सबिया (अतीत के चलचित्र) : महादेवी वर्मा

Sabiya (Ateet Ke Chalchitra) : Mahadevi Verma

सबिया न शबनम का संक्षिप्त है न शबरात का । वह तो हमारे पौराणिक सावित्री का अपभ्रंश है; पर सच कहें तो कहना होगा कि या तो हमारे उदार आर्यत्व ने दयार्द्र होकर ही, हरिजनों में भी निकृष्टतम जीव को, इस संज्ञा की छाया में पवित्र होने की अनुमति दे डाली या सबिया के, परंपरा के अनुसार स्वर्गगत; परंतु यथार्थ में नरकगत माता-पिता चतुर पाकेटमार के समान सबकी आँख बचाकर इस नामनिधि को उड़ा लाए और इसे अपना बनाने के लिए इतना काटा-छाँटा कि अब इस पर किसी एक का अधिकार प्रमाणित करना कठिन हो गया है।

मानो मेरे नौकर न बदलने के नियम का विरोध करने के लिए जब बूढ़ा जमादार बिना आज्ञा माँगे ही ऐसी महायात्रा पर चल पड़ा, जहाँ से किसी का पकड़ मँगाना संभव नहीं, तभी एक दिन मास भर के नामधारी मांसपिंड को चीकट से कपड़े में लपेट और अपनी नग्नता को मलिनता से ढाँकने वाली पाँच वर्ष की बचिया को उँगली से सहारा दिए, सबिया मेरे सामने आ उपस्थित हुई । उसका मुख चिकनी काली मिट्टी से गढ़ा जान पड़ता था; परंतु प्रत्येक रेखा में साँचे की वैसी सुडौलता थी, जैसी प्रायः पेरिस प्लास्टर की मूर्तियों में देखी जाती है। आँखों की गढ़न लंबी न होकर गोल-मोल होने के कारण उनमें मेले में खोए बच्चे जैसी सभय चकित दृष्टि थी। हाथ-पैर में मोटे-मोटे चमकहीन गिलट के कड़े उसे कैदी की स्थिति में डाल देते थे। कुछ कम चौड़े ललाट पर जुड़ी भौंहों के ऊपर लगी पीली काँच की टिकुली में जो शृंगार था, वह भटकटैया के फूल से घूरे के शृंगार का स्मरण दिलाता था । कभी लाल, पर अब पुराने घड़े के रंगवाली धोती में लिपटी सबिया ऐसी लगी, मानो किसी अपटु शिल्पी की सयत्न गढ़ी मिट्टी की मूर्ति हो, जिसके सब कच्चे रंग धुल गए हैं और जहाँ-तहाँ से केवल सुडौल रेखाओं में बँधी मिट्टी झाँकने लगी है।

पता चला, उसका पति बिना उसे बताए परदेश चला गया है। वह तब सौरी में थी-दुःख से बीमार पड़ गई और इस प्रकार जिस बंगले में नौकर थी, वहाँ दूसरी मेहतरानी आ गई। यहाँ काम मिल जाए, तो बच्चे पल जाएँ। तन-मन से काम करने के संबंध में उसके आश्वासन की उपेक्षा कर मैंने उस छोटी-सी गठरी पर सन्देह-भरी दृष्टि डाल कर प्रश्न किया- 'इसे लेकर कैसे काम होगा ?' सबिया ने जब उस मैली, दुबली बालिका को पीठ पर हाथ फेरते हुए बड़े विश्वास से सिर हिला-हिलाकर, भाई की देख-रेख के विषय में उसकी असाधारण पटुता की व्याख्या सोदाहरण आरंभ की, तब न मैं हँस सकी और न मुस्कराहट रोक सकी ।

वास्तव में बचिया की जुगनू जैसी आँखों पर फैलती हुई अँधेरी जैसी गंभीरता देख कर, उस पर हँस उठना निष्ठुर जान पड़ता था और मौन रहना सहानुभूतिहीन ।

उसे काम बताकर जब मैं बरामदे के कमरे में आ गई, तब बूढ़ी भक्तिन के हृदय का कुतूहल, मेरे भय का बाँध तोड़ कर न जाने कितने प्रश्नों में बह निकला। अथक कथावाचक होने के कारण सबके संबंध में सब कुछ जान रखना उसके जीवन का प्रथम सिद्धांत है और जान पड़ता है सबसे बड़े कथाकार परमात्मा की कृपा से योजनबाहु का गुण उसकी जीभ में आ बसा है। जब हजारों सुमिरिनी जैसी प्रश्नावली के 'कुछ बिखरे शब्द मेरे कानों में बरबस घुसने लगे, तब उनकी उपेक्षा न कर सकने का कारण उत्तरों की करुणा ही रही।

सबिया के पति के संबंध में किया गया प्रश्न तो मैं स्पष्ट न सुन सकी; परंतु उसका 'ना मइया, करा धरा न होय, आपन बीहा बरा आदमी रहा' में दिया उत्तर बता रहा था कि बोलने वाली का गला भर आया है। 'ऊ मेहरारू बड़ी गजबिन रही' के उत्तर में सबिया के थके स्वर ने उसकी सफाई में कहा- 'माता आपन आपन भाग।' फिर मैंने सप्रयास लिखने में मन लगाया और कथा का सूत्र वहीं टूट गया। धीरे-धीरे पता चला कि सबिया का पति, सत्यवान का किसी प्रकार भी अपभ्रंश नहीं है, इतना ही नहीं, वह अपने निरर्थक मैकू नाम के समान निरर्थक भी नहीं हो सका। एक दिन अपने जाति-भाई की नई वधू को लेकर वह न जाने कहाँ चल दिया और वह भी ऐसे समय, जब सबिया तीन दिन के शिशु को लिए पड़ी थी। तब से न सबिया ने उसकी आशा छोड़ी और न उसका कोई समाचार मिला। बेचारे जाति-भाई ने प्रतिशोध लेने के साथ-साथ उजड़ा घर बसा लेने के लिए जो प्रस्ताव सबिया के सामने रखा, उसे अस्वीकृत ही होना पड़ा। अंत में उस बेचारे ने 'दूध का जला मट्ठा भी फूँक -फूँककर पीता है' के अनुसार एक बूढ़ी विधवा भाभी को अपने घर की लक्ष्मी बनाकर निश्चितता की साँस ली।

ऐसी सबिया को सब झक्की कहने लगें, तो आश्चर्य क्या! परंतु मुझे तो. उनमें काम करने की धुन के अतिरिक्त किसी प्रकार की झक का पता न चला। सबेरे ही नीम तले कँकरीली धरती पर एक फटा मैला कपड़ा डालकर वह बच्चे को लिटा देती और कुछ निगरानी करने और कुछ मक्खियाँ उड़ाने के लिए बचिया को बैठा, आप एक तार-तार पिछौरी से कमर कस कर झाड़ू सँभालती । फिर कंपाउंड के एक छोर पर झाड़ू के छरछर संगीत के साथ हवा में उड़ती-सी सबिया का नृत्य आरंभ होता और दूसरे छोर पर कभी वीरासन, कभी योगासन में बैठकर छोटे-छोटे हाथों से मक्खी उड़ाती और कभी एक पैर से, कभी दोनों पैरों से कूद-फाँद कर कौवों को डराती हुई बचिया का रूपक विस्तार पाता। माँ के दुबले शरीर में सूखी लकड़ी की कठिनता न होकर हरी टहनी का लचीलापन रहता था, जो दुर्बलता से अधिक जीवन का परिचय देता है और बालिका के सूखे शरीर में नए पत्ते की चंचलता न होकर पाले से खिल न सकने वाले बँधे किशलय- कोरक का अवश हिलना-डुलना था, जो विकास का सूचक न होकर जड़ता का परिचय देता है। मेरी खिड़की के सामने वाला नीम ही बचिया का रंगमंच था और मेरी कुतिया, छात्रावास की पूसी जैसे महत्त्वपूर्ण दर्शकों का तो वहाँ स्वागत होता ही था, साथ ही परदेशी कौव्वे, अज्ञातनामा चिड़ियाँ और नीमवासिनी पड़ोसिन गिलहरी की आवभगत में भी कमी न थी; परंतु बचिया की सरल सतर्कता को देखकर यही जान पड़ता था कि कुतिया से लेकर चिड़ियों तक और गिलहरी से लेकर मक्खियों तक सब उसके दुलारे भइया को उठा ले भागने के लिए आकुल हैं। कदाचित् उन छद्मवेशी लुटेरों को समझाने के लिए ही वह बिल्ली की म्याऊँ म्याऊँ से लेकर चिड़ियों की चूँ-चूँ तक न जाने कितनी भिन्न-भिन्न वाणियों में बोलती और सब के अंत में संधि के शंखनाद के समान एक पैसे में खरीदी हुई पिपिहरी बजाती ।

उसकी सारी कर्तव्यपरायणता के दुर्ग को भेदकर जब भूख भीतर पहुँच जाती, तब वह उसी मैले कपड़े के एक छोर में बँधा रोटी का टुकड़ा खोलकर उस छिपे शत्रु से समझौता आरंभ करती । परंतु यह तो मानना ही होगा कि उतने दर्शकों की उपस्थिति में यह कार्य दुष्कर हो उठता था। एक बार ज्यों ही उसने मुर्गे के स्वर में कुछ उपालंभ देने का उपक्रम किया, त्यों ही विद्रोही कौव्वा उसका भूख से लड़ने का एकमात्र अस्त्र छीन भागा। अंत में मैंने कुछ बिस्कुट और एक बेसन का लड्डू भिजवाकर मानों काठ की कटार के स्थान में मशीनगन सौंपने का पुण्य कार्य किया। तब से बचिया की याचना 'कुकड़ कूँ' होकर ही मेरे पास पहुँचने लगी और उत्तर में मैं जो भिजवाती थी उस पर भक्तिन की झुंझलाहट की शान चढ़ी रहती थी ।

दस बजे तक सब काम समाप्त कर, बाजीगर के समान अपनी सृष्टि को समेटती हुई सबिया नहाने-धोने चली जाती। फिर जब तक वह घिस - घिसकर माँजी हुई पीतल की चमकीली थाली लेकर खाना लेने लौटती, तब तक छात्रावास में भोजन-संबंधी सुदीर्घ कार्य-कलाप का उपसंहार हो चुकता, थालियों की जूठन जमादार के सिर पर न मढ़ी जाकर स्कूल की गाड़ियों के बैलों को खिलाई जाए, ऐसी मेरी कठोर और परंपरा विरुद्ध आज्ञा के कारण सबिया को चौके से मिले दाल-भात में महराजिन, कहारी आदि के व्यंग्य की जो तिक्तता मिलती रही होगी, उसका मैं अनुमान कर सकती हूँ । सबिया तो किसी की शिकायत करने में इतना हिचकिचाती थी, मानों ऐसे किसी शब्द से उसके मुँह में दाह भरे छाले पड़ जाएँगे ।

साँझ-सबेरे बच्चों से लदी-फँदी सबिया को बड़ी कठिनाई से थाली ले जाते देखकर मैंने उसे वहीं बच्चे को खिलाकर खा लेने की बात सुझाई। उसने इस तरह सकुचाकर उत्तर दिया, मानो किसी बड़े अक्षम्य अपराध की स्वीकारोक्ति हो । कहा- 'बचिया के आँधर-धूंधर आजी है, मलकिन ! ओहका बिन खियाये-पियाये कसत खाब।' फिर कुछ कहना व्यर्थ था; पर दुखी और दुर्बल स्त्री पर दो-दो बच्चों के साथ अंधी माँ का भार लादने वाले मैकू पर मेरा मन झल्ला उठा । पुरुष भी विचित्र है । वह अपने छोटे-से-छोटे सुख के लिए स्त्री को बड़ा से बड़ा दुःख दे डालता है और ऐसी निश्चितता से, मानो वह स्त्री को उसका प्राप्य ही दे रहा है। सभी कर्तव्यों को वह चीनी से ढकी कुनैन के समान मीठे-मीठे रूप में ही चाहता है। जैसे ही कटुता का आभास मिला कि उसकी पहली प्रवृत्ति सब कुछ जहाँ-का-तहाँ पटक कर भाग खड़े होने की होती है।

सबिया की अकारण शालीनता पर मेरी ऐसी सकारण ममता उत्पन्न हो गई थी कि उसका समय एक प्रकार से अच्छा ही कटने लगा ।

तब अचानक एक दिन दरवाजे की ओट में दुबकी खड़ी सबिया के लिए मानो दुभाषिए का काम करती हुई भक्तिन ने बताया कि उसे एक अच्छी-सी धोती चाहिए। मैंने अरगनी पर सूखती हुई खद्दर की साड़ी देने की अनुमति दे दी परंतु भक्तिन ने मुँह बना कर कहा - ' और अच्छी।' तब फिर उठ कर मैंने कपड़ों में इस अनिश्चित विशेषण के अंतर्गत रखने योग्य साड़ियों की छानबीन आरंभ की।

जिन दिनों मैंने रेशम पहनना नहीं छोड़ा था, तभी की एक धुल-धुल कर फीकी पड़ी हुई नीली-सी रेशमी साड़ी हाथ लगी और उसी को भक्तिन के आगे फेंक मैंने अपने काम में मन लगाया। जितना कोई स्वयं बता दे, उससे अधिक किसी के संबंध में जानने की मेरी कभी इच्छा नहीं होती, इसी से साड़ी की इस असमय याचना के संबंध में मैंने कुछ न पूछा, पर मेरे स्वभाव की इस कमी को पूरा किए बिना भक्तिन जी ही नहीं सकती। वह दूसरों के लिए ही नहीं, मेरे लिए भी विस्मय की वस्तु है। मैं चाहे जितना आवश्यक काम करती रहूँ; परंतु वह मेरे श्रवण की सीमा के भीतर ही कहीं बैठकर संसार भर की कथा अपने-आप से कहने के बहाने मुझे सुनाती रहती है। अनेक बार मैंने उसे बहुत डाँटा भी है; पर उसके स्वभाव में कोई अंतर नहीं आया। जब से वह अठारह आम और पाँच महुए के पेड़ों वाला बगीचा, मिट्टी का कच्चा घर और पच्चीस बीघा खेत छोड़कर तथा तीन-तीन बेटी-दामादों और अनेक नाती नातिनों से ममता तोड़कर मेरे पास आई है, तब से मुझे छोड़कर गाँव जाने की संभावना उसके मन में घुस ही नहीं पाई। मैं वेतन न दूँ तो भी वह जाने को राजी नहीं, खाना न दूँ तो भी वह गाँव से सत्तू-गुड़ लाकर खाने को प्रस्तुत है; पर मुझे छोड़कर वह केवल स्वर्ग जाएगी और वह भी अपनी इच्छा से नहीं। ऐसे व्यक्ति को सुधारना क्या कभी संभव है? इसी से वह निरंतर संजय की भूमिका निबाहती रहती है। अंतर केवल इतना ही है कि महाभारत का संजय अंधे धृतराष्ट्र के पूछने पर युद्ध का समाचार देकर उन्हें आँखों का सुख देता था और इसकी अनपूछी संसार- कथा के लिए मुझे प्रायः बहरा बनने का दुख भोगना पड़ता है।

हाँ, तो भक्तिन से पता चला कि मैकू लौटा तो गेंदा के साथ; पर उसे स्टेशन के किसी जमादार के घर अतिथि बना आया। बेचारी सबिया सुख से पागल हो गई और उसी दिन सत्यनारायण की कथा का प्रबंध करने दौड़ी। जब सब ठीक हो चुका, तब मैकू मुँह लटकाकर बैठ रहा और बहुत पूछने पर गेंदा का समाचार देकर उसे बुला लाने के लिए सबिया की खुशामद करने लगा। इतना ही नहीं, सबिया की रेशमी साड़ी देखकर उसने बहुत दीनता से कहा - 'यह तो तेरे काले रंग पर नहीं फबती सबिया, इसे गेंदा को दे डाल, उस पर खूब खिलेगी।'

बिना एक शब्द कहे सबिया ने नीली साड़ी उतारकर मैकू के हाथ में थमा दी और स्वयं पुरानी पहनकर अंधी सास के रोकते रहने पर भी गेंदा को घर लिवा लाने चली गई। पर जान पड़ता है, उसका मन टूट गया, क्योंकि वह कभी नीम से सिर टिकाकर रो लेती है और कभी झाड़ देते-देते रुककर आँखें पोंछने लगती है। बेचारी कब से राह देखती थी, नाम रटती थी। अब आया तो गेंदा को लेकर, उस पर न कभी सबिया का सुख-दुख पूछा और न बच्चों की ओर देखा; केवल गेंदा की चुगली पर विश्वास कर लड़ता रहता है। सबिया का भार और भी बढ़ गया है, क्योंकि मैकू को अब तक कोई काम ही नहीं मिला।

फिर एक दिन सबिया गेहुँवे रंग और गोल मुख वाली धृष्ट और चंचल गेंदा को वही नीली साड़ी पहनाकर लाई, कहा- 'छुटकी पाँ लागत है मलकिन !' खूब - और आशीर्वाद क्या दूँ ! सुखी रह कहने का अर्थ होगा कि सबिया को ऐसा ही दुख देती रह। अतः मैंने कहा - 'ईश्वर ऐसी सुबुद्धि दे कि तुम मेल से रह सको ।'

इसके चार-पाँच दिन बाद सबिया फिर आ उपस्थित हुई । उसे पाँच महीने का वेतन अर्थात् दस रुपया प्रति मास के हिसाब से पचास रुपया पेशगी चाहिए। मैंने आश्चर्य से कारण पूछा। पता चला, गेंदा का पहला पति और जाति-भाई दिक कर रहे हैं। पंचों को रोटी दी जाएगी, तभी तो वे बेचारे इस महाभारत को नित्य सहने की शक्ति प्राप्त कर सकेंगे। पूर्व पति को उसके नितांत शिष्टाचरण का पुरस्कार न देने से एक आत्म-त्याग का सिद्धांत उपेक्षित रह जाएगा। ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए भी सबिया के बच्चों को भूखा मारने की मेरी इच्छा नहीं हुई; पर कुछ रुपए देने ही पड़े। जब मालूम हुआ कि शेष का प्रबंध करने के लिए सबिया ने अपनी मृत माता की अंतिम निशानी रुपयों वाली हमेल बेच डाली, तब मुझे पश्चात्ताप हुआ। मुझे जानना चाहिए था कि वह स्त्री कोई कर्तव्य स्वीकार करने के उपरांत आनाकानी नहीं जानती ।

गेंदा का उस घर में रहना सर्वसम्मत हो जाने पर भी सबिया का कष्ट घटा नहीं, क्योंकि वह हर साँस में लड़ती रहती थी। फिर भी जब मैं दोनों समय तविया को एक बड़े लोटे में दाल और थाली में रोटी चावल ले जाते देखती तो मेरा मन विस्मय से भर जाता था ! इतने अंगारों से भरे जाने पर भी इसके वात्सल्य का अंचल दूसरों को छाया देने में समर्थ है। यह जैसे अपने नादान बच्चों के उत्पात की चिंता नहीं करती, उसी प्रकार पति की हृदयहीन कृतघ्नता, सपत्नी के अनुचित व्यंग और सास की अकारण भर्त्सना पर भी ध्यान नहीं देती। उसके निकट मानो सव बच्चे हैं, इसी से उनका कर्तव्य से जी चुराना उसे कर्तव्यविमूढ़ नहीं बनाता। मैकू की अयोग्यता की विस्तृत आलोचना - प्रत्यालोचना के उत्तर में उसका सरल और संक्षिप्त प्रश्न यही रहता था कि यदि यह पागल हो जाता या किसी भयानक रोग से पीड़ित होता, तो सब उसे क्या करने की सलाह देते ? उत्तर चाहे जितना तर्कहीन हो; परंतु इससे सबिया के हृदय की व्याख्या हो जाती है। वह उन महिलाओं में नहीं है, जो पति के हल्केपन को उसके बँगले, कार, वैभव आदि के पासंग रख कर, भारी कर सकती हैं। उसकी गणना न उनमें हो सकती है जिनके यातना - मंदिर के द्वार पर स्वयं धर्म के कठोर और सजग पहरेदार हैं, और न उनमें जिनके उद्भ्रांत मस्तकों पर समाज की नंगी तलवार लटकती रहती है। वह तो सब प्रकार से निकृष्टतम प्राणी कही जाएगी। फिर इस पारस की उपस्थिति, जिसके स्पर्श से कैसे भी लोह का आवरण सोना हो सकता है, किस प्रकार समझाई जावे !

इतने वर्षों में मैंने एक दिन ही सबिया को हताश देखा। मैकू और गेंदा किसी गाँव में मेला देखने जाकर लौटे नहीं थे। तभी पास के बँगले में चोरी हो गई। ऐसी स्थिति में दूसरों के अपहृत धन से साहूकार बने हुए बड़े आदमी अपने नौकर-चाकर ही नहीं, आस-पास के दरिद्रों को भी कैसे-कैसे पशुओं के हाथ सौंप देते हैं, यह कौन नहीं जानता! उनको चाहे गए धन में से एक कौड़ी भी वापस न मिले, पर अपने विक्षिप्त क्रोध में वे इन दरिद्रों के जीवन की बची-खुची लज्जा को भी तार-तार करके फेंके बिना नहीं रहते। अपने पकड़े जाने की संभावना से मृतप्राय सबिया जब मेरे सामने, ‘अब हमार पत न बची मलकिन' कहकर चुपचाप आँसू बरसाने लगी, तब उसकी व्यथा ने मेरे हृदय को एक विचित्र रूप से स्पर्श किया। समाज ने स्त्री-मर्यादा का जो मूल्य निश्चित कर दिया है, केवल वही उसकी गुरुता का मापदंड नहीं । स्त्री की आत्मा में उसकी मर्यादा की जो सीमा अंकित रहती है, वह समाज के मूल्य से 'बहुत अधिक गुरु और निश्चित है; इसी से संसार भर का समर्थन पाकर जीवन का सौदा करने वाली नारी के हृदय में भी सतीत्व जीवित रह सकता है और समाज भर के निषेध से घिर कर धर्म का व्यवसाय करने वाली सती की साँसें भी तिल-तिल करके असती के निर्माण में लगी रह सकती हैं।

अंत में सबिया पर आई विपत्ति किसी प्रकार टल गई। इस संबंध का 'कैसे' उसकी कथा से संबंध नहीं रखता।

इसी सलज्ज और कर्तव्यनिष्ठ सबिया को लक्ष्य करके जब एक परिचित वकील - पत्नी ने कहा- 'आप चोरों की औरतों को क्यों नौकर रख लेती हैं ?' तब मेरा शीतल क्रोध उस जल के समान हो उठा, जिसकी तरलता के साथ, मिट्टी ही नहीं पत्थर तक काट देनेवाली धार भी रहती है। मुँह से अचानक निकल गया- 'यदि दूसरे के धन को किसी-न-किसी प्रकार अपना बना लेने का नाम चोरी है, तो मैं जानना चाहती हूँ कि हममें से कौन संपन्न महिला चोर पत्नी नहीं कही जा सकती ?” प्रश्न करने वाली के मुख पर कालिमा- सी फैलते देख मुझे कम क्षोभ नहीं हुआ; पर तीर छूट ही नहीं, लक्ष्य पर चुभ भी चुका था।

सच तो यह है कि मैं सबिया को उस पौराणिक नारीत्व के निकट पाती हूँ, जिसने जीवन की सीमा रेखा किसी अज्ञात लोक तक फैला दी थी। उसे यदि जीवन के लिए मृत्यु से लड़ना पड़ा, तो यह न मरने के लिए जीवन से संघर्ष करती है।

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