रिजक (कहानी) : मैत्रेयी पुष्पा

Rijak (Hindi Story) : Maitreyi Pushpa

बेहाल है लल्लन !

अमरौख गाँव का सीपर (स्वीपर), जो मोंठ के अस्पताल में काम करता है, अभी-अभी खबर देकर गया है कि आसाराम...बसोरों ने अस्पताल के सामने खड़े होकर नारे लगाए, गालियाँ बकीं और हिंसाबाद....आसाराम सबसे आगे था, उसका स्वर सबसे ऊँचा था। साथी ईंट पत्थर फेंक रहे थे। खिड़कियों के शीशे टूटे। कम्पोटर जी को बहुत चोट आई है। डाकघर साहब आग बबूला हो उठे। इतनी बात सह सकते हैं डाकधर लोग ? तुरन्त थाना पुलिस का सिपाही बुलवा लिया। दारोगा जी खुद हाजिर हो गए। आसाराम को कैद कर लिया। वह हवालात में...

लल्लन का रोम-रोम काँप गया। इस तरह की वारदात आज वह तीसरी बार सुन रही है। हर बार आसाराम उसे अन्धकूप में धकेल देता है। वह मुँह खोले बावरी सी खड़ी रह गई। सीपर लल्लन के बदहवास चेहरे को देखता रहा। देर तक वह कुछ नहीं बोली तो सीपर बोला, "सीताराम भौजी, अब चलता हूँ। उसे छुड़ाने की जुगत करना। बस इतना ही कहने आया था।

लल्लन को अचानक चेत आया बोली, "भइया, बिरादरी का कोई आदमी...जमानत के लिए सिकदंरा के पल्टू दाऊ जू ?"

"आँ हाँ, कोई नहीं।"

लल्लन के मुख से गालियाँ फूटने लगीं-बिंड़ा रह हवालात में। बड़ा मरता था बिरादरी के लिए। सगे खास अब कहाँ अलोप हो गए ? हत्यारे, सब अपने स्वारथ के हैं। गुड़ देखते के चींटे।

सीपर चला गया। लल्लन खड़ी रह गई अकेली।

पाँवों में सत्त नहीं बचा, उससे खड़ा नहीं जा रहा। माथे में घुमेर उठ रही है, और कान सनन-सनन ! क्या करे, क्या न करे ? सोच में डूबी मड़ैया में घुसकर धम्म से धरती पर बैठ गई। माथे पर हथेली धरे, घुटने पर कोहनी टेके बैठी रही, ज्यों कोई गमी हो गई हो ! सारे नाते-रिश्तेदारों, मिलने-जुलने वालों पर ध्यान आता रहा। पर कुछ हासिल नहीं। कोई जाना ही चाहता तो अब तक छुड़ा न लाता आसाराम को। सीपर कह रहा था तीन दिन...और उसके लिए आसाराम की जमानत कराना ज्यों सरग के तारे तोड़ना...

उदास निगाह से उस खटिया की ओर देखने लगी, जिस पर सास पड़ी हुई हैं। बेटा के आने की बाट में झुर्री भरी आँखें कौड़ी की तरह खुली हैं। पूछती हैं बार-बार, "आसाराम नहीं लौटा लल्लन ? वह तो रहता था, कमली के सगाई के सम्बन्ध में अम्मा, आधा दिन भी नहीं लगना। लो, आज तो पूरा महीना हुआ जाता है, कोई खबर नहीं। किसी से पूछताछ तो कर बेटी !"

अम्मा उठकर बैठ गईं, बूढ़े होंठों से जुगाली-सी करती हुई आसाराम की बावत ही पूछने लगीं, "ऐसा तो नहीं कि तू कुछ छिपा रही हो लल्लन ? तेरा चेहरा कुम्हला गया है।"

लल्लन अधिक दुखी हो उठी। वह अम्मा की अनुभवी आँखों पर कब तक परदा डाले रहेगी ? कब तक छिपा सकेगी सच बात ? नासिया ने माँ की हारी-बीमारी का भी ख्याल नहीं किया। मन में तो आता है कि सड़ने दे हवालात में। भाड़ में गई जमानत !

"अम्मा लेट जाओ, फिकर में हलकान हो रही हो। तुम्हारा तो वैसे ही जी अच्छा नहीं..." लल्लन ने सास की आंखों में आसाराम के बदले की आत्मीयता उड़ेल दी।

घुटनों में मुँह गाड़े बैठी है लल्लन। ऐसे कब तक चलेगा ? कब तक खींचेगी पूरी गृहस्थी का बोझ ? बेआधार, बेरोजगार कैसे बैठा रहे कोई ? भूखे पेट को कब तक मसोसे ? कैसे थे हम ! क्या धजा बन गई ? मुकद्दर की मार कहो सो भी नहीं। अपने रिजक से, अपने पेशे से बेईमानी करी तो भागेंगे नहीं ?

आज ही नहीं है लल्लन। पैंतीस-अड़तीस बरस उमर गुजार चुकी है। बीसियों साल तो इस खिल्ली गाँव में ही हो गए। गौना होकर आई थी तो हद से हद सोलह सत्रह बरस की रही होगी। बीस बाइस की होते-होते सास का आसन ऐसे ले लिया जैसे पिरौना, वाली दाई बहू को गद्दी सँभलवाने तैयार ही बैठी थी। खैनी- मिस्सी खाने में ही नहीं, अम्मा के हाथ का जस त्यों उतार लिया अपने हाथों में अपनी तलहथियों में, ऊँगलियों में। लल्लन उँगलियों की पोरों से अपनी हथेली टटोलती रही। छू-छूकर देखती रही, जैसे पहचान रही हो कि ये वे ही हथेलियाँ हैं जो..

उसे अम्मा की असीस याद आ गई ? "बेटी, मेरा आसीरबाद तेरे संग है हरदम, तेरे ऊपर। बस दो बातें याद रखना लल्लन ! बच्चा जनाते बखत खुरपी हँसिया खौलते पानी से धोकर, पोंछकर फिर नरा (नाल) काटना। और जच्चा के कोठे में हवा का परगास रहे। वैसे तू हौसले हिम्मत वाली जनी है। अदब-कायदा वाली है। तेरे ऊपर मेरी बड़ी उम्मीद है बेटा !"

इस बात को वह आज भी मानती है, उसे सास की असीसें फल गईं। अम्मा के नाम से भी आगे गया उसके हाथ का जस। लल्लन के होते हुए गाँव-आनगाँव वालों को पिरौना वाली दाई की कमी नहीं अखरी।

आज सोचती है तो कलेजा फटता है। ऐसे लगता है, जैसे वे सब बीती बातें हों, सपने हों। वे दिन कहाँ हिरा गए जब अमगाँव से अमरोख तक के माते-मोदी उसके लिए गाढ़ी-गढ़ला जोतकर लाते थे। मड़ोरा कायले के लोधी कुर्मी उसे अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठाकर ले जाते थे। उसी मान-सम्मान के चलते दिन-रोज उसका कलेजा पुख्ता होता जाता था। हाथ निपुणता, कुशलता से चलते थे। फँसे, अधफँसे शिशु को अनुभवी ऊँगलियों से बाहर खींचकर जच्चा को निष्कंटक निरबार लेती थी। लल्लन की बाँहें आज भी कसमसाती हैं, उँगलियाँ फड़कती हैं। पर काहे को...ये सब तो पिछती हिलोरें हैं। याद करके दुःख ही पाना है।

गहरी साँस भरी लल्लन ने, जगदीश तिवारी क्या भूल गए होंगे ? उनकी मरती हुई बहू के प्रान वापस लाई थी। जच्चा के संग-संग ऐसे जूझी थी, ज्यों उसने सही हों जानलेवा पीरें। उसने ही जना हो तिवारी का नाती ! घर लौटकर आई तो ये ही अम्मा आँखें फाड़े देखती रह गईं। बोलीं, "आज क्या जयराम से कुश्ती लड़ी थी ? मड़ोरा से खिल्ली तक भी पसीना नहीं सूखा, ठंड के दिनों में ?"

हाँ, अम्मा हाँ ! महामाई का सुमिरन करके और तुम्हारा नाम लै के हमने जमराज से कुश्ती लड़ी थी। बहू बच गई। अम्मा, बस हमारी मेहनत सुकारथ हो गई। जुग-जुग जीवे तिवारी का नाती।"

अम्मा का कलेजा फूलकर दोगुना-चौगुना हो गया। पीठ थपथपाकर बोलीं, बेटी जनी की जात ! एक पाँव नरक में तो एक सुरग में। दाई ही भैमाता का रूप धरकर परगट होती है उस बखत।" भैमाता के नाम का नारियल तोड़ा था उस रात। बच्चों में परसाद बाँटा था लल्लन ने।

वही लल्लन आज घुटनों में मुँह दिए बैठी है।

सिकंदरा और खिल्ली के अहीरों में सिर-फुटव्वल दुश्मनी थी। ऐसा बैर कि ब्याह-काज, पाँत-पंगत तो कहे कौन, मौत-गमी तक में आना-जाना नहीं। रंजिश निभाने के लिए सूत सलाह रखा जाता है, यह बात कोई खिल्ली सिकंदरा के अहीरों से सीखे। मजाल है कि कुत्ता, बिल्ली, माछी, मच्छर तक उड़कर जाए एक दूसरे की सीमा में ! हाट-बाजार भी मिल जाते थे तो मुँह फेर लेते थे, एक-दूसरे को देखते ही।

पर भैमाता की भी अनेक लीलाएँ हैं। उसी का जनमा आदमी उससे बच पाएगा भला !

लो, उन्हीं दिनों हरदयाल अहीर की बहू की जान खतरा खा गई। पहलौटी का बच्चा और बहू थी अनजान, अखेल, अल्हड़। सिर्रिन ने तीन दिन तक तो किसी को इल्म नहीं होने दिया कि पीरें आ रही हैं। उसका भी क्या कसूर ? घर में सास-ननद होतीं, कि देवरानी-जेठानी रहतीं तो पहचानतीं, पढ़ लेतीं पीर भरा चेहरा, दर्द-भरी आँखें ससुर मर्द की जात, क्या जाने, क्या पहचाने ! उस बिचारों ने कभी दर्द-पीर सहे हों तो जानें। ऊपर से बहू का घूँघट परदा। उसका आदमी लाम में। महामाई की किरपा समझो कि पड़ोसिन चूल्हे की आग माँगने आ गई। बहू का बेहाल रूप देखा तो सन्न। तुरन्त बाहर की ओर भागी और हरदयाल को सचेत किया, ओ किरपाल के दादा, बहू तो रेत की मछली सी छटपटा रही है। दइया, साँसें तक नारी-नब्ज दाई को बुलाओ जल्दी-जल्दी से जल्दी।"

मौत का खौफ सब डरों से भारी होता है। फिर कहाँ खिल्ली कहाँ सिकंदरा। कुछ नहीं सोचा हरदयाल अहीर ने। घोड़े की पीठ पर जीन डाली और दौड़ लिए। दौड़ते-दौड़ते आ गिरे लल्लन की चौखट पर। आज भी सजीव है लल्लन की आँखों में वह तसवीर हरदलाय का लुटा, उजड़ा बदहवास मुख देखते ही वह घोड़े पर उनके पीछे बैठे ली थी। मुड़कर न गाँव के लोगों की ओर देखा, न आसाराम की तरफ।

उसके हाथ में जस था, सिर पर अम्मा की असीस। बहू को जिन्दगी मिली। हरदयाल के घर फूल-सी नातिन ने जन्म लिया। हरदयाल की बदौलत ही सिकंदरा खिल्ली के अहीरों में आना-जाना और मेल-मिलाप हुआ।

गहरी साँस लेकर एक नजर सास की ओर देखती रह गई लल्लन। पिरौना वाली बूढ़ी दाई ऐनक की टूटी कमानी में बँधा धागा अपने कान में लपेट रही है। क्या देखना चाहती हैं अम्मा ? अब बचा भी क्या है ? ऐनक लगाएँ न लगाएँ, बहू का रोया हुआ लाचार चेहरा देखकर क्या करेंगी ?

मैंने तो तुम्हारी नसीहत, तुम्हारी कहनावत सिर- आँखों रखी थी अम्मा, आज तक। याद हैं तुम्हारे बोल-बेटी अपने रिजक में भेदभाव, बैर-मित्ताई ऊँच- नीच का ठौर नहीं। अपने पेसा से बेईमानी मत करना। रोजी का ठौर भगवान का ठौर है।"

पर अम्मा तुम्हारा ही बेटा उसी की जिद...

अमरौख का सीपर कह गया है कि आसाराम... लल्लन ने आधी बात पर ही विराम लगा दिया। भला हुआ जो मोंठ के कसाई को बकरी बेच दी। रुपए लेकर आता ही होगा बकरी खोल ले जाने का आज का ही वादा है। पेटों का गुजारा तो किसी तरह हो रहा है, ऊपर से आसाराम की जमानत...?

मड़ैया के बाहर बने चबूतरे पर हरिया लेटा पड़ा है। अच्छी मार खाई है हरामी ने। भोर से उठकर रोटी–रोटी, ज्यों रोटी का कोई गीत हो, सारे दिन गुनगुनाना हो उसे। पेट में कुआँ खुदा है। सब दिन भूखा ही भूखा। दस साल का लड़का और खुराक पूरे मर्द के बराबर।

इस कमलिया की बच्ची के मूँड़ में मगज नहीं। माँ पर क्या बीत रही है सो थोड़ेई खबर है। बारह–तेरह साल की जवान ऐसे दिख रही है जैसे पाँच–छ: साल की अबोध हो। बस, बकर–बकर जुबान चलाएगी।

लल्लन के कलेजे पर अंगार उलटे पड़े हैं आज...इस कमलिया की बच्ची ने ही बताया–सिखाया है हरिया को। नहीं तो यह पूछने का क्या मतलब कि ‘अम्मा, तुम्हारी नौकरी कब लगेगी?’ कह रहा था, “अम्मा, जिज्जी कै रयी थीं कि फिर तो हम मोंठ रहा करेंगे। वहाँ लडुआ–पेरा बिकते हैं। अम्माऽऽआँ! दिलाओगी न लडुआ–पेरा?” कहकर अपने मैले होंठ चाटने लगा।

लल्लन ने आव देखा न ताव, कमली को धर लिया। झोंटा खींचती हुई बोली, “ला अब खबावें तुम्हें गू। बाप ने आँखन हेरे हैं लडुआ–पेरा? घर में चार पसेरी नाज था, दलिद्दरी बाप उसे भी बेच गया।”

कमली अपने बाल सहलाती हुई सी–सी, सी–सी कर रही थी, चुपचाप रो रही थी। मैली धोती से आँखें पोंछ रही थी और लल्लन रोष में भरी आसाराम को कोस रही है, “जोगिया पिछौरा ओढ़ के बन गया संत–महंत। सोच रहा है बामन–बनियाँ इसकी नेतई कबूल लेंगे। मुकत हुआ बसोर की कौम से। बसोर की कौम चबा रही थी इसे।”

किसी के पाँवों की आहट है–चर्र–मर्र। लल्लन ने उझककर देखा, दरवाजे पर मोंठ का कसाई खड़ा है। वह हथेलियों का सहारा लेती हुई तुरत–फुरत उठी और सिर का पल्ला माथे तक खिंचती हुई बाहर आ गई।

कसाई राम–राम करके बाहर बने मिट्टी के चबूतरे पर बैठ गया। लल्लन ने कमली को आवाज दी, “अम्मा से बीड़ी माँग ला मोंड़ी।”

‘ना–ना’ करते हुए कसाई ने अपनी अंटी से कुछ नोट निकाल लिए और उसकी ओर बढ़ा दिए।

लल्लन ने रुपए ध्यान से गिने। गिनकर बकरी की ओर आँख से इशारा कर दिया, यानी खोल के ले जाओ।

हरिया कब उठकर खड़ा हो गया, उसने ध्यान नहीं दिया। बकरी रस्सा छूते ही मिमिया उठी। लड़का गिद्ध की तरह टूटा और बकरी के गले से लिपट गया। बकरी मैंऽऽ मैंऽऽ करके ऐसे चिल्ला रही थी जैसे फूट–फूटकर रो रही हो!

लल्लन ने हरिया को दो थप्पड़ जड़ते हुए डपटा, “मूरख, मोल कर दिया तो खरीदार ले जाएगा नहीं?”

मगर हरिया सुने तब न! अपनी पतली–पतली उँगलियाँ बकरी के कानों पर कस लीं।

कसाई छुड़ा–छुड़ाकर हार–थक गया। लड़का है कि जोंक की तरह बकरी से चिपटा हुआ। दोनों बाँहों में उसकी गर्दन को बाँधे हुए। अन्त में कसाई की बाँह में दाँत गड़ा दिए हरिया ने। बकरी ने खरीदार के पाँव खूँद डाले। कसाई झल्ला उठा। हरिया की गर्दन पर एक झापड़ मारकर एक ओर को कूदा।

लल्लन ने हरिया को जी भरकर पीटा। वह जोर–जोर से रोने लगा। हरिया के संग बकरी ऐसे डकरा रही थी, ज्यों कसाईखाने में जिबह हो रही हो!

हारकर कसाई ने कोहनी तक हाथ जोड़ लिए। अपने रुपए वापस माँगे और लेकर चलता बना।

लल्लन जैसे लुट गई हो, खाली हाथ मलती हुई खड़ी रह गई। उसका मन हुआ, हरिया के प्राण निकालकर धर दे। ठठरी–बँधे ने बना–बनाया काम बिगाड़कर धर दिया। अब चबा ले बकरी के हाड़!

सब तरफ से निराश, हताश होकर वह खिसियाई–सी मड़ैया में जा बैठी। आसाराम को कोस–कोसकर सस्वर रोने लगी।

अम्मा धीर बँधा रही थीं, “अरे तू रोती काहे को है? बिटिया के सगाई–सम्बन्ध की बात है, दिना देर हो गई होगी। बोल–कुबोल मत निकाले मुख से। देउता मना कि आसाराम राजी–खुसी लौट आवै।”

उसके मन में आया, कह दे असल बात। सुना दे अम्मा को पूत की करतूतें, पर थम गई लल्लन। क्या फायदा? रो–रोकर आँखें फोड़ लेगी डुकइया। बैठी रही ज्यों विष को कंठ में रोके हो। देख लो हरिया को, बकरी का रस्सा तो नहीं छोड़ा। कलाई में बाँधे बाघ की तरह तना बैठा है। लीलेगा हमें?

कमली बूढ़ी दादी की देह से सटकर खटिया के पाए पर टिक गई है, जैसे अम्मा की आड़ में रहकर बच जाएगी लल्लन की जलती निगाहों से।

दिन डूबने को आ गया। लल्लन भारी मन से उठी, चूल्हे के पास बैठकर कंडे फोड़ने लगी। चना की भाजी सूप में रखी थी, उसे बीनने लगी। फिर काटने बैठ गई बोरे के टुकड़े पर दराँत को पाँव तले दाबकर।

माँ का मन शान्त देखकर कमली झोंटा–पछाड़ पिटाई भूल चुकी थी। वह फिर बकर–बकर बोलने लगी, “अम्मा, चलते बखत दादा कै नहीं रहे थे कि चितगवाँ में चार–पाँच गाँवों की मिटिन है। कमतुआ ने बिरादरी का फैसला नहीं माना। डाँड़ धरा जाएगा अब। दादा चितगवाँ के बाद अमरौख, अमरौख से कायले और कायले से...”

बूढ़ी दादी ने अधबीच ही बात काटकर पूछा, “कमतुआ, वो नन्हाई का जमाई! उस पर डाँड़! लो, घर में दाने, न तन पै चीथरा।”

लल्लन चुप रहना चाहती थी, मगर उससे रुका न गया, “बिरादरी वालों की मेहरबानी हुई है अम्मा! और सबसे ज्यादा तुम्हारे पूत की, सिकंदरा वाले पल्टू दाऊ जू की। भूखे–प्यासे बेबस आदमी से डाँड़ माँगते हैं, भले अपनी खाल छीलकर दें। नहीं तो बिरादरी के नामी–गिरामी लोगों के जूता–पनइया डलिया में धरकर पूरे गाँव की परिकम्मा करें। लाचार न होता तो भेजता अपनी जनी बच्चा जनाने? ऐन मानता तुम्हारा हुकम–ऐलान?”

“मँड़ोरा के भदइयाँ ने कच्ची पाँत करी तब जाकर बिरादरी में शामिल हुआ। अब कर्जा और चढ़ाए फिर रहा है अपने कन्धों पर,” बूढ़ी अम्मा का मुख चिरइया की चोंच की तरह खुल आया। मुद्रा ऐसी ज्यों सोच रही हों कि ‘हे मोरे रामजी, अपने रिजक से ऊपर डाँड़। परलय ही समझो। गजब!’

चुप्पी छाई थी मड़ैया में। चारों मनिख अपनी–अपनी जगह माटी के पुतलों–से गुम्म थे। लल्लन विषाद में डूबी चूल्हे में जलती कंडों की आग को देख रही है। कमली माँ के मुख को देखती हुई सहमी–सी बैठी है। हरिया जिद्दी बछेड़ा की तरह खूँटा तुड़ाया–सा देख रहा है माँ की ओर। बकरी मुँह को तेजी से दाएँ–बाएँ हिला–हिलाकर परेशान–सी देख रही है।

बूढ़ी अम्मा के भीतर जब–न–तब पिरौना वाली दाई कुनमुनाने लगती है। थमी हवा का मिजाज बदलती हुई बोलीं, “लल्लन, हमारे जाने मोदी की बहू को नवाँ महीना जा रहा होगा?”

लल्लन सुनकर भी अनसुना कर देना चाहती थी, पर इतनी कठोरता न बरत पाई, लापरवाही से बोली, “को जाने अम्मा!”

“काछिन की बहू तो कै रयी थी कि लागत असाढ़ दिन पूरे ही लेंगे। पहलौठी का बालक नहीं खेंचता ज्यादा दिन। लागत असाढ़ ही हो लेगा, देख लेना।”

लल्लन खिसियाई हुई–सी हँस दी, अम्मा अब तक भी अपना सास्तर नहीं भूलीं।

पिरौना वाली दाई निरीह भाव से बहू का मुख जोह रही थी।

सास का विवश चेहरा देखकर उस पल लल्लन को तरस आ गया, संयत होकर बोली, “काहे को दिन गिनती हो अम्मा? अपन को क्या लेना–देना? आम खाने ही नहीं हैं तो पेड़ों की गिनती बिरथा ही ठहरी। कौन महीना? कब होगा? तुम भी...अम्मा!”

अम्मा धीमे–धीमे बड़बड़ाईं, जैसे खुद से ही बातें कर रही हों, “सो तो है। पर बेटी, नहीं मानता मन। रिजक जो जिन्दगानी–भर करते रहे, उसे साल–खाँड़ में कोई कैसे भूल जाए? क्या खबर थी कि खोजी ऐसा कौल भरेंगे...”

अम्मा के मन में कच्चे करेले की–सी करुआहट भर आई है, जानती है लल्लन। वे उसे जबरदस्ती लील रही हैं, सो भी पता है उसे। विवश निगाहों से देखने लगी सास की ओर। क्या करें अम्मा भी! उन्होंने तो ऐसे ही दिन देखे हैं कि गाँव में किसी बहू को दस दिन चढ़े तो उसकी चर्चा नाऊ टोला, बसोर टोला, धोबी टोला में चटपट पहुँचती। खुशियाली मनने लगती। होंसे फूले फिरने लगते कामगर। जी भर–भरकर दुआएँ, असीसें दी जातीं।

लल्लन आह भरकर रह गई, कराहती–सी बोली, “अब तो अपन राजा हो गए अम्मा! गलीज काम छोड़कर महाराजा! हँसी–खुशी, दुक्ख, गम, गीत, परवों में शरीक होने के बखत हवा हुए। अकेले–अकेले का रोना–हँसना रह गया है। सो, चाहे हँसो–गाओ, भले रोओ–कराहो। अपनी–अपनी ढपली, अपना–अपना राग!”

अम्मा खटिया से उतरकर धरती पर आ बैठीं। हरिया के कुआँ–पेट से जो उबले बेर छिपाकर रखे थे, कमली गुठली निकालकर उन्हें अलमूनियम की फूटी–पिचकी कटोरी में धर लाई।

“लो, खा लो बूढ़ी अम्मा!”

“भूख नहीं है बेटा, तें खा लै। काय री, लल्लन, भाजी चूँटने गई थी, सो बनाई नहीं? खा लेते सब जने।”

उत्तर लल्लन ने दिया, “बोई तो चढ़ी है चूल्हे पै। काहे की भाजी अम्मा!” गहरी साँस लेकर रह गई वह।

“गाँव के लोग दुसमन हो गए हैं। जनीमानसें से बोली मारती हैं। खेत निराती काछिनें मुँह ऐंठ रही थीं। काछी की मोंठ वाली बहू की जुबान दो गज लम्बी है। सरग–पताल चलती है।”

“चलेगी काहे नहीं, काँजी हौद के फाटकदार की मोंड़ी है!” अम्मा ने झुर्री–भरा हाथ लहराया।

“तो क्या लफटंट कलट्टरनी हो गई?” जीभ में दस लपेटा देकर बोली, “आय–हाय, अब तो खेत–पट्टी वाले भी भड़ियाई (चोरी) से भाजी खोंटते फिर रहे हैं! गरब तो गाड़ी भरा था। नहीं पुसानी डाकधरनी जी, परदा में?”

काछी की बहू के बोल लल्लन के मुख से सुने तो पिरौना वाली के भीतर बैठी दाई गुर्रा उठी, काँपती आवाज में बोलीं, “देख तो छिनार कछनियाँ को! कल के दिन जनने बैठेगी तो पाँवों में मुँह गाड़ देगी, हा–हा खाएगी कि बचा लो अम्माऽऽऽआँ, अबकी बेर बचा लो!”

लल्लन को अनचाहे ही हँसी आ गई। दुख–भरी हँसी। अम्मा का गरब–राग बिरथा है। जानती तो है कि न हम दाई और न काछी की बहू हा–हा खाने वाली; पर अब क्या कहे? कैसे तोड़े बूढ़ी डुकइया का भिरम? कपाल पर दोनों हथेली टिकाए सोच में बैठी है लल्लन। और अम्मा को शायद भारी चुप्पी खल रही है। वे बार–बार ऐसे देखती हैं, जैसे कुछ कहने को व्याकुल हों। मुरझाए हुए होंठ काँपकर रह जाते हैं।

अम्मा के मन में क्या घुमड़ रहा होगा–वही न, जो उसके मन को धुन रहा है? जिस पर अम्मा ने कई बार आसाराम के साथ कलह की थी? जी भरकर उस घड़ी को कोसा, जिस बुरे बखत तीन–तीन बीघे पट्टे इस गाँव के चारों बसोरों के नाम लिखे गए थे। डग–भर डाँग का टुकड़ा क्या मिला, बिरादरी का हर आदमी अपनी औकात भूल बैठा!

कंकरीली भूमि, जिसको छूते ही हल की फाल टेढ़ी हो जाए, जिसमें बीज मर जाए, पानी ढरक जाए, उस पर गाड़ी–भर गुमान, फोकट के पट्टीदारों से सीने गज–गज चौड़े। सिर्री पागल हो गए हो तुम लोग, अम्मा बड़बड़ाती थीं उन दिनों।

करेला और नीम चढ़ा। सो एक और करामात हुई। लल्लन कहे तो क्या कहे? अम्मा से आँख मिलाने का हौसला उसका नहीं। लोगों के संग उसकी भी मति मारी गई थी। 

सचमुच वह महूरत बुरा था, जब आसाराम ने माँ से कहा था, “अम्मा, गाँव–गाँव से दाइयाँ टिरैनिंग के लिए जा रही हैं। शहरी चाल से बच्चा जनाना सिखाया जाएगा उन्हें। लल्लन को भी जाना होगा। सिरकारी ऐलान है। नहीं तो दाईगीरी नहीं कर सकेगी।”

अम्मा की आँखें पलट पड़ीं। गुजुर–गुजुर देखती रहीं–कभी आसाराम को, तो कभी लल्लन को। उनसे कुछ कहते न बन रहा था। उन दिनों अम्मा के सामने पड़ने से बचती थी वह। अम्मा अचम्भे में भरी–सी चुपचाप बैठी रही थीं।

आसाराम ने एक दिन फिर दोहराई अपनी बात, ऊँची आवाज में, जैसे अम्मा बहरी हों!

वे बोलीं, “कैसी सहरी चाल बता रहा है हमें! वहाँ क्या आदमी का बच्चा नहीं जनमता? बरसों से जन्त–जापे कर रही है लल्लन, क्या सीखना बाकी रह गया रे? कठिन से कठिन सोरें निबटाई हैं उसने। सहर की डाकधरनी कौन–सी भैमाता की धजा थमा देगी?”

आसाराम ठठाकर हँस पड़ा। हँसी लल्लन को भी आई। अम्मा बुरा मानेंगी, सो उसने उनकी ओर से मुख फेर लिया। वाह री अम्मा!

हँसते–हँसते आसाराम बोला, “अम्मा, नए जमाने की चाल तुम क्या समझो! मँडोरा, अमरौख, चितगवाँ, सिकंदरा छोड़ तुम तो कहीं गई नहीं। आजकल पेट में चीरा लगाकर डाकधरनी ऊपर से ऊपर ही बच्चा काढ़ लेती हैं, सो पता है तुम्हें? और तो और, पेट में दूरबीन लगाकर यह भी बता देंगी कि माेंड़ा जनम लेगा या मोंड़ी। तुमने सुनी ऐसी बात?”

अम्मा की बूढ़ी आँखें अचरज से फैल आई थीं। बेटे की ओर मुँह बाए देखती रहीं, फिर टेढ़े होंठ करके हँसकर बोलीं, “चलो आज तो सुन लिया जे चिमितकार। मसखरी की बातें हमें अच्छी नहीं लगतीं आसा।”

“महामाई की सों अम्मा, हम मसखरी नहीं कर रहे।”

“परलय मत करै। दूरबीन न हो गई भगवान की आँख हो गई! भैमाता के कुदरती खेल में मनिख दखल दे...मोरे राम, घोर कलजुग ही आ गया!” अम्मा बुदबुदाईं।

आसाराम आगे–आगे झोला लेकर चला था। लल्लन सास के पाँव छूकर मोंठ ‘टिरैनिंग’ के लिए जाने लगी। अम्मा के बूढ़े लस्त–पस्त होंठों पर असीस थी, न बद्दुआ। चेहरे पर खुशी थी, न गम। चलते–चलते लल्लन ने मुड़कर देखा, वे हरिया के कन्धे पर हाथ धरे झुकी हुई–सी खड़ी थीं, जैसे अपने आप में सिमट रही हों!

मिडवाइफ सेन्टर पर लल्लन ने अनेक नई बातें सीखीं। बहुत–सी नई–नई चीजें देखीं–झक्क सफेद कैंची, साबुन की लाल बट्टी, रोएँदार नीली–पीली तौलिया, डिटौल की पीली शीशी, दूध–सी सफेद चिलमची, बेदाग सफेद गौज और नाल बाँधने के लिए सफेद काड (धागा)।

याद करती है तो आज भी कौंधती हैं वे चीजें आँखों में। उसे लगा था, वह तो निपट अज्ञान थी। अनाड़ीपन के चलते ही जना रही थी बच्चे।

मेमसाब (मिडवाइफ) ने केसबक्सा थमाकर आँख–दवा, पौडर, अनीमा और इंगेसन (इंजेक्शन) के बारे में बताया था। डिलेवरी के टैम चूड़ी–छल्ला नहीं पहनना है, इनफेसन (इन्फैक्शन) का डर लगता है।

उसने सोचा–लो, अम्मा को इन बातों का क्या इलम? वह बताएगी तो मानेंगी भी नहीं। बलिहारी! बलिहारी!! गाँँव में जाकर बरतेगी तो मुँह बाए रह जाएँगी जनीं।

लल्लन की टिरैनिंग खतम हुई। वह गाँव आई, डाकधरनी की अदा से उतरी थी मोटर से। सफेद धोती, उलटा पल्ला, बालों का जूड़ा, पाँवाें में साफ नीली चप्पलें। घूँघट, न परदा। बहुत जने नहीं पहचाने उसे। घर आई तो सास मुँह फाड़े रह गईं।

आसाराम सिर ऊँचा करके खड़ा था।

गाँव में खबर फैल गई, लल्लन मेम बनकर आई है। मड़ैया के आगे से जो निकलता, एक नजर उसकी ओर जरूर देखता। औरतें राह–गैल में उसे रोककर बतियातीं। अपनी हारी–बीमारी तक बताने लगीं, जैसे वह डाकधरनी हो!

जिस तरह आई थी, उसी तरह रही। उसी पोशाक में, उसी अदा से, उसी इलम के साथ। बच्चा जनाने बुलाई जाती तो कायले वाली काकी की बहू उसका केसबक्सा उठाकर पीछे–पीछे चलती। परसूती (प्रसूति) वाले घर में वह मेमसाब की तरह व्यवहार करती, “पानी खौलाओ पतलेई में, खिड़की–दरवाजा खुला रखो। भीड़–मीड़ नहीं। टिटनस का इंगेसन लगवाया? बैठकर बच्चा नहीं होगा, जच्चा को खटिया पर लिटा दो।”

लल्लन का हुक्म डाकधरनी का फरमान! पुजारिन, मातौन, ऊँच–नीच जाति की सब जनी बाँदियों की तरह उसका हुकुम बजातीं। बच्चा होने के बाद वाले निर्देश ध्यान से सुनतीं–तेल मत लगाना बच्चा को। काजर–माजर भी नहीं, इनफेसन हो जाते हैं। लोई मत फेरना माथे पर, कोमल चमड़ी रहती है, चिर जाएगी। जच्चा–मच्चा के पास गोबर–मोबर न लाना। टिटनस बन जाएगी। ऊपर के दूध से ढारिया (डाइरिया), क्या कहते हैं कि दसत लग जाएँगे। जच्चा के लिए लडुआ–मडुआ भी मत बाँधना। कंटीपेसन (कांस्टीपेशन) का डर रहता है...कबज। और देखो, पोलिया (पोलियो) की बूँदें जरूरी पिवा लाना मोंठ जाकर।

लल्लन दाई नहीं, सचमुच डाकधरनी थी गाँव की। इसके अलावा हँस–हँसकर झगड़ती थी अपने किसानों से। लड़की के जन्म पर सोहर गाने से, नेग देने से जो लोग अनखाते थे, लल्लन उनसे नई चाल की बातें करती–फैमिली पिलानिंग का जमाना आ गया है। मोंड़ी–मोंड़ा में भेद नहीं माना जाता। सूधे दोसों इक्यावन। बढ़िया धोती–बिलोज। नाज–पानी फसल के ऊपर लूँगी और पूरी पपरिया–परब–त्यौहार।

सोहर गाकर बरार की पहली सोर उठाती–“जसोदा जी से हँस–हँस पूछत दाई/ नन्दरानी जी से हँस–हँस पूछत दाई/रातै तो मैं लली जनाय गई, लालन कहाँ से लाई/जसोदा जी से...”

क्या दिन थे! दिया–लिया उसके आँचल में न समाता था। मड़ैया की जगह दो कोठे का घर बन जाए, ऐसी इच्छा थी लल्लन की। बसोर टोले की हवा बदल गई थी। अपनी जाति के चार घरों में बहू–बेटियाँ उसे सिट्टर–सिट्टर कहकर पुकारतीं। लल्लन का रुतबा क्या कहिए! उसका मुलाहिजा क्या पूछिए! गाँव के घरों में घूमने निकलती तो मोदिनें, मातौनें उसके लिए पौर में ‘पिढ़ी’ डाल देतीं। वह पी वी, परगनेंट, आरन, कैल्सम और बिटामन वाली अस्पताली बोली बोलती।

आसाराम की भी वेशभूषा बदल गई। वह सफेद कमीज, सफेद धोती पहनता। रंगीन पगड़ी बाँधकर ब्याह–कारज, परब–त्यौहार रमतूला बजाने जाता। कमली और हरिया भरपेट रोटी–साग तो क्या, गुड़, घी खाते। अम्मा के लिए खैनी–तम्बाकू आता। छिरिया गेहूँ चरती। लल्लन मोंठ की मेमसाब की तरह घड़ी–घड़ी चीनी की चाय पीती। वह चाय बनाने के लिए अलमूनियम की टोंटीदार केटली मोंठ के बाजार से लाई थी। काँच के चार गिलास।

वे बातें सपना हो गईं। मन में अवा–सा सुलगता है अब तो!

कहते हैं न, सुख के दिन लम्बे नहीं होते। लो, उन्हीं दिनों बिरादरी वालों के सिर पर कोई देव सवार हुआ था। आसाराम बौराने लगा। बसोरों ने जिद ठान ली। कैसी जिद? अपनी रोजी को ही लील लेने की जिद! बोले, हमारी जनीमानसें बच्चा जनाने घर–घर नहीं जाएँगी। नाल नहीं काटेंगी। बसोर की जाति है, तो क्या हम गन्दा काम करेंगे? गन्दगी उठाने को पैदा हुए हैं?

“अरे! शहर में डाकधरनी नहीं जनाती बच्चा? गन्दा काम करती है कि नहीं?” गाँव के लोगों ने कहा।

“हाँ–हाँ, जनाती हैं बच्चा। हमारी औरतें जरूर जनाएँगी, मगर सिरकारी नौकरी मिल जाए तब। मोंठ की दाइयाँ दो–दो हजार पाती हैं, और हमारी औरतों को क्या मिलता है? नाज–पानी के ऊपर खून–पानी में हाथ साने रहें? नहीं जी, नहीं! बामन–बनियाँ हो चाहे चमार–कोरी, हम किसी के दरबज्जे नरक उठाने के बदले अनाज उगाहने नहीं जाएँगे। भिखारी नहीं हैं।”

“वैसे भी जमाना बदल रहा है अब। हमारी जाति वालों की बात सबसे पहले सुनी जाएगी। हम सिरकार दरबार जाएँगे। नौकरी माँगेंगे, और मिलेगी...” बसोरों ने सुना दिया।

आसाराम ने लल्लन को नेठम रोक दिया, “बिरादरी से बाहर होकर रहोगी? अपने इलम की कीमत तुम ही नहीं जानोगी तो दूसरा कौन कदर करेगा? बसोरिन ही रह जाना।”

याद करती है लल्लन–साँची बामन तो आसाराम ही बना था। पीला रामनामी पिछौरा ओढ़ लिया। सिकंदरा के रैदास ढुलकिया से चार–छ: निरगुन पद सीख लिए। फिर जो जहाँ खड़ा हो जाए, अपना ज्ञान–ध्यान बखाने, भासन–पिरबचन दे। अपने गाँव के आसपास ही नहीं, दूर–दूर तक भी जाने लगा। कायले से आगे के गाँवों में जाकर अलख जगाया कि हम नीच कौम के नहीं, छोटे नहीं, दीन–दलित नहीं, तो क्यों करें गंदा काम?

ठीक बात है। नीच कौम होकर रहना भी किसे अच्छा लगता है? छोटी जाति में जनम लेना करम का दोष है। लगभग सारे बसोरों ने आसाराम की बात पर अमल किया था। देखते ही देखते आसाराम भगत कहलाने लगा। बिरादरी के हित में लगा था। घर–द्वार छोड़, बाल–बच्चों की चिंता त्यागकर गाँव–गाँव डोल रहा था। सिकंदरा के पल्टू दाऊ जू तक उसके मुरीद हो गए।

वाह रे पल्टू दाऊ जू! मति भिरम हो गया। तुम तो गुनी ज्ञानी ब्यौहारी आदमी थे। आसाराम के पाखंड में कैसे पड़ गए? क्या पट्टेदारी तुम्हारे सिर चढ़कर बोलने लगी? इस बात में अंदेसा नहीं कि दाऊ जू, तुम आगे न आते तो मंसा या गैर मंसा अनेक कंठों से आसाराम की बातों का समर्थन न होता। उस जिद पर मौहर तो ठुकी तुम्हारा ही मुख देखकर।

अम्मा की दशा देखी न जाती। वे हाय–हाय करती रह गईं, कि अब क्या हो? दइया, बच्चा जनाना, न रमतूला बजाना। पेट कैसे भरे जाएँगे?

फिर क्या था, गाँव–आनगाँव की बसोरिनें मोदिन, मातौन, पंडिताइनों की चाल चलने लगीं। रानी–महारानी बनी अपनी–अपनी मड़ैयों के पट–रंगपुरों में विराजने लगीं। नहाना–धोना, धुतिया निखार–निखारकर पहनना। महावर बेंदी करते रहना। मेहनतकश जनीमानसों को सोहता है साज–सिंगार करके दब–ढँककर बैठे रहना? यही करते–करते अनाज बड़ा गया। यानी खतम। भूख जोर पकड़ने लगी।

सबसे पहले मड़ोरा के भदइयाँ ने नियम तोड़ डाला। उसकी जनी सबको अँगूठा दिखाकर डिलेवरी कराने चली गई। किसानों के यहाँ से नाज–पानी ले आई। जिसने सुना, वही बमका। बिरादरी में हाहाकार मच गया। सबके–सब भदई पर ऐसे टूटे, जैसे वह गाय मारकर कलंकी हो गया हो। दंड धरा गया एक हजार। उसने नहीं दिया। फिर पंचायत जुटी, और कच्ची–पक्की पाँत धर दी बेचारे के ऊपर।

कच्ची पाँत तो उसने कर दी, पर एक दिन आसाराम की घिची (गर्दन) पकड़कर मरोड़ डाली, “ससुर जू, रिजक छोड़ देंगे तो क्या तुम्हें चबाएँगे? हमारे बाल–बच्चा भूखन मर रहे हैं। तुम्हें नेतई सूझ रही है!” कई घरों में ऐसा हुआ–कहीं चोरी–छुपे, तो कहीं उजागर।

आसाराम और पल्टू दाऊ जू ने दूसरी जुगत खोल ली। गाँव–गाँव डुग्गी पिटवा दी कि जो यह काम करेगा, उसके बाल–बच्चों का शादी–ब्याह बसोर लोग मंजूर नहीं करेंगे। किसी कीमत पर नहीं। फिराओ लड़का–लड़की कुँआरे।

इस फैसले ने असर किया। सचमुच लोग डर गए। बसोर बरारों के बेटा–बेटी आन बिरादरी तो ब्याहने से रही। आगे गैल कौन–सी है?

आसाराम ने पल्टू दाऊ जू के साथ मिलकर पार्टी बना ली। मिटिंग–कमेटी जुड़े रोज की तरह। सलाह–मशवरा हों। दाइयों की अर्जी लेकर कभी ब्लॉक में जाएँ तो कभी अस्पताल में, कभी हेल्थ–विजटर सेन्टर पर। रोज आना, रोज जाना। खाली हाथ, भूखे पेट। क्या करें, किराया–भाड़ा लगाते–लगाते खीसा खाली हो गया, पाँव छिल गए।

सरकारी आदमी एक ही जवाब देते–दाइयों को ट्रेनिंग इसलिए दी गई थी कि वे प्रसूति के समय सफाई का ध्यान रखें। ग्रामीण औरतों के प्रसव के समय सफाई और प्राथमिक स्वास्थ्य–रक्षा का ध्यान रखें। गाँव में फैले अन्धविश्वासों को दूर करें। नई बातों से जच्चा को अवगत कराएँ, जो उसकी सेहत के लिए जरूरी है। नौकरी और वेतन से इसका क्या ताल्लुक? दाई–किट उन्हें सुविधा और सफाई के लिए दी गई है।

इस किताबी भाषा का अर्थ समझती है लल्लन। आसाराम ही नादान...भूल गया कि मिडवाइफ सेन्टर, अस्पताल, ब्लॉक बिरादरी से चलाए नहीं चलते। वह नहीं समझा, प्यार से, न फटकार से–भाईबन्दी से, न दुत्कार से। उलटे बसोर बिरादरी को भड़का आया–हम हड़ताल करेंगे, जुलूस निकालेंगे। नारे बोलेंगे। अपना हक्क माँगेंगे। जागरूक हैं हम, ईंट से ईंट बजा देंगे। हमारी कौम की सुनवाई न हो, ऐसा हो नहीं सकता।

वाह रे आसाराम! धन्य है री लल्लन! रह–रहकर पछताती है वह। अपने करे का मलाल है उसे। कैसे भूल गई कि बिना काम करे कोई हक्क नहीं बनता? क्यों आसाराम की डग पर ही डग धरती चली गई फिर? अपने किसब के साथ बेईमानी क्यों बरती? कलेजे में उमड़ती दया–माया भी सुखा डाली। वह खुद से ही हिसाब माँग रही है आज।...मास्टरजी की बहू माफ करेगी उसे? बहू मछली–सी छटपटाती रही। मास्टरनी हाथ जोड़ती रही, हा–हा खाती रही, समझाती रही, “बेटी, जिन्दगानी से बड़ी नहीं होती कोई बिरादरी। तेरी बिरादरी से तेरे बदले की माफी मैं माँग लूँगी, भर पंचों में। तू चल तो सही। मोंठ के सेन्टर तक ले जाने की हालियत में नहीं है बहू।”

मगर लल्लन दाई बहरी हो गई। नहीं गई। क्यों जाए? तालीम पाई हुई दाई ठहरी। हँसी–ठट्ठा नहीं। कमली को ब्याहना नहीं है? कौन करेगा फिर सगाई–सम्बन्ध? मास्टरनी तो कर नहीं लेगी अपने घर में।

मास्टर जी की बहू मछली–सी तड़पकर मर गई। हत्या तेरे सिर है लल्लन, तेरे सिर। उसकी मौत की जिम्मेदार तू! बच्चे की कातिल तू!

कपूरे कक्का की पुतोहू। अधबीच फँसा बच्चा। निरबारना कोई मुश्किल नहीं था लल्लन दाई के लिए। मगर वह तो मोंठ झाँसी के दाइयों के बराबर की है–अनाज के दानों की एवज डिलेवरी करना उसकी शान के खिलाफ पड़ता है। वह नहीं गई। कपूरे कक्का की पुतोहू और नन्हे नाती के खून से रँगे हैं तेरे हाथ...लल्लन अपने ही हाथों को उलट–पलटकर देखती है–बिरादरी की लकीरें कहीं बनी हैं हथेलियों में? इनमें तो अपने काम का ही अभ्यास भरा है, उँगलियाँ आज भी उसी तरह कसमसाती हैं, जैसे डिलेवरी के बखत...।

ओ मोरी महामाई, मोरी भैमाता! छिमा करना! काहे को याद आ रहा है एक–एक केस? आँखों के आगे से क्यों गुजर रही है एक–एक डिलेवरी? रह–रहकर क्यों कोंच रही हैं वे जच्चा जो अब इस दुनिया में...खून ही खून दिखाई दे रहा है...अब तो गाँव के लोग खुद भूल चुके हैं लल्लन को...उसकी ओर देखना छोड़ दिया है सबने। उसके घर की ओर जाने वाली गली में आता–जाता नहीं दिखता कोई। किसे दरकार है उसकी?

किसी को नहीं, यह अच्छी तरह समझती है लल्लन। और फिर क्यों हो दरकार? जिन्हें हम बड़ी कौम मानते हैं, उन्होंने तो खुद गुरेज नहीं किया हमारे किसब से। माते की बहू तो खुद टिरैनिंग ले आई है। घर–घर बच्चा जनाने जाती है। लेना–देना भी क्या होता होगा, सौ बीघा खेत के मालिक हैं माते। चमार की बिट्टी सीख आई है दाईगीरी और तेली की सरजू भी।

वह तो दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकी। सोचते ही लल्लन काँपने लगी। भीतर से जैसे सत्त निचोड़ रहा हो कोई। पाँव उखड़ रहे हैं। कौन खींच रहा है सत्त? कौन उखाड़ रहा है पाँव? आसाराम...जो हवालात में कैद है। कमली की सगाई...जो हो नहीं पाई। छिरिया...जो बिकी नहीं। मिलाई के लिए भी नहीं जा पाएगी, गाँठ में किराया तक नहीं। अब भेंट नहीं होनी आसाराम! रिहाई नहीं होनी...।

आँखों ही आँखों में रात काट दी। लाचार नजर से देखा, बूढ़ी अम्मा धरती पर लुढ़की पड़ी हैं। कमली रात–भर करवटें बदलती रही है। हरिया की कलाई में बकरी की रस्सी...फोआ–भरा बच्चा भूखे पेट।

लल्लन का बदन खोखला हो गया है। धरती पर दोनों हाथों के पंजों को टिकाकर मुश्किल से खड़ी हो पाई। मड़ैया के बाहर उझकने लगी–उजाला हो गया है। दिन उग रहा है, किरणें फूटने को हैं। 

मगर यह कराह...
नहीं, उसका वहम है। बूढ़ी अम्मा को नहीं, उसको भी भरम होता रहता है। आदत कहाँ छूटी है? आग लगे इन कानों को, इनमें पीरें लेती जच्चा की कराहट ही गूँजती रहती है! सिर झटक दिया लल्लन ने।

“ओ मतारीऽऽऽ...ओ बाईऽऽऽ...”

हैंऽऽ! कोई कराह रही है। पी–र है। दर्द। वहम नहीं है यह।

कहीं मोदी की बहू...नहीं, कहाँ मोदी की बहू? हाँ, मोदी की बहू ही होगी। काछी की बहू कह तो रही थी कि लागत असाढ़...असाढ़, तो असाढ़ का महीना है! यह लल्लन तो महीने–दिन भी भूल चुकी है।

लागत असाढ़। यकायक उसकी पाँचों इन्द्रियाँ जाग्रत् हो गईं। हाथ का अँगूठा चारों उँगलियों में बने गिनती के निशानों पर तेजी से चलने लगा– क्वार, कार्तिक, अगहन, पूस, माघ, फागुन, चैत, बैसाख, जेठ, असा...लागत असाढ़। एक साँस में गिन गई वह। माथा चकरी की तरह घूमने लगा।

कराहट निरन्तर बढ़ती जा रही है। लगातार–ओ मतारीऽ...ओ बाई...अब कोई शुबहा नहीं, सच्ची में मोदी की बहू है। पनचक्की की तरह धक्–धक् करने लगा लल्लन का कलेजा। बेचैन हो उठी सम्पूर्ण देह...

उसी समय मोदी की बहू जोर–से चीखी। देर तक चीखी। यह बड़ा दर्द है। बस, और एक–दो ऐसे ही दर्द, फिर बच्चा...

लल्लन सुध–बुध भूल गई। द्वार तक जाए, लौट जाए, फिर लौटे। क्या करे, क्या न करे? वह मड़ैया में ही ऐसे खुरखुंद मचाने लगी ज्यों खूँटे से बँधी भूखी बकरी खूँटे के आसपास की जगह खूँद डालती है।“

ओ मतारीऽऽ...ईऽऽऽई...” मोदी की बहू।

इस बार लल्लन की देह में बिजली–सी कौंधी। पाँवों में आँधी–तूफान भर गया। वह बदहवास–सी भाग छूटी। नंगे पाँव भागती गई। भागती ही गई मोदी के द्वार तक।

गिरती–सँभलती मोदी के चौखट से जा लगी, बुरी तरफ हाँफ रही थी, लगा कि बस गिरने ही वाली है। जैसे–तैसे किवाड़ पकड़कर किसी तरह सध पाई। डरने–झिझकने का समय न था। सोचने–समझने का भी होश नहीं...औरतों के बीच से जगह बनाती हुई चलती चली गई, और लड़खड़ाकर मोदी की बहू के पास जा गिरी।

“एऽऽऽ! एऽऽ!” वहाँ बैठी औरतें एक स्वर में चिल्ला उठीं।

“लल्लन।” पिढ़ी पर बैठी माते की बहू ने आश्चर्यपूर्वक टोका।

लल्लन झटपट सँभलकर बैठ गई और फुर्ती से जच्चा को अपनी बाँहों में भर लिया। बैठे ही बैठे माते की बहू की ओर गर्दन घुमाकर तेजी से साँस लेती हुई बोली, “दुलहिन, हमारे रहते तु...म...” आँखें भरी थीं। गला रुँध आया। लगा कि आज अपने ही हक की भीख माँग रही है, माफी चाह रही है वह...

उसी क्षण बच्चे ने जन्म लिया। नन्हे रुदन से आँगन भर गया। आऊँऽऽ, आऊँ! लल्लन के कानों में अनहद नाद बजने लगा। मुख पर उल्लास गुलाल–सा बिखर गया। गन्दगी में सने नवजात शिशु को अपने साँवले हाथ में उठाए चमकती आँखों से विभोर–सी देखती रही, ज्यों अमोल सम्पदा समेट ली हो और अपनी गद्दी पर राजरानी की तरह बैठी हो! उसने मन ही मन भैमाता का सुमिरन किया।

पहली सोर का गीत बरबस ही उमड़ आया कंठ में। छलक पड़ा होंठों से–“जसोदा जी से हँस–हँस पूछत दाई/नन्दरानी जी से...”

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