सबसे बड़ा सवाल (नाटक) : हरिशंकर परसाई
Sabse Bada Sawal (Hindi Play) : Harishankar Parsai
भूमिका : विश्वनाथ त्रिपाठी - प्रदीप रंगकर्मी
‘सबसे बड़ा सवाल’ हरिशंकर परसाई का सम्भवत: एकमात्र नाटक है। अभी तक यह पाठकों-दर्शकों की नजरों से ओझल था। इसका प्रकाशन किया जा रहा है। यह अब रंगप्रेमियों को उपलब्ध हो पाएगा। इस नाटक के प्रकाशन के बाद मौलिक नाटकों की कमी कुछ हद तक दूर होगी। नाटक की कथावस्तु को देखते हुए यह अनुमान व्यक्त किया जा सकता है कि रंगजगत में इसका स्वागत बहुत गर्मजोशी से किया जाएगा। लेकिन, एक सच यह भी है कि परसाई की कहानियाँ लम्बे समय से रंग-समाज में समादृत रही हैं। अभिनेता-निर्देशक के साथ छोटी-बड़ी रंगमंडलियाँ भी समय-समय पर ‘सदाचार का ताबीज’, ‘भोलाराम का जीव’, ‘एक लड़की—पाँच दीवाने’, ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’, ‘प्रेमियों की वापसी’, ‘घेरे के भीतर’, ‘एक फिल्म-कथा’ आदि कहानियों के मंचन से वर्तमान समाज की विविध छवियों के प्रति समाज को जागरूक करती रही हैं। इस लिहाज से ‘सबसे बड़ा सवाल’ परसाई जी का पहला और आखिरी नाटक है, लेकिन नाटककार के रूप में उनकी ख्याति पहले से ही है।
नाटक की कथावस्तु यह है कि राज्य में चुनाव होने जा रहा है। अलग-अलग पार्टियों के नेता अपने पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। पार्टियों के नाम रंगों के नाम पर रखे गए हैं। परसाई जी ने चार पार्टियों का नामोल्लेख किया है—‘काली पार्टी’ (यह वह पार्टी है जिस पर काले धन वालों का कब्जा है), ‘सफेद पार्टी’ (इस पार्टी में सफेद लोग भी हैं और काले भी। कहना चाहिए, काले धन वाले लोग मोटी रकम चन्दे में देकर ‘सफेद पार्टी’ में घुस आए हैं), तीसरी पार्टी का नाम है—‘पीली पार्टी’ (उपद्रव करना इस पार्टी का मुख्य कार्यक्रम है)। इन तीनों से अलग एक पार्टी और है—‘विजय पार्टी’। इस पार्टी में कई तरह के लोग हैं—पुराने मशहूर क्रान्तिकारी, राजनीति से रिटायर नेता, जनता द्वारा मारे गए नेता। इस पार्टी की ताकत है युवा पीढ़ी। इस माने में यह क्रान्तिकारी पार्टी है। हालाँकि, मैदान में मुख्य रूप से दो पार्टियाँ ही एक-दूसरे के आमने-सामने हैं।
‘काली पार्टी’ के नेता सेठ गरीबदास दवा कारखाने के मालिक हैं। विधवा-आश्रम चलाते हैं। सेठजी इस माने में कुख्यात हैं कि ये अपने कारखाने में नकली दवा बनाते हैं। इनके कारखाने में बनी नकली दवा की वजह से पच्चीस आदमियों की मौत हो जाती है। यह खबर आग की तरह फैलती है। जनता के क्रोध का ठिकाना नहीं रहता। जनमानस में अपनी छवि सुधारने के लिए सेठ जी अपनी बेटी मीना को चुनाव प्रचार में उतारते हैं। लेकिन, मीना भी लोगों के ऊपर कुछ खास असर नहीं छोड़ पाती है। फलत: सेठ गरीबदास चुनाव के लिए अपने पक्ष में वातावरण तैयार करने में विफल रहते हैं।
दूसरी बड़ी पार्टी ‘सफेद पार्टी’ के नेता हैं सेठ भिखारीदास। भिखारीदास सिर्फ नाम से भिखारी हैं। वास्तव में ये भी व्यापारी हैं। तेल का कारखाना है। जनता के दिलों में अपनी जगह बनाने के लिए अपने बेटे सुरेश को चुनाव प्रचार में उतारते हैं। लेकिन सुरेश भी तुरुप का इक्का साबित नहीं हो पाता है। होता यह है कि सभा को सम्बोधित करते समय ही जनता को यह सूचना मिलती है कि सेठ भिखारीदास के मिल में निर्मित तेल के खाने की वजह से बारह व्यक्तियों की मौत हो गई। जनता इस खबर को पाकर तिलमिला उठती है। नतीजा यह निकलता है कि जनता भिखारीदास के भी खिलाफ हो जाती है।
दोनों बड़ी पार्टियों के नेताओं की पोल खुल जाने से वे परेशान हैं। लिहाजा, भिखारीदास गरीबदास से मिलकर बीच का रास्ता निकालने का निर्णय लेते हैं। लेकिन दोनों के बीच सुलह नहीं हो पाती है। सुलह नहीं होने की मुख्य वजह है कि दोनों ही नेता स्वार्थलोलुप हैं। कालाबाजारी करते हैं। इनकम टैक्स की चोरी करते हैं। बेईमानी, जमाखोरी, मिलावट करने में एक-दूसरे को पछाड़ देने की होड़-सी मची है।
इस दृश्य-विधान में परसाई जी ने बहुत सचेत रूप से दोनों नेताओं की स्वार्थलिप्सा पर से पर्दा हटाने के लिए पत्रकार को माध्यम बनाया है। पत्रकार के सवाल और उन दो नेताओं के जवाब से पाठकों-दर्शकों के समक्ष एक नये सच का उद्घाटन होता है। पत्रकार पहला ही सवाल करता है कि इस समय देश के सामने सबसे बड़ा सवाल क्या है तो दोनों नेता चुनाव जीत लेने को बड़ा सवाल मानते हैं। देश की मुख्य समस्या कुछ भी नहीं बताते हैं।
दोनों नेताओं के कारखाने ठीक से चल रहे हैं। अफसर लोग घूस खा रहे हैं। चारों ओर सुख-चैन है। सिर्फ एक समस्या उन्हें परेशान करती है कि इंस्पेक्टर, आबकारी या इनकम टैक्स वाले लोग मौका-बेमौका धमक पड़ते हैं।
हालाँकि, इसका भी हल उन लोगों ने निकाल लिया है। उन अफसरों की मुट्ठी गरम कर देने से समस्या का लोप हो जाता है। ऐसा वे देश को बाजार मानकर करते हैं। बाजार में चीजें बेची व खरीदी जाती हैं। ईमान भी बिकता है। नेतागण पैसे के बूते उनके ईमान को खरीद लेते हैं।
पत्रकार के गरीबी-अमीरी वाले सवाल पर दो टूक शब्दों में कहा जाता है कि यह तो भगवान का बनाया हुआ विधान है। इसे भला वे कैसे खत्म कर सकते हैं? पत्रकार के सवालों से नेताओं की अन्तरराष्ट्रीय ज्ञान और समझ की भी पड़ताल की गई है। वियतनाम के बारे में पूछे जाने पर वे वियतनाम का नाम भगतराम नामक मुनीम से जोड़ते हैं। अमेरिका की राजधानी निक्सन नामक शहर बताते हैं। पड़ोसी देश से लड़ाई के बारे में वे कहते हैं कि लड़ाई रोज हो। इधर लड़ाई हुई नहीं कि उधर इन्होंने दाम बढ़ाए। लड़ाई को ये महान नेतागण वरदान मानते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि देश में सिर्फ उनका और उनके धन्धे का चहुँओर विकास होना चाहिए। उनके प्रधान बन जाने भर से ही देश का हर नागरिक सुरक्षित हो जाएगा। और जो दुखी होगा, उसे या तो खत्म कर दिया जाएगा या देश-निकाला दे दिया जाएगा।
यह अन्धापन स्वार्थांधता है। कर्तव्य, ऐतिहासिक बोध, सामाजिकता नहीं दिखलाई पड़ती, केवल स्वार्थ दिखलाई पड़ता है। मानवता से रहित मनुष्यों का यह वास्तविक रूप है। मानव समाज में एक समूह भालुओं, मेमनों, मुर्गों, सूअरों, नकटों, सियारों, उल्लुओं का है, यद्यपि वे दिखते मनुष्य हैं। उनके आचरण और मनोविकार के अनुरूप उनका नाम-रूप निर्धारित किया जाए तो यही ठहरेंगे। यह जमात सक्रिय है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में इसकी वृद्धि तेजी से हुई है।
परसाई के इस नाटक की संवाद-योजना देखते ही बनती है। शैली ऐसी मारक है कि आपको अन्दर से झकझोरती है। आप यह सोचने को मजबूर होते हैं कि जो कहा जा रहा है, उस संवाद को कहने के लिए अन्दर कितनी दूर तक गिरना पड़ता होगा। कहन में जो निडरता है, बेशर्मी है, क्या वह अनायास है? नहीं, उनके सारे उपक्रम, छल, छद्म, दोगलेपन की अभिव्यक्ति सोची-समझी रणनीति के तहत है। उन्हें पता है कि विरोध पक्ष के लोग इतने निर्बल हैं कि चाहकर भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते।
संवाद की बानगी देखिए। पत्रकार गरीबदास से सवाल करता है—“देश के लिए आपका कोई सन्देश है?”जवाब सुनिए। गरीबदास कहते हैं—“देश? देश है कहाँ? हम हैं और हमारा धन्धा है। यदि मैं चुन लिया गया और हमारी पार्टी की सरकार बनी तो मैं ही उसका प्रधान बनूँगा। तब मैं जनता को समझाऊँगा कि देश क्या है। तब आप देखेंगे कि हर आदमी सुखी होगा। जो दुखी होगा, उसे या तो खत्म कर देंगे या देश-निकाला दे देंगे। नतीजा यह होगा कि देश में सब सुखी ही सुखी बचेंगे।”
इस वाक्य पर विशेष रूप से ध्यान दीजिए—जो दुखी होगा, उसे या तो खत्म कर देंगे या देश-निकाला दे देंगे। —इस वाक्य का वर्तमान समय की कोई घटना या वाकया के साथ आप साम्य स्थापित कर पा रहे हैं? आपके जेहन में किसी समकालीन नेता की छवि उभर रही है? खत्म कर देने और गोली मार देने में क्या फर्क है? उन्हें खत्म कर दिया जाएगा जो दुखी होंगे। उन्हें गोली मारी जाएगी जो गद्दार होंगे।
एक अन्य दृश्य में वक्ता सेठ गरीबदास की तारीफ करते हुए कहता है—“सेठ जी की देश-सेवा ऐसी है कि ‘वे देश की आजादी में पच्चीसों बार विदेशी सत्ता की पुलिस की गोलियाँ खा चुके हैं’।”
सभा में उपस्थित एक आदमी सवाल करता है—“पच्चीस बार गोली लगी तो मरे क्यों नहीं?”
वक्ता का जवाब सुनिए—“यही सेठ जी की खूबी है। उनमें बड़ी ताकत है। कोई भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बड़े-बड़े अफसर इनकम टैक्स चोरी और जमाखोरी में उन्हें गिरफ्तार करने आते हैं, पर सेठ जी के प्रताप से लोहे की हथकड़ियाँ सोने की हो जाती हैं। और जो पकड़ने आए थे, वे सेठ जी के चरण छूकर चले जाते हैं।”
संवादों के चुटीलेपन को देखते हुए यह कहने का मन होता है कि यह सेठ जी की खूबी नहीं, परसाई जी की है। यह कैसा चमत्कार है जिससे लोहे की हथकड़ियाँ सोने की हो जाती हैं? सेठ जी का यह कैसा प्रताप है कि गिरफ्तार करने वाले अफसर सेठ जी के चरणों की धूल माथे लगाते हैं?
परसाई के संवादों का भीतरी तल सपाट नहीं है। वह इतना मर्मस्पर्शी है कि आपको आन्दोलित करता है। आप सजग, संवेदनशील पाठक-दर्शक हैं, तो मुसीबत और भी बढ़ जाएगी। जैसे आप चिलचिलाती धूप में किसी लाल बत्ती पर खड़े हैं, और ग्रीन सिग्नल का इन्तजार कर रहे हैं। उनके संवादों से गुजरते हुए आप ऐसे ही बेचैन होंगे। बाह्य शक्तियाँ इतनी मजबूत हैं कि आप ऐसे दृश्य को पढ़कर अन्दर से तिलमिलाएँगे, लेकिन उससे छुटकारा पाने का रास्ता आप ढूँढ़े नहीं ढूँढ़ पाएँगे। ऐसे कई दृश्य हैं, जहाँ आम जनता ने इन अमानवीय स्थितियों का विरोध किया। प्रतिकार करने पर उनका स्वागत डंडों से किया गया।
एक दृश्य में भिखारीदास के पक्ष में प्रचार किया जा रहा है। माइकवाला माइक पर यह उद्घोषणा कर रहा है—“नगर सेठ भिखारीदास देश की सेवा के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। उनका चुनाव चिह्न साइकिल है।”
भीड़ में से एक आदमी कहता है—“ये साइकिल पंचर है। बोलो लड़को, ये साइकिल पंचर है।”
माइकवाला पहले इस आदमी का मुँह दारू पिलाकर बन्द करना चाहता है। दारू से बात नहीं बनती है तो पैसे दिये जाते हैं। पैसे लेकर वह आदमी थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर से भ्रष्टाचारियों, दो नम्बरियों को हराने की बात करने लगता है।
माइकवाला कहता है—“अरे, इसका मुँह बन्द नहीं हुआ?”
वह आदमी टका-सा जवाब देता है—“सच्चाई का मुँह कभी बन्द नहीं होता।”
कोई और उपाय न देख माइकवाला अपने गुंडों से उस आदमी से निपटने के लिए कहता है। और फलत: सेठ के किराये के गुंडे पहले उसे पीट-पीटकर अधमरा कर देते हैं, फिर उसे उठाकर बाहर फेंक आते हैं।
सवाल गुंडागर्दी का नहीं है, बल्कि इस बात का है कि शासक वर्ग की नजर में आम जन की हैसियत भेड़-बकरी से भी कमतर है। ऐसा नहीं होता तो वे खुलेआम लोगों के ईमान को खरीदने की बात नहीं करते। चुनाव जीतने के लिए आम जन को एक-दूसरे के सामने दस रुपये, पन्द्रह रुपये नहीं बाँटते। वे इतने बड़े तानाशाह एवं लम्पट हैं कि किसी को भी जेल में डाल सकते हैं। किसी को भी उठवा सकते हैं। किसी को भी झूठे मुकदमे में फँसा सकते हैं।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में कथनी-करनी की विपरीतता ने जो नाटकीयता उत्पन्न की है, वह इस नाटक के आधार में है। इस विपरीतता और नाटकीयता में सफल शोषकों का स्वाँग और अभावग्रस्त जन की पीड़ा है। इस पीड़ा का विभावन है। यह पीड़ा-बोध परसाई के सौन्दर्य-बोध का अंग है। वे व्यंग्य के पैने हथियार से हमारी अमानवीयता और कमजोरियों को छील-छीलकर नैतिक दृष्टि से अधिक विकसित मनुष्य गढ़ते हैं। उनका सतर्कताबोध उनके व्यंग्य को वैज्ञानिक नैतिकता और सौन्दर्य-बोध से जोड़ता है। यह बोध वर्तमान की परतों और नाटकीयता को उघाड़ता है। वह विभिन्न मनोविकारों को परस्पर सम्बद्ध करके करुणा की भूमि का विस्तार करता है। वह पहले की अपेक्षा अधिक मनोविकारों और जीवन स्थितियों से संपृक्त है।
नाटक में कई दृश्य ऐसे हैं, जहाँ शासक वर्ग के कथनी-करनी में फर्क साफ तौर पर देखा जा सकता है। मोहभंग की स्थिति में छात्र नेता, मजदूर नेता तथा भुखमरों का नेता बारी-बारी से राज्य-प्रधान को उसके किये वायदे की याद दिलाते हैं। उनके कर्तव्यों को झकझोरते हैं। राज्य-प्रधान को बताया जाता है कि बेरोजगारी हट नहीं रही, शिक्षित युवाओं को रोजगार नहीं मिल पा रहा है। देश में धाँधली ऐसी मची है कि धनवाले और ज्यादा मालदार हो रहे हैं। गरीब और भी गरीब होता जा रहा है। महँगाई आसमान छू रही है। प्राइवेट कम्पनियाँ कम वेतन देकर मजदूरों से अधिक काम ले रही हैं। मजदूर पिस रहा है।
भुखमरों का नेता राज्य-प्रधान से यह कहकर गुहार लगाता है— “हम राज्य-प्रधान और उनकी सरकार से माँग करने आए हैं कि हमें अनाज दो। मुनाफाखोरों ने दाम इतने बढ़ा दिये हैं कि हम खरीद नहीं सकते। हम भूखे मरते हैं। हमारे बच्चे भूखे मरते हैं। अनाज मुनाफाखोरों ने दबा लिया है और कालाबाजार में बेचते हैं। सरकार का कोई कंट्रोल उन पर नहीं है। सस्ता अनाज देने का इन्तजाम करो, वरना भूखे पेट में बड़ी आग होती है। इस आग में तुम, तुम्हारे मंत्री और असेम्बली के सारे मेम्बर जिन्हें हमने वोट दिये थे, भस्म हो जाएँगे।”
लेकिन, इतना कुछ कहने-समझाने-झकझोरने का राज्य-प्रधान पर कोई असर नहीं होता। जनता रोजमर्रा की समस्या से त्रस्त है और राजा यह कहते हुए इन समस्याओं पर पर्दा डालना चाहता है—“देखिए, इस तरफ अँधेर नगरी है, उस तरफ भेड़िया राज है। दोनों से हमारे सम्बन्ध खराब हैं। सीमा पर तनाव है। ये देश हमारे देश को नष्ट करना चाहते हैं। इस समय छोटी समस्याओं में न उलझकर, सब एक होकर देश की रक्षा के लिए कमर कस लें। हमें देश की स्वतंत्रता, उसकी अखंडता और गौरव की रक्षा करनी है।”
राजा को भूखे पेट की समस्या छोटी लगती है। यह अन्तर है—शोषक और शोषित की विचार-दृष्टि में।
परसाई के यहाँ विरोध पक्ष यही सामान्य अभावग्रस्त जन-जीवन है जिसे लोलुप अमानवीय तत्त्वों ने वंचित कर रखा है, जो शोषण के कारागार में कैद और व्यस्त है, जो चीख-पटक के साथ यातना में सक्रिय है, जिसकी राशन की दुकानों पर लम्बी कतारें हैं, जो लड़कियों की शादी के लिए दहेज देने में असमर्थ है, जिसके बच्चे फीस के अभाव में स्कूल नहीं जा सकते, जिसकी छँटनी होती है और जिस पर गोली चलाई जाती है, जिसे देखकर गले लगाकर परसाई का रोने का मन करता है। यह अपार सम्भावना शक्ति से भरपूर है—महावीर हनुमान की भाँति, ‘गोदान’ के हीरो की भाँति। इन्हें जाग्रत करके शक्तिशाली बनाना, जिससे ये अपना हक पा सकें या छीन सकें—आज की सारी मानवीय चेष्टाओं की सार्थकता होगी। मानवतावाद की कसौटी यही है कि संवेदना इसी विशाल जन को समर्पित हो। इसी को जाग्रत और शक्तिशाली बनाने की संवेदना एवं प्रेरणा को ‘करुणा’ कहा जाएगा। करुणा जो मानवीय साधना का बीज-भाव है। यह वंचित किन्तु सम्भावनापूर्ण ‘जन’ ही परसाई की रचनाओं का नायक है।
मीना और सुरेश युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि पात्र हैं। दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं। परसाई जी ने इन दो पात्रों का सृजन वर्तमानता का बोध कराने के लिए किया है। युवाओं के आदर्श, देश के प्रति उनके कर्तव्य को उद्घाटित करने के लिए उनका होना लाजिमी भी था। पुरानी पीढ़ी भ्रष्ट है। कालाबाजारी करती है। उनमें उम्मीद की कोई किरण दिखलाई नहीं पड़ती। लेकिन, नई पीढ़ी—युवा पीढ़ी तो आम-जन का उद्धार कर सकती है। परसाई के मन में यह बात रही होगी, तभी उन्होंने मीना और सुरेश के शब्द-चित्र बनाए हैं।
प्रेम में आदमी ईमानदार होता है। ऐसे उदात्त क्षण में प्रेमी छल-छद्म से दूर रहता है। पात्रों के मनोविज्ञान को सामने लाने में परसाई की अचूक पकड़ है। जब पुरानी पीढ़ी के नेताओं की पोलें खुल जाती हैं, तो वे युवा पीढ़ी, विशेष कर प्रेमी युगल को उपस्थित करते हैं। उनमें आम-जन के प्रति संवेदना, करुणा की परीक्षा लेते हैं।
‘काली पार्टी’ के नेता गरीबदास चुनाव जीतने के लिए अपना आखिरी दाँव यह चलते हैं कि चुनाव की जिम्मेदारी अपनी बेटी मीना को देते हैं। इस दृश्य की शुरुआत में मीना अपने पिता गरीबदास से यह कहती है—“आप और सेठ भिखारीदास, दोनों भ्रष्टाचारी, कालाबाजारिये और टैक्स-चोर के रूप में जाने जाते हैं। और मैं जानती हूँ कि वे सही कहते हैं।”
यहाँ युवा पीढ़ी का स्पार्क पाठकों-दर्शकों को मीना के प्रति सहज अपनापे से विभोर कर जाता है। लेकिन इस छोटे दृश्य का अन्त मीना की इस स्वीकारोक्ति से होता है—“अच्छा, बाबूजी, नाराज मत होइए। आपकी लड़की हो गई हूँ, तो आपका काम करूँगी। कल से मैं चुनाव प्रचार पर निकल जाऊँगी।”
दूसरी तरफ, सेठ भिखारीदास चुनाव-प्रचार पर लाखों रुपये खर्च करने के बाद निराश और क्रोधित हैं। ऐसे में उन्हें डबल एम.ए. पास अपने बेटे सुरेश की याद आती है। इस दृश्य में गरीबदास चुनाव-प्रचार की जिम्मेदारी सुरेश को लेने के लिए कहते हैं। सुरेश अपने पिता का बहुत विरोध नहीं करता है। बस, इतना कहता है—“आपकी बदनामी बहुत है।”
भिखारीदास जैसे इस वाक्य को सुनने के लिए तैयार बैठे थे। उन्होंने तपाक से कहा—“इसी को तुम्हें ठीक करना है। ऐसे जोरदार भाषण दो कि सब लोग मेरी जय बोलने लगें।”
आज्ञाकारी पुत्र सुरेश अपने पिता की आज्ञा टाल नहीं पाता और यह कहकर चुनावी मैदान में कूदने के लिए अपनी सहमति व्यक्त करता है—“मेरा मन तो नहीं करता पर फिर भी आप पिता हैं, इसलिए आपका काम करूँगा।”
यह है समझौतापरस्त युवा पीढ़ी। प्रेमी-युगल। कोई मूल्य नहीं। कोई आदर्श नहीं। जहाँ बहा ले गए उनके अभिभावक, बह निकले। न अतीत की समझ और न ही वर्तमान के प्रति सचेत।
ऐसे में भविष्य के चित्र का अनुमान लगाया जा सकता है। संवेदनशील पाठक-दर्शक को इन युवाओं की कार्यप्रणालियों से कितनी निराशा हाथ लगेगी, यह कहने की जरूरत नहीं है। साधन-सुलभ युवा अवसरवाद की गोद में बैठ जाते हैं। चुनावी मैदान में उन्हें जनता से फटकार मिलती है। फलत: वे ‘विजय पार्टी’ में शामिल हो जाते हैं।
यह बहुत विचित्र बात है कि परसाई ने इस नाटक में जनता के जागरूक शब्द-चित्र बनाए हैं और युवाओं को अकर्मक, समझौतापरस्त। लेकिन, जब नाटक का अन्त होता है, तो यह जागरूक जनता भीड़ में तब्दील हो जाती है। राजा के पाखंड, ओवर-एक्टिंग छल के सामने घुटने टेक देती है। नतीजतन, जिस राजा से जनता को भारी शिकायत है, जिन्हें वे फौरन गद्दीच्युत करना चाहते हैं, उन्हें वे अगले दस साल के लिए कुर्सी पर बने रहने की अपनी सहमति दे डालते हैं।
परसाई जी के इस नाटक के दृश्यों का कम्पोजीशन कमाल का है। जान पड़ता है, वह लिखते समय इसे मंचित होता हुआ भी देख रहे थे। कम्पोजीशन का सम्बन्ध पात्रों या दृश्यों को कुछ ऐसे क्रम में रखना कि उसका पाठक-दर्शक पर प्रदर्शनपरक प्रभाव अच्छा पड़े। शम्भु मित्र उत्पल दत्त के बारे में अक्सर ही कहा करते थे कि उत्पल दत्त के निर्देशन में मंच पर अभिनेताओं को कुछ ऊपर, कुछ नीचे अलग-अलग तरीके से ऐसे खड़ा किया जाता है कि वह बहुत तरतीब से किया कम्पोजीशन होता है, और एक कम्पोजीशन को तोड़कर कैसे दूसरा तैयार हो जाता है।
हरिशंकर परसाई ने भी अपने इस नाटक में दृश्यों को प्रभावी मंचन के लिहाज से क्रम दिया है। इस सन्दर्भ में एक दृश्य का उल्लेख करना समीचीन होगा। चौथे दृश्य में सेठ गरीबदास की लड़की मीना सभा को सम्बोधित कर रही है। वह जनता को यह समझा रही है कि ऐसे आदमी को चुनाव में चुनकर भेजना चाहिए जो भ्रष्ट न हो। और ऐसा वही आदमी हो सकता है, जिसकी तिजोरी खाली न हो। जिसकी तिजोरी खाली होगी, वह कुर्सी पर बैठते ही अपनी तिजोरी भरने में जुट जाएगा। इसके बाद मीना जनता को यह आश्वासन देती है कि उसके पिता करोड़पति हैं, लिहाजा वे भ्रष्टाचार नहीं करेंगे।
सभा के बीच से एक आदमी टका-सा जवाब देता है कि वे दूसरी तिजोरी खोलकर उसे भरने लगेंगे, तो क्या होगा?
मीना द्वारा जनता को अपने छल, छद्म में फँसाने का खेल चल ही रहा होता है—“इसी समय एक खाली अरथी लेकर बीस-पच्चीस लोग निकलते हैं। अरथी पर लाश नहीं है। लोग बोल रहे हैं—‘राम नाम सत्य है, सत्य बोले गत्य है।’ सभा में हलचल मच जाती है।”
अरथी के बारे में पूछने पर पता चलता है कि अरथी ले जानेवाला अपने एक रिश्तेदार को अस्पताल ले जा रहा है। दाह-क्रिया का सामान साथ में इसलिए ले जा रहा है—“आजकल पूरी तैयारी के साथ जाना चाहिए। क्या पता, जहाँ इसके प्राण बचाने ले जा रहे हैं, वहाँ नकली और घटिया दवा से इसके प्राण चले जाएँ। आपने सुना नहीं, हाल ही में ऐसी दवा देने से पच्चीस आदमी मर गए? इसलिए कफन-दफन की तैयारी से निकले हैं।”
जनता को यह पता करने में देर नहीं लगती कि दवा गरीबदास के कारखाने की थी। ‘गरीबदास, मुर्दाबाद’ के नारे लगने शुरू हो जाते हैं। मीना स्थिति को सँभाल नहीं पाती है और जीप में बैठकर भाग जाती है। इस दृश्य में मीना द्वारा सभा का सम्बोधन, उसके द्वारा अपने पिता को ईमानदार साबित करने की कोशिश करना—लेकिन परसाई जी कथ्य की निरर्थकता को उजागर करने के लिए चतुराई से खाली अरथी का प्रवेश दृश्य में करवा देते हैं। ऐसा होने मात्र से दर्शकों में कौतूहल होगा। साथ ही दृश्य में सम्बोधन और अरथी के आमने-सामने होने से दृश्य कम्पोजीशन भी निखर उठेगा।
यह गौर करने वाली बात है कि आरम्भ, मध्य तथा अन्त सिर्फ नाटक का ही नहीं होता, बल्कि नाटक के दृश्यों का भी होता है। यहाँ तक कि एक अच्छे नाटक में पात्रों के मध्य संवादों के भी आरम्भ, मध्य और अन्त होते हैं। और ऐसा तभी सम्भव है जब नाटककार ने आलेख लिखते समय कुशल कम्पोजीशन का ध्यान रखा हो। परसाई जी ने अपने इस नाटक को अंकों में विभाजित नहीं किया है। नाटक के दृश्यों से गुजरने पर ऐसा करना उचित ही प्रतीत होता है। नाटक में छोटे-बड़े कुल छब्बीस दृश्य हैं। दृश्य-चौदह सबसे छोटा है। इस दृश्य में अखबारवाला लड़का ‘विजय पार्टी’ के जीतने की सूचना दे रहा है। यह सूचना भी उपलब्ध कराई जा रही है कि ‘विजय पार्टी’ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी जरूर है, लेकिन उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं है। हम इस दृश्य को नाटक का मध्यान्तर मान सकते हैं। पहले के तेरह दृश्यों में चुनाव जीतने के लिए रणनीति बनाना, पार्टियों का अपने-अपने पक्ष में वातावरण तैयार करना, सभा को सम्बोधित करना, ‘सफेद पार्टी’ द्वारा चुनाव जीतने के लिए मन्दिर के आगे मांस के टुकड़े रखकर साम्प्रदायिक दंगे करवाना आदि है। इन तेरह दृश्यों का कम्पोजीशन इस तरह से किया गया है कि जान पड़ता है, सब कुछ पाठकों-दर्शकों की आँखों के सामने घटित हो रहा है।
शेष बारह दृश्यों में सरकार बनाने के लिए बहुमत जुटाने, नम्बरों को खरीदने, सरकार बन जाने के बाद विधवा आश्रम का उद्घाटन करने, राज्य की बदतर हालत को बहाल रखने, युवा नेता, भुखमरों का नेता, मजदूर नेताओं के दृश्य से नाटकीय कार्यव्यापार को आगे बढ़ाया गया है।
कम्पोजीशन का गहरा सम्बन्ध नाटकीय तनाव से भी है। यदि दो पात्रों में तनाव है, तो कम्पोजीशन अपने-आप बन जाएगा। सच माने में नाटकीय तनाव का वास्तविक प्रस्फुटन प्रदर्शन के स्तर पर होता है। उसकी अभिव्यक्ति दृश्यों अथवा संवादों के माध्यम से होती है। संवेदनशील पाठक को इसमें निहित नाटकीय तनाव की पहचान होती है। शुरू के आठ दृश्यों में दो बड़ी पार्टियों के प्रचार और फिर जनता में उनके प्रति अविश्वास का अंकन हुआ है। छठे दृश्य में गरीबदास और भिखारीदास के मिलने से दोनों के बीच गठजोड़ का समीकरण बनने लगता है। लेकिन मुश्किल यह है कि दोनों में से कोई भी चुनाव से नाम वापस नहीं लेना चाहता। दोनों के तर्क हैं कि अब तक चुनाव प्रचार के धन्धे में लाखों की लागत लग गई है। परसाई जी ने कुशलता से नाटकीय तनाव का सृजन किया है। दो बड़ी पार्टी—दोनों की पोलें खुल चुकी हैं। जनता दोनों को नकार चुकी है। फिर ऐसी कौन-सी पार्टी होगी जो चुनाव में जनता के दिलों पर राज करेगी? जनता जिसे विजय का तिलक करेगी। इस तनाव को बुनने के बाद परसाई जी नौवें दृश्य में एक ऐसी पार्टी का परिचय जनता से करवाते हैं जिसका नाम ‘विजय पार्टी’ है। इस पाटी के अधिकांश सदस्य राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। वे कुशल वक्ता होने के साथ जनता की नब्ज पर हाथ रखना जानते हैं। उन्हें पता है कि जनता से किस भाषा में संवाद करने पर उसका अचूक प्रभाव जन-मन पर पड़ेगा।
बाबू विजय नारायण इस पार्टी के सबसे वयोवृद्ध और क्रान्तिकारी नेता हैं। जनता से उनका सम्बोधन सुनिए—“मैंने कभी चुनाव नहीं लड़ा। मैं नगरपालिका तक का सदस्य नहीं हुआ। यदि मैं चाहता तो इस राज्य का प्रधान हो सकता था, पर मैं सत्ता से दूर रहा। अब आप पूछेंगे कि ‘विजय पार्टी’ को मैं समर्थन क्यों दे रहा हूँ? इस कारण कि बाकी सब पार्टियाँ असफल सिद्ध हो चुकी हैं। कोई पार्टी परिवर्तन करना नहीं चाहती और न उसमें इतना दम है। इसलिए देश को एक ऐसी पार्टी की जरूरत थी जिसमें सब लोग शामिल हो सकते हैं। यह पार्टीविहीन राजनीति की शुरुआत है। इस पार्टी में पुराने नेता, बेकार नेता जो देश के काम आ सकते हैं, छात्र, स्त्रियाँ यहाँ तक कि जेबकतरे और चोर भी आ सकते हैं। क्योंकि यह सबकी पाटी है।”
यह उद्धरण जनता को यह विश्वास दिलाने के लिए काफी है कि जनता समझने लग जाए कि यह उनकी पार्टी है।
एक अन्य दृश्य में नाटकीय तनाव का विस्तार देखिए। राज्य-प्रधान मगन है। उसने अपने चुनावी सम्बोधन में सत्ता में जाने वाले को जनता का सेवक बताया था। वह जनता का सबसे बड़ा सेवक-चौकीदार है। प्रधान सेवक की चौकीदारी ऐसी है कि जनता गरीबी, भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोजगारी, भुखमरी से त्रस्त है, और वह उनकी एक नहीं सुनता। लेकिन, इस बार बात हद से आगे निकल जाती है। जनता किसी भी हाल में बैठना-समझना नहीं चाहती है। उसके मन में आक्रोश इतना भर गया है कि वे सत्ता-परिवर्तन की माँग पर अड़ जाते हैं। ऐसा होना-करना स्वाभाविक है। विजय पार्टी को इसलिए कुर्सी दी गई थी कि इस पार्टी ने आम-जन के मन में अपने लिए सच्ची एवं ईमानदार पार्टी होने का भरोसा जगाया था। इस पार्टी ने लोक-मन को यह विश्वास दिलाया था कि डूबते देश को कोई बचा सकता है तो वह ‘विजय पार्टी’ है। यह पार्टी लोगों में यह सन्देश देने में कामयाब हो गई कि वह सबका विकास करेगी। जैसे आज की सबसे बड़ी पार्टी सबका साथ-सबका विकास कर रही है। यह वही पार्टी है जिसने अपने चुनावी सम्बोधन में कहा था—“इस देश की चादर बिलकुल फट चुकी है। जिस चादर के तार-तार हो गए हैं, उसमें पैबन्द नहीं लग सकते। चादर को बदलना ही पड़ेगा और यह पूर्ण क्रान्ति के बिना नहीं होगा।”
इतनी बड़ी-बड़ी बातें और चुनाव जीतने के बाद जनता को उसके हाल पर छोड़ देना। उसके मन में सत्ता के प्रति मोहभंग नहीं होगा तो क्या होगा? आलम यह है कि दृश्य अठारह से लेकर दृश्य बीस तक छात्र नेता, मजदूर नेता, भुखमरों के नेता बारी-बारी से प्रधान सेवक के समक्ष अपनी बदहाल स्थिति की गुहार लगाते हैं। लेकिन उन्हें सिर्फ आश्वासन मिलता है। गरीब और मध्यवर्ग की स्थिति में कोई सुधार नहीं किया जाता है। दृश्य इक्कीस में अनाज की समस्या को हल करने के लिए विदेशों से बिल्लियाँ बुलाने के प्रस्ताव की मंजूरी दी जाती है। गहन शोध करने के बाद यह बात सामने आई है कि देश में अन्न की कमी चूहे की वजह से है। दृश्य चौबीस में राज्य-प्रधान कहता है—“सब मेरे खिलाफ हो गए हैं। मैंने इस देश के लिए क्या नहीं किया? भ्रष्टाचार मिटाने के लिए तावीज बनवाए। अनाज की समस्या हल करने के लिए विदेशों से बिल्लियाँ बुलाईं। उत्पादन बढ़ाने के लिए पूँजीपतियों को लाइसेंस और बैंक से पैसे दिलवाए। पर अब सब मेरे खिलाफ हो गए हैं—लड़के मेरे खिलाफ, मजदूर मेरे खिलाफ, गरीब मेरे खिलाफ, साधु मेरे खिलाफ।”
राज्य की हालत चरमरा गई है। प्रधान सेवक सकते में है। कुर्सी कैसे बचाई जाए, इस पर गहन मंथन चल रहा है। परसाई जी ने बहुत धैर्य के साथ नाटकीय तनाव की बनावट की है। दृश्य चौबीस के अन्त में राज्य-प्रधान अपने गृहमंत्री से कहता है कि जनता का दिल कैसे जीता जाता है, वह जानता है। और फिर वह दो दिन के बाद चौपट चौक में एक जनसभा को सम्बोधित करने का निर्णय लेता है।
निर्धारित समय पर राज्य-प्रधान जनता के समक्ष उपस्थित होता है। तनाव अपने चरम पर है। अब क्या होगा? राज्य का प्रधान सेवक गरीबों, बेरोजगारों, किसानों से किस भाषा में और कैसे अपनी बात रखेगा? क्या राज्य की बदतर स्थिति का जिम्मा किसी और के सिर देगा? पड़ोसी देश ऐसे संकट की घड़ी में उबारने के लिए बड़े सहायक होते हैं। क्या पता, राज्य-प्रधान तमाम समस्याओं के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहरा दे!
इस नाटकीय तनाव को इसे पढ़ते हुए पाठकों को गुजरना पड़ सकता है और नाटक के मंचन के समय दर्शकों को। इससे पहले कि पाठक-दर्शक किसी और दिशा में सोचने को विवश हों, राज्य-प्रधान बोलना शुरू करता है।
अरे यह क्या, वह तो स्वयं को ही धिक्कारने लगा! उपस्थित जन-समूह के सामने स्वयं को ही पापी साबित करने लगा! वह प्रजा से अपनी जान ले लेने की गुहार लगाने लगा! बानगी देखिए—“बहनो और भाइयो, सबसे पहले मैं यह कह दूँ कि मैं अपना बचाव करने नहीं आया, अपने पाप स्वीकार करने आया हूँ (एजेंट तालियाँ बजवाते हैं)। सचमुच मुझे बड़ी ग्लानि है कि तीन साल मुझे सत्ता में हो गए और मैं जनता को सुखी नहीं बना सका। इस ग्लानि से मुझे नींद नहीं आती। तुलसीदास ने कहा है—‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी’। जिस शासक के राज में प्रिय प्रजा दुखी हो, वह नर्क जाने का अधिकारी है। मैं इस तैयारी के साथ आया हूँ कि मुझ जैसे पापी राज्य-प्रधान को जिसकी प्रजा दुखी है—उसे प्रजा यहीं इसी चौपट चौक पर मारकर नर्क भेज दे। (तालियाँ) आप लोग तालियाँ मत बजाइए, मुझे धिक्कार कहिए। हाय, कितनी गरीबी, कितनी भुखमरी, कितनी मुसीबत इस जनता को है! जब मैं इसे देखता हूँ तो मुझे रोना आता है।” (रूमाल से आँखें पोंछता है)
पाखंड का कैसा प्रदर्शन! ओवर-एक्टिंग का कैसा व्यापार! छद्म-विनम्रता, दुख-प्रदर्शन आदि आत्म-विज्ञापन के विविध रूप हैं। जैसे व्यापारी वस्तुओं का विज्ञापन करके उसका फायदा उठाता है, वैसे ही नेता छद्म-विनम्रता का प्रदर्शन करके फायदा उठाते हैं। इसका आचरण ‘ओवर-एक्टिंग’ में प्रकट होता है।
ओवर-एक्टिंग परसाई की रचनाओं का महत्त्वपूर्ण मूल्यबोधक शब्द है। छद्म, बनावट, बदनीयती, व्यक्तित्व की आन्तरिक कमजोरी अनिवार्यत: ओवर-एक्टिंग का रूप धारण करती है। प्राय: प्रत्येक क्षेत्र में बदनीयती ओवर-एक्टिंग करती है—व्यापारिक विज्ञापन, आत्मविज्ञापन, साहित्य, राजनीति, सबमें। संवेदना के बिना उसका आचरण या भाव की मात्रा से अधिक अनुभाव ओवर-एक्टिंग है। संवेदना का अभाव और बाह्यत: उसका आडम्बर ‘ओवर-एक्टिंग’ स्वातंत्र्योत्तर भारत में सफलता का सोपान बन गई है।
परसाई के इस नाटक का रंग-शिल्प ठीक वैसा नहीं है, जैसाकि ‘आधे-अधूरे’ (माेहन राकेश) या फिर ‘सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ (सुरेन्द्र वर्मा) का है।
‘आधे-अधूरे’ का नाटककार नाटक में दर्ज हरेक रंग-विन्यास के प्रति सचेत है। इसलिए कोई भी रंगमंचीय कार्य-व्यापार को सामने लाने के पूर्व उसके बारे में विस्तार से बताता है। वह यह तक बताना नहीं भूलता है कि जब सावित्री महेन्द्रनाथ से बात कर रही होगी, तो महेन्द्रनाथ बात करने के अलावा अन्य किन-किन गतिविधियों में शामिल होगा। जैसेकि पुरानी फाइलों को झाड़ना, अखबार जेब से निकालकर खोल लेना आदि। सिर्फ इतना ही नहीं, मंच-व्यवस्था का स्वरूप कैसा होगा, कौन-सी वस्तु कहाँ रखी जाए, वह दिखने में कितनी पुरानी होगी, घर को अस्त-व्यस्त दिखाने के लिए कौन से कपड़े कहाँ रखे जाएँ, चाय के कप यूँ ही छोड़ देने आदि के रंग-निर्देश। यानी कि मोहन राकेश ने रंग-निर्देशों के माध्यम से सब कुछ नियत कर दिया है। कालान्तर में उनके द्वारा दिये रंग-निर्देशों का ज्यादातर बड़े रंगकर्मियों ने हू-ब-हू पालन किया है। जाहिर है, राकेश ने मंच-व्यवस्था के साथ-साथ पात्रों के अनुकूल जो गहन शोधपरक विवरण दिये हैं, वह नाटक को कहीं भी किसी भी स्पेस में मंचित करने की पूरी आजादी नहीं देते हैं।
‘सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’—इस नाटक के नाम में जैसी काव्यात्मकता झलकती है, कथ्य के साथ-साथ मंच तकनीक में भी वैसी ही काव्यात्मकता पर विशेष बल दिया गया है। कहना चाहिए, कथ्य को वहन करने के तकनीकी उपादानों में मंच-व्यवस्था का अहम स्थान तो होता है, पर इस नाटक में इससे बढ़कर प्रकाश की विविधवर्णी छटा कथ्य की सम्प्रेषणीयता के लिए अनिवार्य है। नाटककार ने इस तथ्य की तरफ संकेत अंक-विभाजन के समय ही कर दिया है। पहला अंक है—मंच एवं समय-सन्दर्भ शयन-कक्ष, सूर्यास्त। दूसरा अंक है—शयन-कक्ष एवं समय-सन्दर्भ हैं—रात्रि के विभिन्न प्रहर तथा तीसरे अंक में भी मंच के रूप में शयन-कक्ष एवं समय-सन्दर्भ में सूर्योदय को लिया गया है। यानी यह नाटक सारी रात की घटनाचक्रों को अपने में समेटे है।
जाहिर है, नाटक में दर्ज तकनीकी पक्षों की काव्यात्मकता की अभिव्यक्ति कहीं भी किसी भी स्पेस में नहीं की जा सकती है। इस नाटक का प्रदर्शन विशेष मंचीय वातावरण में ही सम्भव है। राजेन्द्र गुप्त के निर्देशन में इस नाटक का मंचन जब पाँचवें भारत रंग महोत्सव (2003) में किया गया था, उस वक्त मंच तकनीक अपनी सम्पूर्ण जीवन्तता के साथ साकार हो उठी थी। नाटक में दर्ज रंग-संकेत अर्थ-सम्प्रेषण में गहनता पैदा कर रहे थे। लेकिन दूसरी तरफ यह अर्थ भी द्योतित हो रहा था कि इसका मंचन रंगद्वारी मंच के बिना सम्भव नहीं है।
परसाई के इस नाटक का आरम्भ सूत्रधार से होता है जिसे उन्होंने ‘एक आदमी’ का नाम दिया है। यह ‘एक आदमी’ मंच पर एक बार के लिए आता है, लिहाजा नाटक शुरू किये जाने सम्बन्धी घोषणा मंच-पार्श्व से भी की जा सकती है। चूँकि दृश्य एक से नाटक की शुरुआत होती है, इसलिए परसाई पार्टियों एवं उनके कार्यक्रम की चर्चा थोड़ा ठहरकर करते हैं। लेकिन जब रंग-निर्देश देने की बारी आती है तो परसाई जनतांत्रिक प्रविधि अपना लेते हैं। दृश्य एक का रंग-निर्देश देखिए—एक बड़ा भारी घोड़े का चित्र। सैकड़ों कार्यकर्ता। कारें। सेठ जी के चुनाव एजेंट बच्चों को टॉफी बाँट रहे हैं। बड़े को खुलेआम दस-दस रुपये के नोट। एक आदमी खुली जीप पर माइक लिये बैठा है। बस, इतना ही। इस पहले दृश्य के आरम्भ में ही मंच-व्यवस्था के लिए जो रंग-निर्देश दिये गए हैं, उसके प्रति नाटककार का विशेष आग्रह नहीं दिखता। जाहिर है, परसाई जी का मंच-सम्बन्धी यह निर्देश आग्रहपूर्ण नहीं है। अब जैसे इस संवाद को लीजिए। माइकवाला कहता है—“अरे, क्या इसे दस रुपये नहीं दिये?” चिल्लानेवाला कहता है—“मेरा ईमान दस रुपयों में नहीं बिकता। बोलो, गधे की जै।”
परसाई का रंग-निर्देश देखिए—“लड़के चिल्लाने लगते हैं बोलो, गधे की जै!” यदि परसाई जी रंग-निर्देश नहीं भी देते तो लड़के चिल्लाते ही। इसी तरह के रंग-निर्देश पूरे नाटक में देखने को मिलते हैं।
नाटक सत्तर-अस्सी के दशक में लिखा जान पड़ता है। वह समय नाट्यालेख और प्रदर्शन-सम्बन्धी रंग-दृष्टि में व्यापक बदलाव का दौर था। जड़ों की तरफ वापसी के नारे दिये जा रहे थे। भारतीय रंग-दृष्टि की खोज पर बल दिया जा रहा था। औपनिवेशिक रंगमंचीय प्रारूप से नितान्त अलग शिल्प और शैली में भारतीयता की जमीन तलाशी जा रही थी। उस लिहाज से परसाई जी का यह नाटक अपने समय-समाज की जटिलताओं को उजागर करने में सटीक बैठता है। इस नाटक में जिस तरह से प्रकाश के अधिक चमक-दमकपूर्ण प्रयोग के प्रति उदासीनता है, जिस तरह मंच-सामग्री की अधिक तड़क-भड़क से परहेज है, और इन सबके बीच अभिनेताओं को जैसी जगह दी गई है, वह आज के सन्दर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है।
नाटकीयता परसाई के समस्त लेखन का महत्त्वपूर्ण—शायद सर्वप्रधान—अंग है। नाटकीयता उनके द्वारा रचित साहित्य में सर्वव्याप्त है लेकिन ‘सबसे बड़ा सवाल’ घोषित नाट्य-रचना है—रूप की दृष्टि से भी। परसाई की यह इकलौती नाट्य-रचना पाठकों, दर्शकों के बीच लोकप्रिय होगी, इसे अलग से कहने की आवश्यकता नहीं।
सबसे बड़ा सवाल (नाटक) : दृश्य 1
[एक आदमी आता है और कहता है—“यह कहानी एक ऐसे राज्य की है जहाँ प्रजातंत्र है। इस राज्य में सब कुछ चौपट हो गया है इसलिए ‘चौपट राज्य’ कहते हैं। इस चौपट राज्य में एक ‘काली पार्टी’ है। ‘काली पार्टी’ इसलिए नाम रखा गया है क्योंकि इस पर काले धन वालों का कब्जा है। एक ‘सफेद पार्टी’ है, जिसमें सफेद लोग भी हैं और काले लोग भी। काले लोग मोटी रकम चंदे में देकर ‘सफेद पार्टी’ में घुस गए हैं। एक ‘पीली पार्टी’ है। इस पार्टी का कार्यक्रम उपद्रव है।
‘चौपट राज्य’ में चुनाव हो रहे हैं। ‘काली पार्टी’ के उम्मीदवार सेठ गरीबदास हैं और ‘सफेद पार्टी’ के उम्मीदवार सेठ भिखारीदास हैं। यों ये दोनों सही मानी में उम्मीदवार नहीं, नाउम्मीदवार हैं—यानी जीतने की उम्मीद नहीं है। ‘पीली पार्टी’ किसी महन्त की तलाश में है, जिसे चुनाव लड़वा दिया जाए। लीजिए, चुनाव का माहौल शुरू होता है। यह सेठ गरीबदास का चुनाव जुलूस!”]
[एक बड़ा भारी घोड़े का चित्र। सैकड़ों कार्यकर्ता। कारें। सेठ जी के चुनाव एजेंट बच्चों को टॉफी बाँट रहे हैं। बड़े को खुलेआम दस-दस रुपये के नोट। एक आदमी खुली जीप पर माइक लिये बैठा है।]
माइकवाला : बोलो, सेठ गरीबदास की...
भीड़ : जै!
माइकवाला : गरीबों के साथी गरीबदास की...
भीड़ : जै!
माइकवाला : घोड़े की...
भीड़ : जै!
[एक आदमी बीच में चिल्ला पड़ता है।]
चिल्लानेवाला : बोलो, गधे की—जै!
माइकवाला : यह कौन है जी? गलत नारे लगाता है।
चिल्लानेवाला : मैं ठीक नारा दे रहा हूँ। वह गधा ही तो है, जिसके लिए वोट माँग रहे हो।
माइकवाला : अरे, क्या इसे दस रुपये नहीं दिये?
चिल्लानेवाला : मेरा ईमान दस रुपयों में नहीं बिकता। बोलो, गधे की—जै!
[लड़के चिल्लाने लगते हैं—बोलो, गधे की—जै!]
एजेंट : (चिल्लानेवाले से) तो तुम्हारे ईमान की कितनी कीमत है?
चिल्लानेवाला : सौ रुपये।
एजेंट : लो, ये सौ रुपये और चुप रहो।
माइकवाला : जीतेगा भई जीतेगा...
भीड़ : घोड़ेवाला जीतेगा!
[नारे लगते जाते हैं।]
माइकवाला : भैया, वोट किसे देंगे?
भीड़ : घोड़ेवाले को!
माइकवाला : माता, वोट किसे देंगी?
भीड़ : घोड़ेवाले को!
माइकवाला : बहनें, वोट किसे देंगी?
भीड़ : घोड़ेवाले को!
[चिल्लानेवाला बीच में चिल्ला पड़ता है।]
चिल्लानेवाला : भैया, माता-बहन वोट देंगी ‘गधे’ को!
एजेंट : क्यों जी, सौ रुपये भी ले लिये और फिर वही हरकत? तुम्हारा ईमान है?
चिल्लानेवाला : सेठ का ईमान है? सब धंधा तो बेईमानी का है।
एजेंट : पर तुमने पैसे तो ले लिये हैं।
चिल्लानेवाला : हाँ, बेईमानी के पैसों में से पैसे दिये हैं। इसलिए मैं नमकहराम हो गया हूँ। बोलो, गधे की जै! कालाबाजारिये की जै! बेईमान की जै!
एजेंट : यह ऐसे नहीं मानेगा।
[एजेंट एक गुंडे को इशारा करता है। तीन-चार गुंडे उसे पीटकर उठाकर दूर छोड़ आते हैं। जुलूस आगे बढ़ता है। नारे लगाते हुए। एक मैदान में जुलूस खत्म होता है और सभा होती है।]
एक वक्ता : भाइयो और बहनो! सभा में मेरी बीवी भी बैठी है, इसलिए उसे छोड़कर बाकी सब बहनो! सेठ गरीबदास, जैसाकि उनके नाम से ही मालूम होता है, गरीबों के दास हैं। वे हमेशा गरीबों के भले के बारे में सोचते रहते हैं।
एक आदमी : सोचते ही रहते हैं या करते भी हैं?
वक्ता : बहुत कुछ करते हैं। वे गर्मी में जगह-जगह प्याऊ खुलवाते हैं। ‘सेठ गरीबदास प्याऊ’ को शहर में कौन नहीं जानता! वे प्याऊ न खुलवाते तो गरीब प्यासे मर जाते।
चिल्लानेवाला : यानी लोग याद रखें कि सेठ गरीबदास ने उन्हें पानी पिलाया।
वक्ता : सेठ जी बड़ों-बड़ों को पानी पिला चुके हैं। मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम ‘सफेद पार्टी’ के एजेंट हो। हमारे सेठ जी तुम्हारी पार्टी को भी पानी पिला देंगे। तो भाइयो, सेठ गरीबदास की देश-सेवा को कौन नहीं जानता! वे देश की आजादी में पच्चीसों बार विदेशी सत्ता की पुलिस की गोलियाँ खा चुके हैं।
एक आदमी : पच्चीस बार गोली लगी तो मरे क्यों नहीं?
वक्ता : यही सेठ जी की खूबी है। उनमें बड़ी ताकत है। कोई भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बड़े-बड़े अफसर—इनकम टैक्स चोरी और जमाखोरी में उन्हें गिरफ्तार करने आते हैं, पर सेठ जी के प्रताप से लोहे की हथकड़ियाँ सोने की हो जाती हैं। और जो पकड़ने आए हैं, वे सेठ जी के चरण छूकर चले जाते हैं।
एक आदमी : सेठजी के चरण हैं कि पाँव?
वक्ता : फालतू बात मत करो। पाँव तो भुखमरे फड़तूस के होते हैं। सेठों के चरण होते हैं। तो भाइयो, ये कुछ विरोधी पार्टियों के लोग सभा में गड़बड़ी कर रहे हैं। आप लोग इनकी बातों पर ध्यान मत दीजिए। ये लोग तरह-तरह के आरोप सेठ गरीबदास जी पर लगाते हैं। कहते हैं कि वे भ्रष्टाचारी हैं, कालाबाजारी करते हैं, इनकम टैक्स की चोरी करते हैं। पर मैं पूछता हूँ—क्या वे कभी पकड़े गए? वे कभी नहीं पकड़े गए। यही उनकी योग्यता है।
एक आदमी : वे मिलावट करते हैं।
वक्ता : तो क्या गलत करते हैं? मेल-जोल तो अच्छी चीज है। एक चीज में दूसरी चीज मिला दी जाए, तो यह भाईचारा ही तो हुआ न! और फिर भगवान खुद मिलावटी हैं। भगवान का नरसिंह अवतार क्या मिलावटी नहीं है? आधे ‘नर’ और आधे ‘सिंह’! सेठ जी परम वैष्णव हैं। इसीलिए मिलावटी भगवान की तरह मिलावट करते हैं। सेठ जी को अगर जहर घी से सस्ता मिल जाए तो वे घी में जहर मिला देंगे। इससे देश को कितना फायदा होगा! लोग मरेंगे, आबादी घटेगी और हमारी कई समस्याएँ हल हो जाएँगी। तो भाइयो और बहनो! मैं इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि मेरी पत्नी भी यहाँ बैठी है। तो भाइयो, यदि सेठ जी को आपने जिता दिया तो वे देश के अर्थ-मंत्री होंगे और जिस चतुरता से वे कई करोड़ के हो गए हैं, उसी चतुराई से देश को मालदार कर देंगे। वे दुनिया के हर देश को धोखा देकर पैसा ले लेंगे। चावल का सौदा करेंगे और भूसा भेज देंगे।
सबसे बड़ा सवाल (नाटक) : दृश्य 2
[एक बड़ा भारी साइकिल का चित्र। बच्चों और प्रौढ़ों की भीड़। बच्चों को चाकलेट और बड़ों को पन्द्रह-पन्द्रह रुपये खुलेआम बाँटे जा रहे हैं। कुछ लोग देसी शराब की खुली बोतलें लिये हैं और पी रहे हैं। एक आदमी खुली जीप पर माइक लिये बैठा है।]
माइकवाला : भाइयो और बहनो—नहीं, मैं किसी को बहन नहीं मानता। इसलिए भाइयो और औरतो! जैसा आप जानते हैं, नगर सेठ भिखारीदास देश की सेवा के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। उनका चुनाव-चिह्न ‘साइकिल’ है।
चिल्लानेवाला : ये साइकिल पंचर है। बोलो लड़को—ये साइकिल पंचर है।
[लड़कों को मजा आता है और वे चिल्लाते हैं—ये साइकिल पंचर है।]
माइकवाला : अरे, कुछ दारू-वारू पिलाकर इस आदमी का मुँह बन्द करो!
चिल्लानेवाला : दारू से तो मुँह और खुलता है।
माइकवाला : तो मुँह काहे से बन्द होता है?
चिल्लानेवाला : रुपये से।
माइकवाला : (सेठ के आदमी से कहता है) दो इसे सोलह रुपये।
चिल्लानेवाला : मेरा मुँह बहुत बड़ा है, वह सोलह रुपये में बन्द नहीं होगा। डेढ़ सौ में बन्द होगा।
[सेठ का आदमी उसे डेढ़ सौ रुपये दे देता है।]
माइकवाला : बोलो, सेठ भिखारीदास की जै! साइकिल की जै!
[जुलूस चलता है। नारे लगते हैं।]
माइकवाला : जीतेगा भई जीतेगा!
भीड़ : भिखारीदास जीतेगा!
माइकवाला : जीतेगा भई जीतेगा!
भीड़ : साइकिलवाला जीतेगा!
माइकवाला : हारेगा भई हारेगा!
भीड़ : साइकिलवाला हारेगा!
माइकवाला : अरे नहीं, घोड़ेवाला हारेगा कहो।
भीड़ : घोड़ेवाला हारेगा।
चिल्लानेवाला : हारेगा भई हारेगा—
भ्रष्टाचारी हारेगा—
हारेगा भई हारेगा—
दो नम्बरिया हारेगा!
माइकवाला : अरे, इसका मुँह बन्द नहीं हुआ?
चिल्लानेवाला : सच्चाई का मुँह कभी बन्द नहीं होता।
माइकवाला : अरे भई, जरा इससे निबटो।
[सेठ के किराये के तीन-चार गुंडे उसे पीट-पाटकर उठाकर दूर डाल आते हैं।]
[जुलूस आगे बढ़ता है। नारे...]
माइकवाला : भैया, वोट कहाँ देंगे?
भीड़ : साइकिल छाप वाले को।
माइकवाला : बहनें, वोट किसे देंगी?
भीड़ : साइकिल छाप वाले को।
माइकवाला : माता, वोट किसे देंगी?
भीड़ : साइकिल छाप वाले को।
[आखिर एक मैदान में पहुँचकर जुलूस सभा की शक्ल ले लेती है। सेठ जी का एजेंट भाषण देता है।]
एजेंट : भाइयो और बहनो, सेठ भिखारीदास भिखारियों के भी दास हैं। गरीबदास तो अपने को गरीब का दास कहता है। पर सेठ भिखारीदास भिखारी का भी दास है।
एक आदमी : भिखारीदास ने भिखारियों के लिए क्या किया?
एजेंट : दुनिया जानती है कि सेठ जी हर पूर्णिमा को भिखारियों को गल्ला बाँटते हैं।
दूसरा आदमी : हाँ, ऐसा सड़ा गल्ला जिसे कुत्ते तक नहीं सूँघते।
एजेंट : ये सब फालतू बातें हैं। सेठ जी ने एक अनाथालय भी खोला है।
एक आदमी : और अपनी मिल के कितने मजदूरों को मरवाकर कितने अनाथ बनाए?
दूसरा आदमी : और अनाथालय के नाम पर चंदा इकट्ठा करके भी तो खाते हैं।
एजेंट : तुम लोग उस सेठ गरीबदास के खरीदे हुए एजेंट हो। वही गरीबदास जो महान भ्रष्टाचारी, मुनाफाखोर, टैक्स-चोर है। हमारे सेठ जी बिलकुल पाक-साफ आदमी हैं। वे प्रभु के भक्त हैं। जो करते हैं, प्रभु के लिए। सारा धन प्रभु को अर्पित है। कितनी बार अफसरों ने टैक्स-चोरी और जमाखोरी के लिए छापा मारा, पर सेठ जी ने कह दिया—‘मेरा कुछ नहीं है। जो कुछ है, प्रभु का है। क्या आप लोग प्रभु पर टैक्स लगाने का पाप करेंगे? प्रभु के माल की जब्ती का पाप करेंगे?’ और चमत्कार देखिए—सेठ जी के प्राइवेट मन्दिर के कृष्ण की मूर्ति के हाथ में सुदर्शन चक्र आ गया और वे लोग भाग खड़े हुए।
एक आदमी : कालाबाजारिये का भगवान भी काला होता है।
दूसरा आदमी : झूठे का भगवान भी झूठा!
तीसरा आदमी : दो नम्बरी का भगवान भी दो नम्बरी! सच्चा भगवान होता तो सुदर्शन चक्र सेठ जी पर ही चलाता।
चौथा आदमी : प्राइवेट कम्पनी का भगवान भी प्राइवेट है।
एजेंट : फालतू बातें मत करो। सेठ जी जनता के आदमी हैं। गरीबों, भिखारियों, अनाथों का भला करनेवाले हैं।
[भीड़ में लोग चिल्ला उठते हैं—‘झूठ है! झूठ है! भ्रष्टाचारी हारेगा! हारेगा!’]
[हुल्लड़ होने से सभा भंग हो जाती है।]
सबसे बड़ा सवाल (नाटक) : दृश्य 3
[सेठ गरीबदास की बैठक। सेठ जी और उनके चुनाव एजेंट बैठे हैं।]
सेठ जी : कैसा काम चल रहा है?
एक एजेंट : बहुत बढ़िया चल रहा है। फर्स्ट क्लास जुलूस और बढ़िया सभा। गली-गली आपकी जय बोली जा रही है!
सेठ जी : अरे, जय तो पैसा बुलवाता है। अपने-आप कोई मेरी जय बोलता है? और तुम्हारी सभा तो एक हुल्लड़ होती है। मुझे सब मालूम है। लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं और काम दो कौड़ी का नहीं!
दूसरा एजेंट : नहीं सेठ जी, काम हो रहा है। डोर-टु-डोर दरवाजे- दरवाजे प्रचार हो रहा है।
सेठ जी : अरे, डोर-टु-डोर नहीं, विंडो-टु-विंडो करो, पर नतीजा क्या है? तुम लोग तो मुझे डुबा दोगे।
[सब कुछ सेकेंड चुप रहते हैं।]
सेठ जी : आज से मेरे चुनाव की जिम्मेदारी मेरी लड़की मीना लेगी। स्त्रियों का असर ज्यादा पड़ता है। फिर वह राजनीति में एम.ए. है। सुन्दर है। (पुकारते हैं) मीना! ए बेटी मीना!
[मीना भीतर से आती है।]
मीना : कहिए, बाबूजी!
गरीबदास : देखो बेटी, मेरी इज्जत का सवाल है। मुझे जीतना ही चाहिए। अभी हालत ऐसी है कि मेरी हार के लक्षण दिख रहे हैं। अब तुम मेरे चुनाव प्रचार का पूरा जिम्मा ले लो। तुम पढ़ी-लिखी हो, होशियार हो, स्त्री हो। तुम जब जनता से अपील करोगी, तो लोग तुम्हारी बात मानेंगे।
मीना : पर पिताजी, आप चुनाव क्यों लड़ना चाहते हैं?
गरीबदास : सब लोग क्यों लड़ते हैं?
मीना : बहुत लोग तो जनता की सेवा करके चुनाव लड़ते हैं। पर आप और सेठ भिखारीदास, दोनों भ्रष्टाचारी, कालाबाजारिये और टैक्स-चोर के रूप में जाने जाते हैं। और मैं जानती हूँ कि वे सही कहते हैं।
गरीबदास : (हतप्रभ रह जाते हैं) तू मेरी लड़की होकर मेरे ही मुँह पर ऐसी बात करती है!
मीना : पिता का तो ऐसा है, बाबूजी, कि कोई अपना बाप नहीं चुनता। किसी को यह हक नहीं मिला कि वह जन्म के पहले अपना बाप चुन ले। यह तो एक ‘एक्सीडेंट’ है कि कौन किसका बेटा या बेटी हो जाए। मुझे अधिकार होता तो मैं कभी आप जैसे को अपना पिता नहीं चुनती।
गरीबदास : (क्रोध में) कैसी बदतमीजी की बात करती है! तू मेरी बेटी हो गई, यह दुर्घटना है? शिक्षा के कारण तेरा दिमाग खराब हो गया है। सब लड़के-लड़की बिगड़ गए हैं। ऐसा जानता कि तू ऐसी निकलेगी तो तुझे पढ़ाता ही नहीं।
मीना : अच्छा, बाबूजी, नाराज मत होइए। आपकी लड़की हो गई हूँ तो आपका काम करूँगी। कल से मैं चुनाव-प्रचार पर निकल जाऊँगी।
सबसे बड़ा सवाल (नाटक) : दृश्य 4
[दूसरे दिन से मीना काम शुरू कर देती है। बढ़िया चूड़ीदार और स्कर्ट! बढ़िया मेकअप।]
सभा-संचालक : अब आपके सेठ गरीबदास की विदुषी सुपुत्री, जो राजनीति पढ़ी हुई है, अपने विचार प्रकट करेंगी।
मीना : देवियो और सज्जनो, मैं सेठ गरीबदास की तरफ से इसलिए आपसे अपील करने नहीं आई कि वे मेरे पिता न होते तो भी मैं उनकी तरफ से काम करती। सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम आदमी को चुनाव में चुनकर भेजें। हमें ऐसे आदमी को भेजना चाहिए जो वहाँ जाकर भ्रष्ट न हो! ऐसा कौन आदमी हो सकता है? ऐसा वही आदमी हो सकता है, जिसकी तिजोरी लबालब भरी हो, जिसमें और जगह ही नहीं हो। पर यदि आप किसी ऐसे फड़तूस को भेज दें जिसकी तिजोरी खाली है या तिजोरी है ही नहीं, तो वह वहाँ जाकर पैसे खाने लगेगा और जनता का भला नहीं करेगा। मेरे पिता करोड़पति हैं, यही इस बात की गारंटी है कि वे भ्रष्टाचार नहीं करेंगे।
एक आदमी : वे दूसरी तिजोरी खोलकर उसे भरने लगेंगे।
दूसरा आदमी : भ्रष्टाचार एक आदत है। यह छूटती नहीं।
मीना : पर इसका क्या सबूत है कि वे भ्रष्टाचारी हैं? भ्रष्टाचारी होते तो एकाध बार गिरफ्तार तो होते।
एक आदमी : पैसे खिलाकर बच जाते हैं।
मीना : ऐसा नहीं है। वे व्यापारी हैं। व्यापार के अपने तरीके होते हैं। ये तरीके उन्होंने अपनाए, तो क्या बुरा किया? पर अब चौथेपन में उनकी लौ दो तरफ लगी है—भगवान की तरफ और जनता की सेवा की तरफ। उन्हें आप चुनकर भेजें और देखें कि वे जनता के लिए क्या नहीं करते।
एक आदमी : जनता की सेवा सूदखोरी से करेंगे?
मीना : नहीं, वे ऐसा नहीं करेंगे।
एक आदमी : हम लोग आपको वोट दे देंगे। आप चुनाव में खड़ी हो जाइए।
मीना : मैं पल्ला फैलाकर आपसे उनके लिए वोट की भीख माँगती हूँ।
एक आदमी : बहन जी, पल्ला तो साड़ी का होता है। आप स्कर्ट पहने हैं। स्कर्ट का पल्ला कैसे फैलाएँगी?
[हँसी। मीना झेंप जाती है।]
[इसी समय एक खाली अरथी लेकर बीस-पच्चीस लोग निकलते हैं। अरथी पर लाश नहीं है। लोग बोल रहे हैं—‘राम नाम सत्य है, सत्य बोले गत्य है!’ सभा में हलचल मच जाती है।]
मीना : आप लोग शान्त रहिए। कोई मैयत जा रही है। मृतात्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना कीजिए।
कुछ लोग : यह मैयत नहीं है। अरथी खाली है।[लोग उन्हें रोकते हैं।]भीड़ का
एक आदमी : यह क्या मामला है? आप लोग खाली अरथी लिये हैं! लाश तो है ही नहीं!आदमी : बात यह है कि वह जो रिक्शे में बैठा है, हम लोगों का आदमी है। हम उसे अस्पताल ले जा रहे हैं।
पूछनेवाले : पर यह दाहक्रिया का सामान क्यों ले जा रहे हो?
आदमी : इसलिए कि आजकल पूरी तैयारी के साथ जाना चाहिए। क्या पता, जहाँ इसके प्राण बचाने ले जा रहे हैं, वहाँ नकली और घटिया दवा से इसके प्राण चले जाएँ। आपने सुना नहीं, हाल ही में ऐसी दवा देने से पच्चीस आदमी मर गए? इसलिए कफन-दफन की तैयारी से निकले हैं।
पूछनेवाले : वह दवा किसके कारखाने की थी?
आदमी : सेठ गरीबदास के कारखाने की।
[शोरगुल! हत्यारा! नकली दवा से लोगों की जान लेता है।]
[एक आदमी नारे देता है :
नकली दवावाला गरीबदास—मुर्दाबाद!
हत्यारा गरीबदास—मुर्दाबाद!]
एक आदमी : बहन जी, देख लिया आपने? यह आपके पिता का चरित्र है।
दूसरा आदमी : नकली दवा बेचकर लोगों की जान लेते हैं।
तीसरा आदमी : इसी तरह जनता की सेवा चुने जाने के बाद भी करेंगे।
मीना : (घबड़ाहट में) नहीं, नहीं, यह झूठ है!
कई लोग : यह सच है! यह सच है! गरीबदास मुर्दाबाद।
[सभा भंग हो जाती है।]
[मीना जीप में बैठकर भाग जाती है।]
सबसे बड़ा सवाल (नाटक) : दृश्य 5
[सेठ भिखारीदास की बैठक। सेठ जी अपने एजेंटों-सलाहकारों के साथ बैठे हैं। सेठ जी निराश हैं और क्रोध में हैं। कहते हैं—लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं और मेरा मुर्दाबाद हो रहा है। तुम लोग क्या काम करते हो?]
एक एजेंट : काम तो हम जी-तोड़ कर रहे हैं। और फिर यह तो जनता है, बहक जाती है। पर वोट पड़ने के एक दिन पहले हम पैसे बाँटकर और शराब पिलाकर सबको अपनी ओर खींच लेंगे।
भिखारीदास : शराब तो गरीबदास भी रात को पिलाएगा और पैसे भी बाँटेगा।
दूसरा एजेंट : चुनाव जीतने का तरीका ही यह है कि जो गरीबों, मजदूरों, हरिजनों को रात को ‘आखिरी’ शराब पिलाए। गरीबदास को हम शाम को शराब पिला लेने देंगे। फिर आधी रात के बाद हम लोग शराब पिलाएँगे और नशे में झूमते वोटरों को वोट डालने ले जाएँगे। सब वोट आपको मिल जाएँगे।
भिखारीदास : अरे, पहले शहर में वातावरण तो बनना चाहिए। मध्यम वर्ग भी तो है। नहीं, तुम लोगों से नहीं होगा। मेरा लड़का सुरेश जो डबल एम.ए. है, वही मेरे चुनाव प्रचार का इंचार्ज होगा। (पुकारते हैं) सुरेश! बेटा सुरेश!
[सुरेश ‘आया पापाजी’ कहता हुआ हाजिर होता है।]
भिखारीदास : देखो, चुनाव का माहौल गरमा गया है। गरीबदास की वह लड़की मीना चुनाव प्रचार में कूद पड़ी है। मैं चाहता हूँ कि मेरे चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी तुम ले लो।
सुरेश : पर पापाजी, मुझे समझ में नहीं आता कि आप चुनाव क्यों लड़ रहे हैं।
भिखारीदास : क्यों लड़ रहा हूँ? अरे घर में भगवान का दिया सब कुछ है। इतनी दौलत है। बस, एक चीज नहीं है—मेम्बरी।
सुरेश : मेम्बरी को क्या आप फ्रिज में रखेंगे?
भिखारीदास : फ्रिज में क्यों रखूँगा? अरे, जम गया तो मंत्री बन जाऊँगा। फिर मेरे बाद तुम शान से कह तो सकोगे कि मेरे पिता मंत्री थे।
सुरेश : पर आपकी बदनामी बहुत है।
भिखारीदास : अरे बदनामी छोटे-से मध्यम वर्ग में है। इसी को तुम्हें ठीक करना है। ऐसा जोरदार भाषण दो कि सब लोग मेरी जय बोलने लगें।
सुरेश : मेरा मन तो नहीं करता, पर फिर भी आप पिता हैं, इसलिए आपका काम करूँगा।
भिखारीदास : हाँ, बेटा, अब तुम बड़े हो गए हो। मेरी लाज रख लो।
सुरेश : पिताजी, लाज तो आपकी शायद नहीं बचेगी। पर मैं कोशिश जरूर करूँगा।
भिखारीदास : लाज कैसे नहीं बचेगी बेटा! इतना पैसा है। पैसा क्या नहीं करता?
सुरेश : पैसा दूसरों के पास भी है। फिर ऐसे लोग भी होते हैं, जिनके लिए जनता खुद पैसा इकट्ठा करती है और वोट भी देती है। खैर, मैं जाता हूँ और कल से काम शुरू कर देता हूँ। (एक एजेंट से) कल जंगी सभा का ऐलान करवा दो।
सबसे बड़ा सवाल (नाटक) : दृश्य 6
[सभा। सजा हुआ मंच। एक तरफ सेठ भिखारीदास का बड़ा फोटो। दूसरी तरफ ‘साइकिल’ का। सुरेश फर्स्ट क्लास छीट जैसे बुशर्ट और ड्रेन पाइप में है। मंच पर ‘ट्विस्ट’ की मुद्रा में चढ़ता है।]
एजेंट : भाइयो और बहनो, आज परम सौभाग्य की बात है कि सेठ भिखारीदास जी के सुपुत्र सुरेश जी खुद आप लोगों से बात करने आए हैं। आइए सुरेश जी!
[सुरेश माइक लेता है।]
सुरेश : भाइयो, बहनो, पिताओ, चाचाओ, माताओ, मौसियो—और जो छूट गए हों, वे भी—लुच्चे-लफंगो भी! मैं आपके सामने क्यों आया? इसलिए नहीं कि मेरे पिताजी चुनाव लड़ रहे हैं। वे घर में मेरे पिता होंगे। पर जब वे सार्वजनिक जीवन में आते हैं तब मेरे पिता नहीं, सिर्फ एक उम्मीदवार हैं। यदि मैं समझता कि वे अयोग्य हैं तो मैं पहला आदमी होता जो उनका विरोध करता। मंच पर उनके खिलाफ बोलता और घर जाकर उनके चरण छू लेता। कहता कि घर में आप मेरे पिता हैं, पर बाहर चुनाव के मामले में आप मेरे दुश्मन हैं।
[एक तरफ कुछ तालियाँ बजती हैं।]
चुनाव में तरह-तरह के इलजाम लगाए जाते हैं। मगर मैं आपसे पूछता हूँ कि जो चौबीसों घंटे साथ रहता है, उससे ज्यादा अपने पिता को कौन जान सकता है?
एक आदमी : उन्हें जानते हुए भी उनकी तारीफ करने आए हो?
सुरेश : पहले मेरी बात सुन लीजिए। सेठ भिखारीदास जी निहायत ईमानदार आदमी हैं। उनके हृदय में मानवता कूट-कूटकर भरी है। कहीं भी अत्याचार हो, मनुष्य को तकलीफ हो, दुख हो, मेरे पिता का दिल तड़पने लगता है। जैसा किसी शायर ने कहा है :
खंजर कहीं चले पै तड़पते हैं हम अमीर,
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।
उनके दिल में सारे जहाँ का दर्द है। किसी का दुख उनसे देखा नहीं जाता। उनकी आँखों से आँसू टपकने लगते हैं।
एक आदमी : अब तक तो घड़े भर गए होंगे—इस देश में इतने दुखी आदमी हैं।
सुरेश : आप चुप रहिए। मैं कहता हूँ कि यह सही है कि उनके पास दौलत है। पर वे बिलकुल उससे दूर निर्लिप्त रहते हैं। सादा भोजन और सादे कपड़े।
एक आदमी : यानी कंजूस हैं?
सुरेश : कंजूस नहीं हैं। भारत नाम के देश में एक महात्मा गांधी हो गए हैं। पिताजी उनके सादगी के सिद्धान्त को मानते हैं। मौका लगता तो वे चौपट नगरी के महात्मा गांधी होते, पर लोगों ने उन्हें चांस नहीं दिया।
एक आदमी : चांस देने से महात्मा होते हैं क्या?
सुरेश : यह सब बातें फालतू हैं। मेरे पिता वैसे ही संत स्वभाव के हैं। लोग उन्हें महात्मा नहीं कहते, यह गलती लोगों की है। उन्होंने आज तक बेईमानी नहीं की, जमाखोरी नहीं की, मिलावट नहीं की। ऐसा आदमी महात्मा कहलाने के योग्य है।
[इसी समय एक तरफ से ‘राम नाम सत्य है’—सत्य बोले गत्य है, पुकार के साथ एक अरथी आ रही है। लोगों का ध्यान उस तरफ चला जाता है।]
सुरेश : देखिए, कोई अभागा मृत्यु को प्राप्त हो गया। मेरे पिताजी कहते हैं कि यह देह नाशवान है। जो देह धारण करता है, उसकी देह छूटती है। आप लोग दो मिनट शान्त रहकर दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करें।
[दो-चार लोग अरथी के पास पहुँच जाते हैं।]
पूछनेवाला : भाई, इनकी मृत्यु कैसे हो गई?
अरथीवाला : इसकी मौत तेल से हो गई।
पूछनेवाला : तेल से मौत कैसे हो गई?
अरथीवाला : तेल में न जाने क्या जहरीली चीज मिली थी कि उसकी सब्जी खाते ही इसे उल्टी होने लगी और एक घंटे में प्राण चले गए।
पूछनेवाला : वह तेल किसकी मिल का था?
अरथीवाला : वह तेल सेठ भिखारीदास की मिल का था। अभी तक उस तेल से बारह आदमी मर चुके हैं।
[पूछनेवाले लौटते हैं और भीड़ से चिल्लाकर कहते हैं।]
पूछनेवाला : सुन लो, सेठ भिखारीदास की मिल के तेल से बारह आदमी मर गए। यह अभागा सेठ जी के मिलावटी तेल से ही मरा है।
[सभा में उत्तेजना फैल जाती है। बहुत लोग चिल्लाते हैं—‘सेठ भिखारीदास हत्यारा है। वह जहरीली तेल बेचता है।’]
एक आदमी : कहिए सुरेश जी—यही आपके महात्मा पिता के लक्षण हैं? मिलावटी तेल से बारह आदमी मार डाले।
सुरेश : यह झूठ है। यह उस गरीबदास की साजिश है।
एक आदमी : और गरीबदास की दवाई से जब पच्चीस आदमी मरते हैं तो वह कहता है कि यह भिखारीदास की साजिश है।
दूसरा आदमी : यानी दोनों साजिश करते हैं। आदमी को मार रहे हैं।
[भीड़ के एक कोने से आवाज उठती है—‘भिखारीदास’—मुर्दाबाद, हत्यारा—मुर्दाबाद।]
[सभा में हुल्लड़ हो जाता है और सुरेश अपने साथियों के साथ भाग जाता है।]
[सेठ गरीबदास अपनी गद्दी पर बैठे हैं। तभी सेठ भिखारीदास आते हैं।]
गरीबदास : आइए, सेठ भिखारीदास जी, कैसे तकलीफ की?
भिखारीदास : चुनाव में इतनी तकलीफ हो रही है कि सोचा, आपसे मिलने की तकलीफ भी कर लूँ। देखिए, हम दोनों की पोल खुल गई है।
गरीबदास : चुनाव में पोलें तो खुलती ही रहती हैं।
भिखारीदास : सो ठीक है। पर जो आप हैं, वही मैं हूँ। आप भी वही सब धन्धे करते हैं जो मैं करता हूँ। आप भी महान और मैं भी महान।
गरीबदास : नहीं, मैं आपसे डबल महान हूँ। आपके तेल से बारह मरे और मेरी दवा से पच्चीस मरे। तो मैं आपसे डबल महान हुआ कि नहीं?
भिखारीदास : अच्छा, सेठ जी, मान लिया कि आप डबल महान हैं! पर जब हम दोनों एक-से हैं, दोनों के एक-से स्वार्थ हैं, दोनों के एक-से कर्म या दुष्कर्म हैं तो आपस में क्यों झगड़ें? इस झगड़े का फायदा कोई तीसरा उठा ले जाएगा। मेरा कहना है कि आप नाम वापस ले लीजिए।
गरीबदास : और मेरी प्रार्थना है कि आप नाम वापस ले लीजिए।
भिखारीदास : ऐसे कैसे काम चलेगा! आप भी हठ पर और मैं भी हठ पर।
गरीबदास : तो आप अपना हठ छोड़ दीजिए।
भिखारीदास : अब मैं वापस कैसे लौट सकता हूँ? मेरे लाखों रुपयों की लागत इस चुनाव के धन्धे में लग गई है। जब लागत लगी है तो कुछ मुनाफा तो होना ही चाहिए!
गरीबदास : लाखों की लागत मेरी भी लग चुकी है। अब मैं भी इस चुनाव के धन्धे को कैसे बन्द कर दूँ?
भिखारीदास : यानी कोई समझौता नहीं होगा? देखिए, लोग हँसेंगे कि दो नगर सेठ आपस में लड़ गए।
[इसी समय एक पत्रकार प्रवेश करता है।]
पत्रकार : नमस्ते सेठ जी, नमस्ते सेठ जी। मैं पत्रकार हूँ। आप दोनों चुनाव के उम्मीदवार हैं। मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ।
पत्रकार : (गरीबदास से पूछता है) सेठ गरीबदास जी, इस समय देश के सामने सबसे बड़ा सवाल क्या है?
गरीबदास : इस समय देश के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि मैं चुनाव जीतूँ।
पत्रकार : सेठ भिखारीदास जी, आपकी नजर में इस समय देश का सबसे बड़ा सवाल क्या है?
भिखारीदास : इस देश का सबसे बड़ा सवाल यह है कि मैं सेठ गरीबदास को हरा दूँ।
पत्रकार : आप लोग बताइए, इस देश की मुख्य समस्याएँ क्या हैं?
गरीबदास : इस देश में कोई खास समस्या नहीं है। हमारे कारखाने ठीक चल रहे हैं। मुनाफा आ रहा है। अफसर लोग घूस खा रहे हैं और सब तरफ सुख और चैन है।
[पत्रकार भिखारीदास की तरफ देखता है।]
भिखारीदास : देश के सामने यही समस्या है कि जब-तब इंस्पेक्टर लोग या आबकारी या इनकम टैक्स वाले हम लोगों के पास आ जाते हैं।
पत्रकार : इस समस्या का हल क्या है?
गरीबदास : इस समस्या का बड़ा आसान हल है। हम उनकी मुट्ठी गरम कर देते हैं और वे चले जाते हैं।
भिखारीदास : समस्या खास नहीं है जी। देश तो बाजार है। हर चीज बिकती है। ईमान भी बिकता है। हमारे पास पैसा है, हम खरीद लेते हैं।
पत्रकार : इस देश में गरीबी बहुत है। यह तो आप जानते ही हैं। इस गरीबी की समस्या का हल क्या है?
भिखारीदास : गरीब और अमीर तो भगवान बनाते हैं। हम क्या कर सकते हैं। भगवान ही इस समस्या को हल करेंगे।
पत्रकार : अब मैं आपसे राजनीतिक प्रश्न करूँगा। गरीबदास जी, वियतनाम को तो आप जानते होंगे?
गरीबदास : वियतनाम? हाँ-हाँ, हमारे यहाँ पहले एक भगतराम नाम का मुनीम था, उसी को आप लोग वियतनाम कहते होंगे?
पत्रकार : सेठ भिखारीदास जी, अमेरिका की राजधानी क्या है ?
गरीबदास : अमेरिका की राजधानी निक्सन नाम का शहर है ।
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