सागर और मेघ (गद्य गीत) : राय कृष्णदास

Sagar Aur Megh : Rai Krishna Das

सागर - मेरे हृदय में मोती भरे हैं ।

मेघ - हाँ, वे ही मोती जिनके कारण हैं-मेरी बूँदें ।

सागर - हाँ, हाँ, वही वारि जो मुझसे हरण किया जाता है । चोरी का गर्व !

मेघ - हाँ, हाँ वही जिसको मुझसे पाकर बरसात की उमड़ी नदियाँ तुम्‍हें भरती हैं ।

सागर - बहुत ठीक । क्‍या आठ महीने नदियाँ मुझे कर नहीं देंगी ?

मेघ - (मुसकराया) अच्छी याद दिलाई । मेरा बहुत-सा दान वे पृथ्‍वी के पास धरोहर रख छोड़ती हैं, उसी से कर देने की निरंतरता कायम रहती है ।

सागर - वाष्‍पमय शरीर ! क्‍या बढ़-बढ़कर बातें करता है अंत को तुझे नीचे गिरकर मिट्टी में मिलना पड़ेगा ।

मेघ - खार की खान ! संसार भर के दुष्‍ट ! पृथ्‍वी के विकार तुझे मैं शुद्ध और मिष्‍ट बनाकर उच्चतम स्‍थान देता हूँ । फिर तुझे अमृतवारि धारा से तृप्त और शीतल करता हूँ । उसी का यह फल है ।

सागर - हाँ, हाँ, दूसरे की करतूत पर गर्व । सूर्य का यश अपने पल्‍ले ।

मेघ - (अट्टहास करता है) क्‍यों मैं चार महीने सूर्य को विश्राम जो देता हूँ । वह उसी के विनियम में यह करता है । उसका यह कर्म मेरी संपत्‍ति है । वह तो बदले में केवल विश्राम का भागी है ।

सागर - और मैं जो उसे रोज विश्राम देता हूँ ।

मेघ - उसके बदले तो वह तेरा जल शोषण करता है ।

सागर - चाहे कुछ भी हो जाए, मैं निज व्रत नहीं छोड़ता । मैं सदैव अपना कर्म करता हूँ और अन्यों से करवाता भी हूँ ।

मेघ - (इठलाकर) धन्य रे व्रती, मानो श्रद्धापूर्वक तू सूर्य को वह दान देता है । क्या तेरा जल वह हठात नहीं हरता ?

सागर - (गंभीरता से) और वाड़व जो मुझे नित्‍य जलाया करता है, तो भी मैं उसे छाती से लगाए रहता हूँ । तनिक उसपर तो ध्यान दो ।

मेघ - (मुसकरा दिया) हाँ, उसमें तेरा और कुछ नहीं, शुद्ध स्‍वार्थ है । क्योंकि वह तुझे जो जलाता न रहे तो तेरी मर्यादा न रह जाए ।

सागर - (गरजकर) तो उसमें मेरी क्‍या हानि ! हा, प्रलय अवश्य हो जाए ।

मेघ - (एक साँस लेकर) आह ! यह हिंसा वृत्‍ति और क्‍या; मर्यादा नाश क्‍या कोई साधारण बात है ?

सागर - हो, हुआ करे । मेरा आयास तो बढ़ जाएगा ।

मेघ - आह ! उच्छंृखलता की इतनी बड़ाई ?

सागर - अपनी ओर तो देख, जो बादल होकर आकाश भर में इधर से उधर मारा-मारा फिरता है ।

मेघ - धन्य तुम्‍हारा ज्ञान ! मैं यदि सारे आकाश में घूम फिर के संसार का निरीक्षण न करूँ और जहाँ आवश्यकता हो जीवन-दान न करूँ तो रसा नीरस हो जाए, उर्वरा से वंध्या हो जाए । तू नीचे रहने वाला ऊपर रहने वालों के इस तत्‍त्‍व को क्‍या जाने ।

सागर - यदि तू मेरे लिए ऊपर है तो मैं तेरे लिए ऊपर हूँ क्‍योंकि हम दोनों का आकाश एक ही है ।

मेघ - हाँ ! निस्‍संदेह ऐसी दलील वे ही लोग कर सकते हैं जिनके हृदय में कंकड़-पत्थर और शंख-घोंघे भरे हैं ।

सागर - बलिहारी तुम्‍हारी बुद्‌धि की, जो रत्‍नों को कंकड़ पत्थर और मोतियों को सीप-घोंघे समझते हो ।

मेघ - तुम्‍हारे भीतर रत्‍न बचे कहाँ हैं ? तुम तो, कंकड़-पत्‍थर को ही रत्‍न समझे बैठे हो ।

सागर - और मनुष्‍य जो इन्हें निकालने के लिए नित्‍य इतना श्रम करते हैं तथा प्राण खोते हैं ?

मेघ - वे स्‍पर्धा करने में मरे जाते हैं ।

सागर - अरे, अपनी सीमा में रमने की मौज को अस्‍थिरता समझने वाले मूर्ख ! तू ढेर-सा हल्‍ला ही करना जानता है कि-

मेघ - हाँ मैं गरजता हूँ तो बरसता भी हूँ । तू तो...

सागर - यह भी क्‍यों नहीं कहता कि वज्र भी निपातित करता हूँ ।

मेघ - हाँ, आततायियों को समुचित दंड देने के लिए ।

सागर - कि स्‍वतंत्रों का पक्ष छेदन करके उन्हें अचल बनाने के लिए ।

मेघ - हाँ, तू संसार को दीन करने वाली उच्छृंखलताओं का पक्ष क्‍यों न लेगा; तू तो उन्हें छिपाता है न !

सागर - मैं दीनों की शरण अवश्य हूँ !

मेघ - सच है अपराधियों के संगी ! यही दीनों की सहायता है कि संसार के उत्‍पातियों और अपराधियों को जगह देना और संसार को सदैव भ्रम में डाले रहना ।

सागर - दंड उतना ही होना चाहिए कि दंडित चेत जाए, उसे त्रास हो जाए । अगर वह अपाहिज हो गया तो-

मेघ - हाँ, यह भी कोई नीति है कि आततायी नित्‍य अपना सिर उठाना चाहे और शास्‍ता उसी की चिंता में नित्‍य शस्‍त्र लिए खड़ा रहे, अपने राज्‍य की कोई उन्नति न करने पावे ।

सागर - भाई अपने क्रोध को शांत करो । क्रोध में बात बिगड़ती है क्‍योंकि क्रोध हमें विवेकहीन बना देता है ।

मेघ - (थोड़ा शांत होते हुए) हाँ, यह बात तो सच है । हम दोनों ने अपने-अपने क्रोध को शांत कर लेना चाहिए ।

सागर - तो आओ हम मिलकर जनकल्‍याण के विषय में थोड़ा विचार विमर्श कर लें ।

मेघ - हाँ ! मनुष्‍य हम दोनों पर बहुत निर्भर हैं । प्रतिवर्षकिसान बड़ी आतुरता से मेरी प्रतीक्षा करते हैं ।

सागर - मेरे क्षार से मनुष्‍य को नमक प्राप्त होता है जिससे उसका भोजन स्‍वादिष्‍ट बनता है ।

मेघ - सागर भाई हमें कभी आपस में उलझना नहीं चाहिए ।

सागर - आओ प्रतिज्ञा करते हैं कि हम अब कभी घमंड में एक दूसरे को अपमानित नहीं करेंगे बल्‍कि मिलकर जनकल्‍याण के लिए कार्य करेंगे ।

मेघ - मैं नदियों को भर-भर तुम तक भेजूँगा ।

सागर - मैं सहर्ष उन्हें उपकार सहित ग्रहण करूँगा ।

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