रंगी बाबू का रिक्शा (कहानी) : प्रकाश मनु
Rangi Babu Ka Rickshaw (Hindi Story) : Prakash Manu
1
देख तो मैं पहले भी रहा था और खासी हैरानी से देख रहा था। पर जब मेरे दोस्त उदित अंजुम ने ‘ना-ना’ करके हाथ का इशारा किया, तो मेरा ध्यान एकाएक उधर गया। कुछ ढूँढ़ने, खोजने की नजर से।
इधर उन टोपीधारी सज्जन, रंगी बाबू उर्फ नेता जी की नाराजगी अपनी जगह, “हमने जब पैले कई, तो पैले ई इधर आनो चाहिए थो ना आपको...!”
इस पर उदित का मुसकराते हुए अलबेला जवाब, जो मुझे याद रह गया। उसने कहा था, “तुम बोलते बहौत हो नेता जी। पैले जे वादा करौ कि तुम बोलोगे नईं। बस, चुप्पईचाप रिक्शा चलाओगे!...है मंजूर तो बोलो!”
“अरे भैया, हम ना बोलिंगे, अगर हमाओ बोल तुम्हें इत्तोई बुरौ लगत है तौ!” रंगी बाबू गस्सा गए।
मैं डरा, अब वे कुछ कहेंगे। पर नहीं, चुप। एकदम चुप्प!...उनकी चुप्पी भी बहुत कुछ कहती थी। और हाँ, इस बीच उनके चेहरे पर एक ललछौंही परछाईं-सी आ पड़ी, जो चेहरे के रोब को कुछ और बढ़ा देती है।
अब के मैंने गौर से देखा, आबनूसी रंग की कैसी विशाल ठाटदार काया! खासी लहीम-शहीम। तिस पर खादी का मोटा, सफेद कुरता, सफेद धोती। कुछ-कुछ मटमैलापन लिए हुए। मगर साहब, मटमैला ही यहाँ है, दीनता हरगिज नहीं! और यह सब धारण करके अगला रिक्शे पर किस अदा से जमा है, भई वाह! रिक्शा अगर बोल सकता होता तो जरूर बोलता, “भई, मुझे बख्शो, मैं तुम्हारे लायक नहीं!”
पर रंगी बाबू रिक्शे पर ऐसे जमे थे—कुछ-कुछ डिक्टेटराना तरीके से, कि जैसे उसके कान उनके हाथ में हों...कि बच्चू, जरा भी चूँ-चपड़ की तो देख लीजौ, खैर नहीं!
तहसील चौक से स्टेशन पर ले जाने का रंगी बाबू का तयशुदा रेट था दस रुपए, चाहे अकेले बैठो या दो। यही सर्वाधिक प्रिय जगह थी नेता जी की। कहिए कि पसंदीदा ठिकाना, जहाँ से सवारी बैठाकर यात्रा प्रारंभ करना उन्हें प्रिय था। शहर का यह बाहरी इलाका था, पर जब से शहर का विकास हुआ है, यह इलाका खासी रौनक लिए था। तीन-तीन इंटर कालेज और एक लड़कियों का डिग्री कॉलेज इसी चौक से आकर जुड़ता था। लिहाजा सुबह से रात तक चहल-पहल, रंगों की...खुशियों की बहार।
अलबत्ता हम बैठे और रिक्शा चल पड़ा। वाकई चल पड़ा। आश्चर्य!
मुझे अपने गलत होने पर तीखी झुँझलाहट महसूस हुई। मैं सचमुच गलत था। रिक्शा तो उनका गुलाम नहीं, परिवार का सदस्य था। एकदम आत्मीय। कहाँ तो मैं सोच रहा था कि कोई सत्तर साल का यह बंदा रिक्शा चलाता कैसे होगा और कहाँ अब यह लग रहा था कि रिक्शा तो बस उनके पैरों के छूने से चल रहा है। या शायद मन की सोच से। जोर कहाँ लग रहा है? लग भी रहा है कि नहीं, पता नहीं।
मानो यह सब रंगी बाबू के लिए इतना सहज हो कि वे साँस ले रहे हैं और रिक्शा खुद-ब-खुद दौड़ा जा रहा है!
मेरे होंठों से मानो निकलना ही चाहता था—‘वाह, नेता जी, वाह!’ कुछ-कुछ तबले वाले ‘वाह उस्ताद!’ की तर्ज पर। पर उदित जाने क्या समझ बैठे, सोचकर रुक गया। और रिक्शा उसी तरह सर्राटे से दौड़ा जा रहा है, जैसे रिक्शा नहीं, भगवान कृष्ण का रथ हो!
2
अब तक इस प्राचीन शहर के उन ‘महान’ नेता जी में मेरी गहरी दिलचस्पी जाग गई थी। मानो वे आदमी से ज्यादा इस शहर की प्राचीनता या कहिए ‘पुरातत्व’ से जुड़ी कोई शैै हों! कोई ऐतिहासिक भग्नवाशेष।
“यह...रिक्शा कब से चला रहे हैं आप?” यही सवाल पूछा जा सकता था बात शुरू करने के लिए। मैंने पूछा।
चुप्पी—एक क्षण के लिए चुप्पी। बड़ी ठोस।
इन्होंने सुना भी कि नहीं? लगता है, उम्र का असर...? इस मूक सवाल के साथ मैंने उदित की और देखा। वह मेरी बात को शायद कुछ और गुंजार के साथ नेता जी तक पहुँचाना चाहता था कि इतने में टूटी, चुप्पी टूटी।
और एक क्षण के लिए मुझे यकीन नहीं आया कि यह खनकदार गूँज इसी पर्वताकार जिस्म से निकल रही है!
“...जिंदगी गुजर गई बाबू जी, अब तो! इसी में गला दी बाबू जी, हमन्ने तो अपनी पूरी जिंदगी!” नेता जी की भारी और कुछ-कुछ खरखरी आवाज। पता नहीं उसमें कितना पछतावा था और कितना पूरे संतोष से जिंदगी जी लेने का भाव?
फिर बोले, “बस्स, समझो कि अंगरेजन के जमाने से चलता चला आ रहा है अपना रिक्शा। राजा की सवारी है साब! इसी से पाल लिया इतना बड़ा कुनबा। तीन बेटे, चार बेटियाँ। यानी सात बेटे-बेटियाँ, दो हम।...नौ जने हुए कि नहीं! कोई मामूली बात है नौ जनों का टब्बर पालना आज के टेम में! पर अब ईश्वर की दया से सब अपने-अपने घर में हैं, सुख से हैं। अब यहाँ शहानाबाद में तो हम बूढ़ा-बुढ़िया दो ही हैं! तो देख लो आप, बड़ा साथ दिया इसने...और अब भी बुढ़ापे की लाठी ही समझो बाबू जी।”
बात अंग्रेजों की चली तो गाँधी बाबा की भी चलनी ही हुई। पता चला कि नेता जी को न सिर्फ कई दफा गाँधी बाबा को सुनने का सुयोग मिला, बल्कि गाँधी जी ने ही उनके भीतर देश के लिए कुछ करने की चिनगारी भरी। और अपने ये नौरंगीलाल यादव तब स्वाधीनता संग्राम के दिनों में, बचपन के खेलने-खाने की बाली उमर में ही नेता हुए तो फिर जिंदगी भर के लिए ‘नेता जी’ होकर रह गए।
और सन बयालीस के दिनों में तो—खुद रंगी बाबू की बातों से ही पता चला कि गाँधी जी ने खुद बुलवाया था उन्हें और कहा था कि नेता जी, बस यह समझो कि शहर शहानाबाद की जिम्मेदारी तुम्हारे कंधों पर है! देखना, तुम्हारे शहर में कहीं हमारा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ फेल न होने पाए!
तब हमारे रंगी बाबू की उमर जानते हैं, कितनी थी? कुल ग्यारह साल! मगर ग्यारह साल के नेता जी ग्यारह साल के किशोर नहीं, बल्कि पूरे एक भूचाल थे। पूरी एक संघर्ष-वाहिनी थी उनकी, जिसमें उनसे दुगनी-तिगुनी उमर के उनके अनुयायी और प्रशंसकों की कतार थी।...
सो गाँधी बाबा की इत्ती-सी बात सुनते ही रंगी बाबू ने छाती ठोंककर कहा था, “गाँधी बाबा, आपने कह दी अपने जी की बात जो कहनी थी। अब हमारी सुनो! कल सबेरे ठीक सात बजे जिला कलेक्टरेट और तहसील पर हमारा तिरंगा फहरेगा। किसी अंगरेज माई के लाल की हिम्मत नहीं कि रोक ले।...जब तक आपके नेता जी की देह में एक बूँद भी रक्त है, लड़ाई थमेगी नहीं। तुम्हारे नेता जी की बात एकदम पत्थर की लकीर है, समझ लो!”
सुनकर गाँधी बाबा आश्वस्ति के भाव से कैसे मंद-मंद, मीठी हँसी हँसे थे, रंगी बाबू क्या आज तक भूल पाए? फिर गाँधी जी ने विनोद भाव से कहा था, “अरे, क्या मैं जानता नहीं हूँ इस बात को? यह तो सिर्फ इसलिए कह दिया कि देखें नौरंगीलाल, तुम जवाब क्या देते हो!”
“तो क्या जवाब सही है गाँधी बाबा...! मैं पास हो गया?” ग्यारह साल के नौरंगीलाल यादव उर्फ नेता जी की विनम्र जिज्ञासा।
“बिलकुल...! बिलकुल सही जवाब! जवाहरलाल जब कभी मिलेगा—अब तो शायद जेल में ही हो हमारी मुलाकात, तो मैं उससे कहूँगा कि जवाहरलाल, जरा सुनो मेरी बात। ये शहर शहानाबाद के हमारे छोटे-से नेता जी क्या कहते हैं, इससे जरा सीख लो! तुम्हें बड़ी प्रेरणा मिलेगी।” गाँधी बाबा ने प्यार से रंगी बाबू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था।
और उनकी मुद्रा तब कैसी थी, इसे भला रंगी बाबू कैसे कहें? बस मुग्ध होकर इतना ही कहते हैं, “बाबू जी, वो तो कोई आदमी नहीं थे, देवता थे। और देवताओं के बारे में तो हमने सुनोई है। पर ये तो ऐसे देवता थे कि हमने खुद अपनी आँखन सौं देखौ है!”
फिर जाने क्या रंगी बाबू के मन में आया कि उन्होंने बाबा तुलसीदास की ‘विनय पत्रिका’ वाली शैली अपना ली।
“लोग कहते है कि किसी सच्चे, भले आदमी का वर्णन तो कवि भी नहीं कर सकता! तो बाबू जी, हम तो अनपढ़ ठहरे। हम कहाँ तक वर्णन करेंगे...?”
रंगी बाबू ने भावना में छल-छल-छल करता सवाल मेरी तरफ उछाल दिया है! मैं क्या कहूँ भला?
3
कुछ देर मौन सन्नाटा। स्वाधीनता आंदोलन की जिस उथल-पुथल भरी चरम वेला में हम जा पहुँचे थे—मैं, रंगी बाबू और उदित अंजुम, वहाँ से उतरकर नीचे आना आसान नहीं।
कहने की जरूरत नहीं कि उस भीषण गहमागहमी वाले दौर में रंगी बाबू ने वाकई झंडा फहराया था। और हुआ यह था कि जो शहर का दरोगा था दुर्मुखसिंह और बड़ा ‘सख्त करेज’ माना जाता था—एकदम पत्थर, वह कुछ तो हमारे किशोर-वय नेता जी के त्याग और कुछ अपनी आन-बान वाली देशभक्त पत्नी की फटकार से खुद-ब-खुद नेता जी के साथ आ मिला। और फिर तो वो चमत्कार हुआ जो शहर शहानाबाद में ही हो सकता था। जिस-जिस ने भी सुना, दाँतों तले उँगली दबा ली।
एक ऐसी कथा जिसे एक कान को सौ कान बनाकर सुनिए, तो भी तृप्ति नहीं। गोलियों की सनसनाहट के बीच बहादुरी की अजब दास्तान...!
लेकिन...?
लेकिन फिर वर्तमान सामने आ गया। रंगी बाबू बातों के साथ-साथ रिक्शा सरपट दौड़ाए लिए जा रहे थे।
“...लेकिन इस उम्र में रिक्शा चलाना! कोई सत्तर साल की उम्र में? यह तो ज्यादती है, बहुत ज्यादती!” मैं गहरे सीझ गया। और शायद अपने आपसे ही कहा है मैंने।
मगर ज्यादती किसकी?...जरूर कोई न कोई मजबूरी रही होगी, जरूर! मैं सोचता हूँ।
हर किसी के मन में छिपी हर बात कोई कहाँ जान पाता है! फिर मजबूरियाँ भी तो ऐसी-ऐसी होती हैं कि...जाने कहाँ-कहाँ की कहनी-अनकहनी!
“आपके बाल-बच्चे! वे नहीं परवाह करते आपकी? इस उम्र में आपको ये...रिक्शा चलाना पड़ता है!” आखिर मैंने सीधे-सीधे कह ही दिया।
“सब हैं बाबू जी, सबन की अपनी-अपनी न्यारी दुनिया!” रंगी बाबू मानो परम वैराग्य भाव से कहते हैं। “हम तो काऊ में दखलंदाजी करते नईं हैं। ना हमको जे अच्छौ लगे कि कोई हमसे आकर कहे कि बाबू जी, जे तुम करो, जे नईं। हमने कबऊ काऊ की नायँ सुनी, अब का सुनिंगे...?”
वाह, यह ठसक! जी खुश हो गया। यानी कि अब भी दुनिया में इतना पानी बाकी है!
‘पानीदार लोग’—कैसा रहेगा रंगी बाबू पर लिखे गए किसी रेखाचित्र या संस्मरण का यह शीर्षक? मैं अपने आपसे पूछता हूँ।
तब तक उनकी उद्बुद्ध वाणी सुनाई दे गई, “अब बाबू जी, बेटे तो अच्छे हैं, पर हम तो गाँधी बाबा से सीख लिए स्वावलंबन। बाँकूहै गए कोई पचपन-साठ बरस। तब से आज तलक तो भूले नईं!”
“अरे, बेटे बहुत अच्छी-अचछी जगह हैं रंगी बाबू के!” अब के उदित अंजुम ने हस्तक्षेप करते हुए मेरे ज्ञान में इजाफा किया, “कोई इन्हें देख के अंदाजा भी नहीं लगा सकता कि इनके बेटे ऐसी बड़ी-बड़ी पोस्टों पर हैं। एक तो फूड कारपोरेशन में बड़ा अफसर है, दूसरा रेलवे में गार्ड। तीसरा साइंस टीचर है पास के मक्खनपुर कस्बे में। लड़कियाँ भी अच्छे घरों में गई हैं।”
फिर उसने उसी रौ में आगे कहा, “यार शीलू, इनके एक समधी तो मंत्री रहे हैं यू.पी. गौरमैंट में! कोई पाँच-सात साल पहले की ही बात होगी। एक दिन मुख्यमंत्री का परवाना लेकर आए कि नेता जी, इलेक्शन लड़ लो! इस बार का टिकट तुम्हारे नाम का पक्का रहा! पर भाई, नहीं लड़ा तो नहीं ही लड़ा। यों भी नेता जी अपने आगे सुनते हैं काहू की? बस, हर बात का एक ही जवाब कि ना-ना, मेरे भीतर जो गाँधी बाबा बैठा है, सो वो इनकार कर रहा है...!”
अब के उदित ने मेरी जानकारी में खासा इजाफा किया है। एक साँस में बहुत कुछ आगे-पीछे का खुलता चला आया है। लेकिन मेरी चिंता अपनी जगह।
“तो फिर जितना रखना चाहिए, लड़के-बच्चे उतना ख्याल रखते नहीं होंगे। आखिर बूढ़े आदमी का भी तो एक स्वाभिमान होता है। जिन बच्चों को इतनी मुश्किल से पाल-पोस के बड़ा किया, अब उनसे भीख तो माँगेंगे नहीं!”
मेरे भीतर एक तीव्र शंका ने करवट ली। मगर उसे तत्काल काट दिया गया, “नहीं-नहीं, ऐसा नहीं। ऐसा तो बिलकुल नहीं बाबू जी!”
नेता जी बड़ी सहजता से मेरी शंका का समाधान-सा करते हैं। एकदम अकुंठ भाव! और फिर मजेदार प्रसंग चल पड़ता है पाँच किलो देसी घी का। सचमुच दिलचस्प!... हुआ यह कि नेता जी बड़े बाजार के मशहूर पुन्ना शाह घी वालों से घर में पाँच किलो देसी घी लेकर आए। एक तो वे देसी घी खाने के शौकीन हैं, खासकर सर्दियों में। फिर यह उनकी जरूरत भी है...कि देह में बल ही न होगा तो रिक्शा क्या खाक चलाएँगे? तो घर में घी लाए अभी हफ्ता भर भी नहीं हुआ होगा कि वे एक दफा यों ही किसी काम से रसोई में गए तो देखते क्या हैं कि आधे से ज्यादा पीपी खाली। अब तो नेता जी सन्नाटे में आ गए कि यह क्या! देसी घी कहाँ गया? घर में कोई चोर तो घुसा नहीं! तो फिर...?
हारकर घरवाली से पूछा तो असली कहानी खुलकर आई बाहर...कि उस दिन घर में छोटा बेटा और उसकी बहू-बच्चे आए हुए थे। बहू किसी काम से रसोई में गई तो घी की भरी पीपी देखकर उसकी तबीयत डोल गई। बोली, “माँ जी, घी तो बहुत अच्छा है! पापा जी को सचमुच घी की अच्छी पहचान है, वरना ये तो जब भी लाते हैं, लुट-पिटकर चले आते हैं। इन्हें तो बिलकुल पहचान ही नहीं है असली घी की। हम तो सचमुच घी खाने को तरस गए।”
और इस पर अम्माँ जी ने वही किया, जो उन्हें करना चाहिए था। उन्होंने झट पीपी खोली और आधे से ज्यादा घी बहू को एक दूसरी पीपी में डालकर दे दिया कि लो बहू, ले जाओ। अभी तुम्हारे खाने-खेलने के दिन हैं, हम तो बहुत खा चुके!
“...तो, अब समझ गए न आप बाबू जी, कि तीनों बेटे हालाँकि टोकते हैं कि बाबू, अब आप रिक्शा न चलाया करो, अच्छा नहीं लगता! पर नजर सबकी बाप की इसी रिक्शे की कमाई पर ही रहती है! खुद कमाता हूँ तो चाहे देसी घी खाऊँ, चाहे सूखी रोटी, कोई टोकने वाला तो नहीं है। पर जिस दिन से बेटों पर आ पड़ूँगा, तीनों बहुओं की नजर इस पर रहेगी कि बुड्ढा काम न धाम का, मगर खाता कितना है।...मैं कुछ गलत तो नहीं कह रहा बाबू जी?”
मुझे लगा, इस एक छोटी-सी बात से ही नेता जी के मनमौजी जीवन-दर्शन का पूरा मर्म मानो खुल पड़ा है।
और फिर कई और किस्से! एक दफा बेटे-बहू के बहुत इसरार करने पर नेता जी उनके घर गए, तो इरादा तो हफ्ते-दस दिन रुकने का था, मगर तीसरे दिन ही वापस आ गए। घर आकर बताया कि ना जी ना, वहाँ मेरा क्या काम? ...कि बहू तो हर बार माँगने पर चाय देती है और सो भी इतनी काली कि राम दुहाई! सो वे साफ-साफ कहकर चले आए कि जहाँ मन की चाय तक नहीं, तो वहाँ रहने का क्या फायदा?
फिर सुना गया, बहू बार-बार टेलीफोन करके सास से पूछती रही कि सासू जी, जरा बताइए तो, आपकी स्पेशल चाय कैसे बनती है जो हमारे ससुर जी को खासी प्रिय है? अबके आएँगे तो मैं वैसी ही बनाकर पिलाऊँगी! सो दूसरी दफे साल-दो साल पीछे फिर गए, मगर थूक से बड़े तलने वाली इस चतुर, मिठबोली बहू के यहाँ कुछ खास तसल्ली न हुई और लौट आए।
और दूसरे बेटे के यहाँ तो और भी अजब किस्सा हुआ। उसे सरकारी फ्लैट मिला हुआ था, जहाँ किराया मुफ्त, बिजली-पानी मुफ्त। उसने बुलाया कि बाबू जी, आइए, इस बुढ़ापे में कुछ दिन हमारे यहाँ भी रहकर थोड़ी सुख की साँस लीजिए। मगर बेटे के घर का सुख जहर हो जाएगा, यह न नेता जी जानते थे और न उनका बेटा। हुआ यह कि वहाँ सब कुछ मुफ्ती का था। सो रात-दिन बिजली-पानी की बर्बादी होती थी। नल चलता था, मगर कोई उसे बंद करने वाला नहीं! सारे कमरों में खामखा बल्ब जल रहे हैं, पंखे चल रहे हैं। जरूरत हो या बेजरूरत, कोई बटन बंद करने वाला नहीं। नेता जी सारे दिन पानी की टोंटी बंद करते और स्विच ऑफ करते-करते परेशान कि भई, अपने गरीब देश में बिजली-पानी की ऐसी फिजूलखर्ची किसलिए? मगर बेटे-बहू का तर्क था कि “अरे बाबू जी, आप परेशान काहे होते हैं? कौन इस पर हमारा खर्च आता है! बिल तो सरकार चुकाएगी, कोई हम थोड़े ही!”
इस पर नेता जी ने टोका और तैश में आकर गाँधी बाबा और स्वदेशी के विचार का बखान करने लगे कि “भई, ये गरीब देश है। हम सभी को गरीब जनता के बारे में सोचना चाहिए। बिजली-पानी फिजूल खर्च करना महज बर्बादी ही नहीं, इस गरीब देश में पाप है, घोर पाप!”
मगर नेता जी जब यह उच्चार रहे थे तो बेटा-बहू ही नहीं, पोते-पोतियाँ भी मुँह बिचकाकर उनका मजाक उड़ा रहे थे।
नेता जी सीधे-सरल चाहे जितने ही हों, पर अपनी इज्जत और स्वाभिमान के मामले में खरे हैं। बेटा-बहू भी अगर उसके आड़े आए, तो वे उनका क्या करते! सो साफ-साफ कहकर चले आए कि “भई, तुम्हीं सँभालो अपनी यह पाप की लंका, मैं तो चला!” और उसके बाद सुनते हैं कि उस बेटे के घर कभी उन्होंने अपना पैर तक नहीं रखा।
4
बातों-बातों में उदित के मुँह से निकलता है, “नेता जी, ये हमारे खास दोस्त है। बालापने के! इनके बड़े भाईसाहब बल्बों वाली जो बड़ी फैक्टरी है ना, उसमें अफसर हैं। आप तो जानते होंगे उनको—विनोद साब! ये विनोद साब के सगे भाई हैं!...पहचाना नहीं नेता जी आपने इन्हें!”
“अरे, विनोद साब तो खूब अच्छी तरियाँ जानते हैं हमें। तो भैया उदित, तुमने पैले चौं नायँ बताई जे बात? इनके और भाइयन को तो जानत हैं हम, पर ये तो देखे नहीं। कऊँ बाहर रहत हैं का?”
फिर पता चला कि मैं दिल्ली में रहता हूँ, तो बोले, “तो आप क्या विनोद साब के छोटे वाले लड़का गुड्डन की शादी में आए हो बाबू जी?”
“हाँ-हाँ, शादी में...! पर भाई तुम्हें शादी का क्या पता?”
“अरे, येल्लो, हमें क्या पता! अरे, हमें क्या नहीं पता? आपके भाईसाहब जब पैंतीस साल पहले फैक्टरी में मामूली ओवरसियर बनकर आए थे, तब से जानते हैं हम इन्हें।” नेता जी हँसे और फिर भाईसाहब के बारे में ही नहीं, बल्कि शादी में कहाँ से कौन-कौन आया, क्या-क्या इंतजाम हुए और क्या-क्या खाने बन रहे हैं, आदि-आदि का पूरा कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया उन्होंने।
“मेहमान तो कई रोज से आ रहे हैं न आपके।” उन्होंने कहा, “और दावत भी खूब चल रही है। कल शाही पनीर और मशरूम की सब्जी बनी थी। उससे पहले छोले-पूरी...शाम को डोसा-इडली, साथ में गुलाब जामुन और छैने की मिठाई। अरे, हलवाई हमने ही तो भिजवाया है विनोद साब के घर। और सुन लो। कोई साठ-सत्तर रिश्तेदार तो आ चुके...और कानपुर वाले रिश्तेदार तो पिछले तीन दिनों से घर में आए बैठे हैं। क्यों, मैं कुछ गलत तो नहीं कह रहा?”
सचमुच वे कुछ भी गलत नहीं कह रहे थे। सब कुछ सही, एकदम सही!
मन में कुछ अजीब-सा लग रहा था। यह आदमी कहीं कोई जासूस तो नहीं? रिक्शा चलाने की आड़ में जासूसी का धंधा, वरना इतने छोटे-छोटे डिटेल्स!
आजकल आदमी का कुछ पता-ठिकाना नहीं। न जाने किस भेस में कौन भेड़िया निकल आए! कुछ और नहीं तो इनकम टैक्स डिपार्टमेंट का ही कोई जासूस हो, तब...? सुना है, ये आजकल भिखारी-विखारी की शक्ल में भी खड़े रहते हैं शहर के चौराहे पर। तो उनके लिए रिक्शा चलाना और रिक्शा चलाते-चलाते ‘भेद’ ले लेना कौन मुश्किल है! शायद इसीलिए उदित अंजुम इशारा कर रहा था चुप रहने का। मुझे क्या जरूरत थी खामखा इतनी खुदाई करने की! अरे, बंदा है, रिक्शा चला रहा है, पैसे दो और फुटाओ! वही ठीक रहता है, वरना तो...
आदमी गड़बड़ है, सचमुच गड़बड़! खैर, अब तो क्या हो सकता है!
स्टेशन आया, तो हम उतरे। जेब में हाथ डाला। टूटे पैसे न थे, पाँच सौ का नोट!
“अरे, क्या पाँच सौ? इतना बड़ा नोट!...टूटे पैसे तो हैं नहीं हमारे पास!” नेता जी ने अपनी मुश्किल बताई।
एक क्षण संकोच में खड़े रहे, कुछ सोचते से। वे भी, हम भी।
आखिर वे कुछ सोचकर रिक्शा वहीं छोड़कर गए, नोट तुड़ाकर लाए। और सचमुच झटपट तुड़ाकर ले आए।...
चमत्कार...सचमुच चमत्कार! वरना शहर शहानाबाद में आजकल किसी का सिर तो फटाफट फूट सकता है, पर नोट वह भी खासकर पाँच सौ का नोट तुड़ाना आसान नहीं। अगर आप जान-पहचान के नहीं हैं तो पहला शक तो इसी चीज का होगा कि जरूर साला ठग है, हमें नकली नोट भेड़ रहा है।...मारो स्साले को!
और इससे भी बड़ा अचरज यह कि जिस पान के खोखे से वे नोट तुड़ाकर लाए थे, वहाँ बैठे लड़के ने नीचे उतरकर उनके पाँव छुए और फिर बड़े आदर से फटाफट खुदरा नोट गिनकर दे दिए।
मैं दूर से ही देख रहा था नजारा—बड़े ही आदर से और आश्चर्य से। मन ही मन बुदबुदाते हुए, “अर्रे, वाह रे नेता जी!”
फिर मालूम पड़ा कि पान के जिस खोखे से, वे नोट तुड़ाकर लाए थे, वह नेता जी की मेहरबानी से ही अस्तित्व में आया था।
एक कथा में से निकलती एक और कथा।
“सचमुच हो सकता है ऐसा...?” मैं पसोपेश में। पर उदित अंजुम ने ताईद की कि सचमुच हुआ था ऐसा किस्सा कि “एक जरा दिलफेंक तबीयत के लाला जी थे। लाला बेलाराम। वो अपने बाल-बच्चों को छोड़, किसी ऐसी-वैसी छम्मक-छल्लो औरत के चक्कर में आ गए थे। वो औरत थी तो बला की खूबसूरत और सच पूछो तो तवायफ थी। और असल में तो उनके पैसे के पीछे थी वो।...फिर हुआ ये जो कि होना ही था कि एक रात लाला रेलवे स्टेशन की पटरियों पर मरे हुए पाए गए। सिर अलग, धड़ अलग। उस औरत का तो उस दिन के बाद से कुछ पता-ठिकाना नहीं। पर उनके बाल-बच्चों को खड़ा करने की जिम्मेदारी ले ली हमारे इन नेता जी ने। बड़ा लड़का जो पढ़ा-लिखा था, वो तो बल्बों की इसी फैक्टरी में लग गया और ये छोटा वाला है...”
“तो दावत तो कल है, रात साढ़े आठ बजे! मैं आऊँगा। मुझे तो खास तौर से बुलाया है विनोद साब ने!”
नेता जी फड़कती हुई मूँछों के साथ मुसकराते हुए कह रहे हैं। फिर चलते-चलते उन्होंने पूरी आश्वस्ति के साथ जोड़ा, “कल जरूर मुलाकात होगी बाबू जी!”
5
अगले दिन सचमुच रात की दावत में नेता जी मौजूद थे। मैं तो बहुत अरसे बाद मिले मित्रों से मिलने और उनका हालचाल जानने में व्यस्त था और लगभग उन्हें भूल ही चुका था। पर...अचानक वे दिखाई पड़े तो मैं चौंका।
साफ धुला कलफदार खद्दर का कुरता, खद्दर की धोती...और खद्दर की ही एकदम साफ चमकदार जवाहरलाल नेहरू स्टाइल की टोपी। नेता जी अपनी सदाबहार पोशाक में खासे जँच रहे थे। बल्कि लाइट मार रहे थे।
यों तो दावत में शहर के तमाम वी.आई.पी. थे, यानी धनपतियों से लेकर नौकरशाहों तक बड़े-बड़ों की बड़ी बहार! मगर उनमें सचमुच कोई नहीं था जो नेता जी की टक्कर का हो!
सभी उनके आगे झुक रहे थे और उन्हें लगभग घेरे हुए थे।
‘अजीब लोग हैं इस शहर के भाई!’ मुझे हैरानी हुई।
और तो और खुद भाईसाहब भी बड़े आदर से उनसे बात कर रहे थे। फिर वे बाँह पकड़कर खुद पंगत तक उन्हें ले गए। बैठाया। और सारी व्यस्तताओं के बावजूद थोड़ी देर वहीं खड़े-खड़े उनसे बात भी करते रहे।
कुछ देर बाद जब नेता जी खाने में व्यस्त हो गए, मैं भाईसाहब को एक ओर ले गया। मेरी गहरी प्रश्नाकुलता शब्दों में छलक आई थी।
“भाईसाहब, क्या यह सही है कि ये गाँधी जी के साथ रहे हैं और...?” नेता जी के बारे में कही-सुनी जाती तमाम बातों के आधार पर मैंने अपनी जिज्ञासा उनके आगे रखी।
विनोद भाईसाहब चुप, एकदम चुप।
क्या हुआ...क्या...? मैंने कुछ गलत पूछ लिया क्या? मैं चक्कर में।
“पता नहीं सही है कि नहीं! लेकिन यह तो एकदम सही कि इस फैक्टरी में मेरी नौकरी इन्हीं की वजह से टिकी हुई है!” भाईसाहब धीरे-धीरे, एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहते हैं।
“क्या?” आश्चर्य से मेरा मुँह खुला का खुला रह गया।
“हाँ, शीलू!” भाईसाहब अपने में डूबे हुए से बोले, “हुआ असल में यह कि यहाँ एक एम.एल.ए. हैं। ठाकुर डी.डी. सिंह। जाने कैसे उनकी दिलचस्पी इस फैक्टरी में जगी। कुछ लोगों को उकसाया, हड़ताल करा दी और लगे मैनेजमैंट से ब्लैकमेलिंग करने कि पाँच लाख पहुँचाओ हमारे घर, वरना...! उन्होंने सोचा, अच्छा खाने-पीने का धंधा है। वो जितना हो सके, हड़ताल को लंबा लटकाना चाहते थे, मगर मजदूर भी तंग, हम लोग भी। तालाबंदी की नौबत आने को थी। उधर मालिक लोग तो वैसे ही पिछले दस सालों से फैक्टरी बंद करने की जुगाड़ में हैं। सोचते हैं, फैक्टरी ज्यादा मुनाफा तो कमा नहीं रही। इससे तो अच्छा है, यहाँ की लंबी-चौड़ी सैकड़ों एकड़ जमीन जो पहले कौडिय़ों के भाव मिली थी, बेचकर करोड़ों रुपए कमा लें। अगर हजार-पाँच सौ प्लाट भी बनाकर बेच लिए, तो भी करोड़ों का खेल है। समझ रहे हो न! तो मालिकों को भी मजा आ रहा था इस खेल में और वो अपना मुनाफा कूत रहे थे।...अच्छा, इस बात को समझ तो मजदूर भी रहे थे, हम भी कि हालत अब यही आने वाली है। इतने में एक मजदूर ने कहा, ‘जी, नेता जी जो कहें, हम लोग मान लेंगे। आप नेता जी से बात कर लो।’ देखते ही देखते सारे मजदूर यही कहने लगे। तो मरता क्या न करता वाली बात थी। हमने कहा, चलो देखते हैं। इस आदमी के बारे में बातें तो बहुत कही-सुनी जाती हैं, एक दफा खुद चेक करके भी देखना चाहिए...!”
“तो क्या वाकई नेता जी ने सुलझा दिया इत्ता उलझा हुआ मसला?” मेरी जिज्ञासा।
“यकदम्म!” भाईसाहब के चेहरे पर बड़ी भली और दिव्य किस्म की चमक थी।
फिर उन्होंने पूरी बात भी बताई।
“...नेता जी ने बिलकुल युद्ध स्तर पर काम किया। बोले, इस फैक्टरी से शहर के हजारों घरों की रोटी चलती है, तो इसे बंद तो हरगिज नहीं होने दूँगा, भले ही मुझे अपनी जान की बलि देनी पड़े! सुनते तो यह हैं कि तीन दिन तक उनका खाना-पीना, सोना सब बंद रहा। जो कुछ मजदूर चाहते थे और उनकी जो-जो प्रॉब्लम्स थीं, उन पर उन्होंने मजदूरों से खुलकर बात की। कंपनी की जो हालत थी, उसमें हम जितना कर सकते थे, उसका अंदाजा हमारे साथ उठ-बैठकर लगाया और दो दिन के अंदर मसला खत्म। तीसरे दिन तो अफसर और मजदूर गले मिल रहे थे और साहब, कंपनी की मिल-जुलकर काम करने की पुरानी परंपराओं की दुहाई दी जा रही है!”
“मगर कैसे...?” मैं सकते में।
“क्या कह सकते हैं! मगर एक बात तय है, कि मजदूर जान छिड़कते हैं इन पर। नेता जी गलत नहीं कर सकते, चाहे जान चली जाए—ये सब कहते हैं और शायद गलत नहीं कहते!”
भाईसाहब कुछ-कुछ भावुक हो चले थे।
मैं हैरान! भाईसाहब तो खासे प्रैक्टीकल और बुद्धिवादी आदमी हैं और ये बहे जा रहे हैं महज एक रिक्शा वाले के लिए! अजीब बात है—कितनी अजीब!
“उन दिनों तो हमारे जी.एम. भी जान छिड़कते थे इन पर। और उन दिनों क्या, अब भी यही हालत है।” भाईसाहब बता रहे थे, “बातचीत जब चल रही थी, तब तो हालत यह थी कि रोजाना बिना नागा कंपनी की कार भेजते थे इनको घर से लाने के लिए। पर...ये एक दफा भी उस कार से नहीं आए। वापस भेज देते थे। अपने रिक्शे पर आते थे, उसी से जाते थे।”
“समझौता होने के अगले दिन जी.एम. ने पूरे पचास हजार रुपए भिजवाए कि नेता जी ना मत कीजिएगा, ये हमारी ओर से छोटा-सा तोहफा है! इस पर नेता जी तो आगबबूला, बिलकुल जैसे फट पड़े हों। बोले, ‘आप लोगन ने समझ क्या रक्खा है! अरे, क्या नेता जी को खरीदना चाहते हैं? हम गाँधी के असली चेला हैं, नकली वाले नहीं हैं!’
“इस पर सुना तो यह भी गया कि जी.एम. को दोनों हाथ जोड़कर माफी माँगनी पड़ी थी और वह ‘सर...सर...’ कहता नेता जी के आगे-पीछे चक्कर काट रहा था। अटक-अटककर उसे बोलते सुना गया था कि ‘नेता जी, किसी से कहिएगा नहीं, जरा मेरी इज्जत का सवाल है!’ तो इस पर नेता जी ने तो वाकई किसी से कुछ नहीं कहा, एक शब्द तक नहीं। तो भी पता नहीं कैसे बात फैल गई!”
सुनकर मुझे न जाने क्यों एक पुराने लोकगीत की भूली-बिसरी पंक्ति याद आई, “लागी कैसे छूटे हो रामा...!” मानो यह पुराना लोकगीत चोला बदलकर अचानक एक व्यंग्यात्मक सूरत में सामने आ गया। मैं भाईसाहब को भी यह लाइन सुनाना चाहता था। पर वे अपनी रौ में थे और कहे जा रहे थे, “आज भी जी.एम. याद करता है कि सचमुच एक सचमुच के नेता जी से पाला पड़ा था। और इस समझौते से मजदूर तो इतने खुश थे कि आज भी याद करते हैं कि नेता जी ने हमारा बड़ा फायदा कराया था और बड़ा टनाटन समझौता था! इसकी वजह भी सीधे-सीधे यही थी कि बीच में कोई खाने वाला दल्ला तो था नहीं। लिहाजा जो कुछ मजदूरों को मिला, सीधे-सीधे मिला...और खासा मिला। मेरी जानकारी में हमारी फैक्टरी में इतने मजदूरों को पहले कभी नहीं मिला, किसी भी एग्रीमेंट में। इसलिए मजदूरों से पूछो तो वो आज भी नेता जी की जय बोलते हैं। और हमारे जी.एम. का सिर आज तक नहीं उठता इनके आगे!”
और मुझे याद आया कि नेता जी जब बैठे थे, तो साथ में जी.एम. भी था, मि. सूरी...या पता नहीं, क्या नाम बताया था भाईसाहब ने। और यह भी कि बंदा इंग्लैंड से मैनेजमेंट समेत जाने कौन-कौन से कोर्स करके आया है। पर देखो तो, अपने बढ़िया क्रीजदार सूट, बढ़िया टाई, बढ़िया चमक-चम जूतों के बावजूद नेता जी के आगे कितना निष्प्रभ, पंगु, दयनीय...!
तभी सूरी साहब की बिल्ली-कट मूँछों पर मेरा ध्यान गया और मेरी हँसी छूटने को हुई, अहा-हा, मिस्टर जी.एम की इन बिल्ली-कट मँूछों के सामने जरा नेता जी की मूछें तो देखो, एकदम शेर की तरह! खुली-खुली, फैली-फैली। नेता जी हँसते हैं तो उनकी मूँछों के सिरे भी क्या खूब फड़कते हैं। और उनके आगे बेचारे बिल्ली-कट सूरी की मूँछें, एकदम चकरघिन्नी की तरह! वे बीच-बीच में घुन्नेपन से हँसते हैं और और फिर अचानक चुप्पी साध लेते हैं, जैसे टायर पंक्चर...सारी हवा निकल गई हो। मगर नेता जी शेर...वाकई शेर! सच्चे सूरमाँ!
ओह, आज जान पाया गाँधी बाबा की असली ताकत! अहिंसा और नैतिकता की ताकत, जिसे बड़ी-बड़ी शक्तिशाली कुर्सियाँ भी सलाम करती हैं!
6
अचानक नेता जी उठ खड़े हुए। एक भीनी मुसकराहट के साथ बोले, “अच्छा विनोद साब, चला जाए! बहुत अच्छा भोजन कराया आपने। बड़ा आनंद आया। गुड्डन बाबू कहाँ है? उसे आशीर्वाद देता चलूँ!”
फिर गुड्डन आया तो उसके सिर पर बड़े प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “अब तुम जवान हो गए हो गुड्डन बाबू। खुद को पहचानो...कि क्या तुम्हें करना है जिंदगानी में! गाँधी जी की आत्मकथा पढ़ो। हम लाकर देंगे तुम्हें।”
बाईस साल के गोलमटोल गुड्डन ने मंद-मंद मुसकराते हुए सिर झुका लिया है, “अच्छा, नेता जी!”
रंगी बाबू चलने लगे तो भाईसाहब का विनम्र अनुरोध, “नेता जी, गाड़ी से छुड़वा देते हैं...!”
“अरे, काहे का कष्ट करते हैं भाई। हमारी सवारी बाहर खड़ी है। कोई राजा की सवारी से कम थोड़े ही ना है हमारी सवारी!” रंगी बाबू अपनी टोपी उतारकर फिर से सिर पर जमाते हैं। बड़े ही आत्मगौरव और इत्मीनान के साथ।
“और फिर...!” खुदर-खुदर हँसते हुए कहते हैं, “अगर स्टेशन से कोई सवारी मिली तो उठा लेंगे। दो-चार रुपए बन जाएँगेे...और आपके घर जो ढेर सारा पक्का खाना खाया है, सो भी पच जाएगा! यों भी मेहनत में काहे की शर्म! क्यों ठीक कह रहा हूँ न बाबू जी?” इस बार मेरी ओर इशारा करते हुए रंगी बाबू हँसते हैं—एकदम बच्चों जैसी भोली, निष्कलुष हँसी।
थोड़ी देर में अपने रिक्शे पर सवार वे तेज-तेज पैडल चलाते नजर आते हैं।
ओर अब वे दृष्टि से ओझल हो गए हैं, पर जाने क्यों मेरी निगाह उस पथ से हटती ही नहीं है। जाने क्यों...?