रणजीतसिंह : मुंशी प्रेमचंद

Ranjit Singh : Munshi Premchand

भारत के पुराने शासकों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिस पर यूरोपीय ऐतिहासिकों और अन्वेषकों ने इतने विस्तार के साथ आलोचना की हो, जितना पंजाब के महाराज रणजीतसिंह पर। उनके चरित्र और स्वभाव, उनकी न्यायशीलता, उनके शौर्य और पराक्रम, उनकी प्रबन्ध पटुता, उनके उत्साहपूर्ण आतिथ्य-सत्कार और अन्य गुणों तथा विशेषताओं के संबन्ध में प्रतिदिन इतनी वार्ताएँ प्रसिद्ध होती थीं कि यूरोप के मनचले ग्रंथकारों और पर्यटकों के मन में अपने आप यह उत्सुकता उत्पन्न हो जाती थी कि चलकर ऐसे विलक्षण और गुण गरिष्ठ व्यक्ति को देखना चाहिए। और उनमें से जो आता, वह महाराज के सुन्दर गुणों की ऐसी गहरी छाप दिल पर लेकर जाता जो उनकी सराहना में दफतर के दफ्तर रंग डालने पर भी तृप्त न होती थी। सिराजुद्दौला, मीर जाफर और अवध के नवाबों का हाल पढ़ पढ़कर यूरोप में आम खचाल हो गया था कि भारत में यह योग्यता ही नहीं रही कि ऊंचे दरजे के राजनीतिज्ञ और शासक उत्पन्न कर सके। अधिक से अधिक वहाँ कभी कभी लुटेरे सिपाही निकल खड़े होते हैं और बस। पर महाराज रणजीतसिंह के व्यक्तित्व ने इस धारणा का बड़े जोर के साथ खण्डन कर दिया, और यूरोपवालों को दिखा दिया कि विभूतियों को उत्पन्न करना किसी विशेष देश या जाति का विशेषाधिकार नहीं है, किन्तु ऐसे महिमाशाली पुरुप प्रत्येक जाति और प्रत्येक काल में उत्पन्न होते रहते हैं। और यद्यपि रणजीतसिंह के अनेक चरित्र-लेखकों पर इस सामान्य कुधारणा का असर बना है और उनके चरित्र का अध्ययन करने में वह इस भावना को अलग नहीं रख सके। फिर भी महाराज की अपनी ख़ास ,खूबियों ने जो कुछ बरबस उनकी लेखनी से लिखवा लिया, वह इस बात को प्रमाणित कर देता है कि १८ वीं शताब्दी में नेपोलियन बोनापार्ट को छोड़कर कोई दूसरा ऐसा मनुष्य उत्पन्न नहीं हुआ। बल्कि उस परिस्थत को देखते हुए जिसके भीतर रणजीतसिंह को काम करना पड़ा, कह सकते हैं कि शायद नेपोलियन में भी वह योग्यताएँ न थीं जो महाराज-से व्यक्ति में एकत्र हो गई थीं। फ्रांस स्वाधीन देश था और वहाँ के दार्शनिकों ने जनसाधारण में प्रजातन्त्र के विचार फैला दिये थे। नेपोलियन को अधिक से अधिक इतना ही करना पड़ा कि मौजूद और तैयार मसाले को इकट्ठा कर उससे एक इमारत खड़ी कर ली। इसके विपरीत भारतं कई सौ साल से पीसा-कुचला जा रहा था, और रणजीतसिंह को उनसे निबटना पड़ा जो लम्बे अरसे तक भारत के भाग्य-विधाता रह चुके थे। निस्सन्देह, सेनापति रूप में नेपोलियन का पद ऊँचा है, पर शासन-प्रबन्ध की योग्यता में महाराज रणजीतसिंह उससे बहुत आगे बढ़े हुए हैं। यद्यपि उनका स्थापित किया हुआ राज्य उनके बाद अधिक दिन टिक न सका। पर इसमें स्वयं उनका कोई दोष नहीं। इसकी जिम्मेदार वह आपस की बैर और फूट है जिसने सदा इस देश की दुर्दशा कराई और जिसे महाराज रणजीतसिंह भी दिलों से दूर कराने में सफल न हो सके।

रणजीतसिंह के जन्म और बचपन का समय भारत में बड़ी हल- चल और परिवर्तन का काल था। वह सिख जाति जो गुरुगोविन्द सिंह के दिलो-दिमाग से उपजी थी और कई शहीदों ने जिसे अपने बहु-मूल्य रक्त से सींचकर जवान किया था, साहस और वीरत्व के मैदान में अपनी पताका फहरा चुकी थी। सन् १७९२ ई० से जब सिखों ने सरहिंद का किला जीता और जिसे अहमदशाह अब्दाली भी. उनसे न छीन सका, सिखों का बल-प्रभाव वृद्धि पर था। पर यह जातीय भाव, जो कुछ दिनों के लिए उनके हृदयों में तरंगित हो उठा था, विदा हो चुका था। दलबन्दी का बाजार गरम था और कितनी ही मिसलें कायम हो गई थीं, जिनमें दिन-रात मार-काट मची रहती थी। जिस विशेष लक्ष्य को लेकर सिख जाति उत्पन्न हुई थी, वह यद्यपि कुछ अंशों में पूरा हो चुका था, पर उसकी पूर्ण सिद्धि के पहले ही खुद उन्हीं में फूट फैलानेवाली ताकतों ने जोर पकड़ लिया और मुख्य उद्देश्य उपेक्षित हो गया। १८ वीं शताब्दी के अन्त में मुल्क की हालत बहुत नाजुक हो रही थी। निरंकुशता और उच्छृंखलता का राज था। जिस किसी ने कुछ लुटेरे सिपाहियों को जमा कर एक दल बना लिया, वह अपने किसी कमजोर पड़ोसी को दबाकर अपनी चार दिन की हुकूमत कायम कर लेता था, और कुछ दिन बाद उसे भी किसी अधिक बलवान व्यक्ति के लिए जगह खाली करनी पड़ती थी। न कोई क़ानून था, न कोई सुव्यवस्थित शासन। शति और लोकरक्षा अनाथ बच्चों की भाँति आश्रय ढुंढती फिरती थीं। हर गाँव का राजा जुदा, कानून जुदा और दुनिया जुदी थी। भाईचारा सिख़-वंश की एक प्रमुख विशेषता है। और केवल वही क्या, सभी धर्मों, मजहबों में मानव बन्धुत्व की शिक्षा विद्यमान है। यह शिक्षा उच्च और पवित्र है। किसी आदमी को क्या हक है कि दूसरों को अपना अधीन बनाकर रखे और उनके अस्तित्व से खुद फायदा उठाये ? संसार के सुखों में हर आदमी का हिस्सा बराबर है। सिख जाति ने जब तक इस भाव का आदर किया, इसे बरता और इसका अनुसरण किया, तब तक उसका बल बढ़ता गया, पर जब अहंकार और स्वार्थ-परता, लोभ और दंभ ने सिखों के दिलों में घर कर लिया, धन और अधिकार की चाट पड़ी, तो भाईचारे के भय को गहरा धक्का पहुँचा, जिसका फल यह हुआ कि राज्यों की स्थापना हो गई और भाई-भाई में मार-काट मचने लगी। गुरु गोविन्दसिंह ने भाईचारे का जोश पैदा किया, पर उसे पारस्परिक सहानुभूति का बल न उत्पन्न कर सके जो भाईचारे के कवच का काम करता है।

रणजीतसिह का जन्म सन् १७८० ई० में गुजरानवाला स्थान में हुआ, आम खयाल है कि उनके पिता एक गरीब जमींदार थे, पर यह ठीक नहीं है। उनके पिता सरदार महानसिंह सकर चकिया मिसिल के सरदार और बड़े प्रभावशाली पुरुष थे। पर २७ ही वर्ष की अवस्था में स्वर्ग सिधार गये। रणजीतसिंह उस समय कुल जमा १० साल के थे और इसी उम्र में उनके सिर पर भयावह ज़िम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा। परन्तु अकबर की तरह वह भी प्रबन्ध और संध- टन की योग्यता माँ के पेट से लेकर निकले थे, और इस दस वर्ष की वर्ष में ही कई लड़ाइयों में अपने पिता के साथ रह चुके थे। एक दिन एक भयानक युद्ध में वह बाल-बाल बचे। मानो उनका शैशव रणक्षेत्र में ही बीता और युद्ध के विद्यालय में ही उन्होने शिक्षा पाई। ८-१० साल का बच्चा, उसकी आँखों से नित्य मार-काट के दृश्ये गुजरते होंगे। कुटुम्ब के बड़े-बूढ़ों को चौपाल में बैठकर किसी पड़ोसी सरदार पर हमला करने के मंसूबे बाँधते या किसी बलवान् सरदार के आक्रमण से बचाव के उपाय सोचते देखता होगा और यह अनुभव उसके कोमल संस्कारपप्राही चित्र पर क्या कुछ छाप न छोड़ जाते होंगे! परवर्ती घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि यह अल्पवयस्क बालक तीक्ष्ण बुद्धि और प्रतिभावान् था, और जो शिक्षाएँ उसे मिलीं, उसके जीवन का अंग बन गई। उसने जो कुछ देखा, शिक्षा ग्रहण करने वाली दृष्टि से देखी। १२ वर्ष की अवस्था में बह सकर चकिया मिसिले के सरदार करार दिया गया और २० वें साल में कुछ अपनी बहादुरी और कुछ जोड़-होड़बाजी से लाहौर का राजा बन बैठा। इसका वृत्तान्त मनोरंजक है। सन् १७९८ ई० में अहमदशाह अब्दाली का पोता अपने दादा के जोते हुए प्रदेशों पर अधिकार स्थापन के इरादे से हिन्दुस्तान पर चढ़ा और लाहौर तक चला आया। उसका विचार था कि टिककर संबद्ध स्थानों से खिराज वसूल करे। पर इसी बीच उसे स्वदेश में विप्ल्व की खबर मिली। घबराकर लौटा। झेलम बाढ़ पर थी, बारबरदरी का इन्तजाम खराब! उसकी कई तोपें उसके साथ न जा सकीं। संयोगवश रणजीतसिंह वहीं पास में ही थे! शाह जमां से मिले तो उसने कहा-अगर तुम मेरी तोपें फा़रस भिजवा दो तो इसके बदले में तुम्हें लाहौर दे दें। रणजीतसिंह ने यह शर्त बड़ी खुशी से मंजूर कर ली। यद्यपि शाह जुमां का यह वादा कोई अर्थं न रखता था और रणजीतसिंह स्वयं शक्तिशाली न होते तो उससे कुछ भी लाभ न उठा सकते। पर उनके निजी बल और प्रभाव पर इस प्रतिज्ञा से दुहरी चाशनी चढ़ गई। इसके थोड़े ही दिनों बाद उन्होंने अमृतसर पर भी कब्जा कर लिया और अब उनकी शक्ति, और दबदबे के आगे सब मिमलें धूमिल पड़ गई।

यूरोपीय वृत्त लेखकों ने रणजीतसिंह पर स्वार्थपरता, विश्वासघात, निर्दयता, बेवफाई आदि के दोष लगायें हैं और उनके फतवे किसी हद तक सही भी हैं। राजनीति में पुराने आचार्यों ने भी थोड़ी-बहुत चालबाज़ी और कठोरता की इजाजत दी हैं, जिसे दूसरे शब्दों में बेवफाई और बेरहमी कह सकते हैं। इन उपायों के बिना राज्य का नवरोपित बिरवा कभी जड़ नहीं पकड़ सकता। रही स्वार्थ-परता की बात, सो यह दोष हर आदम पर सामान्यतः और हरएक राजा पर विशेषतः घटित हो सकता है। आज तक किसी जाति में कोई ऐसा बादशाह नहीं हुआ जिसने किसी जाति पर केवल सदुद्देश्य, मानव-हित या परोप्रकार की भावना से राज्य किया हो, बल्कि हमें तो इसके मानने में भी हिचक है कि यह नेकनीयती स्वार्थ को दबाये हुए थी। स्वार्थ शासन के मूल में ही बैठा हुआ है। यह भी ध्यान रहे कि रणजीतसिंह के वचन, व्यव्हार और राजनीति को आज की नैतिक कसौटी पर कसना न्याय नहीं है। रणजीतसिंह ने लाहौरी दरबार की रंगभूमि पर जब अपना अभिनय किया था उसको सौ साल का जमाना बीत चुका और इन सौ वर्षों में सभ्यता, सदाचार और सामाजिक जीवन के आदर्श बहुत आगे निकल गये हैं। नीति और सदाचार का मानदण्ड प्रत्येक युग में बदलती रहती है। जो काम आज से १०० साल पहले जायज समझा जाता था, आज अविहित है, और संभव है कि बहुत-सी बातें जिन्हें आज हम बेझिझक करते हैं, १०० साल बाद लज्जाजनक समझी जाने लगें। सौ साल का ज़माना तो बहुत होता है, अभी २५ साल से अधिक नहीं बीते जब होली के दिनों में हर शहर के विलास-प्रिय रईसों की मण्डलियों के साथ नशे में झूमते हुए गलियों की सैर करते देखना साधारण बात थीं; पर अब यह लज्जा- जनक समझा जाता है। बल्कि कोई भला आदमी आज शराब पीकर पब्लिक में निकलने की हिम्मत न करेगा। इन बातों को ध्यान में रखते हुए अगर हम रणजीतसिंह के आचरणों को जाँचें, परखें तो हम निश्चय ही इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि शासक के मान-दण्ड से देखते हुए उनसे बहुत कम ऐसे कर्म हुए हैं जिन पर उन्हें लज्जित होना पड़े। पर हाँ, इन मान दण्ड की शर्त है।'

महाराज रणजीतसिंह बड़े ही स्थिरचित, परिश्रमी और परिणाम- दर्शी व्यक्ति थे। उनकी हिम्मत ने हारना सीखा ही न था। श्रमशीलता और कष्ट-सहिष्णुता को यह हाल था कि अकसर दिन का दिन घोड़े की पीठ पर ही बीत जाता। सूझ-बूझ उन की जबर्दस्त थी। पुस्तकी विद्या से बिल्कुल कोरे थे पर विद्वानों के साथ वार्तालाप और पर्यवेक्षण के द्वारा अपनी जानकारी इतनी बढ़ा ली थी कि यूरोपीय यात्रियों को उनकी बहुश्रुतता पर आश्चर्य होता था। साहस तो उनका स्वभाव ही था। साहसिक कार्यों के, खासकर साहस भरी यात्राओं के वृत्तान्त बड़ी रुचि से सुनते थे। यूरोप की नई खोजों और आविष्कारों का पता रखने को उत्सुक रहते थे। उनका पहनावा बहुत सादा और बनावट से खाली होता था। और यद्यपि देखने में सुन्दर न थे, बल्कि यह कहना अधिक सत्य होगा कि कुरूप थे, और डील-डौल के विचार से भी कुछ अधिक भाग्यशील न थे। पर उनके गुणों ने इन बाह्य दोषों को छिपा लिया था। चेहरे पर चेचक के भद्दे दाग थे, और एक आँख भी उसकी नजर हो चुकी थी, फिर भी मुख मण्डल पर एक तेज बरसा करती थी। फकीर अजीजुद्दीन लाहौर दरबार मैं परराष्ट्र सचिव के पद पर नियुक्त थे। एक बार दूत-रूप से लार्ड बैटिंग के पास गये थे। बातचीत के सिलसिले में लोर्ड बैटिंग पूछ-बैठे कि महाराज की कौन-सी आँख जाती रही हैं। अजीजुद्दीन ने इसके जवाब में कहा- जनाब! मेरे प्रतापी स्वामी के चेहरे पर वह तेज है कि इसमें से किसी को इतना साहस ही न हुआ कि उनकी और आँख उठा सकें। उत्तर यद्यपि अतिरंजना में रहित ने था, फिर भी उससे रणजीतसिंह के उस रोज का पता चलता है जो दरवारवालों के दिलों पर छाया हुआ था।

रणजीतसिंह जन्म सिद्ध शासक थे। उनमें कोई ऐसा गुण, कोई, ऐसी शक्ति, कोई ऐसी अकर्षण था जो बड़े-बड़े हेकड़ों और अहम्मन्थों को भी उनकी अधीनता स्वीकार करने को बाध्य कर देता था। अदमियों को परखने की उनमें जबर्दस्त योग्यता थी और उनकी सफलता की बहुत बड़ा कारण उनकी यही गुण थी! कौन आदमी किस काम को औरों से अच्छी तरह कर सकता है, इसका निर्णय करना आसान बात नहीं हैं। शाहजहाँ, जहाँगीर, औरंगजेब बड़े-बड़े ‘बादशाह थे पर उनके राजत्व में आये दिन बगावते और साजिशें होती रहती थीं, और सूबेदारों को दबाने के लिए अक्सर दिल्ली से फौजे रवाना करनी पड़ती थीं। रणजीतसिंह के राज्यकाल में ऐसी घटनाएँ कचित् ही होती थीं। उस उथल-पुथल के जमाने में भी उनके कर्मचारी कितनी सचाई से काम करते थे यह देखकर आश्चर्य होता है। महाराज धर्मगत निष्पक्षता के सजीव उदाहरण थे, खासकर राजकर्मचारियों के चुनाव में इस राग-द्वेष को जरा भी दल न देने देते थे। इस नीति में वह अकबर से भी बढ़े हुए थे। सिखों को मुसलमानों से कोई लाभ ना पहुँचा था, बल्कि उल्टा उन्होंने सिखों की अस्तित्व मिटा देने में कोई यत्न नहीं उठा रखा था, पर रणजीतसिंह इस संकीर्णता से सर्वथा मुक्त थे। उनके दरबार में कई प्रमुख पद पर मुसलमान नियुक्त थे। फकीर अजीजुद्दीन, नूरुद्दीन, इमामुद्दीन सब के सब में ऊंचे पदों पर थे। ब्राह्मण, खत्री, राजपूत, हरएक जाति से उन्होंने राय- प्रबन्ध में सहायता ली। जहाँ भी उन्हें गुण दिखाई दिया, उसकी कद्र की। राजा दीनानाथ, दीवान सुहकमचन्द, रामपाल मिश्र, दीवान साँवलमल, लाहौर दरबार के स्तंभों में थे और बड़े बड़े महत्व के कार्यो पर नियुक्त थे। रणजीतसिंह की सूक्ष्मदर्शी दृष्टि ने ताड़ लिया था कि अगर न्याय और क्षेम-कुशल की नीति से राज्य करना है तो उन जातियों की सहायता के बिना काम नहीं चलेगा जो बहुत दिनों से राज्य-कार्य में भाग लेती आई हैं। सिखों ने इस समय तक युद्ध-क्षेत्र के सिवा शासन-प्रबन्ध में अपनी योग्यता का परिचय नहीं दिया था। अतः सैनिक-पद अधिकतर सिखों के हाथ में थे। दीवानी और माल के पद मुसलमानों, ब्राह्मणों, खत्रियों और कायस्थों के हाथ में थे, पर फौजी चढ़ाइयों में सेनापति अक्सर उपयुक्त अधिकारी ही बनाये जाते थे। उस समय से अब तक इस निष्पक्षता को निभाना सिख राजाओं ने अपना सिद्धान्त बना रखा है, खासकर नाभा, पटियाला, कपूरथला और झींद में, जो सिखों की सबसे बड़ी रियासते हैं, यह उदार विचार विशेष रूप से दिखाई देता है। हाँ, इसलामी रियासतों में स्थिति इसकी उलटी है। हैदराबाद को छोड़कर जहाँ एक हिन्दू सज्जन मन्त्री के पद पर प्रतिष्ठित हैं, और शायद कोई ऐसी रियासत नहीं जहाँ इस धर्म-गत उदारता से काम लिया जाता हो। हिन्दुओं को कट्टर और अनुदार कहना सहज है, पर वस्तुस्थिति इसकी उलटी है। अभी हाल में ही महाराज जयपुर में एक मुसलमान सज्जन को दीवान बनाया है। क्या यह हिन्दुओं की संकीर्णता है ?

उस जमाने में अकसर अदूरदर्शी नरेशों की यह रीति थी कि शत्रु पर विजय पाने के बाद उसे मटियामेट कर देते या ऐसा कठोर व्यवहार करते कि उसके हृदय में प्रतिहिंसा और द्वेष की आग भड़कती रहती थी। पर रणजीत सिंह की नीति इस विषय में मनुष्यता और भद्रता की नीति थी, जो यद्यपि आज की रीति-नीति के अनुसार साधारण व्यवहार है, पर उस तूफानी ज़माने का ख़याल करते हुए अति असाधारण बात थी। रणजीतसिंह शत्रु पर विजय पाने के बाद उसके साथ ऐसे सौजन्य और शिष्टता का व्यवहार करते कि वह उनकी दोस्ती का दम भरने लगता। कठोरता के बदले वह उसे सौजन्य और अनुग्रह की साँकल में बाँधते थे। कई बार घेरा डालने के बाद मुलतान पर उनका कब्जा हुआ और नवाब मुजफ्फर खाँ अपने पांच बेटी तथा तीन सौ स्वजनों के साथ किले के दरवाजे पर मारा गया, तो उन्होने नवाब के दो बाकी लड़को को दरवार में बुला लिया और उनके वज़ीफे मुक़र्रर कर दिये। इसी तरह मुहम्मद यार खाँ निवाना और दूसरे पराजित सरदारों के साथ भी उन्होने भलमनसी का बरताव कायम रखी। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि शत्रु को जीतने के बाद उन्होंने उसे जिंदा दीवार मे चुनवा दिया हो, खुलेआम शिरच्छेद करा दिया हो या उन पर बुद्ध की बुखार निकाला हो। अकसर उन्हीं पराजित शत्रुओ पर उनका अनुग्रह होता था, जिन्होने मर्दानगी से उनका मुक़ाबला किया हो। वह स्वय वीर पुरुष थे और वीरता का आदर करते थे। जोधसिंह वजिरावाद का एक सिख सरदार था। किसी कारण महाराज उस पर नाराज हुए और उसे दंड देना चाहा। पर इसके लिए सेना भेजी जाय, यह पसन्द न करते थे। अतः उसे बहाने से दरबार में बुलाया और गिरफतार करना चाहा। जोधसिंह ने तुरत तलवार खीच ली और मरने-मारने को तैयार हो गया। महाराज उसकी मर्दानगी पर इतने खुश हुए कि उसी जगह उसका प्रेमालिंगन किया, और जब तक वह ज़िन्दा रहा उसे मानते रहे।

रणजीत सिंह के पहले सिख-सेना अधिकतर सवारों की होती थी, पैदछ तिरस्कार की दृष्टि से देखे जाते थे। इनके विरुद्ध यूरोप में पैदल सेना ही युद्ध का आधार होती थी और हैं। अँग्रेजी पैदल सेना अनेक बार हिन्दुस्तानी घोड़सवारों के पैर उखार चुकी थी। यह देखकर महाराज ने भी अपनी सेना की कायापलट कर दी। सवारों के बदले पैदल सेना का संघटन आरंभ किया और इस कार्य के लिए फ्रांस और इटली के कई अनुभव जनरलों को नियुक्त किया जिनमें से कई नेपोलियन बोनापार्ट के तिलिस्मी युद्धों में शरीक रह चुके थे। जेनरल वंचूर उनमें सबसे अधिक कुशल था। इस सेना-नायकों के शिक्षण ने सिख पैदल. सेना को यूरोप की अच्छी से अच्छी सेना को ललकारने लायक बना दिया था। पंजाब के चुने हुए जवान यादों में भरती किये जाते थे और महाराज की यह कोशिश रहती थी कि सेना का यह विभाग अधिक लोकप्रिय हो जाये। सिख पैदल सेना को परिश्रम और कष्टसहन का इतना अभ्यास था कि महीनों तक लगातार रोज २० मील की मजिले़” मार सकती थी। महाराज की संपूर्ण सेना करीब एक लाख थी, और जागीरदारो की मिलाकर सवा लाख।

रणजीतसिंह के राज्य में पंजाब खास, सतलज और सिन्ध के बीच का प्रदेश, काश्मीर, मुलतान, डेराजान, पेशावर और सरहदी जिले शामिल थे। यद्यपि राज्य अधिक विस्तृत न था, पर उसमें हिन्दुस्तान के वह हिस्से शामिल थे जो प्राकृतिक अवस्था की दृष्टि से दुर्गम हैं और जहाँ लड़ाके, साहसी, किसी की अधीनता न जाननेवाले और धोखेबाज लोग बसते हैं। भारत के सम्राटों के लिए यह भू-भाग सदा परेशानियों और कठिनाइयों का भंडार साबित हुआ है। मुग़ल बादशाहो के समय अकसर वहाँ फ़ौज भेजनी पड़ती थी, और यह चढ़ाइयाँ परिणाम की दृष्टि से तो नगण्य होती थीं, पर खर्च और रक्तपात के विचार से बहुत ही महत्वपूर्ण होती थीं। यह प्रदेश जाहिल और कट्टर मुसलमान जातियों से आबाद हैं जो शिक्षा और सभ्यता से बिल्कुल कोरे हैं और जिनके जीवन का उद्देश्य केवल चारी, डाकी और लूट है। और यद्यपि यह भू-खण्ड पचास साल से अँग्रेजी राज्य की मंगलमयी छाया के नीचे है, फिर भी अज्ञान और अन्धकार के उसी गहरे गढ़ में गिरा हुआ है। यह लोग जब मौक़ा पाते हैं, सरहद के हिन्दुओं और वह न मिले तो मुसलमानों पर ही अपनी बर्बरता चरितार्थ कर लेते हैं। रणजीतसिंह को इन जातियों से बहुत नुकसान उठाने पड़े। तजरबेकार अफसर और चुनी हुई पलटने अक्सर इन्हीं सरहदी झगड़ों की नज़र हो जाया करती थीं। यों तो बारहों मास छेड़छाड़ होती रहती थी, पर लेन की वसूली का जमाना दूसरे शब्दों में युद्ध-काल होता था। रणजीतसिंह को अगर दक्षिण दिशा में राज्य-विस्तार की सुविधा होती तो संभवतः वह इन सरहदी इलाकों की ओर ध्यान न देते। पर दक्षिण में तो ब्रिटिश सरकार ने उनके बढ़ने की हद बाँध दी थी और पटियाला, नाभा, सौंद आदि सिख राज्यों को अपने प्रभाव में ले लिया था।

विद्या और ललितकला की उन्नति की दृष्टि से रणजीतसिंह की शासन-काल उल्लेखनीय नहीं है उनकी जिन्दगी राज्य को सुदृढ़ बनाने की कोशिशों में ही समाप्त हो गई। स्थापत्य-काल की वह स्मरणीय कृतियाँ जो अब तक मुगल राज्य की याद दिला रहीं हैं, उत्पन्न न हो मर्की, क्योंकि यह पौधे शान्ति के उद्यान में ही उगने और फलते-फूलते हैं।

रणजीतसिंह का वैयक्तिक जीवन सुन्दर और स्पृहणीय नहीं कहा जा सकता। उन दुर्बलताओं में उन्होंने बहन बड़ा हिस्सा पाया था जो उस ज़माने में शरीफ और रईसों के लिए बड़प्पन की सामग्री समझी जाती थीं। और जिनसे यह वर्ग आज भी विमुक्त नहीं है। इनके ९ विवाहित रानिया थीं और ९ रखेलियाँ थीं। लौडियों की संख्या तों सैकड़ों तक पहुँचती थी। विवाहिता रानियाँ प्रायः प्रभाव शाली सिख-घरानो की बेटियाँ थीं। जिन्हें उनके बाप-भाइयों ने अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए रनिवास में पहुँचा दिया था। इस कारण वहाँ अकसर साज़िशें होती रहती थीं। मद्यपान भी इस समय सिख रईसों का एक सामान्य व्यसन था और महाराज तो राजब के पीनेवाले थे। उनकी शराब बहुत ही तेज होती थी। इस अति मध्पान के कारण ही वे कई बार लकवे के शिकार हुए और अंतिम आक्रमण सांघातिक सिद्ध हुआ। यह हमला १८३० के जोड़े में हुआ और साल भर बाद जान लेकर ही गया। पर इस सांघातिक व्याधि से पीड़ित रहते हुए भी महाराज राजके आवश्यक कार्य करते रहे। उस सिंह का जिसकी गर्जना से पंजाब और अफगानिस्तान काँप उठते थे, सुखपाल में सवार होकर फौन की कवायद देखने के लिए जाना बड़ी ही हृदयविदारक दृश्य थी। हजारों आदमी उनके दर्शन के लिए सड़को की दोनों ओर खड़े हो जाते, और उन्हें इस दशा में देखकर करुणा और नैराश्य के आँसू बहाते थे। अंत को मौत का परवाना आ पहुँचा और महाराज ने राजकुमार खड्गसिंह को बुलाकर अपना उत्तराधिकारी तथा राजा ध्यानसिंह को प्रधान मंत्री नियत किया। २५ लाख रुपया गरीब मुहताजों में बाँटा गया! और संध्या समय जब रनिवास में दीपक जलाये जा रहे थे, महाराज के जीवनदीप का निर्वाण हो गया।

ध्यानसिंह को प्रधान मंत्री बनाना महाराज की अन्तिम और महा अनर्थकारी भूल थी। शायद उस समय अन्य शारीरिक-मानसिक शक्तियों के सदृश उनकी विवेक शक्ति भी दुर्बल हो गई थी। महाराज की मृत्यु के बाद ६ साल तक उथल-पुथल और अराजकता का काल था। खड्गसिंह और उसका पुत्र नौनिहालसिंह दोनों क़तल कर दिये गये, फिर शेरसिंह गद्दी पर बैठे। उसकी भी वही गति हुई। और सिख-सिंहासन को अन्तिम अधिकारी अंग्रेज सरकार को वृति-भोगी बन गया। इस प्रकार वह सुविशाल प्रसाद जो रणजीतसिंह ने निर्माण किया था, दो ही वर्षों में धराशायी हो गया।

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