राणा प्रताप : मुंशी प्रेमचंद
Rana Pratap : Munshi Premchand
राजस्थान के इतिहास का एक-एक पृष्ठ साहस, मर्दानगी और वीरोचित प्राणोत्सर्ग के कारनामो से जगमगा रहा है। बापा रावल, राणा सांगा, और राणा प्रताप ऐसे-ऐसे उज्ज्वल नाम हैं कि यद्यपि काल के प्रखर प्रवाह ने उन्हें धो बहाने में कोई कसर नहीं उठा रखी, फिर भी अभी तक जीवित हैं और सदा जीते तथा चमकते रहेंगे। इनमें से किसी ने भी राज्यों की नींव नहीं डाली, बड़ी बड़ी विजयें नहीं प्राप्त कीं, नये राष्ट्र नहीं निर्माण किये, पर इन पूज्य पुरुषों के हृदयों में वह ज्वाला जल रही थी जिसे स्वदेश-प्रेम कहते हैं। वह यह नहीं देख सकते थे कि कोई बाहरी आये और हमारे बराबर का होकर रहे। उन्होंने मुसीबतें उठाईं, जानें गँवाईं पर अपने देश पर कब्जा करनेवालों के कदम उखाड़ने की चिन्ता में सदा जलते-जुड़ते रहे। वह इस नरम विचार वा मध्यम वृत्ति के समर्थक न थे कि 'मैं भी रहूँ और तू भी रह।' उनके दावे ज्यादा मर्दानगी और बहादुरी के थे कि 'रहें तो हम रहें या हमारे जातिवाले, कोई दूसरी कौम हर्गिज़ कदम ने जमाने पाये।' उनकी कार्यावली इस योग्य है कि हमारे धार्मिक साहित्य का अंग बने। इस समय हम केवल राणा प्रताप का जीवनवृत्तान्त पाठकों को भेंट करते हैं। जो जब तक जीवित रहा, अकबरी दबदबे का सामना करता रहा। उस वक्त जब कोटा, जैसलमेर, अम्बर, मारवाड़ सभी देशों के नरेश दरबार अकबरी की जय मनानेवाले या उसके आश्रित बन चुके थे, यह वीरत्व-वन-केसरी, यह अध्यवसाय-नद का मगरमच्छ, यह दृढ़तापथ का पथिक अकेले दम पर उनकी सम्मिलित शक्ति का सामना करता रहा। पहाड़ों के दर्रों और पेड़ों के खोखलों में छिप-छिपकर उस अनमोल हीरे को दुश्मन के हाथ में पड़ने से बचाता रहा जिसको जातीय स्वाधीनता कहते हैं। जब मरा तो उसके पास अपनी वज्रघातिनी तलवार और थोड़े-से सच्चे साथियों के सिवा राजसिक वैभव का और कोई सामान न था, जितने मित्र और सहायक थे सब या तो सत्-धर्म का पालन करते हुए वीरगति प्राप्त कर चुके थे, या अकबरी इकबाल का दम भरने लगे थे, पर यह अकिंचन मृत्यु उस सुनहरे सिहासन पर तथा मित्र शुभचिन्तकों के उस जमघट में मरने से हजार दर्जे अच्छी है जो जाति की स्वाधीनता, आत्मा की दासता और देश के अपमान के बदले में मिले हों।
प्रताप उदयसिंह का बेटा और शेरदिल दादा सांगा का पोता था। राणा सांगा और बाबर के संग्राम इतिहास के पृष्ठो पर अंकित हैं, यद्यपि राणा की पराजय हुई, पर स्वदेश की रक्षा में अपना रक्त बहाकर उसने सदा के लिए अपना नाम उज्ज्वल कर लिया। उसका बेटा उदयसिंह बाप के वीरोचित गुणों का उत्तराधिकारी न था। कुछ दिनों तक तो वह चित्तौड़ को मुगलो के द्वारा पदाक्रांत होने से बचाता रहा, पर ज्यों ही अकबर के तेवर बदले देखे, शहर जगमल को सिपुर्द करके अरौली की पहाड़ियों में जा छिपा, और वहाँ एक नये नगर की नींव डाली जो आज तक उसके काल से उदयपुर मशहूर हैं। जगमल ने जिस वीरता से शत्रु का सामना किया, चित्तौड़ के सब वीर जिस तरह सिर हथेली पर रखकर दुश्मन को हटाने के लिए तैयार हुए, चित्तौड़ की सुकुमार ललनाओ ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जिस दृढ़ता से अग्निकुण्ड में कूदकर जल मरने को श्रेयस्कर समझा—यह बातें आज सबकी जबान पर हैं और ऐतिहासिकों की लेखनियाँ उनकी चर्चा में सदा आनन्द से थिरकती रहेंगी।
उधर भगोड़ा उदयसिंह अपने पहाड़ी किले में अपने साथियों सहित जीवन बिताता रहा। महाराणा प्रताप ने इन्हीं पहाड़ियों के बीच प्राकृतिक दृश्यों से शिक्षा पाई। शेरों से मर्दानगी का तो पहाड़ों से अपने संकल्प पर अटल रहने का पाठ पढ़ा। पिता की मृत्यु तक स्वच्छन्द विचरण और आखेट के सिवा उसे और कोई काम न था। हाँ, अपने राज्य की बर्बादी, अपने समकालीन हिन्दू नरेशों की भीरुता, मुगल बादशाहों के दबदबे, और मेवाड़ घराने के बहादुरी के कारनामो ने उसके आनेवाले और उत्साह भरे हृदय को टहोके देदेकर उभार रखा था। पिता के निधन के बाद जब वह गद्दी पर बैठा तो गौरवमय मेवाड़ राज्य का अस्तित्व केवल नाम के लिए रह गया था। न कोई राजधानी थी, न सेना, न कोष। साथी-सहायक बार-बार हार खाते-खाते और परेशानियाँ उठाते-उठाते हिम्मत हार बैठे थे। प्रताप ने आते ही उनके दबे हुए हौसलों को उभारा, सुलगती आग को दहकाया, और उन्हें चित्तौड़ की बर्बादी तथा रक्तपात का बदला लेने के लिए तैयार किया। उसका भाव भरा हृदय कब इस बात को सहन कर सकता था कि जो स्थान उसके कीर्तिशाली पूर्वपुरुषो का निवास-स्थल रहा, जिसके दरोदीवार उनके रत्न से रँगे हैं, और जिसकी रक्षा के लिए उन्होने अपने प्राणों की बलि दी हो वह दुश्मन के कब्जे में रहे। और उनके बेअदब पैरों से रौंदा जाय। उसने अपने साथियों, सरदारों और आनेवाली पीढ़ियों को कसम दिलाई कि जबतक चित्तौड़ पर तुम्हारा अधिकार न हो जाय तुम सुख-विलास से दूर रहो। तुम क्या मुँह लेकर सोने-चाँदी के बर्तनों में खाओगे, और मखमली गद्दों पर सोओगे, जब कि तुम्हारे बाप-दादों का देश शत्रुओ के अत्याचार से रोता-चिल्लाता रहेगा? तुम क्या मुँह लेकर आगे नगाड़े बजाते और अपनी (सिसोदिया) जाति का झंडा ऊँचा किये हुए निकलोगे जब कि वह स्थल जहाँ तुम्हारे बाप दादों की नालें गड़ी है और जो उनके कीर्तिकलापों को सजीव स्मारक है, शत्रु के पैरों से रौंदा जा रहा है। तुम क्षत्रिय हो, तुम्हारे खून में जोश है, तुम क़सम खाओ कि जब तक चितौड़ पर अधिकार न कर लोगे, हरे पत्तों पर खाओगे, बोरियों पर सोओगे और नगाड़ा सेना के पीछे रखोगे, क्योंकि तुम मातम कर रहे हो, और यह बातें तुमको सदा याद दिलाती रहेंगी कि तुमको एक बड़े जातीय कर्तव्य का पालन करना है।
राणा जब तक जीवित रहा, इन व्रतो का पालन करता रहा, उसके बाद उसके उत्तराधिकारी भी उनका पालन करते आये, और अब तक यह रस्म चली आती है, अन्तर यह है कि पहले इस रस्म का कुछ अर्थ था, अब वह बिल्कुल बेमानी हो गई है। विलासिता ने निकास की सूरतें निकाल ली है, तो भी जब सुनहरे बर्तनों में खाते है तो चंद पत्ते ऊपर से रख लेते हैं। मख़मली गद्दो पर सोते है तो इधर-उधर पयाल के टुकड़े फैला देते है।
राणा ने इतने ही पर सन्तोष न किया। उसने उदयपुर को छोड़ा और कुभलनेर को राजधानी बनाया। अनावश्यक और अनुचित खर्चे जो महज नाम और दिखावे के लिए किये जाते थे, बन्द कर दिये, जागीरो का फिर से नई शर्तों के अनुसार वितरण किया। मेवाड़ का वह सारा हल्का जहाँ शत्रु का प्रवेश संभव हो सकता था, और पर्वतप्राचीर के बाहर था, सपाट मैदान बना दिया गया। कुएँ पटवा दिये गये और सारी आबादी पहाड़ों के अन्दर बसा दी गई। सैकड़ों मील तक उजाड़ खण्ड हो गया और यह सब इसलिए कि अकबर इधर रुख करे तो उसे कर्बला के मैदान का सामना हो। उस उपजाऊ मैदान में अनाज के बदले लम्बी-लम्बी घास लहराने लगी, बबूल के काँटो से रास्ते बन्द हो गये और जंगली जानवरों ने उसे अपना घर बना लिया। परन्तु अकबर भी राज्यविस्तार-विद्या का आचार्य था। उसने राजपूतों की तलवार की काट देखी थी और खूब जानता था कि राजपूत जब अपनी जानें बेचते हैं तो सस्ती नहीं बेचते। इस शेर को छेड़ने से पहले उसने मारवाड़ के राजा मालदेव को मिलाया। आमेर की राजा भगवानदास और उसकी बहादुर बेटा मानसिंह दोनों पहले ही अकबर के बेटे बन चुके थे। दूसरे राजाओं ने जब देखा कि ऐसे-ऐसे प्रबल प्रतापी नरेश अपनी जान की खैर मना रहे हैं तो वह भी एक-एक करके शुभचिन्तक बन गये। इसमें कोई राणा का मामू था तो कोई फूफा। यहाँ तक कि उसका चचेरा भाई सागरजी भी उससे विमुख होकर अकबर से आ मिला था, ऐसी अवस्था में कोई आश्चर्य नहीं कि जब राणा ने अपने विरुद्ध मुग़ल सेना की जगह अपनी ही जाति के सूरमाओं और घोड़सवारों को आते देखा हो, अपने ही भाइयों, अपने ही सगे बन्धुओं को तलवार खीचकर सामनें खड़ा पाया हो, तो उसकी तलवार एक क्षण के लिए रुक गई हो, तनिक देर के लिए वह खुद ठिठक गया हो और महाराज युधिष्ठिर की तरह पुकार उठा हो—'क्या मैं अपने भाई-बंदो से लड़ने के लिए आया हूँ? इसमें संदेह नहीं कि इन भाई-बंदो से वह कितनी ही बार लड़ चुका था, राजस्थान का इतिहास ऐसे गृहयुद्वों से भरा पड़ा है, पर ये लड़ाइयाँ उन्हें एक दूसरे से बिलग नहीं करती थीं। दिन भर एक दूसरे के खून में भाले भिंगोने के बाद शाम को वह फिर मिल बैठते थे, और परस्पर प्रेमालिंगन करते थे, पर आज राणा को ऐसा मालूम हुआ कि ये भाई-बन्द मुझसे सदा के लिए बिछुड़ गये है, क्योंकि वह सच्चे राजपूत नहीं रह गये, उनकी बेटियाँ और बहनें अकबर के अन्तःपुर में दाखिल हो गई है। हा शोक! इन राजपूतों का राजपूती खून ऐसा ठंढा हो गया हैं। क्या राजपूती आन और जाति-अभिमान इनमें नाम को भी बाकी नहीं। हां! अपनी मान-प्रतिष्ठा की रक्षा का विचार क्या उनके मन से बिल्कुल ही उठ गया। शोक कि उन्ही राजपूत, ललनाओं की बहनें जो चित्तौड़ के घेरे के समय अपने सतीत्व की रक्षा के लिए 'जौहर' करके जल मरी थीं, आज अकबर के पहलू में बैठी है और प्रसन्न है। उनके म्यान से तेगा क्यों नहीं निकल पड़ता। उनके कलेजे क्यों नहीं फट जाते। उनकी आँखों से खून क्यों नहीं टपक पड़ता, हा हन्त! इक्ष्वाकु के वंश और पृथ्वीराज के कुल की यह दुर्दशा हो रही है!
प्रताप ने उन राजाओं से जिन्होंने उसके विचार से राजपूतों को इतना जलील किया था, संबन्ध-विच्छेद कर लिया। उनके साथ शादी-ब्याह की तो बात ही क्या, खाना-पीना तक उचित न समझा। जब तक मुग़ल-राज्य बना रहा, उदयपुर के घराने ने केवल यही नहीं किया कि शाही खानदान से ही इस प्रकार का नाता न जोड़ा, बल्कि अम्बर और मारवाड़ को भी बिरादरी से खारिज समझा दिया। उदयपुर यद्यपि अपनी नीति-रीति को निभाते चलने के कारण, विपद-गर्त में गिरा और दूसरे राजघराने अपना बाना त्यागकर फूलते-फलते रहे. पर सारे राज-स्थान में ऐसा कोई कुल न था जिस पर उदयपुर का नैतिक रोब न छाया हो और जो उसके कुल-गौरव को स्वीकार न करता हो। यहाँ तक कि जब महाराज जयसिंह और महाराज बख्तसिंह जैसे शक्तिशाली नरेशों ने उदयपुर से पवित्र बनाये जाने की प्रार्थना की और वह स्वीकृत हुई तो यह शर्त लगा दी गई की उदयपुर राजकुल की लड़की चाहे जिस कुल में ब्याही जाय, सदा उसी की सन्तान गद्दी पर बैठेगी।
काश राणा अपनी घृणा को अपने दिल ही तक रखता, जुबान तक न आने देता, तो बहुत-सी विपत्तियों से बच जाता। पर उसका वीर-हृदय दबना जानता ही न था। मानसिंह सोलापुर की मुहिम की ओर चला आ रहा था कि राणा से मिलने के लिए कुंभलमेर चला आया। राणा स्वयं उसकी अगवानी को गया और बड़े ठाठ से उसकी दावत की, पर जब खाने का समय आया तो कहला भेजा कि मेरे सिर में दर्द है। मानसिंह ताड़ गया कि इनको मेरे साथ बैठकर खाने में आपत्ति है। झल्लाकर उठ खड़ा हुआ और बोला, 'अगर मैंने तुम्हारा गर्व चूर्ण न कर दिया तो मानसिंह नाम नहीं। तब तक राणा भी वहाँ पहुँच गया था और बोला—जब तुम्हारा जी चाहे चले आना। मुझे हरदम तैयार पाओगे। मानसिंह ने आकर अकबर को उभारा। बारूद पर पलीता पहुँच गया। फ़ौरन राणा पर हमला करने के लिए फौज तैयार करने का हुक्म हुआ। शाहज़ादा सलीम प्रधान सेनापति बनाये गये। मानसिंह और महावत खाँ उनके सलाहकार नियुक्त हुए।
राणा भी अपने बाईस हज़ार शूरवीर और मृत्यु को खेल समझनेवाले राजपूतों के साथ हल्दीघाटी के मैदान में पैर जमाये खड़ा था। ज्यों ही दोनों सेनाएँ आमने सामने हुई, प्रलयकाण्ड उपस्थित हो गया। मानसिंह के साथियों के दिलो में अपने सरदार के अपमान की आग जल रही थी और वह उसका बदला लेना चाहते थे। राणा के साथी भी यह दिखा देना चाहते थे कि अपनी स्वाधीनता हमें जान से भी अधिक प्यारी है। राणा ने बहुतेरा चाहा कि मानसिह से मुठभेड़ हो जाय तो जरा दिल का हौसला निकल जाय। पर इस यत्न में उन्हें सफलता न हुई। हाँ, संयोगवश उनका घोड़ा सलीम के हाथी के सामने आ गया, फिर क्या था। राणा ने चट रिकाब पर पाँव रखकर भाला चलाया जिसने महावत का काम तमाम कर दिया। चाहता था कि दूसरा तुला हुआ हाथ चलाकर अकबर का चिराग़ गुल कर दे कि हाथी भागा। शाहज़ादे को ख़तरे में देख उसके सिपाही लपके और राणा को घेर लिया। राणा के राजपूतों ने देखा कि सरदार घिर गया तो उन्होंने भी जान तोड़कर हल्ला किया, और उसे प्राण-संकट से साफ निकाल लाये। फिर तो वह घमासान का युद्ध हुआ कि खून की नदियाँ बह गई। राणा जख्मों से चूर-चूर हो रहा था। शरीर से रक्त के फुहारे छूट रहे थे। पर तग हाथ में लिये बिगड़े हुए शेर की तरह मैदान में डटा था, शत्रुदल उसके छत्र को देख-देखकर उसी स्थान पर अपने पूरे बल से धावा करता, पर राणा ने पाँव आगे बढ़ाने के सिवाय पीछे हटाने का नाम भी न लिया। यहाँ तक कि तीन बार दुश्मनो की जद में आते-आते बच गया। पर इस समय तक लड़ाई का रुख पलटने लगा। हृदय की वीरता और हिम्मत का जोश तोप-बन्दूक, गोला-बारूद के सामने कब तक टिक सकता था। सरदार झाला ने जब यह रंग देखा तो चट छत्र वाहक के हाथ से छत्र छीन लिया और उसे हाथ में लिये एक चक्करदार स्थान को चला गया। शत्रु ने समझा कि राणा जा रहा है, उसके पीछे लपके। इधर राणा के साथियों ने मौक़ा पाया तो उसे मैदान से सकुशल बचा ले गये। पर सरदार झाला ने अपने डेढ़ सौ साथियों सहित वीर गति प्राप्त की और स्वामि ऋण से उऋण हो गये। चौदह हज़ार बहादुर राजपूत हल्दीघाटी के मैदान को अपने खून से सींच गये जिनमें ५०० से अधिक राजकुल के ही राजकुमार थे।
मेवाड़ में जब इस पराजय की खबर पहुँची, तो घर-घर कुहराम मच गया। ऐसा कोई कुल न था जिसका एक-न-एक सपूत रण-देवी की बलि न हुआ हो। मेवाड़ का बच्चा-बच्चा आज तक हल्दीघाटी के नाम पर गर्व करता है। भाट और कवीश्वर गलियों और सड़कों पर हल्दीघाटी की घटना सुनाकर लोगों को रुलाते हैं, और जब तक मेवाड़ का कोई कवीश्वर जिंदा रहेगा और उसके हृदय-स्पर्शी कवित्व की क़दर करनेवाले बाकी रहेगे, तब तक हल्दीघाटी की याद हमेशा ताज़ी रहेगी।
उधर राणा अपने स्वामि-भक्त घोड़े चेतक पर सवार अकेला एकदम चल निकला। दो मुगल सरदारों ने उसे पहचान लिया और उसके पीछे घोड़े डाल दिये। अब आगे-आगे जख्मी राणा बढ़ा जा रहा है, उसके पीछे-पीछे दोनों सरदार घोड़ा दबाये बढ़े आते हैं। चेतक भी अपने मालिक की तरह जख्मों से चूर है। वह कितना ही जोर मारता कितना ही जी तोड़कर क़दम उठाता, पर पीछा करनेवाले निकट आते जा रहे हैं। अब उनके पाँवों की चाप सुनाई देने लगी। अब वह पहुँच गये। राणा का तेगा साँस लेता है कि यकायक उसे कोई पीछे से ललकारता है, ओ नीले घोड़े के सवार! ओ नीले घोड़े के सवार! बोली और ध्वनि बिल्कुल मेवाड़ी है। राणा भौंचक्का होकर पीछे देखता है, तो उसका चचेरा भाई शक्त चला आ रहा है। शक्त प्रताप से नाराज होकर अकबर से जा मिला था और उस समय शाहज़ादा सलीम के साथियों में था। पर अब उसने नीले घोड़े के सवार को ज़ख्मों से चूर, बिल्कुल अकेला मैदान से जाते हुए देखा तो बिरादराना खून जोश में आ गया। पुरानी शिकायतें और मैल दिल से बिल्कुल धुल गये और तुरंत पीछा करनेवालों में जा मिला। और अन्त में उन्हें अपने भालो से धराशायी करता हुआ राणा तक पहुँच गया। इस समय अपने जीवन में पहली बार दोनों भाई बन्धुत्व और अपने मन के सच्चे जोश से गले-गले मिले, यहाँ स्वामिभक्त चेतक ने दम तोड़ दिया। शक्त ने अपना घोड़ा भाई के नज़र किया। राणा ने जब चेतक की पीठ से जीन उतारकर उस नये घोड़े की पीठ पर रखा, तो वह फूट-फूटकर रो रहा था। उसे किसी सगे-संबन्धी के मर जाने का इतना दुःख न हुआ था। क्या सिकन्दर का घोड़ा बस्फाला चेतक से अधिक स्वामिभक्त था? पर उसके स्वामी ने उसके नाम पर नगर बसा दिया था। राणा की वह विपत्-काल था। उसने केवल आँसू बहाकर ही संतोष किया। आज उस स्थान पर एक टूटा-फूटा चबूतरा दिखाई देता है, जो चेतक के स्वामी पर प्राण निछावर कर देने का साक्षी है।
शाहज़ादा सलीम विजय-दुदुभी बजाता हुआ पहाड़ियों से निकला। उस समय तक बरसात का मौसिम शुरू हो गया था और चूँकि जलवायु के विचार से यह काल उन पहाड़ियों में बड़े कष्ट का होता है, इसलिए राणा को तीन-चार महीने इतमीनान रहा, पर वसन्त-काल आते ही शत्रु सेना फिर धावा किया। महावत खाँ उदयपुर पर हुकूमत कर ही रहा था, कोका शहबाज खाँ ने कुंभलमेर को घेर लिया। राणा और उसके साथियों ने यहाँ भी खूब वीरता दिखाई। पर किसी घर के भेदी ने जो अकबर से मिला हुआ था, क़िले के भीतर कुएँ में ज़हर मिला दिया और राणा को वहाँ से निकल जाने के सिवा और कोई रास्ता न दिखाई दिया। फिर भी उसके एक सरदार ने जिसका नाम भानु था, मरते दम तक क़िले को दुश्मनों से बचाये रखा। उसके वीरगति प्राप्त कर लेने के बाद इस किले पर भी अकबरी झण्डा फहराने लगा।
कुंभलमेर पर कब्जा कर लेने के बाद राजा मानसिंह ने धरमेती और गोगंडा के क़िलों को जा घेरा। अब्दुल्ला नाम के एक और सरदार ने दक्षिण दिशा से चढ़ाई की। फरीद खाँ ने छप्पन पर हमला किया। इस प्रकार चारों ओर से घिरकर प्रताप के लिए अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेने के सिवा और कोई रास्ता न रहा, पर वह शेरदिल राजपूत उसी दमखम, उसी हिम्मत व हौसले और उसी दृढ़ता के साथ शत्रु का सामना करता रहा, कभी अँधेरी रात में जब शाही फौज बेखबर सोती होती, वह अचानक अपनी घात की जगह से निकल पड़ता, इशारो से अपने साथियों को इकट्ठा कर लेता और जो शाही फ़ौज क़रीब होती, उसी पर चढ़ दौड़ता। फरीद खाँ को जो राणा को गिरफ्तार करने के लिए जंजीर बनवाये बैठा था, उसने ऐसी चतुराई से एक दुर्गम घाटी में जा घेरा कि उसकी सेना का एक भी आदमी जीवित न गया।
आखिर शाही फौज भी इस ढंग की लड़ाई से ऊब गई। मैदानों के लड़नेवाले मुगल पहाड़ो में लड़ना क्या जानें। उस पर से जब वर्षा आरंभ हो जाती, तो चौतरफा महामारी फैल जाती, यह बरसात के दिन प्रताप के लिए जरा दम लेने के दिन थे। इसी तरह कई बरस बीत गये। प्रताप के साथियों में से कुछ ने तो लड़कर वीरगति प्राप्त की, कुछ यों ही मर-खप गये। कुछ जो ज़ग बोदे थे, इधर-उधर दबक रहे। रसद और खुराक के लाले पड़ गये। प्रताप को सदा यह खटका लगा रहता कि कहीं मेरे लड़के-बाले शत्रु के पंजे में न फँस जायँ। एक बार वहाँ के जंगली भीलों ने उनको शाही फ़ौज से बचाया और एक टोकरे में रख जावरा की खानों में छिपा दिया, जहां वह उनकी सब प्रकार रक्षा और देख-भाल करते रहे। वह बल्ले और जंजीरें अभी तक मौजूद हैं—जिनमें यह टोकरे लटका दिये जाते थे, जिसमें हिंस्र जन्तुओं से बच्चों को डर न रहे। ऐसे-ऐसे कष्ट-कठिनाइयाँ झेलने पर भी प्रताप की अटल निश्चय तनिक भी न हिला। वह अब भी किसी गुफा में अपने मुट्ठी भर आख़िरी दम तक साथ देनेवाले और सब प्रकार का अनुभव रखनेवाले साथियों के बीच उसी आनबान के साथ बैठता जैसे राजसिंहासन पर बैठता था। उनके साथ उसी राजसी ढंग से बर्ताव करता। ज्योनार के समय खास-खास आदमियों को दोने प्रदान करता। यद्यपि यह दोने महज जंगली फलो के होते थे; परन्तु पानेवाले उन्हें बड़े आदर सम्मान के साथ लेते, माथे चढ़ाते और प्रसाद-वत् भोजन करते थे। इसी वज्र-सी दृढ़ता ने राणा को राजस्थान के संपूर्ण राजाओं की निगाह में हीरो-आदर्श वीर बना दिया। जो लोग अकबर के दरबारी बन गये थे, वह भी अब राणा के नाम पर गर्व करने लगे। अकबर जो प्रकृति के दरबार से वीरता और मर्दानगी लेकर आया था, और बुहादुर दुश्मन की क़द्र करना जानता था, खुद भी अपने सरदारों से प्रताप की वीरता और साहस की सराहना करता। दरबार के कवि राणा की बड़ाई में पद्य रचने लगे। अब्दुर्रहीम खान-खानाँ ने, जो हिन्दी-भाषा में बड़ी सुन्दर कविता करते थे, मेवाड़ी भाषा में राणा की वीरता का बखान किया। ॱॱॱवाह! कैसे गुणज्ञ और उदारहृदय लोग थे कि शत्रु की वीरता को सराहकर उसका दिल बढ़ाते और हौसले उभारते थे।
पर कभी-कभी ऐसे भी अवसर आ जाते कि अपने कुटुम्बियो, प्यारे बच्चों के कष्ट उससे न देखे जाते। उस समय उसका दिल बैठ जाता और अपने हाथ छाती में छूरी भोंक लेने को जी चाहता। शाही फ़ौज ऐसी घात में लगी रहती कि पका हुआ खाना खाने की नौबत न आती। भोजन के लिए हाथ-मुँह धो रहे हैं कि जासूस ने खबर दी—शाही फ़ौज आ गई, और तुरंत सब छोड़ छाड़ भागे। एक दिन राणा एक पहाड़ी दरें में लेटा हुआ था। रानी और उसकी पुत्रवधू कन्दमूल की रोटियाँ पका रही थी। बच्चे खाना पाने की खुशी में इधर-उधर कुलेलें करते-फिरते थे, आज पाँच फ़ाके गुज़र चुके थे। राजा न जाने किस विचार-सागर में डूबता-उतराता बच्चों की चेष्टाओं को निराशा-भरी आँखों से देख रहा था। हा! यह वह बच्चे हैं जिनको मखमली गद्दों पर नींद न आती थी, जो दुनिया की नियामतों की ओर आँख उठाकर न देखते थे, जिनको अपने बेगाने सभी गोद की जगह सिर-आँखों पर बिठाते थे, आज उनकी यह हालत है कि कोई बात नहीं पूछता, न कपड़े, न लत्ते, कन्दमूल की रोटियों की आशा पर मगन हो रहे हैं और उछल-कूद रहे हैं। वह इन्हीं दिल बैठा देनेवाले विचारों में डूबा हुआ था कि अचानक अपनी प्यारी बेटी की ज़ोर की चीख ने उसे चौंका दिया। देखता है, तो एक जंगली बिल्ली उसके हाथ से रोटी छीने लिये जा रही है और वह बेचारी बड़े करुण स्वर में रो रही है। हाय! बेचारी क्यों न रोये? आज पाँच फ़ाकों के बाद आधी रोटी मिली थी, फिर नहीं मालूम कै कड़ाके गुजरेंगे यह देखकर राणा की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसने अपने जवान बेटों को रंगभूमि में अपनी आँखो से दम तोड़ते देखा था, पर कभी उसका हृदय कातर न हुआ था, कभी आँखों में आँसू ने आये थे। मरना-मारना तो राजपूत का धर्म है। इस पर कोई राजपूत क्यों आँसू बहाये। पर आज इस बालिका के विलाप ने उसे विवश कर दिया। आज क्षण भर के लिए उसकी दृढ़ता के पाँव डिग गये। कुछ क्षण के लिए मानव-प्रकृति ने वैयक्तिक विशेषत्व को पराजित कर दिया। सहृदय व्यक्ति जितने ही शूर और साहसी होते हैं, उतने ही कोमलचित्त भी होते हैं। नेपोलियन बोनापार्ट ने हजारों आदमियों को मरते देखा था और हज़ारों को अपने ही हाथों ख़ाकपर सुला दिया था। पर एक भुखे, दुबले, कमज़ोर कुत्ते को अपने मालिक की लाश के इधर-उधर मँडराते देख उसकी आँखों से अश्रुधारा उमड़ पड़ी। राणा ने लड़की को गोद में ले लिया और बोला—धिक्कार है। मुझको कि केवल नाम के राजत्व के लिए अपने प्यारे बच्चों को इतने क्लेश दे रहा हूँ। उसी समय अकबर के पास पत्र भेजा कि अब कष्ट सहे नहीं जाते, मेरी दशा पर कुछ दया कीजिए।
अकबर के पास यह संदेश पहुँचा तो मानो कोई अप्रत्याशित वस्तु मिल गई। खुशी के मारे फूला न समाया। राणा का पत्र दरबारियों को सगर्व दिखाने लगा। मगर दरबार में अगुणज्ञ लोग बहुत कम होंगे, जिन्होंने राणा की अधीनता के समाचार को प्रसन्नता के साथ सुना हो। राजे-महाराजे यद्यपि अकबर की दरबारदारी करते थे, पर स्वजाति के अभिमान के नाते सबके हृदय में राणा के लिए सम्मान का भाव था। उनको इस बात का गर्व था कि यद्यपि हम पराधीन हो गये हैं, पर हमारा एक भाई अभी तक स्वाधीन राजत्व का डंका बजा रहा है। और क्या आश्चर्य कि कभी-कभी अपने दिलों में इतने सहज में वश्यता स्वीकार लेने पर लज्जा भी अनुभव करते हो। इनमें बीकानेर नरेश का छोटा भाई पृथ्वीसिह भी था जो बड़ा तलवार का धनी और शूरवीर था। राणा के प्रति उसके हृदय में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी, उसने जो यह खबर सुनी तो विश्वास न हुआ। पर राणा की लिखावट देखी तो दिल को गहरी चोट पहुँची, ख़ानखाना की तरह वह भी न केवल तलवार का धनी था, बल्कि सहृदय कवि भी था और वीर-रस के छन्द रचा करता था। उसने अकबर से राणा के पास पत्र भेजने की अनुमति प्राप्त कर ली। इस बहाने से कि मैं उसके अधीनता स्वीकार के समाचार की प्रामाणिकता की जाँच करूँगा। पर उस पत्र में उसने अपना हृदय निकालकर रख दिया। ऐसे-ऐसे वीर-रस भरे, ओजस्वी और उत्साह-वर्द्धक पद्य लिखे कि राणा के दिल पर वीर-विरुदावली का काम कर गये। उसके दबे हुए हौसलों ने फिर सिर उभारा, आज़ादी का जोश फिर मचल उठा और अधीनतास्वीकार का विचार कपूर की तरह मन से उड़ गया।
पर अबकी बार उसके विचारों ने कुछ और ही रूप ग्रहण किया। बार-बार की हार और विफलता ने उस पर साबित कर दिया कि इने-गिने साथियों और पुराने जंग खाये हुए हथियारों से अकबरी प्रताप के प्रवाह को रोकना अति कठिन ही नहीं; किन्तु असंभव है, अतः क्यों न उस देश को जहाँ से स्वाधीनता सदा के लिए चली गई, अन्तिम नमस्कार करके किसी ऐसे स्थान पर सिसौदिया कुल का केसरिया झण्डा गाड़ा जाय, जहाँ उसके झुकने का कोई डर ही न हो। बहुत बहस मुबाहसे के बाद यह सलाह तै पाई कि सिंधुनद के तट पर जहाँ पहुँचने में शत्रु को एक रेगिस्तान पार करना पड़ेगा, नया राज्य स्थापित किया जाय। कैसा विशाल हृदय और कितनी ऊँची हिम्मत थी कि इतनी पराजयों के बाद भी ऐसे ऊँचे इरादे दिल में पैदा होते थे। यह विचार पक्का करके राणा अपने कुटुम्बियों और बचे-खुचे साथियों को लेकर इस नई मुहीम पर चल खड़ा हुआ और अरावली के पश्चिमी अचल को पार करता हुआ मरुभूमि के किनारे तक जा पहुँचा। पर इस बीच एक ऐसी शुभ घटना घटित हुई जिसने उसका विचार बदल दिया और उसे अपनी प्रिय जन्मभूमि को लौट आने की प्रेरणा की। राजस्थान का इतिहास केवल प्राणोत्सर्ग और लोकोत्तर वीरता की कथाओ से ही नहीं भरा हुआ है, स्वामि-भक्ति और वफादारी के सतत् स्मरणीय और गर्व करने योग्य दृष्टान्त भी उसमें उसी तरह भरे पड़े हैं। भामाशाह ने जिसके पुरखे चित्तौड़ राज्य के मंत्री रहे, जब अपने मालिक को देश-त्याग करते हुए देखा तो नमकख़्वारी का जोश उमड़ आया। हाथ बाँधकर राणा की सेवा में उपस्थित हुआ और बोला—महाराज, मैंने अनेक पीढ़ियों से आपका नमक खाया है, मेरी जमा-जथा जो कुछ है, आप ही की दी हुई है। मेरी देह भी आप ही की पाली पोसी हुई है। क्या मेरे जीते जी अपने प्यारे देश को आप सदा के लिए त्याग देगे। यह कहकर उस वफ़ादारी के पुतले ने अपने खजाने की कुंजी राणा के चरणों पर रख दी। कहते है कि उस खजाने में इतनी दौलत थी कि उससे २५ हजार आदमी १२ साल तक अच्छी गुजर कर सकते थे। उचित है कि आज जहाँ राणा प्रताप के नाम पर श्रद्धा के हार चढाये जायँ, वहाँ भामाशाह के नाम पर भी दो-चार फूल बिखेर दिये जायँ।
कुछ तो इस प्रचुर धनराशि की प्राप्ति और कुछ पृथ्वीसिंह की वीर-भाव भरी कविता ने राणा के डगमगाते हुए मन को फिर से दृढ़ कर दिया, उसने अपने साथियों को जो इधर-उधर बिखर गये थे, झटपट फिर जमा कर लिया। शत्रु तो निश्चिन्त बैठे थे कि अब यह बला अरावली के उस पार रेगिस्तान से सर मार रही होगी कि राणा अपने दल के साथ शेर की तरह टूट पड़ा और कोका शाहबाज खाँ को जो दोयर में सेना लिये निश्चिन्त पड़ा था, जा घेरा। दम के दम में सारी सेना धराशायी बना दी गई। अभी शत्रु-पक्ष पूरी तरह सजग ने होने पाया था कि राणा कुंभलमेर पर जा डटा और अब्दुल्ला तथा उसकी सेना को तलवार के घाट उतार दिया। जब तक बादशाही दरबार तक ख़बर पहुँचे-पहुँचे, राणा का केसरिया झण्डा दूर क़िलो पर लहरा रहा था। साल भर भी न गुजरा था कि उसने अपने हाथ से गया हुआ राज्य लौटा लिया। केवल चित्तौड़, अजमेर और गढ़मण्डल पर कब्जा न हो सका। इसी हल्ले में उसने मानसिंह का भी थोड़ा मान-मर्दन कर दिया। अकबर पर चढ़ दौड़ा और वहाँ की मशहूर मण्डी भालंपुरा को लूट लिया।
मन में प्रश्न उठता है कि अकबर ने राणा को क्यों इतमीनान से बैठने दिया। उसकी शक्ति अब पहले से बहुत अधिक हो गई थी, उसके साम्राज्य की सीमाए दिन-दिन अधिक विस्तृत होती जाती थी। जिधर रुख करता, उधर ही विजय हाथ बाँधे खड़ी रहती। सरदारों में एक-से-एक प्रौढ़ अनुभववाले रण-कुशल योद्धा विद्यमान थे। ऐसी अवस्था में वह राणा की इन ज्यादतियों को क्यों चुपचाप देखता रहा? शायद इसका कारण यह हो कि वह उन दिनो दूसरे देश जीतने में उलझा हुआ था। या यह कि अपने दरबार को राणा से सहानुभूति रखनेवाला पाकर उसे फिर छेड़ने की हिम्मत न हुई हो। जो हो, उसने निश्चय कर लिया कि राणा को उन पहाड़ियों में चुपचाप पड़ा रहने दिया जाय। पर साथ ही निगाह रखी कि वह मैदान की ओर न बढ़ सके। राणा की जगह कोई और आदमी होता तो इस शांति और आराम को हजार गनीमत समझता और इतने कष्ट झेलने के बाद इस विश्रांति-लाभ को ईश्वरीय सहायता समझता। पर महत्वाकांक्षी राणा को चैन कहाँ। जब तक वह अकबर से लोहा ले रहा था, जब तक अकबर की सेना उसकी खोज में जंगल-पहाड़ से सिर टकराती फिरती थी, तब तक राणा के हृदय को सन्तोष न था। जब तक यह चिन्ता अकबर के प्राणो को जला रही थी, तब तक राणा के दिल में ठंडक थी। वह सच्चा राजपूत था। शत्रु के क्रोध, कोप, धृणा यहाँ तक कि तिरस्कार-भाव को भी सहन कर सकता था, पर उसका दिल भी इसको बर्दाश्त न कर सकता था कि कोई उसे दया-दृष्टि से देखे या उस पर तर्स खाय। उसका स्वाभिमानी हृदय कभी इसे सहन न कर सकता था।
जो हृदय अपनी जाति की स्वाधीनता पर बिका हो उसे एक पहाड़ी में बंद रहकर राज्य करने से क्या संतोष हो सकता था। वह कभी-कभी पहाड़ियों में बाहर निकलकर उदयपुर और चित्तौड़ की ओर आकांक्षा भरी दृष्टि से देखता कि हाय, अब यह फिर मेरे अधिकार में न आयेंगे! क्या यह पहाड़ियाँ ही मेरी आशाओं की सीमा है। अकसर वह अकेले और पैदल ही चल देता और पहाड़ के दर्रों में घंटो बैठकर सोचा करता। उसके हृदय में उस समय स्वाधीनता की उमंग का समुद्र ठाठे मारने लागता, आँखें सुर्ख हो जाती, रगे फड़कने लगतीं, कल्पना की दृष्टि से वह शत्रु को आते देखता और फिर अपना तेगा सँभालकर लड़ने को तैयार हो जाता। हाँ, मैं बाप्पा रावल का वंशधर हूँ। राणा सांगा मेरा दादा था, मैं उसका पोता हूँ। वीर जगमल मेरा एक सरदार था। देखो तो मैं यह केसरिया झंडा कहाँ-कहाँ गाड़ता हूँ! पृथ्वीराज के सिंहासन पर न गाड़ूँ, तो मेरा जीना अकारथ है।
यह विचार, यह मंसूबे, यह जोशे-आज़ादी, यह अन्तर्ज्वार सदा उसके प्राणों को जलाती रहीं। और अन्त में इसी अंतर की आय ने उसे समय से पहले ही मृत्यु-शय्या पर सुला दिया। उसके गैंडे के-से बलिष्ठ अंग-प्रत्यंग, और सिंह का-सा निडर हृदय भी इस अग्नि की जलन को अधिक दिन सह न सके। अंतिम क्षण तक देश और जाति की स्वाधीनता को ध्यान उसे बँधा रहा। उसके सरदार जिन्होंने उसके साथ बहुत-से अच्छे-बुरे दिन देखे थे, उसकी चारपाई के इर्द-गिर्द शोक में डूबे और आँखों में आँसू भरे खड़े थे। राणा की टकटकी दीवार की ओर लगी हुई थी और कोई खयाल उसे बेचैन करता हुआ मालूम होता था। एक सरदार ने कहा—महाराज, राम नाम लीजिए। राणा ने मृत्यु-यन्त्रणा से कराहकर कहा—'मेरी आत्मा को तब चैन होगा कि तुम लोग अपनी-अपनी तलवारें हाथ में लेकर कसम खाओ कि हमारा यह प्यारा देश तुर्कों के कब्जे में न जायगा। तुम्हारी रगों में जब तक एक बूँद भी रक्त रहेगा, तुम उसे तुर्कों से बचाते रहोगे। और बेटा अमरसिंह, तुमसे विशेष विनती है कि अपने बाप दादों के नाम पर धब्बा न लगाना और स्वाधीनता को सदा प्राण से अधिक प्रिय मानते रहना। मुझे डर है कि कहीं विलासिता और सुख की कामना तुम्हारे हृदयों को अपने वश में न कर ले और तुम मेवाड़ की उस स्वाधीनता को हाथ से खो दो, जिसके लिए मेवाड़ के वीरों ने अपना रक्त बहाया।' संपूर्ण उपस्थित सरदारों ने एक स्वर से शपथ की कि जब तक हमारे दम में दम है, हम मेवाड़ की स्वाधीनता को कुदृष्टि से बचाते रहेंगे। प्रताप को इतमीनान हो गया और सरदारों को रोता-बिलखता छोड़ उसकी आत्मा ने पार्थिव चोले को त्याग दिया। मानो मौत ने उसे अपने सरदारों से यह कसम लेने की मुहलत दे रखी थी।
इस प्रकार उस सिंह-विक्रम राजपूत के जीवन का अवसान हुआ जिसकी विजय की गाथाएँ और विपदा की कहानियाँ मेवाड़ के बच्चे-बच्चे की जबान पर हैं। जो इस योग्य है कि उसके नाम के मंदिर गाँव-गाँव, नगर-नगर में निर्माण किये जायँ और उनमें स्वाधीनता देवी की प्रतिष्ठा तथा पूजा की जाय। लोग जब इन मंदिरों में जायँ तो स्वाधीनता का नाम लेते हुए जायँ। और इस राजपूत की जीवन-कथा से सच्ची आज़ादी का सबक सीखें।