रावी पार (कहानी) : गुलज़ार
Ravi Paar (Hindi Story) : Gulzar
पता नहीं दर्शन सिंह क्यूं पागल नहीं हो गया? बाप घर पे मर गया और मां उसे बचे-खुचे गुरुद्वारे में खो गई और शाहनी ने एक साथ दो बच्चे जन दिये। दो बेटे, जुड़वां। उसे समझ नहीं आता था कि वह हंसे या रोये! इस हाथ ले, इस हाथ दे का सौदा किया था किस्मत ने।
सुनते थे आज़ादी आ चुकी है या आ रही है, टोडरमलपुर कब पहुंचेगी, पता नहीं चलता था। हिन्दू, सिख सब छुपते-छुपते गुरुद्वारे में जमा हो रहे थे। शाहनी दिन रात दर्द से कराहती रहती थी। आख़री दिन थे जचकी के, और पहली-पहली औलाद।
“कुछ नहीं होगा बेटा, कुछ नहीं होगा। अभी तक किसी हिन्दू-सिख के मकान पर हमला हुआ क्या?”
“गुरुद्वारे पर तो हुआ है ना भापाजी। दो बार आग लग चुकी है।”
“और तुम लोग वहीं जाकर जमा होना चाहते हो।”
इस बात पर दर्शन सिंह चुप हो जाता। पर जिसे देखो वही घर छोड़ कर गुरुद्वारे में जमा हो रहा था।
“एक जगह इकट्ठा होने से बड़ा हौसला होता है भापाजी। अपनी गली में तो अब कोई हिन्दू या सिख नहीं रह गया। बस हमीं हैं अकेले।”
दस पंद्रह दिन पहले की बात थी, रात के वक़्त भापाजी के गिरने की आवाज़ हुई, आंगन में, और सब उठ गये। दूर गुरुद्वारे की तरफ़ से “बोले सो निहाल” के नारे सुनाई दे रहे थे। भापाजी की उसी से आंख खुल गई थी, और वह छत पर देखने चले गये थे। सीढ़ियाँ उतरते पांव फिसला और बस आंगन में खड़ी कुदाल सिर में घुस गई थी।
किसी तरह भापाजी के संस्कार पूरे किये और कुछ मालियत थी, एक तकिये में भरी, और बाक़ी तीनों ने गुरुद्वारे मे जाकर पनाह ली। गुरुद्वारे में ख़ौफ़जदा लोगों की कमी नहीं थी। इसलिए हौसला रहता था, अब उसे डर नहीं लगता था। दर्शन सिंह कहता—
“हम अकेले थोड़ी ही हैं, और कोई नहीं तो वाहेगुरु के पास तो हैं।”
नौजवान सेवादारों का जत्था दिन भर काम में जुटा रहता। लोगों ने अपने-अपने घरों से जितना भी आटा, दाल, घी था, उठवा लिया था। लंगर दिन रात चलता था। मगर कब तक? यह सवाल सबके दिल में था। लोग उम्मीद करते थे, सरकार कोई कुमक भेजेगी।
“कौन सी सरकार” एक पूछता “अंग्रेज तो चले गये”
“यहाँ पाकिस्तान तो बन गया है लेकिन पाकिस्तान की सरकार नहीं बनी अभी।”
“सुना है मिलेट्री घूम रही है, हर तरफ़ और अपनी हिफ़ाज़त में शर्नार्थियों के काफ़िले बार्डर तक पहुंचा देती है।”
“शरनार्थी? वह क्या होता है?”
“रैफ़्यू-जी”
“यह लफ़ज़ पहले तो कभी नहीं सुने थे”
दो तीन परिवारों का एक जत्था जिनसे दबाव बर्दाश्त नहीं हुआ निकल पड़ा।
“हम तो चलते हैं। स्टेशन पर सुना है, ट्रेनें चल रही हैं। यहाँ भी कब तक बैठे रहेंगे?
“हिम्मत तो करनी पड़ेगी भई! वाहेगुरु मोढ़ों (कधों) पर बिठाकर तो नहीं ले जायेगा न।”
एक और ने गुरुबानी का हवाला दिया।
“नानक नाम जहाज़ है, जो चढ़े सो उतरे पार।”
कुछ लोग निकल जाते तो ख़ला का एक बुलबुला सा बन जाता माहौल में। फिर कोई और आ जाता तो बाहर की ख़बरों से बुलबुला फूट जाता।
“स्टेशन पर तो बहुत बड़ा कैम्प लगा हुआ है जी।”
“लोग भूख़ से भी मर रहे हैं और खा-खा के भी! बीमारी फैलती जा रही है।”
पांच दिन पहले एक ट्रेन गुज़री थी यहां से, तिल रखने को भी जगह नहीं थी। लोग छतों पर लदे हुये थे।”
सुबह संक्रांत की थी। गुरुद्वारे में दिन-रात पाठ चलता रहता था। बड़ी शुभ घड़ी में शाहनी ने अपने जुड़वा बेटों को जन्म दिया। एक तो बहुत ही कमज़ोर पैदा हुआ। बचने की उम्मीद भी नहीं थी लेकिन शाहनी ने नाभी (नाड़ी) के ज़ोर से बांधे रखा उसे।
उसी रात किसी ने कह दिया।
“स्पेशल (Special ) ट्रेन आई है, रेफ़्यूजियों को लेने, निकल चलो।”
एक बड़ा सा हुजूम रवाना हो गया गुरुद्वारे से। दर्शन सिंह भी। शाहनी कमज़ोर थी बहुत लेकिन बेटों के सहारे चलने को तैयार हो गई। माँ ने हिलने से इन्कार कर दिया।
“मैं आजाऊँगी बेटा! अगले किसी काफ़ले के साथ आजाऊँगी। तू बहू और मेरे पोतों को सम्भाल के निकल जा।”
दर्शन सिंह ने बहुत ज़िद की तो ग्रन्थी ने समझाया। सेवादारों ने हिम्मत दी।
“निकल जाओ सरदारजी। एक-एक करके सब बार्डर पार पहुँच जायेंगे। बीजी हमारे साथ आजायेंगी।”
दर्शन सिंह निकल पड़ा सबके साथ। ढक्कन वाली एक बैंत की टोकरी में डाल के बच्चों को यूं सर पे उठा लिया जैसे परिवार का ख़ोंन्चा लेकर निकला हो।
स्टेशन पर गाड़ी थी, लेकिन गाड़ी में जगह नहीं थी। छत पर लोग घास की तरह उगे हुये थे।
बेचारी नई-नई नहीफ़-व-नज़ार मां और नोज़ाइदा बच्चों को देख कर लोगों ने छत पर चढ़ा लिया और जगह दे दी।
क़रीब दस घन्टे बाद गाड़ी में ज़रा सी हरकत हुई। शाम बड़ी सुर्ख़ थी, लहूलहान, तपा हुआ, तमतमाया हुआ चेहरा। शाहनी की छातियाँ निचुड़ के छिलका हो गईं। एक बच्चे को रखती तो दूसरा उठा लेती। मैले कुचैले कपड़ों में लिपटे दो बच्चों की पोटलियाँ, लगता था किसी कूड़े के ढ़ेर से उठा लाये हैं।
कुछ घन्टों बाद जब गाड़ी रात में दाख़िल हुई तो दर्शन सिंह ने देखा, एक बच्चे के हाथ पांव तो हिलते दिखे थे, कभी-कभी रोने की आवाज़ भी होती थी, लेकिन दूसरा बिलकुल साकित था। पोटली में हाथ डालकर देखा तो कब का ठंडा हो चुका था।
दर्शन सिंह जो फूट-फूट के रोया तो आस-पास के लोगों को भी मालूम हो गया। सबने चाहा कि शाहनी से उस बच्चे को लें ले, लेकिन वह तो पहले ही पथरा चुकी थी। टोकरी को झप्पा मार के बैठ गई।
“नहीं, भाई के बग़ैर दूसरा दूध नहीं पीता”
बहुत कोशिश के बावजूद शाहनी ने टोकरी नहीं छोड़ी।
ट्रेन दस बार रुकी, दस बार चली
लोग अंधेरे में अंदाज़े ही लगाते रहते।
“बस जी ख़ैराबाद निकल गया”
“यह तो गुजरांवाला है जी”
बस एक घंटा और। लाहौर आया कि समझो पहुंच गये हिन्दुस्तान।”
जोश में लोग नारे भी लगाने लगे थे
“हर हर महादेव”
“जो बोले सो निहाल”
गाड़ी एक पुल पर चढ़ी, तो लहर सी दौड़ गई
“रावी आ गया जी।”
“रावी है। लाहौर आ गया।”
इस शोर में किसी ने दर्शन सिंह के कान में फुसफुसाकर कहा।
“सरदारजी! बच्चे को यहीं फेंक दो रावी में उसका कल्याण हो जायेगा। उस पार ले जाके क्या करोगे?”
दर्शन सिंह ने धीर से टोकरी दूर खिसका ली। और फिर यकलख़्त ही पोटली उठाई और वाहे गुरु कह कर रावी में फेंक दी।
अन्धेरे में हलकी सी एक आवाज़ सुनाई दी किसी बच्चे की। दर्शन सिंह ने घबराकर देखा शाहनी की तरफ़। मुर्दा बच्चा शाहनी की छाती से लिपटा हुआ था! फिर से एक शोर का बगोला उठा—
“वाघा। वाघा”
“हिन्दुस्तान। ज़िन्दाबाद!!”