साहित्य के अमृत-घट में राजनीति का घासलेट ! (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Sahitya Ke Amrit-Ghat Mein Rajneeti Ka Ghaaslet ! (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की बात इस बार करनी है। 'गिरा अर्थ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।' तुलसी की प्रसिद्ध उक्ति है जिसमें 'शब्द' और 'अर्थ' की अभिन्नता का रूपक साधा है महाकवि ने ।
और हमारे इस जमाने में महासेठ ने साधा है 'गिरा' और 'अर्थ' के परस्पर विपरीत होने का रूपक - 'हिंदी साहित्य सम्मेलन ।'
बात समझाऊँगा । 'मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन' जिसका नाम है उसमें 'हिंदी' इतनी है कि वह हिंदी के नाम पर चलता है और 'साहित्य ?' जहाँ साहित्य की बिलकुल बात न हो, जो असाहित्यिक है - (व्यक्ति और बात ), उसी का सम्मेलन ! बहुब्रीहि समास का विग्रह कर यों कह सकते हैं-
'जहाँ से हिंदी साहित्य निष्कासित कर दिया गया हो-सो हिंदी साहित्य सम्मेलन !'
गोंदिया जाकर जब हमने अकोला की दूकान की 'गोंदिया ब्रांच' का उद्घाटन देखा तो तय किया कि 'न गंगदत्तों पुनरेति कूपं !'
'ह्याँ की बातें तो यहिं छोड़ों, अब आगे का सुनो हवाल ।'
दुर्ग सम्मेलन में 'सरकारी' स्वयंभू साहित्यिकों ने प्रस्ताव रखा कि साहित्य सम्मेलन एक अभिनंदन ग्रंथ भेंट करे। किसे ?
बख्शीजी को ?
नहीं, उन्हें नहीं । उन्होंने तो जीवन भर साहित्य के लिए ही घोर तप किया है। फकीरी स्वीकारी है। पंडित माखनलालजी को ?
नहीं, उन्हें भी नहीं ! उन्होंने तो इस प्रदेश के जीवित साहित्यकारों में सबसे अधिक वर्ष साहित्य-सृजन को दिए हैं।
इन दोनों तथा अन्य अनेक साहित्य-साधकों को साहित्य सम्मेलन अभिनंदन ग्रंथ भेंट नहीं करेगा। वे तो निरे साहित्यकार हैं बेचारे !
फिर किसे ?
प्रांत के मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल को उनकी सेवाओं के लिए।
हमने मान लिया, पंडितजी ने हिंदी के चरणों में माथा झुकाया है-सेवा की है। वे वयोवृद्ध हैं। उनका सम्मान हमें भी स्वीकार नहीं । पर साहित्य सम्मेलन 'साहित्य' - सेवा के लिए अभिनंदन करना चाहे तो किसका करेगा? शुक्लजी का? या चतुर्वेदीजी व बख्शीजी का ? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं शुक्लजी से किसी ईमानदारी के निर्मल क्षण में पूछ लीजिए - उत्तर उनके अपने पक्ष में बिलकुल न होगा।
शुक्लजी का प्रधानतः राजनैतिक जीवन है। राजनीति में सेवाएँ हैं। जो उनकी 'सेवा'-'सेवा' की पुकार लगाते हैं और इस कारण उनके सिर पर साहित्य का मुकुट धरना चाहते हैं, वे इस बात को समझें कि राज्य की राजगद्दी पर इतने वर्षों तक बिठा देना उनकी समस्त सेवाओं का अधिक पुरस्कार है! बस ! इससे अधिक नहीं ।
कोई भी मुख्यमंत्री डॉक्टर रघुवीर को सरकारी पैसे से शब्दावली निर्माण के लिए बिठा सकता है।
कोई भी मुख्यमंत्री हुक्म दे सकता है कि फलाँ तारीख से शासन का काम हिंदी में हो ।
यह राजभाषा का सवाल है । कोई भी सरकार इसे करेगी। यह उसका कर्तव्य है । उसके लिए अभिनंदन ग्रंथ नहीं अर्पित किया जाता। मुख्यमंत्री पद इस सबका यथेष्ट से अधिक पुरस्कार है।
शुक्लजी के प्रति हमारे मन में फिर भी कोई असम्मान नहीं। हमें अच्छा लगता अगर वे कह देते कि नहीं, अभिनंदन करो उनमें से किसी का जिन्होंने अपनी रक्त की हर बूँद से साहित्य का सृजन किया है। पर पंडितजी बहुत 'भोले' हैं । होंगे साहब !
तो दुर्ग की बात सुनिए। 'शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ' का प्रस्ताव आया। किसी ने 'माखनलाल अभिनंदन ग्रंथ' का प्रस्ताव रख दिया। इस तरह जन्म-भर साहित्य सेवी की और जन्म-भर राजनीतिसेवी की टक्कर करा दी - साहित्य सम्मेलन में ही ! बात टाली गई और निर्णय किया गया कि कार्यकारिणी इसका निर्णय करेगी।
इस बीच में अभिनंदन के उत्साहियों ने तिकड़म जमाना आरंभ किया । उत्साहियों के उत्साह की भी व्याख्या करनी पड़ेगी और इस उत्साह नद के उद्गम को खोजना पड़ेगा।
बात सीधी है । 'पंडित नेहरू के बाद कौन ?' के 'माइल' पर मध्यप्रदेश में 'पं. शुक्ल के बाद कौन ?' चल पड़ा है; खासकर उनकी दिल्ली में बीमारी के बाद (वे चिरायु हों !) और साहित्य-सम्मेलन के सभापति अपने को शुक्लजी का निकटस्थ, कृपापात्र, विश्वासपात्र, उत्तराधिकारी बनाने में संलग्न हैं। इस अभिनंदन ग्रंथ की सीढ़ी पर चढ़कर शुक्लजी की कृपा के शिखर पर चढ़ना चाहते हैं। उन्हें मुख्यमंत्री बनना है भाइयो! यह तो हुआ उद्गम इस 'अभिनंदन - उत्साह नद' का ।
अब इसमें नाले भी आकर मिल गए हैं-
अखबार में सरकारी विज्ञापनों के स्वार्थ का नाला !
ऊँची सरकारी नौकरी का नाला ! पुरस्कार का नाला!
ठेके का नाला !
इन्कमटैक्स बचत का नाला!
भ्रष्टाचार - दोष-मुक्ति का नाला !
आदि । और यह नद बड़े वेग से बदबदाता हुआ आगे बढ़ रहा है।
कार्यकारिणी की बैठक तक 'उत्साहियों' ने माखनलाल अभिनंदन वाले प्रस्ताव को वापस करा लेने का प्रबंध कर लिया था । बैठक में वह वापस हो गया। और शुक्लजी वाला मंजूर हो गया। पर इसके बाद माखनलालजी वाले प्रस्ताव के जनक प्रस्ताव वापसी का स्पष्टीकरण करने खड़े हुए कि उनके नाम से धन नहीं मिल सकता, इसलिए साहित्यकारों का अभिनंदन करना कठिन है ।
अतएव मुख्यमंत्री का ही अभिनंदन करना चाहिए, क्योंकि उनके नाम से धन मिल सकता है।
धन्य है !
पर वे यह भी बोले कि माखनलालजी के लिए तो मैं ही 10 हजार रुपए इकट्ठे करा सकता हूँ ।
तो सभापतिजी बोले-‘मैं 15 हजार देता हूँ, मेरा ही अभिनंदन करा दो!' धन्य है कुबेर !
याने साहित्यकारों के नीलाम के लिए बोलियाँ लगने लगीं। सेठ सभापति की बोली सबसे ऊँची होने ही वाली है। माखनलालजी हार गए।
पर छीछालेदार हो गई। साहित्य के अमृत-घट में राजनीति का घासलेट बेचनेवालों ने गत कर दी ! उनके नादान दोस्तों ने भी !
और अब संपादन-समिति बन गई है भाइयो!
महाजनी सभ्यता के इस युग में अब अभिनंदन कराना बहुत सहज हो गया है। आप 10-15 हजार रुपए लेकर सम्मेलन के पास जाइए, वह आपका अभिनंदन कर देगा। मंत्री हो गए तब तो यह कीमत दूसरे ही पटा देंगे। अगर आप साहित्यकार हैं तो आपका अभिनंदन नहीं होगा, क्योंकि आपके पास पैसा है न आपको कोई पैसा देगा!
गोंदिया सम्मेलन में अपनी 35 वर्षों की तपस्या की दुहाई देकर 'सेठ मंत्री' को सभापति बनाने के लिए झोली में 'वोटों' की भीख बटोरनेवाले श्रद्धेय पं. माखनलाल चतुर्वेदी को यह लेख सग्लानि, सरोष, सादर समर्पित है ।
और हिंदी के साहित्यकारो !
'मोर भवन' की ईंटों को चाटो और साहित्य-सृजेताओं का अनादर होते देखो !
इस प्रकार 'सियावर रामचंद्र की जय' हो गई।
प्रहरी, 19 दिसम्बर, 1954