रंगभूमि (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद

Rangbhoomi (Novel) : Munshi Premchand

रंगभूमि अध्याय 26

अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बालक के नन्हे-से मुख में न समाकर नीचे बह जाती हैं। प्रभात की स्वर्ण-किरणों में नहाकर माता का स्नेह-सुंदर गात निखर गया है और बालक भी अंचल से मुँह निकाल-निकालकर माता के स्नेह-प्लावित मुख की ओर देखता है, हुमुकता है और मुस्कराता है; पर माता बार-बार उसे अंचल से ढँक लेती है कि कहीं उसे नजर न लग जाए।
सहसा तोप के छूटने की कर्ण-कटु धवनि सुनाई दी। माता का हृदय काँप उठा, बालक गोद में चिमट गया।
फिर वही भयंकर धवनि! माँ दहल उठी, बालक चिमट गया।
फिर तो लगातार तोपें छूटने लगीं। माता के मुख पर आशंका के बादल छा गए। आज रियासत के नए पोलिटिकल एजेंट यहाँ आ रहे हैं। उन्हीं के अभिवादन में सलामियाँ उतारी जा रही हैं।
मिस्टर क्लार्क और सोफिया को यहाँ आए एक महीन गुजर गया। जागीरदारों की मुलाकातों, दावतों, नजरानों से इतना अवकाश ही न मिला कि आपस में कुछ बातचीत हो। सोफिया बार-बार विनयसिंह का जिक्र करना चाहती; पर न तो उसे मौका ही मिलता और न यही सूझता कि कैसे वह जिक्र छेडर्ऌँ। आखिर जब पूरा महीना खत्म हो गया, तो एक दिन उसने क्लार्क से कहा-इन दावतों का ताँता तो लगा ही रहेगा,और बरसात बीती जा रही है। अब यहाँ जी नहीं लगता, जरा पहाड़ी प्रांतों की सैर करनी चाहिए। पहाड़ियों में खूब बहार होगी। क्लार्क भी सहमत हो गए।

एक सप्ताह से दोनों रियासतों की सैर कर रहे हैं। रियासत के दीवान सरदार नीलकंठ राव भी साथ हैं। जहाँ ये लोग पहुँचते हैं, बड़ी धूमधाम से उनका स्वागत होता है, सलामियाँ उतारी जाती हैं, मान-पत्र मिलते हैं, मुख्य-मुख्य स्थानों की सैर कराई जाती है। पाठशालाओं, चिकित्सालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का निरीक्षण किया जाता है। सोफिया को जेलखानों के निरीक्षण का बहुत शौक है। वह बड़े धयान से कैदियों को, उनके भोजनालयों को, जेल के नियमों को देखती है और कैदखानों के सुधार के लिए कर्मचारियों से विशेष आग्रह करती है। आज तक कभी इन अभागों की ओर किसी एजेंट ने धयान न दिया था। उनकी दशा शोचनीय थी, मनुष्यों से ऐसा व्यवहार किया जाता था, जिसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता है। पर सोफिया के अविरल प्रयत्न से उनकी दशा सुधरने लगी है। आज जसवंतनगर के मेजबानों को सेवा-सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और सारा कस्बा, अर्थात् वहाँ के राजकर्मचारी, पगड़ियाँ बाँधो इधर-उधर दौड़ते फिरते हैं। किसी के होश-हवास ठिकाने नहीं हैं, जैसे नींद में किसी ने भेड़ियों का स्वप्न देखा हो। बाजार कर्मचारियों ने सुसज्जित कराए हैं, जेल के कैदियों और शहर के चौकीदारों ने कुलियों और मजदूरों का काम किया है, बस्ती का कोई प्राणी बिना अपना परिचय दिए हुए सड़कों पर नहीं आने पाता। नगर के किसी मनुष्य ने इस स्वागत में भाग नहीं लिया है और रियासत ने उनकी उदासीनता का यह उत्तार दिया है। सड़कों के दोनों तरफ सशस्त्र सिपाहियों की सफें खड़ी कर दी गई हैं कि प्रजा की अशांति का कोई चिद्द भी न नजर आने पाए। सभाएँ करने की मनाही कर दी गई है।

संधया हो गई थी। जुलूस निकला। पैदल और सवार आगे-आगे थे। फौजी बाजे बज रहे थे। सड़कों पर रोशनी हो रही थी, पर मकानों में,छतों पर अंधकार छाया हुआ था। फूलों की वर्षा हो रही थी, पर छतों से नहीं, सिपाहियों के हाथों से। सोफी सब कुछ समझती थी, पर क्लार्क की आँखों पर परदा-सा पड़ा हुआ था। असीम ऐश्वर्य ने उनकी बुध्दि को भ्रांत कर दिया है। कर्मचारी सब कुछ कर सकते हैं, पर भक्ति पर उनका वश नहीं होता। नगर में कहीं आनंदोत्साह का चिद्द नहीं है, सियापा-सा छाया हुआ है, न पग-पग पर जय-धवनि है, न कोई रमणी आरती उतारने आती है, न कहीं गाना-बजाना है। मानो किसी पुत्र-शोकमग्न माता के सामने विहार हो रहा हो।
कस्बे का गश्त करके सोफी, क्लार्क, सरदार नीलकंठ और दो-एक उच्च कर्मचारी तो राजभवन में आकर बैठे, और लोग बिदा हो गए। मेज पर चाय लाई गई। मि. क्लार्क ने बोतल से शराब उड़ेली, तो सरदार साहब, जिन्हें इसकी दुर्गंध से घृणा थी, खिसककर सोफिया के पास आ बैठे और बोले-जसवंतनगर आपको कैसा पसंद आया?
सोफिया-बहुत ही रमणीक स्थान है। पहाड़ियों का दृश्य अत्यंत मनोहर है। शायद कश्मीर के सिवा ऐसी प्राकृतिक शोभा और कहीं न होगी। नगर की सफाई से चित्ता प्रसन्न हो गया। मेरा तो जी चाहता है, यहाँ कुछ दिनों रहूँ।
नीलकंठ डरे। एक-दो दिन तो पुलिस और सेना के बल से नगर को शांत रखा जा सकता है, पर महीने-दो महीने किसी तरह नहीं। असम्भव है। कहीं ये लोग यहाँ जम गए, तो नगर की यथार्थ स्थिति अवश्य ही प्रकट हो जाएगी। न जाने उसका क्या परिणाम हो। बोले-यहाँ की बाह्य छटा के धोखे में न आइए। जलवायु बहुत खराब है। आगे आपको इससे कहीं सुंदर स्थान मिलेंगे।
सोफिया-कुछ भी हो, मैं यहाँ दो हफ्ते अवश्य ठहरूँगी। क्यों विलियम, तुम्हें यहाँ से जाने की कोई जल्दी तो नहीं है?
क्लार्क-तुम यहाँ रहो, तो मैं दफन होने को तैयार हूँ।
सोफिया-लीजिए सरदार साहब, विलियम को कोई आपत्तिा नहीं है।
सोफिया को सरदार साहब को दिक करने में मजा आ रहा था।
नीलकंठ-फिर भी मैं आपसे यही अर्ज करूँगा कि जसवंतनगर बहुत अच्छी जगह नहीं है। जलवायु की विषमता के अतिरिक्त यहाँ की प्रजा में अशांति के बीज अंकुरित हो गए हैं।
सोफिया-तब तो हमारा यहाँ रहना और भी आवश्यक है। मैंने किसी रिसायत में यह शिकायत नहीं सुनी। गवर्नमेंट ने रियासतों को आंतरिक स्वाधीनता प्रदान कर दी है। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि रियासतों में अराजकता के कीटाणुओं को सेये जाने दिया जाए। इसका उत्तारदायित्व अधिकारियों पर है, और गवर्नमेंट को अधिकार है कि वह इस असावधानी का संतोषजनक उत्तार माँगे।

सरदार साहब के हाथ-पाँव फूल गए। सोफिया से उन्होंने यह बात निश्शंक होकर कही थी। उसकी विनयशीलता से उन्होंने समझ लिया था कि मेरी नजर-भेंट ने अपना काम कर दिखाया। कुछ बेतकल्लुफ-से हो गए थे। यह फटकार पड़ी, तो आँखें चौंधिया गईं। कातर स्वर में बोले-मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, कि यद्यपि रियासत पर इस स्थिति का उत्तारदायित्व है; पर हमने यथासाधय इसके रोकने की चेष्टा की और अब भी कर रहे हैं। यह बीज उस दिशा से आया, जिधर से उसके आने की सम्भावना न थी; या यों कहिए कि विष-बिंदु सुनहरे पात्रों में लाए गए। बनारस के रईस कुँवर भरतसिंह के स्वयंसेवकों ने कुछ ऐसे कौशल से काम लिया कि हमें खबर तक न हुई। डाकुओं से धन की रक्षा की जा सकती है, पर साधुओं से नहीं। सेवकों ने सेवा की आड़ में यहाँ की मूर्ख प्रजा पर ऐसे मंत्र फूँके कि उन मंत्रों के उतारने में रियासत को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। विशेषत: कुँवर साहब का पुत्र अत्यंत कुटिल प्रकृति का युवक है। उसने इस प्रांत में अपने विद्रोहात्मक विचारों का यहाँ तक प्रचार किया कि इसे विद्रोहियों का अखाड़ा बना दिया। उसकी बातों में कुछ ऐसा जादू होता था कि प्रजा प्यासों की भाँति उसकी ओर दौड़ती थी। उसके साधु भेष, उसके सरल, नि:स्पृह जीवन, उसकी मृदुल सहृदयता और सबसे अधिक उसके देवोपम स्वरूप ने छोटे-बड़े सभी पर वशीकरण-सा कर दिया था। रियासत को बड़ी चिंता हुई। हम लोगों की नींद हराम हो गई। प्रतिक्षण विद्रोह की आग भड़क उठने की आशंका होती थी। यहाँ तक कि हमें सदर से सैनिक सहायता भेजनी पड़ी। विनयसिंह तो किसी तरह गिरफ्तार हो गया; पर उसके अन्य सहयोगी अभी तक इलाके में छिपे हुए प्रजा को उत्तोजित कर रहे हैं। कई बार यहाँ सरकारी खजाना लुट चुका है। कई बार विनय को जेल से निकाल ले जाने का दुष्प्रयत्न किया जा चुका है, और कर्मचारियों को नित्य प्राणों की शंका बनी रहती है। मुझे विवश होकर आपसे यह वृत्तांत कहना पड़ा। मैं आपको यहाँ ठहरने की कदापि राय न दूँगा। अब आप स्वयं समझ सकती हैं कि हम लोगों ने जो कुछ किया, उसके सिवा और क्या कर सकते थे।

सोफिया ने बड़ी चिंता के भाव से कहा-दशा उससे कहीं भयंकर है, जितना मैं समझती थी। इस अवस्था में विलियम का यहाँ से जाना कर्तव्य के विरुध्द होगा। वह यहाँ गवर्नमेंट के प्रतिनिधि होकर आए हैं, केवल सैर-सपाटे करने के लिए नहीं। क्यों विलियम, तुम्हें यहाँ रहने में कोई आपत्तिा तो नहीं है? यहाँ की रिपोर्ट भी तो करनी पड़ेगी।
क्लार्क ने एक चुस्की लेकर कहा-तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं नरक में भी स्वर्ग का सुख ले सकता हूँ। रहा रिपोर्ट लिखना, वह तुम्हारा काम है।
नीलकंठ-मेरी आपसे सविनय प्रार्थना है कि रियासत को सँभालने के लिए कुछ और समय दीजिए। अभी रिपोर्ट करना हमारे लिए घातक होगा।
इधर तो यह अभिनय हो रहा था, सोफिया प्रभुत्व के सिंहासन पर विराजमान थी, ऐश्वर्य चँवर हिलाता था, अष्टसिध्दि हाथ बाँधो खड़ी थी। उधर विनय अपनी अंधोरी कालकोठरी में म्लान और क्षुब्ध बैठा हुआ नारी जाति की निष्ठुरता और असहृदयता पर रो रहा था। अन्य कैदी अपने-अपने कमरे साफ कर रहे थे, उन्हें कल नए कम्बल और नए कुरते दिए गए थे, जो रियासत में एक नई घटना थी। जेल कर्मचारी कैदियों को पढ़ा रहे थे-मेम साहब पूछें, तुम्हें क्या शिकायत है, तो सब लोग एक स्वर से कहना, हुजूर के प्रताप से हम बहुत सुखी हैं और हुजूर के जान-माल की खैर मनाते हैं। पूछें, क्या चाहते हो, तो कहना, हुजूर की दिनोंदिन उन्नति हो, इसके सिवा हम कुछ नहीं चाहते। खबरदार, जो किसी ने सिर ऊपर उठाया और कोई बात मुँह से निकाली, खाल उधोड़ ली जाएगी। कैदी फूले न समाते थे। आज मेम साहब की आमद की खुशी में मिठाइयाँ मिलेंगी। एक दिन की छुट्टी होगी। भगवान उन्हें सदा सुखी रखें कि हम अभागों पर इतनी दया करती हैं।

किंतु विनय के कमरे में अभी तक सफाई नहीं हुई। नया कम्बल पड़ा हुआ है, छुआ तक नहीं गया। कुरता ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ रखा है, वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है। उसके शरीर के एक-एक रोम से, मस्तिष्क के एक-एक अणु से, हृदय की एक-एक गति से यही आवाज आ रही है-सोफिया! उसके सामने क्योंकर जाऊँगा। उसने सोचना शुरू किया-सोफिया यहाँ क्यों आ रही है? क्या मेरा अपमान करना चाहती है? सोफी, जो दया और प्रेम की सजीव मूर्ति थी, क्या वह मुझे क्लार्क के सामने बुलाकर पैरों से कुचलना चाहती है? इतनी निर्दयता, और मुझ जैसे अभागे पर, जो आप ही अपने दिनों को रो रहा है! नहीं, वह इतनी वज्र-हृदया नहीं है, उसका हृदय इतना कठोर नहीं हो सकता। यह सब मि. क्लार्क की शरारत है, वह मुझे सोफी के सामने लज्जित करना चाहते हैं; पर मैं उन्हें यह अवसर न दूँगा, मैं उनके सामने जाऊँगा ही नहीं, मुझे बलात् ले जाए; जिसका जी चाहे। क्यों बहाना करूँ कि मैं बीमार हूँ। साफ कह दूँगा, मैं वहाँ नहीं जाता। अगर जेल का यह नियम है, तो हुआ करे, मुझे ऐसे नियम की परवाह नहीं, जो बिलकुल निरर्थक है। सुनता हँ, दोनों यहाँ एक सप्ताह तक रहना चाहते हैं, क्या प्रजा को पीस ही डालेंगे? अब भी तो मुश्किल से आधो आदमी बच रहे होंगे, सैकड़ों निकाल दिए गए, सैकड़ों जेल में ठूँस दिए गए, क्या इस कस्बे को बिलकुल मिट्टी में मिला देना चाहते हैं?

सहसा जेल का दारोगा आकर कर्कश स्वर में बोला-तुमने कमरे की सफाई नहीं की! अरे, तुमने तो अभी कुरता भी नहीं बदला, कम्बल तक नहीं बिछाया! तुम्हें हुक्म मिला या नहीं?
विनय-हुक्म तो मिला, मैंने उसका पालन करना आवश्यक नहीं समझा।
दारोगा ने और गरम होकर कहा-इसका यही नतीजा होगा कि तुम्हारे साथ भी और कैदियों का-सा सलूक किया जाए। हम तुम्हारे साथ अब तक शराफत का बर्ताव करते आए हैं, इसलिए कि तुम एक प्रतिष्ठित रईस के लड़के हो और यहाँ विदेश में आ पड़े हो। पर मैं शरारत नहीं बर्दाश्त कर सकता।
विनय-यह बतलाइए कि मुझे पोलिटिकल एजेंट के सामने तो न जाना पड़ेगा?
दारोगा-और यह कम्बल और कुरता किसलिए दिया गया है; कभी और भी किसी ने यहाँ नया कम्बल पाया है? तुम लोगों के तो भाग्य खुल गए।
विनय-अगर आप मुझ पर इतनी रियायत करें कि मुझे साहब के सामने जाने पर मजबूर न करें, तो मैं आपका हुक्म मानने को तैयार हूँ।
दारोगा-कैसे बेसिर-पैर की बातें करते हो जी, मेरा कोई अख्तियार है? तुम्हें जाना पड़ेगा।
विनय ने बड़ी नम्रता से कहा-मैं आपका यह एहसान कभी न भूलँगा।
किसी दूसरे अवसर पर दारोगाजी शायद जामे से बाहर हो जाते, पर आज कैदियों को खुश रखना जरूरी था। बोले-मगर भाई, यह रिआयत करनी मेरी शक्ति से बाहर है। मुझ पर न जाने क्या आफत आ जाए। सरदार साहब मुझे कच्चा ही खा जाएँगे, मेम साहब को जेलों को देखने की धुन है। बड़े साहब तो कर्मचारियों के दुश्मन हैं, मेम साहब उनसे भी बढ़-चढ़कर हैं। सच पूछो तो जो कुछ हैं, वह मेम साहब ही हैं। साहब तो उनके इशारों के गुलाम हैं। कहीं वह बिगड़ गईं, तो तुम्हारी मियाद तो दूनी हो ही जाएगी, हम भी पिस जाएँगे।
विनय-मालूम होता है, मेम साहब का बड़ा दबाव है।
दारोगा-दबाव! अजी, यह कहो कि मेम साहब ही पोलिटिकल एजेंट हैं। साहब तो केवल हस्ताक्षर करने-भर को हैं। नजर-भेंट सब मेम साहब के ही हाथों में जाती है।
विनय-आप मेरे साथ इतनी रियाअत कीजिए कि मुझे उनके सामने जाने के लिए मजबूर न कीजिए। इतने कैदियों में एक आदमी की कमी जान ही न पड़ेगी। हाँ, अगर वह मुझे नाम लेकर बुलाएँगी, तो मैं चला जाऊँगा।
दारोगा-सरदार साहब मुझे जीता निगल जाएँगे।
विनय-मगर करना आपको यही पड़ेगा। मैं अपनी खुशी से कदापि न जाऊँगा।
दारोगा-मैं बुरा आदमी हूँ, मुझे दिक मत करो। मैंने इसी जेल में बड़े-बड़ों की गरदनें ढीली कर दी हैं।
विनय-अपने को कोसने का आपको अधिकार है; पर आज जानते हैं, मैं जब्र के सामने सिर झुकानेवाला नहीं हूँ।
दारोगा-भाई, तुम विचित्र प्राणी हो, उसके हुक्म से सारा शहर खाली कराया जा रहा है, और फिर भी अपनी जिद किए जाते हो। लेकिन तुम्हें अपनी जान भारी है, मुझे अपनी जान भारी नहीं है।
विनय-क्या शहर खाली कराया जा रहा है? यह क्यों?
दारोगा-मेम साहब का हुक्म है, और क्या, जसवंतनगर पर उनका कोप है। जब से उन्होंने यहाँ की वारदातें सुनी हैं, मिजाज बिगड़ गया है। उनका वश चले तो इसे खुदवाकर फेंक दें। हुक्म हुआ है कि एक सप्ताह तक कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। भय है कि कहीं उपद्रव न हो जाए, सदर से मदद माँगी गई है।
दारोगा ने स्थिति को इतना बढ़ाकर बयान किया, इससे उनका उद्देश्य विनयसिंह पर प्रभाव डालना था और उनका उद्देश्य पूरा हो गया। विनयसिंह को चिंता हुई कि कहीं मेरी अवज्ञा से क्रुध्द होकर अधिकारियों ने मुझ पर और भी अत्याचार करने शुरू किए और जनता को यह खबर मिली, तो वह बिगड़ खड़ी होगी और उस दशा में मैं उन हत्याओं के पाप का भागी ठहरूँगा। कौन जाने, मेरे पीछे मेरे सहयोगियों ने लोगों को और भी उभार रखा हो, उनमें उद्दंड प्रकृति के युवकों की कमी नहीं है। नहीं, हालत नाजुक है। मुझे इस वक्त धैर्य से काम लेना चाहिए। दारोगा से पूछा-मेम साहब यहाँ किस वक्त आएँगी?
दारोगा-उनके आने का कोई ठीक समय थोड़े ही है। धोखा देकर किसी ऐसे वक्त आ पहुँचेंगी, जब हम लोग गाफिल पड़े होंगे। इसी से तो कहता हूँ कि कमरे की सफाई कर डालो; कपड़े बदल लो; कौन जाने, आज ही आ जाएँ।
विनय-अच्छी बात है; आप जो कुछ कहते हैं, सब कर लूँगा। अब आप निश्ंचित हो जाएँ।
दारोगा-सलामी के वक्त आने से इनकार तो न करोगे?
विनय-जी नहीं; आप मुझे सबसे पहले आँगन में मौजूद पाएँगे।
दारोगा-मेरी शिकायत तो न करोगे?
विनय-शिकायत करना मेरी आदत नहीं, इसे आप खूब जानते हैं।
दारोगा चला गया। अंधेरा हो चला था। विनय ने अपने कमरे में झाड़ू लगाई, कपड़े बदले, कम्बल बिछा दिया। वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे, जिससे किसी की दृष्टि उनकी ओर आकृष्ट हो; वह अपनी निरपेक्षता से हुक्काम के संदेहों को दूर कर देना चाहते थे। भोजन का समय आ गया, पर मिस्टर क्लार्क ने पदार्पण न किया। अंत में निराश होकर दारोगा ने जेल के द्वार बंद कराए और कैदियों को विश्राम करने का हुक्म दिया। विनय लेटे, तो सोचने लगे-सोफी का यह रूपांतर क्योंकर हो गया? वही लज्जा और विनय की मूर्ति, वही सेवा और त्याग की प्रतिमा आज निरंकुशता की देवी बनी हुई है! उसका हृदय कितना कोमल था, कितना दयाशील, उसके मनोभाव कितने उच्च और पवित्र थे, उसका स्वभाव कितना सरल था, उसकी एक-एक दृष्टि हृदय पर कालिदास की एक-एक उपमा की-सी चोट करती थी, उसके मुँह से जो शब्द निकलता था, वह दीपक की ज्योति की भाँति चित्ता को आलोकित कर देता था। ऐसा मालूम होता था, केवल पुष्प-सुगंध से उसकी सृष्टि हुई है, कितना निष्कपट, कितना गम्भीर, कितना मधुर सौंदर्य था! वह सोफी अब इतनी निर्दय हो गई है!
चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था, मानो कोई तूफान आनेवाला है। आज जेल के आँगन में दारोगा के जानवर न बँधो थे, न बरामदों में घास के ढेर थे। आज किसी कैदी को जेल-कर्मचारियों के जूठे बरतन नहीं माँजने पड़े, किसी ने सिपाहियों की चम्पी नहीं की। जेल के डॉक्टर की बुढ़िया महरी आज कैदियों को गालियाँ नहीं दे रही थी और दफ्तर में कैदियों से मिलनेवाले संबंधियों के नजरानों का बाँट-बखरा न होता था। कमरों में दीपक थे, दरवाजे खुले रखे गए थे। विनय के मन में प्रश्न उठा, क्यों न भाग चलूँ? मेरे समझाने से कदाचित् लोग शांत हो जाएँ। सदर सेना आ रही है, ज़रा-सी बात पर विप्लव हो सकता है। यदि मैं शांतिस्थापना करने में सफल हुआ, तो वह मेरे इस अपराध का प्रायश्चित्ता होगा। उन्होंने दबी हुई नजरों से जेल की ऊँची दीवारों को देखा, कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ी। किसी ने देख लिया तो? लोग यही समझेंगे कि मैं जनता को भड़काने के इरादे से भागने की चेष्टा कर रहा था।
इस हैस-बैस में रात कट गई। अभी कर्मचारियों की नींद भी न खुली थी कि मोटर की आवाज ने आगंतुकों की सूचना दी। दारोगा, डॉक्टर, वार्डर, चौकीदार हड़बड़ाकर निकल पड़े। पहली घंटी बजी, कैदी मैदान में निकल आए, उन्हें कतारों में खड़े होने का हुक्म दिया गया,और उसी क्षण सोफिया, मिस्टर क्लार्क और सरदार नीलकंठ जेल में दाखिल हुए।

सोफिया ने आते ही कैदियों पर निगाह डाली। उस दृष्टि में प्रतीक्षा न थी, उत्सुकता न थी, भय था, विकलता थी, अशांति थी। जिस आकांक्षा ने उसे बरसों रुलाया था, जो उसे यहाँ तक खींच लाई थी, जिसके लिए उसने अपने प्राणप्रिय सिध्दांतों का बलिदान किया था, उसी को सामने देखकर वह इस समय कातर हो रही थी, जैसे कोई परदेशी बहुत दिनों के बाद अपने गाँव में आकर अंदर कदम रखते हुए डरता है कि कहीं कोई अशुभ समाचार कानों में न पड़ जाए। सहसा उसने विनय को सिर झुकाए खड़े देखा। हृदय में प्रेम का एक प्रचंड आवेग हुआ,नेत्रों में अंधोरा छा गया। घर वही था, पर उजड़ा हुआ, घास-पात से ढंका हुआ, पहचानना मुश्किल था। वह प्रसन्न मुख कहाँ था, जिस पर कवित्व की सरलता बलि होती थी। वह पुरुषार्थ का-सा विशाल वृक्ष कहाँ था। सोफी के मन में अनिवार्य इच्छा हुई कि विनय के पैरों पर गिर पड़ूँ, उसे अश्रु-जल से धोऊँ, उसे गले से लगाऊँ। अकस्मात् विनयसिंह मूख्रच्छत होकर गिर पड़े, एक आर्तधवनि थी, जो एक क्षण तक प्रवाहित होकर शोकावेग से निश्शब्द हो गई। सोफी तुरंत विनय के पास जा पहुँची। चारों तरफ शोर मच गया। जेल का डॉक्टर दौड़ा। दारोगा पागलों की भाँति उछल-कूद मचाने लगा-अब नौकरों की खैरियत नहीं। मेम साहब पूछेंगी, इसकी हालत इतनी नाजुक थी, तो इसे चिकित्सालय में क्यों नहीं रखा; बड़ी मुसीबत में फँसा। इस भले आदमी को भी इसी वक्त बेहोश होना था। कुछ नहीं, इसने दम साधा है, बना हुआ है,मुझे तबाह करने पर तुला हुआ है। बच्चा, जाने दो मेम साहब को, तो देखना, तुम्हारी ऐसी खबर लेता हूँ कि सारी बेहोशी निकल जाए, फिर कभी बेहोश होने का नाम ही न लो। यह आखिर इसे हो क्या गया, किसी कैदी को आज तक यों मूख्रच्छत होते नहीं देखा। हाँ, किस्सों में लोगों को बात-बात में बेहोश हो जाते पढ़ा है। मिर्गी का रोग होगा और क्या।

दारोगा तो अपनी जान की खैर मना रहा था, उधर सरदार साहब मिस्टर क्लार्क से कह रहे थे-यह वही युवक है, जिसने रियासत में ऊधम मचा रखा है। सोफी ने डॉक्टर से घुड़ककर कहा, हट जाओ, और विनय को उठवाकर दफ्तर में लाई। आज वहाँ बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए थे। चाँदी की कुर्सियाँ थीं, मेज पर जरी का मेजपोश था, उस पर सुंदर गुलदस्ते थे। मेज पर जलपान की सामग्रियां चुनी हुई थीं। तजवीज थी कि निरीक्षण के बाद साहब यहाँ नाश्ता करेंगे। सोफी ने विनय को कालीन के फर्श पर लिटा दिया और सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का इशारा किया। उसकी करुणा और दया प्रसिध्द थी, किसी को आश्चर्य न हुआ। जब कमरे में कोई न रहा, तो सोफी ने खिड़कियों पर परदे डाल दिए और विनय का सिर अपनी जाँघ पर रखकर अपनी रूमाल उस पर झलने लगी। आँसू की गरम-गरम बूँदें उसकी आँखों से निकल-निकलकर विनय के मुख पर गिरने लगीं। उन जल-बिंदुओं में कितनी प्राणप्रद शक्ति थी! उनमें उसकी समस्त मानसिक और आत्मिक शक्ति भरी हुई थी। एक-एक जल-बिंदु उसके जीवन का एक-एक बिंदु था। विनयसिंह की आँखें खुल गईं। स्वर्ग का एक पुष्प अक्षय, अपार,सौरभ में नहाया हुआ, हवा के मृदुल झोकों से हिलता, सामने विराज रहा था। सौंदर्य की सबसे मनोहर, सबसे मधुर छवि वह है, जब वह सजल शोक से आर्द्र होता है, वही उसका आधयात्मिक स्वरूप होता है। विनय चौंककर उठे नहीं; यही तो प्रेम-योगियों की सिध्दि है, यही तो उनका स्वर्ग है, यही तो स्वर्ग-साम्राज्य है, यही तो उनकी अभिलाषाओं का अंत है, इस स्वर्गीय आनंद में तृप्ति कहाँ! विनय के मन में करुण भावना जागृत हुई-काश, इसी भाँति प्रेम-शय्या पर लेटे हुए सदैव के लिए ये आँखें बंद हो जातीं! सारी आकांक्षाओं का लय हो जाता। मरने के लिए इससे अच्छा और कौन-सा अवसर होगा!

एकाएक उन्हें याद आ गया, सोफी को स्पर्श करना भी मेरे लिए वर्जित है। उन्होंने तुरंत अपना सिर उसकी जाँघ पर से खींच लिया और अवरुध्द कंठ से बोले-मिसेज क्लार्क, आपने मुझ पर बड़ी दया की, इसके लिए आपका अनुगृहीत हूँ।
सोफिया ने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा-अनुग्रह गालियों के रूप में नहीं प्रकट किया जाता।
विनय ने विस्मित होकर कहा-ऐसा घोर अपराध मुझसे कभी नहीं हुआ।
सोफिया-ख्वाहमखाह किसी शख्स के साथ मेरा सम्बंध जोड़ना गाली नहीं तो क्या है?
विनय-मिस्टर क्लार्क?
सोफिया-क्लार्क को मैं तुम्हारी जूतियों का तस्मा खोलने के योग्य भी नहीं समझती।
विनय-लेकिन अम्माँजी ने...।
सोफिया-तुम्हारी अम्माँजी ने झूठ लिखा और तुमने उस पर विश्वास करके मुझ पर घोर अन्याय किया। कोयल आम न पाकर भी निम्बौड़ियों पर नहीं गिरती।
इतने में क्लार्क ने आकर पूछा-इस कैदी की क्या हालत है? डॉक्टर आ रहा है, वह इसकी दवा करेगा। चलो, देर हो रही है।
सोफिया ने रुखाई से कहा-तुम जाओ, मुझे फुरसत नहीं।
क्लार्क-कितनी देर तक तुम्हारी राह देखूँ।
सोफिया-यह मैं नहीं कह सकती। मेरे विचार में एक मनुष्य की सेवा करना सैर करने से कहीं अधिक आवश्यक है।
क्लार्क-खैर, मैं थोड़ी देर और ठहरूँगा।
यह कहकर वह बाहर चले गए, तब सोफी ने विनय के माथे से पसीना पोंछते हुए कहा-विनय, मैं डूब रही हूँ, मुझे बचा लो। मैंने रानीजी की शंकाओं को निवृत्ता करने के लिए यह स्वाँग रचा था।
विनय ने अविश्वाससूचक भाव से कहा-तुम यहाँ क्लार्क के साथ क्यों आईं और उनके साथ कैसे रहती हो?
सोफिया का मुख-मंडल लज्जा से आरक्त हो गया। बोली-विनय, यह मत पूछो, मगर मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ, मैंने जो कुछ किया, तुम्हारे लिए किया। तुम्हें इस कैद से निकालने के लिए मुझे इसके लिए सिवा और कोई उपाय न सूझा। मैंने क्लार्क को प्रमाद में डाल रखा है। तुम्हारे ही लिए मैंने यह कपट-वेष धारण किया है। अगर तुम इस वक्त कहो, सोफी, तू मेरे साथ जेल में रह, तो मैं यहाँ आकर तुम्हारे साथ रहूँगी। अगर तुम मेरा हाथ पकड़कर कहो, तू मेरे साथ चल तो आज ही तुम्हारे साथ चलूँगी। मैंने तुम्हारा दामन पकड़ लिया है और अब उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकती; चाहे तुम ठुकरा ही क्यों न दो। मैंने आत्मसम्मान तक तुम्हें समर्पित कर दिया है। विनय, यह ईश्वरीय विधान है, यह उसकी ही प्रेरणा है; नहीं तो इतना अपमान और उपहास सहकर तुम मुझे जिंदा न पाते।
विनय ने सोफी के दिल की थाह लेने के लिए कहा-अगर यह ईश्वरीय विधान है, तो उसने हमारे और तुम्हारे बीच में यह दीवार क्यों खड़ी कर दी है?
सोफिया-यह दीवार ईश्वर ने नहीं खड़ी की, आदमियों ने खड़ी की है।
विनय-कितनी मजबूत है!
सोफिया-हाँ, मगर दुर्भेद्य नहीं।
विनय-तुम इसे तोड़ सकोगी?
सोफिया-इसी क्षण, तुम्हारी आँखों के एक इशारे पर। कोई समय था, जब मैं उस दीवार को ईश्वरकृत समझती थी और उसका सम्मान करती थी, पर अब उसका यथार्थ स्वरूप देख चुकी। प्रेम इन बाधाओं की परवा नहीं करता, यह दैहिक सम्बंध नहीं, आत्मिक सम्बंध है।
विनय ने सोफी का हाथ अपने हाथ में लिया, और उसकी ओर प्रेम-विह्नल नेत्रों से देखकर बोले-तो आज से तुम मेरी हो, और मैं तुम्हारा हूँ।
सोफी का मस्तक विनय के हृदय-स्थल पर झुक गया, नेत्रों से जल-वर्षा होने लगी, जैसे काले बादल धरती पर झुककर एक क्षण में उसे तृप्त कर देते हैं। उसके मुख से एक शब्द भी न निकला, मौन रह गई। शोक की सीमा कंठावरोध है, पर शुष्क और दाह-युक्त; आनंद की सीमा भी कंठावरोध है, पर आर्द्र और शीतल। सोफी को अब अपने एक-एक अंग में, नाड़ियों की एक-एक गति में, आंतरिक शक्ति का अनुभव हो रहा था। नौका ने कर्णधार का सहारा पा लिया था। अब उसका लक्ष्य निश्चित था। वह अब हवा के झोकों या लहरों के प्रवाह के साथ डावाँडोल न होगी, वरन् सुव्यवस्थित रूप से अपने पथ पर चलेगी।
विनय भी दोनों पर खोले हुए आनंद के आकाश में उड़ रहे थे। वहाँ की वायु में सुगंध थी, प्रकाश में प्राण, किसी ऐसी वस्तु का अस्तित्व न था, जो देखने में अप्रिय, सुनने में कटु, छूने में कठोर और स्वाद में कड़घई हो। वहाँ के फूलों में काँटे न थे, सूर्य में इतनी उष्णता न थी,जमीन पर व्याधियाँ न थीं, दरिद्रता न थी, चिंता न थी, कलह न था, एक व्यापक शांति का साम्राज्य था। सोफिया इस साम्राज्य की रानी थी और वह स्वयं उसके प्रेम-सरोवर में विहार कर रहे थे। इस सुख-स्वप्न के सामने यह त्याग और तप का जीवन कितना नीरस, कितना निराशाजनक था, यह अंधोरी कोठरी कितनी भयंकर!
सहसा क्लार्क ने फिर आकर कहा-डार्लिंग, अब विलम्ब न करो, बहुत देर हो रही है, सरदार साहब आग्रह कर रहे हैं। डॉक्टर इस रोगी की खबर लेगा।
सोफी उठ खड़ी हुई और विनय की ओर से मुँह फेरकर करुण-कम्पित स्वर में बोली-घबराना नहीं, मैं कल फिर आऊँगी।
विनय को ऐसा जान पड़ा, मानो नाड़ियों में रक्त सूखा जा रहा है। वह मर्माहत पक्षी की भाँति पड़े रहे। सोफी द्वार तक आई, फिर रूमाल लेने के बहाने लौटकर विनय के कान में बोली-मैं कल फिर आऊँगी और तब हम दोनों यहाँ से चले जाएँगे। मैं तुम्हारी तरफ से सरदार नीलकंठ से कह दूँगी कि वह क्षमा माँगते हैं।
सोफी के चले जाने के बाद भी ये आतुर, उत्सुक, प्रेम में डूबे हुए शब्द किसी मधुर संगीत के अंतिम स्वरों की भाँति विनय के कानों में गूँजते रहे। किंतु वह शीघ्र ही इहलोक में आने के लिए विवश हुआ। जेल के डॉक्टर ने आकर उसे दफ्तर ही में एक पलंग पर लिटा दिया और पुष्टिकारक औषधियाँ सेवन कराईं। पलंग पर नर्म बिछौना था, तकिए लगे थे, पंखा झला जा रहा था। दारोगा एक-एक क्षण में कुशल पूछने के लिए आता था, और डॉक्टर तो वहाँ से हटने का नाम ही न लेता था। यहाँ तक कि विनय ने इन शुश्रूषाओं से तंग आकर डॉक्टर से कहा-मैं बिलकुल अच्छा हूँ, आप सब जाएँ, शाम को आइएगा।
डॉक्टर साहब डरते-डरते बोले-आपको जरा नींद आ जाए, तो मैं चला जाऊँ।
विनय ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आपके बिदा होते ही मुझे नींद आ जाएगी। डॉक्टर अपने अपराधों की क्षमा माँगते हुए चले गए। इसी बहाने से विनय ने दारोगा को भी खिसकाया, जो आज शील और दया के पुतले बने हुए थे। उन्होंने समझा था, मेम साहब के चले जाने के बाद इसकी खूब खबर लूँगा; पर वह अभिलाषा पूरी न हो सकी। सरदार साहब ने चलते समय जता दिया था कि इनके सेवा-सत्कार में कोई कसर न रखना, नहीं तो मेम साहब जहन्नुम में भेज देंगी।
शांत विचार के लिए एकाग्रता उतनी ही आवश्यक है, जितनी धयान के लिए वायु की गति तराजू के पलड़ों को बराबर नहीं होने देती। विनय को अब विचार हुआ-अम्माँजी को यह हाल मालूम हुआ, तो वह अपने मन में क्या कहेंगी। मुझसे उनकी कितनी मनोकामनाएँ सम्बध्द हैं। सोफी के प्रेम-पाश से बचने के लिए उन्होंने मुझे निर्वासित किया, इसीलिए उन्होेंने सोफी को कलंकित किया। उनका हृदय टूट जाएगा। दु:ख तो पिताजी को भी होगा; पर वे मुझे क्षमा कर देंगे, उन्हें मानवीय दुर्बलताओं से सहानुभूति है। अम्माँजी में बुध्दि-ही-बुध्दि है; पिताजी में हृदय और बुध्दि दोनों हैं। लेकिन मैं इसे दुर्बलता क्यों कहूँ? मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूँ, जो संसार में किसी ने न किया हो। संसार में ऐसे कितने प्राणी हैं, जिन्होंने अपने को जाति पर होम कर दिया हो? स्वार्थ के साथ जाति का धयान रखनेवाले महानुभावों ही ने अब तक जो कुछ किया है, किया है। जाति पर मर मिटनेवाले तो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। फिर जाति के अधिकारियों में न्याय और विवेक नहीं,प्रजा में उत्साह और चेष्टा नहीं, उसके लिए मर मिटना व्यर्थ है। अंधो के आगे रोकर अपना दीदा खोने के सिवा और क्या हाथ आता है?

शनै:-शनै: भावनाओं ने जीवन की सुख-सामग्रियाँ जमा करनी शुरू कीं-चलकर देहात में रहूँगा। वहीं एक छोटा-सा मकान बनवाऊँगा, साफ,खुला हुआ, हवादार, ज्यादा टीमटाम की जरूरत नहीं। वहीं हम दोनों सबसे अलग शांति से निवास करेंगे। आडम्बर बढ़ाने से क्या फायदा। मैं बगीचे में काम करूँगा, क्यारियाँ बनाऊँगा, कलमें लगाऊँगा और सोफी को अपनी दक्षता से चकित कर दूँगा। गुलदस्ते बनाकर उसके सामने पेश करूँगा और हाथ बाँधकर कहूँगा-सरकार, कुछ इनाम मिले। फलों की डालियाँ लगाऊँगा और कहूँगा-रानीजी, कुछ निगाह हो जाए। कभी-कभी सोफी भी पौधों को सींचेगी। मैं तालाब से पानी भर-भर दूँगा। वह लाकर क्यारियों में डालेगी। उसका कोमल गात पसीने से और सुंदर वस्त्र पानी से भीग जाएगा। तब किसी वृक्ष के नीचे उसे बैठाकर पंखा झलँगा। कभी-कभी किश्ती में सैर करेंगे। देहाती डोंगी होगी, डाँड़े से चलनेवाली। मोटरबोट में वह आनंद कहाँ, वह उल्लास कहाँ! उसकी तेजी से सिर चकरा जाता है, उसके शोर से कान फट जाते हैं। मैं डोंगी पर डाँड़ा चलाऊँगा, सोफिया कमल के फूल तोड़ेगी। हम एक क्षण के लिए अलग न होंगे। कभी-कभी प्रभु सेवक भी आएँगे। ओह! कितना सुखमय जीवन होगा! कल हम दोनों घर चलेंगे, जहाँ मंगल बाँहें फैलाए हमारा इंतजार कर रहा है।

सोफी और क्लार्क की आज संधया समय एक जागीरदार के यहाँ दावत थी। जब मेजें सज गईं और एक हैदराबाद के मदारी ने अपने कौतुक दिखाने शुरू किए, तो सोफी ने मौका पाकर सरदार नीलकंठ से कहा-उस कैदी की दशा मुझे चिंताजनक मालूम होती है। उसके हृदय की गति बहुत मंद हो गई है। क्यों विलियम, तुमने देखा, उसका मुख कितना पीला पड़ गया था?
क्लार्क ने आज पहली बार आशा के विरुध्द उत्तार दिया-मूर्च्छा में बहुधा मुख पीला हो जाता है।
सोफी-वही तो मैं भी कह रही थी कि उसकी दशा अच्छी नहीं, नहीं तो मूर्च्छा ही क्यों आती। अच्छा हो कि आप उसे किसी कुशल डॉक्टर के सिपुर्द कर दें। मेरे विचार में अब वह अपने अपराध की काफी सजा पा चुका है, उसे मुक्त कर देना उचित होगा।
नीलकंठ-मेम साहब, उसकी सूरत पर न जाइए। आपको ज्ञात नहीं, यहाँ जनता पर उसका कितना प्रभाव है। वह रियासत में इतनी प्रचंड अशांति उत्पन्न कर देगा कि उसे दमन करना कठिन हो जाएगा। बड़ा ही जिद्दी है, रियासत से बाहर जाने पर राजी ही नहीं होता।
क्लार्क-ऐसे विद्रोही को कैद रखना ही अच्छा है।
सोफी ने उत्तोजित होकर कहा-मैं इसे घोर अन्याय समझती हूँ और मुझे आज पहली बार यह मालूम हुआ कि तुम इतने हृदय-शून्य हो!
क्लार्क-मुझे तुम्हारा जैसा दयालु हृदय रखने का दावा नहीं।
सोफी ने क्लार्क के मुख को जिज्ञासा की दृष्टि से देखा। यह गर्व, यह आत्मगौरव कहाँ से आया? तिरस्कार भाव से बोली-एक मनुष्य का जीवन इतनी तुच्छ वस्तु नहीं।
क्लार्क-साम्राज्य-रक्षा के सामने एक व्यक्ति के जीवन की कोई हस्ती नहीं। जिस दया से, जिस सहृदयता से किसी दीन प्राणी का पेट भरता हो, उसके शारीरिक कष्टों का निवारण होता हो, किसी दु:खी जीव को सांत्वना मिलती हो, उसका मैं कायल हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं उस सम्पत्तिा से वंचित नहीं हूँ; लेकिन जो सहानुभूति साम्राज्य की जड़ खोखली कर दे, विद्रोहियों को सर उठाने का अवसर दे, प्रजा में अराजकता का प्रचार करे, उसे मैं अदूरदर्शिता ही नहीं, पागलपन समझता हूँ।
सोफी के मुख-मंडल पर एक अमानुषीय तेजस्विता की आभा दिखाई दी, पर उसने जब्त किया। कदाचित् इतने धैर्य से उसने कभी काम नहीं लिया था। धर्म-परायणता का सहिष्णुता से वैर है। पर इस समय उसके मुँह से निकला हुआ एक अनर्गल शब्द भी उसके समस्त जीवन का सर्वनाश कर सकता है। नर्म होकर बोली-हाँ, इस विचार-दृष्टि से बेशक वैयक्तिक जीवन का कोई मूल्य नहीं रहता। मेरी निगाह इस पहलू पर न गई थी। मगर फिर भी इतना कह सकती हूँ कि अगर वह मुक्त कर दिया जाए, तो फिर इस रियासत में कदम न रखेगा, और मैं यह निश्चय रूप से कह सकती हूँ कि वह अपनी बात का धनी है।
नीलकंठ-क्या आपसे उसने वादा किया है?
सोफी-हाँ, वादा ही समझिए, मैं उसकी जमानत कर सकती हूँ।
नीलकंठ-इतना तो मैं भी कह सकता हूँ कि वह अपने वचन से फिर नहीं सकता।
क्लार्क-जब तक उसका लिखित प्रार्थना-पत्र मेरे सामने न आए, मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता।
नीलकंठ-हाँ, यह तो परमावश्यक ही है।
सोफी-प्रार्थना-पत्र का विषय क्या होगा?
क्लार्क-सबसे पहले वह अपना अपराध स्वीकार करे और अपनी राजभक्ति का विश्वास दिलाने के बाद हलफ लेकर कहे कि इस रियासत में फिर कदम न रखूँगा। उसके साथ जमानत भी होनी चाहिए। तो नकद रुपये हों, या प्रतिष्ठित आदमियों की जमानत। तुम्हारी जमानत का मेरी दृष्टि में कितना ही महत्तव हो, जाब्ते में उसका कुछ मूल्य नहीं।
दावत के बाद सोफी राजभवन में आई, तो सोचने लगी-यह समस्या क्योंकर हल हो? यों तो मैं विनय की मिन्नत-समाजत करूँ, तो वह रियासत से चले जाने पर राजी हो जाएँगे; लेकिन कदाचित् वह लिखित प्रतिज्ञा न करेंगे। अगर किसी भाँति मैंने रो-धोकर उन्हें इस बात पर राजी कर लिया, तो यहाँ कौन प्रतिष्ठित आदमी उनकी जमानत करेगा? हाँ, उनके घर से नकद रुपये आ सकते हैं! पर रानी साहब कभी इसे मंजूर न करेंगी। विनय को कितने ही कष्ट सहने पड़ें, उन्हें इस पर दया न आएगी। मजा तो जब है कि लिखित प्रार्थना-पत्र और जमानत की कोई शर्त ही न रहे। वह अवैध रूप से मुक्त कर दिए जाएँ। इसके सिवा कोई उपाय नहीं।
राजभवन विद्युत-प्रकाश से ज्योतिर्मय हो रहा था। भवन के बाहर चारों तरफ सावन की काली घटा थी और अथाह अंधकार। उस तिमिर-सागर में प्रकाशमय राजभवन ऐसा मालूम होता था, मानो नीले गगन पर चाँद निकला हो। सोफी अपने सजे हुए कमरे में आईने के सामने बैठी हुई उन सिध्दियों को जगा रही है, जिनकी शक्ति अपार है-आज उसने मुद्दत के बाद बालों में फूल गूँथे हैं, फीरोजी रेशम की साड़ी पहनी है और कलाइयों में कंगन धारण किए हैं। आज पहली बार उसने उन लालित्य-प्रसारिणी कलाओं का प्रयोग किया है, जिनमें स्त्रियाँ निपुण होती हैं। यह मंत्र उन्हीं को आता है कि क्योंकर केशों की एक तड़प, अंचल की एक लहर चित्ता को चंचल कर देती है। आज उसने मिस्टर क्लार्क के साम्राज्यवाद को विजय करने का निश्चय किया है, वह आज अपनी सौंदर्य-शक्ति की परीक्षा करेगी।
रिमझिम बूँदें गिर रही थीं, मानो मौलसिरी के फूल झड़ रहे हों। बूँदों में एक मधुर स्वर था। राजभवन, पर्वत-शिखर के ऊपर, ऐसा मालूम होता था, मानो देवताओं ने आनंदोत्सव की महफिल सजाई है। सोफिया प्यानो पर बैठ गई और एक दिल को मसोसनेवाला राग गाने लगी। जैसे ऊषा की स्वर्ण-छटा प्रस्फुटित होते ही प्रकृति के प्रत्येक अंग को सजग कर देती है, उसी भाँति सोफी की पहली ही तान ने हृदय में एक चुटकी-सी ली। मिस्टर क्लार्क आकर एक कोच पर बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगे, मानो किसी दूसरे ही संसार में पहुँच गए हैं। उन्हें कभी कोई नौका उमड़े हुए सागर में झकोले खाती नजर आती, जिस पर छोटी-छोटी सुंदर चिड़ियाँ मँडराती थीं। कभी किसी अनंत वन में एक भिक्षुक, झोली कंधो पर रखे, लाठी टेकता हुआ नजर आता। संगीत से कल्पना चित्रमय हो जाती है।
जब तक सोफी गाती रही, मिस्टर क्लार्क बैठे सिर धुनते रहे। जब वह चुप हो गई, तो उसके पास गए और उसकी कुर्सी की बाँहों पर हाथ रखकर, उसके मुँह के पास मुँह ले जाकर बोले-इन उँगलियों को हृदय में रख लूँगा।
सोफी-हृदय कहाँ है?
क्लार्क ने छाती पर हाथ रखकर कहा-यहाँ तड़प रहा है।
सोफी-शायद हो, मुझे तो विश्वास नहीं आता। मेरा तो खयाल है, ईश्वर ने तुम्हें हृदय दिया ही नहीं।
क्लार्क-सम्भव है, ऐसा ही हो। पर ईश्वर ने जो कसर रखी थी, वह तुम्हारे मधुर स्वर ने पूरी कर दी। शायद उसमें सृष्टि करने की शक्ति है।
सोफी-अगर मुझमें यह विभूति होती, तो आज मुझे एक अपरिचित व्यक्ति के सामने लज्जित न होना पड़ता।
क्लार्क ने अधीर होकर कहा-क्या मैंने तुम्हें लज्जित किया? मैंने!
सोफी-जी हाँ, आपने। मुझे आज तुम्हारी निर्दयता से जितना दु:ख हुआ, उतना शायद और कभी न हुआ था। मुझे बाल्यावस्था से यह शिक्षा दी गई है कि प्रत्येक जीव पर दया करनी चाहिए, मुझे बताया गया है कि यही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। धार्मिक ग्रंथों में भी दया और सहानुभूति ही मनुष्य का विशेष गुण बतलाई गई है। पर आज विदित हुआ कि निर्दयता का महत्तव दया से कहीं अधिक है। सबसे बड़ा दु:ख मुझे इस बात का है कि अनजान आदमी के सामने मेरा अपमान हुआ।
क्लार्क-खुदा जानता है सोफी, मैं तुम्हारा कितना आदर करता हूँ। हाँ, इसका खेद मुझे अवश्य है कि मैं तुम्हारी उपेक्षा करने के लिए बाधय हुआ। इसका कारण तुम जानती ही हो। हमारा साम्राज्य तभी तक अजेय रह सकता है, जब तक प्रजा पर हमारा आतंक छाया रहे, जब तक वह हमें अपना हितचिंतक, अपना रक्षक, अपना आश्रय समझती रहे, जब तक हमारे न्याय पर उसका अटल विश्वास हो। जिस दिन प्रजा के दिल से हमारे प्रति विश्वास उठ जाएगा, उसी दिन हमारे साम्राज्य का अंत हो जाएगा। अगर साम्राज्य को रखना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है,तो व्यक्तिगत भावों और विचारों को यहाँ कोई महत्तव नहीं। साम्राज्य के लिए हम बड़े-से-बड़े नुकसान उठा सकते हैं, बड़ी-से-बड़ी तपस्याएँ कर सकते हैं। हमें अपना राज्य प्राणों से भी प्रिय है, और जिस व्यक्ति से हमें क्षति की लेश-मात्र भी शंका हो, उसे हम कुचल डालना चाहते हैं,उसका नाश कर देना चाहते हैं, उसके साथ किसी भाँति की रिआयत, सहानुभूति यहाँ तक कि न्याय का व्यवहार भी नहीं कर सकते।

सोफी-अगर तुम्हारा खयाल है कि मुझे साम्राज्य से इतना प्रेम नहीं, जितना तुम्हें है, और मैं उसके लिए इतने बलिदान नहीं सह सकती,जितने तुम कर सकते हो, तो तुमने मुझे बिलकुल नहीं समझा। मुझे दावा है, इस विषय में मैं किसी से जौ-भर भी पीछे नहीं। लेकिन यह बात मेरे अनुमान में भी नहीं आती कि दो प्रेमियों में कभी इतना मतभेद हो सकता है कि सहृदयता और सहिष्णुता के लिए गुंजाइश न रहे,और विशेषत: उस दशा में जबकि दीवार के कानों के अतिरिक्त और कोई कान भी सुन रहा हो। दीवान देश-भक्ति के भावों से शून्य है; उसकी गहराई और उसके विस्तार से जरा भी परिचित नहीं। उसने तो यही समझा होगा कि जब इन दोनों में मेरे सम्मुख इतनी तकरार हो सकती है,तो घर पर न जाने क्या दशा होगी। शायद आज से उसके दिल से मेरा सम्मान उठ गया। उसने औरों से भी यह वृत्तांत कहा होगा। मेरी तो नाक-सी कट गई। समझते हो, मैं गा रही हूँ। यह गाना नहीं, रोना है। जब दाम्पत्य के द्वार पर यह दशा हो रही है, जहाँ फूलों से, हर्षनादों से, प्रेमालिंगनों से, मृदुल हास्य से मेरा अभिवादन होना चाहिए था, तो मैं अंदर कदम रखने का क्योंकर साहस कर सकती हूँ? तुमने मेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। शायद तुम मुझे भावुक समझ रहे होगे; पर अपने चरित्र को मिटा देना मेरे वश की बात नहीं। मैं अपने को धन्यवाद देती हूँ कि मैंने विवाह के विषय में इतनी दूर-दृष्टि से काम लिया।

यह कहते-कहते सोफी की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। शोकाभिनय में भी बहुधा यथार्थ शोक की वेदना होने लगती है। मिस्टर क्लार्क खेद और असमर्थता का राग अलापने लगे; पर न उपयुक्त शब्द ही मिलते थे, न विचार। अश्रु-प्रवाह तर्क और शब्द-योजना के लिए निकलने का कोई मार्ग नहीं छोड़ता। बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा-सोफी, मुझे क्षमा करो, वास्तव में मैं न समझता था कि इस ज़रा-सी बात से तुम्हें इतनी मानसिक पीड़ा होगी।
सोफी-इसकी मुझे कोई शिकायत नहीं। तुम मेरे गुलाम नहीं हो कि मेरे इशारों पर नाचो। मुझमें वे गुण नहीं, जो पुरुषों का हृदय खींच लेते हैं, न वह रूप है, न वह छवि है, न वह उद्दीपन-कला। नखरे करना नहीं जानती, कोप-भवन में बैठना नहीं जानती। दु:ख केवल इस बात का है कि उस आदमी ने तो मेरे एक इशारे पर मेरी बात मान ली और तुम इतना अनुनय-विनय करने पर भी इनकार करते जाते हो। वह भी सिध्दांतवादी मनुष्य है; अधिकारियों की यंत्रणाएँ सहीं, अपमान सहा, कारागार की अंधोरी कोठरी में कैद होना स्वीकार किया, पर अपने वचन पर सुदृढ़ रहा। इससे कोई मतलब नहीं कि उसकी टेक जा थी या बेजा, वह उसे जा समझता था। वह जिस बात को न्याय समझता था,उससे भय या लोभ या दंड उसे विचलित नहीं कर सके। लेकिन जब मैंने नरमी के साथ उसे समझाया कि तुम्हारी दशा चिंताजनक है, तो उसके मुख से ये करुण शब्द निकले-'मेम साहब, जान की तो परवा नहीं, अपने मित्रों और सहयोगियों की दृष्टि में पतित होकर जिंदा रहना श्रेय की बात नहीं; लेकिन आपकी बात नहीं टालना चाहता। आपके शब्दों में कठोरता नहीं, सहृदयता है, और मैं अभी तक भाव-विहीन नहीं हुआ हूँ। मगर तुम्हारे ऊपर मेरा कोई मंत्र न चला। शायद तुम उससे बड़े सिध्दांतवादी हो, हालांकि अभी इसकी परीक्षा नहीं हुई। खैर, मैं तुम्हारे सिध्दांतों से सौतियाडाह नहीं करना चाहती। मेरी सवारी का प्रबंध कर दो, मैं कल ही चली जाऊँगी और फिर अपनी नादानियों से तुम्हारे मार्ग का कटंक बनने न आऊँगी।
मिस्टर क्लार्क ने घोर आत्मवेदना के साथ कहा-डार्लिंग, तुम नहीं जानतीं, यह कितना भयंकर आदमी है। हम क्रांति से, षडयंत्रों से,संग्राम से इतना नहीं डरते, जितना इस भाँति के धैर्य और धुन से। मैं भी मनुष्य हूँ सोफी, यद्यपि इस समय मेरे मुँह से यह दावा समयोचित नहीं पर कम-से-कम उस पवित्र आत्मा के नाम पर, जिसका मैं अत्यंत दीनभक्त हूँ, मुझे यह कहने का अधिकार है-मैं उस युवक का हृदय से सम्मान करता हूँ। उसके दृढ़ संकल्प की, उसके साहस की, उसकी सत्यवादिता की दिल से प्रशंसा करता हँ। जानता हूँ, वह एक ऐश्वर्यशाली पिता का पुत्र है और राजकुमारों की भाँति आनंद-भोग में मग्न रह सकता है; पर उसके ये ही सद्गुण हैं, जिन्होंने उसे इतना अजेय बना रखा है। एक सेना का मुकाबला करना इतना कठिन नहीं, जितना ऐसे गिने-गिनाए व्रतधारियों का, जिन्हें संसार में कोई भय नहीं है। मेरा जाति-धर्म मेरे हाथ बाँधो हुए है।
सोफी को ज्ञात हो गया कि मेरी धमकी सर्वथा निष्फल नहीं हुई। विवशता का शब्द जबान पर, खेद का भाव मन में आया, और अनुमति की पहली मंजिल पूरी हुई। उसे यह भी ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे हाव-भाव का इतना असर नहीं हो सकता, जितना बलपूर्ण आग्रह था। सिध्दांतवादी मनुष्य हाव-भाव का प्रतिकार करने के लिए अपना दिल मजबूत कर सकता है, वह अपने अंत:करण के सामने अपनी दुर्बलता स्वीकार नहीं कर सकता, लेकिन दुराग्रह के मुकाबले में वह निष्क्रिय हो जाता है। तब उसकी एक नहीं चलती। सोफी ने कटाक्ष करते हुए कहा-अगर तुम्हारा जातीय कर्तव्य तुम्हें प्यारा है, तो मुझे भी आत्मसम्मान प्यारा है। स्वदेश की अभी तक किसी ने व्याख्या नहीं की; पर नारियों की मान-रक्षा उसका प्रधान अंग है और होनी चाहिए, इससे तुम इनकार नहीं कर सकते।
यह कहकर वह स्वामिनी-भाव से मेज के पास गई और एक डाकेट का पत्र निकाला, जिस पर एजेंट आज्ञा-पत्र लिखा करता था।
क्लार्क-क्या करती हो सोफी? खुदा के लिए जिद मत करो।
सोफी-जेल के दारोगा के नाम हुक्म लिखूँगी।
यह कहकर वह टाइपराइटर पर बैठ गई।
क्लार्क-यह अनर्थ न करो सोफी, गजब हो जाएगा।
सोफी-मैं गजब से क्या, प्रलय से भी नहीं डरती।
सोफी ने एक-एक शब्द का उच्चारण करते हुए आज्ञा-पत्र टाइप किया। उसने एक जगह जान-बूझकर एक अनुपयुक्त शब्द टाइप कर दिया, जिसे एक सरकारी पत्र में न आना चाहिए। क्लार्क ने टोका-यह शब्द मत रखो।
सोफी-क्यों, धन्यवाद न दूँ?
क्लार्क-आज्ञा-पत्र में धन्यवाद का क्या जिक्र? कोई निजी थोड़े ही है।
सोफी-हाँ, ठीक है, यह शब्द निकाले देती हूँ। नीचे क्या लिखूँ।
क्लार्क-नीचे कुछ लिखने की जरूरत नहीं। केवल मेरा हस्ताक्षर होगा।
सोफी ने सम्पूर्ण आज्ञा-पत्र पढ़कर सुनाया।
क्लार्क-प्रिये, यह तुम बुरा कर रही हो।
सोफी-कोई परवा नहीं, मैं बुरा ही करना चाहती हूँ। हस्ताक्षर भी टाइप कर दूँ? नहीं, (मुहर निकालकर) यह मुहर किए देती हूँ।
क्लार्क-जो चाहो करो। जब तुम्हें अपनी जिद के आगे कुछ बुरा-भला नहीं सूझता, तो क्या कहूँ?
सोफी-कहीं और तो इसकी नकल न होगी?
क्लार्क-मैं कुछ नहीं जानता।
यह कहकर मि. क्लार्क अपने शयन-गृह की ओर जाने लगे। सोफी ने कहा-आज इतनी जल्दी नींद आ गई?
क्लार्क-हाँ, थक गया हूँ। अब सोऊँगा। तुम्हारे इस पत्र से रियासत में तहलका पड़ जाएगा।
सोफी-अगर तुम्हें इतना भय है, तो मैं इस पत्र को फाड़े डालती हूँ। इतना नहीं गुदगुदाना चाहती कि हँसी के बदले रोना आ जाए। बैठते हो, या देखो, यह लिफाफा फाड़ती हूँ।
क्लार्क कुर्सी पर उदासीन भाव से बैठ गए और बोले-लो बैठ गया, क्या कहती हो?
सोफी-कहती कुछ नहीं हूँ, धन्यवाद का गीत सुनते जाओ।
क्लार्क-धन्यवाद की जरूरत नहीं।
सोफी ने फिर गाना शुरू किया और क्लार्क चुपचाप बैठे सुनते रहे।
उनके मुख पर करुण प्रेमाकांक्षा झलक रही थी। यह परख और परीक्षा कब तक? इस क्रीड़ा का कोई अंत भी है? इस आकांक्षा ने उन्हें साम्राज्य की चिंता से मुक्त कर दिया-आह! काश, अब भी मालूम हो जाता कि तू इतनी बड़ी भेंट पाकर प्रसन्न हो गई! सोफी ने उनकी प्रेमाग्नि को खूब उद्दीप्त किया और तब सहसा प्यानो बंद कर दिया और बिना कुछ बोले हुए अपने शयनागार में चली गई। क्लार्क वहीं बैठे रहे, जैसे कोई थका हुआ मुसाफिर अकेला किसी वृक्ष के नीचे बैठा हो।
सोफी ने सारी रात भावी जीवन के चित्र खींचने में काटी, पर इच्छानुसार रंग न दे सकी। पहले रंग भरकर उसे जरा दूर से देखती, तो विदित होता, धूप की जगह छाँह है, छाँह की जगह धूप, लाल रंग का आधिक्य है, बाग में अस्वाभाविक रमणीयता, पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा हरियाली, नदियों में अलौकिक शांति। फिर ब्रुश लेकर इन त्रुटियों को सुधारने लगती, तो सारा दृश्य जरूरत से ज्यादा नीरस,उदास और मलिन हो जाता। उसकी धार्मिकता अब अपने जीवन में ईश्वरीय व्यवस्था का रूप देखती थी। अब ईश्वर ही उसका कर्णधार था,वह अपने कर्माकर्म के गुणदोष से मुक्त थी।
प्रात:काल वह उठी, तो मि. क्लार्क सो रहे थे। मूसलाधार वर्षा हो रही थी। उसने शोफर को बुलाकर मोटर तैयार करने का हुक्म दिया और एक क्षण में जेल की तरफ चली, जैसे कोई बालक पाठशाला से घर की तरफ दौड़े।
उसके जेल पहुँचते ही हलचल-सी पड़ गई। चौकीदार आँखें मलते हुए दौड़-दौड़कर वर्दियाँ पहनने लगे। दारोगाजी ने उतावली में उलटी अचकन पहनी और बेतहाशा दौड़े। डॉक्टर साहब नंगे पाँव भागे, याद न आया कि रात को जूते कहाँ रखे थे और इस समय तलाश करने की फुरसत न थी। विनयसिंह बहुत रात गए सोए थे और अभी तक मीठी नींद के मजे ले रहे थे। कमरे में जल-कणों से भीगी हुई वायु आ रही थी। नरम गलीचा बिछा हुआ था। अभी तक रात का लैम्प न बुझा था, मानो विनय की व्यग्रता की साक्षी दे रहा था। सोफी का रूमाल अभी तक विनय के सिरहाने पड़ा हुआ था और उसमें से मनोहर सुगंध उड़ रही थी। दारोगा ने जाकर सोफी को सलाम किया और वह उन्हें लिए विनय के कमरे में आई। देखा, तो नींद में है। रात की मीठी नींद से मुख पुष्प के समान विकसित हो गया है। ओठों पर हलकी-सी मुस्कराहट है; मानो फूल पर किरणें चमक रही हों। सोफी को विनय आज तक कभी इतना सुंदर न मालूम हुआ था।
सोफी ने डॉक्टर से पूछा-रात को इसकी कैसी दशा थी?
डॉक्टर-हुजूर, कई बार मर्ूच्छा आई; पर मैं एक क्षण के लिए भी यहाँ से न टला। जब इन्हें नींद आ गई, तो मैं भोजन करने चला गया। अब तो इनकी दशा बहुत अच्छी मालूम होती है।
सोफी-हाँ, मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है। आज वह पीलापन नहीं है। मैं अब इससे यह पूछना चाहती हूँ कि इसे किसी दूसरे जेल में क्यों न भिजवा दूँ। यहाँ की जलवायु इसके लिए अनुकूल नहीं है। पर आप लोगों के सामने यह अपने मन की बातें न कहेगा। आप लोग जरा बाहर चले जाएँ, तो मैं इसे जगाकर पूछ लूँ, और इसका ताप भी देख लूँ। (मुस्कराकर) डॉक्टर साहब, मैं भी इस विद्या से परिचित हूँ। नीम हकीम हूँ, पर खतरे-जान नहीं।
जब कमरे में एकांत हो गया, तो सोफी ने विनय का सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया और धीरे-धीरे उसका माथा सहलाने लगी। विनय की आँखें खुल गईं। इस तरह झपटकर उठा, जैसे नींद में किसी नदी से फिसल पड़ा हो। स्वप्न का इतना तत्काल फल शायद ही किसी को मिला हो।
सोफी ने मुस्कराकर कहा-तुम अभी तक सो रहे हो; मेरी आँखों की तरफ देखो, रात-भर नहीं झपकीं।
विनय-संसार का सबसे उज्ज्वल रत्न पाकर भी मीठी नींद न लूँ, तो मुझसा भाग्यहीन और कौन होगा?
सोफी-मैं तो उससे भी उज्ज्वल रत्न पाकर और भी चिंताओं में फँस गई। अब यह भय है कि कहीं वह हाथ से न निकल जाए। नींद का सुख अभाव में है, जब कोई चिंता नहीं होती। अच्छा, अब तैयार हो जाओ।
विनय-किस बात के लिए?
सोफी-भूल गए? इस अंधकार से प्रकाश में आने के लिए, इस काल-कोठरी से बिदा होने के लिए। मैं मोटर लाई हूँ; तुम्हारी मुक्ति का आज्ञा-पत्र मेरी जेब में है। कोई अपमानसूचक शर्त नहीं है। केवल उदयपुर राज्य में बिना आज्ञा के न आने की प्रतिज्ञा ली गई है। आओ,चलें। मैं तुम्हें रेल के स्टेशन तक पहुँचाकर लौट जाऊँगी। तुम दिल्ली पहुँचकर मेरा इंतजार करना। एक सप्ताह के अंदर मैं तुमसे दिल्ली में आ मिलूँगी, और फिर विधाता भी हमें अलग न कर सकेगा।
विनयसिंह की दशा उस बालक की-सी थी, जो मिठाइयों के खोंचे को देखता है, पर इस भय से कि अम्माँ मारेंगी, मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता। मिठाइयों के स्वाद याद करके उसकी राल टपकने लगती है। रसगुल्ले कितने रसीले हैं, मालूम होता है, दाँत किसी रसक्ुं+ड में फिसल पडे। अमिर्तियाँ कितनी कुरकुरी हैं, उनमें भी रस भरा होगा। गुलाबजामुन कितनी सोंधी होती है कि खाता ही चला जाए। मिठाइयों से पेट नहीं भर सकता। अम्माँ पैसे न देंगी। होंगे ही नहीं, किससे माँगेगी ज्यादा हठ करूँगा, तो रोने लगेंगी। सजल नेत्र होकर बोला-सोफी, मैं भाग्यहीन आदमी हूँ, मुझे इसी दशा में रहने दो। मेरे साथ अपने जीवन का सर्वनाश न करो। मुझे विधाता ने दु:ख भोगने ही के लिए बनाया है। मैं इस योग्य नहीं कि तुम...।
सोफी ने बात काटकर कहा-विनय, मैं विपत्तिा ही की भूखी हूँ। अगर तुम सुख-सम्पन्न होते, अगर तुम्हारा जीवन विलासमय होता, अगर तुम वासनाओं के दास होते, तो कदाचित् मैं तुम्हारी तरफ से मुँह फेर लेती। तुम्हारे सत्साहस और त्याग ही ने मुझे तुम्हारी तरफ खींचा है।
विनय-अम्माँजी को तुम जानती हो, वह मुझे कभी क्षमा न करेंगी।
सोफी-तुम्हारे प्रेम का आश्रय पाकर मैं उनके क्रोध को शांत कर लूँगी। जब वह देखेंगी कि मैं तुम्हारे पैरों की जंजीर नहीं, तुम्हारे पीछे उड़नेवाली रज हूँ, तो उनका हृदय पिघल जाएगा।
विनय ने सोफी को स्नेहपूर्ण नेत्र से देखकर कहा-तुम उनके स्वभाव से परिचित नहीं हो। वह हिंदू-धर्म पर जान देती हैं।
सोफी-मैं भी हिंदू-धर्म पर जान देती हूँ। जो आत्मिक शांति मुझे और कहीं न मिली, वह गोपियों की प्रेम-कथा में मिल गई। वह प्रेम का अवतार, जिसने गोपियों को प्रेम-रस पान कराया, जिसने कुब्जा का डोंगा पार लगाया, जिसने प्रेम के रहस्य दिखाने के लिए ही संसार को अपने चरणों से पवित्र किया, उसी की चेरी बनकर जाऊँगी, तो वह कौन सच्चा हिंदू है, जो मेरी उपेक्षा करेगा?
विनय ने मुस्कराकर कहा-उस छलिया ने तुम पर भी जादू डाल दिया? मेरे विचार में तो कृष्ण की प्रेम-कथा सर्वथा भक्त-कल्पना है।
सोफी-हो सकती है। प्रभु मसीहा को भी तो कल्पित कहा जाता है। शेक्सपियर भी तो कल्पना-मात्र है। कौन कह सकता है कि कालिदास की सृष्टि पंचभूतों से हुई है? लेकिन इन पुरुषों के कल्पित होते हुए भी हम उनकी पवित्र कीर्ति के भक्त हैं, और वास्तविक पुरुषों की कीर्ति से अधिक। शायद इसीलिए कि उनकी रचना स्थूल परमाणु से नहीं, सूक्ष्म कल्पना से हुई हो। ये व्यक्तियों के नाम हों न हों, पर आदर्शों के नाम अवश्य हैं। इनमें से प्रत्येक पुरुष मानवीय जीवन का एक-एक आदर्श है।
विनय-सोफी, मैं तुमसे तर्क में पार न पा सकूँगा। पर मेरा मन कह रहा है कि मैं तुम्हारी सरल हृदयता से अनुचित लाभ उठा रहा हूँ। मैं तुमसे हृदय की बात कहता हूँ सोफी, तुम मेरा यथार्थ रूप नहीं देख रही हो। कहीं उस पर निगाह पड़ जाए, तो तुम मेरी तरफ ताकना भी पसंद न करोगी। तुम मेरे पैरों की जंजीर चाहे न बन सको, पर मेरी दबी हुई आग को जगानेवाली हवा अवश्य बन जाओगी। माताजी ने बहुत सोच-समझकर मुझे यह व्रत दिया है। मुझे भय होता है कि एक बार मैं इस बंधन से मुक्त हुआ, तो वासना मुझे इतने वेग से बहा ले जाएगी कि फिर शायद मेरे अस्तित्व का पता ही न चले। सोफी, मुझे इस कठिनतम परीक्षा में न डालो। मैं यथार्थ में बहुत दुर्बल चरित्र, विषयसेवी प्राणी हूँ। तुम्हारी नैतिक विशालता मुझे भयभीत कर रही है। हाँ, मुझ पर इतनी दया अवश्य करो कि आज यहाँ से किसी दूसरी जगह प्रस्थान कर दो।
सोफी-क्या मुझसे इतनी दूर भागना चाहते हो?
विनय-नहीं-नहीं, इसका और ही कारण है। न जाने क्योंकर यह विज्ञप्ति निकल गई है कि जसवंतनगर एक सप्ताह के लिए खाली कर दिया जाए। कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। मैं तो समझता हूँ, सरदार साहब ने तुम्हारी रक्षा के लिए यह व्यवस्था की है, पर लोग तुम्हीं को बदनाम कर रहे हैं।
सोफी और क्लार्क का परस्पर तर्क-वितर्क सुनकर सरदार नीलकंठ ने तत्काल यह हुक्म जारी कर दिया था। उन्हें निश्चय था कि मेम साहब के सामने साहब की एक न चलेगी और विनय को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए पहले ही से शांति-रक्षा का उपाय करना आवश्यक था। सोफी ने विस्मित होकर पूछा-क्या ऐसा हुक्म दिया गया है?
विनय-हाँ, मुझे खबर मिली है। कोई चपरासी कहता था।
सोफी-मुझे जरा भी खबर नहीं। मैं अभी जाकर पता लगाती हूँ और इस हुक्म को मंसूख करा देती हूँ। ऐसी ज्यादती रियासतों के सिवा और कहीं नहीं हो सकती। यह सब तो हो जाएगा, पर तुम्हें अभी मेरे साथ चलना पड़ेगा।
विनय-नहीं सोफी, मुझे क्षमा करो। दूर का सुनहरा दृश्य समीप आकर बालू का मैदान हो जाता है। तुम मेरे लिए आदर्श हो। तुम्हारे प्रेम का आनंद मैं कल्पना ही द्वारा ले सकता हूँ। डरता हूँ कि तुम्हारी दृष्टि में गिर न जाऊँ। अपने को कहाँ तक गुप्त रखूँगा? तुम्हें पाकर मेरा जीवन नीरस हो जाएगा, मेरे लिए उद्योग और उपासना की कोई वस्तु न रह जाएगी। सोफी, मेरे मुँह से न जाने क्या-क्या अनर्गल बातें निकल रही हैं। मुझे स्वयं संदेह हो रहा है कि मैं अपने होश में हूँ या नहीं। भिक्षुक राजसिंहासन पर बैठकर अस्थिर चित्ता हो जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। मेरी तुमसे यही अंतिम प्रार्थना है कि मुझे भूल जाओ।
सोफी-मेरी स्मरण-शक्ति इतनी शिथिल नहीं है।
विनय-कम-से-कम मुझे यहाँ से जाने के लिए विवश न करो; क्योंकि मैंने निश्चय कर लिया है, मैं यहाँ से न जाऊँगा। कस्बे की दशा देखते हुए मुझे विश्वास नहीं है कि मैं जनता को काबू में रख सकूँगा।

सोफी ने गम्भीर भाव से कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं तुम्हें जितना सरल हृदय समझती थी, तुम उससे कहीं बढ़कर कूटनीतिज्ञ हो। मैं तुम्हारा आशय समझती हूँ, और इसलिए कहती हूँ, जैसी तुम्हारी इच्छा। पर शायद तुम्हें मालूम नहीं कि युवती का हृदय बालक के समान होता है। उसे जिस बात के लिए मना करो, उसी तरफ लपकेगा। अगर तुम आत्मप्रशंसा करते, अपने कृत्यों की अप्रत्यक्ष रूप से डींग मारते,तो शायद मुझे तुमसे अरुचि हो जाती। अपनी त्रुटियों और दोषों का प्रदर्शन करके तुमने मुझे और भी वशीभूत कर लिया। तुम मुझसे डरते हो, इसलिए तुम्हारे सम्मुख न आऊँगी, पर रहूँगी तुम्हारे ही साथ। जहाँ-जहाँ तुम जाओगे, मैं परछाईं की भाँति तुम्हारे साथ रहूँगी। प्रेम एक भावनागत विषय है, भावना से ही उसका पोषण होता है, भावना ही से वह जीवित रहता है और भावना से ही लुप्त हो जाता है। वह भौतिक वस्तु नहीं है। तुम मेरे हो, यह विश्वास मेरे प्रेम को सजीव और सतृष्ण रखने के लिए काफी है। जिस दिन इस विश्वास की जड़ हिल जाएगी,उसी दिन इस जीवन का अंत हो जाएगा। अगर तुमने यही निश्चय किया है कि इस कारागार में रहकर तुम अपने जीवन के उद्देश्य को अधिक सफलता के साथ पूरा कर सकते हो, तो इस फैसले के आगे सिर झुकाती हूँ। इस विराग ने मेरी दृष्टि में तुम्हारे आदर को कई गुना बढ़ा दिया है। अब जाती हूँ। कल शाम को फिर आऊँगी। मैंने इस आज्ञा-पत्र के लिए जितना त्रिया-चरित्र खेला है, वह तुमसे बता दूँ, तो तुम आश्चर्य करोगे। तुम्हारी एक 'नहीं' ने मेरे सारे प्रयास पर पानी फेर दिया। क्लार्क कहेगा, मैं कहता था, वह राजी न होगा, कदाचित् व्यंग्य करे; पर कोई चिंता नहीं, कोई बहाना कर दूँगी।

यह कहते-कहते सोफी के सतृष्ण अधर विनयसिंह की तरफ झुके, पर वह कोई पैर फिसलनेवाले मनुष्य की भाँति गिरते-गिरते सँभल गई। धीरे से विनयसिंह का हाथ दबाया और द्वार की ओर चली; पर बाहर जाकर फिर लौट आई और अत्यंत दीन भाव से बोली-विनय, तुमसे एक बात पूछती हूँ। मुझे आशा है, तुम साफ-साफ बतला दोगे। मैं क्लार्क के साथ यहाँ आई, उससे कौशल किया, उसे झूठी आशाएँ दिलाईं और अब उसे मुगालते में डाले हुए हूँ। तुम इसे अनुचित तो नहीं समझते, तुम्हारी दृष्टि में मैं कलंकिनी तो नहीं हूँ?
विनय के पास इसका एक ही सम्भावित उत्तार था। सोफी का आचरण उसे आपत्तिाजनक प्रतीत होता था। उसे देखते ही उसने इस बात को आश्चर्य के रूप में प्रकट भी किया था। पर इस समय वह इस भाव को प्रकट न कर सका। यह कितना बड़ा अन्याय होता, कितनी घोर निर्दयता! वह जानता था कि सोफी ने जो कुछ किया है, वह एक धार्मिक तत्तव के अधीन होकर। वह इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझ रही है। अगर ऐसा न होता, तो शायद अब तक वह हताश हो गई होती। ऐसी दशा में कठोर सत्य वज्रपात के समान होता। श्रध्दापूर्ण तत्परता से बोले-सोफी, तुम यह प्रश्न करके अपने ऊपर और उससे अधिक मेरे ऊपर अन्याय कर रही हो। मेरे लिए तुमने अब तक त्याग-ही-त्याग किए हैं, सम्मान, समृध्दि, सिध्दांत एक की भी परवा नहीं की। संसार में मुझसे बढ़कर कृतघ्न और कौन प्राणी होगा, जो मैं इस अनुराग का निरादर करूँ।
यह कहते-कहते वह रुक गया। सोफी बोली-कुछ और कहना चाहते हो, रुक क्यों गए? यही न कि तुम्हें मेरा क्लार्क के साथ रहना अच्छा नहीं लगता। जिस दिन मुझे निराशा हो जाएगी कि मैं मिथ्याचरण से तुम्हारा कुछ उपकार नहीं कर सकती, उसी दिन मैं क्लार्क को पैरों से ठुकरा दूँगी। इसके बाद तुम मुझे प्रेम-योगिनी के रूप में देखोगे, जिसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य होगा तुम्हारे ऊपर समर्पित हो जाना।

रंगभूमि अध्याय 27

नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह नहीं मिल रही है, इधर-उधर भटक रहा है, जिस कमरे में जाता है, धक्के खाता है, उसे बुलाकर अपनी बगल में बैठा लेते। फिर जरा देर में सवालों का ताँता बाँध देते-कहाँ मकान है? कहाँ जाते हो? कितने लड़के हैं? क्या कारोबार होता है? इन प्रश्नों का अंत इस अनुरोध पर होता कि मेरा नाम नायकराम पंडा है; जब कभी काशी जाओ,मेरा नाम पूछ लो, बच्चा-बच्चा जानता है; दो दिन, चार दिन, महीने, जब तक इच्छा हो, आराम से काशीवास करो; घर-द्वार, नौकर-चाकर सब हाजिर हैं, घर का-सा आराम पाओगे; वहाँ से चलते समय जो चाहो, दे दो, न दो, घर आकर भेज दो, इसकी कोई चिंता नहीं। यह कभी मत सोचो, अभी रुपये नहीं हैं, फिर चलेंगे। शुभ काम के लिए महूरत नहीं देखा जाता, रेल का किराया लेकर चल खड़े हो। काशी में तो मैं हूँ ही,किसी बात की तकलीफ न होगी। काम पड़ जाए तो जान लड़ा दें, तीरथ-जात्रा के लिए टालमटोल मत करो। कोई नहीं जानता, कब बड़ी जात्रा करनी पड़ जाए, संसार के झगड़े तो सदा लगे ही रहेंगे।

दिल्ली पहुँचे, तो कई नए मुसाफिर गाड़ी में आए। आर्य समाज के किसी उत्सव में जा रहे थे। नायकराम ने उनसे वही जिरह शुरू की। यहाँ तक कि एक महाशय गर्म होकर बोले-तुम हमारे बाप-दादे का नाम पूछकर क्या करोगे? हम तुम्हारे फंदे में फँसनेवाले नहीं हैं। यहाँ गंगाजी के कायल नहीं और न काशी ही को स्वर्गपुरी समझते हैं।
नायकराम जरा भी हताश नहीं हुए। मुस्कराकर बोले-बाबूजी, आप आरिया होकर ऐसा कहते हैं। आरिया लोगों ही ने तो हिंदू-धरम की लाज रखी, नहीं तो अब तक सारा देश मुसलमान-किरसतान हो गया होता। हिंदू-धरम के उध्दारक होकर आप काशी को भला कैसे न मानेंगे! उसी नगरी में राजा हरिसचंद की परीक्षा हुई थी, वहीं बुध्द भगवान ने अपना धरम-चक्र चलाया था, वहीं शंकर भगवान् ने मंडल मिसिर से सास्त्रार्थ किया था; वहाँ जैनी आते हैं, बौध्द आते हैं, वैस्नव आते हैं, वह हिंदुओं की नगरी नहीं है, सारे संसार की नगरी वही है। दूर-दूर के लोग भी जब तक काशी के दरसन न कर लें, उनकी जात्रा सुफल नहीं होती। गंगाजी मुकुत देती हैं, पाप काटती हैं, यह सब तो गँवारों को बहलाने की बातें हैं। उनसे कहो कि चलकर उस पवित्र नगरी को देख आओ, जहाँ कदम-कदम पर आरिया जाति के निसान मिलते हैं, जिसका नाम लेते ही सैकड़ों महात्माओं, रिसियों-मुनियों की याद आ जाती है, तो उनकी समझ में यह बात न आएगी। पर जथारथ में बात यही है। कासी का महातम इसीलिए है कि वह आरिया जाति की जीति-जागती पुरातन पुरी है।
इन महाशयों को फिर काशी की निंदा करने का साहस न हुआ। वे मन में लज्जित हुए और नायकराम के धार्मिक ज्ञान के कायल हो गए, हालाँकि नायकराम ने ये थोड़े-से वाक्य ऐसे अवसरों के लिए किसी व्याख्याता के भाषण से चुनकर रट लिए थे।
रेल के स्टेशन पर वह जरूर उतरते और रेल के कर्मचारियों का परिचय प्राप्त करते। कोई उन्हें पान खिला देता, कोई जलपान करा देता। सारी यात्रा समाप्त हो गई, पर वह लेटे तक नहीं, जरा भी आँख नहीं झपकी। जहाँ दो मुसाफिरों को लड़ते-झगड़ते देखते, तुरंत तीसरे बन जाते और उनमें मेल करा देते। तीसरे दिन वह उदयपुर पहुँच गए और रियासत के अधिकारियों से मिलते-जुलते, घूमते-घामते जसवंतनगर में दाखिल हुए। देखा, मिस्टर क्लार्क का डेरा पड़ा हुआ है। बाहर से आने-जानेवालों की बड़ी जाँच-पड़ताल होती है, नगर का द्वार बंद-सा है,लेकिन पंडे को कौन रोकता? कस्बे में पहुँचकर सोचने लगे, विनयसिंह से क्योंकर मुलाकात हो? रात को तो धर्मशाला में ठहरे, सबेरा होते ही जेल के दारोगा के मकान में जा पहुँचे। दारोगाजी सोफी को बिदा करके आए थे और नौकर को बिगड़ रहे थे कि तूने हुक्का क्यों नहीं भरा,इतने में बरामदे में पंडाजी की आहट पाकर बाहर निकल आए। उन्हें देखते ही नायकराम ने गंगा-जल की शीशी निकाली और उनके सिर पर जल छिड़क दिया।
दारोगाजी ने अन्यमनस्क होकर कहा-कहाँ से आते हो?
नायकराम-महाराज, अस्थान तो परागराज है; पर आ रहा हूँ बड़ी दूर से। इच्छा हुई, इधर भी जजमानों को आसीरबाद देता चलूँ।
दारोगाजी का लड़का, जिसकी उम्र चौदह-पंद्रह वर्ष की थी, निकल आया। नायकराम ने उसे नख से शिख तक बड़े धयान से देखा, मानो उसके दर्शनों से हार्दिक आनंद प्राप्त प्राप्त हो रहा है और तब दारोगाजी से बोले-यह आपके चिरंजीव पुत्र हैं न? पिता-पुत्र की सूरत कैसी मिलती है दूर से ही पहचाना जाए। छोटे ठाकुर साहब, क्या पढ़ते हो?
लड़के ने कहा-अंगरेजी पढ़ता हूँ।
नायकराम-यह तो मैं पहले ही समझ गया था। आजकल तो इसी विद्या का दौरदौरा है, राजविद्या ठहरी। किस दफे में पढ़ते हो भैया?
दारोगा-अभी तो हाल ही में अंगरेजी शुरू की है, उस पर भी पढ़ने में मन नहीं लगाते, अभी थोड़ी ही पढ़ी है।
लड़के ने समझा, मेरा अपमान हो रहा है। बोला-तुमसे से तो ज्यादा पढ़ा हूँ।
नाकयराम-इसकी कोई चिंता नहीं, सब आ जाएगा, अभी इनकी औस्था ही क्या है। भगवान की इच्छा होगी, तो कुल का नाम रोसन कर देंगे। आपके घर पर कुछ जगह-जमीन भी है?
दारोगाजी ने अब समझा। बुध्दि बहुत तीक्ष्ण न थी। अकड़कर कुर्सी पर बैठ गए और बोले-हाँ, चित्तौर के इलाके में कई गाँव हैं। पुरानी जागीर है। मेरे पिता महाराना के दरबारी थे। हल्दीघाटी की लड़ाई में राना प्रताप ने मेरे पूर्वजों को यह जागीर दी थी। अब भी मुझे दरबार में कुर्सी मिलती है और पान-इलायची से सत्कार होता है। कोई कार्य-प्रयोजन होता है, तो महाराना के यहाँ से आदमी आता है। बड़ा लड़का मरा था, तो महाराना ने शोकपत्र भेजा था।
नायकराम-जागीरदार का क्या कहना! जो जागीरदार, वही राजा; नाम का फरक है। असली राजा तो जागीरदार ही होते हैं, राज तो नाम के हैं।
दारोगा-बराबर राजकुल से आना-जाना लगा रहता है।
नायकराम-अभी इनकी कहीं बातचीत तो नहीं हो रही है?
दारोगा-अजी, लोग तो जान खा रहे हैं, रोज एक-न-एक जगह से संदेशा आता रहता है; पर मैं सबों को टका-सा जवाब देता हूँ। जब तक लड़का पढ़-लिख न ले, तब तक उसका विवाह कर देना नादानी है।
नायकराम-यह आपने पक्की बात कही। जथारथ में ऐसा ही होना चाहिए। बड़े आदमियों की बुध्दि भी बड़ी होती है। पर लोक-रीति पर चलना ही पड़ता है। अच्छा, अब आज्ञा दीजिए, कई जगह जाना है। जब तक मैं लौटकर न आऊँ, किसी को जवाब न दीजिएगा। ऐसी कन्या आपको न मिलेगी और न ऐसा उत्ताम कुल ही पाइएगा।
दारोगा-वाह-वाह! इतनी जल्दी चले जाइएगा? कम-से-कम भोजन तो कर लीजिए। कुछ हमें भी तो मालूम हो कि आप किस का संदेसा लाए हैं? वह कौन हैं; कहाँ रहते हैं?
नायकराम-सब कुछ मालूम हो जाएगा, पर अभी बताने का हुक्म नहीं है।
दारोगा ने लड़के से कहा-तिलक, अंदर जाओ, पंडितजी के लिए पान बनवा लाओ, कुछ नाश्ता भी लेते आना।
यह कहकर तिलक के पीछे-पीछे खुद अंदर चले गए और गृहिणी से बोले-लो कहीं से तिलक के ब्याह का संदेसा आया है। पान तश्तरी में भेजना। नाश्ते के लिए कुछ नहीं है? वह तो मुझे पहले ही मालूम था। घर में कितनी ही चीज आए, दुबारा देखने को नहीं मिलती। न जाने कहाँ के मरभुखे जमा हो गए हैं। अभी कल ही एक कैदी के घर से मिठाइयों का पूरा थाल आया था, क्या हो गया?
स्त्री-इन्हीं लड़कों से पूछो, क्या हो गया। मैं तो हाथ से छूने की भी कसम खाती हूँ। यह कोई संदूक में बंद करके रखने की चीज तो है नहीं। जिसका जब जी चाहता है, निकालकर खाता है। कल से किसी ने रोटियों की ओर नहीं ताका।
दारोगा-तो आखिर तुम किस मरज की दवा हो? तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जो चीज घर में आए, उसे यत्न से रखो, हिसाब से खर्च करो। वह लौंडा कहाँ गया?
स्त्री-तुम्हीं ने तो अभी उसे डाँटा था, बस चला गया। कह गया है कि घड़ी-घड़ी की डाँट-फटकार बरदाश्त नहीं हो सकती।
दारोगा-यह और मुसीबत हुई। ये छोटे आदमी दिन-दिन सिर चढ़ते जाते हैं, कोई कहाँ तक इनकी खुशामद करे, अब कौन बाजार से मिठाइयाँ लाए? आज तो किसी सिपाही को भी नहीं भेज सकता, न जाने सिर से कब यह बला टलेगी। तुम्हीं चले जाओ तिलक!
तिलक-शर्बत क्यों नहीं पिला देते?
स्त्री-शकर भी तो नहीं है। चले क्यों नहीं जाते?
तिलक-हां, चले क्यों नहीं जाते! लोग देखेंगे हजरत मिठाई लिए जाते हैं।
दारोगा-तो इसमें क्या गाली है, किसी के घर चोरी तो नहीं कर रहे हो? बुरे काम से लजाना चाहिए, अपना काम करने में क्या लाज?
तिलक यों तो लाख सिर पटकने पर भी बाजार न जाते, पर इस वक्त अपने विवाह की खुशी थी, चले गए। दारोगाजी ने तश्तरी में पान रखे और नायकराम के पास लाए।
नायकराम-सरकार, आपके घर पान नहीं खाऊँगा।
दारोगा-अजी, अभी क्या हरज है, अभी तो कोई बात भी नहीं हुई।
नायकराम-मेरा मन बैठ गया, तो सब ठीक समझिए।
दारोगा-यह तो आपने बुरी पख लगाई। यह बात नहीं हो सकती कि आप हमारे द्वार पर आएँ और हम बिना यथेष्ट आदर-सत्कार किए आपको जाने दें। मैं तो मान भी जाऊँगा, पर तिलक की माँ किसी तरह राजी न होंगी।
नायकराम-इसी से मैं यह संदेसा लेकर आने से इनकार कर रहा था। जिस भले आदमी के द्वार पर जाइए, वह भोजन और दच्छिना के बगैर गला नहीं छोड़ता। इसी से तो आजकल कुछ लबाड़ियों ने बर खोजने को ब्यौसाय बना लिया है। इससे यह काम करते हुए और भी संकोच होता है।
दारोगा-ऐसे धूर्त यहाँ नित्य ही आया करते हैं; पर मैं तो पानी को भी नहीं पूछता। जैसा मुँह होता है, वैसा बीड़ा मिलता है। यहाँ तो आदमी को एक नजर देखा और उसकी नस-नस पहचान गया। आप यों न जाने पाएँगे।
नायकराम-मैं जानता कि आप इस तरह पीछे पड़ जाएँगे, तो लबाड़ियों ही की-सी बातचीत करता। गला तो छूट जाता।
दारोगा-यहाँ ऐसा अनाड़ी नहीं हूँ, उड़ती चिड़िया पहचानता हूँ।
नायकराम डट गए। दोपहर होते-होते बच्चे-बच्चे से उनकी मैत्री हो गई। दारोगाइन ने भी पालागन कहला भेजा। इधर से भी आशीर्वाद दिया गया। दारोगा तो दस बजे दफ्तर चले गए। नायकराम के लिए पूरियाँ-कचौरियाँ, चटनी, हलवा बड़ी विधि से बनाया गया। पंडितजी ने भीतर जाकर भोजन किया। रायता, दही; स्वामिनी ने स्वयं पंखा झला। फिर तो उन्होंने और रंग जमाया। लड़के-लड़कियों के हाथ देखे। दारोगाइन ने भी लजाते हुए हाथ दिखाया। पंडितजी ने अपने भाग्य-रेखा-ज्ञान का अच्छा परिचय दिया। और भी धाक जम गई। शाम को दारोगाजी दफ्तर से लौटे, तो पंडितजी शान से मसनद लगाए बैठे हुए थे और पड़ोस के कई आदमी उन्हें घेरे खड़े थे।
दारोगा ने कुर्सी पर लेटकर कहा-यह पद तो इतना ऊँचा नहीं, और न ही वेतन ही कुछ ऐसा अधिक मिलता है, पर काम इतना जिम्मेदारी का है कि केवल विश्वासपात्रों को ही मिलता है। बड़े-बड़े आदमी किसी-न-किसी अपराध के लिए दंड पाकर आते हैं। अगर चाहूँ,तो उनके घरवालों से एक-एक मुलाकात के लिए हजारों रुपये ऐंठ लूँ; लेकिन अपना यह ढंग नहीं। जो सरकार से मिलता है, उसी को बहुत समझता हूँ। किसी भीरु पुरुष का तो यहाँ घड़ी-भर निबाह न हो। एक-से-एक खूनी, डकैत, बदमाश आते रहते हैं, जिनके हजारों साथी होते हैं;चाहें तो दिन-दहाड़े जेल को लुटवा लें, पर ऐसे ढंग से उन पर रोब जमाता हूँ कि बदनामी भी न हो और नुकसान भी न उठाना पड़े। अब आज-ही-कल देखिए, काशी के कोई करोड़पति राजा हैं महाराजा भरतसिंह, उनका पुत्र राजविद्रोह के अभियोग में फँस गया है। हुक्काम तक उसका इतना आदर करते हैं कि बड़े साहब की मेम साहब दिन में दो-दो बार उसका हाल-चाल पूछने आती हैं और सरदार नीलकंठ बराबर पत्रों द्वारा उसका कुशल-समाचार पूछते रहते हैं। चाहूँ तो महाराजा भरतसिंह से एक मुलाकात के लिए लाखों रुपये उड़ा लूँ; पर यह अपना धर्म नहीं।
नायकराम-अच्छा! क्या राजा भरतसिंह का पुत्र यहीं कैद है?
दारोगा-और यहाँ सरकार को किस पर इतना विश्वास है?
नायकराम-आप-जैसे महात्माओं के दरसन दुरलभ हैं। किंतु बुरा न मानिए, तो कहूँ, बाल-बच्चों का भी धयान रखना चाहिए। आदमी घर से चार पैसे कमाने ही के लिए निकलता है।
दारोगा-अरे, तो क्या कोई कसम खाई है, पर किसी का गला नहीं दबाता। चलिए, आपको जेलखाने की सैर कराऊँ। बड़ी साफ-सुथरी जगह है। मेरे यहाँ तो जो कोई मेहमान आता है, उसे वहीं ठहरा देता हूँ। जेल के दारोगा की दोस्ती से जेल की हवा खाने के सिवा और क्या मिलेगा?
यह कहकर दारोगा मुस्कराए। वह नायकराम को किसी बहाने से यहाँ से टालना चाहते थे। नौकर भाग गया था, कैदियों और चपरासियों से काम लेने का मौका न था। सोचा, अपने हाथ चिलम भरनी पड़ेगी, बिछावन बिछाना पड़ेगा, मर्यादा में बाधा उपस्थित होगी, घर का परदा खुल जाएगा। इन्हें वहाँ ठहरा दूँगा, खाना भिजवा दूँगा, परदा ढका रह जाएगा।
नायकराम-चलिए, कौन जाने, कभी आपकी सेवा में आना ही पड़े। पहले से ठौर-ठिकान देख लूँ। महाराजा साहब के लड़के ने कौन कसूर किया था?
दारोगा-कसूर कुछ नहीं था, बस हाकिमों की जिद है। यहाँ देहातों में घूम-घूमकर लोगों को उपदेश करता था, बस, हाकिमों को उस पर संदेह हो गया कि यह राजविद्रोह फैला रहा है। यहाँ लाकर कैद कर दिया। मगर आप तो अभी उसे देखिएगा ही, ऐसा गम्भीर, शांत, विचारशील आदमी आज तक मैंने नहीं देखा। हाँ, किसी से दबा नहीं। खुशामद करके चाहे कोई पानी भरा लें; पर चाहें कि रोब से उसे दबा लें, तो जौ-भर भी न दबेगा।
नायकराम दिल में खुश था कि बड़ी अच्छी साइत में चला था कि भगवान् आप ही सब द्वार खोल देते हैं। देखूँ, अब विनयसिंह से क्या बात होती है। यों तो वह न जाएँगे, पर रानीजी की बीमारी का बहाना करना पड़ेगा। वह राजी हो जाएँ, यहाँ से निकाल ले जाना तो मेरा काम है। भगवान् की इतनी दया हो जाती, तो मेरी मनो-कामना पूरी हो जाती, घर बस जाता, जिंदगी सुफल हो जाती।

रंगभूमि अध्याय 28

सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु है, जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी के पीठ फेरते ही उसने ताल ठोकनी शुरू की-न जाने मेरी बातों का सोफिया पर क्या असर हुआ। कहीं वह यह तो नहीं समझ गई कि मैंने जीवन-पर्यंत के लिए सेवा-व्रत धारण कर लिया है। मैं भी कैसा मंद बुध्दि हूँ, उसे माताजी की अप्रसन्नता का भय दिलाने लगा, जैसे भोले-भाले बच्चों की आदत होती है कि प्रत्येक बात पर अम्माँ से कह देने की धमकी देते हैं। जब वह मेरे लिए इतना आत्मबलिदान कर रही है, यहाँ तक कि धर्म के पवित्र बंधन को भी तोड़ देने के लिए तैयार है, तो उसके सामने मेरा सेवा-व्रत और कर्तव्य का ढोंग रचना सम्पूर्णत: नीति-विरुध्द है। मुझे वह मन में कितना निष्ठुर, कितना भीरु, कितना हृदय-शून्य समझ रही होगी। माना कि परोपकार आदर्श जीवन है; लेकिन स्वार्थ भी तो सर्वथा त्याज्य नहीं। बड़े-से-बड़ा जाति-भक्त भी स्वार्थ ही की ओर झुकता है। स्वार्थ का एक भाग मिटा देना जाति-सेवा के लिए काफी है। यही प्राकृतिक नियम है। आह! मैंने अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारी। वह कितनी गर्वशीला है, फिर भी मेरे लिए उसने क्या-क्या अपमान न सहे! मेरी माता ने उसका जितना अपमान किया,उतना कदाचित् उसकी माता ने किया होता, तो वह उसका मुँह न देखती। मुझे आखिर सूझी क्या! निस्संदेह मैं उसके योग्य नहीं हूँ, उसकी विशाल मनस्विता मुझे भयभीत करती है; पर क्या मेरी भक्ति मेरी त्रुटियों की पूर्ति नहीं कर सकती? जहाँगीर-जैसा आत्म-सेवी, मंद बुध्दि पुरुष अगर नूरजहाँ को प्रसन्न रख सकता है, तो क्या मैं अपने आत्मसमर्पण से, अपने अनुराग से उसे संतुष्ट नहीं कर सकता? कहीं वह मेरी शिथिलता से अप्रसन्न होकर मुझसे सदा के लिए विरक्त न हो जाए! यदि मेरे सेवा-व्रत, मातृभक्ति और संकोच का यह परिणाम हुआ, तो यह जीवन दुस्सह हो जाएगा।

आह! कितना अनुपम सौंदर्य है! उच्च शिक्षा और विचार से मुख पर कैसी आधयात्मिक गम्भीरता आ गई है! मालूम होता है, कोई देवी इंद्रलोक से उतर आई है, मानो बहिर्जगत् से उसका कोई सम्बंध ही नहीं, अंतर्जगत् ही में विचरती है। विचारशीलता स्वाभाविक सौंदर्य को कितना मधुर बना देती है! विचारोत्कर्ष ही सौंदर्य का वास्तविक शृंगार है। वस्त्राभूषणों से तो उसकी प्राकृतिक शोभा ही नष्ट हो जाती है, वह कृत्रिाम और वासनामय हो जाता है। टनसहंत शब्द ही इस आशय को व्यक्त कर सकता है। हास्य और मुस्कान में जो अंतर है, धूप और चाँदनी में जो अंतर है, संगीत और काव्य में जो अंतर है, वही अंतर अलंकृत और परिष्कृत सौंदर्य में है। उसकी मुस्कान कितनी मनोहर है,जैसे बसंत की शीतल वायु, या किसी कवि की अछूती सूझ। यहाँ किसी रूपमयी सुंदरी से बातें करने लगे, तो चित्ता मलिन हो जाता है या तो शीन-काफ ठीक नहीं, या लिंग-भेद का ज्ञान नहीं। सोफी के लिए व्रत, नियम, सिध्दांत की उपेक्षा करना क्षम्य ही नहीं, श्रेयस्कर भी है। यह मेरे लिए जीवन और मरण का प्रश्न है। उसके बगैर मेरा जीवन एक सूखे वृक्ष की भाँति होगा, जिसे जल की अविरत वर्षा भी पल्लवित नहीं कर सकती। मेरे जीवन की उपयोगिता, सार्थकता ही लुप्त हो जाएगी। जीवन रहेगा, पर आनंद-विहीन, प्रेम-विहीन, उद्देश्य-विहीन!

विनय इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि दारोगाजी आकर बैठ गए और बोले-मालूम होता है, अब यह बला सिर से जल्द ही टलेगी। एजेंट साहब यहाँ से कूच करनेवाले हैं। सरदार साहब ने शहर में डौंड़ी फिरवा दी है कि अब किसी को कस्बे से बाहर जाने की जरूरत नहीं। मालूम होता है, मेम साहब ने यह हुक्म दिया है।
विनय-मेम साहब बड़ी विचारशील महिला हैं।
दारोगा-यह बहुत ही अच्छा हुआ, नहीं तो अवश्य उपद्रव हो जाता और सैकड़ों जानें जातीं। जैसा तुमने कहा, मेम साहब बड़ी विचारशील हैं;हालांकि उम्र अभी कुछ नहीं।
विनय-आपको खूब मालूम है कि वह कल यहाँ से चली जाएँगी?
दारोगा-हाँ, और क्या सुनी-सुनाई कहता हूँ? हाकिमों की बातों की घंटे-घंटे टोह लगती है। रसद और बेगार, जो एक सप्ताह के लिए ली जानेवाली थी, बंद कर दी गई है।
विनय-यहाँ फिर न आएँगी?
दारोगा-तुम तो इतने अधीर हो रहे हो, मानो उन पर आसक्त हो।
विनय ने लज्जित होकर कहा-मुझसे उन्होंने कहा था कि कल तुम्हें देखने आऊँगी।
दारोगा-कह दिया होगा, पर अब उनकी तैयारी है। यहाँ तो खुश हैं कि बेदाग बच गए, नहीं तो और सभी जगह जेलरों पर जुरमाने किए हैं।
दारोगाजी चले गए, तो विनय सोचने लगा-सोफिया ने कल आने का वादा किया था। क्या अपना वादा भूल गई? अब न आएगी? यदि एक बार आ जाती, तो मैं उसके पैरों पर गिरकर कहता, सोफी, मैं अपने होश में नहीं हूँ। देवी अपने उपासक से इसलिए तो अप्रसन्न नहीं होती कि वह उसके चरणों को स्पर्श करते हुए भी झिझकता है। यह तो उपासक की अश्रध्दा का नहीं, असीम श्रध्दा का चिद्द है।
ज्यों-ज्यों दिन गुजरता था, विनय की व्यग्रता बढ़ती जाती थी। मगर अपने मन की व्यथा किससे कहे। उसने सोचा-रात को यहाँ से किसी तरह भागकर सोफी के पास जा पहुँचूँ। हा दुर्दैव, वह मेरी मुक्ति का आज्ञा-पत्र तक लाई थी, उस वक्त मेरे सिर पर न जाने कौन-सा भूत सवार था।
सूर्यास्त हो रहा था। विनय सिर झुकाए दफ्तर के सामने टहल रहा था। सहसा उसे धयान आया-क्यों न फिर बेहोशी का बहाना करके गिर पड़ूँ। यहाँ सब लोग घबरा जाएँगे और जरूर सोफी को मेरी खबर मिल जाएगी। अगर उसकी मोटर तैयार होगी, तो एक बार मुझे देखने आ जाएगी। पर यहाँ तो स्वाँग भरना भी नहीं आता। अपने ऊपर खुद ही हँसी आ जाएगी। कहीं हँसी रुक न सकी, तो भद्द हो जाएगी। लोग समझ जाएँगे, बना हुआ है। काश, इतना मूसलाधार पानी बरस जाता कि वह घर के बाहर निकल ही न सकती। पर कदाचित इंद्र को भी मुझसे बैर है, आकाश पर बादल का कहीं नाम नहीं, मानो किसी हत्यारे का दयाहीन हृदय हो। क्लार्क ही को कुछ हो जाता, तो आज उसका जाना रुक जाता।
जब अंधरा हो गया, तो उसे सोफी पर क्रोध आने लगा-जब आज ही यहाँ से जाना था, तो उसने मुझसे कल आने का वादा ही क्यों किया, मुझसे जान-बूझकर झूठ क्यों बोली? क्या अब कभी मुलाकात ही न होगी; तब पूछूँगा। उसे खुद समझ जाना चाहिए था कि यह इस वक्त अस्थिर चित्ता हो रहा है। उससे मेरे चित्ता की दशा छिपी नहीं है। वह उस अंतर्द्वंद्व को जानती है, जो मेरे हृदय में इतना भीषण रूप धारण किए हुए है। एक ओर प्रेम और श्रध्दा है, तो दूसरी ओर अपनी प्रतिज्ञा, माता की अप्रसन्नता का भय और लोक-निंदा की लज्जा। इतने विरुध्द भावों के समागम से यदि कोई अनर्गल बातें करने लगे, तो इसमें आश्चर्य ही क्या। उसे इस दशा में मुझसे खिन्न न होना चाहिए था। अपनी प्रेममय सहानुभूति से मेरी हृदयाग्नि को शांत करना चाहिए था। अगर उसकी यही इच्छा है कि मैं इसी दशा में घुल-घुलकर मर जाऊँ, तो यही सही। यह हृदय-दाह जीवन के साथ ही शांत होगा। आह! ये दो दिन कितने आनंद के दिन थे! रात हो रही है, फिर उसी अँधेरे, दुर्गंधमय कोठरी में बंद कर दिया जाऊँगा, कौन पूछेगा कि मरते हो या जीते। इस अंधकार में दीपक की ज्योति दिखाई भी दी, तो जब तक वहाँ पहुँचूँ, नजरों से ओझल हो गई।
इतने में दारोगाजी फिर आए। पर अब की वह अकेले न थे, उनके साथ एक पंडितजी भी थे। विनयसिंह को ख्याल आया कि मैंने इन पंडितजी को कहीं देखा है; पर याद न आता था, कहाँ देखा है। दारोगाजी देर तक खड़े पंडितजी से बातें करते रहे। विनयसिंह से कोई न बोला। विनय ने समझा, मुझे धोखा हुआ, कोई और आदमी होगा। रात को सब कैदी खा-पीकर लेटे। चारों ओर के द्वार बंद कर दिए गए। विनय थराथरा रहा था कि मुझे भी अपनी कोठरी में जाना पड़ेगा; पर न जाने क्यों, उसे वहीं पड़ा रहने दिया गया।
रोशनी गुल कर दी गई। चारों ओर सन्नाटा छा गया। विनय उसी उद्विग्न दशा में खड़ा सोच रहा था, कैसे यहाँ से निकलूँ। जानता था कि चारों तरफ से द्वार बंद हैं, न रस्सी है, न कोई यंत्र, न कोई सहायक, न कोई मित्र। तिस पर भी यह प्रतीक्षा भाव से द्वार पर खड़ा था कि शायद कोई हिकमत सूझ जाए। निराशा में प्रतीक्षा अंधो की लाठी है।
सहसा सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। विनय ने समझा, कोई चौकीदार होगा। डरा कि मुझे यहाँ खड़ा देखकर कहीं उसके दिल में संदेह न हो जाए। धीरे-से कमरे की ओर चला। इतना भीरु वह कभी न हुआ था। तोप के सामने खड़ा सिपाही भी बिच्छू को देखकर सशंक हो जाता है।
विनय कमरे में गए ही थे कि पीछे से वह आदमी भी अंदर आ पहुँचा। विनय ने चौंककर पूछा-कौन?
नायकराम बोले-आपका गुलाम हूँ, नायकराम पंडा!
विनय-तम यहाँ कहाँ? अब याद आया, आज तुम्हीं तो दारोगा के साथ पगड़ी बाँधो खड़े थे? ऐसी सूरत बना ली थी कि पहचान ही में न आते थे। तुम यहाँ कैसे आ गए?
नायकराम-आप ही के पास तो आया हूँ।
विनय-झूठे हो। यहाँ कोई यजमानी है क्या?
नायकराम-जजमान कैसे, यहाँ तो मालिक ही हैं।
विनय-कब आए, कब? वहाँ तो सब कुशल है?
नायकराम-हाँ, सब कुशल ही है। कुँवर साहब ने जब से आपका हाल सुना है, बहुत घबराए हुए हैं, रानीजी बीमार हैं।
विनय-अम्माँजी कब से बीमार हैं?
नायकराम-कोई एक महीना होने आता है। बस, घुली जाती हैं। न कुछ खाती हैं, न पीती हैं, न किसी से बोलती हैं। न जाने कौन रोग है कि किसी बैद, हकीम, डॉक्टर की समझ ही में नहीं आता। दूर-दूर के डॉक्टर बुलाए गए हैं, पर मरज की थाह किसी को नहीं मिलती। कोई कुछ बताता है, कोई कुछ। कलकत्तो से कोई कविराज आए हैं, वह कहते हैं, अब यह बच नहीं सकतीं। ऐसी घुल गई हैं कि देखते डर लगता है। मुझे देखा, तो धीरे से बोलीं-पंडाजी, अब डेरा कूच है। अब मैं खड़ा-खड़ा रोता रहा।
विनय ने सिसकते हुए कहा-हाय ईश्वर! मुझे माता के चरणों के दर्शन भी न होंगे क्या।
नायकराम-मैंने जब बहुत पूछा, सरकार किसी को देखना चाहती हैं, तो आँखों में आँसू भरकर बोलीं, एक बार विनय को देखना चाहती हूँ,पर भाग्य में देखना बदा नहीं है, न जाने उसका क्या हाल होगा।
विनय इतना रोये कि हिचकियाँ बँध गईं। जब जरा आवाज काबू में हुई, तो बोले-अम्माँजी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा था। अब चित्ता व्याकुल हो रहा है। कैसे उनके दर्शन पाऊँगा? भगवान् न जाने किन पापों का यह दंड मुझे दे रहे हैं।
नायकराम-मैंने पूछा, हुक्म हो, तो जाकर उन्हें लिवा लाऊँ? इतना सुना था कि वह जल्दी से उठकर बैठ गईं और मेरा हाथ पकड़कर बोलीं-तुम उसे लिवा लाओगे? नहीं, वह न आएगा, वह मुझसे रूठा हुआ है। कभी न आएगा। उसे साथ लाओ, तो तुम्हारा बड़ा उपकार होगा। इतना सुनते ही मैं वहाँ से चल खड़ा हुआ। अब विलम्ब न कीजिए, कहीं ऐसा न हो कि माता की लालसा मन ही में रह जाए, नहीं तो आपको जनम-भर पछताना पडेग़ा।
विनय-कैसे चलूँगा।
नायकराम-इसकी चिंता मत कीजिए, ले तो मैं चलूँगा। जब यहाँ तक आ गया, तो यहाँ से निकलना क्या मुसकिल है।
विनय कुछ सोचकर बोले-पंडाजी, मैं तो चलने को तैयार हूँ; पर भय यही है कि कहीं अम्माँजी नाराज न हो जाएँ, तुम उनके स्वभाव को नहीं जानते।
नायकराम-भैया, इसका कोई भय नहीं है। उन्होंने तो कहा है कि जैसे बने, वैसे लाओ। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि माफी माँगनी पड़े, तो इस औसर पर माँग लेनी चाहिए।
विनय-तो चलो, कैसे चलते हो?
नायकराम-दिवाल फांदकर निकल जाएँगे, यह कौन मुसकिल है!
विनयसिंह को शंका हुई कि कहीं किसी की निगाह पड़ गई, तो! सोफी यह सुनेगी, तो क्या कहेगी? सब अधिकारी मुझ पर तालियाँ बजाएँगे। सोफी सोचेगी, बडे सत्यवादी बनते थे, अब वह सत्यवादिता कहाँ गई! किसी तरह सोफी को यह खबर दी जा सकती, तो वह अवश्य आज्ञा-पत्र भेज देती; पर यह बात नायकराम से कैसे कहूँ।
विनय-पकड़े गए, तो!
नायकराम-पकड़ेगा कौन? यहाँ कच्ची गोली नहीं खेले हैं। सब आदमियों को पहले ही से गाँठ रखा है।
विनय-खूब सोच लो। पकड़े गए, तो फिर किसी तरह न छुटकारा न होगा।
नायकराम-पकड़े जाने का तो नाम ही न लो। यह देखो, सामने कई ईंटें दिवाल से मिलाकर रखी हुई हैं। मैंने पहले ही से यह इंतज़ाम कर लिया है। मैं ईंटों पर खड़ा हो जाऊँगा। आप मेरे कंधो पर चढ़कर इस रस्सी को लिए हुए दिवाल पर चढ़ जाइएगा। रस्सी उस तरफ फेंक दीजिएगा। मैं इसे इधर मजबूत पकड़े रहूँगा, आप उधर धीरे से उतर जाइएगा। फिर वहाँ आप रस्सी को मजबूत पकड़े रहिएगा, मैं भी इधर से चला आऊँगा। रस्सी बड़ी मजबूत है, टूट नहीं सकती। मगर हाँ, छोड़ न दीजिएगा, नहीं तो मेरी हव्ी-पसली टूट जाएगी।
यह कहकर नायकराम रस्सी का पुलिंदा लिए हुए ईंटों के पास जाकर खड़े हो गए। विनय भी धीरे-धीरे चले। सहसा किसी चीज़ के खटकने की आवाज आई। विनय ने चौंककर कहा-भाई, मैं न जाऊँगा। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। माताजी के दर्शन करना मेरे भाग्य में नहीं है।
नायकराम-घबराइए मत, कुछ नहीं है।
विनय-मेरे तो पैर थरथरा रहे हैं।
नायकराम-तो इसी जीवट पर चले थे साँप के मुँह में उँगली डालने? जोखिम के समय पद-सम्मान का विचार नहीं रहता।
विनय-तुम मुझे जरूर फँसाओगे।
नायकराम-मरद होकर फँसने से इतना डरते हो! फँस ही गए, तो कौन चूड़ियाँ मैली हो जाएँगी! दुसमन की कैद से भागना लज्जा की बात नहीं।
यह कहकर वह ईंटों पर खड़ा हो गया और विनय से बोला-मेरे कंधो पर आ जाओ।
विनय-कहीं तुम गिर पडे, तो?
नायकराम-तुम्हारे जैसे पाँच सवार हो जाएँ, तो लेकर दौड़ईँ। धरम की कमाई में बल होता है।
यह कहकर उसने विनय का हाथ पकड़कर उसे अपने कंधो पर ऐसी आसानी से उठा लिया, मानो कोई बच्चा है।
विनय-कोई आ रहा है।
नायक-आने दो। यह रस्सी कमर में बाँध लो और दिवाल पकड़कर चढ़ जाओ।
अब विनय ने हिम्मत मजबूत की। यही निश्चयात्मक अवसर था। सिर्फ एक छलाँग की जरूरत थी। ऊपर पहुँच गए, तो बेड़ा पार है; न पहुँच सके तो अपमान, लज्जा, दंड सब कुछ है। ऊपर स्वर्ग है, नीचे नरक; ऊपर मोक्ष है, नीचे माया-जाल। दीवार पर चढ़ने में हाथों के सिवा और किसी चीज से मदद न मिल सकती थी। विनय दुर्बल होने पर भी मजबूत आदमी थे। छलाँग मारी और बेड़ा पार हो गया; दीवार पर जा पहुँचे और रस्सी पकड़कर नीचे उतर पड़े। दुर्भाग्य-वश पीछे दीवार से मिली हुई गहरी खाई थी, जिसमें बरसात का पानी भरा हुआ था। विनय ने ज्यों ही रस्सी छोड़ी, गर्दन तक पानी में डूब गए और बड़ी मुश्किल से बाहर निकले। तब रस्सी पकड़कर नायकराम को इशारा किया। वह मँजा हुआ खिलाड़ी था। एक क्षण में नीचे आ पहुँचा। ऐसा जान पड़ता था कि वह दीवार पर बैठा था, केवल उतरने की देर थी।
विनय-देखना, खाई है।
नायकराम-पहले ही देख चुका हूँ। तुमसे बताने की याद ही न रही।
विनय-तुम इस काम में निपुण हो। मैं कभी न निकल सकता। किधर चलोगे?
नायकराम-सबसे पहले तो देवी के मंदिर चलूँगा, वहाँ से फिर मोटर पर बैठकर इसटेसन की ओर। ईश्वर ने चाहा, तो आज के तीसरे दिन घर पहुँच जाएँगे। देवी सहाय न होतीं, तो इतनी जल्दी और इतनी आसानी से यह काम न होता। उन्होंने यह संकट हरा। उन्हें अपना खून चढ़ाऊँगा।
अब दोनों आजाद थे। विनय को ऐसा मालूम हो रहा था कि मेरे पाँव आप-ही-आप उठे जाते हैं। वे इतने हलके हो गए थे। जरा देर में दोनों आदमी सड़क पर आ गए।
विनय-सबेरा होते ही दौड़-धूप शुरू हो जाएगी।
नायकराम-तब तक हम लोग यहाँ से सौ कोस पर होंगे।
विनय-घर से भी तो वारंट द्वारा पकड़ मँगा सकते हैं।
नायकराम-वहाँ की चिंता मत करो। वह अपना राज है।
आज सड़क पर बड़ी हलचल थी। सैकड़ों आदमी लालटेनें लिए कस्बे में छावनी की तरफ जा रहे थे। एक गोल इधर से आता था, दूसरा उधर से। प्राय: लोगों के हाथों में लाठियाँ थीं। विनयसिंह को कुतूहल हुआ, आज यह भीड़-भीड़ कैसी! लोगों पर वह नि:स्तब्ध तत्परता छाई थी, जो किसी भयंकर उद्वेग की सूचक होती है। किंतु किसी से कुछ पूछ न सकते थे कि कहीं वह पहचान न जाए।
नायकराम-देवी के मंदिर तक तो पैदल ही चलना पड़ेगा।
विनय-पहले इन आदमियों से तो पूछो, कहाँ दौड़े जा रहे हैं। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई।
नायकराम-होगी, हमें इन बातों से क्या मतलब? चलो, अपनी राह चलें।
विनय-नहीं-नहीं, जरा पूछो तो क्या बात है?
नायकराम ने एक आदमी से पूछा, तो ज्ञात हुआ कि नौ बजे के समय एजेंट साहब अपनी मेम साहब के साथ मोटर पर बैठे हुए बाजार की तरफ से निकले। मोटर बड़ी तेजी से जा रही थी। चौराहे पर पहुँची, तो एक आदमी, जो बाईं ओर से आ रहा था, मोटर से नीचे दब गया। साहब ने आदमी को दबते हुए देखा; पर मोटर को रोका नहीं। यहाँ तक कि कई आदमी मोटर के पीछे दौड़े। बाजार के इस सिरे तक आते-आते मोटर को बहुत-से आदमियों ने घेर लिया। साहब ने आदमियों को डाँटा कि अभी हट जाओ। जब लोग न हटे, तो उन्होंने पिस्तौल चला दी। एक आदमी तुरंत गिर पड़ा। अब लोग क्रोधोन्माद की दशा में साहब के बँगले पर जा रहे थे।
विनय ने पूछा-वहाँ जाने की क्या जरूरत है?
एक आदमी-जो कुछ होना है, वह हो जाएगा। यही न होगा, मारे जाएँगे। मारे तो यों ही जा रहे हैं। एक दिन तो मरना है ही। दस-पाँच आदमी मर गए, तो कौन संसार सूना हो जाएगा?
विनय के होश उड़ गए। यकीन हो गया कि आज कोई उपद्रव अवश्य होगा। बिगड़ी हुई जनता वह जल-प्रवाह है, जो किसी के रोके नहीं रुकता। ये लोग झल्लाए हुए हैं। इस दशा में इनसे धैर्य और क्षमा की बातें करना व्यर्थ है। कहीं ऐसा न हो कि ये लोग बँगले को घेर लें। सोफिया भी वहीं है। कहीं उस पर आघात कर बैठे। दुरावेश में सौजन्य का नाश हो जाता है। नायकराम से बोले-पंडाजी, जरा बँगले तक होते चलें।
नायकराम-किसके बँगले तक?
विनय-पोलिटिकल एजेंट के।
नायकराम-उनके बँगले पर जाकर क्या कीजिएगा? क्या अभी तक परोपकार से जी नहीं भरा? ये जानें, वह जानें, हमसे-आपसे मतलब?
विनय-नहीं मौका नाजुक है, वहाँ जाना जरूरी है।
नायकराम-नाहक अपनी जान के दुसमन हुए हो। वहाँ कुछ दंगा हो जाए, तो! मरद हैं ही, चुपचाप खड़े मुँह तो देखा न जाएगा। दो-चार हाथ इधर या उधर चला ही देंगे। बस, धर-पकड़ हो जाएगी। इससे क्या फायदा?
विनय-कुछ भी हो, मैं यहाँ यह हंगामा होते देखकर स्टेशन नहीं जा सकता।
नायकराम-रानीजी तिल-तिल पर पूछती होंगी।
विनय-तो यहाँ कौन हमें दो-चार दिन लग जाते हैं। तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आता हूँ।
नायकराम-जब तुम्हें कोई भय नहीं है, तो यहाँ कौन रोनेवाला बैठा हुआ है। मैं आगे-आगे चलता हूँ। देखना, साथ न छोड़ना। यह ले लो,जोखिम का मामला है। मेरे लिए यह लकड़ी काफी है।
यह कहकर नायकराम ने एक दो नलीवाली पिस्तौल कमर से निकालकर विनय के हाथ में रख दी। विनय पिस्तौल लिए हुए आगे बढ़ा। जब राजभवन के निकट पहुँचे, तो इतनी भीड़ देखी कि एक-एक कदम चलना मुश्किल हो गया, और भवन से एक गोली के टप्पे पर तो उन्हें विवश होकर रुकना पड़ा। सिर-ही-सिर दिखाई देते थे। राजभवन के सामने एक बिजली की लालटेन जल रही थी और उसके उज्ज्वल प्रकाश में हिलता, मचलता, रुकता, ठिठकता हुआ जन-प्रवाह इस तरह भवन की ओर चला रहा था, मानो उसे निगल जाएगा। भवन के सामने, इस प्रवाह को रोकने के लिए, वरदीपोश सिपाहियों की एक कतार, संगीनें चढ़ाए, चुपचाप खड़ी थी और ऊँचे चबूतरे पर खड़ी होकर सोफी कुछ कह रही थी; पर इस हुल्लड़ में उसकी आवाज सुनाई न देती थी। ऐसा मालूम होता था कि किसी विदुषी की मूर्ति है, जो कुछ कहने का संकेत कर रही है।
सहसा सोफिया ने दोनों हाथ ऊपर उठाए। चारों ओर सन्नाटा छा गया। सोफी ने उच्च और कम्पित स्वर में कहा-मैं अंतिम बार तुम्हें चेतावनी देती हूँ कि यहाँ से शांति के साथ चले जाओ, नहीं तो सैनिकों को विवश होकर गोली चलानी पड़ेगी एक क्षण के अंदर यह मैदान साफ हो जाना चाहिए।
वीरपालसिंह ने सामने आकर कहा-प्रजा अब ऐसे अत्याचार नहीं सह सकती।
सोफी-अगर लोग सावधानी से रास्ता चलें, तो ऐसी दुर्घटना क्यों हो!
वीरपाल-मोटरवालों के लिए भी कोई कानून है या नहीं?
सोफी-उनके लिए कानून बनाना तुम्हारे अधिकार में नहीं है।
वीरपाल-हम कानून नहीं बना सकते, पर अपनी प्राण-रक्षा तो कर सकते हैं?
सोफी-तुम विद्रोह करना चाहते हो और उसके कुफल का भार तुम्हारे सिर पर होगा।
वीरपाल-हम विद्रोही नहीं हैं, मगर यह नहीं हो सकता कि हमारा एक भाई किसी मोटर के नीचे दब जाए, चाहे वह मोटर महारानी ही की क्यों न हो, और हम मुँह न खोलें।
सोफी-वह संयोग था।
वीरपाल-सावधानी उस संयोग को टाल सकती थी। अब हम उस वक्त तक यहाँ से न जाएँगे, जब तक हमें वचन न दिया जाएगा कि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं के लिए अपराधी को उचित दंड मिलेगा, चाहे वह कोई हो।
सोफी-संयोग के लिए कोई वचन नहीं दिया जा सकता। लेकिन...
सोफी कुछ और कहना चाहती थी कि किसी ने एक पत्थर उसकी तरफ फेंका, जो उसके सिर में इतनी जोर से लगा कि वह वहीं सिर थामकर बैठ गई। यदि विनय तत्क्षण किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होकर जनता को आश्वासन देते, तो कदाचित् उपद्रव न होता, लोग शांत होकर चले जाते। सोफी का जख्मी हो जाना जनता का क्रोध शांत करने को काफी न था। किंतु जो पत्थर सोफी के सिर में लगा, वही कई गुने आघात के साथ विनय के हृदय में लगा। उसकी आँखों में खून उतर आया, आपे से बाहर हो गया। भीड़ को बलपूर्वक हटाता, आदमियों को ढकेलता, कुचलता सोफी के बगल में जा पहुँचा, पिस्तौल कमर से निकाली और वीरपालसिंह पर गोली चला दी। फिर क्या था, सैनिकों को मानो हुक्म मिल गया, उन्होंने बंदूकें छोड़नी शुरू कीं। कुहराम मच गया, लेकिन फिर भी कई मिनट तक लोग वहीं खड़े गोलियों का जवाब ईंट-पत्थर से देते रहे। दो-चार बंदूकें इधर से भी चलीं। वीरपाल बाल-बाल बच गया और विनय को निकट होने के कारण पहचानकर बोला-आप भी उन्हीं में हैं?
विनय-हत्यारा!
वीरपाल-परमात्मा हमसे फिर गया है।
विनय-तुम्हें एक स्त्री पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आती?
चारों तरफ से आवाजें आने लगीं-विनयसिंह हैं, यह कहाँ से आ गए, यह भी उधर मिल गए, इन्हीं ने तो पिस्तौल छोड़ी है!
'शायद शर्त पर छोड़े गए हैं।'
'धन की लालसा सिर पर सवार है।'
'मार दो एक पत्थर, सिर फट जाए, यह भी हमारा दुश्मन है।'
'दगाबाज है।'
'इतना बड़ा आदमी और थोड़े-से धन के लिए ईमान बेच बैठा।'
बंदूकों के सामने निहत्थे लोग कब तक ठहरते! जब कई आदमी अपने पक्ष के लगातार गिरे, तो भगदड़ गच गई; कोई इधर भागा, कोई उधर। मगर वीरपालसिंह और उसके साथ के पाँचों सवार, जिनके हाथों में बंदूकें थीं, राजभवन के पीछे की ओर से विनयसिंह के सिर पर आ पहुँचे। अँधेरे में किसी की निगाह उन पर न पड़ी। विनय ने पीछे की तरफ घोड़ों की टाप सुनी, तो चौंके, पिस्तौल चलाई, पर वह खाली थी।
वीरपाल ने व्यंग करके कहा-आप तो प्रजा के मित्र बनते थे?
तुम जैसे हत्यारों की सहायता करना मेरा नियम नहीं है।
वीरपाल-मगर हम उससे अच्छे हैं, जो प्रजा की गरदन पर अधिकारियों से मिलकर छुरी चलाए।
विनय क्रोधवेश में बाज की तरह झपटे कि उसके हाथ से बंदूक छीन लें, किंतु वीरपाल के एक सहयोगी ने झपटकर विनयसिंह को नीचे गिरा दिया, दूसरा साथी तलवार लेकर उसी तरफ लपका ही था कि सोफी, जो अब तक चेतना-शून्य दशा में भूमि पर पड़ी थी, चीख मारकर उठी और विनयसिंह से लिपट गई। तलवार अपने लक्ष्य पर न पहुँचकर सोफी के माथे पर पड़ी। इतने में नायकराम लाठी लिए हुए आ पहुँचा और लाठियाँ चलाने लगा। दो विद्रोही आहत होकर गिर पड़े। वीरपाल अब तक हतबुध्दि की भाँति खड़ा था। न उसे ज्ञात था कि सोफी को पत्थर किसने मारा; न उसने अपने सहयोगियों ही को विनय पर आघात करने के लिए कहा था। यह सब कुछ उसकी आँखों के सामने, पर उसकी इच्छा के विरुध्द हो रहा था। पर अब अपने साथियों को देखकर वह तटस्थ न रह सका। उसने बंदूक का कुंदा तौलकर इतनी जोर से नायकराम के सिर में मारा कि उसका सिर फट गया और एक पल में उसके तीनों साथी अपने आहत साथियों को लेकर भाग निकले। विनयसिंह सँभलकर उठे, तो देखा कि बगल में नायकराम खून से तर अचेत पड़ा है और सोफी का कहीं पता नहीं। उसे कौन ले गया, क्यों ले गया, कैसे ले गया, इसकी उन्हें खबर न थी।
मैदान में एक आदमी भी न था। दो-चार लाशें अलबत्ता इधर-उधर पड़ी हुई थीं।
मिस्टर क्लार्क कहाँ थे? तूफान उठा और गया, आग लगी और बुझी, पर उनका कहीं पता तक नहीं। वह शराब के नशे में मस्त, दीन-दुनिया से बेखबर, अपने शयनागार में पड़े हुए थे। विद्रोहियों का शोर सुनकर सोफी भवन से बाहर निकल आई थी। मिस्टर क्लार्क को इसलिए जगाने की चेष्टा न की थी कि उनके आने से रक्तपात का भय था। उसने शांत उपायों से शांति-रक्षा करनी चाही थी कि उसी का यह फल था। वह पहले सतर्क हो जाती, तो कदाचित् स्थिति इतनी भयावह न होने पाती।
विनय ने नायकराम को देखा। नाड़ी का पता न था, आँखें पथरा गई थीं। चिंता शोक और पश्चात्ताप से चित्ता इतना विकल हुआ कि वह रो पड़े। चिंता थी माता की, उसके दर्शन भी न करने पाया; शोक था सोफिया का, न जाने उसे कौन ले गया; पश्चात्ताप था अपनी क्रोधशीलता पर कि मैं ही इस सारे विद्रोह और रक्तपात का कारण हूँ। अगर मैंने वीरपाल पर पिस्तौल न चलाई होती, तो यह उपद्रव शांत हो जाता।
आकाश में श्यामल घन-घटा छाई हुई थी, पर विनय के हृदयाकाश पर छाई हुई शोक-घटा उससे कहीं घनघोर, अपार और असूझ थी।

रंगभूमि अध्याय 29

मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते थे। पर आज सोफी ने जान-बूझकर उन्हें मात्रा से अधिक पिला दी थी, बढ़ावा देती जाती थी-वाह! इतनी ही, एक ग्लास तो और लो। अच्छा, यह मेरी खतिर से, वाह! अभी तुमने मेरे स्वास्थ्य का प्याला तो पिया ही नहीं। सोफी ने विनय से कल मिलने का वादा किया था, पर उनकी बातें उसे एक क्षण के लिए भी चैन न लेने देती थीं। वह सोचती थी-विनय ने आज ये नए बहाने क्यों ढूँढ़ निकाले? मैंने उनके लिए धर्म की भी परवा न की, फिर भी वह मुझसे भागने की चेष्टा कर रहे हैं। अब मेरे पास और कौन-सा उपाय है? क्या प्रेम का देवता इतना पाषाण हृदय है, क्या, वह बड़ी-से-बड़ी पूजा पाकर भी प्रसन्न नहीं होता? माता की अप्रसन्नता का इतना भय उन्हें कभी न था। कुछ नहीं, अब उनका प्रेम शिथिल हो गया है। पुरुषों का चित्ता चंचल होता है, उसका एक और प्रमाण मिल गया। अपनी अयोग्यता का कथन उनके मुँह से कितना अस्वाभाविक मालूम होता है। वह जो इतने उदार,इतने विरक्त, इतने सत्यवादी, इतने कर्तव्यनिष्ठ हैं, मुझसे कहते हैं, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ! हाय! वह क्या जानते हैं कि मैं उनसे कितनी भक्ति रखती हूँ, मैं इस योग्य भी नहीं कि उनके चरण स्पर्श करूँ। कितनी पवित्र आत्मा है, कितने उज्ज्वल विचार, कितना आलौकिक आत्मोत्सर्ग! नहीं, वह मुझसे दूर रहने ही के लिए ये बहाने कर रहे हैं। उन्हें भय है कि मैं उनके पैरों की जंजीर बन जाऊँगी, उन्हें कर्तव्य-मार्ग से हटा दूँगी, उनको आदर्श से विमुख कर दूँगी। मैं उनकी इस शंका का कैसे निवारण करूँ?

दिन-भर इन्हीं विचारों में व्यग्र रहने के बाद संध्या को वह इतनी व्याकुल हुई कि उसने रात ही को विनय से फिर मिलने का निश्चय किया। उसने क्लार्क को शराब पिलाकर इसीलिए अचेत कर दिया कि उसे किसी प्रकार का संदेह न हो। जेल के अधिकारियों से उसे कोई भय न था। वह इस अवसर को विनय से अनुनय-विनय करने में, उनके प्रेम को जगाने में, उनकी शंकाओं को शांत करने में लगाना चाहती थी;पर उसका यह प्रयास उसी के लिए घातक सिध्द हुआ। मिस्टर क्लार्क मौके पर पहुँच सकते, तो शायद स्थिति इतनी भयंकर न होती, कम-से-कम सोफी को ये दुर्दिन न देखने पड़ते। क्लार्क अपने प्राणों से उसकी रक्षा करते। सोफी ने उनसे दगा करके अपना ही सर्वनाश कर लिया था। अब वह न जाने कहाँ और किस दशा में थी। प्राय: लोगों का विचार था कि विद्रोहियों ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को आभूषणों के लोभ से अपने साथ ले गए। केवल विनयसिंह इस विचार से सहमत न थे। उन्हें विश्वास था कि सोफी अभी जिंदा है। विद्रोहियों ने जमानत के तौर पर उसे अपने यहाँ कैद कर रखा है, जिसमें संधि की शर्तें तय करने में सुविधा हो। सोफी रियासत को दबाने के लिए उनके हाथों में एक यंत्र के समान थी।

इस दुर्घटना से रियासत में तहलका मच गया। अधिकारी वर्ग आपको डराते थे, प्रजा आपको। अगर रियासत के कर्मचारियों ही तक बात रहती, तो विशेष चिंता की बात न थी, रियासत खून के बदले खून लेकर संतुष्ट हो जाती, ज्यादा-से-ज्यादा एक जगह चार का खून कर डालती। पर सोफी के बीच में पड़ जाने से समस्या जटिल हो गई थी, मुआमला रियासत के अधिकार-क्षेत्र के बाहर पहुँच गया था, यहाँ तक कि लोगों को भय था, रियासत पर कोई जवाल न आ जाए। इसलिए अपराधियों की पकड़-धकड़ में असाधारण तत्परता से काम लिया जा रहा था। संदेहमात्र में लोग फाँस दिए जाते थे और उनको कठोरतम यातनाएँ दी जाती थीं। साक्षी और प्रमाण की कोई मर्यादा न रह गई थी। इन अपराधियों के भाग्य-निर्णय के लिए एक अलग न्यायालय खोल दिया गया था। उसमें मँजे हुए प्रजा-द्रोहियों को छाँट-छाँटकर नियुक्त किया गया था। यह अदालत किसी को छोड़ना न जानती थी। किसी अभियुक्त को प्राण-दंड देने के लिए एक सिपाही की शहादत काफी थी। सरदार नीलकंठ बिना अन्न-जल, दिन-के-दिन विद्रोहियों की खोज लगाने में व्यस्त रहते थे। यहाँ तक कि हिज हाइनेस महाराजा साहब स्वयं शिमला, दिल्ली और उदयपुर एक किए हुए थे। पुलिस-कर्मचारियों के नाम रोज ताकिदें भेजी जाती थीं। उधर शिमला से भी ताकीदों का ताँता बँधा हुआ था। ताकीदों के बाद धमकियाँ आने लगीं। उसी अनुपात में यहाँ प्रजा पर भी उत्तारोत्तार अत्याचार बढ़ता जाता था। मि. क्लार्क को निश्चय था कि इस विद्रोह में रियासत का हाथ भी अवश्य था। अगर रियासत ने पहले ही से विद्रोहियों का जीवन कठिन कर दिया होता, तो वे कदापि इस भाँति सिर न उठा सकते। रियासत के बड़े-बड़े अधिकारी भी उनके सामने जाते काँपते थे। वह दौरे पर निकलते, तो एक अंगरेजी रिसाला साथ ले लेते और इलाके-के-इलाके उजड़वा देते, गाँव-के-गाँव तबाह करवा देते, यहाँ तक कि स्त्रियों पर भी अत्याचार होता। और, सबसे अधिक खेद की बात यह थी कि रियासत और क्लार्क के इन सारे दुष्कृत्यों में विनय भी मनसा-वाचा-कर्मणा सहयोग करते थे। वास्तव में उन पर प्रमाद का रंग छाया हुआ था। सेवा और उपकार के भाव हृदय से सम्पूर्णत: मिट गए थे। सोफी और उसके शत्रुओं का पता लगाने का उद्योग, यही एक काम उनके लिए रह गया था। मुझे दुनिया क्या कहती है, मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है,माताजी का क्या हाल हुआ, इन बातों की ओर अब उनका धयान ही न जाता था। अब तो वह रियासत के दाहिने हाथ बने हुए थे। अधिकारी समय-समय पर उन्हें और भी उत्तोजित करते रहते थे। विद्रोहियों के दमन में कोई पुलिस का कर्मचारी, रिसायत का कोई नौकर इतना हृदयहीन, विचारहीन, न्यायहीन न बन सकता था। उनकी राज-भक्ति का पारावार न था, या यों कहिए कि इस समय वह रियासत के कर्णधार बन हुए थे, यहाँ तक कि सरदार नीलकंठ भी उनसे दबते थे। महाराजा साहब को उन पर इतना विश्वास हो गया था कि उनसे सलाह लिए बिना कोई काम न करते। उनके लिए आने-जाने की कोई रोक-टोक न थी। और मि. क्लार्क से तो उनकी दाँतकाटी रोटी थी। दोनों एक ही बँगले में रहते थे और अंतरंग में सरदार साहब की जगह पर विनय की नियुक्ति की चर्चा की जाने लगी थी।

प्राय: साल-भर तक रियासत में यही आपाधापी रही। जब जसवंतनगर विद्रोहियों से पाक हो गया, अर्थात् वहाँ कोई जवान आदमी न रहा,तो विनय ने स्वयं को सोफी का सुराग लगाने के लिए कमर बाँधी। उनकी सहायता के लिए गुप्त पुलिस के कई अनुभवी आदमी तैनात किए गए। चलने की तैयारियाँ होने लगीं। नायकराम अभी तक कमजोर थे। उनके बचने की आशा ही न रही थी; पर जिंदगी बाकी थी, बच गए। उन्होंने विनय को जाने पर तैयार देखा, तो साथ चलने को निश्चय किया। आकर बोले-भैया, मुझे भी साथ ले चलो, मैं यहाँ अकेला न रहूँगा।
विनय-मैं कहीं परदेश थोड़े ही जाता हूँ। सातवें दिन यहाँ आया करूँगा, तुमसे मुलाकात हो जाएगी।
सरदार नीलकंठ वहीं बैठे हुए थे बोले- अभी तुम जाने के लायक नहीं हो।
नायकराम-सरदार साहब, आप भी इन्हीं की-सी कहते हैं। इनके साथ न रहूँगा, तो रानीजी को कौन मुँह दिखाऊँगा!
विनय-तुम यहाँ ज्यादा आराम से रह सकोगे, तुम्हारे ही भले की कहता हूँ।
नायकराम-सरदार साहब, अब आप ही भैया को समझाइए। आदमी एक घड़ी की नहीं चलाता, तो एक हफ्ता तो बहुत है। फिर मोरचा लेना है वीरपालसिंह से, जिसका लोहा मैं भी मानता हूँ। मेरी कई लाठियाँ उसने ऐसी रोक लीं कि एक भी पड़ जाती, तो काम तमाम हो जाता। पक्का फेकैत। क्या मेरी जान तुम्हारी जान से प्यारी है?
नीलकंठ-हाँ, वीरपाल है तो एक शैतान। न जाने कब, किधर से, कितने आदमियों के साथ टूट पड़े। उसके गोइंदे सारी रियासत में फैले हुए हैं।
नायकराम-तो ऐसे जोखिम में कैसे इनका साथ छोड़ दूँ? मालिक की चाकरी में जान भी निकल जाए, तो क्या गम है, और यह जिंदगानी किसलिए!
विनय-भाई; बात यह है कि मैं अपने साथ किसी गैर की जान जोखिम में नहीं डालना चाहता।
नायकराम-हाँ, अब आप मुझे गैर समझते हैं, तो दूसरी बात है। हाँ, गैर तो हूँ ही; गैर न होता, तो रानीजी के इशारे पर कैसे यहाँ दौड़ा आता, जेल में जाकर कैसे बाहर निकाल लाता और साल-भर तक खाट क्यों सेता? सरदार साहब, हुजूर ही अब इंसाफ कीजिए। मैं गैर हूँ?जिसके लिए जान हथेली पर लिए फिरता हूँ, वही गैर समझता है।
नीलकंठ-विनयसिंह, यह आपका अन्याय है। आप इन्हें गैर क्यों कहते हैं? अपने हितैषियों को गैर कहने से उन्हें दु:ख होता है।
नायकराम- बस, सरदार साहब, हुजूर ने लाख रुपये की बात कह दी। पुलिस के आदमी गैर नहीं हैं और मैं गैर हूँ!
विनय-अगर गैर कहने से तुम्हें दु:ख होता है, तो मैं यह शब्द वापस लेता हूँ! मैंने गैर केवल इस विचार से कहा था कि तुम्हारे सम्बंध में मुझे घरवालों को जवाब देना पडेग़ा। पुलिसवालों के लिए तो मुझसे कोई जवाब न माँगेगा।
नायकराम-सरदार साहब, अब आप ही इसका जवाब दीजिए। यह मैं कैसे कहूँ कि मुझसे कुछ हो गया, तो कुँवर साहब कुछ पूछ-ताछ न करेंगे, उनका भेजा हुआ आया ही हूँ। भैया को जवाबदेही तो जरूर करनी पड़ेगी।
नीलकंठ-यह माना कि तुम उनके भेजे हुए आए हो; मगर तुम इतने अबोध नहीं हो कि तुम्हारी हानि-लाभ की जिम्मेदारी विनयसिंह के सिर हो। तुम अपना अच्छा-बुरा आप सोच सकते हो। क्या कुँवर साहब इतना भी न समझेंगे?
नायकराम-अब कहिए धर्मावतार, अब तो मुझे ले चलना पड़ेगा, सरदार साहब ने मेरी डिग्री कर दी। मैं कोई नाबालिग नहीं हूँ कि सरकार के सामने आपको जवाब देना पड़े।

अंत में विनय ने नायकराम को साथ ले चलना स्वीकार किया और दो-तीन दिन पश्चात् दस आदमियों की एक टोली, भेष बदलकर, सब तरह लैस होकर, टोहिए कुत्तों के साथ लिए, दुर्गम पर्वतों में दाखिल हुई। पहाड़ें से आग निकल रही थी। बहुधा कोसों तक पानी की एक बूँद भी न मिलती; रास्ते पथरीले, वृक्षों का पता नहीं। दोपहर को लोग गुफाओं में विश्राम करते थे, रात को बस्ती से अलग किसी चौपाल या मंदिर में पड़े रहते। दो-दो आदमियों का संग था। चौबीस घंटें में एक बार सब आदमियों को एक स्थान पर जमा होना पड़ता था। दूसरे दिन का कार्यक्रम निश्चय करके लोग फिर अलग-अलग हो जाते थे। नायकराम और विनयसिंह की एक जोड़ी थी। नायकराम अभी तक चलने-फिरने में कमजोर था, पहाड़ों की चढ़ाई में थककर बैठ जाता, भोजन की मात्रा भी बहुत कम हो गई थी, दुर्बल इतना हो गया था कि पहचानना कठिन था। किंतु विनयसिंह पर प्राणों को न्योछावर करने को तैयार रहता था। यह जानता था कि ग्रामीणों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, विविध स्वभाव और श्रेणी के मनुष्यों से परिचित था। जिस गाँव में पहुँचता, धूम मच जाती कि काशी के पंडाजी पधारे हैं। भक्तजन जमा हो जाते, नाई-कहार आ पहुँचते, दूध-घी, फल-फूल, शाक-भाजी आदि की रेल-पेल हो जाती। किसी मंदिर के चबूतरे पर खाट पड़ जाती, बाल-वृध्द, नर-नारी बेधड़क पंडाजी के पास आते और यथाशक्ति दक्षिणा देते। पंडाजी बातों-बातों में उनसे गाँव का समाचार पूछ लेते। विनयसिंह को अब ज्ञात हुआ कि नायकराम साथ न होते, तो मुझे कितने कष्ट झेलने पड़ते। वह स्वभाव से मितभाषी, संकोचशील,गम्भीर आदमी थे। उनमें वह शासन-बुध्दि न थी, जो जनता पर आतंक जमा लेती है, न वह मधुर वाणी, जो मन को मोहती है। ऐसी दशा में नायकराम का संग उनके लिए दैवी सहायता से कम न था।

रास्ते में कभी-कभी हिंसक जंतुओं से मुठभेड़ हो जाती। ऐसे अवसरों पर नायकराम सीनासिपर हो जाता था। एक दिन चलते-चलते दोपहर हो गया। दूर तक आबादी का कोई निशान न था। धूप की प्रखरता से एक-एक पग चलना मुश्किल था। कोई कुआँ या तालाब भी नजर न आता था। सहसा एक ऊँचा टीकरा दिखाई दिया। नायकराम उस पर चढ़ गया कि शायद ऊपर से कोई गाँव या कुआँ दिखाई दे। उसने शिखर पर पहुँचकर इधर-उधर निगाह दौड़ाई, तो दूर पर एक आदमी जाता हुआ दिखाई दिया। उसके हाथ में एक लकड़ी और पीठ पर एक थैली थी। कोई बिना वर्दी का सिपाही मालूम होता था। नायकराम ने उसे कोई बार जोर-जोर से पुकारा, तो उसने गर्दन फेरकर देखा। नायकराम उसे पहचान गए। यह विनयसिंह के साथ का एक स्वयंसेवक था। उसे इशारे से बुलाया और टीले से उतरकर उसके पास आए। इस सेवक का नाम इंद्रदत्ता था।
इंद्रदत्ता ने पूछा-तुम यहाँ कैसे आ फँसे जी? तुम्हारे कुँवर कहाँ हैं?
नायकराम-पहले यह बताओ कि यहाँ कोई गाँव भी है, कहीं दाना-पानी मिल सकता है?
इंद्रदत्ता-जिसके राम धनी, उसे कौन कमी! क्या राजदरबार ने भोजन की रसद नहीं लगाई? तेली से ब्याह करके तेल का रोना!
नायकराम-क्या करूँ, बुरा फँस गया हूँ, न रहते बनता है, न जाते।
इंद्रदत्ता-उनके साथ तुम भी अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो। कहाँ हैं आजकल?
नायकराम-क्या करोगे?
इंद्रदत्ता-कुछ नहीं, जरा मिलना चाहता था।
नायकराम-हैं तो वह भी। यहीं भेंट जो जाएगी। थैली में कुछ है?
यों बातें करते हुए दोनों विनयसिंह के पास पहुँचे। विनय ने इंद्रदत्ता को देखा, तो शत्रु-भाव से बोला-इंद्रदत्ता, तुम कहाँ? घर क्यों नहीं गए?
इंद्रदत्ता-आपसे मिलने की बड़ी आकांक्षा थी। आपसे कितनी ही बातें करनी हैं। पहले यह बतलाइए कि आपने यह चोला क्यों बदला?
नायकराम-पहले तुम अपनी थैली में से कुछ निकालो, फिर बातें होंगी।
विनयसिंह अपनी कायापलट का समर्थन करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बोले-इसलिए कि मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। मैं पहले समझता था कि प्रजा बड़ी सहनशील और शांतिप्रिय है। अब ज्ञात हुआ कि वह नीच और कुटिल है। उसे ज्यों ही अपनी शक्ति का कुछ ज्ञान हो जाता है, वह उसका दुरुपयोग करने लगती है। जो प्राणी शक्ति का संचार होते ही उन्मत्ता हो जाए, उसका अशक्त, दलित रहना ही अच्छा है। गत विद्रोह इसका ज्वलंत प्रमाण है। ऐसी दशा में मैंने जो कुछ किया और कर रहा हूँ, वह सर्वथा न्यायसंगत और स्वाभाविक है।
इंद्रदत्ता-क्या आपके विचार में प्रजा को चाहिए कि उस पर कितने ही अत्याचार किए जाएँ, वह मुँह न खोले?
विनय-हाँ, वर्तमान दशा में यही उसका धर्म है।
इंद्रदत्ता-उसके नेताओं को भी यही आदर्श उसके सामने रखना चाहिए?
विनय-अवश्य!
इंद्रदत्ता-तो जब आपने जनता को विद्रोह के लिए तैयार देखा, तो उसके सम्मुख खड़े होकर धैर्य और शांति का उपदेश क्यों नहीं दिया?
विनय-व्यर्थ था। उस वक्त कोई मेरी न सुनता।
इंद्रदत्ता-अगर न सुनता, तो क्या आपका यह धर्म नहीं था कि दोनों दलों के बीच में खड़े होकर पहले खुद गोली का निशाना बनते?
विनय-मैं अपने जीवन को इतना तुच्छ नहीं समझता।
इंद्रदत्ता-जो जीवन सेवा और परोपकार के लिए समर्पण हो चुका हो, उसके लिए इससे उत्ताम और कौन मृत्यु हो सकती थी?
विनय-आग में कूदने का नाम सेवा नहीं है। उसे दमन करना ही सेवा है।
इंद्रदत्ता-अगर वह सेवा नहीं है, तो दीन जनता की, अपनी कामुकता पर आहुति देना भी सेवा नहीं है। बहुत सम्भव था कि सोफिया ने अपनी दलीलों से वीरपालसिंह को निरुत्तार कर दिया होता। किंतु आपने विषय के वशीभूत होकर पिस्तौल का पहला वार किया, और इसलिए इस हत्याकांड का सारा भार आपकी ही गरदन पर है और जल्द या देर में आपको इसका प्रायश्चित्ता करना पड़ेगा। आप जानते हैं, प्रजा को आपके नाम से कितनी घृणा है? अगर कोई आदमी आपको यहाँ देखकर पहचान जाए, तो उसका पहला काम यह होगा कि आपके ऊपर तीर चलाए। आपने यहाँ की जनता के साथ, अपने सहयोगियों के साथ, अपनी जाति के साथ और सबसे अधिक अपनी पूज्य माता के साथ जो कुटिल विश्वासघात किया है, उसका कलंक कभी आपके माथे से न मिटेगा। कदाचित् रानीजी आपको देखें, तो अपने हाथों से आपकी गरदन पर कटार चला दें। आपके जीवन से मुझे यह अनुभव हुआ कि मनुष्य का कितना नैतिक पतन हो सकता है।
विनय ने कुछ नम्र होकर कहा-इंद्रदत्ता, अगर तुम समझते हो कि मैंने स्वार्थवश अधिकारियों की सहायता की, तो तुम मुझ पर घोर अन्याय कर रहे हो। प्रजा का साथ देने में जितनी आसानी से यश प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक आसानी से अधिकारियों का साथ देने में अपयश मिलता है। यह मैं जानता था। किंतु सेवक का धर्म यश और अपयश का विचार करना नहीं है, उसका धर्म सन्मार्ग पर चलना है। मैंने सेवा का व्रत धारण किया है, और ईश्वर न करे कि वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँ, जब मेरे सेवाभाव में स्वार्थ का समावेश हो। पर इसका आशय यह नहीं है कि मैं जनता का अनौचित्य देखकर भी उसका समर्थन करूँ। मेरा व्रत मेरे विवेक की हत्या नहीं कर सकता।
इंद्रदत्ता-कम-से-कम इतना तो आप मानते ही हैं कि स्वहित के लिए जनता का अहित न करना चाहिए।
विनय-जो प्राणी इतना न माने, वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है।
इंद्रदत्ता-क्या आपने केवल सोफिया के लिए रियासत की समस्त प्रजा को विपत्तिा में नहीं डाला और अब भी उसका सर्वनाश करने की धुन में नहीं हैं?
विनय-तुम मुझ पर यह मिथ्या दोषारोपण करते हो। मैं जनता के लिए सत्य से मुँह नहीं मोड़ सकता। सत्य मुझे देश और जाति, दोनों से प्रिय है। जब तक मैं समझता था कि प्रजा सत्य-पक्ष पर है, मैं उसकी रक्षा करता था। जब मुझे विदित हुआ कि उसने सत्य से मुँह मोड़ लिया, मैंने भी उससे मुँह मोड़ लिया। मुझे रियासत के अधिकारियों से कोई आंतरिक विरोध नहीं है। मैं वह आदमी नहीं हूँ कि हुक्काम को न्याय पर देखकर भी अनायास उनसे बैर करूँ, और न मुझसे यह हो सकता है कि प्रजा का विद्रोह और दुराग्रह पर तत्पर देखकर भी उसकी हिमायत करूँ। अगर कोई आदमी मिस सोफिया की मोटर के नीचे दब गया तो यह एक आकस्मिक घटना थी। सोफिया ने जान-बूझकर तो उस पर से मोटर को चला नहीं दिया। ऐसी दशा में जनता का उस भाँति उत्तोजित हो जाना, इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि वह अधिकारियों को बलपूर्वक अपने वश में करना चाहती है। आप सोफिया के प्रति मेरे आचरण पर आक्षेप करके मुझ पर ही अन्याय नहीं कर रहे हैं, वरन् अपनी आत्मा को भी कलंकित कर रहे हैं।
इंद्रदत्ता-ये हजारों आदमी निरपराध क्यों मारे गए? क्या यह भी प्रजा ही का कसूर था?

विनय-यदि आपको अधिकारियों की कठिनाइयों का कुछ अनुभव होता, तो आप मुझसे कदापि यह प्रश्न न करते। इसके लिए आप क्षमा के पात्र हैं। साल-भर पहले जब अधिकारियों से मेरा कोई सम्बंध न था, कदाचित् मैं भी ऐसा ही समझता था। किंतु अब मुझे अनुभव हुआ कि उन्हें ऐसे अवसरों पर न्याय का पालन करने में कितनी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती है। मैं यह स्वीकार नहीं करता कि अधिकार पाते ही मनुष्य का रूपांतर हो जाता है। मनुष्य स्वभावत: न्याय-प्रिय होता है। उसे किसी को बरबस कष्ट देने से आनंद नहीं मिलता, बल्कि उतना ही दु:ख और क्षोभ होता है, जितना किसी प्रजासेवक हो। अंतर केवल इतना ही है कि प्रजासेवक किसी दूसरे पर दोषारोपण करके अपने को संतुष्ट कर लेता है, यहीं उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है; अधिकारियों को यह अवसर प्राप्त नहीं होता। वे आप अपने आचरण की सफाई नहीं पेश कर सकते। आपको खबर नहीं कि हुक्काम ने अपराधियों को खोज निकालने में कितनी दिक्कतें उठाईं। प्रजा अपराधियों को छिपा लेती थी और राजनीति के किसी सिध्दांत का उस पर कोई असर न होता था। अतएव अपराधियों के साथ निरपराधियों का फँस जाना सम्भव ही था। फिर आपको मालूम नहीं है कि इस विद्रोह ने रियासत को कितने महान् संकट में डाल दिया है। अंगरेजी सरकार को संदेह है कि दरबार ने ही यह सारा षडयंत्र रचा था। अब दरबार का कर्तव्य है कि वह अपने को इस आक्षेप से मुक्त करे, और जब तक मिस सोफिया का सुराग नहीं मिल जाता, रियासत की स्थिति अत्यंत चिंतामय है। भारतीय होने के नाते मेरा धर्म है कि रियासत के मुख पर से कालिमा को मिटा दूँ; चाहे इसके लिए मुझे कितना ही अपमान, कितना ही लांछन, कितना ही कटु वचन क्यों न सहना पड़े, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जाएँ। जाति-सेवक की अवस्था कोई स्थायी रूप नहीं रखती, परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कल मैं रियासत का जानी दुश्मन था, आज उसका अनन्य भक्त हूँ और इसके लिए मुझे लेशमात्र भी लज्जा नहीं।

इंद्रदत्ता-ईश्वर ने आपको तर्क बुध्दि दी है और उससे आप दिन को रात सिध्द कर सकते हैं; किंतु आपकी कोई उक्ति प्रजा के दिल से इस खयाल को नहीं दूर कर सकती कि आपने उसके साथ दगा दी और इस विश्वासघात की जो यंत्रणा आपको सोफिया के हाथों मिलेगी, उससे आपकी आँखें खुल जाएँगी।
विनय ने इस भाँति लपककर इंद्रदत्ता का हाथ पकड़ लिया, मानो वह भागा जा रहा हो और बोले-तुम्हें सोफिया का पता मालूम है?
इंद्रदत्ता-नहीं।
विनय-झूठ बोलते हो!
इंद्रदत्ता-हो सकता है।
विनय-तुम्हें बताना पड़ेगा।
इंदद्रत्ता-आपको अब मुझसे यह पूछने का अधिकार नहीं रहा। आपका या दरबार का मतलब पूरा करने के लिए मैं दूसरों की जान संकट में नहीं डालना चाहता। आपने एक बार विश्वासघात किया है और फिर कर सकते हैं।
नायकराम-बता देंगे, आप क्यों इतना घबराए जाते हैं। इतना तो बता ही दो भैया इंद्रदत्ता, कि मेम साहब कुशल से हैं न?
इंद्रदत्ता-हाँ, बहुत कुशल से हैं और प्रसन्न हैं। कम-से-कम विनयसिंह के लिए कभी विकल नहीं होतीं। सच पूछो, तो उन्हें अब इनके नाम से घृणा हो गई है।
विनय-इंद्रदत्ता, हम और तुम बचपन के मित्र हैं। तुम्हें जरूरत पडे, तो मैं अपने प्राण तक दे दूँ; पर तुम इतनी जरा-सी बात बतलाने से इनकार कर रहे हो। यही दोस्ती है?
इंद्रदत्ता-दोस्ती के पीछे दूसरों की जान क्यों विपत्तिा में डालूँ?
विनय-मैं माता के चरणों की कसम खाकर कहता हूँ, मैं इसे गुप्त रख्रूगा। मैं केवल एक बार सोफिया से मिलना चाहता हूँ।
इंद्रदत्ता-काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती।
विनय-इंद्र, मैं जीवनपर्यंत तुम्हारा उपकार मानूँगा।
इंद्रदत्ता-जी नहीं, बिल्ली बख्शे, मुरगा बाँड़ा ही अच्छा।
विनय-मुझसे जो कसम चाहे, ले लो।
इंद्रदत्ता-जिस बात के बतलाने का मुझे अधिकार नहीं, उसे बतलाने के लिए आप मुझसे व्यर्थ आग्रह कर रहे हैं।
विनय-तुम पाषाण-हृदय हो।
इंद्रदत्ता-मैं उससे भी कठोर हूँ। मुझे जितना चाहिए, कोस लीजिए, पर सोफी के विषय में मुझसे कुछ न पूछिए।
नायकराम-हाँ भैया, बस यही टेक चली जाए; मरदों का यही काम है। दो टूक कह दिया कि जानते हैं, लेकिन बतलाएँगे नहीं, चाहे किसी को भला लगे या बुरा।
इंद्रदत्ता-अब तो कलई खुल गई न? क्यों कुँवर साहब महाराज, अब तो बढ़-बढ़कर बातें न करोगे?
विनय-इंद्रदत्ता, जले पर नमक न छिड़को। जो बात पूछता हूँ, बतला दो; नहीं तो मेरी जान को रोना पड़ेगा। तुम्हारी जितनी खुशामद कर रहा हूँ, उतनी आज तक किसी की नहीं की थी; पर तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं होता।
इंद्रदत्ता-मैं एक बार कह चुका कि मुझे जिस बात के बतलाने का अधिकार नहीं वह किसी तरह न बताऊँगा। बस, इस विषय में तुम्हारा आग्रह करना व्यर्थ है। यह लो, अपनी राह जाता हूँ। तुम्हें जहाँ जाना हो, जाओ!
नायकराम-सेठजी, भागो मत, मिस साहब का पता बताए बिना न जाने पाओगे।
इंद्रदत्ता-क्या जबरदस्ती पूछोगे?
नायकराम-हाँ, जबरदस्ती पूछूँगा। बाम्हन होकर तुमसे भिक्षा माँग रहा हूँ और तुम इनकार करते हो, इसी पर धर्मात्मा, सेवक, चाकर बनते हो! यह समझ लो बाम्हन भीख लिए बिना द्वार से नहीं जाता; नहीं पाता, तो धरना देकर बैठ जाता है, और फिर ले ही कर उठता है।
इंद्रदत्ता-मुझसे ये पंडई चालें न चलो, समझे! ऐसे भीख देनेवाले कोई और होंगे।
नायकराम-क्यों बाप-दादों का नाम डुबाते हो भैया? कहता हूँ, यह भीख दिए बिना अब तुम्हारा गला नहीं छूट सकता।
यह कहते हुए नायकराम चट जमीन पर बैठ गए, इंद्रदत्ता के दोनों पैर पकड़ लिए, उन पर अपना सिर रख दिया और बोले-अब तुम्हारा जो धरम हो, वह करो। मैं मूरख हूँ, गँवार हूँ, पर बाम्हन हूँ। तुम सामरथी पुरुष हो। जैसा उचित समझो, करो।
इंद्रदत्ता अब भी न पसीजे, अपने पैरों को छुड़ाकर चले जाने की चेष्टा की, पर उनके मुख से स्पष्ट विदित हो रहा था कि इस समय बडे असमंजस में पडे हुए हैं, और इस दीनता की उपेक्षा करते हुए अत्यंत लज्जित हैं। वह बलिष्ठ पुरुष थे, स्वयंसेवकों में कोई उनका-सा दीर्घकाय युवक न था। नायकराम अभी कमजोर थे। निकट था कि इंद्रदत्ता अपने पैरों को छुड़ाकर निकल जाएँ कि नायकराम ने विनय से कहा-भैया,खड़े क्या देखते हो? पकड़ लो इनके पाँव, देखूँ, यह कैसे नहीं बताते।
विनयसिंह कोई स्वार्थ सिध्द करने के लिए खुशामद करना भी अनुचित समझते थे, पाँव पर गिरने की बात ही क्या। किसी संत-महात्मा के सामने दीन भाव प्रकट करने से उन्हें संकोच न था, अगर उससे हार्दिक श्रध्दा हो। केवल अपना काम निकालने के लिए उन्होंने सिर झुकाना सीखा ही न था। पर जब उन्होंने नायकराम को इंद्रदत्ता के पैरों पर गिरते देखा, तो आत्मसम्मान के लिए कोई स्थान न रहा। सोचा,जब मेरी खातिर नायकराम ब्राह्मण होकर यह अपमान सहन कर रहा है, तो मेरा दूर खड़े शान की लेना मुनासिब नहीं। यद्यपि एक क्षण पहले इंद्रदत्ता से उन्होंने अविनय-पूर्ण बातें की थीं और उनकी चिरौरी करते हुए लज्जा आती थी, पर सोफी का समाचार भी इसके सिवा अन्य किसी उपाय से मिलता हुआ नहीं नजर आता था। उन्होंने आत्म-सम्मान को भी सोफी पर समर्पण कर दिया। मेरे पास यही एक चीज है, जिस मैंने अभी तक तेरे हाथों में न दिया था। आज वह भी तेरे हवाले करता हूँ। आत्मा अब भी सिर न झुकाना चाहती थी, पर कमर झुक गई। एक पल में उनक हाथ इंद्रदत्ता के पैरों के पास पहुँचे। इंद्रदत्ता ने तुरंत पैर खींच लिए और विनय को उठाने की चेष्टा करते हुए बोले-विनय, यह क्या अनर्थ करते हो, हैं, हैं!
विनय की दशा उस सेवक की-सी थी, जिसे उसके स्वामी ने थूककर चाटने का दंड दिया हो। अपनी अधोगति पर रोना आ गया।
नायकराम ने इंद्रदत्ता से कहा-भैया, मुझे भिच्छुकर समझकर दुतकार सकते थे; लेकिन अब कहो।
इंद्रदत्ता संकोच में पड़कर बोले-विनय, क्यों मुझे इतना लज्जित कर रहे हो! मैं वचन दे चुका हूँ कि किसी से यह भेद न बताऊँगा।
नायकराम-तुमसे कोई जबरदस्ती तो नहीं कर रहा है। जो अपना धरम समझो, वह करो, तुम आप बुध्दिमान हो।
इंद्रदत्ता ने खिन्न होकर कहा-जबरदस्ती नहीं, तो और क्या है! गरज बावली होती है, पर आज मालूम हुआ कि वह अंधी भी होती है। विनय, व्यर्थ ही अपनी आत्मा पर यह अन्याय कर रहे हो। भले आदमी, क्या आत्मगौरव भी घोलकर पी गए? तुम्हें उचित था कि प्राण देकर भी आत्मा की रक्षा करते। अब तुम्हें ज्ञात हुआ होगा कि स्वार्थ-कामना मनुष्य को कितना पतित कर देती है। मैं जानता हूँ, एक वर्ष पहले सारा संसार मिलकर भी तुम्हारा सिर न झुका सकता था, आज तुम्हारा यह नैतिक पतन हो रहा है! अब उठो, मुझे पाप में न डुबाओ।
विनय को इतना क्रोध आया कि इसके पैरों को खींच लूँ और छाती पर चढ़ बैठूँ। दुष्ट इस दशा में भी डंक मारने से बाज नहीं आता। पर यह विचार करके कि अब तो जो कुछ होना था, हो चुका, ग्लानि-भाव से बोले-इंद्रदत्ता, तुम मुझे जितना पामर समझते हो, उतना नहीं हूँ; पर सोफी के लिए मैं सब कुछ कर सकता हूँ। मेरा आत्म-सम्मान, मेरी बुध्दि, मेरा पौरुष, मेरा धर्म सब कुछ प्रेम के हवन-कुंड में स्वाहा हो गया। अगर तुम्हें अब भी मुझ पर दया न आए, तो मेरी कमर से पिस्तौल निकालकर एक निशाने से काम तमाम कर दो।
यह कहते-कहते विनय की आँखों में आँसू भर आए। इंद्रदत्ता ने उन्हें उठाकर कंठ से लगा लिया और करुण भाव से बोले-विनय, क्षमा करो, यद्यपि तुमने जाति का अहित किया है, पर मैं जानता हूँ कि तुमने वही किया, जो कदाचित् उस स्थिति में मैं या कोई भी अन्य प्राणी करता। मुझे तुम्हारा तिरस्कार करने का अधिकार नहीं। तुमने अगर प्रेम के लिए आत्ममर्यादा को तिलांजलि दे दी, तो मैं भी मैत्री और सौजन्य के लिए अपने वचन से विमुख हो जाऊँगा। जो तुम चाहते हो, वह मैं बता दूँगा। पर इससे तुम्हें कोई लाभ न होगा; क्योंकि मिस सोफिया की दृष्टि में तुम गिर गए हो, उसे अब तुम्हारे नाम से घृणा होती है। उससे मिलकर तुम्हें दु:ख होगा।
नायकराम-भैया, तुम अपनी-सी कर दो, मिस साहब को मनाना-जनाना इनका काम है। आसिक लोग बड़े चलते-पुरजे होते हैं, छँटे हुए सोहदे, देखने ही को सीधो होते हैं। मासूक को चुटकी बजाते अपना कर लेते हैं। जरा आँखों में पानी भरकर देखा, और मासूक पानी हुआ।
इंद्रदत्ता-मिस सोफिया मुझे कभी क्षमा न करेंगी; लेकिन अब उनका-सा हृदय कहाँ से लाऊँ। हाँ, एक बात बतला दो। इसका उत्तार पाए बिना मैं कुछ न बता सकूँगा।
विनय-पूछो।
इंद्रदत्ता-तुम्हें वहाँ अकेले जाना पड़ेगा। वचन दो कि खुफिया पुलिस का कोई आदमी साथ न रहेगा।
विनय-इससे तुम निश्चिंत रहो।
इंद्रदत्ता-अगर तुम पुलिस के साथ गए, तो सोफिया की लाश के सिवा और कुछ न पाओगे।
विनय-मैं ऐसी मूर्खता करूँगा ही क्यों!
इंद्रदत्ता-यह समझ लो कि मैं सोफी का पता बताकर उन लोगों के प्राण तुम्हारे हाथों में रखे देता हूँ, जिनकी खोज में तुमने दाना-पानी हराम कर रखा है।
नायकराम-भैया, चाहे अपनी जान निकल जाए, उन पर कोई रेप न आने पाएगा। लेकिन यह भी बता दो कि वहाँ हम लोगों की जान का जोखम तो नहीं है?
इंद्रदत्ता-(विनय से) अगर वे लोग तुमसे बैर साधना चाहते, तो अब तक तुम लोग जीते न रहते। रियासत की समस्त शक्ति भी तुम्हारी रक्षा न कर सकती। उन लोगों को तुम्हारी एक-एक बात की खबर मिलती रहती है। यह समझ लो कि तुम्हारी जान उनकी मुट्ठी में है। उतने प्रजा-द्रोह के बाद अगर तुम अभी जिंदा हो, तो यह मिस सोफिया की कृपा है। अगर मिस सोफिया की तुमसे मिलने की इच्छा होती, तो इससे ज्यादा आसान कोई काम न था, लेकिन उनकी तो यह हालत है कि तुम्हारे नाम ही से चिढ़ती हैं। अगर अब भी उनसे मिलने की अभिलाषा हो, तो मेरे साथ आओ।
विनयसिंह को अपनी विचार-परिवर्तक शक्ति पर विश्वास था। इसकी उन्हें लेशमात्र भी शंका न थी कि सोफी मुझसे बातचीत न करेगी। हाँ,खेद इस बात का था कि मैंने सोफी ही के लिए अधिकारियों को जो सहायता दी, उसका परिणाम यह हुआ। काश, मुझे पहले ही मालूम हो जाता कि सोफी मेरी नीति को पसंद नहीं करती, वह मित्रों के हाथ में है और सुखी है, तो मैं यह अनीति करता ही क्यों? मुझे प्रजा से कोई बैर तो था नहीं। सोफी पर भी तो इसकी कुछ-न-कुछ जिम्मेवारी है। वह मेरी मनोवृत्तिायों को जानती थी। क्या वह एक पत्र भेजकर मुझे अपनी स्थिति की सूचना न दे सकती थी! जब उसने ऐसा नहीं किया, तो उसे अब मुझ पर त्यौरियाँ चढ़ाने का क्या अधिकार है?
यह सोचते वह इंद्रदत्ता के पीछे-पीछे चलने लगे। भूख-प्यास हवा हो गई।

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