साहित्य और साहित्यकार (निबंध) : महादेवी वर्मा

Sahitya Aur Sahityakar (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

मनुष्य का विकास समस्याओं का विस्तार है, यह आज के युग में जितना सत्य है, उतना कदाचित् ही किसी अन्य युग में रहा हो।

विज्ञान एक ओर मनुष्य की भौतिक समस्याओं को हल करता है, दूसरी ओर उसकी मानसिक समस्याओं को जटिलतर बनाता चलता है। उसने मनुष्य की हानि पहुंचाने वाली प्रवृत्ति को उसकी शक्ति का मापदंड बनाकर जीवन में एक चिंतनीय स्थिति उत्पन्न कर दी है। आतंक के पंखों पर आने वाली ध्वंसात्मक प्रवृत्तियां अपने वेग के कारण तुरंत दृष्टि का केंद्र बन जाती हैं; पर नियामक प्रवृत्तियों का अस्तित्व उनके निर्माण में ही व्यक्त हो सकता है। हम आंधी, वज्रपात के समय आकाश की ओर जितने उन्मुख होते हैं, उतने सुनहली धूप में नहाते समय नहीं। किसी ज्योतिःपिंड का टूटना, हमें जितना विचलित करता है, उतना अंकुर का धरती से फूटना नहीं। वैसे ज्योतिःपिंड के टूटने में सनातन ऋत नियम टूटता है, अंकुर फूटने में वह नियम अखंड रहता है। इसी से आलोकित आकाश से धरती पर गिर कर ज्योतिःपिंड आलोकरहित शिलाखंड मात्र रह जाता है और अंकुर पल्लवित होकर धरती के अंधकार से आकाश के आलोक की ओर बढ़ता है।

साहित्य मूलतः निर्माण है, व्यक्ति के लिए भी और समष्टि के लिए भी, अतः उसे सृजन के किसी विराट् ऋत की परिधि में चलने वाले एक जीवन-ऋत की ही संज्ञा दी जा सकती है। सृजन के अन्य महान् ऋतों के समान ही यह वरदान और अभिशाप का भागी है।

वरदान है कि मानव जीवन की विकास परंपरा को खंड-खंड बिना किए उसे खंडित नहीं किया जा सकता। अभिशाप है कि उसकी स्थिति में दूसरों की आस्था ही उसकी उपेक्षा का कारण बन जाती है।

आज के विज्ञान समृद्ध और राजनीति अनुशासित युग में भी यदि किसी देश से कहा जावे कि उसे साहित्य के बिना जीना चाहिए तो वह विस्मित भी होगा और रुष्ट भी। उसे यह सुझाव जीवन के निषेध जैसा भी लग सकता है और बर्बरता के लांछन जैसा भी। परंतु यदि संसार के सब महान् साहित्यकार समवेत् स्वर में घोषणा करें कि वे साहित्य-सृजन नहीं करेंगे, तो न कोई उनका विश्वास करेगा और न उन्हें इस निश्चय से विरत करने का प्रयत्न करेगा। इसके विपरीत यदि किसी अन्य क्षेत्र के व्यक्ति, चाहे वे वैज्ञानिक हों चाहे श्रमिक, यदि अपने कार्य से विरत होने की घोषणा करें, तो उन्हें रोक सकने के लिए दंड और पुरस्कार दोनों के विविध उपयोग किए जाएंगे।

इस प्रत्यक्षतः उपेक्षित स्थिति के मूल में साहित्य के प्रति कोई अटूट आस्था नहीं है, यह मान लेना उचित न होगा।

हम रात भर सूर्य से लौटने के लिए प्रार्थना नहीं करते। हम ग्रीष्म की दोपहरियों में समुद्र तट पर बैठ कर उसे बादल भेजने के लिए निहोरा नहीं करते। हम सांस के लिए पवन के पास दूत नहीं भेजते; पर क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि हमें उनकी निरंतर उपलब्धि में अखंड विश्वास है। साहित्य का प्रश्न बहुत कुछ ऐसा ही है। साहित्य की स्थिति में आस्था रखने के कारण ही हम उसके स्रष्टा के अस्तित्व के विषय में आश्वस्त रहते हैं। साहित्य हमारे निकट जीवन की गंभीर अभिव्यक्ति है, उसका अलंकार मात्र नहीं, अतः उसकी प्राप्ति की दिशा में हमारे सावधान प्रयत्न मात्र पर्याप्त नहीं होते।

पर इस आस्था ने साहित्यकार के जीवन के सभी प्रश्नों को दोहरे समाधानों से बांध दिया है। उसकी महानता और लघुता की कसौटी समाधानों के चुनाव में है। वह व्यक्ति भी है और संस्था भी। व्यक्ति किसी निर्माण को समग्रता में न देखते हुए भी श्रम कर सकता है; परंतु संस्था को तो समग्रता में ही निर्माण करना होता है।

व्यक्ति यदि जीवन के किसी अंश का मूल्यांकन है, तो संस्था अनेक मूल्यांकनों का मूल्यांकन कही जाएगी। साहित्यकार यदि व्यक्तिगत सीमाओं को सर्वथा भुला दे, तो वह भीड़ का अंग मात्र रह जाता है और यदि वह समष्टि का विस्तार भूल जावे, तो एकाकी रह जाता है। इसी से जीवन के सरल प्रश्न भी उसकी सीमा में आते ही जटिल हो जाते हैं, तो आश्चर्य की बात नहीं।

साहित्य-सृजन केवल रुचि, इच्छा या विवशता का परिणाम नहीं है, क्योंकि उसके लिए एक विशेष प्रतिभा और उसे संभव करने वाले मानसिक गठन की आवश्यकता होती है।

किसी अनिवार्य विवशता, किसी सर्वथा प्रतिकूल परिस्थिति में यह प्रतिभा कुंठित हो सकती है, यह मानसिक गठन विघटित हो सकता है; परंतु केवल स्ववशता और अनुकूल परिस्थिति मानसिक गठन का निर्माण कर इस प्रतिभा का सृजन करने में समर्थ नहीं होती। इसी से हम महान प्रतिभाओं को इच्छानुसार बाजीगर के चमत्कार के समान प्रत्यक्ष और तिरोहित नहीं कर पाते।

मनुष्य अपनी रागात्मक व्याप्ति के बिना समष्टि में पहचाना नहीं जा सकता। वह अपने बौद्धिक विस्तार के बिना माना नहीं जा सकता और इस व्याप्ति और विस्तार के मूल्यांकन के अभाव में मानव जाति की प्रगति का लेखा-जोखा अमिट नहीं रह सकता। नदी जिस प्रकार दोनों तटों को अलग-अलग स्पर्श करके भी अपनी एकता में एक रखती है, उसी प्रकार साहित्य भी जीवन की भिन्न जान पड़ने वाली वृत्तियों को अपने स्पर्श की एकता में एक रखता है।

वह बहमुखी दायित्व देने वाला ऐसा रागात्मक कर्म है जिसके कारण साहित्यकार की स्थिति को एक कोण से देखना कठिन हो जाता है।

उसका सृजन न केवल श्रम है और न आजीविका के लिए स्वीकृत कोई पेशा या व्यापार मात्र। न वह व्यक्ति का निरानंद आत्मदान है और न समाज से औपचारिक आदान।

केवल श्रमिक की स्थिति स्वीकार कर लेने पर मूल्य की मांग मात्र उसके हाथ रहती है। श्रम का प्रकार दूसरे की इच्छा और आवश्यकता पर निर्भर हो जाता है। श्रम लेने वाले और देने वाले की स्थिति का व्यावहारिक आधार निश्चित और स्पष्ट होने के कारण श्रम और मूल्य के अनुपात संबंधी प्रश्नों को सुलझाना कठिन नहीं हो सकता।

यदि साहित्य को आजीविका की दृष्टि से स्वीकृत कोई एक व्यापार मान लिया जावे, तो न व्यक्ति की प्रतिभा विशेष के लिए मुक्त क्षितिज मिल सकता है और न उक्त कर्म से उसके अविच्छिन्न लगाव को उचित कहा जा सकता है।

यदि उसमें एक व्यापार के लिए आवश्यक कुशलता का अभाव है, तो दूसरे क्षेत्र से अपनी पटुता की परीक्षा उसके लिए अनिवार्य हो जाएगी।

साहित्य को समाज के प्रति व्यक्ति का निरानंद दान या समाज का व्यक्ति को बलात सौंपा हुआ कर्म मान लेने पर वह विवशता का पर्याय हो जाता है और हर विवशता के लिए मनुष्य के मनोजगत् में विद्रोह ही स्वाभाविक है।

वस्तुतः साहित्य की समस्याएं जीवन की समस्याओं के समान एक परिधि में एक-दूसरे की कड़ी बनकर घूमती हैं। इनका एक छोर पकड़ने का प्रयास, वृत्त का छोर खोजने के समान स्पर्श से निकट; पर दृष्टि से दूर रहता है।

साहित्यकार क्यों लिखता है, वह अपनी तृप्ति के लिए लिखता है अथवा समष्टि के सन्तोष के लिए। साहित्य-सृजन साहित्यकार का स्वेच्छा से किया आत्मदान है अथवा समाज की मांग की पूर्ति मात्र।

साहित्य-सृजन अपने स्रष्टा के लिए जीवन है या जीवनयापन का साधन मात्र । साहित्य युग-सापेक्ष है या निरपेक्ष साहित्य के प्रेय और श्रेय की परीक्षा किसे दृष्टि में रख कर की जावे, आदि-आदि प्रश्न ऐसे हैं, जिनके समाधान जीवन की समग्रता में ही प्राप्त हो सकते हैं, उसे अंशतः देखने में नहीं ।

प्रत्येक युग और प्रत्येक देश में साहित्य की उत्कृष्टता की कसौटी उसकी व्यापकता ही मानी गई है और यह व्यापकता स्वयं व्यक्तिगत रुचि का निषेध है।

मनुष्य एक विशेष सामाजिक परिवेश में उत्पन्न होता है और कुछ संस्कार उसे अपने परिवेश से उत्तराधिकार में प्राप्त होते हैं और कुछ उसके व्यक्तिगत मधुरकटु अनुभवों से बनते हैं। उसके कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ होते हैं और कुछ समष्टिगत दायित्व, जिन्हें वह सामाजिक प्राणी के नाते स्वीकार करता है। व्यक्तिगत स्वार्थ और समष्टिगत स्वार्थों में संघर्ष की संभावना जिस सीमा तक कम होती जाती है, उसी सीमा तक हम किसी समाज को और उसके सदस्यों को संस्कृत कहते हैं ।

मनुष्य की महानता उसके दायित्व की विशालता का पर्याय है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति का स्वार्थ समाज विशेष के स्वार्थ में ही लय नहीं हो जाता, वरन् मानव समष्टि के स्वार्थ या हित से एकाकार हो जाता है।

मनुष्य केवल प्राण-संवेदनयुक्त जीव ही नहीं है, वह असंख्य मानसिक संभावनाओं और संवेदन के विविध स्तरों का संघात है। बुद्धि की सचेतन प्रक्रिया और अंतःकरण की वृत्तियों में सामंजस्य लाने का सचेतन प्रयास और उससे आनंद की अनुभूति उसकी अपनी विशेषता है, जो उसे शेष सृष्टि से भिन्न कर देती है। केवल शारीरिक यात्रा के साधन और आत्मरक्षण की सहज चेतना उसमें अन्य प्राण-संवेदनयुक्त जीवों के समान होना स्वाभाविक है। परंतु अपनी सामान्य स्थिति से असंतोष, अज्ञात स्थिति विषयक जिज्ञासा, अनुभूत तथ्यों के आधार पर सर्वथा अननुभूत सत्यों तक पहुँचने का प्रयास, प्रयास में आनंदमयी स्थिति की परिकल्पना और अप्राप्त लक्ष्य में आस्था आदि विशेषताओं के कारण ही वह विशिष्ट है। अपनी इस विकासनिष्ठ क्रिया को अबाध रखने के लिए वह अपने बौद्धिक और मानसिक स्तरों का संगठन और संशोधन नए-नए प्रकारों से करता आ रहा है। अपने सहज प्राप्त परिवेश से ही संचालित न होकर वह उस पर अपने अंतर्जगत् को भी प्रतिफल करता चलता है; इस प्रकार उसकी गति से भौतिक विश्व की एक मानसिक सृष्टि भी होती आ रही है।

दर्शन, धर्म, विज्ञान, कला, साहित्य सभी ने जीवन के इस दोहरे विकास में योग दिया है। पर मनुष्य की व्यक्ति और समष्टिनिष्ठ तथा बुद्धि और भावनिष्ठ अभिव्यक्तियाँ, साहित्य की अधिक ऋणी हैं। जीवन को समग्रता से स्पर्श करने के कारण और बुद्धि तथा अंतःकरण की विभिन्न वृत्तियों को संश्लिष्ट करने की क्षमता के कारण साहित्य सहज ही मनुष्य के रहस्य का उद्गीथ बन गया है।

यह तो सर्व स्वीकृत है कि साहित्य-सृजन का कार्य विशेष व्यक्ति कर पाते हैं जिन्हें उनके परिवेश तथा बुद्धि, अंतःकरण की वृत्तियों ने उपयुक्त साधनों से संपन्न कर दिया है। वे न अमानव हैं, और न अतिमानव, प्रत्युत् विकास के ऐसे बिंदु पर सामान्य मानव हैं कि जीवन और परिवेश में अव्यक्त हलचल भी उनकी अनुभूति में व्यक्त हो जाती है। साहित्य को चाहे किसी ने जीवन का अनुकरण माना हो, चाहे कल्पनासृष्टि, चाहे जीवन नीति का संचालक कहा हो, चाहे सौंदर्य बोध मात्र परंतु उसके भ्रष्टा की विशिष्ट प्रतिमा को सभी ने स्वीकार किया। अभ्यास मात्र से उत्कृष्ट साहित्य-सृजन संभव है, यह आज का वैज्ञानिक युग भी स्वीकार नहीं करता, अन्य अतीत युगों की चर्चा ही व्यर्थ है ।

ऐसी स्थिति में साहित्य को व्यक्तिगत रुचि मात्र मान लेना, उसके युगांतर व्यापी प्रभाव को अस्वीकार करना है।

साहित्य विशेष व्यक्तित्व का परिणाम है, इसी अर्थ में उसे व्यक्तिगत कहा जा सकता है; पर इस अर्थ में मानसिक ही नहीं, भौतिक विकास भी वस्तुनिष्ठ रहेगा । विकास के रहस्यमय क्रम में एक वस्तु विकसित होकर विकसित करती है, इसी प्रकार विकास की परंपरा अबाध चलती हुई विकास का मानदंड निर्मित करती है ।

अपने सृजन से साहित्यकार स्वयं भी बनता है, क्योंकि उसमें नए संवेदन जन्म लेते हैं, नया सौंदर्यबोध उदय होता है और नए जीवन दर्शन की उपलब्धि होती है। सारांश यह है कि वह जीवन की दृष्टि से समृद्ध होता जाता है, इसी से साहित्य-सृष्टि का लक्ष्य स्वांतः सुखाय का विरोधी नहीं हो सकता। पर यह क्रिया अपने कर्ता को बनाने के साथ उसके परिवेश को भी बनाती चलती है, क्योंकि समष्टि में इन्हीं नवीन संवेदनों, सौंदर्यबोधों और विश्वासों का स्फुरण होता रहता है।

फूल का विकास अपनी ही रूप-रंग रसमयता नहीं है, क्योंकि वह अपनी मिट्टी और परिवेश की शक्तियों का संयोजन और संवर्द्धन भी करता है। पौधा, मिट्टी, धूप, पानी आदि नहीं बनाता; परंतु उनकी सम्मिलित शक्तियों का रसायन ग्रहण कर स्वयं बनता और व्यक्त करने के लिए अपने परिवेश को बनाता है। मूर्तिकार न पाषाण बनाता है न छेनी का लोहा । वह केवल प्राकृतिक उपादानों और उनकी शक्तियों को संयोजित कर अपनी मानसी सृष्टि को प्रत्यक्ष कर स्वयं संतोष पाता और समष्टिगत परिवेश का संवर्द्धन करता है। संगीतकार भी स्वरों का और तारों की धातु का सृजन नहीं करता । चित्रकार भी प्रकृति में बिखरे रंग और रेखाओं का सृजन नहीं करता । नृत्यकार भी गति का सृजन नहीं करता ।

शिल्पी पाषाण में अव्यक्त आकारों को व्यक्त आकार देकर, चित्रकार प्रत्यक्ष रंग-रेखाओं के संयोजन में किसी अंतर्निहित सामंजस्य को अवतार देकर और नृत्यकार व्यापक गति को जीवन की विविध चेष्टाओं में छंदायित कर जो सृजन करता है, वह व्यक्ति सीमित नहीं हो सकता, क्योंकि न माध्यम व्यक्तिनिष्ठ है और न बौद्धिक प्रक्रियाएँ और मानसिक वृत्तियाँ केवल उसकी हैं। इसी से मनुष्य की अव्यक्त संभावनाएँ और संवेदन किसी न किसी बिंदु पर सब के हो जाते हैं और सब के हो जाने में ही उनकी कृतार्थता है।

व्यक्ति से जिस सत्तगत अभिव्यक्ति अथवा अस्तित्वगत विशेषता का बोध होता है, वह भौतिक जगत् में अधिक है; पर ज्यों-ज्यों हम उसके भीतर प्रवेश करते हैं, त्यों-त्यों ये कठिन रेखाएँ गल-गल कर तरल होने लगती हैं। दो पत्ते भी समान नहीं हैं; पर दो मनुष्य आकार में भिन्न होकर भी संवेदन के स्तर पर समान हो सकते हैं।

इस मूलगत एकता के कारण ही साहित्यिक उपलब्धियाँ कालांतर व्यापिनी हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में उसके स्रष्टा मात्र ही उसके उपभोक्ता कैसे माने जा सकते हैं। जीवन के परिष्कार और परिवर्तन के हर अध्याय में साहित्य के चिह्न हैं, अतः उसे व्यापक सामाजिक कर्म न कहना अन्याय होगा। पर, जब हम उसे सामाजिक कर्म मान लेते हैं, तब यह समस्या मानसिक क्षेत्र से उतर कर सामाजिक धरती पर प्रतिष्ठित हो जाती है और उसका समाधान भी नए रूप में उपस्थित होता है ।

यदि सामाजिक कर्म व्यक्ति का समष्टि को दान है, तो वह दान वाले और पाने वाले के मानसिक तथा भौतिक परिवेश के अनुसार ही कम या अधिक महत्व पाता है और ये दोनों परिवेश कभी-कभी एक दूसरे से इतने भिन्न जान पड़ते हैं कि देने वाले तथा पाने वाले में कोई संबंध खोज लेना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में ही साहित्य रुचि विशेष की भ्रांति उत्पन्न कर देता है ।

यह स्वीकार कर लेने पर कि साहित्य-सृजन व्यक्तिगत रुचिमात्र न होकर महत्वपूर्ण सामाजिक कर्म है, साहित्यकार की सामाजिक प्राणी की, और विशेष कार्यक्षम सामाजिक सदस्य की समस्या हो जाती है। समाज केवल भीड़ का पर्याय नहीं होता। समाना: अजंति समान संचरणशील व्यक्ति ही समाज है। इन व्यक्तियों में, व्यष्टिगत स्वार्थ की समष्टिगत रक्षा के लिए अपने विषम आचरण में साम्य उत्पन्न करने वाले समझौते की स्थिति अनिवार्य रहेगी । व्यक्ति और व्यक्ति के स्वार्थों में संघर्ष की संभावना ज्यों-ज्यों घटती जाती है, त्यों-त्यों व्यक्ति का परिवेश समष्टि के परिवेश तक फैलता जाता है और पूर्ण विकसित समाज में व्यक्ति के सीमित परिवेश की कल्पना ही कठिन हो जाती है। मनुष्य अपनी क्रियाशीलता को समाज को सौंप देता है और इस समर्पण से वह स्वयं एक विशाल और निरंतर सृजन का अंशभूत हो जाता है। पर स्वस्थ समाज में व्यक्ति की क्रिया शक्ति की स्वाभाविक परिणति जीवन के विकास की सुविधा ही रहती है। जब ऐसा तारतम्य नहीं रहता, तब ऐसी विच्छिन्न क्रिया कभी विद्रोह का पर्याय मानी जाती है, कभी अपराध की संज्ञा पाती है।

स्वयं को शासित रखने के लिए समाज एक लिखित विधि - निषेधमय विधान रखता अवश्य है; पर वह संचालित ऐसे अलिखित विधान से होता है, जो परंपरा, रुचि, आस्था, संस्कार, मनोविकार आदि का संश्लिष्ट योगदान है।

पूर्ण से पूर्ण समाज भी व्यक्ति के जीवन को सब ओर से नहीं घेर सकता, क्योंकि मानव-स्वभाव का बहुत-सा अंश समाज की सीमा रेखा के बाहर मुक्त और उसकी दृष्टि से ओझल रहता है।

मनुष्य के जीवन का जितना अंश नीति, शिक्षा, आचार आदि सामाजिक संस्थाओं के संपर्क में आता है उतना ही समाज द्वारा शासित माना जाएगा। समाज यदि मनुष्यों के समूह का नाम नहीं है, तो मनुष्य भी केवल क्रियाओं का संघात नहीं है, दोनों के पीछे सामूहिक और व्यक्तिगत इच्छा, हर्ष और विषाद की प्रेरणा रहती है। आचरण को सेना के समान कवायद सिखा देना ही जीवन नहीं है, वरन् कर्म को प्रेरित करने वाले मनोविकारों के उद्गम खोजकर उनमें विकास की अनुकूलता पा लेना जीवन का लक्ष्य है।

साहित्य का उद्देश्य समाज के अनुशासन के बाहर स्वच्छंद मानव स्वभाव में, उसकी मुक्ति को अक्षुण्ण रखते हुए, समाज के लिए अनुकूलता उत्पन्न करना है।

एक ओर वह विधि-निषेध से बाहर उड़ने वाले मानव मन को समष्टि से बाँध कर उसकी निरुद्देश्य उड़ान को थाम लेता है और दूसरी ओर समाज की दृष्टि से ओझल मानव स्वभाव की विविधताओं को उसके सामने प्रस्तुत कर सामाजिक मूल्यांकन को समृद्ध करता है। इस प्रकार निर्बंध कुछ बँध जाता है और बद्ध के बंधन कुछ शिथिल हो जाते हैं।

मनुष्य को अपने लिए विशेष वातावरण ढूँढ़ने नहीं जाना पड़ता। वह एक विशेष परिवेश में जन्म लेकर वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं से परिचित और अनुशासित होता चलता है। जैसे उसे साँस के लिए वायु अनायास मिल जाती है, उसी प्रकार समाज का दान भी अयाचित और अनजाने ही उसे प्राप्त हो जाता है। जब तक वह अपने आपको जानने की स्थिति में पहुँचता है, तब तक समाज उसे एक साँचे में ढाल चुकता है; परंतु यदि मनुष्य अपने इसी निर्माण पर संतुष्ट हो सके, तो उसमें और जड़ में अंतर ही क्या रहेगा। वह दर्जी के सिले कपड़ों के समान समाज के विधि-निषेध को धारण कर लेता है तब उनके तंग या ढीले होने पर, सुंदर या कुरूप होने पर संतुष्ट-असंतुष्ट होता है।

यह संतोष-असंतोष समाज के शासन की परिधि में नहीं आता; पर साहित्य इसी का मूल्यांकन करता है। दूसरे शब्दों में समाज के दान की जहाँ इति है, साहित्य का अर्थ इसी बिंदु से चलता है।

अतः साहित्यकार का सामाजिक कर्म अन्य कर्मों को तोलने वाले तुला और बाटों से नहीं तुल सकता । अन्य क्षेत्रों में समाज अपने सदस्यों की क्रियाशक्ति को अपने अधीन कर उनकी प्रतिभा और कुशलता के अनुसार उनका कार्य निश्चित कर देता है और उसके प्रतिदान में उन्हें जीवन-यात्रा की सुविधाएँ देता है। दोनों पक्षों का आदान-प्रदान इतने स्थूल धरातल पर स्थित है कि उसकी उपयोगिता के विषय में किसी संदेह का अवकाश कम रहता है।

भारी पैनी तलवार गढ़ने वाले लौहकार के कार्य का महत्व भी समाज जानता है और हल्की अँगूठी में रत्नों की बारीक जड़ाई करने वाले स्वर्णकार की कुशलता का मूल्य भी उससे छिपा नहीं है। कष्टलभ्य वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने वाले व्यापारी की प्रत्यक्ष योग्यता का भी उसे ज्ञान है और मंदिर में मौन जप करने वाले पुजारी की अप्रत्यक्ष रचना में भी उसका विश्वास है। न्यायासन पर दंड- पुरस्कार का वितरण करनेवाले न्यायाचार्य के कार्य के विषय में उसे संदेह नहीं है और समाज की नई पीढ़ी को परंपरानुसार शांत-दांत बनाने में लगे शिक्षाशास्त्री के कार्य का भी उसके पास लेखा-जोखा है।

इन विविध कर्त्तव्यों को, उसने अधिकारी व्यक्तियों को स्वयं सौंपा है और इन कर्त्तव्यों के विषय में एक परंपरागत शास्त्र भी निश्चित है। वे कैसे करते हैं। यह दूसरा प्रश्न है परंतु वे क्या करें और क्या न करें, के विषय में द्विविधा नहीं है। कठिन दंड के पात्र को दंड कम मिले या न मिले यह मतभेद का विषय हो सकता है; परंतु दंड-पुरस्कार - विधान समाज - स्वीकृत है और न्याय का कार्य समाज द्वारा किसी को सौंपा गया है। हर सामाजिक संस्था समाज का अंग है और वह मनुष्य जीवन के उन्हीं अंशों से संबद्ध रहती है, जिस पर समाज की सत्ता है । मानव स्वभाव का जो अंश समाज के विधि-निषेध की परिधि के बाहर अस्तित्व रखता है, उसके लिए सामाजिक संस्था नहीं बनाई जा सकती; पर उस तक समाज के सुख-दुखों की अनुभूति पहुँचाकर उसे समाजोन्मुख किया जा सकता है। पर यही कार्य व्यक्ति करता है, जिसे समाज के सौंदर्य और विरूपता, सुख और दुःख की व्यष्टिगत; पर तीव्र अनुभूति होती है । समाज अपने अन्य क्षेत्रों के समान उसके हाथ में कोई विधि - निषेध शास्त्र देकर नहीं कह सकता, मैं तुम्हें कवि, नाटककार आदि कर्त्तव्य पर नियुक्त करता हूँ, तुम मेरे विधान के स्थायित्व के लिए कार्य करो।

वस्तुतः समाज किसी साहित्यकार के अंतर्जगत् की हलचल से परिचित तब होता है, जब वह अभिव्यक्ति पा लेती है। इस अभिव्यक्ति से पहले अनुभावक शक्तियों से और उसकी अनुभूति की तीव्रता से समाज अपरिचित रहता है और यह अपरिचय एक सीमा तक व्यक्ति और समाज को विरोधी पक्षों में भी खड़ा कर सकता है।

साहित्य समाज की अपराजेय शक्ति है; पर क्या उसी तरह निर्झर, पर्वत की अपराजेय शक्ति नहीं है ? क्या पर्वत की शक्ति होने के कारण उसे उसकी कठोर शिलाओं से संघर्ष नहीं करना पड़ता ? पर्वत से सर्वथा अनुकूल स्थिति रखने के लिए तो प्रपात को जमकर शिलायित होना पड़ेगा। संतान का जन्म माता की पीड़ा का भी जन्म है। इसी प्रकार साहित्य भी, समाज में, समाज के लिए निर्मित होकर भी उसमें कोई उद्वेलन, कोई असंतोष उत्पन्न करता ही है। ऐसी स्थिति में समाज, साहित्य को सामाजिक और श्रेष्ठ सामाजिक कर्म के रूप में स्वीकार न करे, तो आश्चर्य नहीं। जिस युग से समाज की दबी हलचलें उसके अन्य क्षेत्रों में भी कुछ असंतोष उत्पन्न करने लगती हैं, उसमें साहित्य सहज ही नेतृत्व प्राप्त कर लेता है; पर जिन युगों में समाज के अवचेतन मन पर जड़ता का स्तर कठिन हो जाता है, उनमें साहित्य को अकेले जूझना पड़ता है।

परंतु साहित्य चाहे जिस भूमिका में उपस्थित हो, वह मानव जाति का, विकास के समान ही अविच्छिन्न साथी रहता है। प्रत्यक्ष वस्तु सत्य से अप्रत्यक्ष संभाव्य सत्य तक उसकी सीमाएँ इस प्रकार फैली रहती हैं कि मनुष्य उसे अपने अतीत विकास का प्रमाण भी मानता है, वर्तमान का मापदंड भी और अनागत भविष्य का संकेतघर भी। सभी देशों में साहित्य का सृजन विशेष प्रतिभा से संबद्ध है, और विशेष प्रतिभा संपन्न साहित्यकार का विशेष महत्व भी सर्व स्वीकृत है । आज तक प्रतिभा को समान रूप से बाँटने का उपाय विज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सका है, अतः साम्योपासक देशों में भी प्रतिभा संपन्न साहित्यकारों को असामान्य स्थिति प्राप्त है।

वस्तुतः साहित्य-सृजन समग्र जीवन, समस्त शक्तियों का संश्लिष्ट दान है। जीवन में कुछ कार्य जीवन निर्वाह के साधन मात्र हैं, कुछ जीवन के साध्य हैं और कुछ साधन-साध्य दोनों का एकीकरण है। केवल बाह्य जीवन में सीमित क्रिया साधन हो सकती है, केवल अंतर्जगत् में मुक्त साध्य हो सकती है; परंतु अंतर्जगत् की प्रक्रिया का बाह्य रमात्मक अवतरण साधन और साध्य को एकाकार कर सकता है। यह ऐसा दान है, जिसे देकर भी हम पाते हैं। यह ऐसा स्वार्थ है, जिसे पास रख कर भी हम देते हैं। पर इस दोहरी स्थिति के कारण ही साहित्यकार के जीवन के साधन और साध्य कुछ रहस्यमय हो जाते हैं। इस स्थिति को समझने के लिए ऐसे संस्कृत समाज की आवश्यकता रहती है, जो अपने दिए मूल्य को अधिक न समझे और उससे प्राप्त सृजन को न्यून न माने ।

साहित्य की दृष्टि से हमारा देश इतना अधिक समृद्ध है कि उसकी मूल्यांकन-शक्ति के विषय में संदेह कठिन हो जाता है। जीवन के विविध क्षेत्रों में विशेष उपलब्धियाँ सुलभ करने वालों की जीवन-यात्रा के साधन उसने उस सहज भाव से दिए कि उसके मन में अहंकार का कोई संस्कार नहीं बन सका । व्यक्ति के विशिष्ट सृजन को उसने इतना महत्वपूर्ण और महार्घ माना कि स्रष्टा को याचक का दैन्य कभी स्पर्श नहीं कर सका।

इस स्थिति ने विषम युगों में समस्याएँ भी उत्पन्न कीं; पर साधारणतः समाज और साहित्यकार में खरीदने और बेचने वालों की आपाधापी के लिए अवकाश कम रहा। आज भी लोक-जीवन और उसके साहित्यकारों की ऐसी स्थिति है, जिसमें एक अहंकार से शून्य है और दूसरा दैन्य से अपरिचित ।

जिन युगों में हमारा सांस्कृतिक हास अपनी चरम स्थिति में था उनमें भी 'माँग के खैबो मसीद को सोइबो' कहने वाले साहित्य-साधक समाज के गुरु और शास्ता रहे ।

उनकी जीवन-यात्रा की व्यवस्था करने वाले लोक के अवचेतन मन में भी कभी यह प्रश्न नहीं उठा कि जीवन यात्रा के लिए हमारे आश्रित होकर भी ये हमारे शाइस्ता होने का अहंकार क्यों करते हैं। जिन साहित्यकारों ने लोक अवज्ञा कर व्यक्ति का आश्रय लिया, उनकी स्थिति की मर्यादा भी इसी परंपरागत संस्कार ने बाँधी । जिस प्रकार घर के छोटे झरोखे से थोड़ा प्रकाश पाने वाला भी प्रकाश की असीमता की अवज्ञा नहीं कर सकता, उसी प्रकार संकीर्ण सीमा में निर्मित साहित्य ने भी विराट् मानवता में फैले साहित्य से अपने संबंध का परिचय देकर अपने रचयिता को क्षुद्र होने से बचाया। नदी तट बनाती है; पर तटों के साथ तो वह समुद्र में स्थिति नहीं रख सकती और यही मुक्ति उसके बंधन को क्षुद्र नहीं होने देती ।

आज हम विशेष युग में हैं और संस्कार के नाम पर हमें परंपरा के परिणाम से संघर्ष करना पड़ रहा है। जुआ उतार कर फेंका जा सकता है; पर जुआ वहन करने के परिणाम या प्रमाण तो गर्दन के क्षत या काठिन्य में अंकित हो जाते हैं, उन्हें काट कर फेंक देना संभव नहीं रहता। उस कठोर या आहत स्थान को स्वाभाविक स्थिति में लाने के लिए समय और उपचार दोनों अपेक्षित रहते हैं ।

काठिन्य, भार के अति सह्य होने का प्रमाण या स्वाभाविक संवेदनशीलता के न्यून होने की सूचना है, जिसकी उपस्थिति में भार उतारना व्यर्थ जान पड़ता है। क्षत, संवेदनशीलता में अस्वाभाविक वृद्धि है, जिसके कारण स्वाभाविक सहनशक्ति नष्ट हो कर तंतुओं को अक्षम बना देती है।

हमारे जीवन की स्थिति भी बहुत कुछ ऐसी ही है। कहीं हम रूढ़ियों के अंबार लाद कर भी भार का अनुभव नहीं करते और कहीं हमारे लिए संस्कार का हल्का स्पर्श तक असह्य हो जाता है। दोनों ही स्थितियाँ अस्वाभाविक हैं।

हमारी स्वतंत्रता के कई वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। उसे हम अपने राष्ट्र - जीवन का तुतला उपक्रम मात्र नहीं कह सकते। किसी अन्य अतीत युग में कहना संभव था; परंतु आज जब समय बैलगाड़ी रथ छोड़कर वायुयान पर उड़ने लगा है, एक केंद्र में मुखर होकर संसार भर से बोलने लगा है, एक क्षण को छूकर इतिहास के असंख्य पृष्ठ लिखने लगा है, तब हमें अपनी समय संबंधी धारणाएँ भी बदलनी चाहिए।

धरती, समुद्र, पर्वत, नक्षत्र तब जब परिवर्तन के अंक बनते जा रहे हैं, तब 'उत्पस्यते मम कोपि समानधर्मा' कहकर अनंत प्रतीक्षा की समस्या नहीं रह गई है। लक्ष्य की दिशा में उठाया पग और लक्ष्य प्राप्ति आज इतने निकट और एक दूसरे के पर्याय हैं कि मार्ग खोजने, भटकने, पाने की अनेक स्थितियों का एक हो जाना स्वाभाविक है।

इस भूमि में जब हम अपने साहित्य और उसके भ्रष्टाओं को रख कर देखते हैं, तब साहित्य के भविष्य के लिए चिंता स्वाभाविक हो जाती है। कुछ प्रतिष्ठित वयोवृद्ध, अतः सरकारी पदों के लिए अनुपयुक्त तथा कुछ अति साधारण, अतः सरकारी कार्यों के लिए अयोग्य लेखकों को छोड़कर प्रायः सभी लेखक सरकारी विभाग में आश्रय पा गए हैं। उनके जीवन-यापन की समस्या अवश्य ही सुलझ गई है; परंतु सुलझाने की विधि ने इस देश की वाणी के अवतरण के मार्ग में एक सबसे बड़ी समस्या उत्पन्न कर दी है।

क्या साहित्य केवल व्यक्तिगत रुचि - हॉबी - मात्र है। क्या उसे विशेष प्रतिभा द्वारा संपादित और स्थायी महत्व का सामाजिक कर्म मानकर अतीत युगों ने भूल की है। क्या अन्य युगों और देशों की उक्त भूल का परिमार्जन करने के लिए ही हमारे यहाँ ऐसी व्यवस्था हो रही है। क्या इस व्यवस्था से साहित्य का लक्ष्य, राजनीतिक लक्ष्य से एकाकार हो सकेगा और क्या इस ऐक्य से साहित्य के मूल्यों की रक्षा और वृद्धि हो सकेगी- ये सभी प्रश्न सामयिक हैं और हमारे चिंतन से कोई-न-कोई समाधान चाहते हैं।

विश्वासी बुद्धि और विवेकी हृदय अपने आप में सब शंकाओं का समाधान है। यदि आज हम इन दो विशेषताओं को सुलभ करने की साधना में लग जाएँ, तो अन्य समस्याएँ स्वयं सुलझ जाएँगी ।

('क्षणदा' से))

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