रूप : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Roop : Acharya Chatursen Shastri

उस रूप की बात मैं क्या कहूँ ? काले बालों की रात फैल रही थी और मुखचन्द्र की चाँदनी छिटक रही थी, उस चाँदनी में वह खुला धरा था। सोने के कलसों में भरा हुआ था जिनका मुँह खूब कस कर बँध रहा था, फिर भी महक फूट रही थी। उस पर आठ दस चम्पे की कलियाँ किसी ने डाल दी थीं। भोंरे भीतर घुसने की जुगत सोच रहे थे। मदन कमान लिये खड़ा रखा रहा था। उसका सहचर यौवन अलकसाया पड़ा था, न उसे भूख थी न प्यास, छका पड़ा था।

मैं बड़ा प्यासा था। हार कर आ रहा था। शरीर और मन दोनों चुटीले हो रहे थे, कलेजा उबल रहा था और हृदय झुलस रहा था। मैं अपनी राह जा रहा था। मुझे आशा न थी कि बीच में कुछ मिलेगा। पर मिल गया। संयोग की बात देखो कैसी अद्भुत हुई। और समय होता तो मैं उधर नहीं देखता। मैं क्या भिखारी हूँ या नदीदा हूँ जो राह चलते रस्ते पड़ी वस्तु पर मन चलाऊँ? पर वह अवसर ही ऐसा था। प्यास तड़पा रही थी, गर्मी मार रही थी और अतृप्ति जला रही थी। मैने कहा-जरासा इसमें से मुझे मिलेगा? भूल गया, कहा कहाँ? कहने की नौवत ही न आई―कहने की इच्छा मात्र की थी। पर उसीसे काम सिद्ध हो गया उसने आँचल में छान कर प्याले में उड़ेला, एक डली मुस्कान की मिश्री मिलाई और कहा―लो, फिर भूला, कहा सुना कुछ नहीं। आँचल में छान, प्याले में डालकर, मिश्री मिला कर सामने धर दिया। चम्पे की कलियाँ उसी में पड़ी थीं महक फूट रही थी। मैं ऐसी उदासीनता से किसी की वस्तु नहीं लेता हूँ पर महक ने मार डाला। आत्मसम्मान, सभ्यता, पदमर्यादा सब भूल गया। कलेजा जल रहा था-जीभ ऐंठ रही थी। कौन विचार करता? मैंने दो कदम बढ़ कर उसे उठाया और खड़े ही खड़े पी गया, जी हाँ, खड़े ही खड़े!!

पर प्याले बहुत छोटे थे बहुत ही छोटे। उनमें कुछ आया नहीं। उस चम्पे और चाँदनी ने जो उसे शीतल किया था और उस मिश्री ने जो उसे मधुरा दिया था, उससे कलेजे में ठण्डक पड़ गई। ऐसी ठण्डक न कभी देखी थी न चखी। इसके बाद मैं मूर्ख की तरह प्याला लिये उसकी ओर देखने लगा। उसने कहा और लोगे? मैंने कहा---"बहुत ही प्यासा हूँ, और प्याले बहुत ही छोटे हैं, तिसपर उनमें टूटना निकला हुआ है, इनमें आता ही कितना है, क्या और है?"

उसने कहा---"बहुत है, पर भीतर है, घड़ों का मुँह खोलना पड़ेगा---क्या बहुत प्यासे हो?"

सभ्यता भाड़ में गई। कभी खातिरदारी का बोझ किसी पर नहीं रखता था। पराये सामने सदा संकोच से रहता था---पर उस दिन निर्लज्ज बन गया। मैंने ललचा कर कह ही दिया---"बहुत प्यासा हूँ, क्या ज्यादा तकलीफ होगी? न हो तो जाने दो, इन प्यालियों में आता ही कितना?"

उसने कहा-"तो चलो घर, मार्ग में खड़े खड़े क्यों? पास ही तो घर है"। मैं पीछे हो लिया।

ढकना खोलते ही ग़जब हो गया। लबालब था। गाँठ खोलने का एक हलका ही सा झटका लगा था, बस छलक कर बह गया। समेटे से न सिमटा। उसने कहा---पीओ, पीओ, देखते क्या हो? देखो बहा जाता है-मिट्टी में मिला जाता है।

मेरे हाथ पाँव फूल गये। मैंने घबड़ा कर कहा---यह इतना? इतना क्या मैं पी सकूँगा? यह तो बहुत है। और क्या छानोगी नहीं? उसने कहा-छानने में क्या धरा है। यह तो आप ही निर्मल है। फिर तलछट किसको छोड़ोगे? पी जाओ सब। इतने बड़े मर्द हो---क्या इतना नहीं पी सकते?

मैंने झिझक कर कहा-और मिश्री? जरासी मिश्री न मिलाओगी? उसने हँसकर कहा---मिश्री रहने भी दो, ज्यादा मीठा होने से सब न पी सकोगे---जी भर जायगा, लो यह नमक मिर्च, चटपटा बनालो---फिर देखना इसका स्वाद! इतना कहकर उसने जरा यों, और जरा यों, बुरक दिया। वह नमक मिर्च काजल सा पिसा हुआ था, बिजली की तरह चमक रहा था। उसने स्वयं मिलाया, स्वयं पिलाया। भगवान् जाने क्या जादू था, फिर जो होश गया है अब तक बेहोश हूँ।