सफल जीवन की कसौटी (निबंध) : महादेवी वर्मा

Safal Jivan Ki Kasauti (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

नैतिक और मानवीय मूल्यों के बीच में कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं है। विकास जीवन का धर्म है और विकास के क्रम में मनुष्य ने कुछ जीवन-मूल्यों का आविष्कार किया है। वे सिद्धांत में नैतिक मूल्य कहे जाते हैं और व्यवहार में हम उन्हें मानवीय मूल्य कहते हैं। परंतु वे व्यापक रूप से जीवन-मूल्य ही हैं। जीवन मूल्य को बनाने में पीढ़ियाँ लगी हैं। व्यक्ति का अनुभव नहीं समष्टि का अनुभव है। इसमें जैसे हम कहते हैं सत्यमेव जयते, इस सत्य का काम मनुष्य को मनुष्यता के निकट लाना है; संसार में सामंजस्य लाना और बहुत से दोषों से मनुष्य को मुक्त रखना है। ईश्वर तो सर्वत्र है । उसे हमारे सत्य और असत्य से कोई मतलब नहीं। वह तो जानता ही है कि क्या सत्य है, क्या नहीं । वास्तव में समाज में एक-दूसरे के व्यवहार में सत्य की आवश्यकता है। हम छलें नहीं, हम दुराव न करें, हम कपट न करें। इससे समाज की स्थिति बनेगी। इसी तरह हमारे धर्म के मूल्य भी हैं और नैतिक मूल्य भी हैं। जैसे धृति है- धैर्य । इसकी हमें आवश्यकता है। क्षमा की भी हमें आवश्यकता है। ईश्वर को हम दंड नहीं दे सकते। ईश्वर को क्षमा भी क्या हमारी चाहिए ? मनुष्य को चाहिए। चोरी करना या इंद्रियों का निग्रह करना और इसी तरह पवित्रता - इसी प्रकार चलता है। धी- बुद्धि-का विकास, विद्या का विकास, ये सत्कर्म जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे मानवीय मूल्य और नैतिक मूल्य भी हैं। दार्शनिक रूप से, सिद्धांत रूप से, मान्यता के रूप में ये नैतिक मूल्य हैं। जब ये नहीं रहेंगे तो अनैतिक हो जाएँगे। अनैतिक मूल्य तो मानवीय मूल्य नहीं होते। ये दोनों हमें चाहिए। एक व्यवहार में चाहिए, एक धारणा में चाहिए। आप देखेंगे कि जो बुरा व्यक्ति है जैसे चोर - वह भी विश्वास करता है उसका, जो चोरी नहीं करता; और आप देखेंगे कि डकैत जो है वह अपने को डकैत नहीं कहना चाहता। वह नहीं मानता कि वह बुरा काम कर रहा है। इसी तरह जो बहुत असत्य बोलता है वह सत्यवादी का विश्वास करता है। मन में कहीं किसी कोने में मान्यता के प्रति हमारा सम्मान है। हम मानते हैं कि ये जीवन के मूल्य वास्तव में समाज के लिए आवश्यक हैं। राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक है। मनुष्य का व्यक्तित्व जैसे बना है, ऐसे ही राष्ट्र का व्यक्तित्व बना है। हम देशों को पहचानते हैं-ये युद्धप्रिय है, ये दर्शनप्रिय है, ये ऐसा है, ये वैसा है। इसी तरह हम उसके व्यक्ति को पहचानते हैं। बड़ा दयावान है वह, क्षमावान है वह, आदि । वास्तव में हम अपना व्यक्तित्व नैतिक मूल्यों के द्वारा बनाते हैं, विकास करते हैं, अपना परिचय देते हैं। भारत के लिए कोई भी नहीं कहेगा कि यह युद्धप्रिय राष्ट्र है। सब जानते हैं कि दर्शन उसे प्रिय है, धर्म उसे प्रिय है। जब उन मूल्यों के प्रति हमारे मन में अविश्वास हो जाता है तब चिंता की बात होती है। नई परिस्थिति हर युग में आती है। इसीलिए कृष्ण कहते हैं - 'संभवामि युगे युगे।' हर युग में वही मूल्य रहते हैं परंतु नए ढंग से उनकी परीक्षा होती है। वे मूल्य नहीं टूटते, जैसे अहिंसा नहीं टूटी है, सत्य नहीं टूटा है, कोई भी जीवन का क्षेत्र ऐसा नहीं है जो जीवन को पूर्ण बनाता हो । आज हम चिंता करते हैं, क्योंकि हमारी पीढ़ी मूल्यों में विश्वास नहीं करती। मूल्यों का विश्वास खो देना बहुत बड़ा खो देना है। इसके संबंध में जितनी हम चिंता करें उतना ही हम विकास कर पाएँगे । आज चिंता हमें इस बात की नहीं है कि कुछ व्यक्ति असत्य बोलते हैं। हमें चिंता है कि आज सत्य का मूल्य नहीं हुआ, अवमूल्यन हो गया है। अब असत्य को ही जीवन का मूल्य मान लिया गया है। हम हत्या को ही जीवन का मूल्य मानने लगे हैं जो अनैतिक भी है, असामाजिक भी है और अराष्ट्रीय भी है। हमारे राष्ट्र का व्यक्तित्व खंडित हो रहा है उससे। ये मूल्य परिवार में मिलते हैं, समाज में मिलते हैं, शिक्षा में मिलते हैं, आस्था में मिलते हैं। जन्म से लेकर मनुष्य धीरे-धीरे एक आश्वासन पा लेता है, कहने के लिए। किसी ऋषि ने एक आप्त वचन कह दिया; लेकिन अनेक व्यक्तियों ने उसे अनुभव किया है। जब अनेक युगों ने अनुभव करके उसे प्राप्त किया है तब एक ऋषि के कंठ में वह आया है । सत्य की विजय होती है। सत्य हारता भी है, हम जानते हैं; परंतु सत्य की हार निरंतर प्रयत्न का परिणाम लाती है। इसलिए सत्य हारता नहीं एक मनुष्य हार सकता है, एक युग नहीं हारता, एक समष्टि नहीं हारती, एक राष्ट्र नहीं हारता। इसलिए हम कहते हैं- 'सत्यमेव जयते।' छोटी-मोटी हारें, छोटे-मोटे युद्ध हिंसा को बढ़ावा नहीं देते, अपनी-अपनी सफाई देते हैं। घोर हिंसक राष्ट्र भी हिंसा को मूल्य मानने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। आज जो हमारी समस्या है वह मानवीय मूल्यों की है और हमारे विचार में परिवर्तन की है, नैतिक मूल्यों की है। हमारी धारणा बदल गई है, हमारे विश्वास बदल गए हैं, हमारी आस्था बदल गई है और तब चिंता होती है कि यह पीढ़ी क्या करेगी ? हमारा युग क्या करेगा ? हमारे देश का परिचय अब क्या होगा ? इसमें से प्रत्येक व्यक्ति जो जरा भी चिंतन करता है, आज इसी चिंता में है कि मूल्यों में आस्था कैसे उत्पन्न हो । मूल्यों को हम उत्पन्न नहीं करेंगे, क्योंकि मूल्य तो युगों के उपरांत बने हैं। आज के युग में, विज्ञान-युग में, मानवीय मूल्य प्रश्न वाचक की तरह सामने हैं। विज्ञान मानवीय मूल्यों को नहीं मानता; उनकी उपेक्षा करता है, मानव के साथ विश्वासघात करता है। विज्ञान यदि मनुष्य का, मनुष्य के लिए मंगल कर सकता है तो वह नैतिक है और अमंगल करता है तब अनैतिक हो जाएगा। आज हमें एक नई नैतिकता चाहिए। ऐसी नैतिकता कि हम नए विज्ञान को संयोजित कर सकें, मनुष्य को कल्याण से मिला सकें। जब मनुष्य कल्याण से मिल जाएगा तब वास्तव में हमारे मन का संकल्प भी मंगलमय हो जाएगा। तब नैतिक मूल्य तो हमारी आस्था में, विचार में रहेंगे; व्यवहार में हमारे मानवीय मूल्य रहेंगे; मनुष्य का मनुष्य के प्रति श्रद्धा - स्नेह-सौहार्द, परस्पर त्याग बलिदान हमारे आवश्यक गुण होंगे बिना इसके मनुष्य जाति विकास नहीं करेगी।

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