सफलता (कहानी) : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
Safalta (Hindi Story) : Suryakant Tripathi Nirala
१
जो हवा दिए के जलते रहने की वजह है, वह दिए को बुझा भी देती है। आभा के सस्नेह अकलुष प्राणों के पावन प्रदीप को पति की जिस निश्चल समीर ने साल-भर तक जला रक्खा था, वह साल-भर से उसे बुझाकर, उसकी पृथ्वी से दूर, अन्तरिक्ष की ओर तिरोहित हो गई है। साल ही भर में सुहाग का काजल उस दीपक-प्रकाश के ऊपर, रत्नार आँखों में, प्रिय-दर्शन के अंजन-रूप नहीं रह गया। आभा आज की शरत् की तरह अपनी सारी रंगीनियों को धोकर शुभ्र हो रही है—श्वेत शेफालीसी रँगे प्रभात के रश्मि-पात-मात्र से वृंतच्युत—जैसे केवल देवार्चन के लिये चुनी हुई। पर, प्राणों के नीचे, डंठल में, जो रंग लगा हुआ है, वह तो शरत् का नहीं—वसंत का है। उसीके ऊपर वसंत के बादवाले महीनों के ये दल जैसे शरत् की आभा से शुभ्र हो रहे हैं। लालसा-चपल क्या कोई उस पूर्ण विकसित स्खलित शेफालिका-राशि को केसरिए सुगंधरंग से अपनी वसंत की पाग रँगने के लिये वृक्ष के नीचे से चुपचाप चुन ले जायगा? हाय, यह वह सत्य शेफालिका तो नहीं! यह तो केवल देव-चरणों पर चढ़ने के लिये है—माला होकर हृदय पर या रंग बनकर आँखों पर चढ़ने के लिये नहीं! तभी आभा गाँव के किनारे धुले धवल शिवालय में देवता-पदों पर प्रत्यह पुष्प-स्वरूप अर्पित होने के लिये जाती है। उसके भीतर हृदय का दीप तो गुल हो चुका है, पर, बाहर अंध मंदिर-हृदय का द्वीप वह जला आती है।
यशस्वी साहित्यिक नरेंद्र ने उधर से जाते हुए, दीपक जलाकर देवता को प्रणाम करते समय कई बार आभा का दिव्य मुख और विशाल आँखों की सकरुण दृष्टि देखी। कई शुभ सान्ध्य क्षण उसे कारुण्य से ओत-प्रोत कर चुके—उसके हृदय में सहानुभूति का तैल संचित हुआ; वेदना की वर्तिका में समाज की कुप्रथा की आग—उसके हृदय का द्वीप जला।
यह प्रकाश कई बार, रास्ते में, मंदिर की सीढ़ियों पर, आभा के म्लान मुख पर पड़ा, प्रतिफलित हुआ। आभा के अंतःपुर की रूपसी ने अंतःपुर में उसे उतने ही निकट संबंध से पहचाना, जितने दूर व्यवहार से आभा धारा से दूर हो गई थी।
हाय रे जीवन! कितने आवर्तों से तू प्रवाहित होता है! जिन कारणों से आभा पृथ्वी से छुटी थी, वे ही उसे नरेंद्र के साथ लपेटने लगे। मन से वह नरेंद्र की दृष्टि की तरह उसके नज़दीक हो गई। वह आज एकांत में नरेंद्र से पूछना चाहती है—इस संसार-दुःख से मुक्ति पाने का कौन-सा मार्ग है। वह विद्वान् होकर उसे वंचित न करेगा—नः, वह धोका नहीं दे सकता—उसकी आँखें इसका विशद साक्ष्य देती हैं, फिर वह भी तो उसीकी तरह विधुर है—जानता है, व्यर्थ स्नेह कितना दुःखद, कितना कठोर है। होगा कि स्त्री न होने के कारण वह इतना दुःख, इतना अपमान न पा रहा हो; पर स्त्री होने के कारण कभी उसने कल्पना तो की होगी कि उसके न रहने पर उसकी स्त्री को क्या होगा। आभा का हृदय भर आया।
पर, आज-आज करके कई आज पार कर चुकी। नरेंद्र आज मिला। वह सोपान-सोपान उतर रही थी, नरेंद्र चढ़ रहा था। बहुत कुछ कहना चाहा था, पर कुछ भी न कह सकी। कितना हृदय धड़का! चुपचाप खड़ी रही। नरेंद्र ऊपर चला गया।
नरेंद्र बीसवीं सदी का मनुष्य है। वह न कर सके, ऐसा कोई काम नहीं; ऐसा कुछ किया भी, ऐसा नहीं। वह मन से धर्म और अधर्म को पार कर दूर निकल गया है; पर मन में धर्म से श्रद्धा और अधर्म से घृणा करता है। वह भौंरे की तरह खुली कली पर नहीं बैठा, पर भौंरे की तरह कलियों का जस बहुत गा चुका है, उनके चारों ओर बहुत मँडलाया। उसकी कल्पना में आभा उतने रंग भर चुकी है जितने किरण भरती है—फूलों में, पहाड़ पर, बादलों में, दिशाकाश में, तरह-तरह के सुघर विचारों में। पर आभा को वरण करने की कोई शहज़ोरी भी उसमें पैदा हुई, ऐसा लक्षण नहीं देख पड़ा। सोचा ज़रूर, पर उठे सर का झुक जाना देखा, और डरा।
त्यों-त्यों आभा दृढ़ होती गई। उसकी धड़कन जाती रही। चुप-चाप स्नेह का एक लेख नरेंद्र के स्मरण-मात्र से लगने लगा। लाज फिर भी रही। एक रोज़ उसी तरह एकांत मिला। कंठ की देवी कंठ में निर्भय बैठी रही। शब्द जैसे आप बनकर, तुले हुए, निकले—"मुझे संसार में बड़ा दुःख है।"
"दुःख को देवता समझो।" नरेंद्र ने जैसे लेख की एक पंक्ति लिखी।
आभा का सारा दुःख जैसे एक साथ वाष्प बन गया—उस महाशक्ति का धड़ाका हुआ—"अर्थात् राक्षस को देवता मानूँ?"
नरेंद्र काँप उठा। क्यों डरा, न समझा। आभा ने फिर कहा—"केवल दुःख नहीं सहा जाता। रोज़ का अपमान भार हो जाता है।"
धड़कन के बाद भाव स्पष्ट हुआ। नरेंद्र ने सोचा, यह भगना चाहती है। कृत्रिम गले से बोला—"धैर्य रक्खो!"
एक बार आभा ने अच्छी तरह नरेंद्र को देखा। खुलकर बोली—"आपको लोग बहुत बड़ा विद्वान् कहते हैं—पर मैं क्या समझूँ, पर बड़े भी छोटों को नहीं समझ पाते!"
नरेंद्र ने फिर कहा—"धैर्य रक्खो!"
सर झुकाकर आभा ने उत्तर दिया—"अच्छा!"
२
आभा की इच्छा निकल जाने की न थी, न किसी विषय-वासना से वह खिंची थी। नरेंद्र की तरफ़ उसके भाव ने उसे खींचा, और स्त्रियों की अवहेलना, अवज्ञा, जीती हुई एक प्रतिमा को मृत प्रेत से भी भयंकर—इतर पशु से भी तुच्छ समझनेवाली धारणा और व्यवहार ने उसे धकेला था। वह विद्वान् आचार्य से शिष्या की तरह मुक्ति की शिक्षा लेने गई थी, बस। हृदय में जो भाव नरेंद्र के प्रति प्रीतिवाली, कुछ काल के लिये उसे एक आवेश में भुला रखते थे, वे इतने पूर्ण थे कि उनसे अधिक की कामना वह कर नहीं सकती थी, करना सीखा भी न था। मुक्ति का पथ परिष्कृत होने पर वह हृदय की तुला पर तोलकर अवश्य देखती कि वह कितना प्रशस्त और कितना पवित्र है, तब आगे पैर बढ़ाती, तो बढ़ाती। यदि विद्वान् की बतलाई राह में उसे वैसा ही लांछन और अपमान देख में पड़ता, जैसा वह घर में देख रही थी, तो घर और बाहर, दोनों के रास्तों को पार कर जाने का गौरव प्राप्त करती। विद्वान् नरेंद्र—सहृदय नरेंद्र की 'धैर्य रक्खो' यह उक्ति उस दुःख के प्रवाह में हृदय से लगा रखने के लिये एक उतराती कुछ भार सँभालनेवाली लकड़ी हुई। धैर्य रखकर भविष्य में सत्य निर्देश पाने की कल्पना लिए वह घर जाकर चुपचाप पहले के अपमान सहने लगी।
इधर नरेंद्र ने सोचा, वह उसके साथ निकल जाने को एक पैर से तैयार थी। नरेंद्र को बड़ी घृणा हुई। कुछ आत्मप्रसाद भी हुआ कि उसकी धैर्य रखने की सलाह उसे मंज़ूर हुई। नरेंद्र गाँव रह रहा था, अधिक दिनों तक रहने की गुंजाइश न थी; कारण, वृत्ति लिखाई थी, जो घर बैठे मनीआर्डर द्वारा कम आती थी; शहर में रहकर ऑर्डर पूरे करने पड़ते थे, तब पेट-भर को कहीं होता था। पेट भी दो-चार नहीं, सिर्फ़ एक। नरेंद्र को इस दुर्दशा की चिन्ता न थी। कारण, वह साहित्य का सुधार कर रहा था। आदर्शवाद को साहित्य में दर्शाकर तब वह दम लेता था—उसके लेख और पुस्तकें प्रमाण हैं। बीसवीं सदी की समस्त विचार-धाराएँ उसकी धरा से बह चुकी थीं, पर जो कुछ उसने धारण किया था, वह था मनुष्य-धर्म, जिसे अंगरेज़ी में "Rcligion of man" नए स्वरपात से, ज़ोर देकर, कहते हैं। इसमें भूत, वर्तमान और भविष्य के सब धर्म वह धर देता था।
अस्तु, नरेन्द्र घर से कलकत्ते के लिये रवाना हुआ। रास्ते में कानपुर, लखनऊ, प्रयाग, काशी, पटना, गया होता गया। मित्रों से और प्रकाशकों से मिलकर साहित्य तथा बाज़ार के हाव-भाव समझता रहा। 'आरती' के प्रकाशक ने कहा, हमारे यहाँ ८) फ़ार्म से अधिक मौलिक पुस्तक के लिये देने का नियम नहीं, रुपया पुस्तक प्रकाशित होने के तीन महीने बाद से दिया जाना शुरू होता है। सम्पादक ने कहा, हम कोई लेख बिना पुरस्कार का नहीं छापते, अवश्य नए लेखकों को २) रुपए ही प्रति लेख देने का नियम है, पर आपको हम १॥) पृष्ठ देंगे। फिर बड़ी सहृदयता से बोले, इससे अधिक 'आरती' दे नहीं सकती। सम्पादक को लेख देने का वादा कर प्रकाशक से नरेंद्र ने कहा—"आप लोग पुस्तकें बेचने के विचार से ५० और ६० प्रतिशत कमीशन बेचनेवाले को देते हैं—यह आपकी साहित्य-सेवा नहीं, अर्थ-सेवा हुई। यदि लेखकों को अधिक देने लगें, तो किताबें अच्छी-अच्छी लिखी जायँ, और साहित्य का उद्धार भी हो।" प्रकाशक ने आँखें मूँदकर कहा—"साहित्य का उद्धार हम आपसे ज़्यादा समझते हैं।" इस प्रकार अड़ता-छूटता नरेंद्र कलकत्ता गया। वहाँ बीसवीं सदी-पुस्तक-एजेंसी में ६) फ़ार्म का बँगला के रद्दी उपन्यासों के अनुवाद का काम मिला। कुछ करना ही था। काम लेकर, एक रोज़ निश्चिन्त होकर जान बाज़ार-लाइब्रेरी में बैठा मासिक पत्र-पत्रिकाएँ देख रहा था। अँगरेज़ी, बँगला, हिन्दी, गुजराती,उर्दू, मराठी, सभी भाषाओं में एक विशेष आदर-भाव देखा—सिनेमा-स्टारों के सभी स्टोर हो रहे थे। देख-भालकर नरेन्द्र डेरे लौटा।
बीसवीं सदी-पुस्तक-एजेंसी का अनुवाद शुरू तो किया, पर हाथ बन्द हो गया। बार-बार आँखों के सामने सिनेमा के सितारे चमकने लगे। साथ मन सोचने लगा—यह अनुवाद का काम भी क्यों? इससे किस आदर्श की पुष्टि होती है? अर्थ मुझे भी तो चाहिए। बड़ा अर्थ अगर लोग नहीं लेते, तो जो लेते हैं, उसे ही बढ़ाओ।" साथ-साथ, जितने प्रकाशक भली हालत में रहते थे, तथा अपर व्यवसाय के लोग, जो सफल हुए थे, सामने आने लगे। फिर दीन हिन्दी के लेखकों की सूरत आई। उसका मित्र स्नेहशरण एक सर्वश्रेष्ठ गद्य-लेखक है, पर कदाचित् सबसे बड़ा दरिद्र और उपेक्षित। उसका भाव, जो अब तक उसे बड़ा बनाए हुए, दिन-रात उसे छोटा करता जा रहा था, सामने आया। देखकर उसे बड़ी घृणा हुई। कितने प्रकाशक उसका अपमान कर चुके हैं, कोई-कोई आफ़िस से भी निकाल चुके हैं; पर बराबर वह अपने नाम को मरता रहा, जो वास्तव में अपमान था। उसे नामी कहकर, कहाकर किसी शाप ने उसे ऊँचे आसन से गिरने का धोका दिया है। जो नाम-स्वरूप श्रेष्ठ वैभव का भोक्ता हो, वह कौड़ी-कौड़ी को मोहताज भी रहे, ऐसा हो नहीं सकता; छोटे वैभव उसके पास ज़रूर होंगे, या वह चाहता न होगा। याद आया,छोटे वैभवों की उसने परवा कब की; इसलिये छोटों ने उसे बराबर धोका दिया—नीचा दिखाया, और अन्त में आज यह प्रमाण भी दे रहे हैं कि वे छोटे उससे कितने बड़े हैं—उनके बिना उसका जीवन कितना अधूरा, कितना छोटा है।
नरेंद्र ने अनुवाद बन्द कर दिया। सोचने लगा, किस प्रकार छोटा होकर वह बड़ा होगा। उसी क्षण आँखों के सामने वह सोलह सालवाली साक्षात् आभा अपने पूर्ण यौवन में उभरी स्वर्ग की अप्सरा-सी झलमलाने लगी। वह मधुर ध्वनि याद आई! वह 'अच्छा' प्राणों में घुलकर अमृत बन गया।
तरंग के तृण की तरह अब नरेन्द्र अपने सोचे हुए विचारों में नहीं बह रहा—एक दूसरी विचार-धारा उसे बहाए लिए जा रही है। जो सचाई आज तक दूसरों को रास्ता बताने में लगी थी, उसने आज अपना रास्ता पहचाना। एका एक नरेन्द्र जैसे रात के शुभादर्श स्वप्न, से जगकर दिन के प्रकाश में आया, जहाँ सब कुछ खुला हुआ है।
बॉक्स खोलकर रुपए गिने—लौटने का ख़र्च था।
३
गाँव में ख़बर उड़ी—नरेन्द्र बाबू ने आवारगी पर कमर कस ली—बाप-दादे का नाम मिटा दिया। घर-द्वार, ज़र-ज़मीन, जो कुछ था, बेच डाला—पाप तो; छिपता है? अब वह चेहरा ही नहीं रहा। आभा ने भी सुना। आँखों में गुनकर चुप हो गई।
शाम को, समय पर, नरेन्द्र मन्दिर गया। वैसे ही दीपक जला, वैसे ही मुख प्रकाश में ज्योतित हुआ। उतरने के वक़्त उसी तरह चढ़ता हुआ मिला; आभा उसी तरह खड़ी हो गई।
"आभा, मैंने रास्ता ठीक कर लिया है।" यह आचार्य का कण्ठ न था, एक घनिष्ठ मित्र का था, जिसकी ध्वनि प्राणों के बहुत निकट पहुँचती है।
आभा ने सुना, और तोलकर देखा, यह स्वर वहीं पहुँचा है, जहाँ कभी आँखों की सहानुभूति—स्नेह पहुँचा था। इसमें उपदेश की गुरुता नहीं, मनुष्य के प्रति मनुष्य का सम-भाव है। वीणा-स्वर से झंकृत हुआ—"क्या है वह रास्ता?"
"तुम्हारे और मेरे जीवन से बँधकर बिलकुल एक नया, जिससे, आगे, और लोग आएँगे, मनुष्यों के लिये मनुष्य होने को।"
आभा ने नरेन्द्र को देखा, फिर निगाह फेरकर दीपक-प्रकाश में श्वेत शिव को देखने लगी। प्राणों में कैसी गुदगुदी हुई, बोली—"आप मुझे भगाना चाहते हैं?"
"नहीं।" नरेन्द्र का कंठ बिलकुल स्थिर था।
आभा ने फिर नरेन्द्र को देखा—"गाँववाले आपको आवारा कहते हैं।" कंठ में सहानुभूति बज उठी।
"यह भ्रम गाँववालों को बराबर रहेगा।" नरेन्द्र की आँखों से बिजली निकल रही थी।
"मेरे लिये आपकी जैसी आज्ञा हो—"
"हाँ, मैं तुम्हें वही अधिकार लेने के लिए कहता हूँ, जो तुमसे छिन चुका है।"
अज्ञात आँखों से आभा ने देखा।
"जिस दुनिया ने तुम्हें छोटी, अधम, भाग्य से रहित कहा, क्या उसे तुम नहीं समझाना चाहती कि तुम बहुत बड़ी—बहुत बड़ी, भाग्य से भरी हुई हो?"
"ऐसा तो अब क्या होगा!"
"होगा आभा। वही रास्ता देखकर मैं आ रहा हूँ। विश्वास करो, और आज से दुनिया को ठोकर मार दो—इसे जो जितनी ठोकरें लगा सका, इसकी आँखों में वह उतना ही बड़ा हुआ—उतना ही इसने उसके पैर पकड़े।"
ध्वनि जैसी होती है, प्रतिध्वनि भी वैसी ही होती है। आभा इस सम्पूर्ण शक्ति को भरकर एक दूसरे रूप में बदल गई। तन्मय खड़ी सुनती रही—
"यह संसार तुम्हारे लिये जैसा था, मेरे लिये भी वैसा ही था। तुम दुःख को समझती थीं, मैं न समझ पाता था, या समझकर भी न समझता था। अब हमें इस संसार को वैसे ही दुःख के भीतर से उचित शिक्षा देनी है।"
आभा की आँखें, हृदय, वह सम्पूर्ण निश्चलता कह रही थी—"यह ठीक कह रहे हैं।"
नरेन्द्र ने आभा को देखा, फिर देखा—वह निगाह बदल चुकी थी, जो झुकती है। यह वह निगाह है, जो धूप की तरह लोगों को उठाती हुई उठ जाती है—फिर पृथ्वी पर नहीं झुकती। आभा हृदय से इतना कभी नहीं उठी।
"यह," नरेन्द्र ने मन में कहा—"यह आभा है।" खुलकर बोला—"आभा, चलो; मेरे घर में बहुत दिनों से अँधेरा है; उसमें प्रकाश भर दो। मैंने तुम्हारी शिक्षा के लिये जायदाद बेची है।"
होश में आते ही हृदय हिल उठा। आँखों में शङ्का आई—"आपको में लोग क्या कहेंगे?"
"मुझे कुछ नहीं कह सकते; सब अपनी-अपनी क़िस्मत को रोयेंगे, जिसे किसी तरह वे फूटा नहीं समझ पाए—थाने जायँगे, दारोग़ा के आगे-पीछे दुम हिलाएँगे—कुत्तों की तरह भौंकेंगे, पर कुछ कर नहीं सकते। सामने आकर काटना देशी कुत्ते जानते नहीं। मैं मुँह पर विलायती ठोकरें लगाना सीख चुका हूँ, तुम्हें भी सिखाना चाहता हूँ। आओ—"
नरेन्द्र आगे-आगे, इस दृढ़ता को सर्वस्व सौंपकर आभा पीछे-पीछे चली। बारहदरी की बग़ल में तीन आदमी खड़े थे, इनके आने से पहले चल दिए। नरेन्द्र ने देखा, पर उपेक्षा में भरकर रह गया। आभा ने देखा, मन में कहा—"ये वे ही हैं, जिन्हें रोज़ देखती और रोज़ समझती थी।"
द्वार खोलकर, दीपक जलाकर नरेन्द्र ने कहा—"आभा, अभी हमें कुछ रोज़ यहाँ रहना होगा। गाँववालों को बता जाना है कि हम भगने वाले नहीं थे—तुम्हें, भगानेवाला रास्ता बतलानेवाले थे।"
आभा प्रकाश में मुस्करा दी।
४
दूसरे दिन से कई दिनों तक लगातार नरेन्द्र को देख-देखकर गाँववालों ने घृणा से अपना ही सर झुका-झुका लिया, और घर-घर राय क़ायम हो गई कि आभा के बाप की नाक कट गई। कीच पर ढेले चलाने से छीटे अपने ऊपर आएँगे, यह समझाकर वयोवृद्धों ने आभा के घरवालों को थाने जाने से रोका।
इस तरह की अनेक अड़चनों को आसानी से पार कर नरेन्द्र आभा को ले कर साल-भर से दिल्ली में है। आने के साथ ही, अपनी और आभा की एक साथ उतरवाई तस्वीर ब्याह के सूक्ष्म स्वतन्त्र ब्यौरे से मासिक तथा साप्ताहिकों के सम्पादकों के पास भेज दी। भारत तथा स्त्री-जाति के उद्धार-कल्प से सम्पादकों की लिखी ओजस्विनी टिप्पणियों के साथ दोनों का सुन्दर चित्र प्रकाशित हुआ। छोटे-छोटे पत्रवालों ने ब्लाक मँगा-मँगाकर और ऊँची आवाज़ लगाई। आभा तस्वीरें देख-देख, तारीफ़ पढ़-पढ़कर मुस्कराती रही।
घर पर उस्तादों को बुलाकर नरेन्द्र आभा को नृत्यगीत की शिक्षा दिलवाने लगा—इसको भी एक साल हो चुका। अक्षर-विज्ञान का ख़ुद शिक्षक बना। साल-भर में आभा अच्छी तरह हिन्दी और उर्दू समझ लेने लगी है। बुद्धि में इतनी बढ़ गई है, जैसे कई साल से तालीम पा रही हो। जैसा सुरीला, कोमल गला उसका था, स्टेज पर उतारने पर दर्शक ताँगेवालों और प्रशंसक पत्रवालों में उसके उतर जाने की नरेन्द्र को शंका न हुई।
आभा का बड़े-बड़े चित्रों, पोस्टरों, दैनिक, साप्ताहिक-मासिक पत्रों में बड़ा विज्ञापन हुआ। 'लीडर' में विज्ञापन के दाम अग्रिम भेजकर नरेन्द्र ने सम्पादकीय कालम में तारीफ़ छापने का अनुरोध किया। लोगों की तो आज भी बँधी धारणा है कि आँखें मूँदने पर ज़्यादा देख पड़ता है। फलतः सम्पादक के क़लम ने कालम-के-कालम रंग डाले। आभा उतरी भी। और, दर्शकों का क्या कहना, सहृदय तारीफ़ के बोझ से औंधे हो गए। स्त्रियों की पत्रिका 'पतिव्रता' ने लिखा, हमारी देवियों को इससे बढ़कर दूसरा आदर्श नहीं मिल सकता कि पति और पत्नी सम्मिलित रूप से कला की सेवा में लगें। साहित्यिक पत्रों ने लिखा, नरेन्द्रजी प्रतिभाशाली तो पहले ही से थे, परन्तु अब वह विशेष रूप से राष्ट्र-भाषा को समुन्नत कर रहे हैं। दिल्ली में उनका अर्धनारीश्वर नाटक बड़ी सफलता से खेला गया, जिसमें पति-पत्नी दोनों उतरे। यह पिछड़े हुए हिन्दीवालों को बढ़ने की उचित शिक्षा इस धन्यवादार्ह दंपति ने दी। तीन साल में आभा और नरेन्द्र का भारत के कोने-कोने में नाम और बंक-बंक में रुपया हो गया। नरेन्द्र ने एक आश्वासन की साँस ली।
अपना 'सुभद्रार्जुन' नया नाटक शहर-शहर चलकर दिखाने के अभिप्राय से नरेन्द्र ने प्रोग्राम बनाना और विज्ञापन करना शुरू किया। कानपुर, लखनऊ, प्रयाग, काशी आदि शहरों से क्रमशः कलकत्ते तक का निश्चय हुआ। केवल काशी के लिये ज़रा सन्देह रहा। स्टेज के मालिक ने किराए पर स्टेज न देकर कमीशन पर देने की बात लिखी।
कम्पनी चली, साथ-साथ पत्रों में सुभद्रा की भूमिका में आभादेवी की आभा-सी तारीफ़! प्रोग्राम बदल देना पड़ा। निश्चित दिनों से अधिक दिन लोगों को तृप्त करने में लगते रहे। सरकारी अफ़सर चलने में सबसे पहले बाधक होते थे। पत्रों की विपुल प्रशंसा और नागरिकों की ऊर्ध्व-कंठ प्रतीक्षा को लिए कम्पनी काशी आई।
'आरती' के प्रकाशक ने पुस्तकों की बदौलत आज के सिनेमा-साहित्य के उद्धार के विचार से अपनी एक रंगशाला बनवाई है, जिसका नाम भारतीय भावों से, काशी के एक कलाकार से सलाह लेकर 'पवित्रा' रक्खा है। इस स्टेज में नाटक भी खेला जाता है। इन्हीं से नरेन्द्र की शर्तें तय न हुई थीं।
कम्पनी के काशी पहुँचने पर 'पवित्रा' के मालिक स्वयं नरेन्द्र से मिले। पुरानी पहचान थी ही। बड़ा सम्मान-प्रदर्शन किया। नरेन्द्र ने कहा—"आपसे भाड़े का स्टेज नहीं मिला, अतः लाचार होकर मुझे दूसरा प्रबन्ध करना पड़ेगा।" नम्र भाव से मुस्कराते हुए 'पवित्रा' के मालिक ने कहा—"पवित्रा आप ही की है। आप कुछ भी न दें।"
नरेन्द्र ने कहा—"नहीं, ऐसी तो कोई बात है नहीं, आप अगर लेना चाहें।"
वैसा ही नम्र उत्तर आया—"पचास नहीं, तो चालीस सैकड़ा तो दीजिए।"
नरेन्द्र ने भौहें सिकोड़ लीं। कहा—"हमारे चालीस सैकड़े के मानी हैं, भाड़े के अलावा आपको सात-आठ सौ रुपए रोज़ मिलेंगे। अगर यही है, तो पन्द्रह सैकड़ा ले लीजिए।"
"पन्द्रह सैकड़ा!"
नरेन्द्र अट्टहास हँसा। संयत होकर कहा—"बाबू धनीरामजी, मैं ६ महीने में एक किताब लिखता था, पर उसके लिये आपने मुझे १५ सैकड़ा भी नहीं दिया!"
५
एक दिन, बाहर की पृथ्वी में प्रकाश की तरह प्रसिद्ध हो चुकने पर, आभा ने नरेन्द्र के पास एकान्त में बैठकर हाथ में हाथ लेते हुए कहा—"नरेन, तुम बुरा तो न मानोगे, मैं देखती हूँ, दुःख बहुत थे ज़रूर; पर मन्दिर का वह दीप जलानेवाला जीवन मुझे बड़ा सुखमय लग रहा है।"