रो रहा होगा अब भी वह (नेपाली कहानी) : ए० बी० गहतराज

Ro Raha Hoga Ab Bhi Vah (Nepali Story) : A. B. Gahatraj

भिक्षु ( नेपाली कथाकार) लिखित कहानी के त्यो फर्कला' (क्या वह वापस आएगा) को अभी पढ़ चुकने के बाद मैं उस पर विचार कर रहा था। उस अद्भुत परदेसी से बढ़कर मुझे सानी ने प्रभावित किया था। मैं जितना विचारों में डूब रहा था, उतना ही सानी का दोष प्रत्यक्ष रूप से मेरी आँखों के सामने आ रहा था। नारी हृदय की दुर्बलता, यौवन की बेहोशी और नारी आत्मा का कितना जटिल तानाबाना, आदि विषयों पर मैं चिन्तन करने लग गया था। यकायक किसी ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। मैं चौंक गया !

मैंने दरवाजा खोला-पोस्टमैन था। “आप का टेलीग्राम है," उसने हाथ में पकड़े कागजों को देखते हुए कहा, और उनमें से एक कागज़ मेरे आगे कर दिया। मैंने हस्ताक्षर किए तो वह कागज़ देकर मुझे देखे बिना पोस्टमैन चला गया ! मैंने धीरे से टेलीग्राम खोला। लिखा था-"कम सून (') आल एरेन्ज्ड-अरुण बनर्जी, कलकत्ता।"

यह जुलाई 1950 की बात है। राजनीतिक पार्टियों के बीच 'वोट' को लेकर भारतवर्ष के कोने-कोने में खींचातानी चल रही थी-भारत का बाज़ार वोट के कारण गरम था। गली-गली, कूचे-कूचे, गाँव-गाँव में नेताओं की भागदौड़ मची हुई थी-कौन किससे पीछे रहता ! कितने भोले, कितने कर्मठ दिखते हैं ये नेता लोग इस वक्त!" आप लोगों को जो वचन दे रहा हूँ, उसे पूरा न कर सका तो मैं किसी भी सजा के लिए तैयार हूँ," कहकर भेड़-बकरी जनता के आगे हाथ फैलाने वाला नेता इस वक्त कितने भोले, ईमानदार दिखाई देते हैं। इस वोट-आन्दोलन में सहयोग देने का वचन दिया था मैंने अपने मित्र अरुण बनर्जी को तो आज उन्होंने 'तुम जल्दी आ जाना' कहकर यह टेलीग्राम भेजा है। मैंने भी कुछ सोचे बिना ही कलकत्ता जाने का निश्चय कर लिया।

उसी रात, 8 बजकर 15 मिनट पर मैं सिलिगुड़ी पहुँचा। हतार-हतार बस से उतरकर मैं स्टेशन के लिए दौड़ा। पर मेरे वहाँ पहुँचने से 20 मिनट पहले ही रेल जा चुकी थी। मैं रह गया। स्टेशन के कर्मचारियों से पूछने पर पता चला कि कल सुबह साढ़े नौ बजे ही एक ट्रेन कलकत्ता जाएगी। जाना-पहचाना कोई न था इसलिए वह रात स्टेशन के एक कोने में ही गुजारनी थी।

स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर एक नेपाली होटल था। वहाँ से खाना खाकर वापस आने पर स्टेशन निर्जन, शान्त हो चुका था। दो-चार गली के कुत्ते ही ज़मीन पर पड़े पत्तलों को चाट रहे थे, और स्टेशन के आफिसों से यदा-कदा हँसने के साथ ही मोटे स्वरों में बात करने की आवाज़ सुनाई देती थी। रेल से पिछड़े मुझ जैसे कितने ही परदेसी ठण्डी ज़मीन में सो रहे थे। कोई-कोई पैर चलाकर असुविधा हटाने का प्रयास कर रहा था। इन दृश्यों से मेरे हृदय में एक तरह की नयी भावना पैदा हो रही थी, पर भावना में बहकर रात गजारने में कठिनाई होने के कारण मैं भी कोने वाली लम्बी बेंच पर बैठ गया। मेरे पास बिछाने या ओढ़ने के लिए कुछ न था। मैं गठरी-सा बनकर सोने का प्रयास करने लगा। आँखें बन्द होने ही जा रही थीं, इतने में बेंच के पीछे से एक बच्चा जोर से रोने लगा। मैं जाग गया। धीरे से सिर घुमाकर उस तरफ देखा-एक हृदयभेदी दृश्य...।

मेरी तरफ पीठ करके अपने रोते हुए बच्चे को थपथपाते हुए एक स्त्री, ठण्डी ज़मीन पर एक ही चादर बिछाकर पड़ी है। जितना ही वह उस बालक को चुप कराने की कोशिश करती उतनी ही जोर से वह बच्चा रोने लगता था। कभी-कभी वह उकताकर बच्चे को थप्पड़ भी लगा देती, पर उसकी बेरुखी और थप्पड़ में क्रोध का नाम तक न था। बच्चे को थप्पड़ मारते हुए उसका भी दिल रोता होगा! वह माँ थी-उस बालक का दुःख उसका अपना दु:ख था ! उसने बच्चे को फिर गोद में उठाया और उसके खाली सिर पर हाथ फेरते हुए अपने हृदय का प्यार जताते हुए उसे चूमा। यही था जीवन में सबसे पहले मेरा देखा ममता का सच्चा रूप-नारी हृदय की विशालता और स्वच्छता!

बच्चा रोता रहा–शायद माँ के गर्म सीने का कोमल स्पर्श उसके हृदय को गरमी न दे सका। मैंने सोचा, शायद बालकपन में मैं भी ऐसे ही रोता था। मेरी माँ भी मुझे इसी तरह चुप कराती होगी? विचारों की दुनिया में डूबकर अनायास ही मैंने उससे पूछा,"बच्चा बीमार है क्या?" सुनी-अनसुनी करके या किसी और कारण से वह चुप ही रही। मैं कुछ देर खामोश रहा। वह बच्चे को चुप कराने में मग्न थी। मैंने फिर कुछ मोटे स्वरों में पूछा, "सुनती हैं, क्या आपका बच्चा बीमार है ?"

उसने अचानक मुझे देखा-मैं अवाक रह गया!

उसकी उमर 17 से अधिक न होगी। सुन्दर चेहरा और काले नभ को भी प्रकाशमान कर सकने वाले सहस्र उज्ज्वल तारों के समान दो बड़ी-बड़ी रसीली आँखें। उस सुन्दर चेहरे और दो रसीली आँखों को अधिक सुन्दर बनाने वाले कुछ उठे हुए गुलाबी होंठ-रसपूर्ण, प्रभावित करने वाले। यौवन की पहली हरियाली में प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य से अपने बदन का अंग-प्रत्यंग सजाकर मदमस्त बनी उस नारी को आज अचानक परिस्थिति और नियति की क्रूर आँधी ने जीवन के दूसरे छोर पर लाकर इस तरह बेहाल बनाकर पटक दिया है-ऐसा लगा मुझे। सहानुभूति से या उससे अधिक, पवित्र निष्ठा के कारण मेरी आँखें भर आयीं। वह अविकसित नेपाली समाज में पैदा हुई एक अभागी थी-दलदल में खिला नीलकमल ! सौन्दर्य को भाग्य कुचल रहा है। काले बादलों की ओट में छिपने जा रही थी 'सौन्दर्य राशि'।

वह मुझे अपलक देख रही थी-कुछ भी न बोली। मैंने श्रद्धापूर्वक नम्र होकर पूछा, "बहन, क्या आपका बच्चा बीमार है ?"

बहुत ही धीमे स्वरों में, "नहीं, कभी-कभी इसी तरह दु:ख देता है" कहते हुए वह इधर-उधर बिखरे कपड़ों को इकट्ठा करने लगी। कुछ पल बाद कपड़ों में बच्चे को लपेटकर थपथपाते हुए उसने हठात् पूछ लिया, "भाई जी, आप कहाँ जा रहे हैं?"

"कलकत्ता..."

"ओ में भी वहीं जा रही हूँ। देखिए ना, भीड़ में टिकट न मिलने पर आज यहीं रुकना पड़ा। स्त्री को अकेला परदेस जाने में यही तो मुश्किल है। स्त्री जानकर उसे सब ही दबा लेते हैं।"

उसके इन सरल-सरस वचनों से मेरा दिल भर आया, फिर थोड़ी हँसी का भाव लेकर मैंने कहा, "बात तो सही है, पर स्त्रियाँ भी तो चालाक होती हैं। उनके मुँह लगना ही बेकार है ना?"

वह कुछ पल झिझक गई, और कुछ देर सोचकर धीमे से कहा, "हो सकता है ?" फिर वह चुप हो गई। शायद मैंने कुछ न कहने वाली बात कह दी थी, या फिर किसी दूसरे ही कारण से उसका हृदय दुखने का भाव उसके सुन्दर चेहरे पर उभरा रूखापन दर्शा रहा था। उसके इस परिवर्तन से मुझे भी बुरा लगा। मैं फिर कुछ ना बोल सका।

कुछ देर बाद मैंने फिर उसे देखा-वह तो सो चुकी थी। उसके सीने में मुँह लगाकर उसका प्राण-प्यारा बच्चा भी सो गया था। पहले रो रहा बच्चा अब साक्षात् शान्ति का प्रतीक दिखाई दे रहा था। चारों तरफ सुनसान था इक्का-दुक्का दो-चार बत्तियाँ जल रही थीं, उन्हीं बत्तियों के नीचे कितने ही दु:खी यात्री जीवन के सुखदु:ख को भूल मूर्तिवत् सो रहे थे। कितना जादू है इस नींद में ! मेरी आँखें भी बन्द होने लगीं-मैं भी सोने की तैयारी करने लगा।

वाँ...वाँ...बच्चे के रोने से मैं जाग गया। बच्चा जोर-जोर से रो रहा था। उसकी माँ अब तक मस्त नींद में थी। ऐसे में ही स्टेशन की दीवार-घड़ी ने तीन बजा दिए। मैं बच्चे के पास गया-वह हाथ-पैर मारकर रो रहा था। उसकी माँ को आहट दिए बिना मैं बच्चे को चुपचाप उठाना चाहता था। मैं झुका, किन्तु व्यर्थ ! माँ ने उसे अपने दोनों हाथों से कस रखा था। बच्चे को उठाना ही उसकी माँ को जगाना था। मैं असमंजस में पड़ गया। पर बच्चे का आर्तनाद उसकी माँ की नींद से बहुमूल्य था। मैंने उसकी माँ को झकझोरकर उठाने का निर्णय किया। मैंने दायाँ हाथ बढ़ाया, पर बीच में ही रुक गया। क्या मैं सपना तो नहीं देख रहा ? दूसरे की बीवी को हाथ लगाकर...धत् !

बच्चा रोये जा रहा था। उसकी वह चीत्कार अब मैं सह न सका। मैंने उसे झकझोरकर कहा,"सुनती हैं,सुनती हैं।"वह हड़बड़ाकर उठ गई, चारों तरफ देखकर उसने अपनी लाज को हँसी में छिपा लिया ! बच्चा तो रोये जा रहा था। इसी से मेरे उसे जगाने का कारण वह जान गई ? मैं चुप ही रहा।

बच्चे को दूध पिलाकर शान्त कराने के बाद उसने कुछ लज्जित होकर मन्द स्वर में कहा, "धन्यवाद !"

"नहीं, यह तो मेरा कर्त्तव्य था।" इतना कहकर मैंने उसके चेहरे को ठीक से देखा।

कृतज्ञता से या किसी मूक अभिप्राय से उसके गोरे गालों के थोड़ा-थोड़ा लाल होने का भान हुआ मुझे। उसने गोद में सोए बच्चे को ज़मीन में बिछी चादर पर सुलाकर कहा, "भाई साहब, आपका घर कहाँ है?"

"दार्जिलिंग"

यह नाम सुनते ही वह चौंक गई, फिर मुझे घूरकर देखा। पर एक पल में ही ... पहले-सा भाव लेकर सहज ही पूछा, "तो भाईजी, आपका नाम ?

"शंकर..."

"ओ..." माथा झुकाकर भारी स्वर में कहा उसने।

"और...बहन का नाम !" मैंने कहा।

"मेरा नाम तो इन्दिरा, घर कालिम्पोंग।"

"कलकत्ता में किसके पास जा रही हैं ?"

"इसके बाप के बीमार होने की खबर सुनी और उन्होंने मुझे बुला भेजा है," बच्चे को देखते हुए उसने कहा।

"ओ, बेचारे !...वे वहाँ क्या काम करते हैं ?"

इसके उत्तर में वह इधर-उधर की बात करने लगी। पर, मैंने फिर कहा, "शायद किसी ऑफिस में काम करते हैं।"

उसने अपनी रसीली आँखों को नचाते हुए कहा, "नहीं, वे तो किसी मशहूर कम्पनी में ड्राइवर का काम करते हैं।"

"ड्राइवर का काम?"

"जी"

अपनी प्यारी पत्नी, बाल-बच्चे, आस-पड़ोस, मित्र और अपने जन्मदाता माता-पिता को छोड़ क्या हम कलकत्ता जैसी नयी जगह में ड्राइवर, बैरा-बावर्ची, दरबान और आया का काम करने के लिए ही जाएँ? क्या इतना छोटा-सा काम हम अपने ही गाँव, शहर में नहीं पा सकते? क्या दार्जिलिंग इतना कंगाल, बेकार हो चुका है ? क्या हम इतने निर्लज्ज, गुलाम बन चुके हैं ? क्या बलभद्र की वीरता के घमण्ड में हाहाकार मचाने वाले, दुनिया भुला देने वाले नेपालियों की नस-नस में शराब और नशे का ही पानी बह रहा है ? मेरे मन में अचानक ऐसे ही हजारों प्रश्न उभर आए। मैंने अपने-आपको एक सड़े-गले मुर्दे-सा महसूस किया।

कलकत्ता जैसी जगह में गला फाड़-फाड़कर चल्लाकर और किसी अन्य जाति को वोट दिलाकर मैं अपने घर का आँगन खोदकर किसी दूसरे के घर का जग बसा रहा हूँ-बाहर के ईश्वर की पूजा में मैं अपना घर लुटा रहा हूँ। मैंने शान्ति के साथ सो रहे उस बालक को देखा। उसका भविष्य कितना अन्धकारमय है! प्रगतिशील नेपाली समाज में पलने वाला एक नया ड्राइवर-नहीं, होनहार दरबान !

मैंने इन्दिरा को देखा। अभिमानी ! मेरा वश चलता तो मैं उसे अपने समाज में पैदा होने ही नहीं देता। बदले में मैं उसकी माँ के गर्भ को ही उसकी चिहान न बना देता!

फिर मेरी आँखों के सामने दार्जिलिंग की कड़क ठण्ड में आँधी और वर्षा में भी पापी पेट के लिए कमजोर होकर पत्थर तोड़ रहे; स्टेशन से बहुत भारी सामान कमजोर पीठ पर लादकर घोड़े के समान दौड़ रहे; एक हाथ से अपने दुबले-पतले बच्चे को उठाकर दूसरे हाथ से चाय-पत्ती उठा रही स्त्रियाँ; माल-गोदाम में अपने वजन से चार गुणा वजनदार हाथगाड़ी (ठेला) मुश्किल से खींच रहे; सेठों के घर में जूठे बर्तन धो रहे; अपने बच्चे को ठण्डी ज़मीन पर लिटाकर दूसरों के बाबा (बच्चा) की सेवा कर रही हमारी माँ-बहनों का करुण चित्र साकार हो उठा। उफ! मेरा सड़ा विवेक, मेरी फूटी हुई आँख। दुश्मनों की चिकनी-चुपड़ी बातों में पड़कर मैं केवल अपना ही नहीं, परंतु अपने जैसी आगे आने वाली हजारों सन्तानों का भविष्य अन्धकारमय बना रहा हूँ-अपने पैरों में मैं खुद कुल्हाड़ी मार रहा हूँ।

सुबह छह: भी नहीं बजे थे कि आदमियों की भीड़ से स्टेशन खचाखच भर गया। चारों तरफ हो-हल्ला मचा था। मैं चुपचाप उसी बेंच पर पड़ा था-अचल, अनिश्चित। इतनी बडी भीड को चीरकर आया एक बच्चे का तीखा स्वर अचानक मेरे कानों से टकराया। मैं चौंक गया। इन्दिरा का बच्चा। मैं कैसी बेहोशी में था ! उतनी मीठी प्रीति को पलभर में किस प्रकार भूल गया।

भीड़ को हटाते हुए मैं उस आवाज़ की तरफ बढ़ा। थोड़े कम ही यात्रियों से भरे एक तीसरे दर्जे के डिब्बे से वह आवाज़ आ रही थी। मैं भी कोशिश करके उस डिब्बे में घुस गया और देखा कि एक नये परदेसी की गोद में रो रहा था इन्दिरा का बच्चा ! वह परदेसी बहुत लाड़ से बच्चे को फुसला रहा था, मानो वह उसी का अंग है, खून है। इन्दिरा तो संसार भुलाकर डिब्बे की खिड़की से बाहर का तमाशा देख रही थी। मैं ठगा-सा रह गया। इतने में ही स्टेशन की घण्टी बज उठी और गार्ड ने गला फुलाकर सीटी बजा दी। रेल धीरे-धीरे सरकने लगी। किसी को बिना कुछ कहे ही मैं चलती रेल से नीचे उतर गया। मेरी आँखें आँसू से भर गईं। उस मौन विदा ने मेरे दिल को बड़ी ठेस पहुँचाई। बिछुड़ते समय 'अलविदा' तक न कह पाया इन्दिरा को ! उसका बच्चा अब भी रो रहा होगा...!

कर्त्तव्य मुझे घर वापस लाया। चार बजे के करीब मैं फिर अपने प्यारे दार्जिलिंग आ पहुँचा। मेरा सीना हर्ष से फूल गया-कोई खोई हुई चीज़ पाने का अहसास हुआ ! मैंने अपने मित्र अरुण को अपनी असमर्थता बयान करके उसी वक्त एक खत लिख दिया। खत को लिफाफे में बन्द करके मैं सोझा बाजार गया, और पोस्ट-ऑफिस के लेटर-बॉक्स में डाल दिया। मेरा जी हल्का हो गया। कुछ देर बाज़ार में बिताई। शाम होने लगी थी-बाज़ार की दुकानें बन्द हो रही थीं। तभी मैंने कुमार को भण्डारी की पान की दुकान के आगे खड़े होकर सिगरेट पीते हुए देखा। मेरे मन का दुःख जानने वालों में यह कुमार एक हैं। मुझे देखते ही सुअर के बाल समान जूंगे को सहलाते हुए उन्होंने कहा, "अरे ! तुम कलकत्ता पहुँचकर भी वापस आ गये ?"

"परिस्थितिवश आधे रास्ते से ही वापस आना पड़ा"

"परिस्थिति या किसी का पुराना प्यार?" उनका यह सहज व्यंग्य था। उनके स्वभाव को जानते हुए मैं चुप ही रह गया।

उन्होंने फिर कहा, "अच्छा मेरे साथ चलो, तुम्हें आज एक बढ़िया-सा तमाशा दिखाता हूँ।"

"कहाँ पर? पहले बताओ ना।"

"और कहाँ होता"! समाज में। आज वहाँ एक बड़ी पंचायत है।"

मैंने 'हाँ' कही। हम दोनों वहाँ गए।

समाज के नौ-दस सदस्य, दो बूढी औरतें और एक अधेड़ उम्र गरीब आदमी ऑफिस के कमरे में बैठे थे। हम दोनों भी वहाँ गए। सभापति के न आने के कारण पंचायत शुरू नहीं हुई थी।

पंद्रह-बीस मिनट बाद दूर से एक बड़े पेट वाला आदमी, एक हाथ में लाठी लेकर आ गया। वह सीधे आकर बड़ी-सी बेंत की आराम करसी पर बैठ गया। पेट वाले आदमी को थोड़ा चलना पड़ता तो साँस फूल जाने से मुश्किल पड़ती थी। बहुत आराम करने के बाद उसने पूछा, "हाँ तो क्या बात है, ईश्वर को साक्षी मानकर साफसाफ कहो।" उसका इशारा उस अधेड़ आदमी की तरफ था।

उस आदमी ने धीरे से उठकर चारों तरफ देखकर कहा, "हमारी शादी को दो साल हुए। पर शादी के एक साल बाद ही मुझे उसकी चाल-ढाल में तबदीली का पता चला। घर में खाने को हो या न हो, एक दिन भी छोड़े बिना पिक्चर जाने लगी। पहले तो थिएटर-तमाशा कहते ही कतराती थी। पहले-पहल तो घर के लोगों से बोलने में शर्म करती थी, पर बाद में तो घर को सिर पर उठाकर गीत गाती थी। फिर भी मैंने उसे कुछ न कहा। मुझे गाँव वालों ने जोरू का गुलाम तक भी कहा। विश्वास न हो तो यहाँ माँ और सास से पूछ लीजिए।" उन दो बूढी औरतों की तरफ उसने इशारा किया। "ईश्वर की कृपा से एक बेटा हुआ। पर उसका स्वभाव वैसा ही रहा। मैं तो हैरान हो चुका था। माँ और गाँव-घर वाले मुझे बुरा-भला कहते, फिर भी मैं चुप ही था। पर परसों एक घटना हुई जो सपने में भी न सोची थी।"

"हाँ,कहो, क्या हुआ?...डरो नहीं। सब बातें साफ-साफ बता दो।"सभापति ने पान चबाते हुए कहा।

"नौकरी से आकर देखा कि बच्चा अकेला ही रो रहा था। उसकी माँ का पता न था। मैंने अपनी माँ से पूछा, 'वह कहाँ गई' तो माँ ने बताया, 'पिक्चर गई है। मुझे दिन में भी ऑफिस में बड़े बाबू से गालियाँ मिली थीं, ऊपर से घर में यह हाल! मैं क्रोध से भर गया। आज फैसला कर लेने का निर्णय कर मैं पिक्चर हॉल की तरफ गया। पिक्चर चल रही थी। मैनेजर को कहकर मैं अन्दर गया। भीतर अँधेरा था। खोजते-खोजते मैं फर्स्ट क्लास के पास पहुँच गया। फर्स्ट क्लास के कोने वाली सीट में मैंने देखा। वह हमारे ही घर के ऊपर वाले मुसलमान के साथ अंकमाल करके बैठी हुई थी।"

पंचायत में बैठे सब दंग रह गये। कछ पल मातम-सा छाया रहा। अन्त में मंत्री जी ने पूछा, "उसके बाद क्या किया?"

"और क्या करता मैं...! कुछ कहे बिना ही वहाँ से वापस घर आ गया। वह तो उस रात को घर में आई ही नहीं। दूसरे दिन जब मैं नौकरी पर चला गया था तो चोरी-छिपे आकर बच्चे को भी ले गई। हम सबने बहुत खोज की, पर कछ हाथ न लगा। इसी कारण आप सबसे मदद लेने आये हैं हम आज।" इतना कहकर वह बैठ गया।

पंचों में हलचल मच गई। एक-दूसरे से सलाह करने लगे। अन्त में सभापति ने हल्ला शान्त करते हुए कहा, "देखो, हम तुम्हारी बीवी को नहीं पहचानते। अनजाने लोगों को खोजना तो मुश्किल है। इसलिए, यदि तुम्हारे पास तुम्हारी बीवी का कोई फोटो है तो पंचों को दिखाओ, शायद कोई तो उसे अवश्य जानता होगा।"

उस आदमी ने कोट के अन्दर की जेब से एक पर्स निकाल लिया और उस पर्स को खोलकर एक छोटा-सा फोटो निकाला। उस फोटो को उसने सभापति के आगे रख दिया। सभापति ने ध्यान से फोटो देखा और ना के इशारे में सिर हिलाया। इसके बाद एक-एक करके सब ही देखने लगे, मेरा मौका आया। मैंने भी वह फोटो देखा-सपना-सा लगा। यह मुझे कल शाम अँधेरे में स्टेशन पर मिली इन्दिरा थी-हिन्दुओं की एक नारी मुसलमान के पंजे में! बेचारा, वह अबोध बालक कलकत्ता की भीड़ में अब भी रो रहा होगा !!

अनुवादक-प्रेमकुमार छेत्री

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