रोजेनबोर्ग पार्क में : हरमन बैंग
(हरमन बैंग (1857-1912) अभिनेता बनना चाहता था, पर बन नहीं पाया। उसकी कलम ने उसे डेनमार्क के चोटी के कथाकारों में लाकर बैठा दिया।)
वसन्त के मौसम में, मैं जब भी काम पर जाता, हर सुबह मेरी मुलाकात एक युवक और एक युवती से हो जाती। हर सुबह वे किंग्स पार्क के जवान पेड़ों के नीचे चल रहे होते। वे हर रोज एक ही वक्त पर आते। मैंने भी उन्हें देखने की आदत-सी बना ली थी।
और कुछ भी न सही। उनके झुके हुए सिरों को देखकर ही आप अन्दाज लगा सकते थे कि वे एक दूसरे को प्यार करते हैं - वह उसकी ओर सिर उठाये देखती रहती, वह उसकी ओर सिर झुकाये रहता। बैण्डस्टैण्ड पर वे एक क्षण के लिए ठिठक जाते और जब वे एक-दूसरे की ओर देखकर मुसकराते, तो यों लगता, जैसे हवा में तिरती संगीत की कोई लहरी उन्होंने पकड़ ली हो।
तब ऐसा हुआ कि मैंने वह शहर छोड़ दिया, लेकिन जब अगली बार मैं उस रास्ते से गुजरा और अपने दैनिक कार्य के लिए जा रहा था, तो मैंने उसी औरत को अपने आगे चलते देखा-वह अकेली थी। यह देखने के लिए कि मेरा खयाल सही था या नहीं, मैं तेजी से उससे आगे निकल गया। हाँ, वह वही थी। पर उसकी चाल बेहद धीमी थी और उसकी आँखों में आश्चर्य-मिश्रित दुख की छाया थी।
बैण्डस्टैण्ड पर वह रुक गयी - मैंने उसके चेहरे पर मुसकराहट देखी - अचानक ही.... और आँसुओं से भी ज्यादा पीड़ामय।
तब वह वहाँ से चली गयी। और बिना किसी खास उद्देश्य के ही मैंने स्वयं से पूछ डाला, ‘कौन-सी गलियाँ हैं वे, जहाँ से होता हुआ ‘वह’ अब काम करने जाता है।’