राणा सलीम सिंह (कहानी) : ज़ाहिदा हिना

Rana Saleem Singh (Story in Hindi) : Zahida Hina

आज वो मुझे बे-हिसाब याद आया।

मैं उस वक़्त टेलीविज़न और प्रेस कैमरों की तेज़ रोशनी में नहाया हुआ था और एक आर्ट गैलरी के दरवाज़े पर बंधे हुए सुर्ख़ फीते को काट चुका था। मैंने हाल में दूसरे मुतअद्दिद लोगों के साथ क़दम रखा तो सफ़ेद दीवारों पर आवेज़ां रोग़नी तस्वीरों से फूटती हुई रंगों की ताज़ी ख़ुशबू के साथ उसकी याद एक तूफ़ानी लहर की तरह आई और मुझे शराबोर करती हुई निकल गई। मैं इस लम्हे हुजूम में तन्हा और सिर्फ़ उस के साथ था शायद इसलिए कि उससे पहली मुलाक़ात के बाद में ताज़ा रंगों की ख़ुशबू और उसकी याद कभी एक दूसरे से यूं जड़े हुए थे जैसे एक ही कोख से निकले हों। एक ही शाख़ से फूटे हों।

ये वो बातें हैं जिन्हें मैं अपने आपसे करते हुए भी डरता हूँ। कोई नादीदा हाथ अगर उसके और मेरे ताल्लुक़ को मेरी कानफ़िडेंशियल रिपोर्ट (Confidential Report) में लिख दे तो मैं मातूब ठहरूं। भला कहीं दुश्मन भी दोस्त बनाए जाते हैं? लोग बनाते होंगे, हम नहीं बनाते।

वहशत मेरे अंदर भंवर डालने लगती है। मैं इधर उधर निगाह डालता हूँ। मेरी स्टडी के फ़र्श पर दीवार ता दीवार सफ़ेद क़ालीन है जिस पर किरमान शाही ग़ालीचे बिछे हैं। ये ग़ालीचे मैंने जंग ज़दा काबुल के कूचा मुर्ग़ां की एक तंग और नीम तारीक दुकान से ख़रीदे थे। मैं गाव तकियों से टेक लगाए बैठा हूँ, सामने बर्फ़ की डलियों से भरी हुई चांदी की बाल्टी है, शराब है, भुने हुए नमकीन काजू और बादाम हैं, सिंके हुए गोश्त के पारचे हैं। नज़र उस से आगे जाती है तो टीक वुड (Teak Wood) की दीवारगीर अलमारियां हैं। उनके पीछे वो सेफ है जिसमें डालर और पौंड की गड्डियां हैं। दूसरी क़ीमती अश्या हैं। इस की बनाई हुई 'बनी ठनी' है जिसे मैं शदीद ख़्वाहिश के बावजूद अपने घर की किसी दीवार पर आवेज़ां करने की हिम्मत न कर सका। ये उन अलमारियों का बातिन है और उनके ज़ाहिर में क़ीमती किताबें सजी हुई हैं। दुनियाभर से जमा किए हुए नवादिरात हैं, सबसे ऊपर किसी ख़त्तात का एक शाहकार है और तुम अपने रब की किन किन नेअमतों को झुटलाओगे। मेरी निगाहें अलमारी के इस ताक़चे तक आई हैं जिसमें महात्मा बुध का वह मुजस्समा है जिसे Fasting Buddha के नाम से याद किया जाता है। त्याग और तपस्या ने कपिल वस्तु शहज़ादे का बदन घुला दिया है, गिनी जा सकती हैं। पेट पीठ से जा लगा है उसकी धंसी हुई और पथराई हुई आँखों से मुझे डर लगता है। मैं घबरा कर किसी और शय को देखने लगता हूँ। उसकी आँखें भी मेरे वजूद को हर्फ़ हर्फ़ पढ़ती थीं और मुझे उसकी आँखों से भी डर लगता था फिर भी दिल उसकी तरफ़ खिंचता था।

वो रंगों की ख़ुशबू थी जिसने कई बरस पहले मुझ पर हुजूम किया था और मैंने चौंक कर अपने बराबर आ बैठने वाले को देखा था। उसने आते ही व्हिस्की सावर का आर्डर दिया था और दोनों कुहनियाँ काउंटर पर लगा कर दिलचस्पी से बारमैन को गिलास में व्हिस्की, लीमूँ के अर्क़ और शक्कर को आमेज़ करते हुए देखता रहा था। उसका एक हाथ मुझे नज़र आरहा था। बालों से ढका हुआ मज़बूत हाथ जो उसके निस्फ़ रुख़्सार और बालों पर रखा हुआ था। मैंने ग़ौर से उसके नाख़ुनों को देखा था, उनके गोशों में रंग सोते थे।

चंद मिनट बाद व्हिस्की सावर उसके सामने आई तो उसने रक़म बारमैन के सामने रखी , पहली चुस्की लेकर गर्दन घुमाई और हम दोनों की नज़रें एक दूसरे से उलझ कर रह गईं।

अपनी तरफ़ के हैं आप? उसकी आवाज़ गहरी और मज़बूत थी और निगाहें आवाज़ से भी गहरी।

मैं भी यही सोच रहा हूँ आपके बारे में। मैं बेइख़्तियार मुस्कुरा दिया। यहां मेरे पास सब कुछ था लेकिन दोस्त न थे। जो हाज़िरबाश थे वो मुलाज़मतें करते थे और सिर्फ़ वीक ऐंड पर दस्तयाब होते थे। वो भी इसलिए कि मैं उन्हें मुफ़्त की शराब पिलाता, खाने खिलाता और उन्हें ज़रूरत पड़ती तो दस बीस पौंड उनकी जेब में डाल देता था।

इस शहर में आप शायद बहुत दिनों नहीं रहे?

सो तो है। लेकिन आपने कैसे अंदाज़ा लगाया? मैंने अपना गिलास उठा कर एक घूँट भरा।

ये जितने भी ज़ालिम शहर हैं।

ज़ालिम? मैंने उस की बात काट दी।

हाँ, में तमाम बड़े शहरों को ज़ालिम कहता हूँ। उनमें आदमी ज़्यादा दिन रह जाये तो इन्सान नहीं रहता, जज़ीरा बन जाता है, जिस्म का जज़ीरा। दूसरों से कटा हुआ। अपने बदन का, अपनी ख़्वाहिशों का क़ैदी। दूसरों से उसकी रूह का मुकालमा ख़त्म होजाता है।

वाह, जज़ीरे वाली बात ख़ूब कही आपने। मैंने बेसाख़्ता उसे दाद दी। उसके जुमलों में रोशन धूप की आसूदा कर देने वाली चमक थी।

और मैं ये सोच रहा हूँ कि इस वक़्त कुछ और मांगता तो वो भी मिल जाता। बड़ी शुभ घड़ी थी। उसका गेहुँवा रंग सरशारी से दमक रहा था।

मैं आपकी बात नहीं समझ सका। मैंने उसे ग़ौर से देखा।

अरे जनाब आप क्या समझेंगे। हुआ यूं कि जब मैं काम करते करते थक गया था तो उठकर कपड़े बदले और ये सोच कर बाहर निकला कि अपनी तरफ़ का कोई मिल जाये तो दो घड़ी उस से बातें कर लें। दूसरों की बोली बोलते बोलते जबड़े दुखने लगते हैं। जिस ज़बान में आप ख़्वाब न देखें, इश्क़ न करें, गाली न दें और ठोकर खा कर जिसमें हाय न कहें, उसे आप कब तक बोलेंगे? और अगर बोलते भी रहे तो मन के भीतर से कोई मोती कहाँ पाएँगे।

आप तो बड़े मज़े की बातें करते हैं। मैं फड़क उठा। मैं अब जिन लोगों में रहता था उनमें से कोई भी ऐसी बातें नहीं करता था। ये भूला बिसरा लहजा था, बड़ी दूर से आने वाली आवाज़ें थीं।

अजी हम यारों के यार हैं। आप दो-घड़ी बात कर के तो देखें। वो तरंग में था।

लीजिए साहिब, हमने आज की रात आपके नाम लिखी। ऐसा कीजिए, ये गिलास ख़त्म करें, फिर मेरे साथ चलें। जी चाहे तो सारी रात बातें कीजिएगा। यूं भी कल हफ़्ता है। न कहीं पहुंचने की जल्दी और न कहीं जाने का मसला। मैं भी इसी के से बे तकल्लुफ़ाना लहजे में कहा। यूं भी यहां के बार मुझे पसंद ना थे। भूले-भटके मजबूरन कभी बैठ जाता था।

उसने बहुत गहरी नज़रों से मुझे देखा और चंद लम्हों तक ख़ामोशी से देखता रहा। ज़रूर चलेंगे हम आपके साथ। लेकिन ये तो बताएं कि चलेंगे कहाँ?

इससे आपको क्या ग़रज़ मैं कहाँ लिए चलता हूँ। आप का जी चाह रहा था कि कोई हम ज़बान मिल जाये। मैं भी तन्हाई से उकता कर बाहर निकला था। अब हम दोनों एक दूसरे को मिल ही गए हैं तो फिर ज़रा जम कर बातें हों।

बात तो आप ठीक कहते हैं। अभी चलता हूँ आपके साथ। लेकिन क्या ख़याल है अब जब कि हम यहां से इकट्ठे कहीं जा रहे हैं तो एक दूसरे का नाम न जान लें? बातें करने में ज़रा आसानी रहेगी। वो शरारत से मुस्कुराया और तब मुझे एहसास हुआ कि वाक़ई अभी तक हम दोनों एक दूसरे के नाम से नावाक़िफ़ हैं।

मुझे अहमद मसऊद कहते हैं। चंद महीनों के लिए किसी सरकारी काम से आया हुआ हूँ। मैंने गोल मोल बात की।

शायद पाकिस्तान से आए हैं?

जी हाँ, लेकिन हिन्दोस्तान से भी तो आसकता था। मैंने जवाबन सवाल किया।

हाँ, आतो सकते थे लेकिन वहां के सरकारी अफ़्सर इतनी टीप टाप से नहीं रहते। उसने सर से पैर तक मुझे ग़ौर से देखते हुए कहा और लहज़ा भर के लिए मैं झुँझला गया। अजब बेधड़क आदमी था।

अरे भई, बुरा न मानिएगा मेरी बात का। मैं बस यूँही बेढब बोलता हूँ। उसने शायद मेरे चेहरे का बदलता हुआ रंग देख लिया था, और हाँ, मेरा नाम तो रह ही गया। जयपुर का रहने वाला हूँ। घर वाले और दोस्त सब ही मुझे शेखू कह कर बुलाते हैं। वैसे मेरा नाम सलीम है, राना सलीम सिंह।

आप ऐसे बाकमाल का नाम भी ऐसा ही होना चाहिए था। हिंदुस्तानियों और वो भी हिंदुओं से मेल-जोल के बारे में मुझे अपनी वज़ारत की हिदायतें याद आईं और मैंने उसके कान में पड़े हुए दर को देखा।

वो निगाहें पहचानता था, कहने लगा, मेरे कान में आप ये जो मुंद्री देख रहे हैं इसमें पड़ा हुआ ये मोती मन्नत का है। इसकी भी एक कहानी है। माता जी की शादी को कई बरस हो गए थे पर औलाद नहीं होती थी। जब वो हर साधू-संत, पीर-फ़क़ीर से मायूस हो गईं तो नंगे-पाँव, नंगे-सर हज़रत सलीम चिशती की दरगाह पहुंचीं। साहिब इधर उन्होंने मन्नत मांगी, इधर दस महीने बाद हम वारिद हो गए। माताजी ने तुरंत हमारा नाम सलीम सिंह रख दिया और सिर्फ़ उसी पर बस नहीं किया। समझीं कि वाक़ई उनके घर में शहज़ादा सलीम पैदा हो गया है, लीजिए साहिब वो हमें शेखू पुकारने लगीं। सो आज तक हम घर में और दोस्तों में शेखू हैं। इस दायरे से बाहर निकलें तो सलीम हैं।लेकिन कोई अनारकली हमसे मुहब्बत की सज़ा में दीवार में चुनवाई नहीं गई और मेहरुन्निसा की बात रहने दें कि उसे हासिल करने के लिए शेरअफ़गन का क़त्ल ज़रूरी है।

उसने एक ठाटदार क़हक़हा लगाया और उठ खड़ा हुआ। चलें साहिब, अब जहां चाहें चलें।

हम दोनों बाहर निकले तो चंद क़दम चलने के बाद मुझे एक टैक्सी नज़र आगई। मैंने उसे हाथ के इशारे से रोका।

अरे टैक्सी की क्या ज़रूरत है?

मैंने ड्राईवर को टरनहम ग्रीन का पता बताया तो उसने एहतिजाज किया।

अमां, भाई साहिब सामने ही हैमर स्मिथ(Hammersmith) का टयूब स्टेशन है। वहां से टयूब पकड़ते हैं तो दो स्टेशन बाद टरनहम ग्रीन है। ख़ैर, जैसे जनाब की मर्ज़ी। उसने टैक्सी में बैठते हुए कहा।

मेरा फ़्लैट वहां से वाक़ई ज़्यादा दूर नहीं था। बमुश्किल दस मिनट बाद मैं अपने इस फ़्लैट का दरवाज़ा खोल रहा था जिसकी लीज़ ख़त्म होने में अभी कई महीने बाक़ी थे।

मैंने उसे ले जा कर ड्राइंग रुम में बिठा दिया। आलीजाह, आलम-पनाह,यहां आराम से बैठें। सामने टेप रखे हैं। क्लासिकी, नीम क्लासिकी मौसीक़ी, ग़ज़ल, जो जी चाहे मुंतख़ब करें और सुनें। ख़ुद सोचिए कि जैसा सुकून यहां है, क्या वो किसी भी बार में मयस्सर आ सकता था? मैंने झुक कर उससे सवाल किया।

अजी साहिब जो आपकी राय वो पंचों की। किस की मजाल है कि आपकी बात न माने। उसने पुरसुकून लहजे में कहा और सोफ़े से उठकर ऑडियो कैसेटों को उलटने पलटने लगा। मैं किचन में गया, कैबिनेट से रॉयल सेलूट (Royal Solute) और कटी सार्क (Cutty Sark) की बोतलें निकाल कर ट्राली में रखीं। बर्फ़, चमकते हुए गिलास और तश्तरियों में कुछ नमकीन चीज़ें रखकर ट्राली धकेलता हुआ ड्राइंग रुम में आगया।

उसने जूते उतार कर एक तरफ़ डाल दिये थे और सोफ़े की बजाय क़ालीन पर आलती पालती मारे बैठा था। कमरे में सहगल की पुरसोज़ आवाज़ गूंज रही थी 'बालम आए बसो मोरे मन में।' वो आँखें बंद किए सहगल की आवाज़ में यूं मह्व था जैसे इबादत कर रहा हो। उसकी तक़लीद में मुझे भी क़ालीन पर बैठना पड़ा। जब उसने आँखें खोलीं तो मैंने उससे पूछा कि वो क्या पसंद करेगा, उसने कटी सार्क की तरफ़ इशारा किया और मैंने पैग बना कर उसके सामने रख दिया। उसने हाथ के इशारे से ट्विस्ट किया और फिर आवाज़ की लहरों पर बहने लगा। 'सावन आया तुम नहीं आए, कोयल कूकत बन में, बालम आए बसो मोरे मन में।' गीत ख़त्म हुआ तो उसने सर उठाया, आँखें खोल कर मुझे देखा और धीमे से मुस्कुराया। उस लम्हे मुझे यूं महसूस हुआ जैसे उनकी आँखें मुझे पढ़ने पर, मेरे अंदर तक उतर जाने पर क़ादिर हों। मैंने अपनी निगाहें झुका लीं।

अपने नाम के बारे में तो आपने बड़ी तफ़सील से बताया लेकिन ये न बताया कि आर्टिस्ट भी हैं आप। मैंने सोफ़े से टेक लगा कर बैठते हुए कहा।

अरे आप तो जादूगर मालूम होते हैं। नहीं जादूगर नहीं, ज्योतिष विद्या के माहिर लगते हैं। आख़िर आपको कैसे मालूम हुआ कि मैं तस्वीरें बनाता हूँ। उसने अपनी बड़ी और गहरी आँखों से मुझे देखा, उनमें वाक़ई हैरानी थी।

आप जब मेरे बराबर आकर बैठे हैं तो आप में से ताज़ा रंगों की ख़ुशबू आई थी और आपके नाख़ुन भी चुगु़ली खा रहे हैं।

उसने जल्दी से अपने नाख़ुनों पर एक नज़र डाली, अमां भाई साहिब, पाकिस्तान सरकार के लिए शर्लाक होम्ज़ वाला काम करते हैं क्या? उसने हंसकर कहा।

मैं चुप रहा तो वो भी चुप हो गया। चंद लम्हों बाद कहने लगा, आप जिस बार में बैठे थे मैं उसके क़रीब हैमर स्मिथ में रहता हूँ, रीवर साईड स्टूडियो (Riverside Studio) के नज़दीक, किसी रोज़ मेरी तरफ़ आएं तो मैं आपको अपनी बनाई हुई तस्वीरें दिखाऊँ। कुछ दिनों में मेरी Exhibition भी होने वाली है, रीवर साईड स्टूडियो की गैलरी में।

वन मैन शो है। चंद महीनों बाद होगा, आप ज़रूर आईएगा।

हाँ, अगर उस वक़्त तक मैं लंदन में रहा तो ज़रूर आऊँगा। लेकिन इससे पहले भी उनके दर्शन करूँगा। मैंने उसे ज़रा ग़ौर से देखा।

लेकिन मेरी तस्वीरें देखकर शायद आपको लुत्फ़ न आए। मेरी तस्वीरों के थीम बड़े कड़वे हैं। उसने एक बड़ा घूँट लेते हुए कहा। अचानक उसकी पेशानी पर सलवटें उभर आई थीं और लहजा संजीदा हो गया था।

ज़िंदगी इतनी कड़वी तो नहीं शहज़ादे।

ये ज़िंदगी को देखने का हर आदमी का अपना ढब होता है जो उसे कड़वा या मीठा बना देता है। पहले के आर्टिस्टों की तस्वीरों में कड़वाहट अव्वल तो कम होती थी और अगर होती तो मिठास भी साथ होती थी। बदसूरती उनके हाँ हुस्न के साये में होती थी। लेकिन हमारे ज़माने में तो मिठास जैसे ज़िंदगी की तह में कहीं बैठ गई है। उस का लहजा उदास था।

मैं ख़ामोशी से शराब में गलती हुई बर्फ़ की डलियों को देखता रहा। वो चंद लम्हे तक ख़ामोश रहा फिर अचानक बोल उठा, सत्रहवीं, अठारवीं, उन्नीसवीं सदी में बनाई जाने वाली तस्वीरें देखें। उस ज़माने के बड़े बड़े चित्रकार चर्च के लिए तस्वीरें बनाते थे या बादशाहों, शहज़ादों, उनकी महबूबाओं , उनके घरों और उनके शिकारी कुत्तों की तस्वीरें। मैदान-ए-जंग में हलाक होने वालों की लाशों पर खड़े, तनते हुए, फ़ातिह हुक्मराँ उनका मौज़ू होते थे। वो जो कुछ भी बनाते थे उस का मुआवज़ा उन्हें मज़हब का इदारा अदा करता था या बादशाहत का। कुछ रक़म और सरपरस्ती उन्हें फ्यूडल लार्डज़ (Feudal Lords) से मिल जाती थी। उनका कमिटमैंट (Commitment) सिर्फ़ अपने फ़न से था। ये तो बीसवीं सदी है जिसने कवि को, अदीब और चित्रकार को बराह-ए-रास्त जनता से जोड़ दिया । अब उसके सामने दो रास्ते होते हैं, या जनता के साथ जा कर खड़ा हो जाये या इस्टैब्लिशमेंट से नाता जोड़े। पहले का आदमी रास्तों के इंतिख़ाब के मरहले से नहीं गुज़रता था जिस तरह अब हम गुज़रते हैं। इसी लिए हमारी ज़िम्मेदारी भी बड़ी है और हमारे अज़ाब भी बहुत हैं।

मैं जानता था कि वो सच कह रहा है। मेरे अपने ड्राइंग रुम में एक बहुत मशहूर मुसव्विर ने हमारे हर मार्शल ला ऐडमिनिस्ट्रेटर, सदर और वज़ीर-ए-आज़म की तस्वीर बनाई थी और इसीलिए उसके मर्तबे बहुत बुलंद थे। वो सरकारी महकमों के लिए, सफ़ीरों और सिफ़ारतख़ानों के लिए तस्वीरें पेंट करता था। उनका मुआवज़ा इसे लाखों में मिलता था। अब वो महज़ हुक्म की तामील करता था। तख़्लीक़ करना भूल चुका था। आप लाखों में खेल रहे होँ, सारी दुनिया का सफ़र कर रहे हों तो तख़्लीक़ और तख़य्युल के झंझट में क्यों पड़ें? ये राना सलीम सिंह अभी दुनिया को नहीं समझा था, मेरी तरह जब दुनिया उसकी समझ में आजाएगी तो ये ख़ुद ही सुधर जाएगा। मैंने अपने आपसे कहा।

अच्छा अब तुम अपना पैग बनाओ और एक मेरे लिए भी। हम दोनों के ही गिलास ख़ाली हो गए थे और मैं अब आपसे तुम पर उतर आया था, वो अभी इसी लहर बहर में था जिसमें अक्सर नौजवान होते हैं, आदर्श की बातें और दुनिया और दुनिया को बदलने के ख़्वाब। कभी मेरी आँखें भी ये ख़्वाब देखती थीं।

उसने पैग बना कर मेरे सामने रख दिया।

मियां घूँट भरो और ग़म भूलाओ। इसमें उदास होने की ज़रा भी ज़रूरत नहीं। मैंने उसे दिलासा दिया।

मैं इसलिए उदास होता हूँ यार साहिब कि मेरा जी ख़ुश होने को चाहताहै। हुस्न को महसूस करने और मीठे रंगों से खांड के खिलौनों जैसी तस्वीरें बनाने को जी चाहता है। लेकिन मेरे इर्दगिर्द जो कुछ हो रहा है, जो कुछ हो गया है वो मुझे ज़िंदगी को किसी और तरह देखने पर मजबूर करता है। मैंने उसकी आँखों के नम को देखा और यूं बन गया जैसे कुछ न देखा हो।

वो कुछ देर सर झुकाए बैठा रहा, फिर कहने लगा, पहले वाले आर्टिस्ट Nudes बनाते थे तो उसमें हुस्न, तवाज़ुन, तनासुब झलकता था। आज भी मास्टर्ज़ की बनाई हुई नयूडज़ के सामने खड़े हो तो कुछ देर बाद हवास धोका देने लगते हैं। उन तस्वीरों में से जीती-जागती औरत के बदन की ख़ुशबू उठने लगती है। लेकिन मैं ऐसी हसीन तस्वीरें कैसे बना सकता हूँ? कॉलेज में था तो रीलीफ़ वर्क के लिए बंगाल गया। वहां मैं हुस्न-ए-बंगाल के बजाय फ़ाक़ाज़दा औरतें देखीं जिनकी छातियां सूख कर पसलियों से चिपक गई थीं। यूनीवर्सिटी पहुंचा तो कम़्यूनल राईट्स में घरों के आंगनों में लेटी हुई नयूडज़ देखीं जिनकी खुली हुई आँखें आसमान को तकती थीं।

वो बोलता चला गया। कुछ देर पहले हंस रहा था, क़हक़हे लगा रहा था और अब यूं बैठा हुआ था जैसे देवता एटलस हो और दोनों शानों पर दुनिया उठाए हो।

इससे मिलने से पहले मुझे अपने आप पर नाज़ था कि मास्टर्ज़ की तस्वीरों के बारे में बहुत जानता हूँ लेकिन इससे मिलने के बाद मुझे अंदाज़ा हुआ कि मैंने बड़े मुसव्विरों और उनकी तस्वीरों के बारे में पढ़ा है, सरसरी तौर पर उन्हें आर्ट गैलरियों में देखा है। सलीम सिंह उन तस्वीरों की रूह में उतरा हुआ था। वो किस रवानी से बोलता था और किस सहूलत से अपनी बात बयान करता था। वो Guya से बेहद मुतास्सिर था। जंग, क़हत और इन्सानों पर होने वाले मज़ालिम ने गोया के फ़न पर जो असरात मुरत्तिब किए वो देर तक उनका ज़िक्र करता रहा। उसके ख़याल में गोया पहला बड़ा मुसव्विर था जिसने इन्सानी अज़ाबों की तस्वीरकशी की थी। जहन्नुम के सातवें तबक़े और जेलख़ानों में होने वाले शदाइद, फ़ातहीन के ख़िलाफ़ बग़ावत करने वालों का क़त्ल-ए-आम और भट्टी दहकाने और ग़ासिबों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए कारतूस बनाने वालों की तस्वीरें।

वो ब-तौर-ए-ख़ास उनका ज़िक्र करता रहा जो गोया के एलबम The Shadow of War का एक हिस्सा हैं। जेलख़ाने में इन्सान, इन्सान पर जो ज़ुल्म रवा रखता है गोया ने ये तस्वीरें उस बारे में बनाई थीं। ये तीन तस्वीरें जो बेड़ियों, हथकड़ियों और ज़ंजीरों में जकड़े हुए एक क़ैदी की तस्वीरें थीं, उस पर गुज़रने वाले सारे अज़ाबों को और इन्साफ़ करने वालों के इन्साफ़ को ज़ाहिर करती थीं। 'क़ैद इस क़दर वहशियाना है जिस क़दर कि जुर्म', किसी मुजरिम पर तशद्दुद क्यों..., अगर वो मुजरिम है तो उसे जल्द मर जाने दो। वो इन उनवानात वाली Ecohings पर बोलता रहा। फिर अचानक ख़ामोश हो गया।

क्यों भई। शेखू बाबा तुम चुप क्यों हो गए? ख़ामोशी तूल खींचने लगी तो मैंने हंस कर पूछा। कमरे की फ़िज़ा बोझल हो गई थी और में एक अर्से से इतनी बोझल बातों का आदी नहीं रहा था।

मुझे अब अपना रनवास याद आने लगा। उस का लहजा शराब से भीगा हुआ था।

रनवास? मैंने उसे हैरत से देखा।

हाँ जान-ए-आलम...रनवास...जहां रानियां रहती हैं, जिसे तुम हरम कहते हो, जी चाहे परिस्तान कह लो। वो मुझे आँख मार कर हंसा।

रनवास के मअनी मैं जानता हूँ, इतनी उर्दू या हिन्दी मुझे भी आती है। मैं बुरा मान गया।

उसकी सुर्ख़ आँखें मेरे अंदर सफ़र कर रही थीं।

कैसे शराबी हो यार साहिब, बोतल वाली अंदर उतरे तो सीना धो देती है, सारी खोट-कपट-कीना काट देती है।

उसने अपना ख़ाली गिलास उठाया और मेरी आँखों के सामने लहराया। ये जब मेरे अंदर सफ़र करती है तो मुझे अपनी रानियां, अपनी परियाँ याद आने लगती हैं। अब मैं जाऊँगा, वो रूठ गई होंगी तो उन्हें मनाऊँगा। सब्ज़ परी, नीलम परी, लाल और बसंती परी।

वो दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और उसने अपने दाएं हाथ को यूं लहराया जैसे उसके हाथ में ब्रश हो और वो उससे रंग बिखेर रहा हो।

मैं उसके साथ सड़क तक आया। मैं उसे टैक्सी में बिठा कर घर भेजना चाहता था लेकिन उसने मेरी एक न मानी और हल्की फुवार में भीगता हुआ इतना बरसा टूट के बादल, डूब चला मयख़ाना भी, गुनगुनाता हुआ चलता चला गया।

मैं उस वक़्त तक फुवार में भीगता रहा जब तक वो गली का मोड़ मुड़ कर मेरी निगाहों से ओझल न हो गया। ये मैं था जो गुनगुनाता हुआ जा रहा था। ये मैं जो बोझल क़दमों से अपने फ़्लैट में वापस आया और ऐश ट्रे के नीचे रखे हुए काग़ज़ के उस पुर्जे़ को उठा कर देखता रहा जिस पर उसने अपना पता लिखा था। ये मेरा पता था। उस अहमद मसऊद का पता जिसका हाथ मेरे हाथ से बरसों पहले छूट गया था। उसकी याद तो मुझे न जाने कब से नहीं आई थी और अब जब कि वो अपनी झलक दिखा कर चला गया था तो मेरे दिल पर आरे चल रहे थे।

मैं पीता रहा, बरसों का ग़ुबार धोता रहा अपने आपसे बिछड़ जाने वाले अहमद मसऊद को याद करता रहा जो फ़िराक़ गोरखपुरी का शागिर्द था और उन जैसा, मजनूं गोरखपुरी और एहतिशाम हुसैन जैसा उस्ताद बनना चाहता था। लेकिन मुलाज़मतें अनक़ा का पर हो चुकी थीं। तब अहमद मसऊद ने इलाहाबाद छोड़ा, लक्ष्मण रेखा पार की और कोविंदा का रुख़ किया जहां जानेवाले कभी वापस नहीं आते। वो जो उस्ताद बनने के सफ़र पर निकला था दुनिया उससे उस्तादी कर गई। उसने एक कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया लेकिन फ़िराक़ गोरखपुरी और एहतिशाम हुसैन लक्ष्मण रेखा के उधर रह गए थे। ख़्वाहिशें भटके हुए परिंदों की तरह अहमद मसऊद के वजूद की मुंडेर पर उतरीं और फिर उन्होंने उस के सारे बदन में बसेरा कर लिया। उसके बातिन में सोई हुई दुनिया जाग गई और चुपके चुपके पांव फैलाने लगी। अहमद मसऊद ख़ुद सिमटता गया, सिकुड़ता गया। दुनिया को और उसकी ख़्वाहिशों को जगह देता गया। फिर वो सिमटते सिमटते बदन के दाएं हाथ में रहने लगा। मुक़ाबले के इम्तिहान में कामयाब होने के बाद जिस रोज़ मैंने कॉलेज के प्रिंसिपल के नाम स्तीफ़ा लिखा तो मैंने देखा कि मेरा माँ जाया, मेरा यार-ए-जानी अहमद मसऊद किसी साये की तरह मेरी अंगुश्त-ए-शहादत से निकला और ख़्वाहिशों और दुनिया की हमसाईगी से आज़ाद हो गया।

वही अहमद मसऊद अब राना सलीम सिंह के क़ालिब में रहता था। शायद किसी और बदन में भी रहता हो। लेकिन मेरा तो बरसों बाद उससे आमना सामना हुआ था। तभी तो उस अजनबी आश्ना से मिलकर मैं बेक़रार हो गया था। वो अपने रनवास में चला गया था, तस्वीरों और परीयों की सभा सजाने लेकिन मैं किसी हुजरा-ए-ज़ात का रुख़ नहीं कर सकता था। मैं अपने बटुवे में भरे हुए मलिका की तस्वीर वाले नोटों से कोई महंगी किताब ख़रीद कर पढ़ सकता था। उसके ज़िक्र से अपने कम हैसियत मिलने वालों पर रोब डाल सकता था। लेकिन अदब या फ़लसफ़ा या शायरी के इसरार अब मुझ पर नहीं खुलते थे। बा हया कुंवारियां अपने बंद-ए-क़बा किसी अजनबी के लिए कब और कहाँ खोलती हैं।

उस रात में पीता ही चला गया और मेरे कानों में उसकी आवाज़ गूँजती रही। मुझे कई बार उसकी आवाज़ पर अपनी खोई हुई आवाज़ का शुबहा हुआ। बाहर बारिश हो रही थी और कभी कभी बारिश जब बहुत ज़्यादा हो तो पुरानी क़ब्रें खुल जाती हैं और बरसों पहले दफ़न कर दी जाने वाली लाशों के ढाँचे बाहर आने की कोशिश करने लगते हैं। लेकिन समझदार लोग फ़ौरन ही उन ढाँचों को बेलचों से क़ब्रों में धकेल देते हैं और उन पर ताज़ा मिट्टी डाल देते हैं। उन क़ब्रों को पत्थरों से भर देते हैं। उस रात मैंने भी सलीम सिंह की बातों के बहाव से खुल जाने वाली एक क़ब्र से झाँकने वाले अपने ढाँचे को अंदर धकेला और उस पर याद-ए-फ़रामोशी की भुरभुरी रेत डाल दी।

मैं कई दिन तक उसकी याद को ज़ह्न के मुर्दाख़ाने में धकेलता रहा, ख़ुद को समझाता रहा कि उससे मिलने की मुझे कोई ज़रूरत नहीं। किसी राना सलीम सिंह का मुझसे भला क्या इलाक़ा? मैं जिस शोबे से ताल्लुक़ रखता था उसमें उसे लोगों से मुलाक़ातें नापसंदीदा ठहरती हैं। लेकिन उसमें कोई ऐसी बात थी जो दूसरों में न थी।

और फिर एक शाम मैं न चाहने के बावजूद उसके फ़्लैट की घंटी बजा रहा था। दरवाज़ा खुला तो रंगों से लिथड़े हुए करते पाजामे में वो सामने खड़ा था। हाथ में ब्रश था मुझे देखते ही वो खिल उठा।

अरे वाह, तो आप आगए। मैं रोज़ ही आपकी राह देखता था। उसकी बेसाख़्तगी में कैसी मिठास, कैसा सोंधापन था। मुझे हाईस्कूल के सामने से ख़रीदी हुई गज़क याद आने लगी। सोंधी और मीठी मुँह में घुलती हुई, नशे में लाती हुई, वो नशा तो अब महंगी शराबों से भी मयस्सर नहीं आता था।

मैं अंदर दाख़िल हुआ। ये एक बड़ा कमरा था, बेतर्तीब, ताज़ा रंगों की ख़ुशबू दरोदीवार से फूटती हुई। कई कैनवस दीवारों पर आवेज़ां थे, कई दीवार से टिका कर रख दिए गए थे। एक कैनवस ऐज़ल पर था और अधूरा था। वो शायद उसी पर काम कर रहा था। फ़र्श पर, तिपाइयों पर, किताबों के ढेर थे। एक कोने में एक ज़ंगआलूद हावनदस्ता रखा था। शीशे के मर्तबान थे जिनमें से फूल और जुड़ी बूटीयां झांक रही थी किसी अत्तार की दुकान का मंज़र था।

मैंने उसे देखा तो वो गर्दन ख़म किए हुए मुझे देख रहा था और होंटों पर हल्की सी मुस्कुराहट थी। ये सब कुछ देखकर परेशान हो गए हैं आप, लेकिन बस यही मेरा रनवास, मेरा परिसतान है। इंतिज़ार कीजिए कि किसी भी लम्हे अचानक कोई परी नमूदार हो जाये और ये आवाज़ लगाए कि मामूर हूँ शोख़ी से शरारत से भरी हूँ, धानी मेरी पोशाक है मैं सब्ज़परी हूँ।

मेरे ख़याल में इसके बाद उसे ये ऐलान भी करना चाहिए कि 'शहज़ादा गुलफ़ाम की सूरत पे मरी हूँ। मैंने उसकी बात पर गिरह लगाई।

मेरे जुमले पर उसने क़हक़हा लगाया और कमरे में बिछे हुए वाहिद दीवान पर से रिसाले और किताबें उठा कर फ़र्श पर रखने लगा। आप आराम से यहां बैठ जाएं, मैं अभी आया। गैलरी का दरवारा खोल कर वो मेरी निगाहों से ओझल हो गया।

मुझे लक्ष्मण रेखा पार करने से पहले के दिन याद आए। उन दिनों मेरा कमरा भी इतना ही बेतर्तीब होता था। फ़र्क़ था तो सिर्फ़ इतना कि उसमें तस्वीरों की बजाय किताबें थीं। किसी कोने में कुरते का गोला पड़ा हुआ है। दुलाई फ़र्श पर लोट रही है। पलंग की अदवाइन कसने की फ़ुर्सत नहीं सो वो झिलँगा हो गई है। एक तिपाई पर अब्बा का ग्रामोफोन रखा है जिस पर सुबह शाम कोई एक रिकार्ड उस वक़्त तक बजाया जाता है जब तक कि वो घिस कर ख़त्म न हो जाए। एक ही रिकार्ड न बजाएँ तो क्या करें कि गिरह में दूसरा ख़रीदने का दम नहीं। 'खींचो कमान, मॉरो जी बाण, रुत है जवान, अदमोरे प्राण, मॉरो जी बाण। मेरे बदन पर अरमानी(Armani) का सूट था, क़मीस ऑस्टन रेड की और ओवर कोट बरबरी (Burberry) का था। मेरी समझ में नहीं आरहा था कि कहाँ बैठूँ जो सूट पर धब्बे न लगें और क़मीस के कफ़ दाग़दार न हों। ओवर कोट किस चीज़ पर लटकाऊं कि वो गर्द आलूद न हो। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ाई तो मुझे अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं आया। एक तिपाई पर ग्रामोफोन रखा था। मैंने जैसे ख़्वाब में अपना ओवरकोट उतार कर उसे एक कुर्सी की पुश्त पर डाल दिया और उस ग्रामोफोन के सामने जा खड़ा हुआ।

उसके आने की ख़बर मुझे तारपीन की तेज़ बू से हुई। मैं अपने हाथ धो रहा था। उसके हाथ पर से रंग उतर गए थे लेकिन तारपीन के सफ़ेद धब्बे नज़र आरहे थे।

मेरे ख़याल में थोड़ी सी दारू चले, तब ही दिलों पर जमी हुई बर्फ़ पिघलेगी। उसने कहा और किचन से एक बोतल और दो गिलास ले आया। फिर किसी कोने से उसने चिप्स का एक पैकेट निकाला और उसे खोल कर मेरे सामने रख दिया। वो जब गिलास में शराब उंडेल रहा था तो मैं सोच रहा था कि ये शख़्स जो इतने बे ढंगेपन से यहां रहता है, मेरे आरास्ता फ़्लैट में आकर यूं बैठ गया था जैसे आसाइश की ज़िंदगी उसका रोज़मर्रा हो। मुझे पहले उस पर रश्क आया, फिर हसद हुआ। फिर किसी ने मुझसे कान में पूछा कहीं अपने आपसे भी हसद करते हैं? कभी अपने आप पर भी किसी को रश्क आता है?

घूँट भरते हुए मेरी नज़र ग्रामोफोन का तवाफ़ करने लगी।

कुछ सुनेंगे आप? उसने पूछा।

ये चलता है? मैंने उस की तरफ़ देखा।

अरे यार साहिब, ऐसा वैसा चलता है? वन हंड्रेड परसेंट चलता है। उसने दीवान के नीचे से एक रिकार्ड केस निकाला और उसमें रखे हुए रिकार्ड उलटने पलटने लगा। फिर एक रिकार्ड उठा कर वो ग्रामोफोन तक गया, सुई बदली, चाबी भरी और फिर वो आवाज़ दरोदीवार पर फैल गई, 'खींचो कमान मॉरो जी बाण मॉरो जी बाण।'

मेरे सीने पर तीर सा लगा और मेरे हाथ में थमा हुआ गिलास लरज़ गया। ये कमरा था कि जादू नगरी? ये शख़्स था कि मेरी भूली-बिसरी यादों को पढ़ने वाला? ये वो था कि मैं था? ये मैं था कि वो था?

सामने उसकी एक पेंटिग थी। उसमें समुंदर था, तह में सब्ज़ और नीला, सतह पर सफ़ेद झाग पर आसमान की नीलगूनी का अक्स थरथरा रहा था। पलटती हुई लहरों की सब्ज़ी माइल नीलगूनी में से कई शिकारी कुत्ते निकल रहे थे और समुंदर की लहरों पर पर दौड़ते हुए उस एक बगुले का तआक़ुब कर रहे थे जो उनके खुले हुए नोकीले जबड़ों और राल गिराती हुई सुर्ख़ ज़बानों से कुछ ही ऊपर उड़ रहा था। तस्वीर में समुंदर और कुत्ते दोनों ही इस ख़ूबी से पेंट किए गए थे कि देखकर कुत्तों की साँसों की गर्मी महसूस होती थी और भंवर डालता हुआ पानी इस क़दर ज़िंदा था कि उसमें हाथ डुबोने को जी चाहता था।

तुम तो समुंदर का एक टुकड़ा चुरा कर ले आए हो और उसे कैनवस पर रख दिया है।

अजी हम तो आँखों से सुर्मा और पसलियों से दिल चुरा लाते हैं, ये समुंदर क्या चीज़ है। उसकी हंसी कैसी बेरिया, कैसी ठाटदार थी।

लेकिन राना जी, सुर्मे वाली कहीं नज़र तो नहीं आरही। अपने लहजे की शरारत मुझे ख़ुद अजनबी लगी।

ज़रा छुरी तले दम तो लो यार साहिब, सुर्मे वाली सरकार भी आजाएगी, फिर आपको उससे मीर की ग़ज़लें और मीरा के भजन सुनवाऊँगा। शोला सा लपक जाये है आवाज़ तो देखो। उसकी ज़बान से फूल झड़ रहे थे। वो आपसे तुम पर उतर आया था।

माशा अल्लाह...क्या बामहावरा उर्दू बोलते हो। मैंने घूँट भरकर उसे देखा।

मैंने मौलवी साहब से सिर्फ़ हिन्दी और उर्दू ही नहीं, फ़ारसी भी पढ़ी है। तख़्ती लिखी है। कहिए तो करीमा बह बख़्शिए बरहाल मा सुनाऊँ, या शाहनामे के अशआर सुनेंगे? वो मुस्कुराता रहा और मैं सोचता रहा कि मैंने हिन्दी क्यों भुला दी। हिन्दी, हिंदवी, हिन्दुस्तानी, अमीर ख़ुसरो इस झंझट में पड़े बग़ैर सात सौ बरस पहले कह गए थे, सखी पिया को जो मैं ना देखूं तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ, न आप आवे न भेजें पतियाँ। अब लक्ष्मण रेखा के उस पार से ख़त भी नहीं आते थे। ख़ून के तमाम रिश्ते बताशे की तरह बैठ गए थे और मुश्तर्क तहज़ीब की सीता को सियासत का रावण उठा ले गया था।

मेरे फ़्लैट पर सरकारी और दरबारी दोनों ही क़बीलों के लोगों का आना-जाना लगा रहता था। सलीम सिंह उन लोगों को मेरे यहां वक़्त बे वक़्त नज़र आता तो सरगोशियाँ शुरू हो जातीं और सरगोशियाँ सवाल उठाती हैं। मेरे उलझे हुए मुआमलात मुझे इसकी इजाज़त न देते थे लेकिन उससे पहली मुलाक़ात के बाद से दिल बे-इख़्तियार उससे मिलने की ख़्वाहिश करता। इसी लिए सलीम सिंह को बुलाने की बजाय मैं ख़ुद उसके यहां चला जाता। मैं कभी किसी औरत का भी यूं असीर नहीं हुआ था, आसमान को छूती हुई उस सीढ़ी का भी नहीं जो मेरी बीवी है और एक अफ़्सर आला की बेटी है। सीढ़ियाँ बुलंदियों तक पहुंचने के लिए होती हैं। उनकी हम पूजा नहीं करते।

सलीम सिंह के दर पर मैं बेक़रारी और बेताबी से जाता था। इसलिए नहीं कि मैं उससे मिलना चाहता था। मैं वहां अपनी तलाश में जाता था, वो भी मुझसे यूं मिलता जैसे सदियों का बिछड़ा यार मिल रहा हो। दूसरी तीसरी मुलाक़ात में ही वो मुझे 'सवाई साहिब' कहने लगा था। जयपुर के राजा जय सिंह का वो ख़िताब जो उसे औरंगज़ेब के दरबार से मिला था। कछवाहा राज को दूसरे तमाम राजपूत राजों से एक चौथाई ज़्यादा मानने का ऐलान। वहां पहुंच कर मुझे महसूस होता कि चंद घंटों के लिए ही सही में किसी देव की क़ैद से आज़ाद हो गया हूँ, वो जो ज़िंदानी हों वही जानते हैं कि चंद घंटों की रिहाई भी क्या मानी रखती है। मैं उससे वो बातें करता जिन्हें में कब का भूला चुका था। उन नामों को सुनता जिनका नाम लेते हुए कभी मेरी आँखें भीग जाती थीं। वो किस तरह इतरा कर ख़ुसरो, मीर, कबीर का नाम लेता, तुलसी दास की चौपाईयां और ग़ालिब की ग़ज़लें सुनाता, तानसेन और बिसमिल्लाह ख़ान, कौन था जो उसका नहीं था। ताजमहल और अजंता एलोरा उसका विर्सा थे, राजा दहलू की बसाई हुई दिल्ली उसकी थी और कंपनी बहादुर का आबाद किया हुआ कलकत्ता भी तर्के में उसे मिला था। सितम तो ये था कि बटवारे के नतीजे में शहीद भी तक़सीम हो गए थे। भगत सिंह और दादा अशफ़ाक़, झांसी की रानी और हज़रत महल भी उसी के हिस्से में आई थीं। मेरे दोनों हाथ ख़ाली रह गए थे। एक रात उससे बातें करते हुए मुझे बहुत से लोग बहुत से शहर और बहुत सी इमारतें याद आईं, उस रात मैं उसके सामने रो दिया।

यार यह तो बड़ी बेईमानी है। तूने मुझसे सब कुछ छीन लिया। अपनी टूटी हुई आवाज़ सुनकर मेरा गिर्ये और भी ज़्यादा हो गया। उसने नशे से भीगी हुई आँखें उठा कर मुझे देखा और देखता रहा। फिर उसने एक गहरा सांस लिया।

तुम तारीख़ का केक खाना भी चाहते हो, उसे रखा भी चाहते हो। इतिहास तो धरती से जुड़ा होता है। हम जब धरती से नाता तोड़ लें तो इतिहास से नाता ख़ुद ही टूट जाता है।

मैंने सर झुका लिया था, नशे में भी मुझे ये याद रहा था कि मैं उस से शिकायत का हक़ नहीं रखता।

जयपुर उसके पोर पोर में रचा हुआ था। एक दिन तरंग में था सब कुछ भूल कर अमीर जयपुर की बातें करता चला गया।

जिनने जयपुर नहीं देखा सवाई साहिब, उनने कुछ नहीं देखा, कुछ भी नहीं। जानो कि ज़िंदगी अकारत गई। उसने अफ़सोस से सर हिलाया। सवाई साहिब, अपनी ज़िंदगी के कुछ दिन मुझे दे दो , मेरे साथ जयपुर चलो, देखो कि राजपूतों और मुग़लों की रिश्तेदारियां आज भी हमारे शहरों और बाज़ारों मैं किस तरह झलकती हैं। मुग़ल बादशाह और शहज़ादे हमारी गोदों में खेले हैं। हमने उन पर से जानें वारी हैं। सामोगढ़ में हारते हुए दारा के गिर्द हम राजपूतों ने घेरा डाला था। अपनी गर्दनें कटादी थीं, पर पीठ नहीं दिखाई थी।

उसकी आवाज़ भर्रा गई और वो वहीं फ़र्श पर लेट गया। मैंने देखा, उसकी आँखों के गोशे नम हो गए थे, वो माज़ी और हाल में ब-यक वक़्त ज़िंदा रहता था। सांस लेता था। कुछ देर ख़ामोशी रही फिर वो तड़प कर उठ बैठा।

अजी महाबली अकबर, हम कच्छवाहा राजपूतों के बहनोई थे और शहज़ादा सलीम को चांदी की कटोरी में दूध तय्यारा हमने खिलाया था। हम उनके मामूं, वो हमरे भांजे। फिर वो गुनगुनाने लगा। 'मांगे है जो धाजी का राज लल्ला जी का ताल न छुवाए।'

वो ये बातें करते हुए कभी रोता, कभी हँसता रहा। माज़ी और हाल को यूं गड-मड करता रहा कि मैं भी उसके साथ ज़मीं बोस हो जाने वाली महल सराओं में फिरता रहा।

कुछ जानते भी हो सवाई साहिब, शहज़ादा सलीम हमारी मान बाई को ब्याहने गया तो दुल्हन की पालकी महाबली और शहज़ादा सलीम अपने कंधों पर उठा कर राजा भगवान दास के महल से बाहर लाए थे और महाबली ने राजा से कहा था, तुम्हारी रे बेटी, तुम्हारे महलों की रानी, तुम साहिब सरदारे...उसने अपने दोनों हाथों से अपने कानों की लौ छुईं और 'हे राम' का नारा लगाया।

मियां सलीम सिंह तुम अगर पच्चीस-तीस बरस पहले मुझे मिले होते तो मैं कहता कि अपना ये काम-धाम छोड़ की बंबई चले जाओ और के.आसिफ़ के यहां भर्ती हो जाओ। उन्होंने भी 'मुग़ल-ए-आज़म' बनाते हुए मुग़लों और राजपूतों की माला इस तरह नहीं जपी है। मैंने उसे आँखें दिखाईं।

वो मुझे कुछ देर देखता रहा फिर उदासी से मुस्कुराया, मैं ये बातें किसी और से नहीं करता सिर्फ़ तुमसे करता हूँ सवाई साहिब, दूसरे तो मुझे सौदाई समझेंगे।

मैं भी तुम्हें कुछ कम सौदाई नहीं समझता।

वाह क्या नाम रखा जा सकता है। राना सलीम सौदाई जयपुरी। उसने गिलास में शराब उंडेलते हुए ज़ोरदार क़हक़हा लगाया।

इस नाम से तो मैं कुल हिंद मुशायरा पढ़ सकता हूँ।

और ग़ज़लें कहाँ से आयेंगी?

अजी ग़ज़लों का क्या है, डेढ़ दो सौ बरस पहले प्राण त्यागने वाले किसी भी कायस्थ कवि का कलाम आख़िर किसी के काम तो आए।

हम दोनों इस तरह बेतुकी बातें करते। शायद यही कथारसस का एक तरीक़ा था। कभी मेरा जी चाहता कि सर पीट कर उस कमरे से निकल जाऊं जिसमें खरल गए हुए ज़ाफ़रान की, हावन दस्ते में कुटी जाने वाली जड़ी बूटियों और फूलों की, तारपीन के तेल और ख़ुदा जाने किन किन चीज़ों की ख़ुशबू थी। मुझे इलाहाबाद के अत्तारख़ाने याद आते।

और मियां मुग़लों के मामूं साहिब, हम लंदन में बैठे हैं। कभी पिकाडली और ऑक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट का रुख़ करो, कभी तो टावर आफ़ लेंदी या बकिंघम पैलेस का भी दीदार करने चलो। एक रोज़ मैंने झुँझला कर कहा था।

कैसी बातें करते हो सवाई साहिब? हमारे ख़ज़ाने, हमारा इतिहास, हमारे दर्शन झरोके और हमारी चौखटें तक तो लूट लाए ये लोग और हम जा कर अपनी ही चीज़ों को देखने के लिए टिकट ख़रीदें, पौंड ख़र्च करें और गोरे डाकूओं का लूटा हुआ माल देखें? नहीं सवाई साहिब ये नहीं होने का।

जब ये सब कुछ नहीं देखना तो फिर यहां लंदन में क्यों बैठे हो? जाओ और जाकर जयपुर में धूनी रमाओ। मैंने उस पर चोट की।

मेरी ये बात सुनते ही उसका नशा हिरन हो गया। वो बैठा सर हिलाता रहा, फिर उसने अपनी मधमाती आँखों से मुझे देखा, घर कैसे जाऊं? पिता जी खांडे से चौरंग काटेंगे।

पिता जी क्यों खांडे से चौरंग काटेंगे? क्या डाका डाल के भागे हो? मैंने पूछा।

यार वो अपने जिगरी दोस्त की बेटी से मेरे फेरे कराने के चक्कर में हैं। मैं वहां से ये कह कर रफ़ू चक्कर हुआ हूँ कि लंदन में मेरी नुमाइश है, उससे निमट कर मैं तुरंत आया। वो एक अदा से हंसा।

और अब कितने दिनों से लंदन में हो?

यही कोई छः एक महीने हो गए।

लेकिन इस तरह कब तक यहां रहोगे?

ये न पूछो। माता जी ने डाक और फ़ोन से मेरा नाक में दम कर रखा है। मैं हर मर्तबा उन्हें कोई नया झांसा दे देता हूँ।

अबे गाओदी, कब तक नया झांसा देते रहोगे? मैंने उसे आँखें दिखाईं। उनसे साफ़ इनकार क्यों नहीं कर देते?

उसने आँखें निकाल कर मुझे देखा, अपने अल्लाह-रसूल का शुक्र अदा करो कि जिसने तुम्हें एक राजपूत बाप के घर नहीं पैदा किया।

तो अब क्या करने का इरादा है?

वो मुझे तो बस बनी ठनी का इंतिज़ार है, उसने अपने दाँतों की नुमाइश की।

बनी ठनी? भई ये किस बला का नाम है?

सच कहते हो सवाई साहिब, वाक़ई क़हर है, बला है। उसने एक ठंडा सांस लिया।

उस रोज़ वो देर तक मीरा सेन की बातें करता रहा जिसे वो लाड से बनी ठनी कहता था।

उसे देखकर तुम भी यही कहोगे कि उसपर ये नाम सजता है। ऐसा सिंघार पटार करती है कि बस देखते रहो। मीरा सेन का नाम बनी ठनी उसने राजा सावंत सिंह के दरबार के निहाल चंद की बनाई हुई एक तस्वीर से देखकर रखा था। निहाल चंद अपने अह्द का सबसे मशहूर चित्रकार था। उसने राधा और कृष्ण की कहानी रंगों और ब्रश से काग़ज़ पर उतारी थी। कृष्ण उसने राजा सावंत को बनाया था और राधा का चेहरा बनाते हुए राजा की चहेती महबूबा बनी ठनी को सामने रखा था।

मैंने नबी ठनी का पोर्ट्रेट देखा है। तुम यक़ीन करो सवाई साहिब, यूं दिखाई देता है जैसे मीरा का ही अक्स है। उसने बड़ी राज़दारी से मुझे बताया था।

मीरा थेटर की दुनिया से वाबस्ता थी, बंगाल की रहने वाली, गाने और नाचने में ताक़। पहली ही मुलाक़ात में राना सलीम सिंह का दिल ले गई थी। लेकिन सलीम सिंह के पिताजी के लिए ये नाक कटा देने वाली बात थी कि उनकी इकलौती भांजी के बजाय उनका मन्नतों मुरादों का बेटा एक बंगालन से शादी कर ले। मरने मारने पर तैयार थे। अपना खांडा लहरा कर बंगालियों के ख़िलाफ़ भाषण देते और ये साबित करते कि न उन्होंने बंगाल में अंग्रेज़ों को पांव टिकाने दिये होते न हिन्दोस्तान ग़ुलाम होता।

अब वो बात बे बात पर बनी ठनी का तज़किरा करता। ज़ालिम है बंगाल लेकिन आँखें बिल्कुल जोधपुरी हैं। वैसी ही कटार सी। उसने राज़दारी से मुझे बताया।

मुझे हंसी आगई। यार जोधपुरी कोट तो देखा, सुना और पहना था, लेकिन ये जोधपुरी आँखें किस खूँटी पर लटकाई जाती हैं? उसने डपट कर कहा, चुप और अपने ऐज़ल पर झुक गया।

ये वो लम्हा था जिसने मुझे हिन्दुस्तानी मुसव्विरी के रम्ज़ सिखाये। उसने मुझे बताया कि हिन्दुस्तानी मौसीक़ी के घरानों की तरह मुसव्विरी के भी घराने हैं। जयपुर घराना, किशन गढ़, बूंदी और कोटा घराना...मैंने उसे पिसते से सब्ज़, ज़ाफ़रान से नारंजी, हड़ से ज़र्द और नील से नीला रंग कशीद करते देखा। उसके कमरे में तरह तरह की सब्ज़ियां, फूल, पेड़ों की छालें और शाख़ें नज़र आतीं। कभी वो रेत को कपड़े से छानता दिखाई देता और कभी सियाह रंग के लिए अपने फराइंगपैन का पेन्दा खुरच कर उसकी कालिक इकट्ठा करता नज़र आता। सुर्ख़रंग के लिए शीशे के एक मर्तबान में उसने क़िरमज़ी कीड़े महफ़ूज़ कर रखते थे। खरल, बारीक मलमल, तरह तरह की बारीक मोटी छलनियां, हावनदस्ता का कबाड़ख़ाना इकट्ठा कर रखा था राना सलीम सिंह ने।

मैंने पहली मर्तबा जब उसे इस बखेड़े में उलझे हुए देखा तो हैरान रह गया था। तुम लंदन में बैठे हो राना जी, जहां दुनिया के बेहतरीन रंग मिलते हैं। दुनिया भर के मुसव्विर यहां से रंग ख़रीदने आते हैं और तुम यहां बैठे किसी वेद जी की तरह ख़ुदा जाने किन जड़ी बूटियों को पीसते-कूटते रहते हो। मैंने भन्ना कर कहा था। मैं कल तुम्हारे लिए एक ग्राइंडर ले आऊँगा।

वो मेरी ये बात सुनते ही कमर पर दोनों हाथ रखकर खड़ा हो गया और उसने मुझे घूर कर देखा। जी हाँ, आप ग्राइंडर ले आएँगे, बड़ी कृपा आपकी। ये एहसान मत कीजिएगा मुझ पर। कूटने और खरल करने से रंग ही अलग निकलता है, उस में हाथ और बाज़ू का ज़ोर भी शामिल होता है। अब अगर मोती खरल करना हो तो हफ़्तों लगते हैं उसमें। लेकिन उसका उजाला, उसका रूपहलापन सारे बने-बनाए रंगों से जुदा होता है।

भई, तुम तो जाने किसी सदी की बात करते हो...तुम्हारी ये बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। मैंने बेज़ारी से कहा।

हम राजपूत रंगों से खेलते हैं और अपने रंग हम चीज़ों से ख़ुद निचोड़ते हैं। हमारे लिए ज़िंदगी, मौत सब रंगों का खेल है। जान देने जाते हैं तो केसरी बाना पहनते हैं। हमारी औरतें जौहर करती हैं तो नारंजी आग ओढ़ लेती हैं। हमें ज़िंदगी करते देखना चाहो तो हमारी लड़कियों की चुन्दरियां, चूड़ियां और चोलियां देखो, गहरे रंगों से रंगे हुए हमारे शहर और गांव देखो। वो बोलता चला गया।

तो फिर तुम्हारी तस्वीरें इतनी कड़वी और दिल दहला देने वाली क्यों हैं? मैंने उसकी बनाई हुई इन ताज़ा तस्वीरों की तरफ़ इशारा किया था जो दीवार से टेक लगाए खड़ी थीं और जिनके रंग अभी ख़ुश्क नहीं हुए थे।

उपनिषद में कहा गया है सवाई साहिब कि सबसे पहले सिर्फ़ पानी था, उस पानी ने सच को, सच ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने प्रजापति और प्रजापति ने देवताओं को पैदा किया और देवता सच की पूजा करते हैं। अब तुम जानो कि मैं ठहरा नास्तिक, में ब्रह्मा, प्रजापति और देवताओं के बारे में कोई जानकारी नहीं रखता, लेकिन मैं पानी को जानता हूँ और मानता हूँ जिसने सच को पैदा किया। मैं इसी सच की लकीरों से, उसके रंगों से अपनी तस्वीरें बनाता हूँ।

शदीद इंतिज़ार के बाद मीरा सेन आ पहुंची। सलीम सिंह उसे बनी ठनी कहता था तो क्या ग़लत कहता था। मैंने उसे देखा तो देखता रह गया। वो पहला दिन था जब मुझे राना सलीम सिंह पर रश्क नहीं आया, उस से हसद हुआ। इस बनी ठनी की आँखें वाक़ई जोधपुरी कटार थीं कि दिल को काटती चली जाएं। उसे देखकर मुझे एक भूला बिसरा गीत याद आया 'बन्ने सहरा जो बांधें तुझे हूर परियाँ, जिनके लाँबे लाँबे केस, रसीली अंखियां।' ससुराल की दहलीज़ पर पहला क़दम रखते ही ये बोल मेरे कानों में पड़े थे, आवाज़ गज्जन बेगम की थी जो बहुत नाज़, बहुत अदा से गा रही थीं। 'जिनके लाँबे लाँबे केस, रसीली अंखियां।'

मीरा पर नज़र पड़ी तो मुझे बेसाख़्ता गज्जन बेगम के गाये हुए ये बोल याद आए। घने घनेरे बाल आबशार की तरह कमर से बहुत नीचे गिरते हुए और आँखें रसीली मध से भरी। हम हीथ्रो एयरपोर्ट पर थे जहां आने वालों और रुख़्सत होने वालों के लिए गले मिलना, होंट चूमना एक रोज़मर्रा था। लेकिन उन दोनों की आँखों में ऐसी हया थी कि मैंने निगाहें झुका लीं। वो एक दूसरे के साथ यूं चल रहे थे जैसे सैंकड़ों निगाहों के हिसार में हों और हिम्मत न रखते हों कि एक दूसरे को छू लें।

उस रात मैं कुछ देर उनके साथ रहा और फिर सलीम सिंह के इसरार के बावजूद उन्हें एक दूसरे के साथ छोड़ आया। उस रात मुझे नींद नहीं आई। राना सलीम सिंह ने मुझे हर मैदान में शिकस्त दी थी। मैं समझता था कि बर्र-ए-सग़ीर की सिर्फ़ तारीख़ और जुग़राफ़िया उसका है। लेकिन वो तो स्वयंबर में भी सबसे सुहानी शहानी जीत लाया था।मैं दो दिन उसकी तरफ़ नहीं गया लेकिन तीसरे दिन अपने दिल पर मेरा क़ाबू नहीं रहा। अब तक मैं अपने आपसे मिलने जाता था और अब मैं उस सुहानी को देखना चाहता था जो मेरी नहीं थी और कभी भी मेरी नहीं हो सकती थी।

मीरा क़ियामत नाचती थी और इससे बड़ी आफ़त उसकी आवाज़ थी। तान उड़ाती तो उसके गले की सब्ज़ रगें तांत की तरह तन जातीं। मीरा बाई के भजन सुनाती तो इबादत की, अगर और संदल की ख़ुशबू आती, मंदिर में कोई आरती उतारता रहता। राना जी ने विश का प्याला भेजा, प्याला देखकर मीरा हांसी रे। ये भजन मैंने उसे कश्ती में गाते सुना था और पानी में रौशनियों का, रात और रसीली आँखों का अक्स देखा था। उन रसीली आँखों का क़सीदा गज्जन बेगम की आवाज़ में पढ़ती रही थी। जिनके लाँबे लाँबे केस, रसीली आँखियाँ। हवा उसके बाल उड़ाती रही थी और उसकी आवाज़ पानी में आग लगाती रही थी। प्याला देख मीरा हांसी रे।

उसके बाद जो कुछ भी हुआ, वो रक़्स का आलम था। जिसमें हर जुंबिश इस तेज़ी से होती है कि वो अपनी तफ़सील में नहीं, अपने तास्सुर में याद रहती है। इसलिए कुछ बातें मुझे याद हैं, कुछ भूल बैठा हूँ।

सलीम सिंह की और मीरा की शादी पहले रजिस्ट्रेशन ऑफ़िस में हुई और फिर सलीम के एक दोस्त के घर फेरे हुए। घर औरतों और मर्दों से भरा हुआ था। साँवली सलोनी लड़कियों के रंगीन घाघरे, उनके ठुमके, उनके ज़ू मानी जुमले, एक लड़की राजस्थानी में कोई तेज़ तीखा गीत गा रही थी जिसका मतलब कुछ यूं था कि ए मूंछों वाले तू अब तो मेरा दिल ले गया। शराब बह रही थी। मैं उस महफ़िल में था और नहीं था। उन दोनों ने जब आग के गिर्द फेरे लगाए तो मैं उन्हें एक टक देखता रहा। सलीम सिंह की रेशमी शेरवानी उसका नारंजी साफ़ा, उसकी पिंडलियों में फंसा हुआ सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा और दूसरी तरफ़ वो थी जो सिर्फ़ रंग ही रंग थी। ख़ुशबू ही ख़ुशबू थी। ऐसे ही जोड़ों को देखकर बड़ी बूढ़ीयाँ कहती हैं कि चश्म-ए-बद दूर,चश्म-ए-बद दूर। मैं उन्हें हसरत से देखता रहा। ये मैं था, ये मैं नहीं था, वो मेरी थी वो मेरी नहीं थी। मैं शादी को तिजारत समझता था वो उसे इबादत जानता था। मेरी आँखों में आँसू आगए। मैं उस लड़के के लिए रो रहा था जो इलाहाबाद के एक छोटे से घर में खरी खाट पर लेट कर रात की तन्हाई में तारों से बातें करता था। हम कब अपना हाथ ख़ुद अपने हाथ से छुड़ा लेते हैं। हम कब अपने अंदर से निकल कर कहीं और चले जाते हैं।

फेरे पूरे हुए तो मैंने उसे बधाई दी, मीरा को दुआएं और एक मख़मली थैली दी और जल्दी से वहां से निकल आया। उस रात मैंने कोई टैक्सी नहीं रोकी। किसी टयूब स्टेशन का रुख़ नहीं किया। बस चलता रहा और सोचता रहा वो बातें जो उस रात के बाद में शायद कभी नहीं सोचीं।

वो दोनों एक दूसरे को पाने के सफ़र पर निकल गए। उन दोनों ने अपने दस्तख़तों से पैरिस, वीनस और रोम से मुझे पोस्टकार्ड भेजे जिन्हें देखकर, जिन्हें पढ़ कर मैं ख़ाक-ओ-ख़ाकस्तर होता रहा।

मीरा और सलीम वापस आए तो निहालों निहाल थे। एक दूसरे के रंग में रंगे हुए। सलीम सिंह में मुझे अपना अक्स नज़र आता था। मैं उससे मिलने के लिए बेक़रारी से जाता था जैसे कच्चे धागे से सरकार बंधे जाते हैं। लेकिन अब हम दोनों के दरमियान जुदाई पड़ गई थी।

पहली मुलाक़ात हुई तो सलीम सिंह ने मुझे बताया कि उसने अपनी शादी की तस्वीरें और मैरेज सर्टीफ़िकेट की कापी घर भेज दी थी और वहां से पैग़ाम आगया है कि अब वो कभी जयपुर का रुख़ न करे।

कुछ दिनों में तुम्हारे पिता जी का ग़ुस्सा यक़ीनन ठंडा हो जाएगा।

उसकी आवाज़ उदास थी। मेरे दिल पर माता जी का ख़याल आरे चलाता है। उन पर क्या गुज़री होगी।

ये बात तो तुम्हें पहले सोचना चाहिए थी। मैंने उसे याद दिलाया।

इस बनी ठनी के सामने कोई बात याद रह सकती है, उसने बेचारगी से मुझे देखा और लाजवाब कर दिया।

वो दोनों एक निस्बतन बड़े फ़्लैट में मुंतक़िल हो गए थे। सलीम सिंह की कई तस्वीरें बिक गई थीं और उसने घर के लिए बहुत सी चीज़ें ख़रीद ली थीं, लेकिन एक कमरे में वही बेतर्तीबी और बिखराव था जो सलीम के मिज़ाज का हिस्सा था। बाक़ी घर बनी ठनी का था, उसी तरह सजा सजाया। फिर मेरी उसकी चंद ही मुलाक़ातें हुईं। अब मैं उस के यहां जाते हुए झिजकता था। उन ही दिनों मालूम हुआ कि मीरा दो महीने के लिए वापस हिन्दोस्तान जा रही है। वहां कई शहरों में थेटर फेस्टिवल हो रहा था। मीरा अपने थेटर ग्रुप की फ़र्माइश पर न चाहते हुए भी जा रही थी।

उसके चले जाने के बाद भी हम दोनों की मुलाक़ातों में इज़ाफ़ा नहीं हुआ। वो संजीदगी से तस्वीरें बनाता रहा। मेरी वापसी के दिन क़रीब थे, सौ मैं अपना सामान समेटने और अपनी बीवी और उसके रिश्तेदारों की फ़रमाइशें पूरी करने में लगा रहा।

वो रात मुझे यूं याद है जैसे अभी की बात हो। उस रात मैं देर से घर पहुंचा तो सीढ़ियों पर सलीम सिंह को देखकर हैरान रह गया। वो नशे में डूबा हुआ था और रो रहाथा। मुझे देखकर वो मुझसे लिपट गया और कुछ कहने लगा, लेकिन मेरी समझ में कुछ न आया। मैं उसे अंदर ले गया। उसके सर पर पानी बहाता रहा। फिर मैंने उसे फ़्रेश लाइम का एक गिलास पिलाया। तब वो इस क़ाबिल हो सका कि मुझे कुछ बताए।

उसकी बात जब मेरी समझ में आई तो मैं भी रो रहा था। मीरा एक Accident में ख़त्म हो गई थी।

हम धुआँ सवाई साहिब, हम धुआँ। वो अपनी बात पूरी करके फिर चीख़ें मारने लगा।

बनी ठनी को भी मौत आसकती है? ये मुम्किन नहीं था। वो तो मीरा थी। राना जी ने विश का प्याला भेजा, प्याला देखकर मीरा हांसी रे और फिर सलीम सिंह की चीख़ों के साथ मेरी चीख़ें भी शामिल हो गईं। वो उसके लिए रो रहा था और जो पोर पोर उसकी थी और मेरे आँसू उसके लिए थे जो पल छन के लिए भी मेरी नहीं हुई थी।

वो रात किस तौर गुज़री, मुझे याद नहीं। याद है तो इतनी सी बात कि सलीम सिंह ने हिचकियों के दरमियान ये बताया कि मीरा जब रुख़्सत हुई है तो अकेली थी। वो माँ बनने वाली थी। उसका बच्चा उसके साथ था। मैंने और सलीम सिंह के दूसरे दोस्तों ने उसे समझाया कि कलकत्ता चला जाये। मीरा का भाई उसे कलकत्ता ले गया था। मीरा के अंतिम संस्कार में शरीक हो जाये। लेकिन उसकी नहीं हाँ में नहीं बदली थी।

मैंने उसे ज़िंदा देखा था, चाहा था, बरता था। अब उसे आग की चादर ओढ़ कर जलते हुए कैसे देखूं? अब उसकी आँखें आँसू से और उसकी आवाज़ किसी तास्सुर से ख़ाली थी।

मेरे जाने की घड़ी सर पर थी और चाहने के बावजूद मैं उस वक़्त सलीम सिंह के साथ नहीं गुज़ार सका था।

मैं उससे आख़िरी बार मिलने गया तो उसे देखकर दिल कट गया। वो जिसकी पोर पोर से ज़िंदगी फूटती थी, जिसकी आँखें हँसती थीं, जिसकी आवाज़ में फुलझड़ियाँ छूटती थीं, वो अब एक खन्डर था। रंग झुलस गया था आँखों के गिर्द हलक़े और आवाज़ में थकन।

मैं तुम्हारे साथ चलूं, उसने अचानक मुझसे पूछा। उसकी आँखें सवाली थीं।

मैं ख़ामोश रहा और मेरी ख़ामोशी ही मेरा जवाब थी।

उसने एक ठंडा सांस लिया। हाँ, ठीक है, सवाई साहिब, तुम अपनी राह जाओ हम अपनी राह लेंगे।

हमसे क्या मतलब है तुम्हारा? मैंने उसे टोका।

तीन के लिए तो हम ही कहा जाता है। उसने कुछ अजीब से लहजे में कहा था।

हम दोनों एक दूसरे से लिपटे तो ख़ासी देर तक लिपटे रहे। जाने वो क्या सोच रहा था और जाने मैं किन ख़यालों में गुम था। मुझे अब कुछ याद नहीं।

मैं चला आया। मुझे अपनी पैकिंग करनी थी, ज़्यादा सामान तो मैं दो दिन पहले ही एयर कार्गो सर्विस से भेज चुका था। इस वक़्त सुब्ह के शायद सात बजे थे जब मेरी आँख टेलीफ़ोन की घंटी से खुली। दूसरी तरफ़ से सलीम सिंह का एक दोस्त बोल रहा था।

ख़ैरियत तो है? मैं तड़प कर उठ बैठा और इस बात पर भी हैरान नहीं हुआ कि उसे मेरा नंबर कहाँ से मिला था।

आप फ़ौरन सलीम सिंह के फ़्लैट पर आजाऐं। उसने कहा और टैली फ़ोन बंद कर दिया।

मैं मुँह पर झपका मार कर और टैक्सी पकड़ कर उसके यहां पहुंचा। सड़क पर एम्बूलैंस और पुलिस की गाड़ियां देखकर मेरा दिल बैठ गया।

दरवाज़े के बाहर ही सलीम सिंह के कई दोस्त खड़े थे सब के चेहरे सुते हुए थे, आँखें सुर्ख़, एक ने मुझे अंदर जाने का इशारा किया। एक पुलिस वाले ने मुझे रोकना चाहा लेकिन तआरुफ़ कराने पर मुझे अंदर जाने की इजाज़त मिल गई।

वो अपने और मीरा के बिस्तर पर लेटा था। चेहरे पर सुकून और गहरी नींद थी। सफ़ेद लैस की चादर पर सुर्ख़ रंग के धब्बे थे, जो अब स्याही माइल हो गए थे। ये रंग उसकी कटी हुई कलाई से निकला था और चादर पर नक़्श-ओ-निगार बना गया था।

उसने कहा था कि हम राजपूत रंगों से खेलते हैं। उसने अपने वजूद से रंग की आख़िरी बूँद भी निचोड़ ली थी। मैं साकित सामित खड़ा अपने आपको देखता रहा। ये मैं था जो बिस्तर पर था, ये मैं था जो खड़ा हुआ था और ख़ुद को देख रहा था। मैं उसे छूने के लिए झुका तो पुलिस वाले ने मुझे रोक दिया। मैं फ़र्श पर बैठ गया। वो नंगे पैर था और उस के दोनों पैर मसहरी से कुछ नीचे लटके हुए थे। मैं उन पैरों को देखता रहा जिन्हें फेरे लगाने के बाद बनी ठनी ने झुक कर हाथ लगाया था। उसने जो कुछ भी किया था, मुझसे आख़िरी मुलाक़ात के बाद किया था। रात को अगर मैं उसे अपने साथ ले जाता, अगर मैं उस के साथ रह जाता, मैं उस के पैरों पर सर झुकाए सोचता रहा।

उसके लिए मेरी आँख से एक आँसू नहीं निकला। जब उसे करेमनोयम ले जाया गया तब भी नहीं। लेकिन जब उसके सिरहाने से मिलने वाली चंद सत्री वसीयत के मुताबिक़ बनी ठनी का पोर्ट्रेट मुझे दिया गया तो मैं धाड़ें मार कर रो दिया। वो पोर्ट्रेट मैंने अपने घर में नहीं लगाई है। उसे बहुत एहतियात से अपने सेफ़ में रख दिया है। मैं इन जोधपुरी आँखों को देखने की हिम्मत नहीं रखता। मैं इन रंगों को किस दिल से देखूं जिन्हें सलीम सिंह ने जाने किन फूलों, छालों और शाख़ों से कशीद किया था। नहीं वो उसकी नहीं मेरी बनाई हुई तस्वीर है। मैं इस तस्वीर को सबकी निगाहों से छिपाकर रखता हूँ और सलीम सिंह की याद भी मेरे अंदर कहीं रहती है। मैंने किसी से इसका ज़िक्र नहीं किया लेकिन मैं ताज़ा रंगों की ख़ुशबू से राना सलीम सिंह की याद कभी जुदा न करसका और कैसे जुदा करूँ कि जब उसकी याद आती तो मैं ख़ुद को याद करता हूँ, अपने ख़्वाब याद करता हूँ, फिर इन ख़्वाबों को शराब में डुबोने लगता हूँ।

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