रानी महामाया (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Rani Mahamaya (Hindi Story) : Jainendra Kumar

हेमवन्त नामक एक द्वीप था । वहाँ रानी महामाया राज्य करती थीं । उनको पता नहीं था कि वह विधवा हैं या क्या ! राजा वैजयन्त एक रोज आखेट के लिए कहकर गए थे और फिर न लौटे थे। यह तब की बात है, जब रानी महामाया अपने को जानने के निकट आ रही थीं। दुनिया में रस- दर्शन और अर्थ-दर्शन की परख होने का समय उनका आ ही-सा गया था। अब तक का काल मानों अभिसार में बीता था । अभिलाषाएँ स्वप्निल थीं, रंगीन, और उनमें अभी टीस उठ रही थी। समय आया था कि क्रीड़ा-क्रीड़ा में जिसको पाती रही हैं, गहरे प्राणों में उसको उपलब्ध करें, अस्थिर प्रगाढ़ता के साथ उसे अपने भीतर ले लें।

ऐसे ही समय प्रियतम ने कहा, "प्रिये, मैं आखेट के लिए जाता हूँ ।"

रानी ने पूछा, "कब आओगे ?"

"कब आऊँगा ?" और राजा किंचित मुस्कराये । "तुम्हें कुछ शंका होती है, प्रिये ? आशंका होती है ?"

रानी सदा की भाँति बाहुओं को फैलाकर प्रियतम को अपने पाश में ले लेने को नहीं बढ़ सकी। उसका प्रेम जैसे भीतर से एक साथ ही गम्भीर और वेदनामयी हो आया। मन की साध बुझ-सी गयी और रस की चाह कुण्ठित होने लगी। उसने कहा, "जल्दी आना। "

राजा वैजयन्त मुस्कराये। चले गये, और फिर नहीं लौटे।

आखेटरक्षक ने कहा, "महारानी जी, महाराजा तो नहीं मिले। हमें छोड़कर घनघोर वन में जाने कहाँ चले गये । "

अंगरक्षकों ने कहा, "महारानी जी, महाराज का पता नहीं है।" और वे बिलख- बिलखकर रोने लगे ।

आखेट पर महाराज के साथ गये सब संगी-साथियों ने आकर कहा, "महारानी जी, महाराज हमारे सबके देखते-देखते आँखों से ओझल हो गये। हम लोग खोज-खोजकर हार गये हैं। उनका कोई पता नहीं मिलता।"

प्रहरी ने कहा, "राजमन्त्री पधारे हैं। "

राजमन्त्री ने आकर कहा, "महारानी जी, महाराज न जाने कहाँ प्रयाण कर गये हैं। प्रजा की आप माता हैं। प्रजा उद्विग्न है। बाहर आकर तनिक उसे सम्बोधन दीजिए। राजमुकुट स्वीकार करके प्रजा को सान्त्वना दीजिए। महारानी जी के राजमुकुटाभिषेक महोत्सव के लिए वसन्त चतुर्थी की तिथि नियुक्त करने के विषय में महारानी की क्या आज्ञा है ?"

महामाया को शोक से भी उबरने का समय कहाँ मिला। उन्होंने कहा, 'महामात्य, क्या वसन्त - चतुर्थी की तिथि निकट नहीं है। महामात्य, रानी महामाया की इच्छा है, आप अधिक करुणावान हों । प्रजा से कहिए, रानी महामाया पर वह भी करुणा करे। महाराज ही अभी महाराजा हैं। उनकी खोज को छोड़ने की कभी आवश्यकता न समझिए। महामाया की इच्छा है कि उसका मुकुटाभिषेक न हो।"

महामात्य ने कहा, “महारानीजी प्रजा की माता हैं । उनके दुःख में प्रजा पीड़ित है। प्रजा चाहती है, महारानी स्वयं मूर्धा पर राजमुकुट धारण करें और प्रजा को इस सुख - दर्शन का लाभ दें। प्रजावत्सल महाराज की रानी महामाया से प्रजाजन अपना यह स्वत्व माँगते हैं। "

महामाया ने कहा, "सचिव, महामाया प्रजाजन की ही है। किन्तु कहो, वे धैर्य रखें। वे ऐसा चाहेंगे, तो सचिव यह भी होगा । किन्तु रानी महामाया पर अकरुण होना उन्हें शोभा नहीं देता । "

मन्त्री ने कहा, " वसन्त चतुर्थी को महारानी जी के पुण्य दर्शन की जनता में बहुत आशा बँध चुकी है। ऐसी व्यवस्था में क्या महारानी की इच्छा है कि प्रजा निराश की जाए ?"

रानी - "मुझे दुःख है ।"

मन्त्री –“प्रजा का आशीर्वाद महारानी को सुखी करे।"

रानी - "नहीं-नहीं, महामात्य ! "

मन्त्री –“सहस्राधिक प्रजाजन महल के बाहर खड़े हैं। वे अपने उल्लास के सम्बन्ध में महारानी की अनुमति की प्रतीक्षा में हैं । "

रानी - " महामात्य ! "

मन्त्री - " महारानी ?"

रानी – " मन्त्रि श्रेष्ठ, प्रजा अपनी महारानी को क्या अपना सुख-दुःख समझने की स्वाधीनता नहीं देगी? क्या वैसा अवकाश अपनी रानी महामाया को प्रजा नहीं देगी ? मन्त्री, कहो, प्रजा रानी को क्षमा कर दें। "

मन्त्री, “क्या महारानी अपने जयघोष का नाद सुनती है ? प्रजा महारानी की इच्छा जो रही है।"

(महारानी का मस्तक हाथों में है, बाल फैले हैं, विषाद में डूबी हैं)

रानी, "ओह!"

मन्त्री - " महारानी महामाया !"

रानी ( सावधान होकर ) - " क्या प्रजा सहेगी कि उनकी रानी, रानी न होकर उनकी अधीना हो ? मन्त्री, क्या प्रजा में यह सामर्थ्य है ? इतनी इच्छा है ?"

मन्त्री (विस्मित) — "महारानी !"

रानी (उत्तिष्ठ ) - " प्रजा के लिए रानी महामाया प्रजावत्सल होगी। वही महामाया प्रजा की आज्ञानुवर्तिनी होकर, मन्त्री मुझे शंका है, प्रजा के लिए असह्य न हो जाए। महामात्य, प्रजा से कहो, करुणा श्रेष्ठ है, आनन्दोत्सुकता श्रेय नहीं ।"

मन्त्री (विमूढ़) - " महारानी, महाराजा वैजयन्त से प्रजा विस्मृति चाहती है ? स्मृति से छुट्टी चाहती है। उनका अभाव मान लेकर उनके सिंहासन पर नए प्राणी को चाहती है। यह अत्यन्त समुत्सुक है। महाराजा के लोप हो जाने पर अत्यन्त विश्वस्त है । "

रानी – “महामात्य, क्या प्रजा सिंहासन पर कोई पुत्तलिका अवश्य चाहती है ? क्या अपने दुःख के कोष को लुटाकर महामाया को यह बनना होगा ? प्रजा असंख्य है, क्या इसी से वह दया- धर्म से मुक्त होगी ? क्या इसी से उसकी माँग अनुलंघनीय होगी ? क्या प्रजा प्रजा है, इसी से उसकी इच्छा मेरे लिए आज्ञा बनेगी ? मन्त्री, कहो रानी होने का यह दण्ड है । कहो, क्या वही सुनाने तुम यहाँ आए हो ? कहो, क्या यही तुम कहते हो कि इससे बचने का मार्ग नहीं है ?"

मन्त्री - (गतबोध ) “महारानी !”

रानी - (साग्रह ) " महामात्य, बोलो।"

मंत्री - ( अवश) "मेरा आग्रह क्षम्य हो, महारानी ! रानी महामाया की इच्छा ही मेरा व्रत हो । "

रानी - (दृढ़ ) " तो प्रजाजन से कहो, महामात्य, वसन्त- चतुर्थी को राज्याभिषेकोत्सव होगा। वे सन्तुष्ट हों, प्रस्तुत हों । महामाया को सिर पर मुकुट लेना होगा, तो वह उसे सिर पर लेगी। पीछे न होगी । हे राम !"

मन्त्री - ( कातर) "महारानी !"

रानी—“ अमात्य, तुम जाओ। रानी को अपने दुःख - भोग का अवकाश नहीं ही है, तो न हो। उसे नहीं स्वाधीनता है, तो सुनो, अमात्य, वह राज्य करेगी। राज्य सावधान हो जाए।"

मन्त्री - (भयभीत ) “महारानी !”

रानी - (आविष्ट ) " जो अनिवार्य है, हो । विधाता की इच्छा। संकट का यह भी उपभोग करने का अवकाश व्यक्ति को न होगा कि वह उसे झेले, झेलकर चैतन्य बने, भक्त बने, दीन बने ? क्या रानी व्यक्ति नहीं है ? क्या रानी नारी नहीं है ? किन्तु महामात्य, तुम निश्चिन्त जाओ, कह दो, वसन्त चतुर्थी को महामाया राजमुकुट लेगी। महाराजा, उसके स्वामी कहाँ गए हैं, अगर प्रजा यह जानने और पाने को निश्चिन्त नहीं है तो महामाया भी यह जानने और पूछने को उत्सुक नहीं दीखेगी। वह बनेगी रानी । सुनते हो, महामात्य ? जाओ और कह दो ।"

मन्त्री (हाथ जोड़कर) "महारानी जी से सेवक क्षमा माँगता है। प्रजा को समझा दिया जाएगा। सेवक एक मार्ग देखता है। महारानी महामाया अपने भाई के पुत्र वसन्तद्युति को दत्तक स्वीकार करके क्या राज्यासन पर आसीन करने में सम्मत होंगी ?"

रानी, “नहीं, अमात्य ! महामाया अबला क्यों होगी ? और राज्यासन खाली क्यों होगा ? महाराज का पुत्र नहीं है, किन्तु महाराज की निपुत्रा रानी महामाया तो है । वह सब सहेगी। महाराज वैजयन्त का सिंहासन किसी के आगे प्रार्थी नहीं बनेगा। देखो, बाहर एकत्रित जनता महाराज के अभाव पर कैसी मतवाली हो रही है, उनके कण्ठ का अंकुश जैसे उठ गया हो। अरे, क्यों वह महामाया के कान फोड़ना चाहती है ? जाओ अमात्य, उन्हें सुनाओ, अपने गलों को वे शान्ति दें । "

(मन्त्री का प्रस्थान )

इस प्रकार हेमवन्त द्वीप की रानी होकर महारानी महामाया राज्य करती थीं। दिन में राजमुकुट पहनकर राज्य सभा में राजतन्त्र चलाती थीं। रात को आकाश के तारों को गिनती हुई जागती थीं, और उन्हें गिनती गिनती ही सो जाती थीं । महाराजा वैजयन्त का कहीं पता न चला था।

महारानी के शासन की निर्ममता से प्रजा त्रस्त हो गयी। महारानी के हाथ से न्याय जब कि सहज प्राप्त था, दया सर्वथा दुष्प्राप्य थी। अपराधी को दण्ड ही मिलता था । क्षमा की कहीं व्यवस्था न थी, और राज्य के न्यायाधीशों में कोमलता दुर्गुण समझी जाती थी। महारानी महामाया की कड़ी आज्ञा थी कि महाराजा वैजयन्त के समय के नियमों का निरपवाद और अक्षरशः पालन हो, छूट कहीं न हो, बचाव कहीं न हो । अतिशय तत्पर, कर्मठ, तेजस्विनी बनी महारानी स्वयं राजसभा में उपस्थित होकर कठोरतापूर्वक शासन का संचालन करती थीं। आर्त की पुकार के प्रति वह परमात्मा की तरह अदय हो रहती थीं। आर्त्त क्यों आर्त है ? और जब वह आर्त है, तो क्यों साहस करता है कि अपने आर्त्तनाद से अनुशासन के पदचाप पर बाधा डाले ? क्या जगतन्त्र उसकी चीख पुकार पर रुके ? सहमे ?

और रात के सन्नाटे में महामाया आकाश के महारहस्य को सूनी आँखों से देखती थी, और देखती रह जाती थी। उसके भीतर से भरी साँस उठती आती और छूटकर खो जाती। यज्ञ में प्रदीप्त अग्निशिखा की भाँति अँधेरी और उज्ज्वल, वह प्रश्वास सतत ऊपर की ओर विलीन होती। इस आकाश में रमे, राम के चरणों में फूट-फूटकर सुबकेगी - "ओ, मेरे राम! मैं अकेली क्यों? ओ बता, वह कहाँ है ?" गर्मी की रातों में, दूर, काले-से दीखते वन- प्रान्तर को देखती हुई और दूसरी ओर से समुद्र से आती हुई गर्जना को सुनती हुई, इन सबसे ऊपर होकर, मानो अपने प्रश्न से वह समस्त रिक्त को गुँजा डालना चाहती है – “अरे, तू कहाँ है ? कहाँ है ?" यह प्रश्न आकण्ठ उसमें भर-भर आता है, “तू कहाँ है ? कहाँ है ?" पर वाणी फूटती नहीं और वह वेदना भीतर ही घुमड़-घुमड़कर नीरव भाव से पूछती रह जाती है- "ओ रे, तू कब आएगा ? कब आएगा ?" पूछती ही रह जाती है, उत्तर कहीं से नहीं पाती। आसमान के चन्दोवे में कोई सिहरन नहीं होती। तारे चमकते ही रहते हैं । सन्नाटा सुनसान बना रहता है। तब दीनातिदीना बनी महारानी महामाया की आँखों में आँसू झर-झर झरते हैं । वे आँसू झरते ही जाते हैं, टपकते जाते हैं और गिरकर सूखते जाते हैं । और, फिर भी तो मन के भीतर और इस शून्य की गोद में से कोई उत्तर ध्वनित नहीं होता कि वे कब आएँगे। बस, राह देखती है और देखती रहती है । वह जागती है और जागती रहती है। फिर हार भी जाती है और सो जाती है।

यों रात ढल जाती है, और उद्यत उजला दिन आ जाता है। रात को लोग स्वप्न लें, पर दिन में काम है। रात में राजा पुरुष है और चाकर भी पुरुष है। रात में रानी नारी है और दासी भी नारी है। पर दिन रात नहीं है। दिन में राजा राजा है, चाकर चाकर। रानी, रानी है और दासी मात्र दासी ।

इससे, दिन जब चढ़ता है, रात की भूल से उठकर दुनिया जब अपने आपे में होती है, उस समय महारानी महामाया भी राजसिंहासन के ऊपर और राजमुकुट के नीचे शासनतन्त्र के निर्वाह में कटिबद्ध बन जाती हैं।

ऐसे ही वर्ष पर वर्ष बीत गए हैं। यौवन परिपक्व होता गया है और रातें आँसुओं से भीगती बीती हैं। राज्य में अखण्ड शासन-चक्र चलता रहा है, निर्विघ्न अनवरत, और अलिप्त । पर, यौवन अब ढलना चाहता है। महामाया को उत्तर नहीं प्राप्त हुआ है कि वे आएँगे। अपने प्रश्न को अपने चारों ओर ध्वनित करती हुई, निस्पन्द रात्रि में, उत्तरापेक्षिणी वह सदा ही ध्यानस्थ बैठी है, उत्तर की भनक उसे कहीं से भी नहीं पड़ी है। अब जब विछोह पक गया है, वह कहती है, “अरे, अब तो बोलो, तुम कब आओगे ?" और अब भी उत्तर नहीं पाती, तो सोच उठती है- 'अभी आकांक्षा का ढलना कुछ और शेष है शायद । जब आकांक्षा ढलकर नि:शेष हो जाएगी, तभी शायद प्रियतम का आना होगा।' तब फिर अपने को देखकर सोचती है- 'अरे, यह यौवन क्यों नहीं और जल्दी-जल्दी मुझ पर से ढलकर चला जाता है कि प्रभु मिलें !'

इधर राज्य में षड्यन्त्र बन चले हैं। यह महामाया रानी बनकर क्यों निरंकुशा रहेगी ? अत्याचार क्या यों ही होते रहेंगे ? दैन्य क्या अपमानित ही होगा ? भूखों की चीख क्या कलपती ही जाएगी, वह सुनी न जाएगी ? यह महामाया कौन है ? इसके पास रानी का कोई पट्टा लिखा हुआ नहीं है। यह स्त्री है कि राक्षसी है! हेमवन्त द्वीप को इससे मुक्त करना होगा। गुप्त समितियाँ बनने लगीं और गुप्त मन्त्रणाओं ने बल पकड़ा। युवक आदर्श सीखने और सिखाने लगे। बलिदान का महत्त्व आविष्कृत हुआ ।

और, रात में जब अबला महामाया धरती पर बिछी चटाई पर लोट- लोटकर समुद्र का गर्जन सुनती, वनप्रान्त की अँधियारी रेखा के इंगित को बूझती और असंख्य तारों को ताकती हुई, अपने निष्फल यौवन का विसर्जन देती हुई, अकेली अरक्षणीया पूछती होती थी, 'अरे, तुम कह दो, मैं कब तुम्हारे पास आऊँगी। तुम बहुत दूर हो तब मैं ही चलती हुई कहो किस राह से तुम तक आ जाऊँ ?' उस समय राज्य के कुछ अधिकारीगण कोठरी में दीया - बत्ती जलाकर इकट्ठे मन्त्रणा करते होते थे कि निरंकुश साम्राज्ञी बनी अत्याचारिणी महामाया के भार से कैसे अपने सुन्दर राष्ट्र हेमवन्त को मुक्त करना होगा ? वे लोग हेमवन्त के मानचित्र को नमस्कार करके एक-एक कर शपथ खाते थे कि वे उत्सर्ग से पीछे न हटेंगे, राष्ट्र को नृशंसता से मुक्त करेंगे। वे लोग संकल्प से भरे, धर्म भावना से उद्यत, उत्सर्ग को उत्सुक, उस समय अपने राजनीतिक कर्तव्यों को परस्परापेक्षा से ज्वलन्त और निर्दिष्ट और धारदार बनाया करते थे।

महामात्य ने आकर कहा, "महारानी प्रजा में विद्रोहियों का प्रभाव बढ़ता जाता है। आज्ञा दीजिए, विद्रोहियों के सम्बन्ध में अधिक शोध की जा सके। उस ओर अब अत्यधिक सतर्कता भी कम हो सकती है। महारानी आज्ञा दीजिए, मैं कानून... '

रानी - " महामात्य, कानून का पालन करो। उसका अक्षर-अक्षर पालन हो । ममता अन्याय है। लेकिन कानून में जिन्हें शंका है, उसमें परिवर्तन जिनका लक्ष्य है, राजनीति जिनकी प्रेरणा है, उनका दमन न होगा । विद्रोहियों का प्रभाव बढ़े, लेकिन साधारण न्याय से अधिक कोई अधिकार, कोई अस्त्र मैं तुमको न दूँगी। और तुम जानते हो, मेरे दिन अधिक शेष नहीं भी हो सकते हैं । "

मन्त्री – “महारानी, षड्यन्त्र घर से बहुत दूर नहीं है। आपकी ही रक्षा का हाथ उन्हें विनाश से बचाए है। महारानी, षड्यन्त्र का विस्फोट भयंकर हो सकता है।"

रानी - ( सस्मित) “रानी के जीवन से तुम्हें प्रेम है ? रानी के पास उस प्रेम का हेतु नहीं है।"

मन्त्री - " महारानी ! "

रानी - " अपने जीवन का एक भी दिन कम करने की इच्छा करने का वश मेरा नहीं है। जीते ही चलना होगा। तब तक, जब तक प्रार्थना स्वीकृत हो । षड्यन्त्रकारी भीरू हैं, किन्तु भीरुता तो कानून में दण्डनीय नहीं । षड्यन्त्र का उद्देश्य कौन जाने कहाँ तक पवित्र है ! किन्तु हम तुम कितने पवित्र हैं ? शासन तन्त्र को संस्कार देने का संकल्प तो दण्डित नहीं हो सकेगा और जो मेरी मुक्ति के इच्छुक हैं, वे अगर कानून की पकड़ में आते भी हैं, तो कानून को मेरा अधिनायकत्व इस अंश में स्वीकार कराना होगा कि मैं उन्हें अदण्डनीय ठहराऊँ । क्योंकि प्रश्न मेरी जान का है। मेरी जान मेरी सम्पत्ति है और उसे लेनेवाला मेरी इच्छा के विरुद्ध दण्डित नहीं किया जा सकेगा।"

मन्त्री - "महारानी, कुछ अतिसांघातिक सूचनाएँ मैंने पायी हैं। लिखित प्रमाण मेरे पास हैं। (कागजों का एक बड़ा पुलिन्दा देते हुए) महारानी, आप इन्हें देखें । आपके अतिविश्वासी लोग आपके शत्रु हैं।"

रानी - (कागजों को स्थिरता के साथ फाड़ते हुए) "अमात्य, मेरे विषय में इतने चिन्तित न बनो । क्रान्ति से षड्यन्त्रकारी क्यों डरते हैं, यही मुझे आश्चर्य है। क्या तुम महामात्य, दिखाना चाहते हो कि तुम भी डरते हो ? भय संहार का हेतु है । निर्भय रहने से संहार की आवश्यकता निःशेष होगी । महामात्य, मुझे दीखता है, षड्यन्त्रकारियों की भीरुता कुछ बलि लेगी। महामात्य, उन बेचारे षड्यन्त्रकारियों को क्या किसी प्रकार निर्भीक नहीं बनाया जा सकता ?"

मन्त्री - " महारानी ! "

रानी - "मुझे क्यों न न्यायाधीश के समक्ष लाने की वे माँग करें ? यह क्यों नहीं समझा जा सकता कि रानी होकर महामाया नारी है ? कि वह एक व्यक्ति है, कि रानी होकर किसी कानून से यह छूटी नहीं है ? ईश्वर का कानून अमोघ है, अनिवार्य है । महामात्य, इस जानकारी को सर्वप्राप्य बनाओ।"

मंत्री - " मैं महारानी जी की सेवा में चेतावनी देने आया था। महारानी उसे लेना अस्वीकार करती हैं। महारानी ने मेरे कर्तव्य की भी मर्यादा बाँध दी है। यदि राज्य के विरुद्ध षड्यन्त्र रचनेवाले को महामात्य व्यर्थ नहीं कर सकता, तो वह महामात्य किसलिए है? महारानी की रक्षा नहीं कर सकता, तो सेवक किसलिए है? मैं महारानी का अमात्य होकर नहीं रह सकता यदि महारानी के अनिष्ट को न रोक सकूँ। उस अनिष्ट के मार्ग में अवरोध न बनना, महारानी, सहायक बनना है। महारानी, इसलिए मुझे अपने पद से मुक्त होने दें। "

रानी - " महामात्य ! "

मंत्री - " महारानी !”

रानी—“ अमात्य, तुम इस समय छुट्टी चाहते हो ? क्या मैं कहूँ - अच्छा ? क्या मैं महाराज वैजयन्त की तुम्हें याद दिलाऊँ, जिनके मात्र उत्तराधिकारी बने हम यहाँ बैठे हैं? क्या मेरे दिन भी अब बहुत बचे हैं ? फिर भी तुम छुट्टी चाहते हो...तो... "

मन्त्री - " महारानी ! "

रानी – “महामात्य, जाओ, मेरी चिन्ता न करो। इन कागजों की भी चिन्ता न करो, ये जल जाएँगे । षड्यन्त्रकारियों की खबर रखो; पर यदि प्रजा की हानि नहीं करते, तो उनकी स्वतन्त्रता पर तनिक विकार न लाया जा सकेगा। महामात्य यों हम- तुम सबको क्या अनन्त काल तक जीना है ?"

मन्त्री - " महारानी !"

(रानी ने जाने का संकेत किया। महामात्य चले गये ।)

एक रोज महामाया ने मुट्ठी में पकड़े अपने केशों में देखा कि केश उसके सफेद भी हो गये हैं। उसे प्रसन्नता हुई। उसने महामात्य को बुलाकर कहा, " महामात्य, मैं आज तुम्हें एक प्रसन्नता की सूचना देना चाहती हूँ। रानी महामाया के प्रयाण का समय अब निकट आया है। मैं कहना चाहती हूँ कि मैं चुपचाप जाना चाहती हूँ । रक्त-पात नहीं चाहती। "

उस रात्रि को महामाया अत्यन्त कातर हो - होकर पुकारने लगी, " ओ जी, बताओ, तुम्हें कब मैं पाऊँगी ? मैं कब तुम्हारे पास आ जाऊँगी ? अरे, बताओ ना ?"

बहुत देर और बहुत आँसुओं के बाद मानों कहीं अत्यन्त पास ही से उत्तर मिला—“महामाया, धैर्य का पुरस्कार तुम्हें मिलेगा। मैं कहीं दूर नहीं हूँ, प्रियतमे!”

अगले प्रातःकाल नगर भर में लाल-लाल अक्षरों में पत्रक चिपके हुए मिले, जिनमें लिखा था कि राज्य के मद में मत्त रानी महामाया का अन्तकाल निकट है। प्रजा को जागृत होना चाहिए, उत्तिष्ठ होना चाहिए। सत्य ही की सदा जय होगी, अत्याचारी को नीचा देखना होगा। प्रजाजन उठो, बली होओ। पर, अपना स्वत्व प्राप्त करो । आदि।

महामात्य ने महारानी की सेवा में उस पत्रक की प्रति प्रस्तुत करते हुए निवेदन किया, "देखिए, महारानी जी, आपकी क्षमा का परिणाम यह है !"

महारानी ने पत्रक को एक निगाह देख लिया और ईषत स्मित के साथ कहा, "महामात्य, मैं किस दिन के लिए जी रही हूँ? क्या जाने के दिन के लिए ही नहीं ? मुझे रात ही अपनी प्रार्थना की स्वीकृति मिल चुकी है। प्रभात में रक्ताक्षरों से अंकित उसका प्रमाण तुमने मुझे ला दिया है, तब तो मैं रात की बात को चाहकर भी स्वप्न नहीं समझ सकती।"

महामात्य - " रानी महामाया !"

रानी - " अमात्य, प्रबन्ध करो कि रक्त-पात न हो।"

मंत्री - " क्या प्रबन्ध करना होगा, माता ?"

रानी, "क्या प्रबन्ध ? घोषणा कर दो कि चौबीस प्रहर के भीतर राज्यवासी सोच देखें कि वे क्या चाहते हैं । उस समय के भीतर स्वतन्त्रता उन्हें हैं। उसके बाद रानी महामाया रानी नहीं रहेगी। शासन का जो तन्त्र बनेगा, रानी उसके हाथ में होगी, उसके न्याय के समक्ष होगी। प्रजा आत्म निर्णय करे। रानी को चौबीस प्रहर बीतने के बाद वह किसी प्रकार नहीं पा सकेगी।"

मन्त्री - "माता महामाया !"

रानी - " मैं जानती हूँ, अमात्य ! रात में मैंने उत्तर पा लिया है। तुम जाओ। अपनी सेना को प्रस्तुत रखो। उसकी आवश्यकता हो सकती है। रानी को रानी चाहने वाले उत्पात करें, तो उनका दमन करना होगा। रक्त गिरे ही, तो अपनों का ही गिरे। अमात्य, प्रेम का यही मार्ग है। "

और विह्वल, एवं अवश बने महामात्य को महामाया ने उसके कर्तव्य की ओर भेज दिया।

उपसंहार

महामाया ने प्रबन्ध किया कि षड्यन्त्रकारियों की भीरुता नष्ट हो । वे निर्भीक बनकर सामने आएँ । अपने चुपचाप उठ जाने की बात उसने नहीं सोची । प्रत्युत षड्यन्त्रकारियों के हाथों स्वयं दण्डित होने की अनिवार्यता उसने उपस्थित की। उसने व्यवस्था की कि सार्वजनिक वध-स्थल पर जाकर उसका सिर उतारा जाए। इस प्रकार रानी महामाया की मुक्ति हुई ।

उपसंहार लाचारी का परिणाम है, क्योंकि कहानी बहुत बड़ी न होनी चाहिए। सम्भव है कि उपसंहार की कहानी और भी कभी लिखी जाए।

- लेखक

  • मुख्य पृष्ठ : जैनेंद्र कुमार : हिंदी कहानियां और अन्य गद्य कृतियां
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां