रूपवान कौन : सिक्किम की लोक-कथा
Roopvan Kaun : Lok-Katha (Sikkim)
दो बहनें थीं, छोटी 'लक्ष्मी' और बड़ी बहन 'दरिद्र'। एक दिन दोनों के मध्य बहुत झगड़ा हुआ। दोनों किसी भी स्थिति में हार मानने को राजी नहीं थीं। बड़ी बहन कहती, "हे बहन ! तुमसे ज्यादा मेरा सौंदर्य है।" छोटी कहती, "बड़ी, मैं रूप में आपसे ज्यादा श्रेष्ठ हूँ।" दोनों के मध्य हुए इस विवाद का निर्णय होना मुश्किल था। छोटी बहन कहती, "कभी आपको किसी ने कहा कि छोटी से ज्यादा सुंदर आप हैं?" बड़ी बहन यही बात छोटी पर डालती, "तुम्हें मुझसे ज्यादा सुंदर होने का प्रमाण कभी किसी ने दिया है ? इसलिए मैं अपने को तुमसे कम रूपवान् होने की बात नहीं स्वीकार कर सकती।"
दोनों के मध्य का यह विवाद बढ़ता गया। दोनों ने इस बात को मान लिया कि कभी किसी ने उनसे एक-दूसरे से ज्यादा श्रेष्ठ होने की बात नहीं कही है। दोनों ने इस बात को भी स्वीकार किया कि जब दो के मध्य का विवाद होता है तो निर्णय के लिए उन्हें किसी तीसरे की मदद की आवश्यकता होती है, इसलिए वे अपने निर्णायक की खोज में निकल पड़ी। वहीं पास में नारायण-नारायण का जाप करते हुए जाते नारद को उन्होंने देखा। दोनों उनके करीब गईं। एक-दूसरे के प्रति शिष्टाचार का व्यवहार किया और नारद ने नम्र होकर पूछा, "क्या बात है, आप दोनों बड़े संकट में नजर आ रही हैं?"
दोनों बहनों ने कहा, "हमारे सामने एक बहुत विकट स्थिति आन पड़ी है। हम दोनों के मध्य अधिक रूपवान् कौन है, यह एक समस्या है, जिसका फैसला आपको करना है।" दोनों बहनों ने विनती की, "हे नारदजी ! हमारी समस्या का समाधान प्रस्तुत कर हमें कृतार्थ कीजिए।"
नारद को लगा, उनके सामने भी एक विकट स्थिति आ गई है, जिसका समाधान देना उनके लिए आसान नहीं था। उन्हें लगा, अगर मैं लक्ष्मी को ज्यादा सुंदर बताता हूँ तो बड़ी बहन गुस्से में मेरा गला पकड़ेगी और अगर मैं बड़ी बहन को ज्यादा सुंदर बताता हूँ तो लक्ष्मी मुझसे रूठ जाएगी और मुझे दरिद्र बना छोड़ेगी। नारद को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि इस मुश्किल से कैसे निकला जाए? अंत में उनके दिमाग में एक बात सूझी।
उन्होंने कहा, "तुम दोनों इस तरह मेरे समक्ष खड़ी रहोगी तो मैं कैसे निर्णय कर सकता हूँ, क्योंकि दोनों ही इस दशा में मुझे अपूर्व सुंदरी मालूम देती हो, इसलिए तुम दोनों पीपल के उस पेड़ के पास जाओ, फिर वहाँ से वापस मेरे पास आओ। फिर मैं निर्णय देता हूँ।" नारदजी के मुँह से यह बात सुनकर दोनों उनके पास से जाकर पीपल के नजदीक होकर लौट आईं। दोनों ही अपने रूप में मस्त, अपने को ही श्रेष्ठ मान चलकर गईं और लौटीं। अब नारदजी का निर्णय शेष रह गया था।
उन्होंने पहले बड़ी बहन (दरिद्र) को देखते हुए कहा, "हे बड़ी बहन ! जब तुम मेरे यहाँ से जाने लगीं, तुम्हारा रूप लक्ष्मी के सामने बहुत ही दिव्य मालूम हुआ। उससे तुम्हारा रूप ज्यादा श्रेयस्कर लगा। तुम्हारे दूर जाने की प्रक्रिया में सारा संसार शोभा से युक्त होता गया। बारंबार तुम्हारी उस चमक को देखने की चाह मन में जगी, जबकि लक्ष्मी जाते हुए बहुत भद्दी मालूम हुई। तुम्हारी उसके समक्ष कोई तुलना संभव ही नहीं थी, जबकि वही लक्ष्मी लौटते हुए दिव्य, शोभा और विलक्षण आभा से युक्त दिखीं। इसलिए मेरे निर्णय में बड़ी बहन जाते हुए ज्यादा रूपसी दिखी तो छोटी आते हुए ज्यादा रूप की खान लगी। दोनों ही अपने में बड़ी ही भव्य-दिव्य हैं, पर दोनों का महत्त्व उनकी स्थिति पर निर्भर करता है कि वे जीवन में आ रही हैं या जीवन से जा रही हैं।"
(साभार : डॉ. चुकी भूटिया)