सागर की लहरें : तमिल लोक-कथा
Sagar Ki Lehrein : Lok-Katha (Tamil)
हनीमून पर आए तीन दंपती अभी सैर-सपाटा कर लौटे हैं। उनकी कोमल, सुकुमारी युवा पलियाँ अपने-अपने कमरों में चली गईं ड्रेस बदलने के लिए। वे तीनों को अतरंग मित्र लगते थे, बार में आकर बैठ गए। बाहर रिमझिम बारिश शुरू हो चुकी थी, जिस कारण पहाड़ की हवाओं में ठंड समाने लगी। बीयर की बोतलें सामने रखे तीनों मित्र खुसर-फुसर करने लगे।
चेन्नईराम उनके बगल की टेबल पर बैठा वाइन के साथ इस खुशगवार मौसम का आनंद उठा रहा था। कहने को तो वे तीनों धीमे बात कर रहे थे, किंतु चेन्नईराम के तेज कर्ण उन्हें स्पष्ट सुन पा रहे थे। वे तीनों अत्याधुनिक विचारों के लगते थे, विशेषकर यौन आनंद के मामले में। उनकी बातों में यौनस्वच्छंदत्ता की झलक आ रही थी।
चेन्नईराम का मस्तिष्क तेजी से दौड़ रहा था। अपने सुदूर दक्षिण के एक गाँव में बुजुर्ग महिला मुनीअम्मा से एक कथा सुनी थी, जो उसके मानस-पटल पर अभी भी अंकित थी। चेन्नईराम का मस्तिष्क कथा के उन्हीं तानों-बानों पर दौड़ रहा था, जो इन तीनों की विचारधारा से मिला-जुलता था।
सैकड़ों वर्ष पहले एक राजा था। उसकी सुंदर सी रानी थी और पाँच वर्ष का प्यारा सा राजकुमार। कुछ समय बाद रानी पुनः गर्ववती हुई। राजा बहुत खुश हुआ, समय आने पर रानी ने एक सुंदर सी, कोमल कोमल बेटी को जन्म दिया, परंतु पुत्री का मुँह देखने से पहले ही वह काल-कवलित हो गई, अर्थात् मर गई।
राजा अपनी पत्नी को हृदय की गहराइयों से प्यार करता था। उसका यों अचानक गुजर जाना उसे सहन नहीं हुआ। अपने गम में उसने खाना-पीना छोड़ दिया, राजकार्य त्याग दिया। मंत्रियों ने उसे समझाया, पर सब बेकार। एक दिन उसी दु:ख में वह भी परलोक की ओर प्रयाण कर गए, जहाँ उसकी प्रिया बसी थी।
राजा के पश्चात् महामंत्री ने राजभार संभाला। मंत्री-परिषद् ने उसे राजा बना दिया। उसकी पत्नी दोनों बालकों को समान स्नेह देकर पालने लगी। किंतु महामंत्री के मन में शैतान समा गया। उसे यह डर सताने लगा कि राजकुमार बड़ा होकर इस राज्य पर अपना अधिकार माँग सकता है और प्रजा भी उसका साथ देगी। अत: उसने इन दोनों शाही बालकों के वध की योजना बनाई। उसने यह कार्य नगर के एक जल्लाद के सुपुर्द किया।
किसी तरह उसकी पत्नी को इस षड्यंत्र की सूचना मिल गई। उसने उस जल्लाद से संपर्क कर पूर्व राजा के गुणों तथा उपकारों का उसे याद दिलाया और कहा कि वह उनका वध न करके दूर जंगल में रह रहे एक लकड़हारे दंपती के यहाँ छोड़ आए। रानी ने बदले में धन का भी लोभ दिया।
लकड़हारा इतनी सुंदर संतान पाकर निहाल हो गया। ईश्वर का उन्होंने आभार प्रकट किया कि नि:संतान से उसने उन्हें संतानवान बनाया। शनैः-शनैः कालचक्र चलता गया। राजकुमार युवा हो गया और अब लकड़हारे का सहारा बनकर जंगल में लकड़ियाँ काटकर लाने लगा।
एक दिन राजकुमार जंगल जा रहा था, तभी उसकी बहन ने भी जंगल जाने की इच्छा प्रकट की। जंगल में युवक अपने काम पर लग गया और राजकुमारी प्रकृति के सौंदर्य में निमग्न हो, एक धने वृक्ष के नीचे बैठकर कुछ सोचने लगी। थोड़ी देर में राजकुमार लौट आया। राजकुमारी ने उससे कहा कि उसे प्यास लगी है। उस जंगल में करीब आधा मील दूर एक नदी थी, जिसका जल स्वच्छ, शीतल और निर्मल था। राजकुमार ने लकड़ी का एक पात्र हाथ में लिया और राजकुमारी को वहीं प्रतीक्षारत रहने का आदेश देकर नदी की ओर बढ़ा।
जैसे ही वह नदी के समीप पहुँचा, उसने देखा कि एक दिव्य पुरुष नदी के बीचोबीच खड़ा है। उसके सिर पर चाँदी से घने बाल थे, जो उसके कंधों तक लहरा रहे थे। चेहरे की श्वेत दाड़ी पेट के नीचे तक अंग को छू रही थी। कमर पर मृग-चर्म लपेटे, शेष अंग नंगा था। उसका मुखमंडल एक अवर्णनीय आभामंडल से दीप्त हो रहा था। वह अपने बाएँ हाथ के किनारे की फूस को देखकर उसे उखाड़ता, फिर दाहिनी किनारे से उसके समान फूस निकालता, दोनों को घास में बाँधता, उन पर जल के छीटे देकर मंत्र बुदबुदाता और रख देता। इस प्रकार उसने तीस जोड़े बनाए।
इक्कीसवीं बार बाएँ किनारे की फूस के समान दाएँ किनारे पर उसे फूस नहीं मिला। अत: उसने दोबारा बाएँ किनारे को खोजा, और पहली फूस के समान फूस पा उसे उखाड़ा और जोड़ा बनाकर उसी विधिनुसार जल में प्रवाहित कर दिया।
राजकुमार अभिभूत सा यह देख रहा था। वह उन भव्य स्वरूप वृद्ध के पास गया और विनीत स्वर में पूछा, 'हे ज्योतिर्मान! आप कौन हैं और यह क्या कर रहे हैं?'
'तुम मुझे नहीं जानते?'
'नहीं।'
'यहाँ मुझे सभी जानते हैं। मैं इनके जोड़े बनाकर इनका विवाह करा रहा हूँ।'
'लेकिन धृष्टता क्षमा करें। आपने तीस जोड़े तो बाएँ और दाएँ किनारे के समान फूस से बनाए, परंतु इकतीसवाँ जोड़ा एक ही किनारे के पास पास उसी फूस का बना दिया, ऐसा क्यों?'
'यह कर्मलेखा है। अपनी बहन से विवाह करना ही उसके भाग्य में लिखा है।'
'ओह ! ऐसा है, तुमने यह नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ?'
'मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम पूर्व राजा के पुत्र हो, लेकिन तुम्हारे कर्म में लकड़हारा का जीवन लिखा है और भाग्य में अपनी बहन के साथ ब्याहना।'
युवक राजकुमार की मानो वाणी चली गई। मूक सा वह देख रहा था, मानो ईश्वर साक्षात् खड़े हैं। उसने सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर वंदन करते हुए कहा, 'हे प्रभु! मेरे ऊपर दया करो, कौन से पाप का दंड मुझे इस प्रकार दे रहे हैं, कृपया बताए?'
'मेरे पुत्र! तकदीर का लिखा मिटाया नहीं जा सकता। मैं सिर्फ भाग्य लिखना जानता हूँ, मिटाना नहीं। किंतु यह सत्य है कि तुम्हें अपनी भगिनी से ही विवाह करना होगा, अन्य कोई चारा नहीं है, और यह कहकर अंतर्धान हो गया, जबकि उसके हाथ जोड़े बनाने में संलग्न दिख रहे थे।
कुछ देर तक युवक राजकुमार का सिर घूमता रहा। उसे लगा, जैसे किसी ने उसे सम्मोहित कर दिया हो। फिर जैसा कि हिरण को देखकर शेर की भूख जाग्रत् हो जाती है, और वह उसकी ओर दौड़ता है, उसी प्रकार राजकुमार भी उस स्थान की ओर दौड़ पड़ा, जहाँ उसकी राजकुमारी प्रतीक्षा कर रही थी। दौड़ते-दौड़ते वह पागलों सा चिल्लाने लगा, 'बहन! तुम मेरी पत्नी हो! भगिनी! तुम मेरी पत्नी हो, तुम मेरी पत्नी हो। मैं "मैं तुम्हारा पति हूँ, तुम्हारा पति।'
राजकुमारी ने दूर से ही अपने भाई को आते देख लिया, जो बाँहें फैलाए उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा था। समीप आने पर भाई के शब्द उसके कानों में पड़े। उसे लगा कि वह अभी उसे अपने बाँहों में समेट लेगा। बहन डर गई। उसने भाई के पास आकर अपने बाँहों में उसे ले लेने के पूर्व वह वहाँ से दूर भागने लगी और दूर भागने लगी।...
इसके पहले कि चेन्नईराम कथा के अंतिम चरण में पहुँचता, उसने सुना, वे तीनों आपस में कह रहे थे, 'हाँ यार! अभी तक हमने अपनी जिंदगी में सब मिल-बाँटकर किया है, फिर शादी हो गई तो क्या? हम अपनी-अपनी पत्नियाँ भी आपस में बाँटकर सुहागरात मनाएँगे और जीवन का आनंद लेंगे।'
'लेकिन क्या हमारी पत्नियाँ उसके लिए तैयारी होंगी?' एक ने संशय से पूछा।
'नहीं होगी तो हम मना लेंगे यार। वे भी तो कम मॉडर्न नहीं हैं।' दूसरे ने कहा।
'आने दो उन्हें। हम कोक में शराब मिला देंगे। सवेरे जागने पर जब अपने बिस्तर पर तुम्हें या मुझे रात के हम सफर के रूप में देखेंगी तो सब समझ जाएँगी।' तीसरे ने कहा।
"हाँ यार, रात गई-बात गई। आइडिया अच्छा है।' पहले ने कहा।
'इतने में तीनों की पत्नियाँ इठलाती उनके नजदीक आ मुसकराईं। उन्हें देखकर तीनों भी मुसकराए और मन-ही-मन में अपनी भाभियों की सुंदरता पर मुगध होने लगे।
चेन्नईराम ने छूटी हुई कथा का सूत्र फिर से पकड़ा। राजकुमारी दौड़ती गई। आखिर दौड़ का भी तो अंत होता है। कहते हैं, वह समुद्र में समा गई और लहर बन गई। उसका भाई भी उसके पीछे-पीछे दौड़ता रहा और समुद्र में भी उसके पीछे रहा। सागर में ध्यान से देखो तो किनारे की ओर बढ़ती एक तेज लहर शांत-सी दिखेगी और तुरंत उसके पीछे उछाल खाती एक विशाल तरंग आती है, मानो उस लहर को अपने आगोश में समा लेगी। छोटी लहर तुरंत पीछे पलट जाती है।
सागर में लघु-विशाल बहिन-भाई रूपी लहरों की यह नियति सदियों से चली आ रही है। परंतु आज क्या ये मॉडर्न विवाहिताएँ, आधुनिक स्त्रियाँ अपने पतियों की विकृत इच्छाओं को समझ पाएँगी या क्या दूर भाग पाएँगी?... चेन्नईराम सोच में पड़ गए।
(साभार : डॉ. ए. भवानी)