साधु और साँप (उड़िया बाल कहानी) : डॉ० अर्जुन शतपथी/ଅର୍ଜୁନ ସତପଥୀ
Sadhu Aur Saamp (Oriya Children Story) : Arjun Satpathy
रामगिरि पहाड़ की तलहटी में एक आश्रम था । वहाँ एक साधु रहते थे । आस-पास के गाँवों में उनके अनेक भक्त थे। साधु महाराज के आशीर्वाद से सभी सुखी थे।
रोज सुबह से शाम तक आश्रम में खूब भीड़ लगती थी, मानो एक मेला लगा हो। सैकड़ों भक्त और शिष्य साधु महाराज के दर्शन के लिए आते थे। आश्रम में हमेशा भजन, कीर्तन, पूजा-पाठ होता रहता था ।
एक दिन कहीं से एक जहरीला साँप आया। वह आश्रम के पास रुक गया। रास्ते के किनारे पर नीम का एक बड़ा पेड़ था । उसी के खोंखड़ में वह रहने लगा।
पूजा के समय उठने वाली महक, सुगन्धित धुआँ, भजन-कीर्तन आदि का प्रभाव साँप पर पड़ा। उसका स्वभाव धीर-धीरे बदलने लगा। कुछ दिनों बाद साँप ने साधु का शिष्य बनने का निश्चय किया। किन्तु वह उनके पास नहीं जा सकता था । उसे मार डाले जाने का डर था, इसीलिए वह प्रायः उदास रहता था।
वर्षा का मौसम था । एक दिन सुबह से शाम तक भारी वर्षा हुई । साधु जी के आश्रम को कोई आ-जा नहीं सका। चारों ओर पानी ही पानी था। साँप का बिल भी पानी से भर गया। साँप ने खोंखड़ से निकल कर देखा - रात है | सन्नाटा है। केवल मेहक और झींगुरों की आवाज सुनाई पड़ रही है । यही अपने लिए उत्तम समय है। यही सोचकर वह आश्रम के भीतर आ गया।
साधु महाराज अपने कमरे में मौन बैठे थे। साँप जाकर उनके सामने लेट गया। उसने प्रार्थना की, 'प्रभो, मैंने अपने जीवन में अनेक पाप किये हैं। आपकी महिमा से मैंने हिंसा त्याग गी है। मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ। कृपया स्वीकार करें ।'
साधु ने पूछा, 'क्या सचमुच तुमने हिंसा त्याग दी है ? अब किसी को नहीं काटते?"
'नहीं, गुरुजी ! मैं अब किसी को नहीं काटता और न काहूँगा । आपसे प्रभावित होकर मैंने अपना स्वभाव ही बदल डाला है।'
'तो आज से तुम हमारे शिष्यों में से एक हो ।'
साँप उसी दिन से आश्रम में रहने लगा। उसके लिए एक मण्डप बना। पानी का कुण्ड भी रखा गया। वहीं वह पड़ा रहता था । कभी-कभी फन उठाकर आने जाने वालों को चकित करता था । भक्त लोग साधु जी के दर्शन के बाद 'सर्पराज' के भी दर्शन करते थे। कोई दूध का कटोरा समर्पित करता था तो कोई प्रणाम करके सुख की याचना करता था ।
साँप सबका पूज्य हो गया।
एक साल उस पहाड़ी इलाके में खूब सर्दी पड़ी। पशु, पक्षी और सरीसृप सर्दी के मारे विकल हो उठे। कहीं से भटक कर रात के समय एक नागिन आश्रम में घुस आयी।
सर्पराज ने अपनी जाति की बू पाकर फन उठाया । नागिन समीप आ गयी ।
'यह आश्रम है। यहाँ साधु-संत रहते हैं । यहाँ तुम कैसे घुस आयी ? भागो जल्दी।' सर्पराज कड़क कर बोले ।
नागिन बोली, 'देखो, बाहर कितनी ठण्डक पड़ रही है। मैं भी तो तुम्हारी जाति की हूँ। मेरे लिए थोड़ी जगह यहाँ बना दो।'
सर्पराज नागिन के दुष्ट स्वभाव से परिचित थे। उसे मार-मार कर भगाने लगे ।
सर्पराज से निराश होकर नागिन सीधे साधु जी के पास गई और आश्रम में रहने की प्रार्थना की।
साधु बड़े दयालु थे। उन्होंने उसे वहाँ रहने की अनुमति दे दी। उसके लिए भी उन्होंने एक अलग मण्डप बनवा दिया। वह दिन-रात मण्डप में रहती और सब कुछ चुपचाप देखती रहती ।
हजारों भक्त रोज आया करते थे। साधु महाराज के दर्शन करते थे । नागिन के पास वाले मण्डप पर साँप को फूल चढ़ाते थे। कोई चन्दन छिटकाता था तो कोई दूध पिलाता था। किंतु नागिन की तरफ न कोई भूल से नजर डालता था और न कोई उसके पास जाता था ।
नागिन जलने लगी। उसने सोचा, 'मेरे पास क्यों कोई नहीं आता। नाग की पूजा सभी करते हैं। इसके पीछे जरूर कोई रहस्य है। शायद साधु ने मना किया है। क्या करूँ ?'
नागिन के मन में नागराज के प्रति ईर्ष्या और साधु जी के प्रति क्रोध दिन-ब-दिन बढ़ने लगा । वह बदला लेने के लिए चंचल हो उठी।
पहले तो नागिन ने आश्रम से भाग जाने की सोची। परंतु वैसा करने पर वह बदला नहीं ले सकती थी। बाद में साँप को मार डालने की भी सोची। किंतु मार डालना भी आसान न था ।
साधु महाराज को खत्म कर दिया जाये तो साँप पर लोग संदेह करेंगे और उसे जरूर मार डालेंगे।'न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी ।'
एक दिन रात के अंतिम प्रहर में नागिन ने बदला लेने का काम शुरू किया । अँधेरा था। सभी आश्रमवासी सो रहे थे। चहल-पहल बिलकुल न थी। नागिन धीरे-धीरे सरक कर साधु के कमरे में घुसी एवं साधु जी को डस लिया ।
नित्य की तरह साधु जी नियत समय पर उस दिन भी जगे। उन्होंने स्नान, पूजा-पाठ आदि निबटाए। उस दिन भी उनके चेहरे पर प्रसन्नता थी। जैसे सब दिन प्रसन्नता रहती थी । मानो उन्हें कुछ हुआ ही न हो। उनके शरीर पर साँप के जहर का कोई असर ही नहीं हुआ।
शिष्य लोग उनका दर्शन करने आये। लोगों ने रात की सारी घटना सुनी और साधु के मंत्र के बंधन में बँधी नागिन को मार डाला।
इस घटना के बाद लोगों की साधु और सर्पराज के प्रति भक्ति और बढ़ गयी ।
कुछ वर्षों के बाद साधु एकाएक एक दिन आश्रम से अदृश्य हो गये। सर्पराज भी दिखाई नहीं पड़े। किंतु आज भी उस आश्रम में दोनों की प्रतिमा की पूजा होती है। रोज हजारों भक्त फूल, चन्दन, दिया, दूध लेकर आते हैं। रोज सुबह और शाम को दूर-दूर तक आश्रम की संध्या आरती की घंटी सुनाई पड़ती है।
(संपादक : बालशौरि रेड्डी)