रामेशगर (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Rameshgar (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
मेरे लिए ये फ़ैसला करना मुश्किल था आया परवेज़ मुझे पसंद है या नहीं। कुछ दिनों से में उस के एक नॉवेल का बहुत चर्चा सुन रहा था। बूढ़े आदमी, जिन की ज़िंदगी का मक़सद दावतों में शिरकत करना है उस की बहुत तारीफ़ करते थे और बाअज़ औरतें जो अपने शौहरों से बिगड़ चुकी थीं इस बात की क़ाइल थीं कि वो नॉवेल मुसन्निफ़ की आइन्दा शानदार अदबी ज़िंदगी का पेश-ख़ैमा है। मैंने चंद रिव्यू पढ़े। जो क़तअन मुतज़ाद थे। बाअज़ नाक़िदों का ख़याल था कि मुसन्निफ़ ऐसा मेयारी नॉवेल लिख कर बेहतर नॉवेल निगारों की सफ़ में शामिल होगया है। मैंने जानबूझ कर ये नॉवेल न पढ़ा। क्योंकि मेरे ज़ेहन में ये ख़याल समा गया है कि किसी ऐसी किताब को जो अदबी हल्क़ों में हलचल मचा दे एक साल ठहर कर पढ़ना चाहिए। और हक़ीक़त ये है कि ये मीयाद गुज़र जाने पर आप उसे उमूमन नज़र-अंदाज कर देंगे। मेरी परवेज़ से एक दावत में मुलाक़ात हुई। मेरी मेज़बान दो उधेड़ अमरिकी औरतें थीं। दावत में एक जवान लड़की भी शरीक थी, जो ग़ालिबन मेज़बान की छोटी बहन थी। इस का नाम इफ़्फ़त था। वो ख़ासी तंदरुस्त और क़द-आवर थी वो ज़रा ज़्यादा तवाना और लंबी होती तो और भी भली मालूम होती। परवेज़ भी मेरे पास बैठा था। उम्र यही कोई बाईस तेईस साल दरमियाना क़द जिस्म की बनावट कुछ ऐसी थी कि वो नाटा मालूम होता। उस की जिल्द सुर्ख़ थी जो उस के चेहरे की हड्डियों पर अकड़ी हुई सी दिखाई देती थी। नाक लंबी, आँखें नीलगूं और सर के बाल भूरे रंग के। वो भूरे रंग की जैकेट और गिरे पतलून पहने था। उस के लब-ओ-लहजे और हरकात में कोई दिलकशी न थी उसे सिर्फ़ अपनी ज़ुबान से अपनी तारीफ़ करने की आदत थी। उसे अपने हम-असरों से सख़्त नफ़रत थी। उस की फ़ितरत में मज़ाह की कमी न थी। लेकिन मैं उस से पूरी तरह महज़ूज़ न हो सका। क्योंकि वो तीनों औरतें उस की हर एक बात पर यूंही लोटपोट हो जातीं। मैं नहीं कह सकता वो ज़हीन था या नहीं। अच्छा नॉवेल लिख लेना कोई ज़ेहानत की निशानी नहीं। इतना ज़रूर है कि वो ज़ाहिरी तौर पर आम इंसानों से ज़रा मुख़्तलिफ़ दिखाई देता है।
इत्तिफ़ाक़ की बात है दो तीन दिन बाद उस का नॉवेल मेरे हाथ लगा। मैंने उसे पढ़ा उस में आपबीती का रंग नुमायां था किरदारों का तअल्लुक़ दरमयाने तबक़ा के उन लोगों से था जो थोड़ी आमदन होने पर भी शानदार तरीक़े से रहने सहने की कोशिश करते हैं मज़ाह का मेयार बहुत आमियाना था। क्योंकि इस में उन लोगों का सिर्फ़ इस लिए मुँह चढ़ाया गया था कि वो ग़रीब और बूढ़े हैं। परवेज़ को इस बात का क़तअन कोई एहसास न था कि उन लोगों के मसाइल किस दर्जा हमदर्दी के मुस्तहिक़ हैं। मैं समझ गया कि इस नॉवेल की मक़बूलियत का सबब मुहब्बत का वो अफ़साना है जो इस के प्लाट की जान है। अंदाज़-ए-बयान में कोई ऐसी पुख़्तगी न थी। लेकिन इस के मुताले से पढ़ने वाले के ज़ेहन में जिन्सियत के शदीद एहसास का पैदा हो जाना यक़ीनी था।
मैंने परवेज़ को किताब के बारे में अपनी राय लिखी और साथ ही लंच पर भी मदऊ किया।
वो बहुत शर्मीला था। मैंने उसे बेअर का गिलास पेश किया। उस की गुफ़्तुगू से मुझे एहसास हुआ कि इस के अंदर एक हिजाब सा पैदा होगया है जिसे वो छुपाने की कोशिश कर रहा था मुझे वो आदाब से आरी नज़र आया। वो फ़ुज़ूल सी बातें कह कर अपनी उलझन को मिटाने के लिए क़हक़हा लगाता। उस का मक़सद अपने हम-असरों के ख़यालात की शदीद मुख़ालिफ़त करना था। वो काबिल-ए-नफ़रत इंसान था। ऐसे इंसान दुनिया से कुछ लेना चाहते हैं। लेकिन उन्हें अपनी आँखों के सामने किसी के हाथ फैले नज़र नहीं आते। वो शौहरत हासिल करने के लिए बेताब होते हैं।
परवेज़ अपने नॉवेल के मुतअल्लिक़ ख़ामोश था। पर जब मैंने उस की तारीफ़ की तो मारे शर्म के उस का चेहरा सुर्ख़ होगया। उसे उस की इशाअत से थोड़े पैसे नसीब हुए थे और अब पब्लिशर उसे आइन्दा नॉवेल लिखने के लिए कुछ रक़म माहाना दे रहे थे। वो चाहता था कि किसी ऐसे पुर-सकोन मुक़ाम पर पहुंच कर उसे मुकम्मल करे जहां ज़िंदगी की ज़रूरियात सस्ती मयस्सर हो सकें। मैंने उसे अपने पास चंद दिन बसर करने की दावत दी। इस दावत ने उस की आँखों में एक चमक पैदा कर दी।
“मेरी मौजूदगी से आप को तकलीफ़ तो न होगी।”
“क़तअन नहीं। मैं तुम्हारे लिए ख़ुराक और एक कमरे का बंद-ओ-बस्त कर दूँगा।”
“शुक्रिया। मैं आप को अपने इरादे से जल्द मुत्तला कर दूँगा।”
“ये सच्च है कि उस वक़्त मैंने उसे दावत दे दी। लेकिन चार हफ़्ते गुज़रने पर मेरे दिल में ये ख़याल पैदा हुआ कि वो फ़ुज़ूल इंसान है और उसे अपने पास बुलाना ठीक नहीं वो यक़ीनन मेरी ख़ामोश ज़िंदगी में मुख़िल होगा। उस ने अपने ख़त में जो मुझे उस ने चार हफ़्तों के बाद लिखा था उस में मायूस दौर-ए-ज़िंदगी का ज़िक्र किया था और इसी के ज़ेरे असर मैंने उसे तार दे कर बुला लिया।
वो आया और बहुत मसरूर हुआ। शाम को डिनर से फ़ारिग़ हो कर बाग़ में बैठे। उस ने अपने नॉवेल का ज़िक्र छेड़ा उस का प्लाट एक नौजवान मुसन्निफ़ और एक मुग़न्निया का रोमान था। वही पुराना तख़य्युल। ये ठीक है कि परवेज़ का इरादा इस अफ़साने को एक नए अंदाज़ से लिखने का था उस ने इस के मुतअल्लिक़ बहुत कुछ कहा उसे हरगिज़ एहसास न था कि वो अपने ही ख़्वाबों को अफ़साना की सूरत देना चाहता था। एक ऐसे ख़याली नौजवान के ख़्वाब जो यूंही अपने ज़ेहन में अपनी ज़ात से मुहब्बत करने वाली एक हद दर्जा हसीन और नाज़ुक महबूबा के तख़य्युल को पालता है। मुझे ये ना-पसंद न था कि वो अपनी क़ुव्वत-ए-बयान से ख़ून को गर्मा कर शायराना रंग दे रहा है।
मैंने उस से पूछा। “क्या तुम ने कभी किसी मुग़न्निया को देखा।”
“नहीं मैंने बहुत सी आप-बीतियां ज़रूरी पढ़ी हैं। और उस के एक एक नुक़्ता और मुख़्तलिफ़ वाक़ियात को जांचने की कोशिश की है”
“उस से क्या तुम्हारा मक़सद पूरा होगया?”
“ग़ालिबन”
उस ने अपनी ख़याली मुग़न्निया को मेरे सामने पेश किया। वो जवान थी हसीन थी मगर बड़ी काईयां। मोसीक़ी उस की जान थी। उस की आवाज़ और उस के ख़यालात मोसीक़ी से लबरेज़ थे वो आर्ट की मद्दाह थी। और अगर कोई गाने वाली उस के जज़्बात को ठेस पहुंचाती वो उस के गीत सुन कर उस की ख़ता को माफ़ कर देती बहुत फ़य्याज़ थी। और किसी की दुख भरी दास्तान सुन कर अपना सब कुछ क़ुर्बान कर देती। वो गहरी मुहब्बत करने वाली थी और अपने महबूब की ख़ातिर अगर सारी दुनिया से ठन जाये तो उसे परवा न थी।
“क्यों न तुम्हारी मुग़न्निया से मुलाक़ात करा दी जाये?”
“कैसे?”
“तुम अलमास को जानते हो क्या”
“बे-शक। मैंने उस का ज़िक्र अक्सर सुना है।”
“यहीं पास ही उस का मकान है। मैं उसे खाने पर बुलाऊंगा।”
“सच्च?”
“अगर वो तुम्हारे मेयार पर पूरी न उतरे तो मुझे इल्ज़ाम न देना।”
“मैं वाक़ई उस से मिलना चाहता हूँ।”
“अलमास किस से छुपी थी। वो फिल्मों के लिए गाना तर्क कर चुकी थी। लेकिन अब भी उस की आवाज़ में वही लोच थी और वही तरन्नुम। उस से मेरी मुलाक़ात चंद साल पहले हुई। जोशीले मिज़ाज की औरत थी। और गाने के इलावा अपने मुहब्बत के रूमानों के सबब मशहूर थी।
अक्सर मुझे अपनी मुहब्बत के अनोखे अफ़साने सुनाती और मुझे यक़ीन है कि वो सच्चाई से ख़ाली न थे। उस ने तीन चार दफ़ा अपनी शादी रचाई। क्योंकि हर बार चंद ही माह बाद ये रिश्ता टूट जाता था। वो लखनऊ की रहने वाली थी बहुत शुस्ता उर्दू बोलती थी। वो मुजर्रद आर्ट की मद्दाह थी। लेकिन उसे एक फ़रेब से ताबीर करती। इस लिए कि ये उस की आँखों में बहुत घुलता था। मुझे यक़ीन था कि इस मुग़न्निया से परवेज़ की मुलाक़ात मेरे लिए तफ़रीह का बाइस होगी। उसे मेरे हाँ का खाना पसंद था।
सब्ज़ रंग का नीम उर्यां लिबास पहने आई। गले में मोतियों की माला उंगलियों में जगमगाती अँगूठियां और बाँहों में हीरे जड़ी चूड़ियां थी।
“तुम कितनी भली मालूम देती हो। बहुत बन ठन के आई हो।”
अलमास ने कहा “ज़ियाफ़त ही तो है। तुम ने कहा था कि तुम्हारा दोस्त एक ज़हीन मुसन्निफ़ है और हुस्न-परस्त है।”
मैंने उसे शेरी का एक छोटा गिलास पेश किया। मैं उसे लिमि के नाम से पुकारता और वो मुझे मास्टर कह कर मुख़ातब करती। वो पैंतीस साल की मालूम होती थी। उस के चेहरे के ख़ुतूत से उस की सही उम्र का अंदाज़ा मुश्किल था वो कभी स्टेज पर बहुत हसीन दिखाई देती थी और अब अपनी लंबी नाक और गोश्त भरे चेहरे के बा-वस्फ़ ख़ूबसूरत दिखाई देती है।
वो बेवक़ूफ़ थी। अलबत्ता उसे एक ख़ास रंग में बातें करने का सलीक़ा आता था। जिस से लोग पहली मुलाक़ात में बहुत मुतअस्सिर होते। ये महिज़ एक तमाशा था। क्योंकि दर असल उसे इस क़िस्म की बातों से कोई दिलचस्पी न थी। ड्राइंगरूम में हम खाना खा रहे थे। नीचे बाग़ में संगतरे के पौदों से भीनी भीनी ख़ुशबू आरही थी। वो हमारे दरमयान बैठी शेरी की तारीफ़ कररही थी। बार बार उस की निगाहें चांद की तरफ़ उठतीं।
“अल्लाह रे क़ुदरत की रंगीनी इस वक़्त गाना किसे सूझ सकता है।”
परवेज़ ने ख़ामोशी से उस के अल्फ़ाज़ सुने। शेरी के दो गिलास ने उस पर नशा तारी कर दिया था। बड़ी बातूनी थी। उस की बातों से ज़ाहिर था कि वो एक ऐसी औरत है जिस से दुनिया ने अच्छा सुलूक नहीं किया। उस की ज़िंदगी हवादिस के ख़िलाफ़ एक मुसलसल जिद्द-ओ-जुहद थी। गाने के जलसों के मैनेजर उस से फ़रेब करते रहे। मुख़्तलिफ़ गवय्यों ने उसे बर्बाद करने की कोशिश की। इस के वो महबूब जिन की ख़ातिर उस ने अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया उसे ठुकरा कर चल दिए। ये सब कुछ हुआ लेकिन अपनी चालाकी और ज़ेहानत से उस ने सब के मंसूबे ख़ाक में मिलाए। मैं हैरान हूँ वो किस तरह मुझे अपने मुतअल्लिक़ अपनी ज़बान से ये हतक-आमेज़ बातें सुनाती रही। इसे हरगिज़ एहसास न था कि वो ख़ुद अपने अय्यार और ख़ुद-ग़र्ज़ होने का एतराफ़ कर रही है। मैंने नज़रें चुरा कर परवेज़ की तरफ़ देखा। वो यक़ीनन उस का अपनी ख़याली मुग़न्निया से मुक़ाबला कर के दिल ही दिल में कोई फ़ैसला कर चुका था। उस औरत का सीना दिल से ख़ाली था। जब वो रुख़सत हुई तो मैंने परवेज़ से कहा।
“कहो पसंद आई?”
“बहुत। बड़े काम की चीज़ है।”
“सच्च?”
“मेरी मुग़न्निया ऐसी ही है। उसे क्या ख़बर कि इस मुलाक़ात से पहले मैं उस का ज़ेहनी नक़्श तैय्यार कर चुका हूँ।”
मैंने हैरान नज़रों से उस की तरफ़ देखा।
“आर्ट की परस्तार है। उस की रूह में कितनी पाकीज़गी है। तंग-नज़र इंसान उस की राह में रोड़े अटकाते रहे हैं। लेकिन उस के इरादों की बुलंदी बिलआख़िर उसे कामयाब बना देती है। यक़ीन जानो मेरी मुग़न्निया की अलमास ज़िंदा तस्वीर है।”
मैं कुछ कहना चाहता था। लेकिन लब तक आई बात वहीं रुक गई। परवेज़ ने उस औरत में अपनी ख़याली मुग़न्निया को असल शक्ल में देख लिया था।
दो तीन दिन के बाद वो रुख़सत हीगया।
दिन गुज़रते गए। परवेज़ का दूसरा नॉवेल शाए हुआ तो उसे वो पहली सी कामयाबी नसीब न हो सकी। नक़्क़ाद जिन्हों ने इस के पहले नॉवेल की बेजा तारीफ़ की थी अब उसे यूंही कोसने लगे। अपनी ज़ात या ऐसे इंसानों के मुतअल्लिक़ जिन्हें हम बचपन से जानते हैं नॉवेल लिखना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन अपने तख़लीक़ किए हुए किरदारों को नॉवेल में जगह देना बड़ा काम है। उस के नॉवेल में काफ़ी रतब-ओ-याबस था। लेकिन उस का रोमान से भरा हुआ प्लाट शदीद जज़्बात का मज़हर था।
इस दावत के बाद एक साल तक अलमास से मिलना न हो सका। वो कलकत्ते में रक़्स-ओ-सुरूर के दौरे पर चली गई और गरमियों के आख़िर में लौटी एक दफ़ा उस ने मुझे खाने पर मदऊ किया। वहां उस की बावर्चन के इलावा कोई न था। ज़रा ज़रा सी बात पर उस पर बरस पड़ती। लेकिन इस के बग़ैर उस का गुज़ारा भी न था। वो उधेड़ उम्र की औरत थी। सर के बाल सफ़ैद हो चुके थे और चेहरे की झुर्रियों ने बुढ़ापे को और भी नुमायां कर दिया था। वो अनोखी वज़ा की औरत थी और अपनी मालकिन की रग रग से वाक़िफ़ थी।
अलमास नीले लिबास में बहुत भली मालूम होती थी। गले में माला और हाथों में चूड़ियां झूल झूल कर अपने सफ़र के हालात सुना रही थी। उस की ज़बान में लोच थी और बातों से ज़ाहिर था कि उसे इस दौरे में काफ़ी रक़म हाथ लगी है। उस ने अपनी नौकरानी से कहा।
“मेरी बातें सच्ची हैं ना?”
“एक हद तक।”
“कलकत्ते में जिस शख़्स से मुलाक़ात हुई थी उस का क्या नाम था?”
“कौन सा शख़्स?”
“बेवक़ूफ़। जिस से मेरी एक बार शादी हुई थी”
“नौकरानी ने मुँह बना कर जवाब दिया। “वो सेठ जौहरी”
“हाँ वही कोई क़ल्लाश था। अहमक़ इंसान मुझे हीरों की माला दे कर वापस लेना चाहता था।
सिर्फ़ इस लिए कि वो उस की माँ की मिल्कियत थी।”
“बेहतर होता अगर तुम सचमुच लौटा देतीं।”
“लौटा देती! तुम क्या पागल होगई हो!” फिर उस ने मुझ से कहा “आओ बाहर चलें। अगर मेरे अंदर का जज़्बा नर्म न होता तो मैं इस बुढ़िया को कभी का निकाल चुकी होती”
हम दोनों बाहर निकल कर बरामदे में बैठ गए। बाग़ीचा में सनोबर की शाख़ें तारों भरे आसमान की तरफ़ इशारा कर रही थीं। एका एकी अलमास बोल उठी “तुम्हारा वो पगला दोस्त और उस का नॉवेल ?”
मैं इस का मफ़हूम जल्दी न समझ सका।
“क्या कह रही हो?”
“पगले न बनो। वही हूंक जिस ने मेरे मुतअल्लिक़ नॉवेल लिखा था”
“लेकिन नॉवेल से तुम्हारा क्या तअल्लुक़?”
“क्यों नहीं मैं कोई पगली थोड़ी हूँ उस ने मुझे एक नुस्ख़ा भेजने की भी हिमाक़त की थी।”
“लेकिन तुम ने उसे शरफ़-ए-क़बूलियत बख्शा होगा।”
“मुझे क्या इतनी फ़ुर्सत है कि टके टके के मुसन्निफ़ों को ख़त लिखती फिरूं। तुम्हें कोई हक़ न था कि दावत पर बुला कर उस से मेरा तआरुफ़ कराते। मैंने सिर्फ़ तुम्हारी ख़ातिर दावत क़बूल की थी। लेकिन तुम ने ना-जायज़ फ़ायदा उठाया। अफ़सोस कि अब पुराने दोस्तों पर भी एतबार करना मुहाल होगया है। मैं आइन्दा तुम्हारे साथ कभी खाना न खाऊंगी।”
“ये तुम क्या छेड़ बैठी हो। इस नॉवेल में गाने वाली के किरदार का ख़ाका वो तुम्हारी मुलाक़ात से पहले तैय्यार कर चुका था और भला तुम्हारी इस से मुशाबहत ही क्या है!”
“क्यों नहीं मेरे दोस्तों को इस बात का यक़ीन है कि वो मेरी ही तस्वीर है”
“पर तुम को इस का यक़ीन क्यों है?”
“इस लिए कि मैंने एक दोस्त को ये कहते सुना कि ये मेरी ही कहानी है।”
“लेकिन नॉवेल की हैरोइन की उम्र तो सिर्फ़ पच्चीस साल है”
“मुझ ऐसी औरत के लिए उम्र कोई चीज़ नहीं”
“वो सरापा मोसीक़ी है। फ़ाख़्ता की तरह ख़ामोश और बेग़र्ज़। क्या तुम्हारी भी अपने मुतअल्लिक़ यही राय है?”
“और तुम्हारी मेरे बारे में क्या राय है?”
“नाख़ुन की तरह सख़्त। संगदिल ”
“उस ने मुझे एक ऐसे नाम से पुकारा जिसे औरतें किसी शरीफ़ मर्द को मुख़ातब करते वक़्त बहुत कम इस्तिमाल करती हैं। उस की आँखों में चमक थी लेकिन ये ज़ाहिर था कि वो नाराज़ नहीं।
“हीरे की अँगूठी की कहो। किया मैंने उसे ये क़िस्सा सुनाया?”
क़िस्सा ये है कि एक बड़ी रियासत के शहज़ादे ने तोहफ़े के तौर पर एक हीरा अलमास की नज़र क्या। एक शब दोनों में तकरार होगई और गाली ग्लोच तक नौबत पहुंची। उस ने वो अँगूठी उतार आग में फेंक दी। शहज़ादा छोटे दिल का था। घुटनों के बल हो कर आग में अँगूठी तलाश करने लगा। अलमास बड़ी नफ़रत आमेज़ निगाहों से उस की तरफ़ देखती रही।
शहज़ादे को अँगूठी मिल गई लेकिन वो अलमास से छिन गई। इस के बाद वो उस से मुहब्बत न कर सकी। ये वाक़िया रंगीन था। और परवेज़ ने इस का बड़े दिलकश अंदाज़ में ज़िक्र किया था।
“मैंने तुम्हें अपना समझ कर ये वाक़िया सुनाया था। भला ये कहाँ की शराफ़त है कि उसे लोगों के पढ़ने के लिए बयान कर दिया जाये।”
“मैं तो कई बार यही वाक़िया दूसरों की ज़ुबानी सुन चुका हूँ। ये तो बड़ी पुरानी हिकायत है।”
एक लम्हा के लिए उस ने हैरान निगाहों से मेरी तरफ़ देखा।
“कई बार ऐसा हुआ है। मैं ग़लत नहीं कह रही। ये ज़ाहिर है कि औरतें ग़ुस्सैली होती हैं और मर्द कमीना फ़ितरत, वो हीरा में अब भी तुम्हें दिखा सकती हूँ। इस वाक़िया के बाद मुझे उसे दुबारा चुराना पड़ा। मैं तुम्हें अब और वाक़िया सुनाती हूँ। बड़ा दिलचस्प है लेकिन देखो किसी को सुना न देना।”
मैंने कहा “सुनाओ ज़रूर सुनाओ। तुम्हारी ज़िंदगी का हर वाक़िया दिलचस्प होता है।”
“मैंने तुम्हें कभी मोतियों वाला क़िस्सा नहीं सुनाया?”
“मैं ये क़िस्सा इस से बेशतर सुन चुका हूँ”
मोतियों का एक बड़ा दौलतमंद अरब था। वो एक मुद्दत तक अलमास पर लट्टू रहा। हम जिस मकान में बैठे बातें कर रहे थे इस का दिया हुआ था।
अलमास ने कहना शुरू किया “पवन हिल पर बंबई में मेरे राग से मुतअस्सिर हो कर एक अरब ने मोतियों की माला मेरे गले में डाली। तुम तो शायद उसे नहीं जानते!”
“नहीं।”
“वो कोई इतना बड़ा न था। लेकिन बड़ा हासिद। एक बर्तानवी अफ़्सर की बात पर उस से ठन गई। मैं दुनिया में एक ऐसी औरत हूँ कि हर किसी की रसाई मुम्किन है लेकिन अपनी इज़्ज़त का किसे ख़याल नहीं। मैंने ग़ुस्से में वो मोतियों की माला उतार कर दहकती हुई अँगीठी में फेंक दी। वो चीख़ उठा कि ये तो पच्चास हज़ार रूपों की चीज़ है। उस का रंग ज़र्द होगया। मैंने ज़रा तनक कर कहा सिर्फ़ तुम्हारी मुहब्बत की वजह से मुझे ये माला अज़ीज़ थी और मुँह फेर लिया।”
“तुम ने कितनी हमाक़त की” मैंने कहा।
“चौबीस घंटे तक मैंने उस से कलाम न किया। और जब हम शिमले पहुंचे तो उस ने फ़ौरन ही नई मोतियों की माला ख़रीद दी।”
वो ज़ेर-ए-लब मुस्कराने लगी
“तुम ने क्या कहा था कि मैं बेवक़ूफ़ हूँ?। मैंने सच्चे मोतियों की माला तो वहीं बंक में रख दी थी और एक नक़ली ख़रीद कर ली। जिसे मैंने अँगीठी में फेंक दिया।”
वो बच्चे की तरह फरत-ए-मुसर्रत से हँसने लगी। ये भी इस का एक फ़रेब था।
“मर्द कितने पगले होते हैं” उस ने कहा
वो देर तक हंसती रही। और शायद इस वजह से उस पर एक मस्ती सी छाने लगी।
“मैं गाना चाहती हूँ प्यानो तो बजाओ”
अलमास धीमे सुरों में गाने लगी और जूंही उसे होंटों से निकलती हुई आवाज़ का एहसास हुआ वो बे-खु़द होगई। गीत ख़त्म हुआ। माहौल पर एक सुकूत छाने लगा वो खिड़की में खड़ी हो कर दरिया का नज़ारा करने लगी। रात का समां दिलफ़रेब था। मुझे यूं महसूस हुआ गोया मेरी रानों पर एक कपकपी तारी हो रही है अलमास फिर गाने लगी। ये मौत का राग था। वो राग रंग की महफ़िलों में अक्सर उस की नुमाइश कर चुकी थी। उस की सुरीली आवाज़ साकिन हवा को चीर कर पहाड़ों में इर्तिआश पैदा कर रही थी उस की आवाज़ में इतना दर्द था कि मुझ पर वज्द तारी हो गया। उस की आँखों से आँसू रवां थे। मेरी ज़बान गुंग हो गई। वो भी अभी तक खिड़की में खड़ी बाहर ख़ला में देख रही थी।
कितनी अजीब औरत थी। परवेज़ ने उसे ख़ूबियों का मुजस्समा तसव्वुर किया। लेकिन मुझे वो अपनी ज़िंदगी की तमाम तर नफ़रतों समेत प्यारी थी। लोगों को ये शिकायत है कि मुझे ऐसे लोग क्यों पसंद हैं जो ज़रूरत से ज़्यादा बुरे होते हैं। वो काबिल-ए-नफ़रत ज़रूर थी। लेकिन उस की ज़ात में दिलकशी उस से कहीं सवा थी।
सआदत हसन मंटो
(१२ अक्तूबर १९५४-ई.)