साड्डी रेलगड्डी आई (कहानी) : प्रकाश मनु

Saadi Relgaddi Aai (Hindi Story) : Prakash Manu

1

जी, रेल माने क्या? मैं आपसे ही पूछता हूँ और सीधे-सीधे पूछता हूँ कि, “बताइए साहब, रेल माने...?”

मैं जानता हूँ, सुनकर आप चौकेंगे और खीजकर कहेंगे कि अरे ओ भोला भाई श्रीमाली, रेल माने...रेल। इसमें भी पूछने की क्या बात है?

लेकिन भई है, बात तो है। मसलन अगर ट्रेन के मानी या उसका सबसे नजदीकी शब्द आप मुझसे पूछें, तो मैं कहूँगा—घर।

घर...? आप चौंकेंगे। मैं जानता हूँ, आप जरूर चौंकेंगे। लेकिन यकीन मानिए, आपको चौंकाने के लिए मैंने यह नहीं कहा। मैंने कहा, क्योंकि मुझे इस पर यकीन है।

और मैंने कहा—घर! क्योंकि मैं जानता हूँ कि घर क्या होता है। दिमाग से तो नहीं, लेकिन दिल के भीतरी ताप और बहुत ही स्फुरणशील ‘धक-धक’ से जानता हूँ कि घर क्या होता है। सीने में लहू के दौड़ने से जानता हूँ कि घर क्या होता है!

बसों में सैकड़ों क्या, हजारों बार यात्राएँ की होंगी। पर बस को देखकर मुझे आज तक कभी नहीं लगा—घर! बस स्टैंड को देखकर आज तक कभी नहीं लगा, घर! पर अब इसका क्या किया जाए कि ट्रेन में लाख धक्के खाने, बहुत बार विविध किस्म की शारीरिक टूट-फूट और पैर, कंधे वगैरह छिलवा लेने के बावजूद मुझे हमेशा यह घर लगा और इसका घरेलूपन आज तक कम नहीं हुआ।

यहाँ तक कि कोई साल भर पहले पीछे से आकर एक भड़भड़िए ने आगे निकलने की उतावली में जब अपनी कोहनी को चोट से मुझे संज्ञाशून्य कर दिया और मेरा चश्मा छिटककर नीचे आ गया, तब भी नहीं! बदकिस्मती यह कि चश्मे का शीशा ही नहीं, फ्रेम भी किसी के पैरों के नीचे आकर चूरमचूर हो गया और मुझसे वह उठाते तक नहीं बना। नया चश्मा बनने में पूरे दो दिन लगे। ये दो दिन मेरे लिए बकौल जगदीशचंद्र ‘नरक कुंड में वास’ के तुल्य थे।

हालत यह थी कि कैजुअल मेरे पास एकदम नहीं बची थी और छुट्टी के पैसे काटने के नाम से मुझे झुरझुरी छूटती थी। सो डरते-डरते, भयभीत, अंधी आँखों से रास्ता टटोलते दफ्तर जाता था। उजबक की तरह आँखें फाड़-फाड़कर काम करता था। फिर भी सहयोगियों के व्यंग्य-बाणों से विदग्ध होकर लौटता, तो सिर पके हुए फोड़े की तरह दुख रहा होता।

तो भी हे प्रिय पाठक! वह ट्रेन, जिसके भीड़-भाड़पूर्ण रंगमंच पर मेरे पैर और कंधे छिले और मेरा चश्मा जमीन पर गिरकर चूरमचूर हुआ, मेरे लिए खलनायिका नहीं बनी, कभी नहीं बनी।

हाँ, मजाक-मजाक में ट्रेन को किसी दुष्ट प्यारे-प्यारे मित्र की तरह दो-चार कड़वी बातें कहने का सुख तो अलग ही है। वह क्यों छोड़ा जाए? अब खासकर डेली पेसेंजर्स को तो आप उससे वंचित कर ही नहीं सकते। वरना उनकी व्यस्त, अति व्यस्त बल्कि व्यस्तता से दबी-कुचली जिंदगी से ऐसा दीर्घ निश्वास और उत्ताप निकलने लगेगा कि मुझे भय है, कहीं वह आसपास को—आसपास के जंगल, पहाड़ और दरियाओं को झुलसा न दे!

खैर, अब मुद्दे की बात पर आएँ। मेरा मन है कि आपको अपनी एक दिन की ट्रेन-यात्रा का नीरस या सरस जैसा भी हो, हाल सुनाऊँ। आपको बस चुपचाप सुनते जाना है और सुनने के बाद हाँ-ना में सिर्फ इतना बताना है कि क्या फरीदाबाद से दिल्ली तक रोज-रोज आने-जाने की इस संक्षिप्त यात्रा को भी सफरनामा कहा जा सकता है? अगर आप शब्द नहीं खर्चना चाहते, तो सिर्फ सिर दाएँ-बाएँ हिलाकर ही बताइए जरा।

यकीन मानिए, मेरे पास ऐसे सफरनामे बहुत हैं। क्योंकि रोज सुबह-शाम सफर करते मैंने पूरे बीस साल यानी सात हजार तीन सौ पाँच दिन ट्रेन में पूरे कर लिए हैं। इनमें मैंने लीप इयर्स के अधिक दिन भी शामिल कर लिए हैं।...तो यानी आप समझिए कि आने और जाने की पूरी चौदह हजार छह सौ दस यात्राएँ। मैं कहता हूँ, चलिए, आप ऊपर की छह सौ दस हटा भी दें, तो भी चौदह हजार। यानी चौदह हजार तो कहीं नहीं गईं!... इन चौदह हजार यात्राओं के अनुभव क्या मैं किसी एक लेख या किस्से-कहानी की शक्ल में पेश कर सकता हूँ? अजी राम भजिए साहब, राम भजिए! मुझे अभी पागल नहीं होना। ऐसा कोई शौक मुझे नहीं चर्राया। तो भी कुछ न कुछ इस बारे में बताकर आपका ज्ञान-वर्धन करूँ, यह मौका भला मैं कैसे छोड़ सकता हूँ?

तो मेहरबानी करके, पाठक-वृंद, आप पालथी मारकर बैठ जाइए और शांत चित्त से सुनिए मुझ भोला भाई श्रीमाली का एक दिन का सफरनामा।

2

ट्रेन में कोई-कोई दिन ज्यादा ही मनहूसियत भरा होता है।

आज सुबह नौ बजे वाली ई.एम.यू. में जब भीड़ के रेले द्वारा भीतर धकेला गया, तो जाकर कतार-दर-कतार लगे दूधियों के डिब्बों पर जा पड़ा। घुटने पर चोट आई, कंधे थोड़े छिल गए। जल्दी ही मैं सँभला और एक ओर होकर रॉड पकड़कर खड़ा हो गया। तब किसी उतावले ने बूट से पैर कुचल दिया। मेरी चीख निकल गई, ‘अरे...ओ मरदूद! ओए, ओए!’

गाड़ी चल पड़ी है और छिला हुआ पैर लेकर, हाथ में रॉड पकड़े, भीड़ में भीड़ का हिस्सा बनकर मैं भी शामिल हूँ। इतनी भीड़ कि हम सबकी नाकें एक-दूसरे को छू रही हैं। हम सबकी साँसें एक-दूसरे में घुसी जा रही हैं और मैं सोच रहा हूँ, ट्रेन में कोई-कोई दिन ज्यादा ही मनहूसियत भरा होता है।

सर्दियों में तो भी चल जाता है किसी न किसी तरह, लेकिन सितंबर की सड़ी हुई गरमी में, जब बारिश हुए कई दिन हो चुके हैं, वातावरण में उमस है और धूप आलापिनों की तरह आँखों और देह में चुभ रही है। मैं देखता हूँ—भीड़ में भिंचे-भिंचे मैं देखता हूँ, ट्रेन में ज्यादातर लोग या तो साइड वाली रॉड पकड़कर खड़े हैं या फिर रॉड से लटकते लोहे के छल्लों को। इस ई.एम.यू. ट्रेन में दरवाजे बड़े हैं, लिहाजा साँस आती रह सकती है। हालाँकि इतनी ही आसानी से जिसे गिरना होता है, जो सबसे बाहरी आदमी होता है, वह किसी पेड़, किसी खंभे से टकराकर नीचे गिर जाता है...और खत्म!

पल में खत्म...फिर मामला खूनमखून। और अब नाक पर हाथ रखकर पहचान हो रही है, यह कौन था? किसके साथ था? किस-किसने इसे देखा? यह तो तब, जब ट्रेन रुक गई हो। नहीं तो, बाज दफा तो आदमी कटकर पीछे पड़ा है, ट्रेन आगे भागती जा रही है।

फिर अगली किसी गाड़ी में बेचारे की ‘शव-यात्रा’! या फिर कहीं आता-जाता दया-ममता से भरा कोई भला मानुष उसे देखता है और फिर...

3

हम सब जो डेली पेसेंजर्स हैं, ऐसे कितने हादसों के चश्मदीद गवाह हैं। एक बार दोस्त चित्रकार हरि भाऊ से कहा था मैंने, “इनका चित्र बनाइए कभी, नहीं बन सकता क्या? सलीब पर टँगे ईसा। ये सब ईसा ही तो हैं—सबके सब।” और हरि भाऊ अपनी खिचड़ी दाढ़ी खुजाते हुए, शून्य में खो गए।

मैं कुछ-कुछ समझने लगा हूँ हरि भाऊ की इस मुद्रा का मतलब। चित्र बनेगा, मगर अभी नहीं। खैर, बात तो ईसा मसीहों की चल रही है। बहुत से ईसा हैं, जो बातें कर रहे हैं। उनकी बातों में देश है, राजनीति है, बच्चे हैं। परिवार है। महँगाई है। वे एकदम ईसा की तरह सूली पर टँगे-टँगे भी बात कर रहे हैं। इस पर इन्हें मैडल नहीं मिल सकता क्या?

“हम आते हैं तो बच्चे सो रहे होते हैं। हम जाएँगे तो सोए हुए मिलेंगे।” एक ईसा दूसरे से कह रहा है।

कुछ और बोलते हुए ईसा हैं। कुछ जवान, कुछ बूढ़े। कुछ की दाढ़ियाँ बढ़ी हुई, कुछ की आँखों में झाड़ियाँ।

“...हमने यार, गार्ड-ड्राइवर दोनों की धुनाई की। सालों ने रोकी क्यों नहीं ट्रेन परसों? याद है, जब शोकी गिरा था...!”

“बल्लभगढ़ का था न!”

“हाँ।...”

“हुआ क्या था?”

“यार, बुरा हुआ उसके साथ। जल्दी-जल्दी में चढ़ रहा था, बस!”

“अभी तो शादी हुई थी साल भर पहले...!”

“हाँ, यार। बड़ा ही गुड लड़का है।”

“बच जाएगा?”

“गया समझो, सीरियस हैड इंज्यूरी...!”

और मैं सोच रहा हूँ, हमारे यहाँ निरी बेवकूफी भरी किताबें निकलती हैं रोज। कोई इन पेसेंजर्स की साइकोलॉजी पर क्यों नहीं लिखता? कैसे-कैसे हालात इन्हें क्या बना देते हैं।

“इतना समझ न आया!” साटन का घिसा हुआ काला सलवार सूट पहने एक जवान औरत है, गा रही है। गा-गाकर करुणा उपजा रही है, “खाली हाथ यहाँ से जाएगा बंदे, इतना समझ न आया। ओ बंदे, इतना समझ न...!”

औरत हर सीट पर जा-जाकर ‘मैन टु मैन’ करुणा उपजाती है। छोटे-बड़े सिक्के जेबों से निकल रहे हैं। जिनके नहीं निकलते, उनकी ठोड़ी पर हाथ रखकर वह निकलवा लेती है।...कैसे?

“इतना समझ न आया...!”

4

खेल अब रोचक हो गया है। कुछ हैं जो रुचि ले रहे हैं। औरत कुछ बुरी नहीं, उनकी आँखों की चमक कह रही है। उस जवान औरत के चरित्र पर कुछ छींटे यहाँ-वहाँ गिरते हैं। फिर धीरे-धीरे लोग ऊबते हैं और नया विषय तलाशते हैं। कुछ और ईसा मसीह हैं, सलीब से लटके-लटके कुछ और बातों के टुकड़े गिर रहे हैं :

“...परसों दूधियों ने एक पुलिस वाले को मारा था। फिर पुलिस वालों ने घेरकर दूधियों को पीटा। इतना पीटा...इतना कि हालत दुरुस्त कर दी।”

“यार...ऊत हैं बड़े। इन्होंने आफत भी बहुत मचा रखी थी। साले ऐसे अपने डिब्बे अड़ा देते हैं कि यात्रियों का चढ़ना मुहाल। और सबके सब साले बे-टिकट!”

“तभी तो गाड़ियाँ नहीं चलतीं इस रूट पर। सरकार कहती है, इनकम नहीं होती, तो हम क्या करें? कैसे चलाएँ नई गाड़ियाँ...?”

“यार, सब बहाना है। वरना ऐसा ही है, तो सरकार पकड़ती क्यों नहीं है इन्हें? महीने में चार-छ: दफा चेकिंग हो, पकड़े जाएँ लोग, जुर्माना हो। फिर अपने आप होंगे सीधे कि नहीं।...”

आवाजें हैं कि आ-आकर टकरा रही हैं। आवाजें कभी बंद नहीं होतीं। आप ट्रेन का सफर कर रहे हैं तो खुद को बंद करके थोड़ी देर कोने में खड़े हो जाइए। आपको महसूस होगा, आप कोने में नहीं खड़े, आवाजों के समुद्र में आपको उछाल दिया गया है।...

तो क्या ये हालात ही हैं जो इन्हें क्रूर बना देते हैं? इतना क्रूर कि ये कुछ भी कर गुजरते हैं! थोड़ी देर के लिए मैं खुद को अलग करके एक गवाह और व्याख्याता की जगह पर पहुँच जाता हूँ। और अब मैं डेली पेसेंजर्स की साइकोलॉजी की बाबत सोच रहा हूँ। याद आता है, एक अंग्रेज महिला की मौत इसी रूट पर हुई थी। उसे पीट-पीटकर मार डाला गया।...क्यों? इसलिए कि वह रिजर्व्ड कंपार्टमेंट में बैठी थी। पूरी सीट पर अकेली और डेली पेसेंजर्स के आने पर बुरी तरह बुड़-बुड़ कर रही थी।

किसने पीटा उसे—किसने? किसने उसे पीट-पीटकर मार डाला? डेली पेसेंजर्स ने? जो खुद ईसा की तरह लटके हुए हैं सलीब पर! या फिर...कोई और ‘शत्रु का प्रवक्ता’ है हमारे बीच, जो यह सब करता-कराता है। हालात ऐसे बना दिए जाते हैं कि हम गुस्से की भट्ठी पर चढ़ जाते हैं। और फिर खुद-ब-खुद वह होता चला जाता है, जिसे अखबार में पढ़कर आपकी रूह काँपती है।

है न विचित्र चीज!...कितनी विचित्र! क्यों भोला भाई श्रीमाली? आपकी आँखें इतनी गीली-गीली-सी क्यों हैं?

“इतना समझ न आया...!”

वह काली साटन वाली औरत चली गई है, पर उसका गीत अब भी हवाओं में ठहरा हुआ है।

5

ओह, अभी तक शोकी का किस्सा ही चल रहा है, जो परसों गिर गया था ट्रेन से। उम्र कोई अठारह बरस।

“...असल में जिन्होंने पिछले जन्म में कुछ ज्यादा ही पाप किए हों, उन्हें ईश्वर अगले जन्म में डेली पेसेंजर बना देता है।” किसी ने कहा है, और इस पर बड़े जोर का ठहाका लगा है। लोहे के छल्ले पकड़े, सलीब पर लटके लोगों का कहकहा।

कितने ईसा, जिनके हाथ ऊपर टँगे हैं, एक साथ बातें कर रहे हैं। मजाक कर रहे हैं। और तो और ताश खेलने की जुगाड़ में भी हैं। खड़े-खड़े ताश...!

अचानक मुझे किसी चित्र-प्रदर्शनी में देखा चित्र याद आता है, ‘ईसा मसीह और कौए’। ईसा मसीह की आँखों में बड़ी पीड़ा, बड़ी गहरी पीड़ा, वही उदासी! मैंने त्रिवेणी में मालविका के साथ उसे देखा था और मालविका का कमेंट, “सुनो भोला, यह चित्र ईसा मसीह की इमेज में कुछ नया जोड़ता है। तुम्हें लगता नहीं, ईसा मसीह इस चित्र में उतरकर कहींअधिक काव्यात्मक हो गए हैं?”

क्या कोई इन डेली पेसेंजर्स को भी कुछ और काव्यात्मक नहीं बना सकता? लेकिन कैसे, जबकि हालात...!

ओह, सामने खड़े-खड़े एक अधेड़ आदमी सो गया है। कहीं यह गिर न जाए! मेरे भीतर खुदर-बुदर। खुदर-बुदर।

साथ वाले डिब्बे में शायद कीर्तन हो रहा है। आवाजें तैरती हुई चली आ रही हैं, “राधे-राधे कृष्ण मिला दे...राधे-राधे...राधे-राधे!”

किसी का ध्यान उस अधेड़ आदमी की ओर नहीं है, जो नींद के झटके में गिर भी सकता है। मैं बड़बड़ाता हूँ, “यार, उसे जगा दो, वरना...!” पर लोग हैं कि ‘राधामय’ हो रहे हैं, “राधे-राधे...राधे-राधे...राधे-राधे...!”

कुछ भी हो, स्वर अच्छा है कीर्तनिए का। मैं खुद की खीज भुलाने की कोशिश में ध्यान दूसरी ओर अटकाने की कोशिश करता हूँ। मगर मैली कमीज वाला वह अधेड़ ध्यान से हटता ही नहीं। ओह! वह खर्राटे ले रहा है। गाड़ी के हिलने के साथ-साथ उसका शरीर बुरी तरह हिलता है। यानी बिलकुल होश नहीं, हाथ छूटा तो गया समझो...!

अच्छा, कौन-कौन होगा इसके परिवार में? कहाँ जाता होगा यह काम करने? मैं अंदाजा लगाने की कोशिश करता हूँ। इस कोशिश में उसके हुलिए पर ध्यान जाता है। कोई हफ्ते भर की बढ़ी हुई दाढ़ी। चेक की मैली कमीज, जिसके ऊपर के दो बटन टूटे हैं! जेब में एक पुरानी डायरी, बटुआ और कुछ मैले कागज, एक मामूली-सा बॉलपैन।

इतने में गिरा...! वह वाकई गिरा। ओह, मैंने कहा था न!

पर...किसी भले नौजवान ने सहारा दे दिया। खूब! उसने लपककर पकड़ा और फिर खड़ा कर दिया। यों एक विकेट गिरने से बच गया।

भीड़ ज्यादा है, टाँगें जवाब दे रही हैं। मैं इधर देखता हूँ, उधर देखता हूँ और फिर डिब्बे की दीवार से सटा-सटा नीचे सरकने लगता हूँ।

अब मैं उकड़ू बैठा हूँ। टाँगें दोहरी होकर टाँगों से मिली हैं और घुटने का दर्द निकल रहा है। मीठा-मीठा सा। जैसे कोई बड़ी आरामदारी से बोच रहा हो। (नोच नहीं, बोच!)

आसपास कुछ मैले-कुचैले लोग बैठे हुए हैं तो क्या! कुछ देर बाद उकड़ू बैठना मुश्किल हो जाता है, तो मैं किसी तरह नंगे फर्श पर आसन टिकाता हूँ और धीरे-धीरे पालथी...

6

ओह! बड़ा सुख है, सुकून। (भीतर कोई खी-खी हँसता जोकर है। बोला है, पूरे जोकराना लहजे में—साला मैं भी यूँ ही खामखा इतनी देर से बाँसनुमा टाँगों पर टँगा था!)

ट्रेन में मुझे सबसे अधिक पसंद है खिड़की पर बैठे-बैठे दूर-पास की चीजें देखना, देखते-देखते खुद में खो जाना। मगर सीट मिल ही कहाँ पाती है! खिड़की तो दूर, बहुत दूर की बात समझो।

स्टेशन...तुगलकाबाद आ गया। लोग उतरे हैं, कुछ चढ़े भी हैं। मगर गाड़ी अब हलकी है।

यानी साँस लेने की जगह, ब्रीदिंग स्पेस!

मेरे अगल-बगल ओखला के कारखानों में काम करने वाले कुछ नौजवान हैं, जिन पर मस्ती का रंग सवार है। सबके चेहरों पर एक नई दुनिया में प्रवेश की एक जवान उत्सुकता है। सबकी नाकों पर गर्व, सबके हाथों में लटके हुए टिफिन। वे दरवाजों पर खड़े हैं और टकटकी लगाए स्टेशन पर उतरी औरतों का पीछा कर रहे हैं, खासकर कमसिनों का।

औरतों आगे-पीछे देखे बगैर तेज-तेज कदमों से अपने कार्यस्थलों की ओर जा रही हैं। कुछ आपस में सिर से सिर मिलाए, बड़े लयात्मक अंदाज में बातें करती जाती हैं। पर उनकी बातों और उनकी चाल दोनों में एक तरह की क्षिप्रता है। उधर दरवाजों पर खड़े जो नौजवान हैं, उनकी आँखें और आवाजें ट्रेन से बाहर आकर उनका पीछा करती हैं :

“ये साली औरतें रोज-रोज आ जाती हैं अपनी ऐसी-तैसी कराने के लिए...?”

“मेरी तो समझ में नहीं आता। ये काम क्या करती होंगी?...माँ का सिर!”

“अजी, इन्हें लहँगा-चोटी और बातों से फुर्सत मिले, तब न!”

“ये काम करने आती हैं, किसने बता दिया आपको चड्ढा साहब? काम के चक्कर में कुछ और ही काम चलता है। तभी तो इतना बन-ठनकर...! देखा, वो सामने वाली पूरी बंदूक है, बंदूक! हा-हा-हा!”

“अजी साहब, कुछ न पूछिए, मिलते पाँच सौ होंगे, खुद पर खर्चती डेढ़ हजार हैं। रोज नई साड़ी, क्रीम...लिपस्टिक। घर वालों को अलग परेशान करती होंगी, बाहर वालों को अलग, ही-ही-ही...!”

“एक हमारे दफ्तर की मिसेज अरोड़ा है।”

“एक हमारे दफ्तर की मिस चमचम...”

“एक हमारे दफ्तर की शर्मानी, कपूरनी...!”

—तुम्हें इनका बाहर निकलना क्यों नहीं सुहाता? अपनी औरतों को ताले में बंद करके आते हो और दूसरी औरतों का ‘आखेट’ करते हो। शर्म नहीं आती—मैं चीखकर कहना चाहता हूँ, पर शब्द गले में फँस गए हैं। मुझे ऐसा लगता है, जैसे गुस्से के मारे मेरी छाती भिंच गई हो! और अब मैं शायद कभी नहीं बोल पाऊँगा, कभी नहीं।

वे संख्या में बहुत अधिक हैं और बेरोकटोक मजा लेने के मूड में हैं। अगर उलझ गए तो अभी कॉलर पकड़कर नीचे। धड़-ड़-ड़...धड़ाम...!

भीतर किसी ने टोका। बल्कि झिंझोड़ दिया।

सच्ची! बड़ा बुरा अनुभव है मुझे। याद करते ही गालों पर चींटियाँ रेंगने लगती हैं। कोई ज्यादा रोज भी नहीं गुजरे। एक मुच्छड़ ने वाकई मुझे उठा लिया था और दरवाजे से बाहर फेंकने को तैयार हो गया था। मुझसे कसम ले लो, मैंने उसे बस यह समझाने की कोशिश की थी कि वह एक हताश, बूढे मुसाफिर का अपमान न करे। बस, और कुछ नहीं।

आप...आप समझ गए न! बस, यही मेरा कसूर था। यही मेरी मृत्यु का वारंट! बमुश्किल मैं बचा, मेरे गिड़गिड़ाने और आसपास के मुसाफिरों के ‘अरे-अरे, ओह-ओह, हाय-हाय’ करने पर। तब से ट्रेन में चलता हूँ तो मुँह पर पट्टी बाँधकर। कभी-कभार कोई अपने जैसा ‘खरमू’ बंदा मिलता है, दीवानगी का मारा हुआ तो थोड़ा-सा होंठों से पट्टी खिसकाता हूँ और...धीरे-धीरे गपशप चालू आहे! मगर तब भी चौकन्ना होकर इधर-उधर देखना नहीं भूलता।

करना पड़ता है भइए, बहुत कुछ करना पड़ता है!

7

ट्रेन चली है, तेज झटके के साथ। कुछ-कुछ नागिन की तरह बलखाती हुई। कैनवस एकाएक बदलता है। उस पर लापरवाही से छिड़के जा रहे रंग और आवाजें भी।

लोग जो बुरी तरह औरतों पर टूट पड़े थे, वे अपने-अपने दफ्तरों की ‘जालिम लड़कियों’ की चर्चा करने के बाद अपने दुखड़े रो रहे हैं और अपने-अपने बॉसों को गालियाँ दे रहे हैं। हाय-हाय उनके गंजे बॉस! लोग अब एक-दूसरे को आँसू पोंछने के लिए जेबों से निकाल-निकालकर साफ रूमाल दे रहे हैं। एक करुणा-विगलित दृश्य!

आसपास दोनों तरफ कतारों में खड़े पेड़ अब नजदीक हैं। दूर होते हुए भी बहुत नजदीक। और अपने हरे संकेतार्थों से धीरे-धीरे मुसकराते हुए बता रहे हैं कि यार, हँसो...थोड़ा-सा अब हँसो। छोड़ो यह सारी रोने-धोने वाली लू-लू, ला-ला...! कब तक इसी में फँसे रहोगे मेरे जमाने के अभिमन्यु!

अलबत्ता पेड़ हैं, और आसमान के आइने में इतने साफ चमकते हुए कि तौबा-तौबा!

आसमान जैसे गहरा नीला-हरा और बीच-बीच में चाँदिया जल। आसमान जैसे सागर। आसमान जैसे नद्दी...! आसमान जैसे खूब बड़ा-बड़ा-सा भीमा ताल।

और धरती हरी-हरी...हरी-हरी। सुंदर-सी हरी चुनरिया ओढ़े बीर बहूटी!

यह हरी सुंदरता हमेशा मुझ पर एक नशा-सा तारी कर देती है! खासकर जब मैं ट्रेन में होता हूँ, ट्रेन की खिड़की पर।...ओह, दुनिया कितनी अद्भुत लगती है तब और जिंदगी कितनी खूबसूरत!

मुझे याद आया, ऐसी ही एक यात्रा में मैंने अपने जैसे एक दीवाने से पेड़ों को लेकर लंबी गुफ्तगू की थी और वह होते-होते इतनी ‘लंबायमान’ हो गई कि कब यात्रा खत्म हो हुई, कब मेरा स्टेशन आया, मुझे कुछ पता ही नहीं चला।

मेरा खयाल है, उस दिन भार्गव मेरे साथ था। बल्लभगढ़ का नीलू भार्गव। हाँ, भार्गव ही था।...ट्रेन कोई पिछले बीस मिनट से रुकी हुई थी और हम सभी यात्री धूप, पसीने और ऊब से तरबतर थे। ऊपर से बेतहाशा भीड़। लिहाजा बात ट्रेनों की कपड़ा-फाडू भीड़भाड़ से शुरू हुई और इस बारे में दिमाग के परखच्चे उड़ा देने वाले मनहूस सलाह-मशविरे हुए थे। रेल मंत्राणी ममता बनर्जी अगर वहाँ होती, तो सचमुच बाग-बाग हो जातीं।

इतने भारी सलाह-मशविरे चल रहे थे कि थोड़ी देर के लिए मेरी दिमागी नसों में चटाख-चटाख-सा हुआ। और फिर बादलों में जैसे बिजली कौंधती है, ऐसे ही मेरे दिमाग में यह जादुई खयाल आया था—पेड़!

पेड़ यानी मुक्तिदूत।

पेड़ यानी...पेड़ यानी—जिंदगी!

पेड़ यानी...ऊपर आसमान की ओर छलाँग। पेड़ यानी उड़ान...! बिना पंखों के उड़ान। एक फलदार, फूलदार, हरी उड़ान!

“यार, एक आइडिया आया है दिमाग में!” मैंने परीकथाओं के बौनों की तरह कोई फुट भर उछलते हुए कहा था।

और दाढ़ी वाले भार्गव ने जब मोटे होंठ फैलाकर कहा, “बता यार!” तो मैं किसी कस्बे की तन्वंगी युवती की तरह शरमा गया था, “नहीं यार, तू हँसेगा।”

“न-न, बिलकुल नहीं। तू बता न!” भार्गव ने बड़ी गंभीरता से मुझे पोदीने पर चढ़ाया था।

“यार, मेरे घर के सामने एक पेड़ है गुलमोहर का।” मैंने डरते-डरते कहा, “मेरा दिल करता है, कि ट्रेन-व्रेन का चक्कर छोड़कर मैं उसी पेड़ से न दफ्तर आ जाया करूँ!” बताते-बताते मेरी आँखों स्वप्निल-स्वप्निल हो उठीं थीं।

“पेड़ से...? दफ्तर!” नीलू भार्गव चौंका था। उसने जरूर मुझे पागल समझा होगा, मगर कहा नहीं।

“हाँ, और क्या? पेड़ में क्या दिक्कत है भला! घर से निकलकर मैं ठीक नौ बजे पेड़ पर चढ़ूँगा और चाबी दे दूँगा। पेड़ उड़ना शुरू कर देगा, ऐन किसी विशालकाय बैलून या हेलीकॉप्टर की तरह। उड़ते-उड़ते दफ्तर पहुँचा, तो गेट के पास ही उसे कहूँगा, ‘अब शाम तक यहीं जमे रहो मेरे अच्छे गुलमोहर!’ और चाबी जेब में डाल लूँगा। लौटते समय फिर उसी पेड़ से वापस। बस, मजे ही मजे। खूब हवा खाओ, क्यों है न!”

यह सुनने ही भार्गव जो यों तो पूरा टेसूचंद है, चहका था। फिस-फिस-फिस करके चहका था। उसकी कल्पना के गवाक्ष एकाएक खुल गए थे। एक के बाद एक खिड़कियाँ खुलती चली गई थीं। मेरे कान के पास झुककर बोला था, “यार, गुलमोहर थोड़ा नाजुक पेड़ है, कवियों वाला। मगर ऐसा भी क्या! तुम जाओगे तो तुम्हारे साथ हम भी तो आ सकते हैं। हमें थोड़ा आगे नई दिल्ली पर उतार देना।”

और देर तक पेड़ों की इस ‘नई हरित संभावना’ पर गौर करते हुए, हम दोनों ‘पेड़ उगाओ अभियान’ को आगे बढ़ाने की जरूरतों पर घनघोर विचार-विमर्श करते रहे थे। और हर किसी के अपने-अपने पेड़ पर बैठकर यात्राएँ करने की कल्पनाएँ कहाँ-कहाँ न पहुँचीं!

धीरे-धीरे हमारा यकीन पुख्ता होता गया था।...एकदम पुख्ता होता गया।

बस, ट्रेन की भीड़-भाड़ कम करने का यही एक इलाज है पक्का। फिर ट्रेन वाले घर से यह ‘घर’ भी कहीं ज्यादा खूबसूरत और हरा-भरा है। हम दोनों इस बात पर सहमत थे, बल्कि हमें लग रहा था कि लो जी, हमने तो मैदान मार लिया।

“पर यार...!” थोड़ी देर में नीलू भार्गव ने अपनी आलपिन जैसी नुकीली दाढ़ी हिलाकर मेरे गुब्बारे में छेद कर दिया था। बोला था, “जैसे हवाई जहाज क्लैश करते हैं, ऐसे ही पेड़ भी आसमान में क्लैश करने लगे, तो बड़ी आफत होगी मित्र। ऐसी पेड़-दुर्घटनाओं से आसपास और जमीन दोनों एक साथ लहूलुहान होंगे। और हरा रक्त बह उठेगा। तुम समझ रहे हो न!”

“हाँ, यार...!” मेरा चेहरा लटक गया था।

“पर इसका भी तो कोई इलाज होगा न!” थोड़ी देर बाद मैंने दिमाग खुजाया।

पर अभी इस बारे में बात आगे चलती कि आगे-पीछे से ‘क्रांति’ शुरू हो गई थी। क्रांति यानी धक्का-पेल।

“क्या हुआ? क्या हुआ? क्या...!” मैंने अचकचाकर जानना चाहा था।

लेकिन तब तक नीलू भार्गव ने हाथ बढ़ाकर मेरा कंधा पकड़ा और जोर-जोर से हिलाकर मुझे वर्तमान में ला पटका था।

“चल मर, मेाया...! तेरा मिंटो ब्रिज आ गया। भाग! मुझे तो अभी आगे नई दिल्ली जाना है।” कहते-कहते उसने मुझे चलती गाड़ी से धक्का दे दिया था।

गनीमत यह थी कि गाड़ी अभी हलकी स्पीड में थी। मैं बचा और भागा। भीड़ में भीड़ का हिस्सा बना, तेज-तेज कदमों से भागा जा रहा था। इस बीच पेड़ से यात्रा की कल्पना कहाँ हवा हो गई, कुछ पता नहीं चला था।

कुछ आगे चलकर थोड़ी साँस आई, तो पेड़ से उड़ने की मनोहारी कल्पना पर खुद ही एकांत में हँसी का उद्रेक हो उठा था—खी-खी...खी-खी-खी...!

ओह! वह सब याद करके आज भी हंसी आ रही है—आज भी।

“यार, चल, हम दोनों मिलकर ट्रेन-पुराण के साथ-साथ पेड़-पुराण भी लिख दें।” मैंने कल्पना में नीलू भार्गव के दाढ़ीदार चेहरे की ओर इशारा करके कहकहा लगाया और सोचने लगा—कहाँ होगा भार्गव आजकल, किन जुगाड़ों में...?

बरसों हो गए उस किस्से को, पर आज भी धूप, पसीने और ऊब से तरबतर माहौल में उस मस्त-मस्त बतोड़पने की याद आती है, तो दिन में कुछ होता-सा है।

मस्त बतोड़पन! डेली पेसेंजर्स का टाइम पास। खासी ऊब में भी जिंदा रहने का अकेला हथियार।

नीलू भार्गव याद आया, तो साली ट्रेन की ‘उमस’ कुछ कम हो गई।

8

ओखला...! एक साथ बहुत से लोग एक साथ भड़भड़ाकर उतरे है।

एकदम युद्ध...महायुद्ध!

...म-हा-भा-र-त!

बाकायदा हाथों, पैरों, कंधों से एक-दूसरे को धकियाती भीड़ देखते ही देखते पूरे प्लेटफार्म पर छितरा जाती है। सब अलग-अलग दिशाओं की ओर मुँह किए चले जा रहे हैं—तेज, तेज...! इन्हें कहाँ जाना है?

अलबत्ता, ट्रेन अब हलकी-फुलकी है। जंगल में सीटियाँ बजाती हवा की तरह।

मैंने अच्छी तरह टाँगें फैला ली हैं, ऐन कंपार्टमेंट के दरवाजे पर और मस्ती में गुनगुनाना शुरू कर दिया है, “चलो दिलदार चलें, चाँद के पार चलें...!” (दिन में भी चाँद! साला कुछ गड़बड़ है भोला भाई श्रीमाली तेरे साथ?)

भीतर और बाहर की दुनिया की यह संधि-अवस्था है। ट्रेन के दरवाजे पर, जहाँ मैं बेशर्मी से टाँगें फैलाए बैठा हूँ, जंगल से आती अलमस्त हवा सीधे टकराती है! इसे कहते हैं—यात्रा!

मैं दरवाजे की मूठ कसकर पकड़े हूँ। बाहर के दृश्यों पर आँखें गड़ा देता हूँ—लो, यह आया निजामुद्दीन स्टेशन। और सामने ही हुमायूँ का मकबरा, जिसके पुरानेपन का जादू अब भी बरकरार है और रह-रहकर किसी शास्त्रीय आलाप की तरह हवा में बजता है। यहाँ से थोड़ी ही दूर हजरत निजामुद्दीन की मजार! कविता की और कवियों की तीर्थ स्थली! वहाँ की हवाएँ तक गाती हैं कव्वाली!...एक बार गया था बहुत पहले। पर दिल नहीं भरा। कभी फिर जाना है, जाना ही है! याद आता है, अमीर खुसरो का दर्द, “चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस...” अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर उन्होंने लिखा था—ट्रिब्यूट! शोक-श्रद्धांजलि! सिर खुद-ब-खुद झुक जाता है।

डिब्बे में खाली जगह अब बढ़ गई है और लोगों का अपने-अपने ढंग से फैलना, पसरना, लुढ़कना भी। इक्का-दुक्का तो फर्श पर ही लमलेट हैं।

मेरे सामने ही डिब्बे की दीवार से सटी हुई दो लड़कियाँ गुट्टे खेल रही हैं। होंगी कोई आठ-दस बरस की। बहनें, या शायद सहेलियाँ!...

मैले, चीकड़ कपड़े हैं। मैले, चीकट बाल। दोनों की धूल से सनी दो-दो चोटियाँ। फर्श पर इस तरह अधिकार से पसरी हैं, जैसे राजसिंहासन पर आसीन राजरानियाँ। और गुट्टे खेलने में ऐसी लीन कि कुछ होश नहीं। कौन सा स्टेशन आया, गया और कहाँ इन्हें जाना है? खेल में बहुत ‘पक्कड़’ लगती हैं—सच्ची-मुच्ची!

मुझे याद आया, बचपन में दीदी और उसकी सहेलियाँ गुट्टे खेलती थीं, तो मेरा काम होता था उनके जीते हुए गुट्टों को सहेजना और गिन-गिनकर हिसाब लगाना। और यों मुझे लगता था कि कहीं न कहीं मैं भी खेल में शामिल हूँ। पर क्या था?

मैं मूर्खों की तरह, किनारे खड़े पेड़ की तरह याचनाभरी आँखें लिए दूर-दूर से इन मैली-कुचैली राजरानियों के खेल को देख रहा हूँ। शामिल नहीं हूँ, मगर कैसे शामिल नहीं हूँ! हालाँकि इन लड़कियों की आँखों में मेरे लिए हास्यपूर्ण तिरस्कार है कि जा-जा, तू क्या खेलेगा? तू जा अपने दफ्तर...बॉस के आगे गुलामी बजा!

वे उलटी हथेली पर छह-छह गुट्टे लेकर उछालती हैं और फिर खेल की शर्त के मुताबिक नीचे से भी एक-दो गुट्टे उठा लेती हैं। गुट्टे से गुट्टे टकराते हैं, चट-चट-चटाक...! लेकिन जाने किस अदृश्य जादू से वे बँधे हैं कि गिरते नहीं।

दीदी और उसकी सहेलियों को देखता था, तो झुरझुरी आती थी। आज ट्रेन में इन्हें देख रहा हूँ, तो ठीक वैसे ही झुरझुरी आ रही है।

बचपन...बचपन के दिन! बचपन की खरमस्तियाँ। मेरे ट्रेन के सफरनामे में क्या यह सब भी शामिल है? पर इससे ट्रेन ‘घर’ है, यह तो साबित हुआ ही। लगभग वही वाक्य, जिससे हमने इस अजीबोगरीब किस्से की शुरुआत की थी।

हालाँकि अभी-अभी मेरी बगल में एक लंबे चोगेनुमा काले कुरते में ढका ग्यारह-बारह साल का लड़का आ खड़ा हुआ है। हाथों में लाठी लिए हुए। उसकी बाहर की ओर देखती उदास-उदास आँखें कुछ और कह रही हैं।

वह शायद घर से भागा हुआ है और किसी कमली वाले बाबा की भेंट चढ़ गया। या हो सकता है कि खुद उसके माँ-बाप ने ही...! शायद कोई मन्नत, मनौती।

वह काले कुरते वाला ‘छोटा-सा कबीर’ ट्रेन में है भी और नहीं भी। वह असल में एक तलाश में है। एक प्रतीक्षा में, जैसे कि हम सभी हैं। हाँ, बीच-बीच में वह भी उन गुट्टे खेलती लड़कियों को ललचाई आँखों से देखने लगता है। और फिर बाहर—बेचारा!

“तुम कहाँ से आए हो बेटे? कहाँ जाओगे?” मैं पूछे बगैर नहीं रह पाता। पर जवाब में वह कुछ नहीं कहता। सिर्फ मुँह फेर लेता है और बाहर देखने लगता है।...

आह कबीर...सचमुच कबीर! यहीं ट्रेन में होनी थी मुलाकात?

मुझे धक्का लगता है। मगर मैं रोने-धोने को तैयार नहीं। मैं अब भी हवा में हूँ, अपनी दोनों टाँगें फैलाए, ट्रेन के दरवाजे पर डटा। खुद से कह रहा हूँ—चलो, जब पूरा दरवाजा ही मिल गया हवा खाने को, तो क्या होगा खिड़की-विड़की से। यह तो ऐसे ही हुआ न, जैसे पूरा का पूरा आपका घर चला आ रहा है आपके साथ-साथ और आप उड़ते-उड़ते दुनिया-जहान की हवा खा रहे हैं मजे से।

9

और अब लो जी भोला भाई श्रीमाली! गाड़ी धीमी हुई...धीमी और धीमी। रुकी, एक झटके के साथ।

स्टेशन...मिंटो ब्रिज। अरे, तिलक ब्रिज कब निकल गया? कुछ पता ही नहीं चला।

उतरते-उतरते कुछ और हलके झटके लगेंगे। हलकी हँसियाँ। ठहाके...! हवा में उड़ते इक्का-दुक्का गालियों के स्वर भी। न जाने किसके लिए?

कुछ उतरे आहिस्ता से पाँव टिकाते, कुछ कूदे धम्म!...तेज-तेज कदम। यात्रा खत्म। चल रे भोला भाई, अब चल।

‘चल खुसरो, घर आपने....!’

घर नहीं, दफ्तर! (...एक ही गल्ल है जी!)

मगर शाम को फिर यही पटरियाँ। यही मारा-मारी। यही घर—यही, बिलकुल यही। मगर उलटे क्रम से।

...यात्रा कहीं खत्म होती है! यात्रा कहाँ खत्म होती है?

दूर हवाओं में एक स्वर नाच रहा है। कभी भँगड़ा तो कभी डाँडिया बन जाता है, कभी गरबा! लो, अब गिद्धा बनकर नाचता-नाचता मेरे पास सरक आया है, ‘रेल गड्डी आई, साड्डी रेल गड्डी आई...!’

मैं तेज-तेज कदमों से दफ्तर की ओर जा रहा हूँ। आश्चर्य मेरे कदमों की तेज धम-धमाक में भी यही संगीत फूट रहा है, “रेलगड्डी आई...साड्डी रेल गड्डी आई...साड्डी...साड्डी—साड्डी...रेल गड्डी...!”

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