सबसे छोटा ग़म (कहानी) : आबिद सुहैल

Sabse Chhota Gham (Story in Hindi) : Abid Suhail

उसने तीनों तरफ़ की जालियों में बँधे हुए हज़ारों बल्कि लाखों धागों को देखा और उन में दस सवा दस साल क़ब्ल अपने बाँधे हुए धागे को तलाश करने लगी।

बाईं तरफ़ वाली जाली पर जिसके बाहर गेंदे के पीले पीले फूल और हार ढेर थे और बहुत से दिये जल रहे थे, उसने अपने धागे को पहचानने की कोशिश की। उसे ख़ूब अच्छी तरह याद था कि उस तरफ़ जाली के बिल्कुल कोने में उसने धागे में एक गिरह लगाई थी और फिर दूसरी गिरह जावेद ने। उसे ये भी याद था कि अभी उसकी उँगलियाँ पूरी तरह गिरह लगा भी न पाई थीं कि जावेद की उँगलियाँ वहाँ पहुँच गई थीं और उँगलियों के इस लम्स के बाद जावेद उसकी आँखों में झाँक कर मुस्कुराने लगा था और वो शर्मा कर नीचे देखने लगी थी।

लेकिन उनका बाँधा हुआ धागा कौन सा था? उस लम्हे उसे ख़याल आया कि उस वक़्त उस जगह शायद बहुत ज़ियादा भीड़ थी और जावेद ने आँखों ही आँखों में इशारा किया था और वो सामने वाली जाली पर चली गई थी। ये सोच कर उसने दर्मियान वाली जाली का रुख़ किया लेकिन क़दम आगे बढ़ाने से क़ब्ल उसने एक-बार फिर उस जाली पर नज़र डाली जैसे वो अपना बाँधा हुआ धागा पहचान ही तो लेगी।

दूसरी जाली पर पहुँचते-पहुँचते उसे ऐसा लगा जैसे पहली जाली पर जा कर उसने ग़लती की थी और उसे उसकी याद-दाश्त ने धोका दिया था। धागा तो उसने यहीं बाँधा था, बिल्कुल कोने में। लेकिन यहाँ भी लाखों धागे बंधे थे। किसी में एक गिरह थी, किसी में दो। उनमें उसका अपना कौन सा था? उसने कोने के धागों पर हाथ फेरा, आहिस्ता-आहिस्ता, जैसे जावेद के हाथों के लम्स से वो अपने धागे को पहचान ही तो लेगी। लेकिन कहीं ख़्वाहिशों की गर्मी थी, कहीं आरज़ूओं की नर्मी और कहीं मायूसियों की तारीकी और मसाइब की सख़्ती।

उसने दूसरी बार इसी कोने के धागों पर हाथ फेरने का इरादा किया ही था कि एक दुबली पतली, गोरी चिट्टी लंबी सी औरत वहाँ आ गई। वो कुछ देर तो ख़ामोश खड़ी जाली को एक टक देखती रही। फिर उसने दाईं तरफ़ की जाली में लाल धागा बाँधा, मुड़कर अक़ीदत से मज़ार की तरफ़ देखा और आँसू पोंछती हुई बाहर निकल गई।

वो औरत जूँ ही बाहर निकली उसने उसके बाँधे हुए धागे पर उँगली रख दी। अक्तूबर की इन इब्तिदाई तारीख़ों में जब धूप छाँव के मौसम के बावजूद मज़ार के बाहर वसीअ-ओ-अरीज़ आँगन का एक पत्थर तप रहा था एक सर्द लहर उसके रग-ओ-पै में सरायत कर गई। धागा सिमटा, फिर फैला और दो आँखें बन गया। रह्‌म की भीक माँगती हुई आँखें। दो लब बन गया, ख़्वाहिशों को गोयाई अता करते हुए लब “एे शैख़ तू ने बादशाहों की झोलियाँ मुरादों से भर दी हैं। मेरी झोली में भी एक गुलाब डाल दे।”

वो उसी जगह खड़े खड़े काँप गई। जैसे नींद से अचानक कोई किसी को जगा दे या कोई बेहद भयानक ख़्वाब से जाग पड़े। उसने अपने दोनों तरफ़ मसहरी पर सोते हुए दोनों बच्चों को टटोलने के लिए हाथ बढ़ाए लेकिन उसका बायाँ हाथ मेहराब से और दायाँ निहायत ख़ूबसूरत कपड़ों में मल्बूस एक औरत से टकरा गया। कमर में सोने की करधनी, कानों में सोने के बुँदे जिनमें हीरे चमक रहे थे, गोया ख़्वाब से जागने के बाद हक़ीक़त से उसका पहला टकराव था। खिलता हुआ गंदुमी बल्कि शायद गोरा रंग जिसको ख़ुशहाली, ख़ुशियों भरी ज़िन्दगी ने और भी हसीन बना दिया था, बल्कि चमका दिया था।

उस औरत को भी भला कोई ग़म हो सकता है? उसने बालाई की रंगत वाले मुलायम और गुदाज़ हाथों को देखा। नज़रें झुका कर दोनों छोटे-छोटे पैरों को देखा, ऐसे छोटे छोटे ख़ूबसूरत पैर जैसे उन्हें बचपन में लोहे के जूते पहना कर रखा गया हो। फिर सर उठा कर कनखियों से उन बड़ी बड़ी आँखों की तरफ़ देखा जो थोड़ी देर क़ब्ल उसको ऐसी लगी थीं जैसे किसी ने गुलाब के कटोरे भर दिए हों।

लेकिन अब ये गुलाब के कटोरे छलकने ही को थे और आँसुओं के दो क़तरे दोनों कटोरों के कोनों से टपक पड़ने के लिए पर तौल रहे थे।

उस औरत को भला क्या ग़म हो सकता है? उसने सोचा। ग़ुर्बत और मुफ़्लिसी तो उसने देखी ही नहीं। औलादें यक़ीनन हैं वर्ना इस क़दर ख़ुश भला रह सकती थी। माँग का सिंदूर और चूड़ियाँ और बूूँदे। छी छी क्या बुरा ख़याल आया था उसके दिल में। ख़ुदा उसे सदा सुहागन रखे और उसके पति की उम्‍र दराज़ करे। लेकिन कोई ज़ख़्म तो ज़रूर था। जिसे न दौलत, न शौहर, न आल, न औलाद, न ख़ूबसूरत कपड़े, न क़ीमती ज़ेवर, ग़रज़ कोई न भर पाया था और वो यहाँ चली आई थी।

उसने साड़ी जिस तरह बाँध रखी थी उसी तरह साड़ी बाँधना जावेद को भी पसन्द था लेकिन वो इस तरह साड़ी बाँध ही न पाती थी। उसे इस बात से एक और बात याद आ गई और उसकी उदास और ग़म-गीं आँखों में भी हँसी की एक चमक पैदा हो गई।

जावेद ने जब ताजमहल में एक ख़ूबसूरत लड़की को बार-बार पलट कर देखा था तो वो उदास हो गई थी। शादी को अभी चन्द ही दिन तो हुए थे और ख़ल्वतों में प्यार-ओ-मुहब्बत लुटाने वाला जावेद जल्वत में और वो भी उसकी मौजूदगी में इस तरह हरजाई हुआ जा रहा था। वैसे उसने ख़ुद को समझाया भी था कि हर पुर-कशिश और ख़ूबसूरत चीज़ की तरफ़ नज़रें ख़ुद ब-ख़ुद उठ जाती हैं लेकिन बार-बार मुड़-मुड़ कर देखना बिला इरादा तो नहीं हो सकता। उसने कई बार पलट पलट कर उसकी तरफ़ देखा था और ताजमहल की पुश्त पर, जमुना के किनारे, जब वो औरत मस्जिद की तरफ़ खड़ी थी तो दरिया के उस पार क़िले की तरफ़ देखते हुए भी उसने नज़रें चुरा कर उस औरत की तरफ़ देख लिया था।

लेकिन जावेद की गुफ़्तुगू के अन्दाज़, बर्ताव, मुस्कुराहट, हँसी और थोड़ी थोड़ी देर बाद ताज के हुस्न के किसी पहलू की तरफ़ उसकी तवज्जोह दिलाते हुए उसके हाथ धीरे से छू देने की उसकी आदत में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। फिर ये बात तो उसे एक दिन ख़ुद-ब-ख़ुद समझ में आ गई थी कि उसी दिन जावेद उस औरत को नहीं बल्कि उसी साड़ी को देख रहा था जो वो औरत एक ख़ास तरीक़ा से बाँधे हुए थी।

कहीं उस औरत को ऐसा ही कोई वहम, कोई बेनाम ग़म तो नहीं? बेनाम ग़मों के तो हम औरतों के पास खज़ाने होते हैं जिन्हें हम लुटाते नहीं बटोर बटोर कर रखते हैं। ख़ुशियों के लम्हों को बोझल बनाने के लिए, बे-मुहाबा, बे-साख़्ता क़हक़हों को शाइस्ता बनाने के लिए इन्तिहाओं को ज़िन्दगी के आदाब सिखाने के लिए। लेकिन ऐसे बेनाम ग़मों के लिए कोई इतनी दूर तो नहीं चला आता।

वो औरत जाली पर धागा बाँधने लगी तो उसने कनखियों से उसके चेहरे का एक-बार फिर जायज़ा लिया। उदासी का एक पर्दा तो ज़रूर था, आँखें अब भी भीगी हुई थीं लेकिन चेहरे का मेक-अप उसी तरह क़ायम था, जैसे ब्यूटी सैलून से निकल कर सीधे यहीं चली आई हो। गर्द-ओ-ग़ुबार का एक भी निशान न था, सारी पर एक भी शिकन न थी। उस औरत ने धागे में गिरह लगाई तो उसकी नज़रें क़ुदरती रंग में रंगे हुए उसके लंबे लंबे नाख़ुनों पर पड़ीं जिनका ये हुस्न, ये चमक देख रेख और घरदारी के कामों से बे-नियाज़ी के बग़ैर मुम्किन न था।

धागे में गिरह लगाने के बाद उसने ज़रा सा झुक कर दोनों हाथ बाँध कर जैसे जाली ही को प्रणाम किया। फिर मुड़ी और मज़ार के क़रीब जा कर खड़े ही खड़े तक़्‍रीबन दुहरी हो गई और ऐसे फूट फूटकर रोई कि सारे बंध टूट गए बल्कि बह गए। लेकिन इन आँसुओं ने उसे और भी ख़ूबसूरत और भी मा'सूम बना दिया था। जब वो बाहर निकली तो वो भी तजस्सुस के मारे मज़ार के सिरहाने तक आ गई। उसने पर्स खोला, दो बड़े बड़े नोट निकाले, फिर और नोट निकाले और दरगाह के चन्दे के बॉक्स में डाल दिए और इलायची दाने लेने के लिए दोनों हाथ फैला दिए। इसी तरह फैलाए फैलाए हाथ ऊपर उठाए और अपना सर हाथों पर टिका दिया। फिर धीरे धीरे सर उठाया, इलायची दाने पहले साड़ी के पल्लू में डाल कर पर्स में एहतियात से रख लिए और चली गई। चन्द क़दम बाद उसने पलट कर मज़ार की तरफ़ एक-बार फिर देखा और सर झुकाए बुलन्द दरवाज़ा की सीढ़ियों से नीचे उतर गई।

अब वो उसी जाली के पास आ गई जहाँ थोड़ी देर क़ब्ल उस औरत ने धागा बाँधा था लेकिन रंग बिरंगे धागों के जगल में वो उसका धागा पहचान न सकी, उसके ग़म के राज़ तक न पहुँच सकी।

इसी दर्मियान सय्याहों का एक रेला दरगाह में दाख़िल हुआ तो गाइड ने रटे रटाए जुमले दोहराए, “शैख़ सलीम चिश्ती की दुआ से अकबर को जहाँगीर नसीब हुआ। यहाँ लोग आते हैं और दामन-ए-मुराद भर ले जाते हैं।”

मज़ार के बाहर की जाली पर एक सय्याह ने हाथ रखा तो गाइड ने निहायत आहिस्तगी से वो हाथ हटा दिया और कहा, “इस मज़ार की जाली दुनिया के सारे मज़ारों की जालियों से ख़ूबसूरत है। कछुवे की हड्डी पर सीप के काम की ये दुनिया में अपनी आप मिसाल है, ये कह कर उसने दिया-सलाई जलाई तो मज़ार की बैरूनी दीवार का वो हिस्सा जिस पर रौशनी पड़ रही थी चमक उठा झिलमिल करने लगा।

सय्याहों का रेला चला गया तो वो फिर तक़्‍रीबन तन्हा रह गई, एक-बार फिर उसने मज़ार के क़दमों के सामने की जाली पर बँधे हुए धागों पर हाथ फेरा तो जावेद दरवाज़ा खोल कर कमरे के अन्दर दाख़िल हो गया। नशे में धुत, टाई की गिरह ढीली, बाल बिखरे हुए, सूट शिकन आलूद, आँखें सुर्ख़ और दहाड़ता हुआ, “मैं कहता हूँ ये मेरा घर है या किसी और का। दो-दो घंटा चिल्लाओ तब कहीं जा कर दरवाज़ा खुलता है... न आया करूँ कहीं और सो रहा करूँ?”

“ज़रा आँख लग गई थी, थोड़ी देर पहले तक तो जाग रही थी”, उसने धीमे लहजे में कहा और टाई की गिरह खोलने लगी।

“हुँह जाग रही थीं थोड़ी देर पहले तक, तो फिर मर क्यों गई थीं मेरे आने पर।”

लेकिन उसने कोई जवाब न दिया और कोट नर्म नर्म हाथों से उतार दिया और हाथ का सहारा देकर उसे बिस्तर पर लिटा दिया। फिर जूतों की डोरी खोली, जूते उतारे, मोज़े उतारे और बिस्तर पर उसकी टाँगें फैला दीं।

अब ये बात हर रात का मामूल बन गई थी। वैसे उसे दिन में सब कुछ हासिल होता। इज़्ज़त, दौलत, कार, मुलाज़िम, औलादें लेकिन ये सब कुछ एक बारीक धागे से लटका हुआ मालूम होता था। ये धागा किसी वक़्त भी टूट सकता था। अगर उसके ख़दशात सही साबित हुए तो वो क्या करेगी। तालीम याफ़्ता होने के बावजूद दस बारह बरस तक इस तरह की ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद क्या वो नए सिरे से बिल्कुल दूसरी तरह की ज़िन्दगी शुरू कर सकेगी।

सवालिया निशान फैला और फैलता ही गया कि एक बूढ़ी सी औरत ने दूसरी औरत की गोद से एक बिल्कुल छोटा सा बच्चा लेकर मज़ार के क़दमों में डाल दिया। दोनों औरतों ने जिनके चेहरे ख़ुशी से तमतमा रहे थे उसी जगह बैठ कर सर को इतना झुकाया, इतना झुकाया कि सज्दे का गुमान होने लगा। बूढ़ी औरत उठी और उसने जाली के पास जा कर एक धागे की गिरह खोल दी। बच्चे को गोद में उठा लिया, दोनों ने एक-बार फिर अक़ीदत से मज़ार की तरफ़ गर्दनें झुकाईं और मज़ार से बाहर निकल गईं।

उसी लम्हा उसकी नज़र माँ की गोद में मुस्कुराते हुए बच्चे पर पड़ी और वो ख़ुद भी मुस्कुरा दी।

लेकिन उसकी ये मुस्कुराहट आरज़ी थी। सारी जालियों पर महरूमियों, तमन्नाओं, नाकामियों के आँसुओं में डूबे हुए लाखों-लाख धागों के दर्मियान एक फूल कब तक अपनी शादाबी बरक़रार रख सकता था। उसने दाएँ हाथ की मुट्ठी खोली तो सुर्ख़ धागा पसीने में भीग चुका था. अब वो जाली के किसी ऐसे कोने को तलाश करने लगी जहाँ इससे क़ब्ल किसी ने धागा न बाँधा हो। लेकिन ऐसी कोई जगह न थी। हर जगह एक दो नहीं दर्जनों धागे बँधे हुए अपनी आरज़ूओं की तक्मील के लिए आँसुओं के इस सैलाब में इसके एक क़तरे की भला क्या अहमियत। गहरे ज़ख़्म, ग़म-ओ-अन्दोह के पहाड़, और मसाइब के तूफ़ान-ख़ेज़ धारे जिनकी ये धागे अलामत थे, उसे अपने ग़म के मुक़ाबले में बेहद बड़े और अज़ीम मालूम हुए।

उसने एक बड़ा धागा लिया और जाली के चारों कोनों पर बाँध दिया। पूरी जाली को घेर कर, सारे ग़मों, दुखों और तमन्नाओं का अहाता किए हुए। अब वो रो पड़ी। उसकी आँखें समुन्दर बन गईं। उसने आँसू पोंछने की कोशिश की और रुँधे हुए गले से बोली “शेख़” इन सबकी मुरादें बर आएँ तो मेरा ग़म भी हल्का हो जाएगा। इतने बहुत से दुखों के बीच मैं कैसे ख़ुश रह सकूँगी।”

बाहर सेह्​न के पत्थर अब भी इतने ही गर्म थे, सूरज अब भी आग बरसा रहा था लेकिन उनका एहसास किए बग़ैर, ख़ामोश, गर्दन झुकाए वो इस तरह बाहर निकल आई जैसे उसके दिल का सारा बोझ हल्का हो गया हो।

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