहीं करता। उसके चरित्र अब उस श्रेणी में से लिये जाते हैं जिन्हें कोई प्यरिुटन छूना भी पसंद न करेगा। मैक्सिम गोर्की, अनातोल फ्रांस, रोमांरोलां, एच. जी. वेल्स आदि योरोप के, स्वर्गीय रतननाथ सरशार, शरद्चन्द्र आदि भारत के – ये सभी हमारे आनंद के क्षेत्र को फैला रहे हैं, उसे मानसरोवर और कैलाश की चोटियों से उतारकर हमारे गली-कूचों में खड़ा कर रहे हैं। वह किसी शराबी को, किसी जुआरी को, किसी विषयी को देखकर घृणा से मुँह नहीं फेर लेते। उनकी मानवता पतितों में वह खूबियाँ, उसे कहीं बड़ी मात्रा में देखती हैं, जो धर्म ध्वजाधारियों में और पवित्रता के पुजारियों में नहीं मिलती। बुरे आदमी को भला समझकर, उससे प्रेम और आदर का व्यवहार करके उसको अच्छा बना देने की जितनी संभावना है, उतनी उससे घृणा करके, उसका बहिष्कार करके नहीं। मनुष्य में जो कुछ सुंदर है, विशाल है आदरणीय है, आनंदप्रद है, साहित्य उसी की मूर्ति है। उसकी गोद में उन्हें आश्रय मिलना चाहिए, जो निराश्रय हैं, जो पतित हैं, जो अनादृत हैं। माता उस बालक से अधिक-से-अधिक स्नेह करती है, जो दुर्बल है, बुद्धिहीन है, सरल है। सपूत बेटे पर वह गर्व करती है। उसका हृदय दु:खी होता है, कपूतों के लिए। कपूत ही में वह अपने मातृ-वात्सल्य को टिका पाती है। बीस-पच्चीस साल पहले वेश्या साहित्य से बहिष्कृत थी। अगर कभी वह साहित्य में लायी जाती थी, तो केवल अपमानित किये जाने के लिए। रचयिता की प्यरिुटन मनोवृत्ति बिना उसे मनमाना दंड दिये विश्राम न लेती थी। अब वह साहित्य में अपमान की वस्तु नहीं, आदर और प्रेम की वस्तु बन गई है। गऊ को हत्या के लिए बेचने वाला अगर दोषी है तो खरीदने वाला कम दोषी नहीं है। खरीदने वाले का अगर समाज में आदर है तो बेचने वाले का क्यों अनादर हो? वेश्या में बेटीपन है, मातापन है, पत्नीपन है। उसमे भी भक्ति और श्रद्धा है, सहृदयता है। उसका तो जीवन ही पर सुख के लिए अर्पित हो गया है। वह समाज के गद्य की सूक्ति है। उसके शोभा इस में है कि वह गद्य में घुल-मिलकर संपूर्ण गद्य को सजीव और चमत्कृत कर दे। सूक्तियों को चुनकर अलग कर देने से उनका सूक्तिपन ज्यों का त्यों रहता है, समाज शुष्क हो जाता है। अगर कोई ईश्वर है, तो ये देवदासियाँ हिसाब के दिन उससे पूछेंगी हमने सदा पर-सुख चेष्टा की, सदैव दूसरों के जख्म पर मरहम रक्खा, जख्मी भी किया लेकिन प्राण लेने के लिए नहीं, बल्कि अपना प्रेम Inject करने के लिए। क्या उसका यही पुरस्कार था?-और हमें विश्वास है, ईश्वर उन्हें कोई जवाब न दे सकेगा। प्राचीनकाल की अप्सराएँ तो देवताओं और ऋषि-मुनियों की मंजूरे नजर थीं। हम उनकी कलजुगी बेटियों का किस मुँह से अनादर कर सकते हैं।

ईश्वर का जिक्र बड़े मौके से आ गया। साहित्य की नवीन प्रगति उनसे विमुख हो रही है। ईश्वर के नाम पर उनके उपासकों ने भू-मंडल पर जो अनर्थ किए हैं और कर रहे हैं। उनके देखते इस विद्रोह को बहुत पहले उठ खड़ा होना चाहिए था। आदमियों के रहने के लिए शहरों में स्थान नहीं है, मगर ईश्वर और उनके मित्रों और कर्मचारियों के लिए बड़े-बड़े मंदिर चाहिएं। आदमी भूखों मर रहे हैं, मगर ईश्वर अच्छे से अच्छा खायगा, अच्छे से अच्छा पहनेगा और खूब विहार करेगा। अपनी सृष्टि की खबर लेना उसने छोड़ दिया, तो साहित्य भी, जो ईश्वर के दरबार में प्रजा का वकील है साफ साफ कह देगा – आपकी यह स्वार्थपरता आपकी शान के खिलाफ है। लेकिन ईश्वर की लीला कुछ ऐसी विचित्र है, कि हम मुँह से जितने ही अनीश्वरवादी बनते हैं, भग से उतने ही ईश्वरवादी बन जाते हैं। अब तक मुँह से ईश्वरवादी थी, आत्मा से पक्के नास्तिक। अब परिस्थिति बदल रही है और सच्चा ईश्वरवाद ऊषा की लालिमा से रोशन हो रहा है। घृणा को ईश्वरवाद से क्या प्रयोजन। जहाँ मेल है, सामंजस्य है, वहीं ईश्वर है। नकली ईश्वरवाद से आत्मवाद प्रस्फुटित हो रहा है।

लेकिन इसके साथ युवकों का भौंगापन और यवुतियों का तितलीपन भी नवीन प्रगति का एक लक्षण है। जिसके हम समर्थक नहीं। प्रणय केवल मनोविनोद की वस्तु नहीं। वह इससे कहीं पवित्र और महान है। वह आत्म समर्पण है, स्त्री के लिए भी और पुरुष के लिए भी। वर्तमान योरोपीय साहित्य बड़े वेग से अबाध प्रेम की ओर जा रहा है। वैवाहिक मैत्री और वैवाहिक परीक्षा की समस्याएँ साहित्य में हल की जा रही हैं। यह पेटभरों की स्वाद लिप्सा है। संसार का सारा धन खींचकर वे अब निश्चिंत हो गए हैं और निश्चिंत आदमी कामुकता की ओर न जाये, तो क्या करे! बौद्धिक विकास के लिए रसिकता परमावश्यक है। रस की उपेक्षा केवल दुर्बल ओर रक्तहीन प्राणी ही कर सकता है। जो स्वस्थ है, बलवान है, उसका रसिक होना अनिवार्य है, लेकिन रसिकता और कामुकता में जो अंतर है, उसे योरोप का साहित्य भूलता जा रहा है। सदियों के बंधन और निग्रह के बाद अब जो उसे यह वस्तु मिली है तो वह सर्वभक्षी हो जाना चाहता है। इस क्षुधातुरता की दशा में उसे खाद्य और अखाद्य कुछ नहीं सूझता। स्त्री और पुरुष दोनों ही वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं। अगर वह प्यरिुटनिज्म सीमा का अतिक्रमण कर गया था, तो यह रसिकता भी सीमा के बाहर निकली जा रही है। अब तक पुरुष इस क्षेत्र में विजय-कामना किया करता था। अब स्त्री भी योरोपीय साहित्य में उसी मनोवृत्ति का प्रदर्शन कर रही है। उसे शीतप्रधान देश के लिए सदैव उत्तेजना की जरूरत है। वहाँ जमे हुए घी को पिघलाने के लिए थोड़ी-सी गर्मी चाहिए ही। यहाँ तो घी यों ही पिघला रहता है, उसके लिए आँच दिखाने की जरूरत नहीं। रसिकता भोजन-रूपी जीवन के लिए चटनी के समान है, जो उसके स्वाद और रुचि को बढ़ा देती है। केवल चटनी खाकर तो कोई जीवित नहीं रह सकता।

विषय बहुत बड़ा है। एक छोटे-से भाषण से उसकी काफी व्याख्या नहीं की जा सकती। समाज की वर्तमान संगठन दूषित है। दु:ख , दरिद्रता, अन्याय, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकार, जिनके कारण संसार नरक के समान हो रहा है, इनका कारण दूषित समाज-संगठन हैं। सोशियोलोजी के साथ साहित्य भी इसी प्रश्न को हल करने में लगा हुआ है।

[हिन्दूविश्वविद्यालय की बिहारी एसोसिएशन के वार्षिक उत्सव पर पढ़ा गया। ‘ हंस’, मार्च, 1933 में प्रकाशित]

[1] 16 वीं शताब्दी में आरम्भ हुआ ईसाई धर्म की शुद्धिकरण का आन्दोलन, जिसका उद्देश्य ईसाई धर्म को धार्मिक परम्पराओं और आडम्बरों से मुक्त करना था।

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