साधु और गणिका की कथा : राधावल्लभ त्रिपाठी
भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् समय बीतते-बीतते एक बोडिय निह्नव नामक साधुओं का सम्प्रदाय पनपा। एक समय की बात है। संगम नाम के एक स्थविर (श्वेताम्बर) आचार्य अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ उज्जय नामक विहार में रहते थे। उनके समाज में दत्त नामक एक आहिण्डक (घुमक्कड़) साधु था। एक बार सूरि (आचार्य संगम) ने उसे किसी काम से दूसरे गाँव भेजा। उस गाँव में पहुँचते-पहुँचते साधु को रात हो गयी, तो वह रात को कहीं टिकने के लिए ठिकाना ढूँढ़ने लगा। उसे कहीं ठहरने का स्थान न मिला। तब वह बोडिय चैत्यालय में गया। उसने सोचा कि यह तो अपने ही धर्म के साधुओं का निवास होने से अपना ही स्थान है और वह उस चैत्यालय में रात बिताने के लिए भीतर चला गया। उसे बोडिय श्रावकों ने देखा। उस (के सम्प्रदाय) से अकारण वैर पालने वाले उन बोडिय श्रावकों ने एक गणिका को पैसा देकर उसके पास भेज दिया। उस गणिका को उसके कक्ष में भेजकर उन्होंने बाहर से ताला लगा दिया। एक प्रहर रात बीती, तो गणिका उस साधु को हैरान करने लगी। दत्त साधु धैर्यशाली था, वह उसकी चेष्टाओं के आगे स्थिर बना रहा। उसकी निष्कम्पता से वह गणिका भी प्रभावित हुई। तब वह शान्त होकर उससे बोली, “मुझे दिगम्बर साधुओं ने पैसा देकर तुम्हें भ्रष्ट करने के लिए भेजा है।”
दत्त ने कहा, “अच्छी बात है, तुमको पैसे से मतलब था। अब तू एक ओर सो जा।” उसके बाद उसने उस गणिका के देखते-देखते उस कक्ष में जो दीया जल रहा था, उसमें अपने सारे कपड़े और सामान जला डाला और वहाँ पड़ा हुआ एक पुराना मोरपंख उठा लिया।
प्रातः होने पर दिगम्बर श्रावकों ने लोगों की भीड़ इकट्ठी करके कहा, “देखो लोगो, यह एक श्वेतपट साधु मन्दिर के भीतर गणिका के साथ सो रहा है।” सूर्योदय होने पर सबके सामने द्वार खोला गया। दत्त भीतर से उस गणिका के कन्धे पर हाथ रखकर बाहर निकला। लोगों ने देखा और कहा, “अरे यह तो क्षपणक है, वेश्या के कन्धे पर हाथ रखकर जा रहा है निर्लज्ज। अभी तक भी इसने उसे गले से लिपटा रखा है।”
दत्त ने कहा, “मेरी ही हँसी क्यों उड़ाते हो। और भी तो क्षपणक हैं, जो रात को वेश्याओं के साथ रहते हैं।”
तब लोग बोडिय श्रावकों पर हँसते हुए कहने लगे, “अरे, ऐसे हैं तुम्हारे गुरुजन।” अथवा - “भाँडों जैसे नंगधड़ंग ये लोग और करेंगे भी क्या? लगता है (इस निर्लज्जता से बचने के लिए ही) श्वेताम्बरों ने वस्त्र पहनना आरम्भ कर दिया है, तुम लोगों से तो वे ही सच्चे हैं।”