Sahitya Aur Manovigyan (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
साहित्य और मनोविज्ञान (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
साहित्य का वर्तमान युग मनोविज्ञान का युग कहा जा सकता है। साहित्य अब केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं है। मनोरंजन के सिवा उसका कुछ और भी उद्देश्य है। वह अब केवल विरह और मिलन के राग नहीं अलापता। वह जीवन की समस्याओं पर विचार करता है, उनकी आलोचना करता है और उनको सुलझाने की चेष्टा करता है।
नीतिशास्त्र और साहित्य का कार्य-क्षेत्र एक है, केवल उनके रचना-विधान में अnतर है। नीतिशास्त्र भी जीवन का विकास और परिष्कार चाहता है, साहित्य भी। नीतिशास्त्र का माध्यम तर्क और उपदेश है। वह युक्तियों और प्रमाणों से बुद्धि और विचार को प्रभावित करने की चेष्टा करता है। साहित्य ने अपने लिए मनो-भावनाओं का क्षेत्र चुन लिया है। वह उन्हीं तत्त्वों की रागात्मक व्यंजना के द्वारा हमारे अंतस्तल तक पहुँचता है। उसका काम हमारी सुंदर भावनाओं को जगाकर उनमें क्रियात्मक शक्ति की प्रेरणा करना है। नीतिशास्त्र बहुत से प्रमाण देकर हमसे कहता है, ऐसा करो, नहीं तुम्हें पछताना पड़ेगा। कलाकार उसी प्रसंग को इस तरह हमारे सामने उपस्थित करता है कि उससे हमारा निजत्व हो जाता है, और वह हमारे आनंद का विषय बन जाता है।
साहित्य की बहुत-सी परिभाषाएँ की गई हैं लेकिन मेरे विचार में उसकी सबसे सुंदर परिभाषा जीवन की आलोचना है। हम जिस रोमानियत के युग से गुजरे हैं, उसे जीवन से कोई संबंध न था। साहित्यकारों में एक दल तो वैराग्य की दुहाई देता था, दूसरा शृंगार में डूबा हुआ था। पतन काल में प्राय: सभी साहित्यों का यही हाल होता है। विचारों की शिथिलता ही पतन का सबसे मनहूस लक्षण है। जब समाज का मस्तिष्क अर्थात् पढ़ा-लिखा शासक भाग, विषय-भोग में लिप्त हो जाता है तो विचारों की प्रगति रुक जाती है और अकर्मण्यता का अड्डा जमने लगता है। योn तो इतिहास के उज्ज्वल युगों में भी भोग-वृत्ति की कमी कभी नहीं रही, मगर फर्क इतना ही है कि एक दशा में तो भोग हमें कर्म के लिए उत्तेजित करता है, दूसरी दशा में वह हमें पस्तहिम्मत और विचार शून्य बना डालता है। समाज इन्द्रियसुख में इतना डूब जाता है कि उसे किसी बात की चिंता नहीं रहती। उसकी दशा उस शराबी सी हो जाती है, जिसमे केवल शराब पीने की चेतना रह जाती है। उसकी आत्मा इतनी दुर्बल हो जाती है कि शराब का आनंद भी नहीं उठा सकती। वह पीता है केवल पीने के लिए, आनंद के लिए नहीं। जब शिक्षित समाज इस दशा में आ जाता है तो साहित्य पर उसका असर कैसे न पड़े। जब कुछ लोग भोग में डूबेंगे, तो वह लोग वैराग्य में भी डूबेंगे ही। क्रिया की प्रतिक्रिया तो होती ही है। चकले और मठ एक-दूसरे के जवाब हैं। ये मठ न होते तो चकले भी न होते। ऐसे युग में रोमाँच ही साहित्य-कला का आधार था लेकिन अब हालतें बड़ी तेजी से बदलती जा रही हैं। आज का साहित्यकार जीवन के प्रश्नों से भाग नहीं सकता। अगर सामाजिक समस्याओं से वह प्रभावित नहीं होगा, अगर वह हमारे सौंदर्य-बोध को जगा नहीं सकता, अगर वह हममें भावों और विचारों की स्फूर्ति नहीं डाल सकता, तो वह इस ऊँचेपद के योग्य नहीं समझा जाता। पुराने जमाने में पंथी के हाथ में समाज की बागडोर थी। हमारा मानसिक और नैतिक संस्कार धर्म के आदेशों का अनुगामी था। अब भार साहित्य ने अपने ऊपर ले लिया है। धर्म, भय या लोभ से काम लेना था। स्वर्ग और नरक, पाप और पुण्य, उसके यंत्र थे। साहित्य हमारी सौंदर्य भावना को सशक्त करने की चेष्टा करता है। मनुष्यमात्र में यह भावना होती है। जिसमे यह भावना प्रबल होती है, और उसके साथ ही उसे प्रकट करने का सामर्थ्य भी होता है वह साहित्य का उपासक बन जाता है। यह भावना उसमे इतनी तीव्र हो जाती है कि मनुष्य में, समाज में, प्रकृति में, जो कुछ असुंदर, असौम्य, असत्य है, वह उसके लिए असह्य हो जाता है, और वह अपनी सौंदर्य-भावना से व्यक्ति और समाज में सुरुचिपूर्ण जागृति डाल देने के लिए व्याकुल हो जाता है। यों कहिए कि वह मानवता का, प्रगति का, शराफत का वकील है। जो दलित हैं, मर्दित हैं, जख्मी हैn, चाहे वह व्यक्ति हों या समाज उनकी हिमायत और वकालत उसका धर्म है। उसकी अदालत समाज है। इसी अदालत के सामने वह अपना इस्तगासा पेश करता है और अदालत की सत्य और न्याय-बुद्धि और उसकी सौंदर्य-भावना भी प्रभावित करके ही यह संतोष प्राप्त करता है। पर साधारण वकीलों की तरह वह अपने मुवक्किल की तरफ जा और बेजा दावे नहीं पेश करता, कुछ बढ़ाता नहीं, कुछ घटाता नही, न गवाहों को सिखाता-पढ़ाता है। वह जानता है, इन हथकंडों से वह समाज की अदालत में विजय नहीं पा सकता। इस अदालत में तो तभी सुनवाई होगी, जब आप सत्य से जौ-भर भी न हटें, नहीं अदालत उसके खिलाफ फैसला कर देगी और इस अदालत के सामने वह मुवक्किल का सच्चा रूप तभी दिखा सकता है, जब वह मनोविज्ञान की सहायता ले। अगर वह खुद उसी दलित-समाज का एक अंग है, तब तो उसका काम कुछ आसान हो जाता है क्योंकि वह अपने मनोभावों का विश्लेषण करके अपने समाज की वकालत कर सकता है। लेकिन अधिकतर वह अपने मुवक्किल की आंतरिक प्रेरणाओं से, उसके मनोगत भावों से अपरिचित होता है। ऐसी दशा में उसका पथ-प्रदर्शक मनोविज्ञान के सिवा कोई और नहीं हो सकता। इसलिए साहित्य के वर्तमान युग को हमने मनोविज्ञान का युग कहा है। मानव-बुद्धि की विभिन्नताओं को मानते हुए भी हमारी भावनाएं सामान्यतः एक रूप होती हैं। अंतर केवल उनके विकास में होता है। कुछ लोगों में उनका विकास में होता है। कुछ लोगों में उनका विकास इतना प्रखर होता है कि वह क्रिया के रूप में प्रकट होता है वरना अधिकतर सुषुप्तावस्था में पड़ा रहता है। साहित्य इन भावनाओं को सुषुप्तावस्था में जाग्रतावम्था में लाने की चेष्टा करता है। पर इस सत्य को वह कभी नहीं भूल सकता कि मनुष्य में जो मानवता और सौंदर्य-भावना छिपी हुई रहती है, वहीं उसका निशाना पड़ना चाहिए। उपदेश और शिक्षा का द्वार उसके लिए बन्द है। हाँ, उसका उद्देश्य अगर सच्चे भावावेश में डूबे हुए शब्दों से पूरा होता है, तो वह उनका व्यवहार कर सकता है।
[‘हंस’, फरवरी, 1936 ]