रोने का मोल (कहानी) : रांगेय राघव

Rone Ka Mol (Hindi Story) : Rangeya Raghav

जब सांझ हो आई और अंधेरा आसमान की ललाई को फीका करने लगा तब शहर की बिजली की बत्तियां जगमगा उठीं । दूकानदारों की पलकें ठंडी हवा पाकर कुछ क्षण को बोझिल -सी धूलि से ढक गईं। कोलाहल बढ़कर थमने लगा । सड़कें चलने लगीं और कोहरा अभी से 'चिल्ला' में सघन होने लगा ।

लोग घरों के दरवाजे बन्द करने लगे। तभी एक बड़ा-सा ताकतवर कुत्ता गली में से निकलकर बीच सड़क पर रोने लगा। राहगीर चुपचाप चले जा रहे थे । किसी ने भी उससे कुछ नही कहा, केवल एकाध इक्केवाले ने उसे राह से हटाने को जोर से चाबुक की लकड़ी को पहिए में अटकाकर खड़खड़ा दिया। उसके निकल जाने पर कुत्ता फिर बीच में आकर रोने लगा ।

दो मिनट बाद ही एक बड़ा-सा नुकीला पत्थर उसकी पीठ पर झल्लाकर आ गिरा । कुत्ता एक बार जोर से रोया और भूंकता हुआ गली में मुड़ गया। फेंकनेवाले ने कान की कोख में से हंसकर कहा, "भाग गया साला ! इतना बड़ा बदन लेकर भी बिल्कुल बेकार और डरपोक है।"

पंडित श्रीनारायण ने उफनते हुए कहा, "इतने सड़क पर चलते हैं, कोई कुछ नहीं कहता । धर्म नहीं रहा, वर्ना दिनदहाड़े कहीं भला सड़क पर कुत्ता रोने दिया जाता है ?" बड़े लड़के गोविन्द ने कहा, "चाचा! इसकी तो गर्दन काट देनी चाहिए ।"

छोटे मनोहर ने कुछ न समझकर कहा, “रो लेने दो उसे, उसी ने उस दिन मेहरा के घर से उतरते चोर को पकड़वाया था।"

मां ने टोककर शीघ्रता से कहा, "नहीं रे, यह बुरा मौन है। यमदर्शन होते हैं । क्यों मुहल्ले में मारे है सबको ?"

श्रीनारायण गरज पड़े, “मनोहर ! अबकी कहियो।"

मनोहर उठकर गम्भीर हो गया । अंधेरा स्याह पड़ने लगा था । गोविन्द ने झटके में दरवाजा भेड़ दिया। अंधकार में से कुत्ते ने सिर घुमाकर इधर-उधर देखा । दरवाजा बन्द था । क्षणभर में ही वह सड़क पर आ गया और जोर से रो पड़ा और द्वार खुलने के पहले ही अंधकारमयी गली में विलीन हो गया ।

आये दिन यही प्रोग्राम रहता । कुत्ते को भी एक आदत सी पड़ गई थी कि सड़क के बीच में डिक्टेटर की तरह आकर एक बार बीचोबीच आ खड़ा होता और जैसे जान- जानकर चिढ़ाने को रो देता। पंडित श्रीनारायण को उससे चिढ़ हो गई थी। आठ वर्ष बाद उनके घर में बच्चा आया था, सो भी जाता रहा। उस दिन अंधेरी रात थी, घटाएं छा रही थीं, तभी आकर सहसा पहले दिन यह कुत्ता रो पड़ा था। बच्चा इस असगुन के कारण चल बसा और कुत्ते के सिर घर-भर का टूटा और लुटा दिल एक दुश्मनी लेकर मंढ गया। कुत्ता भी अपने रोजमर्रा के दुश्मनों को पहचान गया था और उनकी थोड़ी भी आहट पाते ही दौड़कर गली में छिप जाता ।

उस दिन चौराहे पर सिपाही नही था और ट्रैफिक भी कुछ कम था। कुछ लोग आग जलाए ताप रहे थे। कुत्ता रोते-रोते उनके पास चला गया। किसी ने भी कुछ न कहा। भले आदमी नाराज होकर शर्माते से चुपचाप चले गए। कुत्ता धीरे-धीरे पास के घूरे पर जाकर सो गया। रात हो आई थी । अगणित तारे आसमान में जलते अरमान लिए अपनी जिन्दगी की कशमकश में अपने को संभाले घूम रहे थे। आग से चारों ओर हिलती हुई रोशनी फैल रही थी। धुआं आममान को गहरा बनाए जा रहा था।

इस समय लोगों ने देखा, पंडितजी जोर-शोर से चले आ रहे थे। हाथ में एक लम्बा डण्डा था । लोग समझ गए, आज पंडितजी गजब करने ही घर से निकले हैं । बहुत से लोग स्वयं ही कुत्ते से नाराज थे, मगर अगुआ बनकर उसे मारने की हिम्मत कोई न करता था । आज कुत्ते को मारने को एक आदमी को देख कुछ तो चुप से अपना काम करने लगे, कुछ उत्कण्ठित-से देखने लगे। हरा पेड़ काटने का साहस बहुत कम करतy हैं, मगर पेड़ की कटी लकड़ी ले जाने को सब तैयार होते हैं। आग के पास बैठे लोगों के निकट जाकर सीधे शब्दों में पंडितजी ने पूछा, "कहां गया साला ? उसकी ऐसी- तैसी ! मजाक हो गया ! तुम लोगों ने इस आदमखाने को श्मशान-सा बना रखा है !"

युवक मजदूर उद्दण्ड-से निश्चिंत बैठे तापते रहे। उनकी भुजाएं कन्धों से कुछ उठ गईं । नई रेल को देखकर जैसे हिन्दुस्तानी चौंककर उसे देवता मानने लगे थे, वैसे ही वृद्ध चिरंजी छाती निकालकर नम्रता से बोला, "सरकार बाबू ! खबर नहीं ।"

पंडितजी को कुछ नहीं सूझा और वह चुपचाप घर लौट आए ।

आधी रात को कुत्ता फिर सड़क पर रो पड़ा। पंडितजी की नींद खुल गई ।

दूसरे दिन पंडितजी ने चुंगी में अर्जी दे दी और कुत्तों को गोली डालने भंगी आ गए। जब कोई कुत्ता न फंसा तो पंडितजी स्वयं कुत्तों के लिए बाहर निकल आए । बाहर आते ही उन्हें भंगियों ने घेर लिया। आज उन्हें इसकी भी परवाह नहीं थी । ब्राह्मण स्वार्थ के सामने धर्म को अपने अनुकूल बना लता है ।

जमादार ने पंडितजी को देखकर कहा, "सलाम पंडितजी ।"

पंडितजी ने धीरे से कहा, "जियो जियो।"

सहसा भंगियों ने जोर से कहा, "सलाम ठाकुरजी ।"

पंडितजी के मुंह पर मुस्कराहट फैल गई।

सांझ आ गई, मगर कुत्ते पकड़ने की गाड़ी में एक भी कुत्ता नहीं घुसा। सबको गरीब अशिक्षितों ने अपने घरों में बन्द कर रखा था, जैसे गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में मर्दुमशुमारी गलत कराने को घरों में लोगों को छिपा दिया गया था। पंडितजी ने चिरंजी को लाल आंखों से देखा । सामने के किसी घर के पिछवाड़े से कुत्ते भूंक पड़े और जमादार ने रिपोर्ट में लिखा, "कोई कुत्ता सड़क पर न दिखा। बढ़ती तादाद की गलत रिपोर्ट दी गई लगती है। कुत्ते कहीं हैं जो भूंकते हैं, आवाज आती है, लेकिन हैं कहां, यह पता नहीं चलता ।"

एक सूखा मरियल कुत्ता सामने चल रहा था, मगर उसके गले में किसी ने अपना कपड़ा बांध दिया, जो पट्टे का काम दे रहा था। पंडितजी मन मसोसकर रह गए। उन्होंने पहचाना, यह चिरंजी की साफी की चीर थी । कुत्ता लाटसाहब बना हुआ था । मांग में सिन्दूर पड़ा, स्त्री को खाने-कमाने की चिन्ता नहीं रही; गले में चीर पड़ी, कुत्ता आवारा न रहकर घर का सदस्य हो गया। बाकायदा सड़क पर चहलकदमी कर रहा था, बल्कि एकाध बार पंडितजी को सूंघ भी गया ।

सभा विसर्जित होने ही वाली थी कि एक मोटी कुतिया निकल ही आई । वह किसी की सम्पत्ति नहीं थी। भंगी ने प्रेम से बढ़कर गोली डाली और कुतिया उसे निगल गई। लोग चुपचाप देखते रहे। उन्होंने आदमियों को घोड़ों में कुचले जाते देखा था, फिर यह तो मामूली बात थी। उन्हें इस सरकार से बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं । भंगियों ने मौज में कुतिया को ले जाना भी व्यर्थ समझा । खाली गाड़ी धकेलकर दफ्तर की तरफ गाते हुए वे चल पड़े।

रात ठंडी-सी इठलाकर ठहर गई । कुतिया के पेट में बच्चे थे । यही दुर्भाग्य की बात निकली। रातभर झाग डालकर कुतिया अनगिनत रोते कुत्तों के बीच में चल बसी ।

दूसरे दिन किसी ने भी यह न कोसा कि कुत्ते रातभर रोए । सफेद कपड़े पहने बूढ़ी खत्रानियां बतख की चाल से मन्दिर में जब मिलीं तब एक ने हाथ मटकाकर कहा, "बनने को पंडित, काम ऐसे ? ग्याभन मरवा दी, तभी तो इसका लड़का ..."

पास की बुढ़िया ने कहा, "ठीक है बुआ, ठीक है ।"

पहली वृद्धा ने फिर कहा, "तो मैंने क्या गलत किया ? हत्या करावै है, हत्या !"

तीसरी ने कहा, "हम तो बस जे जानैं, जो जैसी करनी करेगा, तैसी पायेगा।"

पंडितजी इस अकृतज्ञ मुहल्ले की सेवा से ऊब उठे । अजब कुतिया मरी ।

कुत्ते रात-रात रोने लगे । और वह असली तक्षक अभी तक जिन्दा था। पहले मारते थे, अब वह भी नहीं कर सकते। कानों में अंगुली डालकर बैठे रहे। मुहल्ले की स्त्रियों में एक राजनीतिक की-सी हलचल व्यापी रही। स्वयं उनकी स्त्री ने कहा, "मैंने तो पहले ही मना किया..."

मगर फिर वह पंडितजी की आंखों के आगे बोल न सकी ।

दिन बीत गए। मामला ठंडा पड़ गया, लेकिन पंडितजी पर से लोगों की श्रद्धा उठ गई और रात में कुत्तों के भूँकने से बहुतों की नींद खराब होने लगी। फिर भी कोई रास्ता नहीं था ।

लोग कहते, "इतना मोटा-तगड़ा होकर सिर्फ रोता है ?"

और कुत्ता भूँक पड़ता, मानो एक प्रश्न था कि क्या रोने के लिए भी आज्ञा चाहिए ? कौन जानता है, किसको क्या दुख है ! तब सड़क की धूल उड़ जाती, मानो उत्तर था कि दुखों को आकर कहो मत। यह किसने कहा कि सब तुम्हारे दुख के साथी होंगे ?

फिर घूरे पर से उठ पूंछ दबाए अन्य कुत्तों में डरता-सा वही कुत्ता रो उठता । सब आवाजों से ऊपर ईश्वर की आवाज की तरह उसका गम्भीर निर्घोष गूंज उठता और मुहल्ला स्वर से भर जाता ।

जाड़े की धूप किसी के ठंडे गाल पर बहे गर्म आंसू -सी बहकर फैल गई । अपनी गौख में धूप में बैठे पंडितजी भगवद्गीता पढ़ रहे थे । सहसा उन्होंने दिन में कुत्ते का रोना सुना वह अन्दर ही अन्दर झुलस उठे । साथ ही उन्होंने देखा, दस-पाँच मेहतर लट्ठ लिए कुत्ते के पीछे दौड़े चले आ रहे थे । क्षणभर में ही कुत्ते के सिर, बदन, पूंछ, टांग सब पर दनादन लट्ठ पड़ने लगे। पंडितजी इस मार का कारण नहीं समझ सके, किन्तु मार जारी थी | जब कुत्ते की आंखें बाहर निकल पड़ीं तब उसे नाली में फेंक, लट्ठ नचाते हुए मेहतर लौट गए। कुत्ता तड़पने लगा, ठंड से कांप भी रहा था । न जाने क्यों पंडितजी व्यथित हो गए।

कुत्ते ने रोने के लिए अन्तिम बार मुंह खोला, मगर वह अबकी रो न सका । उसमें दम नहीं बचा था।

[ मई 47 से पूर्व ]

('साम्राज्य का वैभव' में से)

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