साधु यह देश विराना (कहानी) : राजनारायण बोहरे

Sadhu Yeh Desh Virana (Hindi Story) : Rajnarayan Bohare

"अखिल ब्रह्माण्ड नामक परात्पर ब्रह्म परमात्मा की जय !सम्प्रदाय के आदि आचार्य महराज की जय! अस्थान के महन्त मण्डलेश्वर की जय !सन्त -पुजरी की जय! दाता भण्डारी की जय!अपने-अपने गुरू महाराज की जय!" तन्दरुस्त बदन उम्र लगभग चालीस बरस कन्धों तक फैले खिचड़ी जटा-जूट , उन्नत ललाट, कण्ठ ,माथे और भुजा इत्यादि पर बारह तिलक लगाए बाबा ओमदास ने कमर में केले के पत्ते का अडिया और उसी का कौपीन धारण कर रखी है।सांसारिक प्राणियों के बीच रहने के कारण इस समय उनकी कमर में रेशमी वस्त्र भी लपेटा हुआ है नहीं तो फक्कड़ बैरागी काहे की लाज और काहे की शरम!

सामने मिठाई का दौना है जिसमें से परसादी पाने लगे हैं । दो-चार ग्रास पेट में पँहुचे तो चैन हुआ। पेट की अगन कुछ सिराने लगी ।दो दिन गुजर गए उस अस्थान पर पंगति में बैठकर भेाजन पाया था।बस तब के क्षण हैं और आज की ढलती साँझ वे भोजन से मेले नहीं हुए । अगर पहले ऐसा होता तो कहते कि जाने कौन मनहूस का मुँह देखा है, या कौन बख्त मुँह से उलट-सुलट निकला है सेा ही तो अन्न देवता के दरसन-परसन को तरस रहे हैं । पर आज यह नहीं सोचते वे।

हालाँकि साधुशाही रिवाज के मुताबिक तो वे उलट-सुलट ही बोले थे,लेकिन ओमदास बाबा उसे गलत नहीं मानते। वो तो सत्त बात थी। अरे भाई ,साधु-बैरागियों का नशा-पत्ता और देह-वासना से क्या लेना -देना ।

इससे सम्पर्क तो सज्जन साधु करेगा ही नहीं । ये तो दुर्जन के काम हैं ,तो शास्त्रों में कहा ही गया -दुर्जनं दूरतः परिहरेत। अब दूर से ही त्याग आए हैं वे दुर्जनों को ,बल्कि उस समाज के सब जनों को। अघा गए वे उन सारे रीति- रिवाजों और प्रदर्शनों से ।

सामने की मिठाई उदरस्थ हो चुकी थी, लेकिन बाबा का मन छूट-छूटकर मालवा की सस्य-श्यामला धरती में बने महन्त किरपादास के आश्रम में जा पहुँचता था और वे मन को खींचकर पटरियों पर दौड रही इस ट्रेन में वापस लाने का यत्न कर रहे थे।इसी खींचतान में आँखों के आगे फिर से तैर उठा था-महन्त किरपादास के अस्थान पर बीता समय।

पिछले कुम्भ में प्रयागराज में ओमदास की भेंट किरपादास से हुई थी कुछ सत्संग भी हुआ था। दोनों ने साथ- साथ पंचाग्नि तपी थी और भभूत मलकर गंगा माई के तट तक भी साथ-साथ गए थे। तब के क्षणों में किरपादास बोले थे-सन्तजी ,हमने भी कुछ भगवत भगत चेताए हैं । मालवा में एक अच्छा अस्थान बनवा दिए हैं ।ठाकुरजी की सेवा- टहल और साधु सेवा होती है।कभी फुरसत में आइएगा अस्थान पर। कुछ दिन सतसंग होगा।
रमते जोगी और बहते पानी का क्या ठिकाना ।बाबा ओमदास वह न्यौता भूल गए और छः वर्ष बीत गए।

तब वे एक जमात के साथ जातरा पर निकले थे ।विंध्याचल की घाटी में बने एक स्थान पर जमात कुछ दिन रुकी और वहीं किरपादास के स्थान की चर्चा चली तो बाबा ओमदास को याद आया । झोली में से पुस्तक निकालकर उस पर लिखा बाबा किरपादास के स्थान का पता देखा। जमात के महन्त से जाने की अनुमति लेकर बाबा बिदा हुए ।

महन्त किरपादास का स्थान खूब लम्बा चौडा था मन्दिर में ऊँचे-ऊँचे शिखर दूर से ही दिखते थे । अस्थान पर हमेशा चहल-पहल बनी रहती थी । महन्त जंगल में मंगल कर दिया था।

काँधे पर आसन बाँधे और हाथ में चिमटा कमण्डल लिए बाबा ओमदास ने दूर से ही हाँक लगाई - दण्डवत..त..!
दण्डवत..त..! बदले में अस्थान किसी साधु ने जबाब दिया था और प्रसन्न होकर आगे बढ़ गए थे ।

वे सीधे महन्त की गद्दी पर पहँचे । किरपादास उन्हें नहीं पहचान पाए थे और नए महात्मा को अजनबी निगाहों से ताक रहे थे। छह बरसों में महन्त किरपादास का हुलिया बिल्कुल बदल गया था। बदन चिकना हो गया था और खूब लम्बी तोंद भी निकल आई थी जटाजूट अब पंचकेश में बदल गए थे तिलक भी बड़े करीने से लगाने लगे थे।

धरती पर तीन बार लेटकर ओमदास ने गद्दी की दण्डवत की और जतन से धरा एक रुपया झोली से निकालकर महन्त जी के चरणों में भेंट अर्पण की ।
“कहाँ से आना हुआ संन्त जी का?” महन्त किरपादास की आवाज में एक खनक -सी थी ।

एक जमात के संग-तीरथ-जातरा करके लौट रहे थे कि आपके स्थान पर आने की इच्छा जागरत हुई ,सो दरसन-परसन करने हाजिर हो गये हैं ।

कहकर बाबा ओमदास ने सोचा कि स्मरण दिलाऊँ-अभी छःबरस पहले ही तो हम दोनों प्रयागराज में कुम्भ के अवसर पर गंगा-तट पर भेंट कर चुके हैं । मगर साधुशाही की परम्परा और टकसाली विधान के अनुसार परिचय के पहले कुछ कहना नियम के प्रतिकूल है यह समझकर वह चुप ही रहे ।
“सन्तजी का नाम और अखाड़ा- द्वारा कौन-सा है?”

संसार परब्रह्म परमात्मा का ,सम्प्रदाय गादी महाराज का आशीर्वाद गुरू महाराज का साधु-समाज और आप सबका दिया हुआ मेरा नाम श्री ओमदास है।

आदि आचार्य महाराज के सम्प्रदाय में दादा गुरू एक हजार आठ श्री श्री गंगादास जी महाराज के शिष्य श्री श्री एक सौ आठ श्री प्रयागदास महाराज ही हमारे गुरू महाराज हैं । अखाड़ा द्वारा राजस्थान है-महाराज ।

ठीक से उत्तर पाकर महन्त ने समझ लिया टकसाली है खड़िया नहीं है । उनके चेहरे पर सन्तोष झलका। बोले -ठीक है सन्तजी सन्त-निवास में आसन जमाइए पारखत मैले हो रहे हैं । आप भी कुआँ पर जाकर असनान बना लीजिए दर्शन कीजिए और पंगति पाइए।बाबा ने माथा झुकाकर सम्मति प्रकट की और अस्थान के पिछले हिस्से में बने सन्त-निवास की और चल दिए।अस्थान सचमुच बड़ा सुन्दर था। चारों ओर से पेड़ों से घिरा हुआ था। बस्ती से तीन मील से भी दूरी के एकान्त मन्दिर होने से फालतू की चें-चें पैं-पैं से मुक्ति थी यहाँ। भजन करने के लिए एकदम उम्दा अस्थान थे ।

मन्दिर के पीछे भण्डारग्रह था और उसी से लगी हुई गौ शाला । औमदास का मन प्रसन्न हेा उठा यानि कि अस्थान पर गौ सेवा भी होती है। सन्त-निवास देखकर तो तबियत प्रसन्न हो उठी । कई साधु सन्त-निवास में विश्राम कर रहे थे ।
एक चट्टी पर आसन जमाकर उन्होंने कमण्डल लिया और कुँआ पर चले गए ।खूब मल-मलकर असनान बनाए ।

कोंपीन बदली और अपना दैनिक पाठ करते हुए ही वे भीतर मन्दिर में पहँचे।आहा!क्या खबसूरत चिन्ह पधराए हैं । बस देखते ही रहो ।प्रणाम करके परिक्रमा में गए तो कोने में खुलता एक दरवाजा दिखा।

कौतुहल से भीतर झाँका तो हृदय गदगद हो गया । एक बूढ़े साधु को घेरे दस-बारह बालक दास बैठे थे । बूढ़े बाबा उन सबको सिद्धन्त पटल ठाकुर टहल बता रहे थे । श्रद्धाभिभूत होकर बाबा ओमदास ने बूढ़े बाबा को दण्डवत की । सच्चे टकसाली साधु को सिद्धान्त पटल और ठाकुर टहल तो रटे हुए होना चाहिए ।उनकी यह धारणा और अधिक पुष्ट हो गई । ओमदास बूढ़े बाबा के निकट पहुँचे तो सारे नए चेलों ने ओमदास को एक स्वर में दण्डवत की।

बूढे बाबा ने ओमदास के अखाड़ा और द्वारा जानकर सन्तोष प्रकट किया फिर एकाएक पूछ बैठे-

सन्त जी जानते हो ,माथे में कितने बाल हैं।
बाल तो दो ही हैं बूढ़े बाबा एक सफेद और दूसरा काला ।
और लंगोटी में कितने धागे हैं ओमदास
लंगोटी में भी दो ही धागे हैं एक आड़ा और दूसरा ठाड़ा ।
इस दुनिया में सबसे बड़े यात्री कौन है सन्त जी?
सूरज और चन्दा से बढ़कर दूजा कौन बडा यात्री होगा महाराज ।
मनुष्य जौनी के करम का सबसे बड़ा रखवाला कौन है महात्माजी?
दो नेत्र और आत्मा ही सबसे बड़ा रखवाले हैं बूढ़े बाबा।

सारे उत्तर बिना संकोच और हिचकिचाहट के मिले तो बूढ़े महात्मा के चेहरे पर सन्तोष के भाव आए । उन्होंने ओमदास से कुशल-क्षेम पूछी ।ओमदास उठे और शेष परिक्रमा पूरी करने लगे ।

परिक्रमा पूरी करके फिर वे निज मन्दिर के सामने आ पहुँचे । वहाँ साष्टांग प्रणाम कर जब वे भण्डारघर में घुसे तो भूखे पेट से पेट में कुलबुलाहट होने लगी थी। भण्डार में पंगति की तैयारी हो रही थी ।

फिर तो उनके चार दिन चुटकी बजाते ही बीत गए। प्रातः सूर्योदय के पूर्व ही असनान बनाते । दोपहर एक ओर चले जाते और पाँच स्थान पर अग्नि जलाकर पंचाग्नि तापने बैठ जाते । दोपहर -ढले वहाँ से उठते, तब जाकर परसादी पाते । इस नए अस्थान पर उन्हें खूब आनन्द आया।

बस किरपादास की दिनचर्या उनकी समझ में नहीं आई ।और सब साधु जहाँ ब्रह्म-मुहूर्त में जग जाते वहीं महन्त किरपादास तो श्रंगार -आरती के कुछ देर पहले ही जागते हैं और जल्दी -जल्दी अपने प्रातः क्रिया कर्म से निवृत्त हो लेते हैं । फिर एक बार गादी पर जमे तो सीधे पंगत में उठते हैं । दोपहर में विश्राम करके तीसरे पहर भी वे सीधे उठकर गादी में पसर जाते हैं वहीं लेटे-बैठे हुकुम देते रहते और चपाटी दौड़कर टहल पूरी करते रहते। शाम को किरपादास नेताओं से धिरे बैठे रहते हैं । छिः छिः!आजकल साधु भी राजनीति की वेश्या पर रीझने लगे हैं न।

यों तो किरपादास की उम्र ज्यादा नहीं है । वे भी ओमदास की ही उम्र के हैं, लेकिन दोनों में कितना अन्तर है। इधर तो बाबा ओमदास गुरू कृपा से ब्रह्ममुहूर्त में ही जग जाते हैं और सूर्योदय तक अपने नेम-धर्म से निवृत्त हो लेते हैं ।उधर बड़े आलसी हैं बहुत ममतालु हैं किरपादास अपनी गादी के लिए। नेम-धर्म के लिए तो समय ही नहीं उनके पास। गुसाई महाराज सच कह गए हैं “जाके नख और जटा विसाला सोई तापस प्रसिद्ध कलिकाला ।”

साधना तो नागा साधुओं की जाकर देखो वसन और वासना से दूर रहकर कैसे वे अपने शरीर को तपा- तपाकर कंचन बना लेते हैं । कुम्भ में और सम्प्रदायों के लोग भी आए थे । रामानन्द सम्प्रदाय , रामानुज सम्प्रदाय, निम्बाकाचार्य एक-से-एक तपेश्वरी साधु ।हर सम्प्रदाय के साधु सच्चे वृतधारी और पूरे वैरागी पर ओमदास को खुद के सम्प्रदाय में सब बावन गज के लगते हैं ।

उठकर खिड़की से झाँका, तो विस्मय हुआ। महन्त किरपादास बाहर खड़े थे ,कमर में केवल कौपीन था , शेष सारा बदन उघारा था। सामने एक नया चेला था। गोरा चिकना -सा,चेला भी नंगे बदन केवल कौपीन लगाए था।महन्त के कमरे के आगे खडे दोनों हँस-हँसकर बतिया रहे थे।
...च्च...च्च...च्च। तो बड़ी गलती बात है। अभद्र तरीका है।ऐसे भी खड़ा हुआ जाता है। वे बुदबुदाए।

विचार आया कि सन्त -निवास से बाहर निकलकर उधर ही जा पहुंचे पर दूसरे पल ही सोचा कि अपने को क्या करना अपनी करनी पार उतरनी ।लेकिन उनका मन कब इस जुमले को स्वीकार करता है !अगर ऐसा होता तो उस बिसरामपुर वाले अस्थान की बदनामी न होने देते । हालाँकि गुरू महाराज कहते थे ओमदास तुम्हें तो कहावत सारी के पाँव पकड़कर बैठ गए। भले आदमी ऐसी बातें तेा कायर सोचते हैं । आलसियों के विचार हैं जो तो ।

पर वे आलसी नहीं हैं ।बचपन से मेहनत की है उन्होंने ।सोलह साल उमर से हल हाँका है। पस्टार फेरी है। दावन-उड़ावनी की है और पन्द्रह कुण्टल के गल्ले से लदे पाल की गाडी के धुरारिया बनके मण्डी तक ले गए हैं ।

बूढ़े होते पिताजी ने बड़े भाई को पहले ही पढाई छुड़ा दी थी और आठवाँ दरजा चढ़ते-चढ़ते उन्हें भी खेत का रास्ता दिखा दिया तेा वे भी कान से ऊँची लोहांगी लेकर खेत-टगर में भटकने लगे थे। खेती के सारे काम बड़े सुघड़ तरीके से सँभाल लिए उन्होंने ।

उन्हीं दिनों कोई सगया आए थे, उनकी सगाई लेकर । पिताजी ने सगयों को निर्विकार भाव से कुल-परम्परा सुना दी थी कि उनके खानदान में मँझला लड़का कुँआरा रहता है इसलिए ओमसिंह की तो शादी होनी नहीं है । ओम से छोटे की करने तैयार हैं। तब ओम से छोटे पप्पू दूल्हा बन गए थे और ओमसिंह की भीतरी दुनिया सूनी-सूनी हो गई थी । उनके मन में उठती श्रंगारिक भावनाएँ सीधे रास्ते के बजाय गली -छेड़ी तलाशने लगी थीं ।

घर वालों पर बेहद खपा थे वे । मन-ही-मन में योजना जरूर बनाते रहते थे कि कोई लड़की बस पट जाए उनसे । चाहे किसी भी बिरादरी ही क्यों न हो लेकर ही भाग जाएँगे । गुर्राते रहें घर वाले-अपनी करनी पार उतरनी । खेती किसानी के काम से उन्हें प्रायः बूढ़े पुरानों में बैठना पड़ता था और धीरे-धीरे भजन गाने का शौक होने लगा था। गाँव की रामलीला में वे भक्तों के पार्ट करने में सिद्ध-हस्त होने लगे थे और फिर आदतन वे दुनियादारी से वैराग्य की बातें सोचने लगे । बोलने लगे धरम- करम की बाते और विषय वासना की बुराई करते -करते वे आधे वैरागी हो गए। आसपास कहीं जग्य होता कोई प्रवचन होते, ओमसिंह का डेरा कई-कई दिनों के लिए वहीं जम जाता । वे खूब सतसंग करते । किसी साधु जमात का आना होता तो वे विस्मृत से होकर साधु-सेवा में जुट जाते। साधुओं से देश-परदेश की बड़े ध्यान से सुनते । गाँव की चौहद्दी में हमेशा फिर रहा उनका मन चौहद्दी तोड़कर बाहर आने को उत्सुक हो उठता। उनका वेश भी धीरे -धीरे साधुओं का हो गया । केशरिया कपडे और अस्त-व्यस्त दाड़ी-बाल तथा रंग -बिरंगे टीका छापे लगाने लगते । खेती सूखे या आग लगे उन्होंने चिन्ता करना छोड़ दिया । बल्कि जो भी हाथ में पड़ता है वे दान-पुण्य करने से न चूकते।

एक बार बड़े ने उन्हें टोका कि अच्छे -खासे किसान होने के बावजूद काहे के लिए पराश्रितों की तरह साधु भिखमंगे बने फिरते हैं । पप्पू ने भी बड़े का समर्थन किया तो उनका मन बिल्कुल खिन्न हो गया । वे खेती बाड़ी के काम से कतई दूर रहने लगे । घर में उनकी हैसियत गैरजरूरी जीव की तरह हो गई थी । ज्यों-ज्यों घर से उनका मन दूर होता गया भजन-पूजा में उन्हें आनन्द आता गया । उन्हें यह दुनिया स्वार्थी और विषयी लगने लगी थी ऐसा ही झगड़ा चलते एक दफा वे सन्न रह गए जब उन्हें भाइयों ने पागल करार दे दिया और एक अखबार में छपा भी दिया । इच्छा तो हुई कि इस अन्याय का जमकर प्रतिकार करें , लेकिन मन में बस गए वैराग्य ने उन्हें रोक दिया।

उन्हीं दिनों एक साधु जमात के साथ वे घर छोड़कर भाग निकले थे । बिसरामपुरा का अस्थान उनका पहला गाँव था। जमात ने उन्हें वहाँ छोड़ा और आग निकल गई । जमात के महन्त ने स्पष्ट कहा था कि वे टकसाली साधु नहीं बने हैं खड़िया ही हैं। क्योंकि न उन्हें सिद्धान्त पटल को ज्ञान है न ठाकुर-टहल का निगूरे तो हैं ही।

उन दिनों बिसरामपुर की गद्दी पर महन्त किशोरदास थे । अस्थान पर जनता की भारी भीड इकट्ठा होती थी ।संजा-आरती में एक डेढ़ सौ भगत हर मौसम में मौजूद रहते । हाँ अस्थान पर साधु-सन्यासी कम रहते थे ।महन्त एक दिन से किसी को ज्यादा टिकने ही नहीं देते थे । ओमसिंह को पाकर किशोरदास ने सोचा कि इस हट्टे-कट्टे आदमी को चेला मूढ़ लो अच्छा सेवा टहल करेगा। उन्हें अस्थान पर रुकने के लिए अनुमति दे दी थी

बिसरामपुर का यह स्थान बस्ती से पाँच किलोमीटर दूर था और बीच रास्ते में थोडा जंगल पड़ता था ।साधुओं और जमातों का आना जाना कम ही था ।इसलिए यहाँ साधुशाही रिवाजों की फिकर कोई नहीं करता था। महन्त ने एक औरत रख छोड़ी थी जो प्रगट में तो अस्थान पर गोबर समेटने का काम करती थी लेकिन ओमसिंह ने उसे कई दफा ‘रात-विरात जब महन्त के कमरे से निकलते देखा तो नफरत से भर गए थे।एक रात तो जीप में आठ-दस बन्दूकधारी आए थे किशोरदास से मिलने। तब ओमसिंह वहाँ की गड़बड़झाला में उलझ ही गए थे-ये क्या ?

उस दिन बिल्कुल सुबह के केले के पत्ते की कोपीन बनाने के लिए जब फुलवारी में किशोरदास मौजूद था। उसने वहीं से पुकार कर कहा था -इधर मत आना भाई । आना निषेध है ।

विस्मित ओमसिंह ने सोचा था कि बगिया में ऐसी कोई चीज होगी, जिसे टकसाली साधु ही पाते हैं ।वे चुपचाप लौटकर अपनी नित्यक्रिया में लग गए थे।

वह रहस्य तीन दिन बाद खुला था जब पुलिस ने पूरा अस्थान घेर लिया था। तलाशी हुई थी और बगिया में गांजे के पचास पौधे मिले थे तो उनका माथा ठनका था । देखने वाले तो हक्के-बक्के रह गए थे जब किशोर के कमरे से पुलिस ने पुरानी मूर्तियों का जखीरा बरामद किया था। पुलिस महन्त किशोरदास को गिरफ्तार करके ले गई थी और ओमसिंह बड़बड़ा उठे थे-पहले कौर में मछली ब्यानी , छोड़ो भोजन बोले ज्ञानी ।

अस्थान के और साधुओं को भी पुलिस ने परेशान करना चाहा, लेकिन शहर के एक-दो प्रभावशाली भक्तों के हस्तक्षेप से मामला दब गया था और मात्र किशोरदास को अपने पास रखकर मुकदमा चलाया था।

उस दिन भी उन्हें लगा था कि उल्टे पैरों गाँव लौट जाँए! पर गाँव की परिस्थिति तोऔर ज्यादा असहनीय थी न सो मन मसोसकर रह गए थे । आसपास के तमाम वैरागी इकट्ठा हुए और किशोरदास को निष्कासित कर दिया गया ।फिर मंगलदास जी को महन्ताई सोंपी गई थी।तब वे नहीं थे । मंगलदास जी के गुरूभाई प्रयागदास जी महाराज से ओमसिंह का परिचय नहीं हुआ था सीधे-सच्चे तपस्वी सन्त प्रयागदास जी महाराज ज्ञान का अदभुत भण्डार थे। ओमसिंह ने उन्हीं की सेवा आरम्भ कर दी थी। साधु समाज से उठ गई उनकी श्रद्धा प्रयागदास जी के कारण दुबारा जागी थी।

एक दिन झिझकते हुए ओमसिंह ने चेला बनने की इच्छा व्यक्त की तो प्रयागदास जी टहलते रहे, बाद में बेमन से उन्होंने हामी भरी थी । फिर एक दिन सिद्धान्त पटल में बताई प्रक्रिया से उन्हें शिष्य बनाया गया , अर्थात "दक्षकर्ण वदेमन्त्र गिवारं पूर्णमानसः। मन्त्रार्थ मन्त्र बीज वेतराड भित स्वर फला दिवम।"
सबसे पहले उन्हें आसन जमाना सिखाया । आसन रखते समय वे मन्त्र बोलते -ओम भूरभुवः स्वःकूर्माय नमः।

पृथ्वी की प्रार्थना करते समय उन्होंने मन्त्र रटा- “ओम पृथ्वित्वया धृता लोका, देवि त्वं श्णिुना धृता। त्वं व धारण्य मां देवि पवित्रं कुरू चासनम।”

हर क्रिया का मन्त्र उन्होंने सौ-सौ बार रटा तब याद हुआ। उन्हें सिद्धान्त पटल और ठाकुर टहल रोज सबेरे गुरूजी खुद रटाते । सुबह से शाम तक की सारी क्रियाएँ वे बड़े मनोयोग से करते , बल्कि इतने मनोयोग से करते कि साधु बनने के मूल उद्देश्य का कर्म भी उतने मनोयोग से न कर पाते ।

गुरूजी ने ओमदास नाम दिया। वेष समझाया ,कमण्डल का आकार , कौपीन का तरीका ,तिलक -छापों का रहस्य सब कुछ बच्चे की तरह समझाया । साधु और खड़िया साधु के गुप्त भेद भी दिखाए ।

मंगलदास जी महन्त बने तो बिसरामपुरा अस्थान के रंग-ढंग ही बदल गए। वहाँ न कोई नशैलची रहा न पाखण्डी। हर चीज में साधुशाही का ख्याल रखा जाने लगा । हर प्रक्रिया बारीकी से देखी-परखी जाने लगी ।एक घटना तो उन्हें आज भी याद है ।कैसा मनोरंजन नजारा पैदा हुआ था वहाँ। खाने-पीने में खास चीजों का विशेष ख्याल रखने वाले उस अस्थान पर एक साधु छुपकर लंका मिर्च और बन लडडू (प्याज) खाता पकड़ा गया तो पंचायत इकट्ठी हुई थी और पंचायत ने उस साधु के लिए पंचायती मार का दण्ड तजवीज किया था। फिर कम्बल उड़ाकर साधु की एसी पिटाई हुई थी कि तीसरे दिन वह साधु भाग निकला था और बाकी साधु उस पर हँस उठे थे ।

गुरूजी के साथ ओमदास यात्रा पर निकले थे। उन्हें याद है कि फूलपाटे का अस्थान उन्हें रात में छोड़ देना पडा था। क्यों कि वहाँ महन्ताई को लेकर पुजारियों में चल रही लट्ठमार लडाई रात को अचानक ही रक्त-रंजित हो उठी थी ।कई जगह इस घटना का उन्होंने जिक्र किया था । जिक्र तो उन्होंने सिंह वासे के अस्थान का भी कई जगह किया था जहाँ कि गुरू-चेला के बीच (दान में मिले)कम्बल को लेकर झगड़ा हो उठा था। साधु-संसार का मजा लेते वे बहुत दिनों तक घूमते रहे थे ।

“बाबा अपना टिकट दिखाइए!”टिकट चेकर ने बाबा ओमदास का मन को मंगलदास जी के अस्थान से खींचकर भागती ट्रेन में ला पटका था ।

मिठाई का खाली दोना जस-का-तस रखा था। ओमदास ने उठाकर खिड़की से बाहर फेंका व कमण्डल के जल से हाथ अमनिया किया । काँधे की झोली से अपना टिकट निकालकर उन्होंने चेकर को दिया और ठीक से बैठ गए।
टिकट पर निशान लगा कर चैकर आगे बढ गया तो ओमदास ने टिकट पुनः झोली में रखा और बाहर झाकने लगे ।

दूर कोई गाँव दिख रहा था। गाँव से हटकर एक अस्थान भी नजर आ रहा था । अस्थान के ऊँचे झण्डे निशान और शिखरों के कलश यहीं से नजर आ रहे थे। बाबा किरपादास के अस्थान पर सन्त-निवास में उस दिन वे दोपहर को लेटे हुए थे और अचानक वह निशाचरी हँसी गूँजी थी । फिर महन्त और उनका नया चेला एकाएक गायब हो गए थे ।अकुलाए से ओमदास बाहर आ गए थे और महन्त का कमरा अन्दर से बन्द देखकर उधर ही बढ़ लिए थे ।
दरवाजे की झिरी में से उन्होंने देखा आज याद करते भी लाज आती है और उनका चेहरा इस समय भी तन आता है ।
वे तुरन्त लौटे थे और अपना आसन बाँधने लगे थे ।

अस्थान छोड़कर आते समय वे महन्त के दरवाजे पर रुके थे उसे जी भर गलियाते रहे थे ।महन्त भीतर चुप बैठा उनकी गालियाँ सुनता रहा था। क्रोध में खदबदाते ओमदास वहाँ से पैदल चले तो रुके नहीं थे । लगातार चलते रहे थे । जब खूब थक गए तो एक पेड़ का आसरा ढूँढ उसी के नीचे रात को लेट गए थे । नींद किसे आनी थी । सारी रात करवट बदलते रहे ।सुबह उठकर अनमने ढगं से नेम-कर्म निपटाया और फिर चल पडे थे निकट के रेलवे स्टेशन की तरफ जहाँ कि कल रात बारह बजे पहुँच सके वे ।

ये दो दिन बडे ऊहापोह में बीते हैं ।झल्लाहट सी होने लगी है उन्हें अपने वेष पर। इसी वेष पर रीझ उठे थे वे ।क्या मिला उन्हें । घर छूटा ,गाँव छूटा ,भाइयों से अलहदा हुए,बुराई भी हुई । जीवन भर का हक मारा गया । आज पराश्रित होकर रह गए हैं ।

साधुओं को देवता समझते थे वे ,पर आज जाना कि वे तो पूरा आदमी भी नहीं हैं ,एकाकी पुरुष संसार है यह तो अधूरा।

अरे संसार के सिरजनहार ने संसार में मर्द के साथ औरत बनाई है तो इसका केाई मतलब ही होगा ।औरत के बिना आदमी अपूर्ण ही रहता है। आखिर कहाँ ले जाऐगा आदमी अपना शरीर ,अथवा मन।शरीर भी कुछ चाहता है और मन भीं। कब तक दबाओगे इसे ?और ज्यादा दबाओगे तो रोग-बीमारी ही फैलेगी । नहीं तो फिर उल्टे-सीधे साधन अपनाने पड़ेंगे जैसा ओमदास शुरू से अपनाते रहे गाँव में या फिर किशोरदास और किरपादास ने किया।

साधु बनकर जितनी तन्मयता से उन्होंने क्रिया-कर्म किए उतना तो कभी भजन भी नहीं कर सके। मंजिल की तरफ ध्यान कहाँ रहा उनका , वे तो रास्ते में ही उलझे रह गए।

मेहनत से दूर होते गए तो शरीर भी आलसी होता गया। हर चीज अपनी कुब्बत से लेना तो भूल चुके वे । माँग -मूँग कर पेट भरना अपनी नियत बना ली उन्होंने।

इन दिनों तो उन्हीं लोगों की चलती हो गई है जो हर जगह अपने वेश का लाभ लेते रहे। अब तो हर साधु नेता बनना सीख रहा है।जिसे देखो वो राजनीति करने अयोध्या भागता हुआ चला जा रहा है। जैसी धन-सम्पत्ति साधुओं के पास देखी वैसी तो किसी गृहस्थ-सेठ के पास भी न हो गी। ऐसे वैरागियों के बारे में गुसाई जी महाराज कह गए हैं-

“तपसह धनवंत दरिद्र ग्रही।
कलि कौतुक तात न जात कही।।”

ओमदास के गुरूजी इन चीजों से बहुत मुक्त थे। न किसी अस्थान की चाह रही उनमें ,न कोई धन-सम्पत्ति जुटाई उन्होंने ।मंगलदास जी ने बहुत यत्न किए कि वे स्थायी बनकर रहें और गल्ला-मण्डी से दान में मिलते गल्ले का हिसाब-किताब वे खुद रखें ताकि मन्दिर -निर्माण के सही खर्चे लोंगो को बता सकें पर गुरूजी इतना ही बोले थे कि “साधु का जमीन-जायदाद से क्या लेना देना।उसे तो अपना सुधार करना चाहिए। गोल बाँधने से क्या होता है,अरे,भजन करना है तो अकेले जुटो।”वे रस्सा तुड़ा कर भाग निकले हैं।

वे लगातार सोचते रहे हैं कि अब कहाँ जाँए ।इस साधु समाज से तो उनका गले-गले तक मन भर गया है इसलिए किसी अस्थान पर जाने का तो कभी नहीं सोच सकते। हाँ,गाँव के बारे में विचार किया जा सकता है..पर..गाँव में कौन है उनका ..दोनों भाई तो नाता तोड़ ही गए हैं उनसे, और माता -पिता अब जीते नहीं हैं । हाँ यार दोस्त बहुतेरे हैं ,उन्हें चाहते भी थे वे लोग। फिर जननी जन्म भूमि तो सबकी प्यारी होती है न।

लेकिन लौटकर क्या अपने गाँव में फिर से खप सकेंगे वे। गृहस्थों की दुनिया में दुबारा पहुँच कैसे घुल मिल सकेगें जिसे काफी दिन पहले बुरी मानकर छोड़ आए थे वे। गाँव में से वे बुराइयाँ तो खत्म हो नहीं गईं होंगी,जो उस समय प्रचलित थीं..तोे..क्या साधु समाज में ही बने रहें?वे सचमुच बड़ी कसमकस में फस गए है।-भई गति साँप छछूँदर केरी ।

बडे सोच-विचार के बाद उन्होंने तय किया है कि वे गाँव लौट जाएँगे। तपस्या ही करनी है तो गाँव में करेंगे। लोगों को जगाएँगे,यह भी एक तपस्या है।
अपनी जमीन के लिए हक्क के लिए जूझेंगे,लड़ेंगे ।हक पाकर कड़ी मेहनत से खेती करेंगे ।

और..और अगर कोई मिली तो ब्याह भी कर लेंगे खुले आम ।इसमें कैसा संकोच !संकोच और लाज तब हो जब चोरी-छिपे कुछ किया जाए ।इसी दुराव-छिपाव के भाव को ही तो पाप कहते हैं न।

अपना वेष उन्होंने इसीलिए नहीं उतारा है कि अब गाँव जाकर ही वेष का अन्तिम संस्कार करेंगे।यही सोचकर वे इस ट्रेन में बैठ गए हैं जो उन्हें गाँव ले जा रही है।

साँझ हो चुकी थी।खिड़की से सर्द हवा आ रही थी ।उन्होंने खिड़की के बाहर नजर डाली । गाड़ी किसी नदी से गुजर रही थी। किनारे पर बने किसी अस्थान में जगमगाते बिजली के बल्व यहाँ तक दिख रहे थे।उन्होंने झुँझलाकर खिड़की की शटर गिरा दी ।

अस्थान उनकी आँखों से ओझल हो गया।

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