रानी नागफनी की कहानी (व्यंगात्मक उपन्यास) : हरिशंकर परसाई
Rani Nagaphani Ki Kahani (Hindi Satirical Novel) : Harishankar Parsai
यह एक व्यंग्य कथा है। 'फेंटजी' के माध्यम से मैंने आज की वास्तविकता के कुछ पहलुओं की आलोचना की है।
'फेंटेजी' का माध्यम कुछ सुविधाओं के कारण चुना है। लोक-मानस से परंपरागत संगति के कारण ‘फेंटेजी’
की व्यंजना प्रभावकारी होती है इसमें स्वतंत्रता भी काफी होती है और कार्यकारण संबंध का शिकंजा ढीला होता है।
यों इनकी सीमाएं भी बहुत हैं।
मैं ‘शाश्वत-साहित्य’ रचने का संकल्प करके लिखने नहीं बैठता। जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं होता, वह अनंतकाल के प्रति कैसे हो लेता है, मेरी समझ से परे है।
मुझ पर ‘शिष्ट हास्य’ का रिमार्क चिपक रहा है। यह मुझे हास्यापद लगता है। महज हँसाने के लिए मैंने शायद
ही कभी कुछ लिखा हो और शिष्ट तो मैं हूँ ही नहीं। कभी ‘शिष्ट हास्य’ कहकर पीठ दिखाने में भी सुभीता होता है।
मैंने देखा है-जिस पर तेजाब की बूँद पड़ती है, वह भी दर्द दबाकर, मिथ्या अट्ठहास कर, कहता है, ‘वाह, शिष्ट हास्य है।’
मुझे यह गाली लगती है।
सात-आठ साल पहले मुंशी इंशाअल्लाखां की ‘रानी केतकी की कहानी’ पढ़ते हुए मेरे मन में भी
एक ‘फेंटजी’ जन्मी थी। वह मन में पड़ी रही और उसमें परिवर्तन भी होते रहे। अब वह ‘रानी नागफनी की कहानी’
के रूप में लिखी गयी।
यह एक व्यंग्य-कथा है। ‘फेंटजी’ के माध्यम से मैंने आज की वास्तविकता के कुछ पहलुओं की आलोचना की है।
‘फेंटजी’ का माध्यम कुछ सुविधाओं के कारण चुना है। लोक-कल्पना से दीर्घकालीन संपर्क और लोक-मानस से
परंपरागत संगति के कारण ‘फेंटजी’ की व्यंजना प्रभावकारी होती है। इसमें स्वतंत्रता भी काफी होती है और कार्यकारण
संबंध का शिकंजा ढीला होता है। यों इसकी सीमाएं भी बहुत हैं।
मैं ‘शाश्वत साहित्य’ रचने का संकल्प करके लिखने नहीं बैठता। जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं होता, वह अनंत काल के प्रति कैसे हो लेता है, मेरी समझ से परे है।
मुझ पर ‘शिष्ट हास्य’ का रिमार्क चिपक रहा है। यह मुझे हास्यास्पद लगता है। महज हँसाने के लिए मैंने शायद ही कभी
कुछ लिखा हो और शिष्ट तो मैं हूँ ही नहीं। मगर मुश्किल यह है कि रस नौ ही हैं और उनमें ‘हास्य’ भी एक है।
कभी ‘शिष्ट हास्य’ कहकर पीठ दिखाने में भी सुभीता होता है। मैंने देखा है-जिस पर तेजाब की बूँद पड़ती है,
वह भी दर्द दबाकर मिथ्या अट्ठहास कर, कहता है, ‘वाह, शिष्ट हास्य है।’ मझे यह गाली लगती है।
खैर, अब ’रानी नागफनी की कहानी’ पढ़िए।
लेखक
फ़ेल होना कुंअर अस्तभान का और करना आत्महत्या की तैयारी
किसी राजा का एक बेटा था, जिसे लोग अस्तभान नाम से पुकाराते थे। उसने अट्ठाइसवां वर्ष पार किया था और उनतीसवें में लगा था। पर राजा ने स्कूल में उसकी उम्र चार साल कम लिखाई थी, इसलिए स्कूल रजिस्टर के मुताबिक़ उसकी उम्र चौबीस साल ही होती थी।
कुंअर अस्तभान का एक मित्र था, जिसका नाम मुफतलाल था। मुफतलाल उस युग में बड़ा प्रसिद्ध आदमी हो गया है। जब लोगों को ‘जैसा नाम वैसा काम’ का उदाहरण देना होता, तो वे मुफतलाल का नाम लेते थे। कुंअर अस्तभान और मुफतलाल दोनों बचपन के साथी थे। दोनों साथ स्कूल जाते और एक ही बेंच पर बैठते। दोनों कक्षा में बैठे-बैठे साथ मूंगफली खाते, पर पिटता मुफतलाल था। अस्तभान बच जाता, क्योंकि वह राजा का लड़का था। दोनों पुस्तकें बेचकर मैटिनी शो सिनेमा देखते। परीक्षा में दोनों एक-दूसरे की नक़ल करते, इसलिए अक्सर दोनों ही फ़ेल हो जाते। बकरे की बोली बोलना दोनों ने एक साथ ही सीखा था और दोनों लड़कियों के कॉलेज के चौराहे पर साथ-साथ बकरे की बोली बोलते थे। इस प्रकार दोनों की शिक्षा-दीक्षा एक-सी अच्छी हुई थी। पर एक राजकुमार था और दूसरा उसका मुसाहिब। इसी को लक्ष्य करके किसी ने कहा है, ‘दो फूल साथ फूले क़िस्मत जुदा-जुदा।’
मई का महीना है। यह परीक्षाओं के रिज़ल्ट खुलने का मौसम है। दोनों मित्र इस वर्ष बीए की परीक्षा में बैठे हैं।
प्रभात का सुहावना समय है। अस्तभान अपने कमरे में बैठा है। पास ही मुफतलाल है। अस्तभान की गोद में चार-पांच अख़बार पड़े हैं। वह एक अख़बार उठाता है और उसमें छपे सब नाम पढ़ता है। फिर आह भरकर रख देता है। तब दूसरा अख़बार उठाता है। उसमें छपे हुए नाम पढ़कर एक आह के साथ उसे भी रख देता है। इस प्रकार वह सब अख़बार पढ़कर रख देता है और खिड़की के बाहर देखने लगता है। मुफतलाल छत पर टकटकी लगाए बैठा है। कमरे में बड़ी भयानक शांति है। शांति को अस्तभान भंग करता है। मुफतलाल की तरफ नज़र घुमाकर कहने लगा, ‘मित्र, तुम पास हो गए और मैं इस बार भी फ़ेल हो गया।’
मुफतलाल की आंखों से टपटप आंसू चूने लगे। वह बोला, ‘कुमार, मैं पास हो गया, इस ग्लानि से मैं मरा जा रहा हूं। आपके फ़ेल होते हुए मेरा पास हो जाना इतना बड़ा अपराध है कि इसके लिए मेरा सिर भी काटा जा सकता है। मैं अपना यह काला मुंह कहां छिपाऊं? यदि हम दूसरी मंज़िल पर न होते, ज़मीन पर होते, तो मैं कहता- हे मां पृथ्वी, तू फट जा और मैं समा जाऊं।’
मित्र के सच्चे पश्चाताप से अस्तभान का मन पिघल गया। वह अपना दु:ख भूल गया और उसे समझाने लगा, ‘मित्र, दु:खी मत होवो। होनी पर किसी का वश नहीं। तुम्हारा वश चलता तो तुम मुझे छोड़कर कभी पास न होते।’ मुफतलाल कुछ स्वस्थ हुआ। अस्तभान ने अख़बारों को देखा और क्रोध से उसका मुंह लाल हो गया। उसने सब अख़बारों को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। फिर पसीना पोंछकर बोला, ‘किसी अख़बार में हमारा नाम नहीं छपा। ये अख़बार वाले मेरे पीछे पड़े हैं। ये मेरा नाम कभी नहीं छापेंगे। भला यह भी कोई बात है कि जिसका नाम अख़बार वाले छापें, वह पास हो जाए और जिसका न छापें, वह फ़ेल हो जाए। अब तो पास होने के लिए मुझ अपना ही अख़बार निकालना पड़ेगा। तुम्हें मैं उसका सम्पादक बनाऊंगा और अब तुम मेरा नाम पहले दर्ज़े में छापना’ मुफतलाल ने विनम्रता से कहा, ‘सो तो ठीक है, पर मेरे छाप देने से विश्वविद्यालय कैसे मानेगा?’
कुंअर ने कहा, ‘और इन अख़बारों की बात क्यों मान लेता है?’
मुफतलाल का हंसने का मन हुआ। पर राजकुमार की बेवक़ूफ़ी पर हंसना क़ानूनन जुर्म है, यह सोचकर उसने गम्भीरता से कहा, ‘कुमार, पास-फ़ेल तो विश्वविद्यालय करता है। अख़बार तो इसकी सूचना मात्र छापते हैं।’
अस्तभान अब विचार में पड़ गया। हाथों की उंगलियां आपस में फंस गईं और सिर लटक गया। बड़ी देर वह इस तरह बैठा रहा। फिर एकाएक उठा और निश्चय के स्वर में बोला, ‘सखा, हम आत्महत्या करेंगे। चार बार हम बीए में फ़ेल हो चुके। फ़ेल होने के बाद आत्महत्या करना वीरों का कार्य है। हम वीर-कुल के हैं। हम राजपुत्र हैं। हम आन पर मर मिटते हैं। हमें तो पहली बार फ़ेल होने पर ही आत्महत्या कर लेनी थी। हमें आत्महत्या कर ही लेनी चाहिए। जाओ, इसका प्रबंध करो।’
मुफतलाल उसके तेज को देखकर सहम गया। वह चाहता था कि अस्तभान कुछ दिन और ज़िंदा रहे। उसने डिप्टी कलेक्टरी के लिए दरख़्वास्त दी थी और चाहता था कि अस्तभान सिफ़ारिश कर दे। वह समझाने लगा, ‘कुमार, मन को इतना छोटा मत करिए। आप ऊंचे खानदान के आदमी हैं। आपके कुल में विद्या की परम्परा नहीं है। आपके पूज्य पिताजी बारह-खड़ी से मुश्किल से आगे बढ़े और आपके प्रात: स्मरणीय पितामह तो अंगूठा लगाते थे। ऐसे कुल में जन्म लेकर आप बीए तक पढ़े, यह कम महत्व की बात नहीं है। इसी बात पर आपका सार्वजनिक अभिनंदन होना चाहिए। कुमार, पढ़ना-लिखना हम छोटे आदमियों का काम है। हमें नौकरी करके पेट जो भरना है। पर आपकी तो पुश्तैनी जायदाद है। आप क्यों विद्या के चक्कर में पड़ते हैं?’
दुविधा पैदा हो गई थी। ऐसे मौक़े पर अस्तभान हमेशा मुफतलाल की सलाह मांगता था। उसे विश्वास था कि वह उसे नेक सलाह देता है। कहने लगा, ‘मित्र, मैं दुविधा में पड़ गया हूं। तू जानता है मैं तेरी सलाह मानता हूं। जो कपड़ा तू बताता है, वह पहनता हूं। जो फ़िल्म तू सुझाता है, वही देखता हूं। तू ही बता मैं क्या करूं। मै तो सोचता हूं कि आत्महत्या कर ही लूं।’
मुफतलाल ने कहा, ‘जी हां, कर लीजिए।’
अस्तभान कुछ सोचकर बोला, ‘या अभी न करूं?’
मुफतलाल ने झट कहा, ‘जी हां, मत करिए। मेरा भी ऐसा ही ख़्याल है।’
कुंअर फिर सोचने लगा। सोचते-सोचते बोला, ‘एक साल और रुकूं। अगले साल कर लूंगा। क्या कहते हो?’
मुफतलाल ने कहा, ‘जी हां, मैं भी सोचता हूं कि अगले साल ही करिए।’
कुंअर फिर बोला, ‘पर फ़ेल तो अगले साल भी होना है। अच्छा है, अभी आत्महत्या कर डालूं।’
मुफतलाल ने कहा, ‘जी हां, जैसे तब, वैसे अब। कर ही डालिए।’
कुंअर अस्तभान बहुत प्रसन्न हुआ। उसने मुफतलाल को गले से लगाकर कहा, ‘मित्र, मैं इसीलिए तो तेरी क़द्र करता हूं कि तू बिलकुल स्वतंत्र और नेक सलाह देता है। तुझ-सा सलाहकार पाकर मैं धन्य हो गया।’
मुफतलाल सकुचा गया। कहने लगा, ‘हें-हें, यह तो कुमार की कृपा है। मैं तो बहुत छोटा आदमी हूं। पर इतना अलबत्ता है कि जो बात आपके भले की होगी, वही कहूँगा- आपको बुरा लगे या भला। मुँह-देखी बात मैं नहीं करता।’
‘मैं जानता हूं, मैं जानता हूं।’ कुंअर ने कहा। ‘तो अब यह तय हो गया कि हम आत्महत्या करेंगे। इसके लिए सारा प्रबंध तुम्हारे ज़िम्मे है। प्राचीन काल से लेकर अभी तक आत्महत्या के जितने तरीक़े अपनाए गए हैं, उन सबका अध्ययन करके ऐसा तरीक़ा चुनो, जो अवसर के अनुकूल हो और हमारी प्रतिष्ठा के योग्य हो।’
मुफतलाल ने सिर झुकाकर कहा, ‘जो आज्ञा, कुमार।’ वह वहीं खड़ा-खड़ा कभी अस्तभान को देखता और कभी फ़र्श को। वह कुछ कहना चाहता था। उसके भीतर भावों का तूफ़ान उठ रहा था।
उसकी यह हालत देखकर अस्तभान ने कहा, ‘तुम कुछ कहना चाहते हो, मुफतलाल?’
‘जी,’ मुफतलाल ने कहा।
‘तो बोलो। क्या बात है?’
मुफतलाल बोला, ‘कुमार, मैं भी आपके साथ चलूंगा।’
‘कहां?’
‘उस लोक में। मैं भी आत्महत्या करूंगा।’
इस स्नेह से अस्तभान का हृदय भर आया। बड़ी मुश्किल से आंसू रोकर उसने कहा, ‘मित्र, मैं तेरे प्रेम को जानता हूं। पर तू आत्महत्या कैसे करेगा? तू तो पास हो गया है। तेरे लिए यह अवसर नहीं है। तूने डिप्टी कलेक्टरी की दरख़्वास्त दी है। तेरे लिए आत्महत्या का मौक़ा तब आएगा, जब तेरी नौकरी नहीं लगेगी। तू तो जानता है कोई युवक परीक्षा में फ़ेल होने से चाहे बच जाए, पर बेकारी से नहीं बच सकता। तू बेकारी के कारण आत्महत्या करना और मुझसे आ मिलना।’
मुफतलाल ने कहा, ‘सो तो ठीक है, कुमार। पर तब तक यहां कैसे गुज़र होगी? मेरा कोई और सहारा नहीं है। मैंने आपके सिवा किसी को नहीं जाना।’ वह रो पड़ा।
कुंअर की भी आंखें भर आईं। उसने मुफतलाल को गले लगाया और कहा, ‘मैं जानता हूं कि मेरे बिना तेरा जीवन दूभर हो जाएगा। मैं तेरी गुज़र-बसर के लिए कोई इंतज़ाम कर जाऊंगा। डिप्टी कलेक्टरी के लिए तेरी सिफ़ारिश भी कर जाऊंगा। लोक-सेवा आयोग मेरी अंतिम इच्छा अवश्य मानेगा।’
मुफतलाल इस बात से बड़ा प्रसन्न हुआ, पर प्रसन्नता को दबाकर रुआंसे स्वर में बोला, ‘मेरा जी यहां कैसे लगेगा? मैं तो आपके साथ ही चलूंगा।’
‘नहीं मित्र’ अस्तभान ने समझाया, ‘तेरे लिए यहां बहुत काम बाक़ी है। अभी तो तुझे मेरा स्मारक बनवाना है। तू नहीं रहा तो मेरा स्मारक कौन बनवाएगा? मेरी मृत्यु की ख़बर फैलते ही तुझे जगह-जगह शोकसभाएं भी करवाना है। स्मारक के लिए तू चंदा इकट्ठा करेगा ही, उसमें से तू कमीशन भी ले सकता है। ठेकेदारों से भी तू कमीशन बांध सकता है। तू चाहे जितने वर्ष स्मारक का काम खींच सकता है। इस तरह तेरी जीविका की समस्या भी हल हो जाएगी और मेरा स्मारक भी बन जाएगा।’
मुफतलाल का मन कुछ हलका हुआ। वह आत्महत्या का प्रबंध करने चला गया।
अस्तभान जानता था कि आत्महत्या करने वाला चिटि्ठयां लिखकर छोड़ जाता है। मरने वाले की प्रतिष्ठा इन्हीं चिटि्ठयों पर निर्भर रहती है। कभी-कभी चिट्ठी लिखने में इतनी देर लग जाती है कि मरने वाले का मन बदल जाता है और वह इरादा त्याग देता है। यह सोच, अस्तभान जल्दी ही चिट्ठी लिखने बैठ गया। पहली चिट्ठी उसने अपने पिताजी को लिखी-
‘पूज्य पिताजी,
जब यह चिट्ठी आपको मिलेगी, तब तक मैं इस असार संसार से कूच कर जाऊंगा। आपके हृदय को थोड़ा आघात अवश्य लगेगा- ऐसी मुझे आशा है। पर आप यह सोचकर शांति प्राप्त करेंगे कि आपके बेटे ने एक महान उद्देश्य के लिए प्राणोत्सर्ग किया है। पिताजी, अपने कुल में विद्या की परम्परा नहीं है। आप बारहखड़ी से आगे नहीं बढ़े और पितामह स्याही का उपयोग केवल अंगूठा लगाने के लिए करते थे। मैंने विद्या की परम्परा डालने की कोशिश की, पर असफल हुआ। मेरे और आपके प्रयत्नों में कमी नहीं रही। मैंने पाठ्यपुस्तकों को कभी नहीं छुआ और न कक्षा में अध्यापकों की बातें कान में भरीं। मैंने केवल उन नोट्स और कुंजियों का अध्ययन किया, जो ‘एन एक्सपीरिएंस्ड प्रोफ़ेसर’ और ‘एक गोल्ड मेडलिस्ट’ लिखते हैं। मैंने इनमें इतना मन लगाया कि परीक्षा कॉपी में लिखा ‘जूलियस सीज़र’ नाटक का लेखक ‘एन एक्सपीरिएंस्ड प्रोफ़ेसर’ है और ‘विनयपत्रिका’ एक गोल्ड मेडलिस्ट ने लिखी है। गोल्ड-स्मिथ के बारे में मैंने लिखा कि वह भी गोल्ड मेडलिस्ट था और कुंजियां लिखता था। मैंने इतने अच्छे-अच्छे और सही उत्तर लिखे, पर परीक्षक कहते कि ये ग़लत हैं। मैंने प्रश्नपत्र ‘आउट’ करने की भी कोशिश की और कुछ अंशों में सफल भी हो गया। फिर मैंने विश्वविद्यालय से कोरी परीक्षा-कॉपियां चुराने की भी कोशिश की, पर पकड़ लिया गया। तब आपने मामले को दबवाया। परीक्षा में मैंने भरसक नक़ल भी की। परीक्षा के बाद परीक्षकों को नम्बर बढ़ाने के लिए आपने मनमाना रुपया भी दिया। कुछ ने नम्बर बढ़ाए, कुछ रुपया खा गए पर नम्बर नहीं बढ़ाए और कुछ तो ऐसे निकले कि साफ़ इंकार कर गए। इन्हीं के कारण मैं फ़ेल हो गया। मेरी और आपकी सारी कोशिशें बेकार गईं। हमारे वीर-कुल के लिए यह बड़ी लज्जा की बात है। मुझसे आठवीं पीढ़ी में हमारे एक पूर्वज एक लड़ाई में हार गए थे, तो उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। मैं भी विद्या के क्षेत्र में हार गया। मैं अपने उस यशस्वी पूर्वज का अनुसरण कर रहा हूं।
मैं आपकी कोई सेवा नहीं कर सका। अंतिम समय आपको एक भेंट देना चाहता हूं। मेरे कमरे की आलमारी में 100 साल पुरानी शराब रखी है, जो मैंने जंगल महक़मे के फ़र्नाडीज़ साहब के मार्फ़त मंगाई थी। यह बहुत बढ़िया शराब है। इसे आप मेरी तुच्छ भेंट के रूप में स्वीकारें। इसे पीकर आप मेरा दु:ख भूल जाएंगे।
अच्छा, अब मुझे आशीर्वाद दें कि उस लोक में पढ़ाई के झंझट से मुझे मुक्त रखा जाए।
विदा!
आपका अभागा बेटा
अस्तभान।
पुनश्च : आपने मेरी मित्र मिस सुरमादेवी से मेलजोल बढ़ाना चाहा था, जो मैंने नहीं बढ़ने दिया। अब आप बढ़ा सकते हैं।
-अस्त.!’
इसके बाद अस्तभान ने अख़बारों के लिए एक बयान लिखा, जिसमें अपनी मृत्यु के कारणों पर प्रकाश डाला। उस युग की सामाजिक परिस्थतियों पर इस वक्तव्य से अच्छा प्रकाश पड़ता है-
‘...मैं इस दुनिया से बहुत दूर चला गया हूं, जहां, ऐ दुनिया वालो, तुम्हारा अन्याय मुझे नहीं छू सकता। पर मैं पूछता हूं कि क्या तुमने मेरे साथ अच्छा सलूक़ किया? मैं चाहे जितना पैसा ख़र्च कर सकता था, और बदले में एक छोटी-सी चीज़ चाहता था- बीए की डिग्री, जो लाखों को हर साल मुफ़्त मिल जाती है। मैं विश्वविद्यालयों से पूछता हूं, यह कहां का न्याय है कि जिन्हें दोनों जून खाने को नहीं मिलता, उन्हें तो डिग्री मिल जाती है और हम फ़ेल हो जाते हैं। हम, जिन्हें बिना परीक्षा के ही डिग्री दे देनी चाहिए, एक-एक नम्बर के लिए दर-दर भटकना पड़े, और जिनके पास फूटी कौड़ी नहीं है, वे घर बैठे नम्बर पा जाएं। घोर अन्याय है।
मैं जानता हूं कि ऊंचे खानदानों के हज़ारों युवक यह अन्याय सहते हैं और चुप रहते हैं। मैं उन्हें धिक्कारता हूं। मेरी नसों में वीर-कुल का रक्त बहता है, इसलिए मैं इस अन्याय के विरोध में आत्महत्या कर रहा हूं। मेरे बलिदान से लोगों की आंखें खुलें और वे आगामी पीढ़ियों के लिए न्यायोचित व्यवस्था करें।
मैं इस संबंध में निम्नलिखित सुझाव देता हूं, जिन पर विश्वविद्यालयों की एकेडेमिक कौंसिल विचार करें-
1. एक ख़ास आमदनी के ऊपर वालों के पुत्र-पुत्रियों को बिना परीक्षा लिए सम्मानपूर्ण डिग्रियां दे देने की व्यवस्था हो।
2. प्रति पेपर जो एक ख़ास रकम दे सके, उसे उस पेपर में नक़ल करने का सुभीता दिया जाए। इसके लिए उस विषय के जानकार प्रोफ़ेसरों को नक़ल कराने का काम सौंपा जाए और उन्हें इसका अलग अलाउंस मिले।
3. जिस तरह बाज़ार में और चीजे़ं बिकती हैं, उसी तरह नम्बर भी बिकें और जिसमें सामर्थ्य हो, वह नम्बर ख़रीद ले।
अभी जो चल रहा है, वह बड़ा गलत है। सब धान बाइस पंसेरी तौला जाता है, जिसमें कितने ही होनहार युवकों का जीवन नष्ट हो जाता है।
मुझे विश्वास है कि मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा और विद्या के क्षेत्र में न्याय की प्रतिष्ठा होगी।
दस्तख़त : कुंअर अस्तभान सिंह।
अस्तभान थककर लेट गया। थोड़ी देर बाद मुफतलाल आया। उसने कहा, ‘कुमार, आत्महत्या के सम्बंध में मैंने जो खोज-बीन की है, उससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूूं कि आपको पानी में डूबकर आत्महत्या करनी चाहिए। परीक्षा और प्रेम में फ़ेल होने वाले जल-समाधि लेते हैं। साधारण आदमी तो चुल्लूभर पानी में डूबकर मर जाता है, पर आप जैसे महान व्यक्ति को अधिक पानी चाहिए। आपको भेड़ाघाट के जलप्रपात में कूदकर प्राण त्यागना चाहिए। मैंने नौकरों को हुक्म दे दिया है कि घाट पर कैम्प लगाएं और आवश्यक सामान वहां पहुंचाए। कल सुबह हम लोग वहां चलें और तीसरे पहर आप आत्महत्या कर लें।’
अस्तभान को योजना पसंद आई। वह तैयारी के सम्बंध में मुफतलाल से बात करने लगा। फिर उसने पत्र और वक्तव्य मुफतलाल को सौंपे।1
(1 ये दोनों पत्र अपने मूल रूप में अन-नेशनल लाइब्रेरी में अभी तक सुरक्षित थे । उक्त लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन ने केवल ५०० रु० में ये पत्र चुराकर लेखक को दे दिये । लेखक उनके प्रति आभारी है ।)
वह बुरी तरह थक गया था। जम्हाई लेकर कहा, ‘मित्र, मैं बहुत थक गया हूं। रात को अच्छी नींद भी नहीं आई। माथा भारी है। मैं ज़रा सो लूं। वरना तबियत ख़राब हो गई तो कार्यक्रम टालना पड़ेगा।’
मुफतलाल उठ बैठा। प्रणाम करके चला। सोचता जाता था कि ऐसी शांति संतों के लिए भी ईर्ष्या की वस्तु है। कल आत्महत्या करनी है और आज किस शांति की नींद ले रहे हैं। धन्य हो, राजकुमार! महापुरुष ऐसे ही होते हैं।
टूटना प्रेम राजकुमारी नागफनी का और करना तैयारी आत्महत्या की
पड़ौसी राज्य के राजा राखडसिंह की बेटी राजकुमारी नागफनी पलंग हताश पड़ी है । दासियाँ पंखा झुला रही हैं। राजकुमारी की आँखों से आँसू निकल रहे हैं । दायें-बायें दो दासियाँ पाउडर का डिब्बा लिये खड़ी हैं । ज्योंही आँसू निकलता है, दासी उसे पोंछकर पाउडर छिड़क देती हैं ।
राजकुमारी का सिर गोद में लिए उसकी सखी करेलामुखी बैठी है । पाठको, करेलामुखी का नाम निरर्थक नहीं है । बचपन में जब उसकी बोली पहली बार फूटी तो पहला शब्द उसके मुँह से गाली का निकला । यह देखकर उसके माता-पिता ने उसका नाम करेलामुखी रख दिया ।
करेलामुखी नागफनी के सिर पर हाथ फेरती हुई, उसे समझा रही है, 'राजकुमारी, धीरज रखो ।'
नागफनी ने सिसकते हुए कहा, 'कैसे धीरज रखूं ? तू ही बता सखि ! आज पाँचवीं बार मेरा प्रेम टूटा है। कितने आघात मेरे हृदय ने सहे हैं ! अब तो मैं प्रेम करते-करते थक गई हूँ ।'
करेलामुखी ने कहा, 'राजकुमारी, प्रेम का पथ काँटों से भरा ही है । इससे क्या घबड़ाना ? हर घाव का मरहम होता है। एक प्रेम का घाव भी दूसरे प्रेम के मरहम से भर आता है ।'
नागफनी बोली, 'नहीं, मेरे घाव नहीं भर सकते । एक घाव सूखता नहीं है कि दूसरा हो जाता है । मेरी किस्मत ही खराब है । मेरे देखते- देखते ही कितनी लड़कियों ने प्रेम किया और उनका प्रेम सफल भी हुआ । उनके प्रेमियों ने या तो उनसे विवाह कर लिया या आत्महत्या कर ली । उस भानमती को ही देखो - न अच्छी साड़ियाँ हैं उसके पास और न ठीक से मेक-अप करती है, पर उसके प्रेमी ने उससे विवाह कर लिया । जूही के प्रेम में अभी तक दो आदमी आत्महत्या कर चुके हैं। एक मैं अभागिन हूँ जिसने पाँच से प्रेम किया, पर एक भी न विवाह करने को तैयार हुआ और न आत्महत्या करने को । सबने किसी और से शादी कर ली । अब मैं क्या करूँ ? मैं ऊंचे कुल की कुमारी हूँ । मेरे कुल की नारियाँ पुराने जमाने से हँसते-हँसते आग में कूद जाती थीं। मुझे तो पहला प्रेम टूटने पर ही आत्महत्या कर लेनी थी। पर मैंने धैर्य धारण किया । अब मैं हार गई हूँ । अब तो मैं आत्महत्या करूँगी ।'
यह सुनकर करेलामुखी काँप उठी। समझाने लगी, 'राजकुमारी, इतनी उतावली मत करो । जैसे पाँच वैसे छ: । एक 'ट्रायल' और करो । कल शाम को नगर-सेठ का लड़का उड़ाऊमल तुमसे मिलने आने वाला है। उससे प्रेम करो । उसके रंग-ढंग से मालूम होता है कि वह या तो शादी कर लेगा या आत्महत्या ।'
नागफनी हठ करने लगी। उसने कहा, 'नहीं, नये प्रेम के लिए मुझमें उत्साह ही नहीं रहा । अब सिर्फ मर जाने का उत्साह मेरे मन में है ।'
करेलामुखी समझाकर हार गई, पर नागफनी अपने निश्चय पर अटल' रही। और क्यों न रहे ? आन-बान वाले कुल की थी ।
बड़ी शांति से उसने करेलामुखी से कहा, 'सखि, तू आत्महत्या के प्रकारों की खोज-बीन करके यह बता कि किस प्रकार आत्महत्या करना मेरे कुल की प्रतिष्ठा के अनुकूल होगा। सारा प्रबन्ध भी तुझे ही करना है।'
करेलामुखी बहुत दुखी थी। वह एक आह के साथ उठी और प्रबंध करने चली गयी |
इधर नागफनी अंतिम चिट्ठियाँ लिखने बैठ गई । उसने एक चिट्ठी अपनी माँ को लिखी -
"माँ,
मैं तुम्हें छोड़कर सदा के लिए जा रही हूँ। मैं जीवन से निराश हो गई । आज मुझे पाँचवें प्रेमी ने धोखा दे दिया । मैंने पाँच बार प्रेम किया, पर किसी प्रेमी ने न मुझसे शादी की, न आत्महत्या की। मुझे धिक्कार है । मैं तुम्हारी बेटी कहलाने योग्य नहीं हूँ । तुम मुझे क्षमा करना ।
तुम्हारी अभागिन बेटी,
'नागफनी ।'
इसके बाद उसने अपनी आत्महत्या के सम्बन्ध में अखबारों के लिए एक वक्तव्य तैयार किया । यह वक्तव्य प्रेमियों के नाम खुली चिट्ठी के रूप में था । वह नीचे दिया जाता है-
मेरे भूतपूर्व प्रेमियो,
मैं तुम लोगों के कारण जान दे रही हूँ । यदि तुम लोगों में तनिक भी राजभक्ति होती, तो तुममें से कोई एक प्राण देकर मुझे बचा सकता था । पर तुम सब कायर हो । न जाने इस देश के युवकों को क्या हो गया है ? एक वह जमाना था कि एक राजकुमारी के लिए सैकड़ों युवक प्राण देने को तैयार रहते थे और अब मुझे एक मरने वाले का टोटा पड़ रहा है । - यह देश कहाँ जा रहा है ! इस देश का कितना पतन हो गया ! मेरे पिता के पास इतना धन है, ऐश्वर्य है। मैं इतने बड़े बाप की बेटी हूँ। मैं एक छोटी-सी चीज चाहती थी - एक आदमी की जान और तुम लोगों की जान इतनी महंगी नहीं है । अगर तुममें से कोई आत्महत्या कर लेता तो मैं अपना प्रेम सफल समझती । आत्महत्या नहीं कर सकते थे तो शादी कर · सकते थे । तुमसे कुछ नहीं हुआ ।
मैं तो जा रही हूँ पर मैं अपनी बहिनों को सावधान करती हूँ कि जब तक कोई पुरुष आत्महत्या या विवाह करने का वादा न करे, उससे प्रेम न करें ।
द: नागफनी देवी ।"
अब उसने आलमारी खोलकर अपने प्रेमियों के पत्र निकाले और उन्हें जला दिया । इसके बाद उसने अपने प्रेमपत्रों की नकलें और प्रेमियों के पत्र निकले । उसने अपनी डायरी पूरी की और पत्रों तथा डायरी को कागज में लपेटकर बाँधा और ऊपर राज्य के एक प्रसिद्ध लेखक का नाम लिखा । इस लेखक : के नाम उसने एक पत्र भी लिखा-
'मेरे प्रिय लेखक,
मैं प्रेम में विफल होकर आत्महत्या कर रही हूँ ।
मैंने तुम्हारे उपन्यास और कहानियाँ पढ़े हैं और पसन्द किये हैं । मैं देखा है कि तुम्हें सेनेटोरियम में पड़ी हुई या आत्महत्या करने वाली प्रेमिका अपने पत्र और डायरी भेज देती है और तुम उन पर से कहानी या उपन्यास लिख देते हो। मुझे समझ में नहीं आता कि ये लोग तुम्हें यह सामग्री क्यों भेजती हैं । जहाँ तक मुझे मालूम है, राज्य की ओर से ऐसा कोई आदेश नहीं है । मैं सोचती हूँ, परम्परा के कारण ही ऐसा होता है । तुम्हारा दो सालों से कोई उपन्यास नहीं छपा । कारण यह मालूम होता है कि तुम्हें इस बीच किसी निराश प्रेमिका ने चिट्टियाँ और डायरी नहीं भेजीं। मुझे तुम पर दया आती है । तुम जैसा अच्छा लेखक प्रेमिकाओं. की चिट्ठियों के अभाव में मर रहा है । साहित्य की हानि होते मैं नहीं देख सकती । इसलिए ये चिट्ठियाँ और डायरी तुम्हें भेज रही हूँ । इनसे तुम एक उपन्यास और १०-१२ कहानियाँ लिख सकते हो ।
तुम बहुत स्थिरमति लेखक हो । जो लाइन पकड़ लेते हो, पकड़े रहते हो । वसंतपुर के सेनेटोरियम में, जिसे खुले पाँच वर्ष हुए हैं, अभी तक कुल ३७ निराश प्रेमिकाएँ भरती हुई हैं। पर मैंने हिसाब लगाया है कि तुमने अपनी कहानियों में ७३ को वहाँ भेजा है । उक्त ३७ में से २५ बच गईं और सिर्फ १२ मरीं । पर तुम्हारी कहानियों की सब नायिकाएँ. मर गईं । तुम्हें न जाने कहाँ से ये आँकड़े मिल जाते हैं ?
जो हो, लो यह सामग्री सम्हालो और इसका उपयोग करो ।
तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो ।
तुम्हारी प्रशंसिका—
नागफनी । '1
(1 जैसा कि आगे के अध्यायों से प्रकट होगा, वह सामग्री उक्त लेखक को नहीं मिल सकी और उपन्यास नहीं लिखा जा सका ।
— लेखक ।)
करेलामुखी बड़ी व्यस्त-सी आयी । कहने लगी, 'राजकुमारी, मैंने आत्महत्या की प्राचीन और नवीन विधियों का अध्ययन किया है। पुराने जमाने में आग में कूदने की प्रथा थी । अब भी कुछ स्त्रियाँ कपड़ों पर तेल डालकर आग लगा लेती हैं। फाँसी लगान और जहर खाने की प्रथा भी है | अधिक भावुक स्त्रियाँ तो दूसरी स्त्री के अच्छे कपड़े और जेवर देखकर ही प्राण त्याग देती हैं । उस दिन नगर सेठ की लड़की बढ़िया साड़ी और गहने पहनकर निकली तो व्यापारी मुहल्ले में, जहाँ से वह निकलती, लाशें बिछ जाती । पर तुम इतनी भावुक नहीं हो और न किसी स्त्री के पास ऐसी चीज हो सकती है जिसे देख कर तुम ईर्ष्या करो-हाँ पति को छोड़कर । - तुम्हें जल समाधि लेनी चाहिए । निराश प्रेमिकाएँ भेड़ाघाट के जलप्रपात में कूदकर आत्महत्या करती हैं। तुम भी कल प्रातःकाल वहाँ चलकर घाट पर डेरा डालो और तीसरे पहर तक जल में प्राण विसर्जित करो ।'
भेड़ाघाट का नाम सुनकर नागफनी काँप उठी । कहने लगी, 'सखि, वहाँ तो बड़ा गहरा पानी है। मुझे डर लगता है ।'
करेलामुखी ने आश्वस्त किया, 'नहीं, डर की कोई बात नहीं । गमीं की ऋतु में वहाँ पानी काफी कम हो जाता है ।'
नागफनी का मन कुछ शांत हुआ । उसने करेलामुखी से कहा, 'सखि, मेरा सब काम पूरा हो चुका। ये चिट्ठियाँ और यह पुलिंदा, दोनों को मेरी मृत्यु के बाद यथास्थान पहुँचा देना ।'
करेलामुखी ने सब सामग्री ले ली। राजकुमारी ने उसे जाकर प्रबंध करने का आदेश दिया ।
पर करेलामुखी मूर्ति की तरह वहीं खड़ी रही और उसकी आँखों से टप्टप् आँसू टपटकने लगे । नागफनी ने यह देखा तो उससे लिपट गई । दोनों सखियाँ बड़ी देर तक 'सावन-भादों के रूप' रोती रहीं । करेलामुखी ने रोते-रोते कहा, 'राजकुमारी, मैं तुम्हारे साथ चलूंगी ।'
'नहीं,' नागफनी बोली, 'नहीं मेरी प्यारी करेलामुखी, तेरे मरने का कोई कारण नहीं है । अभी तो तूने किसी से प्रेम ही नहीं किया है । मेरे प्रेम में व्यस्त रहने के कारण तुझे अपना प्रेम करने का समय ही नहीं मिला । अब तू मन लगा कर प्रेम करना । यदि तेरा विवाह हो सका, तो मेरी आत्मा को उस लोक में बड़ी शांति मिलेगी ।'
करेलामुखी ने कहा, 'राजकुमारी, मुझे साथ ले चलो। यदि तुम्हारा विवाह होता तो राजा साहब दहेज के साथ मुझे भी तुम्हारे साथ भेज देते । जब तुम इतनी दूर जा रही हो, तब क्या मुझे तुम्हारे साथ नहीं चलना चाहिए ?"
नागफनी ने कहा, 'नहीं, यह बात दूसरी है और मैं वहाँ बहुत दिन नहीं रहूँगी । वहाँ आत्मा की हर इच्छा ईश्वर पूरी करते हैं। मैं उनसे वर माँगूँगी कि मुझे पुरुष बनाकर पृथ्वी पर भेजें और मेरे उन धोखेबाज प्रेमियों को स्त्री बनायें। मैं उन पाँचों से शादी करूँगी और उन्हें खूब कष्ट दूंगी।'
करेलामुखी को यह बात पटी नहीं । उसने कहा, 'राजकुमारी, ऐसी गलती मत करना | पाँच स्त्रियों का पति खुद ही कष्ट भुगतता है । भूल कर भी ऐसा वर न माँगना । इसके बदले तुम यह वर माँगना कि उन पाँचों की स्त्रियाँ खूब लड़ें और चैन न लेने दें ।'
नागफनी ने कहा, 'अच्छा, ऐसा ही सही पर तू साथ चलने का हठ मत कर ।'
करेलामुखी के फिर आँसू टपकने लगे। कहने लगी, 'पर मेरा अब कौन सहारा है ?'
नागफनी ने उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, 'घबड़ा मत । मैं तेरा इन्तजाम कर जाऊँगी। मैं तुझे इतना धन दे जाऊँगी कि तुझे कभी कोई कमी नहीं रहेगी । पगली, धन से बड़ा संगी और मित्र कोई नहीं है । तेरे पास धन रहेगा तो चार स्त्रियाँ तेरे ही आगे पीछे फिरेंगी । अच्छा, अब तू जाकर आत्महत्या का प्रबन्ध कर । मैं जरा आराम कर लूं ।'
करेलामुखी अपने भविष्य के बारे में आश्वस्त होकर प्रबन्ध करने चली गयी । नागफनी आराम करने लगी ।
मिलना नागफनी और अस्तभान का और मचलना मन का
भरतखंड के मध्य में परम पावन, पाप-विनाशिनी नर्मदा नदी बहती है, जो भारत माता की करधनी की तरह सुशोभित है। पुराणों में नर्मदा का बड़ा माहात्म्य गाया गया है। वह गंगा से भी अधिक महिमामयी बताई गई है। नर्मदा अमरकंटक के पर्वतों से निकलकर खम्भात की खाड़ी में गिरती है। इसके किनारे कई सुन्दर नगर और घाट हैं।
नर्मदा में भेड़ाघाट नामक स्थान पर बड़ा भारी जलप्रपात है । लगभग ४० फीट ऊपर से पानी नीचे एक कुंड में गिरता है । सयाने लोग जब अपने जमाने के सस्ते गेहूं की बात करते हैं तब यह भी कहते हैं कि हमारे जमाने में यहाँ पानी १०० फीट ऊपर से गिरता था। अब जमाना खराब आ गया, इसलिए कम ऊँचाई से गिरता है ।
पानी के गिरने से जलकण हवा में तैरते रहते हैं और धुआं सरीखा छाया रहता है । उसे देख ऐसा लगता है, मानो किसी विधान सभा के सदस्य एक-दूसरे पर धूल फेंक रहे हों ।
भेड़ाघाट का दो कारणों से बड़ा महत्त्व है - ( १ ) इसके पास ही एक बड़ा नगर है जहाँ देश-विदेश से पर्यटक और नेता आते रहते हैं । इन लोगों की नजरों से शहर की गंदगी और सड़कों के गढ़े छिपाने के लिए इन्हें एकदम भेड़ाघाट दिखाने ले जाते हैं और शाम तक वहाँ बहलाकर रात की गाड़ी से रवाना कर देते हैं । प्रकृति का ऊबड़-खाबड़पन खूबसूरती माना जाता है; बड़े मनुष्य का ऊबड़-खाबड़पन गन्दगी । ( 2 ) यह आत्म- हत्या करने के लिए बड़ा सुन्दर स्थान है और यहाँ दूर-दूर से आत्महत्या के इच्छुक आते हैं । सरकार के आत्महत्या विभाग ने इस स्थल को तीन प्रकार की आत्महत्याओं के लिए निश्चित किया है-परीक्षा में फेल होना, प्रेम में विफल होना और बेकारी, बीमारी, मुकदमा, बिना व्याह माँ बनना, पति या पत्नी की बेवफाई आदि कारणों से आत्महत्या करने के लिए दूसरे स्थान निश्चित किये गये हैं ।
सरकार के आत्महत्या - विभाग ने यहाँ बड़ा अच्छा प्रबन्ध किया है । जितना ध्यान सरकार पर्यटकों को इस सौन्दर्य-स्थली के प्रति आकर्षित करने पर देती है, उतना ही आत्महत्या करने वालों की सुविधा पर ।
यहाँ आत्महत्या विभाग की ओर से एक दफ्तर खुला है, जिसमें आत्महत्या अधिकारी बैठता है । इसके मातहत कई कर्मचारी कार्य करते हैं । मरने वालों को पहले दफ्तर में जाकर अपना नाम, पता, कारण आदि दर्ज कराने पड़ते हैं । उसे एक टिकट मिलती है जिस पर उनका नम्बर लिखा रहता है । वह टिकट लेकर तैयार हो जाता है और ज्योंही घाट पर खड़ा आत्महत्या - इंस्पेक्टर उसका नम्बर पुकारता है, वह कुण्ड में कूद पड़ता है । यदि किसी का साहस अंतिम क्षणों में ढीला पड़ जाए तो वह सरकारी कर्मचारियों से सहायता माँगने का अधिकारी है। उसके कहने पर कर्म- चारी उसे उठाकर कुण्ड में डाल देता है ।
इसी दफ्तर से लगा हुआ आँकड़ा विभाग का दफ्तर है जो प्रतिदिन के आँकड़े निकालकर प्रधान कार्यालय को भेजता है । राज्य आँकड़ों पर बहुत ध्यान देता है। राज्य के आधे कर्मचारी काम करते हैं और शेष आधे बैठे आँकड़े निकालते रहते हैं। राज्य के आँकड़े सारे संसार में प्रसिद्ध हैं ।
डाक विभाग ने यहाँ एक डाकघर भी खोल दिया है जिससे मरने वाले को अंतिम पत्र लिखने का सुभीता हो ।
नौकरी देने के दफ्तर (Employment Exchange) से दिन में तीन बार सरकारी बसें यहाँ आती हैं, जो उन लोगों को निःशुल्क आत्महत्या करने के लिए पहुंचा देती हैं जिन्हें नौकरी नहीं मिलती । वे सरकारी बस में आकर बैठ जाते हैं और यहाँ पहुँचा दिये जाते हैं । ये बसें बहुत सुन्दर हैं । इन्हें विशेष रूप से सजाया जाता है। रोज ताजे फूलों की मालाएँ इन पर डाली जाती हैं और रंगबिरंगी झंडियाँ इन पर पड़ती हैं। इस प्रकार की बसें रिजल्ट निकलने के मौसम में विश्वविद्यालय भी चलाता है ।
आत्महत्या का ऐसा अच्छा प्रबन्ध किसी राज्य में नहीं है और अनेक देशों के प्रतिनिधि मंडल इस व्यवस्था का अध्ययन करने यहाँ आते रहते हैं ।
इस मौसम में यहाँ बड़ी भीड़ रहती है । यही समय परीक्षाओं के रिजल्ट खुलने का है और इन्हीं दिनों विवाह भी होते हैं । जो विद्यार्थी फेल होते हैं और जिन तरुण-तरुणियों का प्रेम विफल हो जाता है; अर्थात् प्रेमी या प्रेमिका से विवाह नहीं हो पाता, वे यहाँ आत्महत्या करने आ जाते हैं । कुछ युगल, जिनका विवाह माता-पिता या समाज नहीं होने देते, वे यहाँ जोड़े से आत्महत्या करने आते हैं । कुछ सयानों ने उन्हें यह विश्वास दिलाया है कि उस लोक में प्रेमी-प्रेमिका के विवाह में कोई बाधा नहीं है । ये सयाने उस लोक जाकर अपनी आँखों से देख आये हैं कि प्रेमी 'युगल विवाह करके बड़े आनन्द में वहाँ रहते हैं । इसी विश्वास के कारण जब प्रेमी युगल आत्महत्या करते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि वे इस शहर को छोड़कर, उस शहर जा रहे हैं।
इस साल भीड़ अधिक है क्योंकि रिजल्ट बहुत खराब निकले हैं । विश्वविद्यालयों की एक जाँच समिति बैठी थी जिसने उन कारणों की खोज की है जिनसे पढ़ाई का स्तर नीचा होता जा रहा है। उसकी सिफारिशों में से एक महत्त्वपूर्ण सिफारिश यह है कि अध्यापकों का वेतन और कम करना चाहिए तथा जिन्हें कहीं और नौकरी न मिले, उन्हीं को अध्यापक बनाना चाहिए । जब सब जगह अयोग्य ठहराया गया आदमी अध्यापक बनेगा और उसे वेतन भी बहुत कम मिलेगा, तो वह अपने काम को सेवा और त्याग की भावना से करेगा और शिक्षा का स्तर बढ़ जाएगा। समिति की एक सिफारिश यह भी है कि प्रश्नपत्र वर्ष के आरम्भ में ही विद्यार्थियों को देने चाहिए । ऐसा करने से वे मन लगाकर पढ़ेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि यही प्रश्न परीक्षा में पूछे जाएँगे । अभी वे मन लगाकर इसलिए नहीं पढ़ते कि उन्हें क्या पता परीक्षा में क्या आ जाए। ऐसी अनिश्चितता में कोई कैसे पढ़ेगा ? अँधेरे में पत्थर फेंकने से क्या लाभ ? सरकार इन महत्त्वपूर्ण सिफारिशों को कार्यान्वित करने का इरादा कर रही है ।
प्रेम की विफलता के कारणों की जाँच करने के लिए भी सरकार ने एक समिति बिठाई थी जिसने दो साल तक सब परिस्थितियों का अध्ययन करके यह सिफारिश की है कि चूंकि प्रेम इसलिए टूटता है कि प्रेम होता है, इसलिए प्रेम होने नहीं देना चाहिए । जब प्रेम ही नहीं होगा तो प्रेम विफल भी नहीं होगा । इसके लिए स्कूल-कालेजों में लड़के-लड़कियों को परस्पर घृणा करना सिखाना चाहिए। लड़के-लड़की में कभी संपर्क नहीं होने देना चाहिए । सरकार को कड़े कानून बनाने चाहिए जिनके अनुसार एक-दूसरे को देखने वाले और नजदीक आने की कोशिश करने वाले लड़के- लड़की को कठोर दण्ड मिले । विवाह सम्बन्ध माता-पिता को तय करना चाहिए और जो लड़का या लड़की संबंध का विरोध करे, उसे प्राण- दंड मिलना चाहिए । कुछ ऐसा प्रबंध करना चाहिए जिससे विवाह होने के बाद ही युवक और युवती यह जान पावें कि मनुष्य जाति में ही हमसे भिन्न प्रकार का एक प्राणी होता है । यह सिफारिशें भी सरकार लागू करने वाली है और आशा है कि इससे सारी समस्याएं हल हो जाएँगी ।
घाट पर कुँअर अस्तभान का तम्बू लगा है । अस्तभान को टिकट मिल गया है और वह आराम से बैठा हुआ अपना नंबर पुकारे जाने की राह देख रहा है । उसके पास उसके कुछ सहपाठी और मित्र बैठे हैं। मुफतलाल छाया की तरह अस्तभान के साथ है और अस्तभान को डर है कि कहीं वह उसके पीछे नदी में कूद न पड़े। उसने दो सेवकों को आदेश दे रखा है कि जब मैं कूदूं तब मुफ्तलाल को तुम लोग पकड़कर बाँध देना ।
अस्तभान ने अपने पास बैठे सहपाठी विद्यादमन से पूछा, 'तुम किस विषय में फेल हो गए ?'
'इतिहास और अंग्रेजी में ।'
'इतिहास में कितने नम्बर मिले ?'
'सौ में से पन्द्रह दिये ।'
'और अंग्रेजी में ?'
'डेढ़ सौ में से ग्यारह दिये ।'
पाठको, यहाँ एक बात ध्यान देने की है । अस्तभान पूछ रहा है—- " कितने मिले ?' और विद्यादमन उत्तर देता है - 'इतने दिये ।' वह यह नहीं कहता कि 'पन्द्रह मिले ।' बात विचारणीय है । विचार पद्धति का प्रभाव अनजाने ही भाषा पर पड़ जाता है । जब विद्यार्थी कहता है कि उसे 'पन्द्रह दिए', उसका अर्थ है कि उसे 'पन्द्रह नम्बर' मिले नहीं हैं, परीक्षक द्वारा दिये गए हैं। मिलने के लिए तो उसे पूरे नम्बर मिलने थे । पर पंद्रह नम्बर जो उसके नाम पर चढ़े हैं, सो सब परीक्षक का अपराध है । उसने उत्तर तो ऐसे लिखे थे कि उसे शत-प्रतिशत नम्बर मिलने थे, पर परीक्षक बेईमान हैं जो इतने कम नम्बर देते हैं । इसीलिए, कम नम्बर पाने वाला विद्यार्थी 'मिले' की जगह 'दिये' का प्रयोग करता है ।
अस्तभान ने दूसरे साथी ज्ञानरिपु से पूछा, 'तुम किस पेपर में फेल हुए ?"
'अंतिम पेपर में ।'
'याने अर्थशास्त्र में ?'
ज्ञानरिपु ने अपनी बात को समझाकर कहा, 'अर्थशास्त्र का अन्तिम पेपर नहीं है । जितने पेपर विश्वविद्यालय की विवरण-पत्रिका में लिखे हैं, उनके बाद भी एक पेपर होता है जो सबसे महत्त्वपूर्ण है, पर जिसका कहीं उल्लेख नहीं है । इस पेपर का विषय होता है - यह पता लगाना कि किस विषय की उत्तर- कापियाँ किसके पास जँचने गई हैं और फिर उनसे नम्बर बढ़वाना । जो इस पेपर में पास हो जाता है, वह सबमें पास हो जाता है । मैं इसी में फेल हो गया, कुमार ।'
इतना कहकर ज्ञानरिपु एकदम उठकर घाट की ओर भागा। उसका नम्बर पुकारा जा रहा था ।
मुफतलाल ने कहा, 'कुमार, आप भी तैयार हो जाएँ । आपका नम्बर आने में देर नहीं है ।'
अस्तभान तम्बू के भीतर नये कपड़े पहनने और शृंगार करने चला गया ।
लगभग १०० गज की दूरी पर राजकुमारी नागफनी का तम्बू लगा था । राजकुमारी बड़ी देर से भीतर मेक-अप कर रही थी ।
मेक-अप पूरा हो जाने पर वह बाहर आयी । उसने चारों ओर देखा। वहाँ हलचल मच गई । आत्महत्या के लिए उतावले सैकड़ों युवक उसकी ओरलालसा से देखने लगे । कितने ही उसके नजदीक सिमट आये | नागफनी अपने रूप का प्रभाव देखकर बहुत प्रसन्न हुई । उसे विश्वास हो गया कि उस लोक में वह उर्वशी और मेनका को उनके आसन से उतार देगी ।
इसी समय अस्तभान भी सजकर आया और चारों तरफ देखने लगा । चलते-चलते उसकी नजर नागफनी पर पड़ी। नागफनी ने भी अनायास उधर दृष्टि घुमाई और दोनों की आँखें मिल गईं ।
अब तो आँखों से आँखों की बातें होने लगीं । नागफनी सुध-बुध खो बैठी । उसका पल्ला अनजाने ही खिसक गया । अस्तभान भी पुलकित हो गया ।
बड़ी देर दोनों इस प्रकार खड़े रहे। अस्तभान को तब होश आया जब उसे मुफतलाल ने आकर झकझोरा । अस्तभान ने पूछा, 'मुफतलाल, वह कौन है ?'
मुफतलाल ने मुस्कुराकर कहा, 'कुमार, वह राजा राखड़सिंह की बेटी राजकुमारी नागफनी देवी है ।'
अस्तभान बोला, ‘अहा, यह वही नागफनी है जिसके रूप- गुण की प्रशंसा मैं सुनता आ रहा हूँ ! मित्र, यह रूपवती किस परीक्षा में फेल हुई है ?'
मुफतलाल ने कहा, 'राजकुमार, यह परीक्षा में फेल नही हुई, प्रेम में विफल हुई है ।'
कुमार फिर नागफनी को देखने लगा । मुफतलाल ताड़ गया कि वह अपना हृदय खो चुका है। कहने लगा, 'कुमार, मैं समझ गया कि मन से मन का मेल हो गया । मैं जाता हूँ और मिलने का ढब जमाता हूँ ।'
मुफतलाल नागफनी के डेरे की ओर चला ।
उधर नागफनी की सुध जब लौटी, तो उसने देखा कि करेलामुखी उसका पल्ला सँभाल रही है । वह सकुचा गई । करेलामुखी ने हँसते हुए कहा, 'ऐसी सुध-बुध नहीं खोते, राजकुमारी । सुध-बुध खोने से शकुंतला को दुर्वासा ने श्राप दे दिया था ।'
नागफनी मुस्कुराई। पूछा, 'सखि, वे कौन हैं ?'
करेलामुखी ने कहा, 'वे राजा भयभीत के पुत्र कुँअर अस्तभान- सिंह हैं जो परीक्षा में फेल होकर आत्महत्या करने आये हैं ।'
यह सुनकर नागफनी का हृदय हर्ष से विकल हो गया । कहने लगी, 'अहा, जिनके गुणों के गीत चारण गाते हैं, ये वही कुँअर अस्तभान हैं ? तुझे याद है सखि, पिछली विजयादशमी पर उस राज्य से जो चारण आया था वह क्या कहता था ? मेरे कानों में वे शब्द आज भी गूंज रहे हैं। कहता था- जिस स्त्री से कुमार का एक वर्ष भी प्रेम हो जाए, उसे ससुराल के वस्त्र और आभूषण जीवन-भर नहीं पहनने पड़ते । कुमार उसे इतना दे देते हैं । सखि, तुझसे मेरा कुछ भी छिपा नहीं है । मेरा जी उन पर आ गया है । सखि, मैं प्रेम की आग में जल रही हूँ । तू मेरा संदेशा उनके पास पहुँचा ।'
यह सुनकर करेलामुखी अस्तभान के तम्बू की ओर बढ़ी। उधर से मुफतलाल आ रहा था । दोनों की भेंट राह में हो गई । मुफतलाल ने चुहल की, 'ए, अपनी राजकुमारी से कह दो कि हमारे राजकुमार पर इस तरह मोहनी डालें । वे आत्महत्या करने आये हैं । पर अब उनका मन बदलने लगा है ।'
करेलामुखी भी एक ही थी । उसने झट जवाब दिया, 'तुम्हीं न अपने कुमार से कह दो कि भले घर की औरतों को इस तरह क्यों घूरते हैं । हमारी राजकुमारी का मन भी तो ढीला पड़ने लगा ।'
मुफतलाल को करेलामुखी का स्वभाव पसन्द आया । उसने कहा, 'ए, ठिठोलियाँ छोड़ो और आगे की सोचो। ऐसी जोड़ी चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगी । यदि इनकी शादी हो जाए, तो दो घर न बिगड़ेंगे । यदि अलग-अलग शादी हुई, तो दो घर बिगड़ जायेंगे और फिर इनके जीवित रहने से तुम्हारा हमारा आमदनी का सिलसिला भी चलता रहेगा । जब मन से मन का मेल हो गया है, तो सम्बन्ध हो ही जाना चाहिए। मैं कुँअर को लेकर आता हूँ ! तुम राजकुमारी को तैयार करो ।'
यह सलाह कर दोनों अपने-अपने डेरे को लौट गये ।
मुफतलाल ने अस्तभान से कहा, 'कुमार, मरना, तो है ही, आज मरे या कल । इस साल या आगामी साल । मैं सोचता हूँ कि अगले मार्च में एक बार फिर परीक्षा में बैठ देखिए । इस अवधि में राजकुमारी नाग- फनी से प्रेम कर लीजिए। बहुत सम्भव है आप दोनों का विवाह हो जाए, क्योंकि इस बार राजकुमारी विवाह का दृढ़ निश्चय करके ही प्रेम करेगी । यदि विवाह हो गया और आप पास हो गए, तो सुख से जीवन-यापन करेंगे । यदि पास न हुए, तो आप अकेले आत्महत्या नहीं करेंगे, बल्कि नागफनी भी आपके साथ सती हो जाएगी। यदि आपका प्रेम सफल न हुआ तो परीक्षा और प्रेम दोनों में फेल होने के कारण आत्महत्या का श्रेय आपको मिलेगा । इस भाँति, हे राजकुमार, सब प्रकार से आपको लाभ होगा। चलिए, राजकुमारी आपकी प्रतीक्षा कर रही है ।'
अस्तभान ने कपड़े ठीक किये, आईने के सामने जाकर बाल सँवारे, इत्र छिड़का और रुमाल मुंह पर फेर कर नागफनी के डेरे की ओर चल पड़ा ।
डेरे में नागफनी एक ऊँचे आसन पर तकिये के सहारे बैठी थी । अस्तभान घड़ी-भर उसकी ओर एकटक देखता ही रहा। फिर बोला, 'राजकुमारी की जय हो ! मैं कुंअर अस्तभान हूँ, आपका सेवक । आपके रूप और गुणों पर मोहित होकर चला आया हूँ ।'
नागफनी ने उसे प्रेम से पास बिठाया और कहा, 'राजकुमार का स्वागत है । कुमार, आप तो क्षत्रिय हैं, वीर हैं । फिर भी चार बार फेल होने पर भी लज्जित नहीं होना चाहिए।"
अस्तभान ने मीठी चुटकी ली - ' और आप भी पाँचवें प्रेम में विफल होने से प्राण त्यागने लगीं। आप जैसी महान नारी को तो हजार प्रेम टूटने पर भी ग्लानि का अनुभव नहीं होना चाहिए ।'
राजकुमारी लजा गई, कहने लगी, 'हाँ, यह मेरी कमजोरी है । पर जब से आपको देखा, तब से मेरा मन बदल गया है। भगवान ने मेरी जोड़ी जिससे मिलाई है, वह मिल गया ।'
राजकुमार ने कहा, 'क्यों न हो ! क्यों न हो !' वह इतना विकल हो गया था कि उससे बोलते नहीं बना। उसने नागफनी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उसे सहलाने लगा। तभी करेलामुखी बोल उठी, 'चलो अब बहुत हुआ । आगे बढ़ना ठीक नहीं । अब दोनों अपने-अपने महल लौटो और अपने-अपने पिता से शादी के लिए कहो ।'
यह सुनकर दोनों लजा गए और बड़ी मुश्किल से अलग हुए । अस्तभान अपने डेरे को लौटे ।
इधर नागफनी के करेलामुखी से कहा, 'सुन री, मैंने इतना प्रेम किसी से नहीं किया ।'
करेलामुखी ने कहा, 'यह बात मैं छठवीं बार सुन रही हूँ। पर अब ऐसा करो कि इससे ब्याह हो ही जाए ।'
नागफनी ने बड़ी चिन्ता से कहा, 'सो तो भगवान के हाथ है | पिताजी ने साफ कह दिया है कि अब प्रेम-विवाह नहीं होगा; मैं जिसे तय करूँगा, उसी से होगा । सो अभी तो बड़ी बाधाएँ हैं ।'
दोनों तरफ से सेवकों को डेरे उखाड़ने का आदेश हुआ ।
अस्तभान और नागफनी को वापिस लौटते देख वहाँ बड़ी खलबली मची । अखबारों के संवाददाता बड़े जोर से विलाप करने लगे । अस्तभान ने उनके पास जाकर पूछा, 'भाई, तुम लोग क्यों रो रहे हो ?' वे बोले, 'हमें एक अच्छी 'स्टोरी' मिल रही थी, पर वह बरबाद हो गई ।'
एक बोला, ' हममें से कई ने अपने अखबारों को स्थान खाली रखने के लिए तार कर दिए थे। अब हमें डाँट पड़ेगी ।'
दूसरा कहने लगा, 'कुमार, हम लोग कैमरे में फिल्म भरकर कब से तैयार खड़े हैं, पर आपने एकदम हमारी आशाओं पर पानी फेर दिया ।'
एक पत्रकार माथा ठोककर कहने लगा, 'दो महत्त्वपूर्ण आत्महत्याएँ हो रही थीं। ऐसा अच्छा डी० सी० ( डबम कॉलम) समाचार जाता ! हाय ! अब क्या होगा ?"
मुफतलाल ने कहा, 'दोस्तो, यह बड़ी विचित्र बात है । किसी के प्राण बचने से प्रसन्नता होनी चाहिए, पर आप लोगों को दुख हो रहा है। क्या किसी की मौत से आप लोगों का फायदा होता है ?"
एक सयाने पत्रकार ने कहा, 'पत्रकार के लिए मौत केवल समाचार होती है । अगर हम हर मौत पर रोने लगें तो सारी जिन्दगी रोते ही कट जाए । महत्त्वपूर्ण मौत का हमारे लिए बड़ा उपयोग है— उससे रोचक समाचार बनता है । किसी बड़े आदमी की मौत हो जाती है, तो सारा सम्पादकीय और संवाद - विभाग हर्षित हो जाता है। अगर मौत असाधारण परिस्थिति में हो, तब तो हमारे लिए वरदान होती है। कुमार और राजकुमारी ने आत्महत्या की ऐसी बढ़िया तैयारी की थी, हम सनसनीखेज 'स्टोरी' बना सकते थे। लेकिन सब मिट्टी हो गया ।'
मुफतलाल 'को पत्रकारों पर दया आने लगी। उसने कहा, 'मित्रो, हमें आपसे सहानुभूति है । कुमार और राजकुमारी को आत्महत्या न कर सकने का कुछ कम दुःख नहीं है । पर विधाता की ऐसी ही इच्छा थी । मैं समझता हूँ, यह जो आत्महत्या टल गई है, इसकी भी 'स्टोरी' बन सकती है । कोई चमत्कारक घटना बना दीजिए। ऐसा लिख सकते हैं कि ज्योंही कुमार और नागफनी देवी पानी में कूदे, वहाँ कमल के दो बड़े फूल खिल गए । कमलों पर दोनों बैठे थे और वे ऊपर उठ रहे थे। फूल उठते गए और दोनों को आराम से किनारे पर बिठाकर गायब हो गए। कुमार और कुमारी ने इसे नर्मदा मैया की इच्छा समझा कि वे आत्महत्या न करें । ऐसा समाचार बना दीजिये । आप लोगों को तो चमत्कारपूर्ण समाचार छापने का अभ्यास है । आखिर आप लोग ऐसे समाचार देते ही हैं कि एक बच्चे के पाँच सिर हैं, आसमान से खून की वर्षा हो रही है, मन्दिर में छत से गाय का दूध टपक रहा है, शंकरजी की पिण्डी एकाएक ६ इंच बढ़ गई, एक संन्यासी मन्त्र से मरे आदमी को जिंदा कर रहा है। इसी तरह का चमत्कारपूर्ण समाचार यह हो जाएगा। इससे आपका अखबार भी बिकेगा और कुमार को भी प्रकाशन मिल जाएगा।'
पत्रकारों के जाने के बाद वहाँ आत्महत्या विभाग और आँकड़ा विभाग के अफसर आ गये । उन्होंने शिकायत की कि आपने निर्णय बदलकर हमारा हिसाब गड़बड़ कर दिया। हम केन्द्रीय कार्यालय को तार कर चुके हैं। अब हमें डांट पड़ेगी कि हमने आत्महत्या क्यों नहीं होने दी । इन महत्त्वपूर्ण आत्महत्याओं का विवरण सरकार अन्य राज्यों में अपने दूता- वासों के जरिये प्रसारित करने वाली थी । वह योजना ठप्प हो गई ।
मुफतलाल ने अस्तभान से कहा, 'कुमार, इन लोगों का नुकसान हो गया है । इन्हें कुछ हर्जाना दे देना चाहिए।'
अस्तभान ने उन्हें कुछ अशर्फियां दीं और वे खुश होकर चले गये ।
इधर सेवकों ने तम्बू उखाड़ लिये और कुमार-कुमारी अपने-अपने महलों को चल दिये । रास्ते जहाँ अलग-अलग होते थे, वहाँ दोनों ने अपने- अपने रूमाल निकाल लिये और हिलाने लगे । जब परस्पर आँखों से ओझल हो गये, तब रूमाल से आँसू पोंछने लगे ।
जलना विरह में और बहलाना मन तरह-तरह से
अब नागफनी अपने महल में और अस्तभान अपने महल में, दोनों विरह की ज्वाला में जल रहे थे। नागफनी को उठते बैठते, सोते जागते, खाते, पीते, खेलते, बात करते, चलते, फिरते, गाते, रोते, कपड़ा पहनते, मेक-अप करते, दाँत घिसते, नहाते, नाखून काटते - अस्तभान की याद सताती । करेलामुखी आठों पहर उसके पास बैठी रहती और धैर्य बँधाती, 'राज- कुमारी, धीरज धरो । हर काम समय आने पर ही होता है । प्रेम में विरह जरूरी है । विरह से प्रेम पकता है ।'
नागफनी बड़ी विकल थी। उसने कहा, 'सखि, कैसे धीरज धरूं? मेरे रोम-रोम में आग फुंकती है ।'
करेलामुखी ने कहा, 'राजकुमारी, ऐसे अवसर पर तुम्हें विरह के गीत गाना चाहिए। अपने महल के सामने की सड़क पर चार-चार पसे में विरह. के गानों की पुस्तक बिकती है । विरहिणी इन्हें गाती है जिससे उसका दुःख हलका होता है ।'
इतना कहकर करेलामुखी उठी और तुरन्त सड़क पर से चार पैसे की एक गाने की पुस्तक खरीद लाई जिसमें ११ विरह गीत लिखे थे । उसने राजकुमारी को इन गीतों की धुन बताई और थोड़ी ही देर में वह उन्हें अच्छी तरह गाने लगी ।
गीत गाते-गाते नागफनी कराहने लगी । करेलामुखी घबड़ाकर उसके पास आयी । राजकुमारी के शरीर से गर्म लपटें -सी उठती दिखाई दीं । उसने शरीर पर हाथ रखा तो उसका हाथ जल गया ।
नागफनी कराह उठी, 'सखि, मेरे शरीर में आग लगी है। विरह के गानों से ताप और बढ़ गया है।'
करेलामुखी ने कहा, ‘राजकुमारी, तुम्हारा विरह बहुत बढ़ गया है। मैं कमरे में 'कूलर' लगा देती हूँ । इससे कुछ शांति मिलेगी।'
'कूलर' लगाने से नागफनी को कुछ चैन मिला। उसने कहा, 'सखि, प्राचीन काल में कूलर नहीं थे तो विरहिणियों को बड़ी तकलीफ होती होगी ।'
करेलामुखी ने कहा, 'राजकुमारी, उन बेचारियों का हाल मत पूछो । अब तो विरह में वैसी हालत होती नहीं है। कवियों ने उनके बारे में जो लिखा है, उससे उनकी हालत का अनुमान होता है । विरहिणी का शरीर तवे-सा तप जाता था और उसकी सखि गुलाब जल छिड़कती थी, तो 'छन्न' की आवाज होती थी। जिस मुहल्ले में एक विरहिणी होती, उसमें ईंधन के बिना भी रोटी सिक जाती । स्त्रियाँ रोटी बेलकर विरहिणी के हाथ पर रखती जातीं और वह सिकती जातीं। जिस मुहल्ले में एक विरहिणी होती, उसमें बारहों महीने ग्रीष्म ऋतु रहती थी। हे राजकुमारी, विरह से सूखकर स्त्री इतनी हलकी हो जाती कि जब साँस भीतर लेती तो ४-६ हाथ पीछे उछल जाती और जब साँस छोड़ती तो ४-६ हाथ आगे उछलती । (बिहारी ।) कोई तो इतनी सूख जाती कि जब मौत उसे लेने आती, तो उसे भी नहीं दिखती थी। देवी, उनकी तुलना में तुम्हारा दुःख तो कुछ नहीं है ।'
नागफनी ने कहा, 'सखि, तन का ताप तो 'कूलर' से कुछ कम हो जाता है, पर मन के ताप का क्या करूँ ?'
करेलामुखी ने समझाया, 'कुमारी, नगर सेठ का लड़का उड़ाऊमल कई बार तुमसे मिलने का प्रयत्न कर चुका है। तुम उससे मिलो। उससे मिलने से तुम्हारा जी बहल जाएगा ।'
नागफनी बोली, 'नहीं सखि, मैं उससे नहीं मिलूंगी। मैं राजकुमार को धोखा नहीं दूंगी ।'
करेलामुखी ने समझाया, 'देवी, यह धोखा नहीं है । तुम्हें उनके लिए जीवित रहना है। यदि तुम्हारे जीवित रहने में उड़ाऊमल से सहायता मिलती है तो उसमें कोई अनीति नहीं है । तुम अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि राजकुमार के सुख के लिए, उड़ाऊमल से मन बहलाओ ।'
नागफनी कभी-कभी उड़ाऊमल से मिलने लगी जिससे दुःख कम होने लगता । पर जब उड़ाऊमल उससे दूर हो जाता, तब उसका दुख पूर्ववत् बढ़ जाता ।
इधर अस्तभान की हालत और भी खराब थी । उससे न खाना खाया जाता, न पानी पिया जाता । आठों पहर तड़पता रहता ।
राजा भयभीतसिंह राजकुमार का यह हाल देखकर बड़े भयभीत हुए । उन्होंने पुत्र का मन बहलाने के लिए नृत्य और संगीत का प्रबन्ध किया । उसे हँसाने के लिए एक विदूषक नियुक्त किया, गाना सुनाने के लिए एक गायक और कविता सुनाने के लिए एक कवि ।
पर कुमार का दु:ख इतना गहरा था कि उसमें ये सब डूबने लगे । विदूषक उसे हँसाने के लिए आया और तरह-तरह का मसखरापन करने लगा। कुमार ने क्रोध में आकर उसे दो चाँटे जड़ दिए। थोड़ी देर बाद महाराज पुत्र की हालत देखने आये । उन्होंने देखा कि जिस विदूषक को । उन्होंने हँसाने के लिए भेजा था वह खुद रो रहा है ।
सन्ध्या समय राजा ने एक गायक भेजा । उसे देखकर अस्तभान हैरत में आ गया। उसकी आँखें लाल थीं और बाहर निकली थीं और ओंठ कानों तक फटे थे । वह तम्बूरा गोदी में रखकर एक आसन पर बैठ गया ।
अस्तभान बड़ी देर तक उसे देखता रहा । फिर मुफतलाल से कहने लगा, 'सखा, यह कैसा विचित्र आदमी है ? इसका मुँह तो कान से लगा है । इतने चौड़े मुँह का आदमी तो मैंने कभी देखा नहीं ।'
मुफतलाल ने समझाया, 'कुमार, यह गायक है। इसे पूरे जोर के साथ रात-रात भर आलाप भरना पड़ता है । आलाप की सुविधा के लिए ही इसने आपरेशन के द्वारा अपना मुँह कान तक फड़वा लिया है। अभी आप इसकी कला देखेंगे ।'
अस्तभान सँभलकर बैठ गया । नायक ने गाना शुरू किया। पहले तो अस्तभान को डर लगा, पर थोड़ी देर बाद वह बेहोश हो गया | गायक गाता रहा। मुफतलाल संगीत समझता था। वह दाद देता रहा। गाते-गाते गायक को खाँसी आई। बड़ी देर तक वह खाँसता रहा और फिर गाने लगा । मुफतलाल ने कहा, 'वाह वाह, कमाल है । उस्ताद, आप तो खाँसते भी राग विहाग में हैं।' गायक ने शाम को 'पा' कहना किया । शुरू रात भर वह तरह-तरह से 'पा-पापा' गाता रहा और सवेरे उसने 'नी' कहा।
मुफतलाल चमत्कृत हो गया । उसने अस्तभान से कहा, 'कुमार, कितना खतरा झेलकर कला की साधना की जाती है । इन संगीत सम्राट को अगर प्यास लगी हो, तो शाम को 'पा' कहेंगे और सबेरे 'नी' -- 'पानी' कहने में पूरे बारह घंटे लग जाते हैं । इतने में प्राण भी निकल सकते हैं । वाह, वाह ! तलवार की धार पर चलते हैं ।'
अस्तभान तो सारी रात बेहोश रहा था । पर उसने, मुफतलाल की रुचि का आदर करने के लिए, गायक को बहुत सा धन देकर विदा किया ।
दूसरे दिन एक कवि अस्तभान का मन बहलाने के लिए भेजा गया । उसका रूप बड़ा विचित्र था। उसके बाल बड़े और रूखे थे, दाढ़ी बढ़ी हुई थी । वह मिरजई और पैंट पहने था । गले में टाई भी बाँधे था। उसके सिर से कफन बँधा था और पीछे दो आदमी सलीब लेकर चलते थे ।
वह आकर बैठ गया । अस्तभान उसे देखकर डरा । मुफतलाल ने धीरे से कान में कहा, 'यह एक बहुत बड़े कवि हैं ।'
अस्तभान संभल गया । बोला, 'क्या आप कवि हैं ?"
उत्तर मिला, 'हाँ, क्या आपको दिखता नहीं हूँ ? मेरी वेश-भूषा से, मेरी मुखाकृति से, क्या मेरी काव्य-प्रतिभा प्रगट नहीं होती ?"
मुफतलाल बीच में बोल उठा, 'कवीश्वर, कुमार ने सहज कुतूहल- वश प्रश्न किया था । यदि आप बुरा न मानें तो बताएं कि आपकी इस विशेष वेश-भूषा का क्या अर्थ है ?'
कविजी बोले, 'देखिए, मैं न नहाता हूं, न दाढ़ी बनाता हूँ, न बाल कटाता हूँ। मैं स्वच्छता को पतनशील प्रवृत्ति मानता हूँ । युग अगर सफाई पर जोर देता है तो हम गंदे रहकर युग के प्रति असंतोष व्यक्त करते हैं । हम विद्रोही हैं । हमें सब पर क्रोध है ।'
अस्तभान ने पूछा, 'सब पर आप क्रोधित क्यों हैं, कविवर ?'
कवि ने कहा, 'सब बुरे हैं। इस समाज पर, इस सरकार पर, प्रजातंत्र पर, प्रजातांत्रिक संस्थाओं पर, किसी पर हमारी आस्था नहीं है । ये सब व्यक्ति का नाश करते हैं। हम बी० ए० फेल होने के बाद प्रोफेसर बनना चाहते थे । हमें प्रोफेसर नहीं बनाया गया तो हमें मानवी संस्थाओं से घृणा हो गई। हमें मनुष्य में विश्वास नहीं रहा। हमें किसी आदमी से कोई मतलब नहीं ।'
मुफतलाल ने पूछा, पर कविराज, अगर आपके पिता भी आपकी तरह सोचते तो आप बचपन में ही मर जाते ।'
कवि ने क्रोध से कहा, 'बाप का नाम क्यों लेते हो ? बाप बेटे का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है । हम पराम्परा में विश्वास नहीं करते ।'
अस्तभान ने कहा, 'कविराज, आप मिरजई पर टाई बाँधे हैं और पैंट पहने हैं । इसका क्या अर्थ है ?'
कवि बोले, 'इसके दो अर्थ हैं । एक तो यह है कि हम अन्तर्राष्ट्रीय हैं । दूसरी बात यह है कि समाज की कोई रीति-नीति हम नहीं मानते ।'
दोनों मित्र विद्रोही कवि को आश्चर्य से देख रहे थे । कवि ने जेब से एक विचित्र घड़ी निकाली और देखकर कहा, 'हमें यहाँ आये ३८७ क्षण हो गये, पर अभी तक आपने हमसे कविता सुनाने को नहीं कहा ।'
अस्तभान ने कहा, 'कविवर, आप समय का हिसाब क्षणों में रखते हैं ?"
कवि ने कहा, 'हाँ, हमारी घड़ी घंटा और मिनट नहीं बताती, क्षण बताती है । हम क्षण में जीते हैं। हर क्षण अलग है। जो काल को अनंत और सतत प्रगतिशील मानते हैं, वे व्यर्थ ही पिसते हैं । वे पीठ पर युगों का बोझ लादे रहते हैं और आगे न जाने कहाँ देखते हैं। हम केवल वर्तमान क्षण में जीते हैं और इस क्षण से पिछले क्षण का कोई सम्बन्ध नहीं है और न आगे वाले से होगा। हर क्षण का अनुभव स्वतन्त्र है ।'
यह सुनकर मुफतलाल ने कहा, 'ऐसा कैसे होता होगा कविराज ? पिछले क्षण आपने जो बका, उससे हमें इस क्षण गुस्सा आ जाए और आपको हम चांटा मार दें, तो अगले क्षण आपको दर्द तो होगा। इस तरह क्षणों के अनुभव सम्बद्ध हो गए ।'
दुर्बल कवि ने तगड़े मुफतलाल को देखा और कहा, 'आपका तर्क असंगत है, पर उदाहरण ( चांटा मारना ) बड़ा सशक्त है। इसलिए मैं इस विषय में आगे बात नहीं करना चाहता। इतना ही कहना चाहता हूँ कि क्षण में जीने वाला सब जिम्मेदारियों से बरी हो जाता है । कविता सुनाऊँ ?”
अस्तभान ने रोका, 'ठहरिए । आपने यह तो बताया नहीं कि आप कफन क्यों लपेटे हैं और सलीब क्यों साथ रखते हैं ?"
कवि ने समझाया, 'हम मरे हुए लोग हैं। हमारी आस्था गई, हमारे विश्वास गए, हमारे आदर्श गये । इसलिए हम सलीब रखते हैं। जिस क्षण हमारा मन चाहेगा, हम सलीब पर टॅग जाएँगे और हमारा कफन हम पर डाल दिया जाएगा ।'
मुफतलाल ने पूछा, 'आपके माँ-बाप, भाई-बहिन नहीं हैं ?'
कवि बोला, 'हैं, पर हमारा कोई नहीं । हम अकेले, निपट- निस्संग हैं । दुनिया में हर आदमी अकेला है ।'
अस्तभान ने पूछा, 'आप कुछ काम करते हैं ?'
'नहीं !' कवि ने जोर देकर कहा, 'काम क्यों करें ? कुछ करने का दंभ मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना है । बिलकुल निश्चेष्ट होकर अपने को बहाव में छोड़ दो। मनुष्य नियति का दास है । नियति ही उसे चलाती है ।'
मुफतलाल के मुँह से निकल पड़ा, 'यह सब पागलपन है ।'
कवि ने क्रोध से जवाब दिया, 'इसे आप पागलपन कहते हैं ? हमारे पास इसका ठोस दर्शन है ।'
मुफतलाल ने कहा, 'मगर पागलपन का दर्शन निर्मित करने की क्या जरूरत है ? '
कवि बोला, 'पागलपन को गर्वपूर्वक वहन करना है तो उसे किसी दर्शन का आधार अवश्य चाहिये । अच्छा अब कविता सुनिए-
केंचुआ, व्हेल और मैं !
स्या ऽऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ह
काले आकाश का शोक वस्त्र पहने
अंधेरे मौसम की सुबह है;
और काँव-काँव करते काले कौए
मेरे आरपार निकल जाते हैं ।
लेकिन एक बेहद काला और बूढ़ा कौआ
मुझमें कहीं फँसा रह गया है।
डरता हूँ, वह मेरी आत्मा में कहीं घोंसला न बनाये !
कहीं अंडे न दे !
अब मुझमें इतनी भी ताकत नहीं है
कि उस बूढ़े कौए को अपने बाहर निकाल सकूं - आह ! मैं ! !
इस कदर गया-गुजरा और दुबला
कि अपने कंधे पर रखे अपने ही सलीब का बोझ ढो नहीं सकता !
आह ! यह सलीब मुझमें घुसा जा रहा है,
नहीं; यह तो काँटा है
जो मुझमें घुसा हुआ है !
और मैं अपने ही आँसुओं के डबरे में डूबा हुआ केंचुआ हूँ,
मुझे अपने ही शरीर से घिन आती है !
हाय मेरी नियति !
मैं महज छोटी दुबली मछलियों का चारा हूँ !
काश ! यह डबरा समुद्र होता और
ये छोटी मछलियाँ कोई व्हेल मछली होती !
तो क्या मैं गौरवान्वित न होता ?
कविता सुनकर अस्तभान दीवार पर सिर मारने लगा। यह देख कवि बोला, 'कुमार, मुझे प्रसन्नता है कि मेरी कविता ने आपको प्रभावित किया। यदि आप गलत काव्य-संस्कारों से ग्रस्त न होते, तो अभी तक मेरी सलीब पर चढ़ जाते । अच्छा, अब मैं जाता हूँ ।'
अस्तभान ने उसे कुछ अशर्फियाँ दीं और कहा, 'आप एकदम यहाँ से चले जाइए और शाम तक इस शहर के बाहर हो जाइए। कल यहाँ दिखे, तो अच्छा न होगा ।'
कवि ने कहा, 'हमारा क्या है ? जैसे यहाँ, वैसे वहाँ । अभी चले जाते हैं। पर आपने मेरे इन सलीब ढोने वालों को कुछ नहीं दिया ।'
अस्तभान ने उन्हें भी एक-एक अशर्फी दी और कवि अपना सामान लेकर चले गये ।
इधर अस्तभान अपने सूजे हुए कपाल पर लेप लगवाने लगा ।
एक दिन मुफतलाल ने कहा, 'कुमार, एक बड़ी भूल हो गई । न आपने अपने पास राजकुमारी का चित्र रखा और न उन्हें अपना चित्र दिया। प्रेम में ऐसी भूल का बुरा परिणाम भी हो सकता है ।'
अस्तभान ने कहा, 'क्यों ? जब हृदय में हम उसकी तसवीर टाँगे हैं, तो चित्र की क्या जरूरत है ?"
मुफतलाल ने समझाया, 'कुमार, आप समझते नहीं हैं । चित्र आदमी से अच्छे बनने लगे हैं । वास्तव में जैसी सूरत है, उससे अच्छी सूरत चित्र में बनती है । इसीलिए, प्रेमी-प्रेमिका प्रथम मिलन में ही चित्रों का आदान- प्रदान करने की जल्दी करते हैं । चित्र पास रखने में बड़ी सुरक्षा है। यदि प्रेमी या प्रेमिका की वास्तविक शक्ल की कल्पना करने से अरुचि उत्पन्न होने लगे, तो प्रेमी तुरन्त चित्र देख लेता है, जिससे उसका मन फिर लग जाता है।'
अस्तभान ने कहा, 'हाँ, भूल तो हो गई । पर नागफनी का चित्र अब मुझे कैसे मिलेगा ?"
मुफतलाल ने कहा, 'चित्र मिलना तो अब असम्भव है क्योंकि भेड़ाघाट से लौटने के बाद से राजा राखड़सिंह ने राजकुमारी पर बड़ा कड़ा पहरा लगा रखा है। एक रास्ता है। किसी चित्रकार से राजकुमारी का चित्र बनवाकर आप अपने कमरे में टाँगें। मैं एक-दो कलाकारों को आपकी सेवा में उपस्थित करता हूँ ।'
मुफतलाल थोड़ी देर बाद दो कलाकारों को लेकर आया ।
अस्तभान ने उनसे कहा, 'मुझे अपनी प्रेमिका, राजकुमारी नागफनी का चित्र बनवाना है । आप लोगों ने नागफनी को अवश्व देखा होगा, उसके चित्र भी बनाये होंगे । कुछ पहले तक कोई भी कलाकार जब तक नागफनी का चित्र नहीं बना लेता था, तब तक अपने को अधूरा समझता था। मैं चाहता हूँ कि आप दोनों उसका एक-एक चित्र बनाएँ। मैं मुँह माँगा इनाम दूंगा ।'
यह सुनते ही वे कलाकार रंग, कागज और ब्रश लेकर अलग-अलग कमरों में बैठ गये और चित्र बनाने लगे ।
चित्र पूरे होने पर वे अस्तभान के पास आये ।
अस्तभान ने पहला चित्र देखा । यह क्लासिकल शैली का चित्र था । उसने कहा, 'कलाकारजी, यह तो नागफनी नहीं है । कैसी लम्बी आँखें हैं । सूई की नोक-सी नाक और यह डोरे-जैसी गर्दन ! मैंने तो किसी स्त्री के ऐसे अंग नहीं देखे !'
चित्रकार समझाने लगा, 'कुमार, हमारे काव्याचार्यों और कवियों ने कई सौ साल इसी खोज में लगाये हैं कि स्त्री के मुख, आँख, ओठ, कमर कैसे होने चाहिए। वे डाक्टरों की तरह सैकड़ों सालों तक हजारों स्त्रियों के शरीरों की जाँच करते रहे और तय किया कि सुन्दरी की आँखें मछली या खंजन की तरह होनी चाहिए; नाक तोते की चोंच की तरह, ओंठ बिबफल की तरह, गर्दन सुराही की तरह, टाँगें केले की पींढ़ की तरह । कई कवियों ने चार-पाँच सौ वर्षों की मेहनत के बाद ऐसी स्त्री खोज निकाली थी जिसके कमर ही नहीं होती । पर इसी बीच यूरोप वालों ने खुर्दबीन का आविष्कार कर लिया । जब खुर्दबीन से देखा तो उसकी कमर दिख गई । विज्ञान ने शायरी का मजा किरकिरा कर दिया।1 नाक की क्या कहूँ ? क्या आपको उस नायक का किस्सा नहीं मालूम जो सबेरे उठकर अपनी नायिका की नाक में भीगे हुए चने ठूंसने लगा था । वह समझा यह तोते की चोंच है। गर्दन ऐसी पतली होती थी कि जब नायिका पान खाती तो पान का पीक गले में उतरता हुआ दिखता। और कोमलता की क्या बात है ? सुन्दरी को गुलाब की पंखुड़ी की खरोंच लग जाती है । अब सोचिए, नायक के लिए ऐसी स्त्री का भोग करना कितना कठिन होता होगा । वह तमाम उम्र उसे देखते हुए गुजार देता था । छूने से तो वह उसी क्षण ढेर हो जाती । एक नायक ने सपने में नायिका का चुम्बन ले लिया था। सुबह जब देखा तो बेचारी के ओंठ नीले पड़ गये थे । कई घरों में दीपक नहीं जलता था, सुन्दरी के रूप से ही उजाला हो जाता था ।2 हम ऐसा सौन्दर्य शास्त्र और काव्य-शास्त्र में पढ़े हैं। इसीलिए हमने ये अंग-प्रत्यंग बनाए हैं ।'
(1 अकबर इलाहाबादी)
(2 बिहारीलाल ।)
अस्तभान कलाकार के मुख की ओर बड़ी देर तक देखता रहा । फिर उसने सोचा कि यदि मैं इस चित्र को बुरा कहूँगा तो यह कलाकार मुझे गँवार समझेगा । उसने चित्र की बड़ी तारीफ की और कलाकार को बहुत- सी अशर्फियाँ देकर विदा किया।
अब दूसरा कलाकार अपना चित्र लेकर आया । उसे देखकर अस्तभान हैरत में आ गया। बड़ी देर तक उसे उलट-पुलटकर देखने के बाद बोला, 'यह क्या है ? '
'चित्र है, कुमार !' कलाकार अविचलित भाव से बोला । वह अपनी कलाकृति के बारे में आश्वस्त था ।
'चित्र ? किसका चित्र ?'
'राजकुमारी नागफनी का ।'
'तुम इसे चित्र कहते हो ? यह तो गिचपिच है । नागफनी कहाँ है इसमें ?'
कलाकार की राजकुमार के हीन संस्कारों पर तरस आया। उसने कहा, 'कुमार, यह सबसे आधुनिक शैली में रचा गया चित्र है । इसमें आप राजकुमारी का शरीर क्यों देखना चाहते हैं ? वह इसमें नहीं मिलेगा । यह 'एब्स्ट्रैक्ट' चित्र है । राजकुमारी क्या है ? एक आइडिया ! उसी आइडिया को मैंने आकार दिया है ।'
अस्तभान बड़े कुतूहल से चित्र को देखता रहा । एकाएक पूछ बैठा, 'लेकिन इसे बनाया कैसे है ?'
कलाकार ने कहा, 'ऐसे चित्र निर्माण की पद्धति एक रहस्य है जो हमें प्रगट नहीं करनी चाहिए। पर आप राजपुरुष हैं, इसलिए बता देता हूँ । इस चित्र निर्माण की शैली बड़ी कठिन है । एक बड़े चींटे को रंग की कटोरी में डालते हैं । फिर उसे निकालकर कागज पर रख देते हैं। वह धीरे-धीरे चलता है और जैसे-जैसे उसके पैरों के निशान बनते जाते हैं, वैसे-वैसे हम रंग भरते जाते हैं । यह बहुत कठिन कार्य है । ध्यान रखना पड़ता है कि चींटा मर न जाए। एक चींटा मरने पर उसके स्थान पर दूसरा रखना पड़ता है । किसी-किसी चित्र के बनाने में ३-४ चींटे मर जाते हैं । ऐसे चित्र को समझने के लिए खास बौद्धिक स्तर और सही कला संस्कार की आवश्यकता है ।'
इस धमकी के सामने अस्तभान टिक नहीं सका । उसने स्वीकार किया कि चित्र बहुत अच्छा है । उसने इस कलाकार को भी बहुत-सी अशर्फियाँ देकर विदा किया ।
मुफतलाल ने दोनों चित्र मढ़वाकर अस्तभान के कमरे की दीवार पर टाँग दिए ।3
(3 ये दोनों चित्र अस्तभान के पौत्र के पास से एक अमरीकी सग्राहक ने १० लाख डालर में खरीद लिए । - लेखक ।)