राष्ट्र भाषा हिन्दी और उसकी समस्याएँ (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
प्यारे मित्रों,
आपने मुझे जो यह सम्मान दिया है, उसके लिए मैं आपको सौ जबानों से धन्यवाद देना चाहता हूँ, क्योंकि आपने मुझे वह चीज दी है, जिसके मैं बिल्कुल अयोग्य हूँ। न मैंने हिन्दी-साहित्य पढ़ा है, न उसका इतिहास पढ़ा है, न उसके विकास-क्रम के बारे में ही कुछ जानता हूँ। ऐसा आदमी इतना मान पाकर फूला न समाय, तो वह आदमी नहीं है। नेवता पाकर मैंने उसे तुरंत स्वीकार किया। लोगों में ‘मन भाये, मुंडिया हिलाये’ की जो आदत होती है वह खतरा मैं न लेना चाहता था। यह मेरी ढिठाई है कि मैं यहाँ वह काम करने खड़ा हूँ, जिसकी मुझमें लियाकत नहीं है, लेकिन इस तरह की गंदमनुमाई का मैं अकेला मुजरिम नहीं हूँ। मेरे भाई घर-घर गली-गली में मिलेंगे। आपको तो अपने नेवते की लाज रखनी है। मैं जो कुछ अनाप शनाप बकूँ, उसकी खूब तारीफ कीजिए, उसमे जो अर्थ न हो वह पैदा कीजिए, उसमे अध्यात्म के और साहित्य के तत्त्व खोज निकालिए – जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
आपकी सभा ने पंद्रह-सोलह साल से मुख्तसर से समय में, जो काम कर दिखलाया है, उस पर मैं आपको बधाई देता हूँ, खासकर इसलिए कि आपने अपनी कोशिशों से यह नतीजा हासिल किया है। सरकारी इमदाद का मुँह नहीं ताका। यह आपके हौसलों की बुलंदी की एक मिसाल है। अगर मैं यह कहूँ कि आप भारत के दिमाग हैं, तो वह मुबालगा न होगा। किसी अन्य प्रांत में इतना अच्छा संगठन हो सकता है और इतने अच्छे कार्यकर्ता मिल सकते हैं, इसमें मुझे संदेह है। जिन दिमागों ने अंग्रेजी राज्य की जड़ जमाई, जिन्होंने अंग्रेजी भाषा का सिक्का जमाया, जो अंग्रेजी आचार-विचार में भारत में अग्रगण्य थे और हैं वे लोग राष्ट्रभाषा के उत्थान पर कमर बांध लें, तो क्या कुछ नहीं कर सकते? और यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि जिन दिमागों ने एक दिन विदेशी भाषा में निपुण होना अपना ध्येय बनाया था वे आज राष्ट्रभाषा का उद्धार करने पर कमर कसे नजर आते हैं और जहाँ से मानसिक पराधीनता की लहर उठी थी, वहाँ से राष्ट्रीयता की तरंगें उठ रही हैं। जिन लोगों ने अंग्रेजी लिखने और बोलने में अंग्रेजों को भी मात कर दिया, यहाँ तक कि आज जहाँ कहीं देखिये अंग्रेजी पत्रों के संपादक इसी प्रांत के विद्वान् मिलेंगे, वे अगर चाहें तो हिन्दी बोलने और लिखने में हिन्दी वालों को भी मात कर सकते हैं। और गत वर्ष यात्री दल के नेताओं के भाषण सुनकर मुझे यह स्वीकार करना पड़ता है कि वह क्रिया शुरू हो गई है। ‘हिन्दी-प्रचारक’ में अधिकांश लेख आप लोगों ही के लिखे होते हैं और उनकी मंजी हुई भाषा और सफाई और प्रवाह पर हममें से बहुतों को रश्क आता है। और यह तब है जब राष्ट्रभाषा प्रेम भी दिलों के ऊपरी भाग तक ही पहुँचा है, और आज भी यह प्रांत अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व से मुक्त होना नहीं चाहता। जब यह प्रेम दिलों में व्याप्त हो जाएगा, उस नर्क उसकी गति कितनी तेज होगी, इसका कौन अनुमान कर सकता है? हमारी पराधीनता क सबसे अपमानजनक, सबसे व्यापक, सबसे, कठोर अंग अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व है। कहीं भी वह अपने नंगे रूप में नहीं नजर आती। सभ्य जीवन के हर एक विभाग में अंग्रेजी भाषा ही मानों हमारी छाती पर मूंग दल रही है। अगर आज इस प्रभुत्व को हम तोड़ सके तो पराधीनता का आधा बोझ हमारी गर्दन से उतर जाएगा। कैदी को बेड़ी से जितनी तकलीफ होती है, उतनी और किसी बात से नहीं होती। क़ैदख़ाना शायद उसके घर से ज्यादा हवादार, साफ-सुथरा होगा। भोजन भी वहाँ शायद घर के भोजन से अच्छा और स्वादिष्ट मिलता हो। बाल – बच्चों से वह कभी-कभी स्वेच्छा से बरसों अलग रहता है। उसके दंड की याद दिलाने वाली चीज यही बेड़ी है, जो उठते-बैठते, सोते-जागते, हँसते-बोलते, कभी उसका साथ नहीं छोड़ती, कभी उसे मिथ्या कल्पना भी करने नहीं देती, कि वह आजाद है। पैरों से कहीं ज्यादा उसका असर कैदी के दिल पर होता है, जो कभी उभरने नहीं पाता, कभी मन की मिठाई भी नहीं खाने पाना, अंग्रेजी भाषा हमारी पराधीनता की वही बेड़ी है, जिसने हमारे मन और बुद्धि को ऐसा जकड़ रखा है कि उनमें इच्छा भी नहीं रही। हमारा शिक्षित समाज इस बेड़ी को गले का हार समझने पर मजबूर है। यह उसका रोटियों का सवाल है। और अगर रोटियों के साथ कुछ सम्मान, कुछ गौरव, कुछ अधिकार भी मिल जाएँ, तो क्या कहना। प्रभुता की इच्छा तो प्राणीमात्र में होती है। अंग्रेजी भाषा ने इसका द्वार खोल दिया और हमारा शिक्षित समुदाय चिड़ियों के झुंड की तरह उस द्वार के अंदर घुसकर जमीन पर बिखरे हुए दाने चुगने लगा और अब कितना ही फड़फड़ाये, उसे गुलशन की हवा नसीब नहीं। मजा यह है कि इस झुंड की फड़फड़ाहट बाहर निकलने के लिए नहीं, केवल जरा मनोरंजन के लिए है। उसके पर निर्जीव हो गए, और उसमें उडने की शक्ति नहीं रही, वह भरोसा भी नहीं रहा कि यह दाने बाहर मिलेंगे भी या नहीं। अब तो वही कफ़स है, वही कुल्हिया है और वही सैयाद।
लेकिन मित्रों, विदेशी भाषा सीखकर अपने गरीब भाइयों पर रोब जमाने क दिन बड़ी तेजी से बिदा होते जा रहे हैं। प्रतिभा का और बुद्धि-बल का जो दुरुपयोग हम सदियों से करते आए हैं, जिसके बल पर हमने अपनी एक अमीरशाही स्थापित कर ली है, और अपने को साधारण जनता से अलग कर लिया है, वह अवस्था अब बदलती जा रही है। बुद्धि-बल ईश्वर की देन है, और उसका धर्म प्रजा पर धौंस जमाना नहीं उसका खून चूसना नहीं, उसकी सेवा करना है। आज शिक्षित समुदाय पर से जनता का विश्वास उठ गया है। वह उसे उससे अधिक विदेशी समझती है जितना विदेशियों को। क्या कोई आश्चर्य है कि यह समुदाय आज दोनों तरफ में ठोकरें खा रहा है? स्वामियों की ओर से इसलिए कि वह समझते हैं – मेरी चौखट के सिवा इनके लिए और कोई आश्रय नहीं, और जनता की ओर से इसलिए कि उनका इससे कोई आत्मीय संबंध नहीं। उनका रहन-सहन, उनकी बोलचाल, उसकी भेषभूषा, उनके विचार और व्यवहार सब जनता से अलग हैं और यह केवल इस लिए कि हम अंग्रेजी भाषा के गुलाम हो गए। मानों परिस्थिति ऐसी है कि बिना अंग्रेजी भाषा की उपासना किये काम नहीं चल सकता। लेकिन अब तो इतने दिनों के तजुरबे के बाद मालूम हो जाना चाहिए कि इस नाव पर बैठकर हम पार नहीं लग सकते, फिर हम क्यों आज भी उसी से चिमटे हुए हैं? अभी गत वर्ष एक इंटरयूनिवर्सिटी कमीशन बैठा था कि शिक्षा-संबंधी विषयों पर विचार करे। उसमे एक प्रस्ताव यह भी था कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी की जगह पर मातृ-भाषा क्यों न रखी जाएँ। बहुमत ने इस प्रस्ताव का विरोध किया, क्यों? इसलिए कि अंग्रेजी माध्यम के बगैर अंग्रेजी में हमारे बच्चे कच्चे रह जाएँगे और अच्छी अंग्रेजी लिखने और बोलने में समर्थ न होंगे। मगर इन डेढ सौ वर्षों की घोर तपस्या के बाद आज तक भारत ने एक भी ऐसा ग्रंथ नहीं लिखा, जिनका इंग्लैंड में उतना ही मान होता, जितना एक तीसरे दर्जे के अंग्रेजी लेखक का होता है। याद नहीं, पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने कहा था, या सर तेजबहादुर सप्रू ने, कि पचास साल तक अंग्रेजी से सिर मारने के बाद आज भी उन्हें अंग्रेजी में बोलते वक्त यह संशय होता रहता है कि कहीं उससे गलती तो नहीं हो गई । हम आँखें फोड़-फोड़कर और कमर तोड़-तोड़कर और रक्त जला-जलाकर अंग्रेजी का अभ्यास करते हैं, उसके मुहावरे रटते हैं, लेकिन बड़े-से-बड़े भारतीय-साधक की रचना विद्यार्थियों की स्कूली एक्सरसाइज से ज्यादा महत्त्व नहीं रखती। अभी दो-तीन दिन हुए पंजाब के ग्रेजुएटों की अंग्रेजी योग्यता पर वहाँ के परीक्षकों ने यह आलोचना की है कि अधिकांश छात्रों में अपने विचारों के प्रकट करने की शक्ति नहीं है, बहुत तो स्पेलिंग में गलतियाँ करते हैं। और यह नतीजा है कि कम-से कम बारह साल तक आँखें फोड़ने का। फिर भी हमारे लिए शिक्षा का अंग्रेजी माध्यम जरूरी है, यह हमारे विद्वानों की राय है। जापान, चीन और ईरान में तो शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं है। फिर भी वे सभ्यता की हरेक बात में हमसे कोसों आगे हैं, लेकिन अंग्रेजी माध्यम के बगैर हमारी नाव डूब जाएगी। हमारे मारवाड़ी भाई हमारे धन्यवाद के पात्र हैं कि कम-से-कम जहाँ तक व्यापार में उनका संबंध है उन्होंने क़ौमियत की रक्षा की है।
मित्रों, शायद मैं अपने विषय से बहक गया हूँ, लेकिन मेरा आशय केवल यह है कि हमें मालूम हो जाए, हमारे सामने कितना महान काम है। यह समझ लीजिए कि जिस दिन आप अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व तोड़ देंगे और अपनी एक कौमी भाषा बना लेंगे, उसी दिन आपको स्वराज्य के दर्शन हो जाएँगे। मुझे याद नहीं आता कि कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा के बल पर स्वाधीनता प्राप्त कर सका हो। राष्ट्र की बुनियाद राष्ट्र की भाषा है। नदी, पहाड़, समुद्र और राष्ट्र नहीं बनाते। भाषा ही वह बंधन है जो चिरकाल तक राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रहती है, और उसका शीराजा बिखरने नहीं देती। जिस वक्त अंग्रेज आये, भारत की राष्ट्र-भावना लुप्त हो चुकी थी। यों कहिये कि उसमे राजनैतिक चेतना की गंध तक न रह गई थी। अंग्रेजी राज ने आकर आपका एक राष्ट्र बना दिया। आज अंग्रेजी रात विदा हो जाएँ – और एक-न-एक दिन तो यह होना ही है – तो फिर आपका यह राष्ट्र कहाँ जाएगा? क्या यह बहुत संभव तहीं है कि एक-एक प्रांत एक-एक राज्य हो जाएँ और फिर वहीं विच्छेद शुरू हो जाएँ? वर्तमान दशा में तो हमारी कौमी चेतना को सजग और सजीव रखने के लिए अंग्रेजी राज का अमर रहना चाहिए। अगर हम एक राष्ट्र बनकर अपने स्वराज्य के लिए उद्योग करना चाहते हैं, तो हमें राष्ट्रभाषा का आश्रय लेना होगा और उसी राष्ट्रभाषा के बख्तर से हम अपने राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं। सोचिए, आप कितना महा काम करने जा रहे हैं। आप कानूनी बाल की खाल निकालने वाले वकील नहीं बना रहे हैं, आप शासन मिल के मजदूर नहीं बना रहे हैं , आप एक बिखरी हुई कौम को मिला रहे हैं, आप हमारे बंधुत्व की सीमाओं को फैला रहे हैं, भूले हुए भाइयों को गले मिला रहे हैं। इस काम की पवित्रता और गौरव को देखते हुए, कोई ऐसा कष्ट नहीं है, जिसका आप स्वागत न कर सकें । यह धन का मार्ग नहीं है, संभव है कि कीर्ति का मार्ग भी न हो, लेकिन आपने आत्मिक संतोष के लिए इससे बेहतर काम नहीं हो सकता। यही आपके बलिदान का मूल्य है। मुझे आशा है, यह आदर हमेशा आपके सामने रहेगा। आदर्श का महत्त्व आप खूब समझते हैं। वह हमारे रुकते हुए कदम को आगे बढ़ाता है, हमारे दिलों से संशय और संदेह की छाया को मिटाता है और कठिनाइयों में हमें साहस देता है।
राष्ट्रभाषा से हमारा क्या आशय है, इसके विषय में भी मैं आपसे दो शब्द कहूँगा। इसे हिन्दी कहिए, हिन्दुस्तानी कहिए, या उर्दू कहिए, चीज एक है। नाम से हमारी कोई बहस नहीं। ईश्वर भी वही है, जो खुदा है , और राष्ट्रभाषा में दोनों के लिए समान रूप से सम्मान का स्थान मिलना चाहिए। अगर हमारे देश में ऐसे लोगो की काफी तादाद निकल आए तो, जो ईश्वर को ‘गॉड’ कहते हैं, तो राष्ट्रभाषा उनका भी स्वागत करेगी। जीवित भाषा तो जीवित देह की तरह बराबर बनती रहती है। शुद्ध हिन्दी तो निरर्थक शब्द है। जब भारत शुद्ध हिन्दू होता तो उसकी भाषा शुद्ध हिन्दी होती। जब तक यहाँ मुसलमान, ईसाई, पारसी, अफगानी सभी जातियाँ मौजूद हैं, हमारी भाषा भी व्यापक रहेगी। अगर हिन्दी भाषा प्रांतीय रहना चाहती है और केवल हिन्दुओं की भाषा रहना चाहती है , तब वह शुद्ध बनाई जा सकती है। उसका अंग-भंग करके उसका कायापलट करना होगा। प्रौढ़ से वह फिर शिशु बनेगी, यह असंभव है, हास्यास्पद है। हमारे देखते-देखते सैंकड़ों विदेशी शब्द भाषा में आ घुसे, हम उन्हें रोक नहीं सकते। उनका आक्रमण रोकने की चेष्टा ही व्यर्थ है। वह भाषा के विकास में बाधक होगी। वृक्षों को सीधा और सुडौल बनाने के लिए पौधों को एक थूनी का सहारा दिया जाता है। आप विद्वानों का ऐसा नियंत्रण रख सकते हैं कि अश्लील, कुरुचिपूर्ण, कर्णकटु, भद्दे शब्द व्यवहार में न आ सकें, पर यह नियंत्रण केवल पुस्तकों पर ही हो सकता है। बोलचाल पर किसी प्रकार का नियंत्रण रखना मुश्किल होगा। मगर विद्वानों का भी अजीब दिमाग है। प्रयाग में विद्वानों और पंडितों की सभा ‘हिन्दुस्तानी एकेडमी’ में तिमाही सेहमाही और त्रैमासिक शब्दों पर बरसों से मुबाहसा हो रहा है और अभी तक फैसला नहीं हुआ। उर्दू के हामी ‘सेहमाही’ की ओर हैं, हिन्दी के हामी ‘त्रैमासिक’ की ओर, बेचारा ‘तिमाही’ जो सबसे सरल, आसानी से बोला और समझा जाने वाला शब्द है, उसका दोनों ही ओर से बहिष्कार हो रहा है। भाषा सुंदरी को कोठरी में बन्द करके आप उसका सतीत्व तो बचा सकते हैं, लेकिन उसके जीवन का मूल्य देकर। उसकी आत्मा स्वयं इतनी बलवान बनाइए, कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ्य दोनों ही की रक्षा कर सके । बेशक हमें ऐसे ग्रामीण शब्दों को दूर रखना होगा , जो किसी खास इलाके में बोले जाते हैं। हमार आदर्श तो यह होना चाहिए, कि हमारी भाषा अधिक-से-अधिक आदमी समझ सकें । अगर इसे अपने सामने रखें तो लिखते समय भी हम शब्द-चातुरी के मोह में न पड़ेंगे। यह गलत है, कि फारसी शब्दों से भाषा कठिन हो जाती है। शुद्ध हिन्दी के ऐसे पदों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनका अर्थ निकालना पंडितों के लिए भी लोहे के चने चबाना है। वही शब्द सरल है, जो व्यवहार में आ रहा है। इससे कोई बहस नहीं कि वह तुर्की है, या अरबी, या पुर्तगाली। उर्दू और हिन्दी में क्यों इतना सौतिया डाह है, ये मेरी समझ में नहीं आता। अगर एक समुदाय के लोगों को ‘उर्दू’ नाम प्रिय है तो उन्हें उसका इस्तेमाल करने दीजिए। जिन्हें ‘हिन्दी’ नाम से प्रेम है, वह हिन्दी ही कहें। इसमें लड़ाई काहे की? एक चीज के दो नाम देकर ख्वामख्वाह आपस में लड़ना और उसे इतना महत्त्व दे देना कि वह राष्ट्र की एकता में बाधक हो जाएँ, यह मनोवृत्ति रोगी और दुर्बल मन की है। मैं अपने अनुभव से इतना कह सकता हूँ, कि उर्दू को राष्ट्रभाषा के स्टैंडर्ड पर लाने में हमारे मुसलमान भाई हिन्दुओं से कम इच्छुक नहीं हैं। मेरा मतलब उन हिन्दू-मुसलमानों से है, जो क़ौमियत के मतवाले हैं। कट्टरपंथियों से मेरा कोई प्रयोजन नहीं। उर्दू का और मुसलिम संस्कृति का कैंप आज अलीगढ़ है। वहाँ उर्दू और फारसी के प्रोफेसर और अन्य विषयों के प्रोफेसरों से मेरी बातचीत हुई, उससे मुझे महसूस हुआ कि मौलवियाऊ भाषा से वे लोग भी उतने ही बेजार हैं, जितने पंडिताऊ भाषा से, और कौमी-भाषा-संघ आंदोलन में शरीक होने के लिए दिल से तैयार हैं। मैं यह भी माने लेता हूँ कि मुसलमानों का गिरोह हिन्दुओं से अलग रहने में ही अपना हित समझता है-हालांकि उस गिरोह का जोर और असर दिन-दिन कम होता जा रहा है – और वह अपनी भाषा को अरबी से गले तक ठूंस देना चाहता है, तो हम उससे क्यों झगडा करें? क्या आप समझते हैं, ऐसी जटिल भाषा मुसलिम जनता में भी प्रिय हो सकती है? कभी नहीं। मुसलमानों में वही लेखक सर्वोपरि हैं, जो आमफहम भाषा लिखते हैं। मौलवियाऊ भाषा लिखने वालों के लिए यहाँ भी स्थान नहीं हैं। मुसलमान दोस्त से भी मुझे कुछ अर्ज करने का हक है क्योंकि मेरा सारा जीवन उर्दू की सेवकाई करते गुजरा है और अब भी मैं जितना उर्दू लिखता हूँ, उतनी हिन्दी भी नहीं लिखता, और कायस्थ होने और बचपन से फारसी का अभ्यास करने के कारण उर्दू मेरे लिए जितनी स्वाभाविक है, उतनी हिन्दी नहीं है। मैं पूछता हूँ, आप इसे हिन्दी की गर्दनजदनी समझते हैं? क्या आपको मालूम है, और नहीं है तो होना चाहिए, कि हिन्दी का सबसे पहला शायर, जिसने हिन्दी का साहित्यिक बीज बोया (व्यावहारिक बीज सदियों पहले पड़ चुका था) वह अमीर खुसरो था ? क्या आपको मालूम है, कम-से-कम पाँच सौ मुसलमान शायरों ने हिन्दी को अपनी कविता से धनी बनाया है, जिसमे कई तो चोटी के शायर हैं? क्या आपको मालूम है, अकबर, जहाँगीर औरंगजेब तक हिन्दी की कविता का शौक रखते थे और औरंगजेब ने ही आमों का नाम ‘रसना-विलास’ और ‘सुधा-रस’ रखा था? क्या आपको मालूम है, आज भी हसरत और हफीज जालंधरी जैसे कवि कभी-कभी हिन्दी में तबाआजमाई करते हैं? क्या आपको मालूम है हिन्दी में हज़ारों शब्द, हजारों क्रियाएँ अरबी और फारसी से आई हैं और ससुराल में आकर अधिक आदमी समझ सकें । घर की देवी हो गई हैं? अगर यह मालूम होने पर भी आप हिन्दी को उर्दू से अलग समझते हैं , तो आप देश के साथ और अपने साथ बेइंसाफी करते हैं। उर्दू शब्द कब और कहाँ उत्पन्न हुआ, इसकी कोई तारीखी सनद नहीं मिलती। क्या आप समझते हैं वह ‘बड़ा खराब आदमी है’ और वह ‘बड़ा दुर्जन मनुष्य है’ दो अलग भाषाएँ हैं? हिन्दुओं को ‘खराब’ भी अच्छा लगता है और ‘आदमी’ तो अपना भाई ही है। फिर मुसलमान को ‘दुर्जन’ क्यों बुरा लगे, और ‘मनुष्य’ क्यों शत्रु-सा दीखे ? हमारी कौमी भाषा में दुर्जन और सज्जन, उम्दा और खराब दोनों के लिए स्थान है, वह तक जहाँ तक कि उसकी सुबोधता में बाधा नहीं पड़ती। इसके आगे हम न उर्दू के दोस्त हैं, न हिन्दी के । मजा यह कि ‘हिन्दी’ मुसलमानों का दिया हुआ नाम हैं और अभी पचास साल पहले तक जिसे आज उर्दू कहा जा रहा है , उसे मुसलमान भी हिन्दी कहते थे। और आज ‘हिन्दी’ मरदूद है। क्या आपको नजर नहीं आता कि ‘हिन्दी’ एक स्वाभाविक नाम है? इंग्लैंड वाले इंगलिश बोलते हैं, फ्रांस वाले फ्रेंच, जर्मनी वाले जर्मन, फारस वाले फारसी, तुर्की वाले तुर्की, अरब वाले अरबी, फिर हिन्द वाले क्यों न हिन्दी बोलें? उर्दू तो न काफिये में आती है न रदीफ में, न वजन में। हाँ, हिन्दुस्तान का नाम उर्दूस्तान रखा जाए , तो बेशक यहाँ की कौमी भाषा उर्दू होगी। कौमी भाषा के उपासक नामों से बहस नहीं करते , वह तो असलियत से बहस करते हैं। क्यों दोनों भाषाओं का कोश एक नहीं हो जाता? हमें दोनों भाषाओं में एक आम लुगत (कोष) की जरूरत है, जिसमे आमफहम शब्द जमा कर दिए जाए। हिन्दी में तो मेरे मित्र पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने किसी हद तक यह जरूरत पूरी कर दी है। इस तरह का एक लुगत उर्दू में भी होना चाहिए। शायद यह काम कौमी-भाषा-संघ बनने तक मुल्तवी रहेगा। मुझे अपने मुसलिम दोस्तों से यह शिकायत है कि वह हिन्दी के आमफहम शब्दों से भी परहेज करते हैं, हालांकि हिन्दी में आमफहम फारसी के शब्द आजादी से व्यवहार किये जाते हैं।
लेकिन प्रश्न उठता है कि राष्ट्रभाषा कहाँ तक हमारी जरूरतें पूरी कर सकती है? उपन्यास, कहानियाँ, यात्रा-वृत्तांत, समाचार-पत्रों के लेख , आलोचना अगर बहुत गूढ न हो, यह सब तो राष्ट्रभाषा में अभ्यास कर लेने से लिखे जा सकते है, लेकिन साहित्य में केवल इतने ही विषय तो नहीं हैं। दर्शन और विज्ञान की अनंत शाखाएँ भी तो हैं जिनको आप राष्ट्रभाषा में नहीं ला सकते। साधारण बातें तो साधारण और सरल शब्दों में लिखी जा सकती हैं। विवेचनात्मक विषयों में यहाँ तक कि उपन्यास में भी जब वह मनोवैज्ञानिक हो जाता है, आपको मजबूर होकर संस्कृत या अरबी फारसी शब्दों की शरण लेनी पड़ती है। अगर हमारी राष्ट्रभाषा सर्वांगपूर्ण नहीं हैं, और उसमे आप हर एक विषय, हर एक भाव नहीं प्रकट कर सकते, तो उसमे यह बड़ा भारी दोष है, और यह हम सभी का कर्त्तव्य है कि हम राष्ट्रभाषा को उसी तरह सर्वांगपूर्ण बनावें; जैसी अन्य राष्ट्रों की संपन्न भाषाएँ हैं। यों तो अभी हिन्दी और उर्दू अपने सार्थक रूप में भी पूर्ण नहीं है। पूर्ण क्या, अधूरी भी नहीं है। जो राष्ट्रभाषा लिखने का अनुभव रखते हैं, उन्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि एक-एक भाव के लिए उन्हें कितना सिर-मगजन करना पड़ता है। सरल शब्द मिलते ही नहीं, मिलते हैं तो भाषा में खपते नहीं, भाषा का रूप बिगाड़ देते हैं, खीर में नमक के डले की भांति आकर मजा किरकिरा कर देते हैं। इसका कारण तो स्पष्ट ही है कि हमारी जनता में भाषा का ज्ञान बहुत थोड़ा है और आमफहम शब्दों की संख्या बहुत ही कम है। जब तक जनता में शिक्षा का प्रचार नहीं हो जाता, उनकी व्यवहारिक शब्दावली बढ़ नहीं जाती, हम उनके समझने के लायक भाषा में तात्विक विवेचनाएँ नहीं कर सकते। हमारी हिन्दी भाषा ही अभी सौ बरस की नहीं हुई, राष्ट्रभाषा तो अभी शैशवावस्था में है, और फिलहाल यदि हम उसमे सरल साहित्य ही लिख सकें, तो हमको संतुष्ट होना चाहिए। इसके साथ ही हमें राष्ट्रभाषा का कोष बढ़ाते रहना चाहिए। वही संस्कृत और अरबी-फारसी के शब्द, जिन्हें देखकर आज भयभीत हो जाते हैं , जब अभ्यास में आ जाएँगे, तो उनका हौआपन जाता रहेगा। इस भाषा-विस्तार की क्रिया, धीरे- धीरे ही होगी। इसके साथ हमें विभिन्न प्रांतीय भाषाओं के ऐसे विद्वानों का एक बोर्ड बनाना पड़ेगा, जो राष्ट्रभाषा की जरूरत के कायल हैं। उस बोर्ड में उर्दू, हिन्दी बंगला, मराठी, तमिल आदि सभी भाषाओं के प्रतिनिधि रखे जाएँ और इस क्रिया को सुव्यवस्थित करने और उसकी गति को तेज करने का काम उनको सौंपा जाए। अभी तक हमने अपने मनमाने ढंग से इस आंदोलन को चलाया है। औरों का सहयोग प्राप्त करते का यत्न नही किया। आपका यात्री-मंडल भी हिन्दी के विद्वानों तक ही रह गया। मुसलिम केन्द्रों में जाकर मुसलिम विद्वानों की हमदर्दी हासिल करने की उसने कोशिश नहीं की? हमारे विद्वान् लोग तो अंग्रेजी में मस्त हैं। जनता के पैसे से दर्शन और विज्ञान और सारी दुनिया की विद्याएँ सीखकर भी जनता की तरफ से आँखें बन्द किए बैठे हैं। उनकी दुनिया अलग है, उन्होंने उपजीवियों की मनोवृत्ति पैदा कर ली है। काश उनमें भी राष्ट्रीय चेतना होती, काश वे भी जनता के प्रति अपने कर्त्तव्य महसूस करते, तो शायद हमारा काम सरल हो जाता। जिस देश में जन-शिक्षा की सतह इतनी नीची हो, उसमे अगर कुछ लोग अंग्रेजी में अपनी विद्वत्ता का सेहरा बांध ही लें, तो क्या? हम तो तब जानें, जब विद्वत्ता के साथ-साथ दूसरों को भी ऊँची सतह पर उठाने का भाव मौजूद हो। भारत में केवल अंग्रेजीदाँ ही नहीं रहते। हजार में 999 आदमी अंग्रेजी का अक्षर भी नहीं जानते। जिस देश का दिमाग विदेशी भाषा में सोचे और लिखे, उस देश को अगर संसार राष्ट्र नहीं समझता तो क्या वह अन्याय करता है? जब तक आपके पास राष्ट्रभाषा नहीं, आपका कोई राष्ट्र भी नहीं। दोनों में कारण और कार्य का संबंध है। राजनीति के माहिर अंग्रेज शासकों को आप राष्ट्र की हांक लगाकर धोखा नहीं दे सकते। वे आपकी पोल जानते हैं और आपके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं।
अब हमें यह विचार करना है कि राष्ट्र-भाषा का प्रचार कैसे बढे। अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारे नेताओं ने इस तरफ मुजरिमाना गफलत दिखाई है। वे अभी तक इसी भ्रम में पड़े हुए हैं कि यह कोई बहुत छोटा- मोटा विषय है, जो छोटे मोटे आदमियों के करने का है, और उनके जैसे बड़े-बड़े आदमियों को इतनी कहां फुरसत कि वह झंझट में पड़ें। उन्होंने अभी तक इस काम का महत्त्व नहीं समझा, नहीं तो शायद यह उनके प्रोग्राम की पहली पांति में होता। मेरे विचार में जब तक राष्ट्र में इतना संगठन, इतना ऐक्य, इतना एकात्मपन न होगा कि वह एक भाषा में बात कर सके, तब तक उसमे यह शक्ति भी न होगी कि स्वराज प्राप्त कर सके । गैरमुमकिन है। जो राष्ट्र के अगुआ हैं, जो एलेक्शनों में खड़े होते हैं और फतह पाते हैं, उनसे मैं बड़े अदब के साथ गुज़ारिश करूँगा कि हजरत इस तरह के एक सौ एलेक्शन आएँगे और निकल जाएँगे, आप कभी हारेंगे, कभी जीतेंगे, लेकिन स्वराज्य आपसे उतनी ही दूर रहेगा , जितनी दूर स्वर्ग है। अंग्रेजी में आप अपने मस्तिष्क का गूदा निकालकर रख दें लेकिन आपकी आवाज में राष्ट्र का बल न होने के कारण कोई आपकी उतनी परवाह भी करेगा, जितनी बच्चों के रोने की करता है। बच्चों के रोने पर खिलौने और मिठाइयाँ मिलती हैं। वह शायद आपको भी मिल जावें जिसमे आपकी चिल्ल-पों से माता-पिता के काम में विघ्न न पड़े। इस काम को तुच्छ न समझिए। यही बुनियाद है, आपका अच्छे से अच्छा गारा, मसाला, सीमेंट बड़ी से बड़ी निर्माण योग्यता जब तक यहाँ खर्च न होगी, आपकी इमारत न बनेगी। घरौंदा शायद बन जाए, जो एक हवा के झोंके में उड़ जाएगा। दरअसल अभी हम जो कुछ किया है, वह नहीं के बराबर है। एक अच्छा-सा राष्ट्रभाषा का विद्यालय तो हम खोल नहीं सके । हर साल सैंकड़ों स्कूल खुलते हैं , जिनकी मुल्क को बिलकुल जरूरत नहीं। ‘उसमानिया विश्वविद्यालय’ काम की चीज है, अगर वह उर्दू और हिन्दी के बीच की खाई को और चौड़ी न बना दे। फिर भी मैं उसे और विश्वविद्यालयों पर तरजीह देता हूँ। कम-से- कम अंग्रेज की गुलामी के कारखाने हैं जो लड़कों को स्वार्थ का, जरूरतों का, नुमाइश का, अकर्मण्यता का गुलाम बनाकर छोड़ देते हैं और लुत्फ यह है, कि यह तालीम भी मोतियों के मोल बिक रही है। इस शिक्षा की बाजारी कीमत शून्य के बराबर है, फिर भी हम क्यों भेंड़ों की तरह उसके पीछे दौड़े चले जा रहे हैं? अंग्रेजी शिक्षा हम शिष्टता के लिए नहीं ग्रहण करते। इसका उद्देश्य उदार है। शिष्टता के लिए हमें अंग्रेजों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत से ज्यादा हमारी मीरास है, शिष्टता हमारी घुट्टी में पड़ी है। हम तो कहेंगे, हम जरूरत से ज्यादा शिष्ट हैं। हमारी शिष्टता दुर्बलता की हद तक पहुँच गई है। पश्चिमी शिष्टता में जो कुछ है, वह उद्योग और पुरुषार्थ है। हमने यह चीजें तो उसमे से छाँटी नहहीं। छाँटा क्या, लोफरपन, अहंकार, स्वार्थान्धता, बेशर्मी , शराब और दुर्व्यसन। एक मूर्ख किसान के पास जाइए। कितना नम्र, कितना मेहमानवाज, कितना ईमानदार, कितना विश्वासी। उसी का भाई टामी है, पश्चिमी शिष्टता का सच्चा नमूना, शराबी, लोफर, गुंडा अक्खड़, हया से खाली। शिष्टता सीखने के लिए हमें अंग्रेजों की गुलामी करने की जरूरत नहीं। हमारे पास ऐसे विद्यालय होने चाहिएं जहाँ ऊँची-से-ऊँची शिक्षा राष्ट्रभाषा में सुगमता से मिल सके । इस वक्त अगर ज्यादा नहीं तो एक ऐसा विद्यालय किसी केंद्र स्थान में होना ही चाहिए। मगर हम आज भी वही भेड़चाल चले जा रहे हैं वही स्कूल, वही पढ़ाई। कोई भला आदमी ऐसा पैदा नहीं होता, जो एक राष्ट्रभाषा का विद्यालय खोले। मेरे सामने दक्खिन से बीसों विद्यार्थी भाषा पढ़ने के काशी गए, पर वहाँ कोई प्रबंध नहीं। वही हाल अन्य स्थानों में भी है। बेचारे इधर उधर ठोकरें खाकर लौट आए। अब कुछ विद्यार्थियों की शिक्षा का प्रबंध हुआ है, मगर जो काम हमें करना है, उसके देखते नहीं के बराबर है। प्रचार और तरीकों में ड्रामों का खेलना अच्छे नतीजे पैदा कर सकता है। इस विषय में हमारा सिनेमा प्रशंसनीय अच्छे काम कर रहा है, हालांकि उसके द्वारा जो कुरुचि, जो गंदापन, जो विलास-प्रेम फैलाई जा रही है, इस काम के महत्त्व को मिट्टी में मिला देती है। अगर हम अच्छे भावपूर्ण ड्रामे स्टेज कर सकें, तो उससे अवश्य प्रचार बढ़ेगा। हमें सच्चे मिशनरियों की जरूरत है और आपके ऊपर इस मिशन का दायित्व है। बड़ी मुश्किल यह है कि जब तक किसी वस्तु की उपयोगिता प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न दे, कोई उसके पीछे क्यों अपना समय नष्ट करे? अगर हमारे नेता और विद्वान् जो राष्ट्रभाषा के महत्त्व से बेखबर नहीं हो सकते, राष्ट्रभाषा का व्यवहार कर सकते तो जनता में उस भाषा की ओर विशेष आकर्षण होता। मगर, यहाँ तो अंग्रेजियत का नशा सवार है। प्रचार का एक और साधन है कि भारत के अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के पत्रों को हम इस पर आमादा कर सकें कि वे अपने पत्रों के एक-दो कालम नियमित रूप से राष्ट्रभाषा के लिए दे सकें । अगर हमारी प्रार्थना वे स्वीकार करें, तो उससे भी बहुत फायदा हो सकता है। हम तो उस दिन का स्वप्न देख रहे हैं, जब राष्ट्रभाषा पूर्ण रूप से अंग्रेजी का स्थान ले लेगी, जब हमारे विद्वान् राष्ट्रभाषा में अपनी रचनाएँ करेंगे, जब मद्रास और मैसूर, ढाका और पूना सभी स्थानों से राष्ट्रभाषा के उत्तम ग्रंथ निकलेंगे, उत्तम पत्र प्रकाशित होंगे और भू-मंडल की भाषाओं और साहित्यों की मजलिस में हिन्दुस्तानी साहित्य और भाषा को भी गौरव स्थान मिलेगा, जब हम मंगनी के सुंदर कलेवर में नहीं, अपने फटे वस्त्रों में ही नहीं, संसार साहित्य में प्रवेश करेंगे। यह स्वप्न पूरा होगा या अंधकार में विलीन हो जाएगा, इसका फैसला हमारी राष्ट्रभावना के हाथ है। अगर हमारे हृदय में वह बीज पड़ गया है, हमारी संपूर्ण प्राण-शक्ति से फले-फूलेगा। अगर केवल जिह्वा तक ही है, तो सूख जाएगा।
हिन्दी और उर्दू साहित्य की विवेचना का यह अवसर नहीं है, और करना भी चाहें, तो समय नहीं। हमारा नया साहित्य अन्य प्रांतीय साहित्यों की भाँति ही अभी संपन्न नहीं है। अगर सभी प्रांतों का साहित्य हिन्दी में आ सके, तो शायद वह संपन्न कहा जा सके । बंगला साहित्य से तो हमने उसके प्राय: सारे रत्न ले लिए हैं और गुजराती, मराठी साहित्य से भी थोड़ी-बहुत सामग्री हमने ली है। तमिल, तेलुगु आदि भाषाओं से अभी हम कुछ नहीं ले सके, पर आशा करते हैं कि शीघ्र ही हम इस खजाने पर हाथ बढ़ाएँगे, बशर्ते कि घर के भेदियों ने हमारी सहायता की। हमारा प्राचीन साहित्य सारे का सारा काव्यमय है, और यद्यपि उसमे शृंगार और भक्ति की मात्रा ही अधिक है, फिर भी बहुत कुछ पढ़ने योग्य है। भक्त कवियों की रचनाएँ देखनी हैं, तो तुलसी, सूर और मीरा आदि का अध्ययन कीजिए, ज्ञान में कबीर अपना सानी नहीं रखता और शृंगार में इतना अधिक है कि उस एक प्रकार से हमारी पुरानी कविता को कलंकित कर दिया है। मगर, वह उन कवियों का दोष नहीं, परिस्थितियों का दोष है जिनके अंदर उन कवियों को रहना पड़ा। उस जमाने में कला दरबारों के आश्रय से जीती थी और कलाविदों को अपने स्वामियों की रुचि का ही लिहाज करना पड़ता था। उर्दू कवियों का भी यह हाल है। यही उस जमाने का रंग था। हमारे रईस लोग विलास में मग्न थे, और प्रेम, विरह और वियोग के सिवा उन्हें कुछ न सूझता था। अगर कहीं जीवन का नक्शा है भी, तो यह कि संसार चंद-रोजा है, अनित्य है, और यह दुनिया दु:ख का भंडार है और इसे जितनी जल्दी छोड़ दो, उतना ही अच्छा। इस थोथे वैराग्य के सिवा और कुछ नहीं। हाँ, सूक्तियों और सुभाषितों की दृष्टि से वह अमूल्य है उर्दू की कविता आज भी उसी रंग पर चली जा रही है. यद्यपि विषय में थोड़ी-सी गहराई आ गई है। हिन्दी में नवीन ने प्राचीन से बिल्कुल नाता तोड़ लिया है। और आज की हिन्दी कविता भावों की गहराई, आत्मव्यंजना और अनुभूतियों के एतबार से प्राचीन कविता से कहीं बढ़ी हुई है। समय के प्रभाव ने उस पर भी अपना रंग जमाया है और वह प्राय: निराशावाद का रुदन है। यद्यपि कवि उस रुदन से दु:खी नहीं होता , बल्कि उसने अपने धैर्य और संतोष का दायरा इतना फैला दिया है कि वह बड़े-से-बड़े दु:ख और बाधा का स्वागत करता है। और चूँकि वह उन्हीं भावों को व्यक्त करता है, जो हम सभी के हृदयों में मौजूद हैं उसकी कविता में मर्म को स्पर्श करने की अतुल शक्ति है। यह जाहिर है कि अनुभूतियाँ सबके पास नहीं होती और थोड़े-से कवि अपने दिल का दर्द कहते हैं, बहुत से केवल कल्पना के आधार पर चलते हैं। अगर आप दु:ख विकास चाहते हैं, तो ‘महादेवी’, ’प्रसाद’, ‘पंत’, ‘सुभद्रा’, ‘लली’, ’द्विज’, ‘मिलिन्द’, ‘नवीन’, पं माखनलाल चतुर्वेदी आदि कवियों की रचनाएँ पढ़िए। मैंने केवल उन कवियों के नाम दिये हैं, जो मुझे याद आये, नहीं तो और भी ऐसे कवि हैं, जिनकी रचनाएँ पढ़कर आप अपना दिल थाम लेंगे, दु:ख के स्वर्ग में पहुँच जाएँगे। काव्यों का आनंद लेना चाहें तो मैथिलीशरण गुप्त और त्रिपाठी जी के काव्य पढ़िये। ग्राम्य-साहित्य का दफीना भी त्रिपाठी जी ने खोदकर आपके सामन रख दिया है। उसमे से जितने रत्न चाहे शौक से निकाल ले जाइए और देखिये उस देहाती गान में कवित्व की कितनी माधुरी और कितना अनूठापन है। ड्रामे का शौक है, तो लक्ष्मीनारायण मिश्र के सामाजिक और क्रांतिकारी नाटक पढ़िये। ऐतिहासिक और भावमय नाटकों की रुचि है, तो ‘प्रसाद’ जी की लगाई हुई पुष्पवाटिकाओं की सैर कीजिए। उर्दू में सबसे अच्छा नाटक जो मेरी नजर से गुजरा, वह ‘ताज’ का रचा हुआ। ‘अनारकली’ है। हास्यरस के पुजारी हैं, तो अन्नपूर्णानन्द की रचनाएं पढ़िये। राष्ट्रभाषा के सच्चे नमूने देखना चाहते हैं, तो जी. पी. श्रीवास्तव के हँसने वाले नाटकों की सैर कीजिए। उर्दू में हास्य-रस के कई ऊँचे दरजे के लेखक हैं और पंडित रतननाथ दर तो इस रंग में कमाल कर गए हैं। उमर खैयाम का मजा हिन्दी में लेना चाहें तो ‘बच्चन’ कवि की मधुशाला में जा बैठिये। उसकी महक से ही आपको सरूर आ जाएँगा। गल्प-साहित्य में ‘प्रसाद’, ‘कौशिक’, ‘जैनेन्द्र’, ’भारतीय’, ‘अज्ञेय’, ‘विशेश्वर’ आदि की रचनाओं में आप वास्तविक जीवन की झलक देख सकते हैं, उर्दू के उपन्यासकारों में शरर , मिर्जा रुसवा, सज्जाद हुसैन, नजीर अहमद आदि प्रसिद्ध हैं, और उर्दू में राष्ट्र-भाषा के सबसे अच्छे लेखक ख्वाजा हसन निजामी हैं, जिनकी कलम में दिल को हिला देने को ताकत है। हिन्दी के उपन्यास-क्षेत्र में अभी अच्छी चीजें कम आई हैं, मगर लक्षण कह रहे हैं कि नयी पौध इस क्षेत्र में नये उत्साह, नये दृष्टिकोण, नये संदेश के साथ आ रही है। एक युग की इस तरक्की पर हमें लज्जित होने का कारण नहीं है।
मित्रों, मैं आपका बहुत-सा समय ले चुका, लेकिन एक झगड़े की बात बाकी है, जिसे उठाते हुए मुझे डर लग रहा है। इतनी देर तक उसे टालता रहा पर अब उसका भी कुछ समाधान करना लाजिम है। वह राष्ट्र-लिपि का विषय है। बोलने की भाषा तो किसी तरह एक हो सकती है, लेकिन लिपि कैसे एक हो? हिन्दी और उर्दू लिपियों में तो पूरब-पश्चिम का अंतर है। मुसलमानों को अपनी फारसी लिपि उतनी ही प्यारी है जितनी हिन्दुओं का अपनी नागरी लिपि। वह मुसलमान भी जो तमिल, बंगला या गुजराती लिखते- पढ़ते हैं, उर्दू को धार्मिक श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि अरबी और फारसी लिपि में वही अंतर है, जो नागरी और बंगला में है बल्कि उससे भी कम। इस फारसी लिपि में उनका प्राचीन गौरव, उनकी संस्कृति, उनका ऐतिहासिक महत्त्व सब कुछ भरा हुआ है। उसमे कुछ कचाइयाँ हैं, तो खूबियाँ भी हैं, जिनके बल पर वह अपनी हस्ती कायम रख सकी है। वह एक प्रकार का शार्टहैंड है। हमें अपनी राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि का प्रचार मित्र-भाव से करना है, इसका पहला कदम यह है कि हम नागरी लिपि का संगठन करें। बंगला, गुजराती, तमिल आदि अगर नागरी लिपि स्वीकार कर लें तो राष्ट्रीय लिपि का प्रश्न बहुत कुछ हल हो जाएगा और कुछ नहीं तो केवल संख्या ही नागरी को प्रधानता दिला देगी। और हिन्दी लिपि का सीखना इतना आसान है और इस लिपि के द्वारा उनकी रचनाओं और पत्र का प्रचार इतना ज्यादा हो सकता है कि मेरा अनुमान है, वे उसे आसानी से स्वीकार कर लेंगे। हम उर्दू लिपि को मिटाने तो नहीं जा रहे हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि हमारी एक कौमी लिपि हो जाए। अगर सारा देश नागरी लिपि का हो जाएगा, तो संभव है मुसलमान भी उस लिपि को कुबूल कर लें। राष्ट्रीय चेतना उन्हें बहुत दिन तक अलग न रहने देगी। क्या मुसलमानों में यह स्वाभाविक इच्छा नहीं होगी कि उनके पत्र और उनकी पुस्तकें सारे भारतवर्ष में पढ़ी जाएँ? हम तो किसी लिपि को भी मिटाना नहीं चाहते। हम तो इतना ही चाहते हैं कि अन्तरप्रांतीय व्यवहार नागरी में हो। मुसलमानों में राजनैतिक जागृति के साथ यह प्रश्न आप हल हो जाएगा। यू. पी. में यह आंदोलन भी हो रहा है कि स्कूलों में उर्दू के छात्रों को हिन्दी और हिन्दी के छात्रों को उर्दू का इतना ज्ञान अनिवार्य कर दिया जाए कि वह मामूली पुस्तकें पढ़ सकें और खत लिख सकें । अगर वह आंदोलन सफल हुआ, जिसकी आशा है, तो प्रत्येक बालक हिन्दी और उर्दू दोनों ही लिपियों से परिचित हो जाएगा। और जब भाषा एक हो जाएगी तो हिन्दी अपनी पूर्णता के कारण सर्वमान्य हो जाएगी और योजनाओं में उसका व्यवहार होने लगेगा। हमारा काम यही है कि जनता में राष्ट्र चेतना को इतना सजीव कर दें कि वह राष्ट्रहित के लिए छोटे छोटे स्वार्थों को बलिदान करना सीखे। आपने इस काम का बीड़ा उठाया है, और मैं जानता हूँ आपने क्षणिक आवेश में आकर यह साहस नहीं किया है बल्कि आपका इस मिशन में पूरा विश्वास और आप जानते हैं कि यह विश्वास कि हमारा पक्ष सत्य और न्याय का पक्ष, आत्मा को कितना बलवान बना देता है। समाज में हमेशा ऐसे लोगों की कसरत होती है जो खाने-पीने, धन बटोरने और जिंदगी के अन्य धंधों में लगे रहते हैं। यह समाज की देह है। उसके प्राण वह गिने-गिनाये मनुष्य हैं, जो उसकी रक्षा के लिए सदैव लड़ते रहते हैं-कभी अन्धविश्वास से, कभी मूर्खता से, कभी कुव्यवस्था से कभी पराधीनता से। इन्हीं लड़न्तियों के साहस और बुद्धि पर समाज का आधार है। आप इन्हीं सिपाहियों में हैं। सिपाही लड़ता है, हारने-जीतने की उसे परवाह नहीं होती। उसके जीवन का ध्येय ही यह है कि वह बहुतों के लिए अपने को होम कर दे आपको अपने सामने कठिनाइयों की फौजें खड़ी नजर आयेंगी। बहुत संभव है, आपको उपेक्षा का शिकार होना पड़े। लोग आपको सनकी और पागल भी कह सकते हैं। कहने दीजिए। अगर आपका संकल्प सत्य है, तो आप में से हरेक एकाएक सेना का नायक हो जाएगा। आपका जीवन ऐसा होना चाहिए कि लोगों को आप में विश्वास और श्रद्धा हो। आप अपनी बिजली से दूसरों में भी बिजली भर दें, हर एक पंथ की विजय उसके प्रचारकों के आदर्श-जीवन पर ही निर्भर होती है। अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में ऊँचे-से-ऊँचा उद्देश्य भी निंद्य हो सकता है। मुझे विश्वास है, आप अपने को अयोग्य न बनने देंगे।
[‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा’ के चतुर्थ उपाधि वितरणोत्सव के अवसर पर 20 दिसंबर, 1934 को दिया गया, दीक्षांत भाषण। ‘हंस’, जनवरी 1935]