राणा जंगबहादुर : मुंशी प्रेमचंद

Rana Jangbahadur : Munshi Premchand

नैपाल के राणा जंगबहादुर उन मौका-महल समझने वाले, दूरदर्शी और बुद्धिशाली व्यक्तियों में थे जो देशों और जातियों को पारस्परिक कलह और संघर्ष के गर्त से निकालकर उन्हें उन्नति के पथ पर लगा देते हैं। वह १९ वीं सदी के आरंभ में उत्पन्न हुए! और यह वह समय था जब हिन्दुस्तान में ब्रिटिश सत्ता बड़ी तेजी से फैलती जा रही थी। देहली का चिराग गुल हो चुका था, मराठे ब्रिटिश शक्ति का लोहा मान चुके थे और केवल पंजाब का वह भाग जो महाराज रणजीतसिंह के अधिकार में था, उसके प्रभाव से बचा था! नैपाल भी अंग्रेज़ी तलवार का मजा चख चुका था और सुगौली की सन्धि के अनुसार अपने राज्य का एक भाग अंग्रेज़ी सरकार के नज़र कर चुका था। वही भाग जो अब कुमायूँ की कमिश्नरी कहलाता है। ऐसे नाजुक वक्त में जब देशी राज्य कुछ तो गृहयुद्धों और कुछ अपनी कमजोरियों के शिकार होते जाते थे, नैपाल की भी वही गति होती, क्योकि उस समय वहाँ की भीतरी अवस्था कुछ ऐसी ही थी जैसी देहली की सैयद-बन्धुओं के समय मैं या पंजाब की रणजीतसिंह के निधन के बाद हुई थी। पर राणा जंगबहादुर ने इस नाजुक धी मैं नैपाल के शासन प्रबन्ध की बागडोर अपने हाथ में ली और गृह-कलह तथा प्रबन्ध-दोषों को मिटाकर सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया। इसमें सन्देह नहीं कि इस काम में वह सदा न्याय और सत्य पर नहीं रह सके। अकसर उन्हें चालबाजियो, साजिशों यहाँ तक किं गुप्त हत्याओं तक का सहारा लेना पड़ता था, पर संभवतः इस परिस्थिति में वही नीति उपयुक्त थी। नेपाल की अवस्था उस समय ऐसी हो गई थी जब मानवता, सहनशीलता अथवा क्षमा दुर्बलता मानी जाती है। और जब भय और त्रास ही एक मात्र ऐसा साधन रह जाता है जो उत्पातियों और सिरफिरों को काबू में रख सके। पंजाब के अन्तिम काछ में जंगबहादुर जैसा उपाय-कुशल और हिम्मतवाला कोई आदमी वहाँ हेाता तो शायद उसका अन्त इतनी आसानी से न हो सकता। जंगबहादुर को नेपाल का बिस्मार्क कह सकते हैं।

नेपाल राज्य की नींव १६ वीं शताब्दी में पड़ी। अकबर के हाथों चित्तौड़ के तबाह होने के बाद राणा वंश के कुछ लोग शान्ति की तलाश में यहाँ पहुँचे और यहाँ के कमजोर राजा को अपनी जगह उनके लिए खाली कर देनी पड़ी। तबसे वही घराना राज्यारूढ़ है, पर धीरे-धीरे स्थिति ने कुछ ऐसा रूप प्राप्त कर लिया कि राज्य के रह्ता-कर्ता प्रधान मन्त्री या ‘अमात्य' हो गये। मन्त्री जो चाहते थे, करते थे; राजा केवल बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र रखने का एक धन मात्र था। मन्त्रियों के भी दो वर्ग थे---एक 'पांडे' का दूसरा 'थापा' का और दोनो में सदा संघर्ष होता रहृता था। जब पांडे लोग अधिकारारूढ़ होते तो थापा घराने को मिटाने में कोई बात उठा न रखी जाती, और इसी प्रकार अब थापा लोग अधिकारी होते तो पांडे वंशवालो की जान के लाले पड़ जाते।

जंगबहादुर यों तो राजकुल के थे, पर उनकी रिश्तेदारियाँ अधिकतर थापा धराने में थीं। जब वह उस समय की प्रचलित पढ़ाई पूरी कर चुके तो उन्हें एक ऊँची पद प्राप्त हुआ। उस समय थापा-कुल अधिकारारूढ़ था और भीमसेन थापा अमात्य थे। महाराज ने मन्त्री की बढ़ती हुई शक्ति से डरकर उन्हें एक झूठे अभियोग में कैद कर दिया। भीमसेन ने जेलखाने में ही आत्महत्या कर ली। उनके मरते ही उनके कुटुंबिया और, सबन्धियों पर आफत आ गई। उनका भतीजा जेनरल मोतबरसिंह भागकर हिन्दुस्तान चला आया। जंगबहादुर और उनके पिता भी पदच्युत कर दिये गये। यह बात सन् १८३७ ई० की है। उस समय जंगबहादुर २१ साल के थे। पद का चार्ज ले लिये जाने के बाद वह भागकर बनारस आये और यहाँ दो साल तक इधर-उधर मारे मारे फिरते रहे। अन्त में जब कहीं आश्रय न दिखाई दिया तो १८३९ ई० में फिर नैपाल गये। तब तक वहाँ थापा लोगों के विरुद्ध भड़की हुई क्रोधाग्नि ठंढी हो चुकी थी और जंगबहादुर को किसी ने रोक-टोक न की। यहाँ इन्हें अपना शौर्य-साहस दिखाने के कुछ ऐसे मौके मिले कि महाराज ने प्रसन्न होकर उन्हें बहाल कर दिया। अबकी वह युवराज सुरेन्द्र विक्रम के मुसाहब बना दिये गये। पर जंगबहादुर के लिए यह नौकरी बहुत ही भयावह सिद्ध हुई। युवराज सुरेन्द्र विक्रम एक झक्की, कमजोर दिमाग का विक्षिप्त नवयुवक था और उसे क्रूरता के दृश्य देखने की सनक थी। अपने मुसाहबौं से ऐसे-ऐसे कामों की फरमाइश करता कि उनकी जान पर ही आ बीतती। जंगबहादुर को भी कई बार इन जानलेवा परीक्षाओं मैं पड़ना पड़ा, पर हर बार वह कुछ तो अपने सैनिकोचित अभ्यास और कुछ सौभाग्य की सहायता से बच गये। एक बार उन्हें ऊँचे पुल पर से नीचे तूफानी पहाड़ी नदी में कूदना पड़ा। इसी प्रकार एक बार उन्हें एक ऐसे गहरे कुएँ में कूदने का हुक्म हुआ जिसमें उन भैसों की हद्भुियाँ जमा की जाती थीं जो विशेष पर्वोत्सव में बलि किये जाते थे। इन दोनों कठिन परीक्षाओं में अपनी मौत से खेलनेवाली हिम्मत की बदौलत वे उत्तीर्ण हो गये। कुशल हुईं कि उन्हें इस नौकरी पर केवल एक साल रहना पड़ा। १८४१ ई० में उनके पिता की मृत्यु हुई और वह महाराज राजेन्द्र विक्रम के अंगरक्षक (डीगार्ड) नियुक्त हुए।

युवराज सुरेन्द्र विक्रम को क्रूरता का उन्माद दिन-दिन बढ़ता गया। दूसरों को एड़ियाँ रगड़कर मरते देखने में उसे मजा आता था। यहाँ तक कि कई बार उसने अपनी ही रानियों को पालकी समेत नदी मैं डुबवा दिया। महाराज स्वयं दुर्बलचित्त, अदूरदर्शी, ना समझ आदमी थे। राज्य का प्रबन्ध बड़ी रानी किया करती थीं और उनका दबाव कुछ-कुछ युवराज को भी मानना पड़ता था। पर अक्तूबर सन् ४१ में इस बुद्धिमती रानी का स्वर्गवास हो गया। और उसकी आँख मुँदते ही नैपाल मै अराजकता का युग आरंभ हो गया। सुरेन्द्र विक्रम को अब किसी का डर-भय न रहा, दिल खोलकर अत्याचार- उत्पीड़न आरभ कर दिया। महाराज में इसकी सामर्थ्य न थी कि इसकी प्रतिबन्ध कर सकें। अधिकारी और प्रजा सबकी नाक में दम हो गया। अन्त में इसकी कोशिश होने लगी कि महाराज को अपने अधिकार छोड़ देने को बाध्य किया जाय और शासन की बागडोर छोटी रानी लक्ष्मी देवी के हाथ में दे दी जाय। लक्ष्मी देवी युवराज की सौतेली माँ थीं और अपने लड़के रणविक्रम को गद्दी पर बिठाने के फेर मे थी। इसलिए राज्य-प्रबन्ध इनके हाथ में आने से यह आशा की जाती थी कि युवराज का हत्यारापन दूर हो जायगा। अतः दिसम्बर सन् ४२ में राज्य के प्रमुख अधिकारी और प्रजा के मुखिया जिनकी संख्या ७०० के लगभग थी, एकत्र हुए और सेना के साथ बैंड बजाते हुए महाराज की सेवा में उपस्थित होकर उनसे एक फ़रमान-पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध किया जिसके अनुसार राजकाज महारानी लक्ष्मी देवी को सौंप दिया जाता। महाराज ने पहले तो टालमटोल से काम लेना चाहा और एक महीने तक वादो पर टरकाते रहे, पर अन्त में उन्हें इस फरमान को स्वीकार कर लेने के सिवा कोई उपाय न दिखाई दिया।

रानी लक्ष्मी देवी पांडे लोगों से बुरा मानती थीं और थापा घराने की तरकदार थीं, इसलिए अधिकार पाते ही उन्होंने जेनरल मोतबरसिंह को नैपाल बुलाया जिन्हें अंग्रेज सरकार ने शिमले में नजरबंद कर रखा था। वह जब नैपाल पहुँचे तो बड़ी धूम से उनका स्वागत किया गया। अगवानी के लिए सेना भेजी गई जिसके साथ जंगबहादुर भी थे। मोतबरसिंह मंत्री बनाये गये और पांडे मंत्री को जान के डर से हिन्दुस्तान भागना पड़ा। इस परिवर्तन में रानी लक्ष्मी देवी का उद्देश्य यह था कि मोतबरसिंह को अपने लड़के रणविक्रम का समर्थक बना ले और युवराज सुरेन्द्र विक्रम को धता बताये। पर मोतबरसिंह इतना दुर्बलचित्त और सिद्धांत-रहित

व्यक्ति न था कि मंत्रित्व या एहसान के बदले में न्याय की हत्या करने को तैयार हो जाय। बड़े बेटे के रहते छोटे राज कुमार का युवराज-पद पानी कुल परम्परा के प्रतिकूल था, और यद्यपि वह महारानी को साफ जवाब न दे सके, पर इसका यत्न करने लगे कि सुरेन्द्र विक्रम के स्वभाव में ऐसा सुधार हो जाय जिससे महाराज को शासन-सूत्र, उनके हाथ में देने में आगा-पीछा करने की कोई गुंजाइश न रहे। पर खुद महाराज का खयाल उनकी ओर से अच्छा नहीं था। धीरे-धीरे महारानी को भी मालूम हो गया कि मोतबरसिंह से कोई आशा रखना बेकार है। अतः वह भी भीतर-भीतर उनके खून की प्यासी बन बैठी। बेचारे मोतबरसिंह अब कठिन समस्या में फंसे हुए थे। राजा भी दुश्मन, रानी भी दुश्मन। पर वह अपनी धुन के पक्के थे। एक ओर युवराज के शिक्षण और सुधार और दूसरी ओर महाराज को सब अधिकार दे देने को तैयार करने के यत्न में लगन के साथ लगे रहे। पर दोनों ही कठिन कार्य थे। क्रूरता जिस मनुष्य को स्वभाव बन गया हो, इसका सुधार दुस्साध्य है और महाराज जैसे अस्थिरचित्त, अदूरदर्शी और अधिकार-लोलुप व्यक्ति को हृदय परिवर्तन भी अनहोनी बात है; पर अन्त में उनके दोनों यत्न सफल हुए और १३ दिसम्बर, सम् ४४ को महाराज ने अपने सब अधिकार युवराज को सौंप दिये। और मोतबरसिंह ने यह घोषणा पढ़कर प्रजा को सुनाई।

धीरे-धीरे मौतबरसिंह का अधिकार और प्रभाव इतना बढ़ा कि राज्य के और सरदार घबड़ाने लगे। स्वेच्छाचारिता का अधिकार के साथ चोली-दामन का संबन्ध है। वह यहाँ भी प्रकट हुई। मोतबरसिंह अपने सामने किसी की भी नहीं सुनते थे। जंगबहादुर उनके सगे भानजे थे, इसलिए कभी-कभी दरबार में भी उनके विरोध की हिम्मत कर बैठते थे। नतीजा यह हुआ कि मामा-भानजे मैं तनातनी हो गई। एक बार किसी मामले में जंगबहादुर के चचेरे भाई देवीबहादुर ने मोतबरसिंह का कस कर विरोध किया और क्रोध के आवेश में महारानी के आचरण पर भी आक्षेप कर बैठे। यह असाधारण अपराध था. इसलिए देवीबहादुर को फाँसी की सजा मिली। जंगबहादुर ने अपने भाई के प्राण-दान मिलने की सिफारिश के लिए मोतबरसिंह से बड़ी अनुनय-विनय की, पर उन्होंने महारानी की आज्ञा में दखल देना मुनासिब न समझा। देवीबहादुर की गरदन उतार दी गई।

रानी लक्ष्मीदेवी के आचरण पर देवीबहादुर ने जो आक्षेप किया था, वह एक प्रकट रहस्य था। जनाने दरबार की विशेषताओं से उनका दरबार भी रहित न था। रनिवास क्या था, परिम्तान था। सब बूढी लौंड़ियाँ निकाल दी गई और उनकी जगह सुन्दरी युवती स्त्रियाँ रखी गई थीं। उनमें से अनेक महारानी की मुँह लगी थीं और राजकाज में अकसर वह उन्हीं की सलाह पर चलती थीं। इसलिए दरबार में इन लौंडियों का बड़ा प्रभाव था, और राज्य के छोटे-बड़े सरदार न्याय-अन्याय की ओर से आँखें मुँदकर इन परियों में से किसी एक को शीशे में उतारना कर्तव्य समझते थे। इससे उनके बड़े-बड़े काम निकलते थे। गगनसिंह नामक सरदार पर महारानी की विशेष कृपा-दृष्टि थी। यह बात सबको विदित थी। पर किसी में इतनी हिम्मत न थी कि एक शब्द मुँह से निकाल सके। रानी साहिबा अधिकतर मामलों में गगनसिंह से ही सलाह लेती थीं। उनका उद्देश्य यह था कि उसे मंत्री-पद पर प्रतिष्ठित करें। मोतबरसिंह की ओर से उनका खयाल पहले ही खराब हो गया था, उस पर से गगनसिंह ने भी मोतबरसिंह के विरुद्ध उनके कान खूब भरे। यहाँ तक कि वह इनके जान की भूखी हो गई। जंगबहादुर को गगनसिंह ने मिला लिया, और अन्त में उन्हीं के हाथों निवास में मोतबरसिंह कतल किये गये। जंगबहादुर के नाम से इस काले धब्बे को छुड़ाना असंभव है। इस लज़ाजनक और कायरता भरे कर्म में स्वार्थ के सिवा और कोई उद्देश्य नहीं था। क्रोध, प्रतिहिंसा या राज्य का हित-यही कारण हैं जिनसे ऐसी हत्याओं का औचित्य दिखाया जा सकता है. पर यहाँ इनमें से एक भी विद्यमान न था। दूसरे को अंग्रेज़ी मुहावरे में ‘ठंडे खून को क़तल' कहना चाहिए। पद और अधिकार के लोभ से उन्हें अपने सगे मामा की हत्या में भी आगा पीछा न हुआ।

मोतबरसिंह की हत्या से देश में हलचल मच गई। पर हत्या करने वाले का पता न चल सका। इधर महारानी का उद्देश्य भी सिद्ध न हुआ। मंत्रिपद के दावेदार अकेले गगनसिंह ही नहीं, और भी थे। जंगबहादुर इस समय एक सम्मानित सैनिक-पद पर आसीन थे। तीन रेजिमेंटज खास उन्हीं की भरती की हुई थीं जो उनके सिवा और किसी का हुक्म मानना जानती ही न थीं। उनके कई भाइयों को भी सेना में ऊँचे पढ़ मिल गये थे। अतः दरबार में उनका खासा प्रभाव स्थापित हो गया था। इस पर मोतबरसिंह के वध का पुरस्कार उनकी दृष्टि से मंत्रित्व के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता था, फल यह हुआ कि गगनसिंह को सेना के एक पद पर ही संतोष करना पड़ा और मंत्रिपद पांडेवंश के सरदार फतहजंग को दिया गया। पर यह स्थिति अधिक दिन न रह सकी। गगनसिंह महाराज की आँखों में कांटे की तरह खटकता था। वह किसी तरह उसे जहन्नुम भेजना थाहते थे। पर रानी के डर से लाचार थे। आखिर यह जलन न सही गई और उन्हीं के इशारे से एक साज़िश हुई जिसमें गगनसिंह को खत्म कर देने का निश्चय हुआ। और एक दिन वह अपने मकान पर ही गोली का निशाना बना दिया गया।

गगनसिंह का मारा जाना था कि दरबार में मानो प्रलय उपस्थित हो गया। लक्ष्मी देवी इस काण्ड की सूचना पाते ही रनिवास से बफरी हुई शेरनी की तरह हाथ में नंगी तलवार लिये हुए निकलीं और सीधे गगनसिंह के मकान पर चली गई। प्रतिहिंसा की आग उनके हृय में भड़क उठी। रात को फ़ौजी बिगुल बजा। रानी का उद्देश्य यह थी कि सब सरदारों को जमा करके इनमें हत्या करनेवाले को ढूंढ़ निकालें। जंगबहादुर ने विगुल सुनते ही दुर्घटना की आशंका पर अपनी सेना को तैयार होने का हुक्म दिया, और इसलिए सबसे पहले राजमहल में पहुँच गये। उनकी सेना ने रनिवास को घेर लिया। रानी साहिबा घबराई, पर जंगबहादुर ने उन्हें अश्वासन दिया। धीरे-धीरे और सरदार भी जमा हुए और सारा आँगन उन लोगों से भर गया। रानी ने एक सरदार को हत्या का अपराधी बताकर उसके वध 'की आज्ञा दी। इस पर सरदारों में कानाफूसी होने लगी। एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखता था। दूसरे सेना-नायकों ने भी अपनी सेनाओं को महल के क़रीब बुलाना चाहा। आपस में कठोर शब्दों का प्रयोग होने लगा, जंगबहादुर के एक पहरेदार ने एक सेनानायक को जो अपनी सेना से मिलने के लिए बाहर जाना चाहता था, क़तल कर दिया। फिर क्या था, मारकाट मच गई। कितने ही सरदार उसी आँगन में तलवार के घाट उतार दिये गये। प्रधान मंत्री न बच सके। अंत में जंगबहादुर की सेना ने शांति स्थापित की है और सरदार लोग अपने-अपने स्थान को वापस गये। इस गृहयुद्ध ने जंगबहादुर के लिए मैदान साफ़ कर दिया। उनके प्रतिस्पर्द्धीयों में से कोई बाक़ी न रहा। १५ सितम्बर, सन् ४१ को यह काण्ड हुआ, दूसरे दिन महारानी ने उन्हें बुलाकर प्रधान मन्त्रित्व का अधिकार सौंप दिया। इस प्रकार निविड़ अंधकार के बाद उनके भाग्य-भास्कर का उदय हुआ।

पर इस कठिन काल में यह पद जितना ही ऊँचा था, उतना ही भयावह भी था। महाराज को जंगबहादुर का प्रधान मन्त्री होना पसन्द न था। उनको सन्देह था कि इस मारकाट का कारण वही हैं। रानी भी अपने मतलब में थीं। वह जंगबहादुर की सहायता से अपने लड़के को गद्दी पर बिठाना चाहती थीं। इधर गगनसिंह के समर्थक शुभचिन्तक भी उनकी जान के ग्राहक हो रहे थे। जंगबहादुर ने कई महीने तक रानी की आज्ञाओं का बेउञ्ज पलन किया। यहाँ तक कि युवराज और उनके भाई को जेल में डाल दिया। यद्यपि इनमें उनकी उद्देश्य यह था कि दोनों भाई रानी के कुचक्रों से सुरक्षित रहें। रानी युवराज की हत्या करना चाहती थीं। क्योंकि इसके बिना उनके अपने बेटे के लिए कोई आशा न थी। उन्होंने जंगबहादुर से इशारे में इसकी चर्चा भी की, पर जंगबहादुर बराबर अनजान बने रहे। इशारों से काम न चलते देख रानी ने उनके पास इस आशय का पत्र लिखा। जंगबहादुर ने उसे अपने पास रख लिया और रानी को मुंहतोड़ जवाब लिख भेजा जिसे पाकर रानी उनसे निराश ही नहीं हो गईं, उनकी जान की भी दुश्मन हो गईं, और उनकी हत्या का षड्यन्त्र रचने लगीं। गगनसिंह का लड़का वजीरसिंह इस काम में उनका दाहना हाथ था। साजिश पूरी हो गई। उसका हरएक सदभ्य अना-अपना काम पूरा करने को तैयार हो गया। आपस में कौ़ल-करार भी हो गये। कसर इतनी ही थी कि जंगबहादुर रानी साहिबा के महल में बुलाये जायँ। पर ऐन मौके पर जंगबहादुर की ताड़नेवाली निगाह ने सारी योजना भाँर ली और भंडाफोड़ हो गया। उन्होंने तुरन्त सेना बुलाई और उसे लिये रानी लक्ष्मीदेवी के महल पर जा धमके। घातक अपनी धारा में बैठे हुए थे, कि जंगबहादुर ने पहुँचकर उन्हें घेर लिया। उन्हें जान बचाने का मौका भी न मिला। कितने ही वहीं तलवार के घाट उतार दिये गये। रानी साहिबा रक्त-सने हाथों सहित पकड़ ली गईं। उन पर युवराज और प्रधान मन्त्री की हत्या की साजिश का अभियोग लगाया गया। प्रमाण प्रस्तुत ही थे, रानी को बचने का मौक़ा न मिला। मन्त्रिमण्डल के सामने यह मामला पेश हुआ और रानी को सदा के लिए नैपाल से निर्वासन का दण्ड दिया गया। उनके दोनों बेटों ने उनके साथ रहने में ही जान की खैरियत समझी। जंगबहादुर ने इसमें रुकावट न की, बल्कि बड़ी इदारता के साथ रानी साहिबा के खर्च के लिए खजाने से १८ लाख रुपया देकर उन्हें बिदा किया। इस घटना से प्रकट होता है कि जंगबहादुर कैसे जीवट और कलेजे के राजनीतिज्ञ थे और स्थिति को किस प्रकार अपने अनुकूल बना लेते थे। महारानी लक्ष्मी देवी की शक्ति और प्रभाव को दम भर में मिटा देना कोई आसान काम न था। जिस रानी के भय से सारा नैपाल थर-थर काँपता था, उसकी शक्ति को इनकी नीति-कुशलता ने देखते-देखते धूल में मिला दिया।

महाराज बहुत दिनों से काश-यात्रा की तैयारी कर रहे थे, रानी का देश-निकाला हुआ तो वह भी उनके साथ जाने को तैयार हो गये। जंगबहादुर ने बहुत समझाया कि इस समय रानी साहिबा के साथ आपको जाना उचित नहीं। आपका बुरा चाहनेवाले लोग कुछ और ही मानी निकाल सकते हैं, पर महाराज ने हठ पकड़ लिया। युवराज सुरेन्द्र विक्रम उनके उत्तराधिकारी स्वीकार किये गये। जंगबहादुर ने यह चतुराई की कि अपने कुछ विश्वासी आदमियों को महाराज के साथ कर दिया, जिससे वह उनकी चेष्टाओं की सूचना देते रहे। महाराज जैसे अव्यवस्थित और अधिकार-लोलुप थे, इससे उन्हें डर था कि कहीं वह दुष्टी के बहकाने में न आ जायें। और उनकी आशंका ठीक निकली। काशी में नेपाल के कितने ही खुराफाती निर्वासित सरदार रहते थे। उन्होंने महाराज को उसकाना आरंभ किया कि नेपाल पर चढ़ाई करके जंगबहादुर के शासन को अन्त कर दें। महाराज पहले तो इस जाल में न फंसे, पर दिन-रात के संग-साथ और उसकाने- भड़काने ने अन्त में अपना असर दिखाया। महाराज को विश्वास हो गया कि जंगबहादुर सचमुच युवराज के नाम पर नेपाल पर खुद राज्य कर रहा है। वह जब नैपाल की ओर लौटे तो दुष्टों का एक दल जिसमें ३०० से कम आदमी न थे, उनके साथ चला। नेपाल की सरहद पर पहुँचकर महाराज सोचने लगे कि अब क्या करना उचित है। महारानी से पत्र व्यवहार हो रहा था और हमले की तैयारी जारी थी। बारियों में मन्त्री, सेना-नायक, कोषाध्यक्ष सब नियुक्त हो गये। व्यवस्थित रूप से सेना की भरती होने लगी। जंगबहादुर के खास अदिमियों ने महाराज को बहुत समझाया कि आप इस कार्रवाई से बाज रहें, पर वह धुन में कब किसी को सुनते थे। मुँह पर तो यही कहते थे कि यह सब अफवाहें गलत हैं, पर भीतर-भीतर पूरी तैयारी कर रहे थे। इधर वहाँ की हरएक बात की सूचना प्रतिदिन जंगबहादुर को मिलती रही। उनको डर लगा कि कहीं इस उपद्रव को आग सारे नैपाले में न फैल जाय और उसका उपाय कर देना आवश्यक समझा। उन्होने सारी सेना और सरदारो को तलब किया और महाराज की छिपी तैयारियों का पूरा हाल सुनाकर उन्हें राज्यच्युत करे देने का प्रस्ताव उपस्थित किया। सेना ने उनको अपना अफसर मानने और उनकी आज्ञा पर मरने-मारने को तैयार रहने की शपथ ली। महाराज के पास पत्र भेजा गया जिसमें उन पर राज्य से बागी होकर उस पर चढ़ाई करने का अभियोग लगाया गया था, और उनकी जगह युवराज के सिंहासनासीन होने की सूचना दी गई थी। महाराज पत्र पाते ही आग हो गये, सलाहकारों ने उसमें और घी उँडेल दिया। दो हजार जवान भरती हो चुके थे। उन्हें काठमांडू पर धावा करने का हुक्म दिया गया। जंगबहादुर ने कुछ रेजिमैंटे मुकाबले के लिए भेजी बागी भगा दिये गये। महाराज नजरचन्द कर लिये गये और उन पर कड़ी निगरानी रखने का प्रबन्ध कर दिया गया मन्त्रिपद पाने के दूसरे साल में जंगबहादुर इतने लोकप्रिय हो गये और प्रजा को उन पर इतना भरोसा हो गया कि स्वयं महाराज को भी उनके मुकाबले में हार खानी पड़ी।

इस संघर्ष से छुटकारा पाने के बाद जंगबहादुर ने सेना और शासन-प्रबन्ध के सुधारों की ओर ध्यान दिया, और प्रजा की कितनी ही पुरानी शिकायते' दुर कीं। आरंभिक जीवन में उन्हें खुद सरकारी कर्मचारियों से भुगतना पड़ा था। और साधारण कष्टों को इन्हें निजी अनुभव था। तीन-चार वर्ष के प्रधानमंत्रित्व में ही वह इतने लोकप्रिय हो गये कि लोग राजा को भूल गये और उन्हीं को अपना सब कुछ समझने लगे। खासकर सैनिक तो उन पर जान देते थे। इस बीच उनसे पुरानी जलन रखनेवाले कुछ आदमियों ने उन्हें क़त्ल करने की साजिश की। पर हर बार वे किसी ने किसी प्रकार पहले से सावधान हो जाते थे। महाराज सुरेन्द्रविक्रम ने राज्य-प्रबंध के सव अधिकार उन्हीं के हाथ में दे रखे थे, और खुद उसमें बहुत कम दखल देते थे। वही विकृतमस्तिष्क युवराज अब बहुत ही बुद्धिमान् और न्यायशील राजा हो गया था।

जंगबहादुर अग्रेजों के साहस, अवसर पहचानने की योग्यता और प्रबन्ध-कुशलता के बड़े प्रशंसक थे और उस देश को देखने की इच्छा रखते थे जहाँ ऐसी जाति उत्पन्न हो सकती है। अतः मार्च १८५० ई० में वह अपने कई संबन्धियों और विश्वासी सरदारों के साथ विलायत को रवाना हुए और इंग्लैण्ड, फ्रांस घूमते हुए १८५१ ई० में वापस आये। इंगलैण्ड में उनकी खूब आवमगत हुई और उन्हें अंग्रेज समाज को देखने-समझने का भरपूर अवसर मिला। इसमें सन्देई नहीं कि वह वहाँ से प्रगतिशीलता, दृष्टि की व्यापकता और सुप्रबन्ध की बहुमूल्य शिक्षाएँ लेकर लौटे। इसी समय से अंग्रेज जाति के साथ नेपाल की भिन्नता हुई और वह आज तक बनी है।

उनके विलायत से लौटने के थोड़े ही दिन बाद नैपाल को तिब्बत से लड़ना पड़ा और उनकी मुस्तैदी तथा प्रबन्ध-कुशलता से उसकी जीत पर जीत होती रही। अन्त में १८५५ में तिब्बत ने विवश होकर नैपाल से सुलह कर ली। इस सन्धि से नेपाल को व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त हुई। महाराज ने ऐसे नीति-कुशल, कार्यक्षम मन्त्री के साथ और गाढ़ा सम्बन्ध जोड़ने के विचार अपनी लड़की जंगबहादुर के लड़के के साथ ब्याह दी।

लगातार कई साल अविराम श्रम करते रहने के कारण जंगबहादुर का स्वास्थ्य कुछ बिगड़ रहा था। इसलिए १८५६ ई० में उन्होंने प्रधान मन्त्रित्व से इस्तीफा दे दिया। पर नैपाल उन्हें इतनी आसानी से छोड़ न सकता था। और देश के प्रभावशाली लोग इकट्ठा होकर उनके पास पहुंचे और इस्तीफा वापस लेने का अनुरोध किया। ग्रहों तक कि उन्हें महाराज के बदले गद्दी पर बिठाने को भी तैयार हो गये। पर जंगबहादुर ने कहा कि जिस व्यक्ति को मैंने अपने ही हाथों राज सिंहासन पर बैठाया उससे लड़ने को किसी तरह तैयार नहीं हो सकता! महाराज ने जब उनके इस त्याग की बात सुनी तो प्रसन्न होकर दो समृद्ध जिले उन्हें सौंप दिये और महाराज की उपाधि भी प्रदान की। जंगबहादुर इन जिलों के स्वाधीन नरेश बना दिये गये और प्रधान मन्त्री का पद भी वशगत बना दिया गया। इस अनुग्रह-अनुरोध से विवश होकर जंगबहादुर आरोग्य लाभ होते ही प्रधान मन्त्री की कुरसी पर जा विराजे!

इसी समय हिन्दुस्तान में विश्व की आग भड़क उठी। बारियों का बल बढ़ते देख तत्कालीन वायसराय लार्ड केनिंग ने जंगबहादुर से मदद माँगी। उन्होने तुरंत ही रेजीमेंटे रवाना कर दी और थोड़े समय बाद स्वयं बड़ी सेना लेकर आये। गोरखपुर, आजमगढ़, बस्ती, गोंड़ा आदि में बारियों के बड़े-बड़े दलो को छिन्न-भिन्न करते हुए लखनऊ पहुँचे और वहाँ से बारियों को निकालने में बड़ी मुस्तैदी से अंगरेज अफसरों की सहायता की। उनकी धाक ऐसी बैठी कि बारी उनका नाम सुनकर थर्रा जाते थे। इस प्रकार विप्लव का दमन करके यह नैपाल वापस गये। पर जब वारियों का एक बड़ा दल आश्रय के लिए नैपाल पहुँचा तो जंगबहादुर ने उनके विवाह के लिए काफी जमीन दे दी। उनकी सन्तान आज भी तराई, मैं आबाद है।

जंगबहादुर ने सन् १८७६ ई० तक राजकाज सम्हाली और देश में अनेक सुधार किये। जमीन का बन्दोबस्त और उत्तराधिकार विधान का संशोधन उन्हीं की बुद्धिमानी और प्रगतिशीलता के सुफल हैं। उन्हीं के सुप्रबन्ध की बदौलत फूट-फसाद दूर होकर देश सुखी-सम्पन्न बना। जहाँ हाकिम की मरजी ही क़ानूनी थी, वहाँ उन्होंने राज्य के हर विभाग को नियम और व्यवस्था से बाँध दिया।

जंगबहादुर बहादुर चित्त और नियम-निष्ठ राजनीतिक थे। इसमें संदेह नहीं कि प्रधान मन्त्रित्व प्राप्त करने के पहले उन्होंने सो सत्य और न्याय को अपनी नीति नहीं बनाया, फिर भी उनकी मंत्रित्व छाछ नैपल के इतिहास का उज्ज्वल अंश है। वह राजपूत थे और राजपूती धर्म को निभाने में गर्व करते थे। सिख राज्य के हास के बाद महारानी चंद्रकुंज़र चुनार के किले में नजरबंद की गयी। पर वह इस कारावास को सहन न कर सकीं और लौंडी के भेस में किले से निकलकर लबी यात्रा के कष्ट झेलते हुए किसी प्रकार नेपाल पहुँचीं। तथा जंगबहादुर को अपने इस विपद्ग्रस्त दशा में पहुँचने की सूचना भेजी। जंगबहादुर ने प्रसन्न-चित्त से उनका स्वागत किया। २५ हजार रुपया उनके लिए महल बनाने के लिए दिया और २११ हजार रुप्या माहवार गुज़ारा बॉध दिया। ब्रिटिश रेजीमेंट ने उन्हें अंग्रेज़ सरकार की नाराजगी का भय दिलाया, पर उन्होंने साफ़ जवाब दिया कि मैं राजपूत हुँ और राजपूत शरणागते की रक्षा करना अपना धर्म समझता है। हाँ, उन्होने यह विश्वास दिलाया कि रानी चन्द्रकुँवर अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध कोई कार्रवाई न करने पायेगी। रानी चंद्र का महल वहाँ अभी तक क़ायम है।

जंगबहादुर को शिकार का बेहद शौक था और इसी शिकार की बदौलत एक बार मरने से बचे। उनका निशाना कभी चुकता ही न था, रण-विद्या के पूरे पण्डित थे। सिपाहियों की बहादुरी की क़द्र करते थे और इसी लिए नैपाल की सारी सेना उन पर जान देती थीं।

जंगबहादुर यद्यपि उस युग में उत्पन्न हुए जब हिन्दू जाति निरर्थक रूढ़ियों की बेड़ी में जकड़ी हुई थी, पर वह स्वतन्त्र तथा प्रगतिशील विचार के व्यक्ति थे। नैपाल में एक नीच जाति के लोग बसते हैं जिन्हें कोची मोची कहते हैं। ऊँची जातिवाले उनसे बहुत बराव- बिलगाव रखते हैं। वे कुओं से पानी नहीं भरने पाते। उनके मुखियों ने जब जंगबहादुर से फ़रियाद की तो उन्होंने एक बड़ी सभा की जिसमें उक्त जाति के लोगों को भी बुलाया और भरी सभा में उनके हाथ को जल पीकर उन्हें सदा के लिए शुद्ध तथा सामाजिक दासत्व और अपमान से मुक्त कर दिया। भारत के बुद्धिभक्तों में कितने ऐसे हैं जो आधी शताब्दी के बीत जाने पर भी किसी अछूत के हाथ से जल ग्रहण करने का साहस कर सकें ? फिर भी जंगबहादुर उस पश्चिमी प्रकाश' से वंचित थे, जिस पर हम शिक्षित हिन्दुओं को इतना गर्व है या इसकी यह अर्थ नहीं कि वह खान पान में भी ऐसे ही स्वाधीन थे। इंगलैण्ड के प्रवास-काल में वह किसी दावत में खाने के लिए शरीक नहीं हुए। वह आवश्यक और अनावश्यक सुधार में भेद करना जानते थे। निडर ऐसे थे कि न्याय के प्रश्न पर स्वयं महाराज का भी विरोध करने में नहीं चूकते थे। प्रजा को राजकर्मचारियों के उत्पीड़न से बचाने का यत्न करते थे और किसी कर्मचारी को पकड़ पाते तो कड़ी सजा देते थे।

सारांश, उस जमाने में राणा जंगबहादुर की दम गनीमत थी। ऐसे राजनीतिज्ञ हिन्दुस्तान की दूसरी रियासतों में होते तो संभव हैं, उनमें से कुछ आज भी जीवित होती है पंजाब, सतारा, नागपुर, अवधे, वरमा आदि इसी काल में अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित हुए। संभव है कि अंग्रेज सरकार कुछ अधिक सहनशीलता दिखाती तो कदाचित् उनका अस्तित्व बना रहता, पर खूद उन राज्यों में ऐसे नैतिज्ञ या शासक न थे, जो उन्हें इस भयानक भंवर से सही-सलामत निकाले जाते। यद्यपि सारा नैपाल जंगबहादुर पर जान देता था और उनके बल-प्रभाव के सामने महाराज भी दब गये थे, फिर भी राज्य के सरदारों के बहुत आग्रह करने पर भी, राजा के करने के कामों को उन्होंने सदा अपने मन से दूर रखी। उस काल में भारत के दुसरे राज्यों के कर्णधारों में जैसा संघर्ष और खींचातानी चल रही थी, उसे देखते हुए इस देश के लिए जंगबहादुर की आत्मत्याग इसे कह सकते हैं।

१८७६ ई० के फरवरी महीने में जंगबहादुर शिकार खेलने गये थे। वहीं ज्वर-ग्रस्त हुए और साधारण-सी बीमारी के बाद २५ फरवरी को इस नश्वर संसार से विदा हो गये।

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