राक्षस : सविन्दरसिंह उप्पल (पंजाबी कहानी)
Rakshas : Savinder Singh Uppal
अगस्त के महीने में पाकिस्तान से निकलने के बाद पटियाला में जो कोठी हमने किराये पर ली उसका हुलिया ही बिगड़ा हुआ था। कुगृहणी की रसोई की तरह या किसी कबाड़ी की दुकान की तरह ऐसे लग रहा था जैसे मिट्टी से लथ-पथ इस बदकिस्मत कोठी की ओर किसी ने महीनों से आँख उठाकर भी न देखा हो। जिस एजेंट ने हमें किराये पर मकान दिलवाया था, उससे पता चला कि जिस वजीर की यह कोठी है, वह अब बड़ा वजीर बन गया है और उसे पटियाला में सरकारी कोठी मिल गयी है। वह उसी में रहता है। उसे वहाँ गये दो-तीन महीने हो गये हैं।
कोठी का कब्जा लेने के बाद सबसे जरूरी था उसकी सफाई करवाना और कमरों को धुलवाना। नए होने के कारण हमें यह भी पता नहीं था कि इस इलाके के भंगी कहाँ रहते हैं। साथ वाली कोठी से पता चला कि इस कोठी के भंगी का क्वार्टर कोई आधा फर्लांग पर है।
पूछता-पूछता जब मैं भंगी के क्वार्टर पर पहुचा तो देखा कि क्वार्टर बन्द है। दरवाजा खटखटाने पर एक अति सुन्दर, गोरे, भरे हुए चेहरे वाली युवती बाहर आयी और अपरिचित को देखकर पहले तो झिझकी फिर पूछा, “क्या काम है, सरदारजी?”
मैं उसका लम्बा कद, चढ़ती जवानी और गालों पर ढुल-ढुल पड़ती सेबों की लालिमा देखकर ठिठक गया और सोच में पड़ गया कि क्या यह भंगी का ही क्वार्टर है, या मुझे लोगों ने गलत बता दिया है। मैंने सोचा कि ऐसी हूर-परी भंगी की भला क्या लग सकती है? पर उसके मैले-कुचैले और घिसे-फिटे कपड़े और क्वार्टर के अन्दर की गन्दगी को देखकर लग रहा था कि यह भंगी का ही क्वार्टर है।
मुझे अपनी ओर टकटकी लगाये देखकर वह कुछ और अन्दर की तरफ हो गयी। ऐसे लगा जैसे कह रही हो कि सुन्दरता का क्या अमीरों ने ठेका ले रखा है, यह तो भगवान् की देन है, जिस पर उसकी कृपा हो जाए। फिर उसने कहा, “क्या आपको हमसे कोई काम है?”
और झटपट मेरे मुँह से निकल गया, “जी नहीं, इस इलाके के भंगी का क्वार्टर कौन-सा है”?
वह स्थिति को समझ गयी थी। थोड़ा-सा मुस्कराते हुए उसने कहा, “जी क्वार्टर तो यही है।” इतना कहकर वह अन्दर चली गयी। एक-दो सेकंड के बाद एक काला-सा, बदशक्ल मर्द मुँह को पोंछता हुआ बाहर आया। शायद वह अन्दर से रोटी खाकर आया था। उसकी अमावस्या की रात-सी शक्ल देखकर मैंने सोचा यहाँ दिन-रात का अनुपम मेल हुआ है। मेरे सूट-टाई की ओर देख वह बड़े आदर से बोला, “क्या सरदार साहब, क्या हुक्म है?”
मेरी हैरानगी अब काफी दूर हो चुकी थी। मैंने उसे सारी बात समझायी और बताया कि -'रोज काटेज' के हम नए किरायेदार हैं और कोठी की सफाई करवाना चाहते हैं।
“हजूर उस कोठी के भंगी हम ही हैं, अभी आते हैं सरकार।” उसके हाथ जोड़ने और कहने के लहजे से ऐसा लग रहा था जैसे कि वह कह रहा हो-”वजीर साहब के कोठी खाली कर जाने के बाद हमें तो बहुत नुकसान हुआ है। भगवान् का लाख-लाख धन्यवाद कि यह कोठी फिर आबाद हुई है।”
और मैं यह सोचता हुआ कोठी की तरफ चल पड़ा कि इस काले भंगी की वह 'गोरी' क्या लगती होगी। शायद उसकी औरत या दूर-पास की कोई बहन या भानजी हो। पर €या भंगियों के घर में भी ऐसी परियाम् जन्म ले सकती हैं? इसे तो किसी अमीर के घर जन्म लेकर किसी अमीर लड़के की रानी बनना चाहिए था। यदि यह किसी अमीर की लड़की होती और मैं इसे देख लेता तो मैं इस हीरे को हर कीमत पर खरीद लेता। पर अब, अब तो मुझे सब पता चल गया था।
कुछ समय बाद ही भंगी और वह युवती दो झाड़ू उठाए कोठी के अन्दर या गये और गन्दगी उठाने में लग गये। युवती ने झाड़ू लगाने से पहले अपनी चुनरी से नाक को ढँक लिया। शायद इसलिए कि धूल उड़कर उसके म€खन-जैसे अन्तर्मन को मैला न कर दे। दो-दो मिनट के बाद वह अपने पैरों और कपड़ों को झाड़ती। ऐसे लग रहा था जैसे कि वह अपने सुन्दर शरीर का बहुत खयाल रखती है और गन्दगी बुहारने के इस काम के बावजूद वह अपने शरीर को गन्दगी नहीं लगने देना चाहती। उसकी शरीरिक हरकतों से ऐसे भी लग रहा था जैसे कि इस काम से वह नफरत करती हो, पर पेट की खातिर उसे सब-कुछ करना पड़ रहा हो। शायद वह इस कटु सत्य को जानती थी कि इस दुनिया में अपनी मर्जी का काम कुछ नसीबवालों को ही मिलता है।
दूसरे दिन मर्द भंगी की जगह उसके साथ एक दस साल की बदसूरत लड़की आयी, जिसने कन्धे पर मैले से भरी बाल्टी और हाथ में एक छोटा-सा झाड़ू उठाया हुआ था। दूर से वे ऐसे लग रही थीं जैसे कोई अति सुन्दर रानी आगे-आगे चल रही हो और उसके पीछे-पीछे कोई नंजरवट्टू नौकरानी जा रही हो जिससे कि उसके चाँद-से मुखड़े को नंजर न लग जाए। जब मुझे उनकी बातों से मालूम पड़ा कि उस यौवन से भरपूर लड़की का नाम म€खनी है, तो मैं सोच में पड़ गया। उसके पिता ने शायद उसके म€खन-से कोमल गोरे शरीर को देखकर ही उसका नाम मक्खनी रखा होगा। फिर मन में ही मैं सुन्दरता की परख करने वाले और कद्रदान उसके पिता को दाद दिये बिना न रह सका। सुन्दरता व गुणों के अनुरूप नाम रखना भी तो किसी-किसी को ही आता है। बहुत-से लोग तो किसी के सुन्दर नाम को सुनकर ही उसे प्यार करने लगते हैं।
जब मेरी पत्नी ने धरती पर उतरे उस चाँद के टुकड़े को आँगन में झाडू लगाते हुए देखा तो सहसा उसके मुँह से निकल गया-”हे परमात्मा, तुम कितने बेअन्त हो, हाथ लगाने से मैली हो जाने वाली सुन्दरी को ऐसे गन्दे काम करने पड़ रहे हैं।” मेरी तरह सुन्दरता की कद्र करने वाली मेरी पत्नी को भी म€खनी धीरे-धीरे अच्छी लगने लगी। देखकर मैं प्रसन्न हुआ यह सोचते हुए कि एक और हमदर्द से मैं म€खनी के बारे में बातें कर सकूँगा।
कुछ दिनों में ही मेरी पत्नी ने अपने कई पुराने सूट मक़्खनी को दे दिये और मुझे बताया कि मक्खनी के मां-बाप मर चुके हैं और ये दोनों लड़कियाँ उस मर्द भंगी की बहनें हैं। म€खनी की भाभी को बच्चा होने वाला था इसलिए वह खुद काम पर नहीं आ सकती थी। म€खनी का भाई उसके जवान और सुन्दर होने के कारण दूर के मुहल्ले में खुद जाता था और म€खनी तथा छोटी बहन को साथ की कोठियों में काम करने के लिए भेजता था।
उसके भाई की बातों को सुनकर मैं यह सोचे बिना न रह सका कि 'इस दुनिया में बहुत सुन्दर और कीमती वस्तुओं का मालिक होना भी आदमी के लिए कई बार जान का खतरा बन जाती है।'
हमें इस कोठी में आये अभी बीस-पच्चीस दिन ही हुए थे कि एक रात सारे पटियाला में हल्ला मच गया। कोई इधर भाग रहा था तो कोई उधर भाग रहा था। मिनटों-सेकंडों में गोलियाँ चलने की आवांजें आने लगीं। पास के थाने से पता चला कि पाकिस्तान से आयी एक गाड़ी में मुर्दा और जख्मी शरणार्थियों को देखकर, सिखों और सिंधी हिन्दुओं के जोश का प्याला छलक पड़ा है और उन्होंने नारदाना चौक के लीग के दफ्तर और मुसलमानों के मुहल्लों पर हल्ला बोल दिया और मुसलमान हिन्दू-सिखों का डटकर मुकाबला कर रहे हैं।
सारी रात ठॉह-ठॉह की आवांज आती रही। सुबह का प्रकाश होते ही लोगों ने देखा कि सभी तरफ फौंजी सिपाही गश्त लगा रहे थे। सारे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया था।
अब रोज ही सुना जाता कि उस कोने में लड़ाई हो रही है, उस मुहल्ले के मुसलमानों को लूटा जा रहा है। क्या शरणार्थियों और क्या स्थानीय निवासी, सभी इधर-उधर ऐसे घूम रहे थे जैसे उन्होंने पाकिस्तान के मुसलमानों द्वारा हिन्दू-सिखों पर किये गये अत्याचारों का बदला यहाँ के बेकसूर मुसलमानों से लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया हो। उनका कसूर यही था कि यहाँ के मुसलमान पाकिस्तानी मुसलमानों के मजहब में विश्वास रखते हैं। कसूर किसी का और बदला किसी से। यह इन्सांफ था उन हिन्दू-सिखों का जो धर्म के जोश में इधर-उधर भाग रहे थे। उनकी हरकतों से ऐसा लग रहा था, जैसे इनसानियत पंख लगाकर उड़ गयी हो। यह सारी गड़बड़ी कुछ गुंडे ही कर रहे थे, क्या यहाँ और क्या वहाँ। शरींफ आदमी तो दोनों जगह ही जान, माल और इज्जत की चिन्ता में था।
मक्खनी और उसके भाई को खतरा तो नहीं था, क्योंकि वे हिन्दू थे, फिर भी उन सभी ने अपने दायें हाथों में लोहे के कड़े डाल लिए थे, जिससे कहीं फँस जाने की अवस्था में वे इस निशानी से वहशी हो चुके हिन्दू-सिखों को बता सकें कि वे हिन्दू हैं, मुसलमान नहीं। विशेष रूप से मक्खनी को इस खूँखार वायुमंडल से बहुत डर लगने लगा था। वह जानती थी कि अमन के समय में, कानून के डर से शरीफ बने हुए लड़के उसकी ओर आँखें फाड़-फाड़कर देखते थे, और कानून की परवाह न करने वाले बदमाश तो कुछ-न-कुछ बकवास करने से बाज नहीं आते थे। और अब! अब तो कानून की किताबों को अलमारी में बन्द करके ताले लगा दिये गये थे। मक्खनी अब अँधेरे में कभी घर से बाहर नहीं निकलती थी।
सड़क के दूसरी ओर, हमारी कोठी के सामने एक मस्जिद थी जिसे उस ओर के मुहल्लों के बचे-खुचे मुसलमानों के लिए सरकार ने कैम्प का रूप दे दिया था। वहाँ रात-दिन चीख-चिल्लाहट मची रहती। किसी से उसका प्यारा पति छीन लिया गया था, किसी की नौजवान क्वांरी लड़की का कुछ पता नहीं चल रहा था और किसी बदकिस्मत मां का इकलौता बेटा नेजों से छलनी कर दिया गया था। कई जख्मी, निढाल पडे थे। किसी की दायीं बांह काट दी गयी थी जिससे सारी उम्र वह कुछ न कर सके, किसी के पैर काटकर उसे चलने से लाचार कर दिया गया था, और किसी के दोनों हाथ काट दिये गये थे जिससे वह कुछ खाने-पीने के लिए दूसरों की मिन्नतें करता रहे। उनकी सुरक्षा के लिए सरकार ने कुछ फौजी सिपाहियों की वहाँ डयूटी लगा दी थी। उन्होंने मस्जिद के बाहर अपना एक बड़ा-सा तम्बू गाड़ लिया था।
उनकी इस दुर्दशा को देखकर मेरी माताजी को उन पर बहुत दया आयी, जबकि हमारे साथ भी ऐसा ही जुल्म हुआ था। माताजी ने नौकर से कहकर रात को बहुत-सा खाना बनवाया और नौकर को खुदा के बदनसीब लोगों में रोटी बाँट आने के लिए कहा।
रोटियों का टोकरा देखकर सभी का मन हुआ कि चीलों की तरह झपट्टा मारें पर एक-दो समझदारों के मना करने पर, भूख से व्याकुल होने के बावजूद किसी ने रोटी स्वीकार नहीं की। मनुष्य को मनुष्य पर विश्वास नहीं रहा था। नौकर सारी बात भाँप गया। उन्हें यह डर था कि रोटियों में कहीं जहर न हो जैसाकि उन दिनों खाने-पीने की चीजों में आमतौर पर डाल दिया जाता था। नौकन ने झट रोटी का एक टुकड़ा तोड़कर मुँह में डाल लिया। जैसे ही उन्हें रोटियों के ठीक होने का विश्वास हो गया वे गुड़ पर आयी मक्खियों की तरह रोटियों पर झपट पड़े। इससे जोर-से हल्ला मच गया।
नौकर ने अभी थोड़ी-सी रोटियाँ बाँटी थीं कि एक सिपाही ने उसे दबोच लिया-”ओ हातमताई के बेटे, कौन है तू?”
वह सिपाही नौकर को पकड़कर हमारी कोठी में ले आया। माताजी को देखते ही वह सिपाही किसी कौमी शान में बोला, “इसी मजहब के लोगों ने आपको बुरी तरह से पाकिस्तान से निकाला और आज आप उन्हीं लोगों पर दया दिखाकर रोटियाँ बाँट रही हैं? आपको कुछ तो सोचना चाहिए। हम आप लोगों का ही बदला ले रहे हैं, नहीं तो इन्होंने हमारा क्या बिगाड़ा है?”
उस सिपाही ने कौमी जोशी में यह सारा भाषण एक ही सांस में दे दिया।
“यह ठीक है पर बेचारों को भूखा मारना भी तो ठीक नहीं। फिर हमें भी तो किसी मुसलमान ने जान पर खेलकर बचाया था,” माताजी ने वैसे ही दया दिखाते हुए कहा।
पर उस सिपाही पर कोई असर नहीं हुआ। वह नौकर को कोठी के अन्दर धकेलता हुआ बोला, “अबे चला जा अन्दर, नहीं तो गर्दन मरोड़ दूँगा।” यह कह वह नथुने फुलाता अपने तम्बू की तरफ चला गया।
तम्बू के पास जाकर उसने देखा, उसके सभी साथी गप्पे हाँक रहे थे। नत्थासिंह कह रहा था, “भई, भगवान करे ऐसी गड़बड़ सदा होती रहे।”
“बहुत-कुछ मिल गया है क्या?” धर्मचन्द ने जानने के विचार से उसकी तरफ देखते हुए पूछा।
“और क्या भैया, बहुत समय से इच्छा थी कि एक रेडियो लें। कुछ रिकॉर्ड सुनने की भी इच्छा थी। पर तनख्वाह से तो साली रोटी भी नहीं चलती। हम तो आज सुबह एक घर से बन्दूक का डर दिखाकर, रेडियो उठा लाये हैं।” नत्थासिंह ने बड़े गर्व से कहा जैसे कि उसने कोई बहुत बड़ा पुण्य का काम किया हो।
“हाँ, ऐसे तो बहुत मौज हो रही है। तेरी भाभी रोज सूट-सूट करती रहती थी। मैं कल रात एक मुसलमान के घर में जा घुसा और ससुरा सूटों से भरा हुआ ट्रंक ही उठा लाया।” बख्सीससिंह ने मूछों को ताव देते हुए कहा।
'हमें तो भैया, सिलाई मशीन की बहुत कमी महसूस होती थी। वह हम एक घर से उठा लाये हैं। भगवान् की कृपा से छ: बच्चे जो हुए।' धर्मचन्द ने बाकी साथियों की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा।
“नुकसान तो इन शरणार्थियों का हुआ और फायदा हम गरीबों का। पर सुना नत्थसिंह ! कोई रसीला माल भी मिला कि नहीं?” बख्सीससिंह ने बातों को रोचक मोड़ देते हुए कहा।
“माल चखा तो बहुत है, पर यार अभी कोई सुसरी मतलब की मिली नहीं।”
“आजकल औरतों की €या कोई कमी है, जिसे चाहो पकड़ लो।” धर्मचन्द ने इस तरह के हालात पर खुश होते हुए कहा।
फिर नत्थासिंह ने दूर पहरे पर खड़े प्रहलादसिंह की तरफ देखते हुए कहा, “ओ प्रहलादसिंह। आ जा इधर, इन ससुरों को कोई नहीं छेड़ता।”
“नहीं यार, अभी एक शरणार्थी का नौकर इन मुसलमानों में रोटी बाँटने आया था। पता नहीं ये शरणार्थी किसी मिट्टी के बने हैं।” प्रहलादसिंह ने कुछ पास आकर अपने साथियों से कहा।
और नत्थासिंह ने मस्जिद के बाहर हजार वाट के बल्ब की रोशनी में देखा एक अति सुन्दर युवती अकेली जा रही है। उसे देखते ही उसकी लार टपकने लगी। उसने बख्सीससिंह को कचोटते हुए कहा, “भई बख्सीससिंह, कैसी बाँकी युवती है।”
“सच, यह तो मलाई है मलाई।” बिजली की तेज रोशनी में उस युवती के दिपदिपाते हुस्न के नशे में बख्सीससिंह ने जवाब दिया।
यह मक्खनी थी जो दाई को बुलाने जा रही थी क्योंकि उसकी भाभी को अचानक प्रसव पीड़ा होने लगी थी। उसका भाई खर्चा पूरा करने के लिए फालतू चार पैसे कमाने के विचार से सरकारी ट्रकों पर रातों-रात मुर्दे लादने के लिए गया हुआथा।
पलक झपकते ही नत्थासिंह और बख्सीससिंह अकेली मक्खनी पर झपट पड़े और उसके मुंह को बन्द कर तम्बू में ले आये। मक्खनी मछली की तरह तड़प रही थी। वह रोयी-चिल्लायी पर किसी ने उसकी फरियाद नहीं सुनी। मक्खनी ने बहुत कहा, “मैं हिन्दू हूँ..यह देखो मेरा लोहे का कड़ा।” पर किसी ने उसकी नहीं सुनी। बल्कि नत्थासिंह ने कहा, “तू हिन्दू है या मुसलमान, क्या फर्क पड़ता है। आजकल इन बातों को कौन देखता है, क्यों भई बख्सीससिंह?”
“और क्या” बख्सीससिंह ने करीब आकर मक्खनी के हुस्न की प्रशंसा करते हुए कहा।
मक्खनी ने खुद को किसी फाख्ता की तरह राक्षसों के हाथों में जकड़ा हुआ महसूस किया।
धर्मचन्द ने मक्खनी को दिन में झाड़ू देते हुए कई बार देखा था। उसने उसे पहचानते हुए कहा, “ओ नत्थासिंह यह तो भंगन है, क्यों धर्म भ्रष्ट कर रहा है।”
“ओए, तुझे क्या पता, हमारे गुरुओं ने जाति-पांति का कोई भेद नहीं रखा है।”
उसकी दबी सिसकियों से बहुत देर तक वायुमंडल काँपता रहा। फिर पता नहीं किस समय सिसकियाँ बन्द हो गयीं।
(अनुवाद : सविन्दरसिंह उप्पल)