राजनीति (कहानी) : गुरुदत्त
Rajneeti (Hindi Story) : Gurudutt
बहुत छोटी अवस्था की बात है । यह स्मरण नहीं कि उस समय कितनी वयस थी । इतना स्मरण है कि मैं तब
स्कूल अथवा पाधे से भी पढ़ने नहीं जाता था । उन दिनों मेरा मुख्य काम था खाना -पीना और खेलना ।
भाई- दूज का दिन था । बहनें भाइयों को टीका लगाने आई हुई थीं । हम तीन भाई थे और हमारी चार बहनें थीं । इन
चार में एक बाल विधवा थी । वह प्रायः पिताजी के घर पर ही रहती थी । कभी- कभार अपनी ससुराल जाया करती
थी । तीन बहनें ससुराल से मिठाई, फल, पुष्पमाला और पान लाई थीं । विधवा बहन ने भी छुहारे और बतासे एक
थाली में रखकर दूसरी बहनों के सामान के साथ अपनी थाली रख दी थी ।
मकान के नीचे के कुएँ से स्नान कर और पहले दिनवाले वस्त्र पहन मैं ऊपर आया था कि माँ ने मुझे नए धुले
हुए वस्त्र देकर कहा, " इन्हें पहन लो । "
" क्या है ? " मेरा प्रश्न था ।
" बहनें टीका लगाएँगी । आज धुले वस्त्र पहनने चाहिए । "
हमारे मकान में ऊपर की मंजिल पर तीन कमरे और एक बरसाती थी । एक कमरे को बड़े भाई ने अपनी बैठक
बनाया हुआ था और वह बरसाती में सोते थे। एक अन्य कमरा मँझले भाई के पास था । वह पिताजी के साथ दुकान
पर काम करते थे, इस कारण उनके लिए पृथक् बैठक की आवश्यकता नहीं समझी गई थी ।
मैं मँझले भाई के कमरे में गया और वहाँ कपड़े बदलकर बड़े कमरे में आ गया । मेरे वहाँ पहुँचते ही माताजी ने
कहा, "जाओ दुकान पर , और पिताजी से बहनों को देने के लिए पैसे ले आओ। "
मैं दुकान पर गया । दुकान मकान के नीचे ही थी । हमारा मकान एक तरफ बाजार में पड़ता था , उधर ही दुकान
थी । दूसरी तरफ भूरिया की गली थी ।
मकान की ऊपर की मंजिल से नीचे आया और दुकान पर जाकर माताजी की बात पिताजी को कह दी । पिताजी
ने चार- चार आने की चार कागज की पुडिया बनाकर दे दी और कहा, " यह चारों के लिए हैं । "
मैं ऊपर आ दोनों भाइयों के बीच में बैठ गया । बहनों ने केसर से टीका लगाया । ऊपर चावल लगा दिए । तदनंतर
गले में फूलों की माला और मुख में एक - एक टुकड़ा मिठाई डाल दी । बड़े भाई ने बहनों को दो - दो रुपए दिए । छोटे
भाई ने एक - एक रुपया दिया और मैंने ताँबे के पैसोंवाली एक - एक पुडिया दी । तदनंतर मैं नीचे गली में खेलने चला
गया । बाल्यकाल का मेरा एक मित्र था । नाम था चुन्नीलाल । वह भी माथे पर तिलक लगाए हुए गली में खड़ा था ।
मैं आया तो दोनों खेलने लगे । मध्याह्न के समय भूख लगी तो दोनों अपने - अपने मकान की छत पर चले गए ।
उस कमरे में जहाँ बैठ बहनों ने टीका लगाया था , वहीं बैठकर खाना खाया जाता था । मैं बैठा तो माँ ने चने की
दाल और चावल की बनी खिचड़ी थाली में डाल दी । मैंने खाते हुए पूछा, " भाभी! " माताजी को हम ऐसे ही
संबोधित किया करते थे । वह भी किसी की भाभी रही होगी और अब तो परिवार में सबकी भाभी बन गई थीं ।
" वह मिठाई ? "
" वह तुम्हारी भौजाइयाँ ले गई हैं । "
" और मेरे हिस्से की ? "
माताजी चुप बैठी रहीं । समीप बैठी छोटी भौजाई ने पूछा, “ बहनों को क्या दिया था ? "
मैंने बताया , " चार - चार आने । "
वह बोली, " चार- चार आने में इतनी ही मिलती है । "
वास्तव में मुझे तो कुछ भी नहीं मिली थी । टीका करते समय बरफी का एक छोटा टुकड़ा मुख में दिया था बस!
मैंने कहा, " कुछ तो मिलनी थी । " इसका उत्तर भौजाई ने नहीं दिया । माँ तो पहले ही चुप थी । मैं भी चुप रहा, परंतु
मन में असंतोष बना रहा । भोजन कर चुका तो माँ ने दुकान पर भेज दिया और कहा, “ पिताजी को भेज दो और स्वयं दुकान पर बैठना । "
दुकान पर जाकर मैंने पिताजी को कहा, " मुझे मिठाई नहीं मिली । "
" क्यों ? "
" भौजाइयों ने ले ली है । "
पिताजी ने कहा, " वे बड़ी हैं । इसलिए उन्होंने ले ली है । "
मैं इस युक्ति को नहीं समझा । परंतु अब समझने लगा हूँ । इसे समझने में अनुभवों की एक लंबी प्रक्रिया में से
गुजरना पड़ा है ।
उस घटना को घटे लगभग अस्सी वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और अब समझ में आ रहा है कि इस भूमंडल में
राजनीति के नाम पर यही कुछ हो रहा है ।
इ
स लंबे काल के विभिन्न अनुभवों को ही मैं राजनीति की शिक्षा मानता हूँ और इस घटना का अर्थ आज
मस्तिष्क में स्पष्ट हुआ है ।
परिवार में बड़े का अर्थ तो यह है ही कि जो व्यक्ति कुछ वर्ष पहले इस संसार में आया । यही उस समय मैं
समझा था । मैं कुछ वर्ष पीछे क्यों रह गया, यह समझ नहीं सका था । फिर भी यह समझा हूँ कि वे बड़े थे,
इसलिए ले गए यह संतोषजनक उत्तर नहीं था । आज भी यह संतोषजनक समझ में
आज भी राजनीति में इस सफाई को ठीक नहीं माना जाता । परंतु मुझे यह समझ में आ रहा है कि भौजाइयों का
मिठाई ले जाना और मुझे केवल उतना ही देना , जो उस समय मुख चोलने को मिली थी , ठीक ही था । दोनों
भौजाइयों ने कितना -कितना भाग लिया था , यह मुझे पता नहीं चला । परंतु मुझे मुख मीठा करने मात्र को मिला, यही
पर्याप्त समझा गया था ।
मैं समाज में नेता नहीं माना जाता । न ही इस समय प्रचारक , उपदेशक , शिक्षक इत्यादि किसी प्रकार की उपाधि
से युक्त हूँ ।
फिर भी लिख रहा हूँ । इस वृद्धावस्था में उनको स्मरण करने में रस मिलता है । इनसे किसी को लाभ होगा
अथवा नहीं , यह मेरी चिंता का विषय नहीं है ।
ये संस्मरण बड़े- बड़े नेताओं, गुरुजनों अथवा अधिकारियों से संपर्क के नहीं हैं वरन् बदलते काल में अपने मन
और अपनी बुद्धि का विकास तथा देश की प्रगति अथवा विगति की अपने मन पर उत्पन्न प्रतिक्रिया के हैं ।
आज देश में व्यापक रूप में जो कुछ समझा जा रहा है, वह अपनी समझ से कुछ विलक्षण है । मैं तो स्वयं को
ठीक समझता ही हूँ, परंतु दूसरे जो भी समझें, उनका अधिकार ।
जिसे राजनीति समझा जाता है और जब की बात मैं लिख रहा हूँ, तब भी ऐसा ही समझा जाता था , उसका
मस्तिष्क पर पहला आघात हुआ सन् 1904 में ।
मैं डी. ए. वी . हाई स्कूल की चौथी श्रेणी में पढ़ता था । हमारे एक मास्टर थे लाला कृपाराम । वह हमें किंडरगार्टन
और सामान्य ज्ञान की शिक्षा दिया करते थे ।
एक दिन वह श्रेणी में आए और कहने लगे, " कल रविवार है और अपने देश में एक नई बात होनेवाली है । "
सब विद्यार्थियों का ध्यान मास्टरजी की ओर आकर्षित हुआ तो उन्होंने लड़कों से पूछ लिया, " जानते हो , हमारे
देश का क्या नाम है ? "
मास्टरजी ने एक लड़के की ओर संकेत कर पूछा, " मदनलाल! तुम बताओ। "
मदनलाल मेरे साथ ही बेंच पर बैठा हुआ था । वह उठकर बोला, "हिंदुस्तान । "
" और इसमें रहनेवालों का क्या नाम है ? " मास्टरजी ने पूछा ।
"हिंदुस्तानी । "
" कल हम हिंदुस्तानी यह घोषणा करनेवाले हैं कि यह देश हमारा है । अंग्रेज यहाँ से चले जाएँ । जानते हो
क्यों ? " मास्टरजी ने लड़कों से पूछा । ।
मैंने हाथ खड़ा कर संकेत किया कि मैं जानता हूँ ।
" हाँ , गुरुदास बताएगा। " मास्टरजी ने कहा ।
उन दिनों मैं गुरुदास के नाम से जाना जाता था ।
मैंने खड़े होकर, उन दिनों के एक मशहूर गाने का एक पद बोल दिया — "हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्ताँ
हमारा । "
लड़कों ने ताली बजा दी । मास्टरजी ने कहा , " कल हम यही घोषणा करनेवाले हैं कि यह हिंदुस्तान हमारा देश
है । शहर में लोहे के तालाब पर लंगे-मंडी के मैदान में जलसा होगा और हमारे नेता लाला लाजपतराय व्याख्यान
देंगे । सब लड़कों को वहाँ चार बजे पहुँच जाना चाहिए । "
हमारा एक सहपाठी जयदेव था । वह हमारी श्रेणी में सबसे नालायक समझा जाता था । पिछले वर्ष वह इसी श्रेणी
में फेलहुआ था । परिणामस्वरूप वह और उसका छोटा भाई दोनों एक ही श्रेणी में पढ़ते थे ।
जयदेव शक्ति में और लंबाई में श्रेणी के विद्यार्थियों में सबसे अधिक था । वह उठ खड़ा हुआ और पूछने लगा ,
" पर मास्टरजी! अंग्रेजों में क्या बुराई है? " लड़के हँस पड़े। उनके हँसने का कारण था डी. ए. वी . स्कूल का
वातावरण । उस समय पंजाब में आर्यसमाज और आर्यसमाज का डी. ए. वी. स्कूल तथा कॉलिज देशभक्ति
सिखानेवाली संस्थाएँ समझी जाती थीं ।
परंतु मास्टरजी ने जयदेव को उत्तर में देशभक्ति की वह शिक्षा दी , जिसको मैं आज तक नहीं भूल सका ।
मास्टरजी ने पूछा, " जयदेव ! कहाँ रहते हो ? "
जयदेव अभी भी खड़ा था । वह बोला, " मुहल्ले सत्था में । "
"किसके मकान में रहते हो ? "
" अपने मकान में । "
" वह मकान तुम्हारा क्यों है ? "
" मेरे बाप -दादाओं का है । "
" यदि उसमें कोई दूसरा घुस आए तो क्या करोगे? "
" हम सब घरवाले उसको धक्के मार - मारकर निकाल देंगे । "
" तो जयदेव , यही बात हिंदुस्तान की है । यह देश हमारा घर है । हमारे बाप- दादा सदियों से यहाँ रहते आए हैं ।
और ये गोरे -फिरंगी छह हजार मील से आकर इसमें घुसकर बैठ गए हैं । इसी कारण हम सब मिलकर उनको धक्के
दे- देकर निकाल रहे हैं । "
जयदेव क्या समझा और क्या नहीं समझा, यह तो मैं नहीं जानता , परंतु मेरे मस्तिष्क में बात स्पष्ट थी । मैंने ही तो
कहा था , हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्ताँ हमारा । और मास्टरजी ने मेरी बात का समर्थन किया था ।
स्कूल में देश से प्रेम की शिक्षा स्वामी दयानंदजी की शिक्षा का एक अंग थी । उन दिनों उनकी स्मृति में चलाया
जा रहा स्कूल और कॉलिज उनकी बात का कार्य- रूप ही था । मेरा राजनीति का आरंभ वहीं से हुआ ।
वैसे डी .ए. वी . स्कूल और कॉलिज स्वामी दयानंद की स्मृति में खोले गए, यह ठीक है कि आर्यसमाज और
इसके अधीन सब संस्थाएँ देश -प्रेम और ज्ञान की स्वतंत्रता की पोषक मानी जाती थीं । और वे संस्थाएँ जो हिंदू
समाज में सुधार के स्थान पर रूढ़िवादिता बनाए रखने का प्रचार करती थीं, वे सरकार - भक्त समझी जाती थीं । इनमें
अपवाद कहीं- कहीं ही थे।
मैं अपने संस्मरणों की बात कह रहा हूँ । जिस दिन स्कूल से यह प्रेरणा लेकर कि अगले दिन लाला
लाजपतरायजी का व्याख्यान सुनने के लिए जाना है, घर पहुँचा और सायंकाल अपने बड़े भाई लाला लक्ष्मणदासजी
से कहा तो वह बोले, " हम सब व्याख्यान सुनने चल रहे हैं । "
हम सबके विशेष अर्थ थे ।
मोहल्ले में आठ - दस के लगभग ऐसे युवक थे, जो स्वयं को पढ़े-लिखे मानते थे। वैसे उनकी शिक्षा आठवीं और
दसवीं श्रेणी तक ही थी । मेरे बड़े भाई भी मिडल फेल थे । मोहल्ले में सबसे अधिक पढ़े-लिखे थे लाला बूटाराम । वे
इंटर पास थे अर्थात् एफ . ए. ( बारहवीं श्रेणी तक ) पढ़े थे । वह उन दिनों ईसाई स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाते थे । एक
अन्य साहब थे। वे थे लाला रामदास वकील । वह भी एफ . ए. पास कर मुखतार की परीक्षा उत्तीर्ण कर कचहरी जाने
लगे थे और समय पाकर अभ्यास के कारण वकील का लाइसेंस पा गए थे ।
ये दोनों पढ़े-लिखे व्यक्ति मोहल्ले के अन्य नौकरी -पेशा लोगों से अपने को पृथक् समझते थे। इनमें लाला
बूटाराम तो कभी- कभार दूसरों की संगति में आ भी जाते थे। वकील रामदास अपने को सर्वथा पृथक् समझते थे ।
इन कम पढ़े-लिखे नौकरी -पेशा लोगों की एक गोष्ठी होती थी । ये प्रति सायंकाल पिताजी की दुकान पर मिला
करते थे ।
मैं सन् 1902 से 1907 तक की बात कह रहा हूँ । उन दिनों पिताजी की दुकान का काम प्रायः दीपक जले
समाप्त हो जाता था । उनकी अत्तारी की दुकान थी और साथ ही चिकित्सा- कार्य होता था ।
दीपक जलने के उपरांत ग्राहक प्रायः नहीं आते थे। दुकान के बाहर दो बेंच, एक खाट और एक - दो स्टूल रख
दिए जाते थे और भाई साहब के साथी, मोहल्ले के पढ़े-लिखे नौकरी - पेशा लोग वहाँ एकत्र हो जाते थे। एक व्यक्ति
दैनिक अथवा साप्ताहिक उर्दू का पत्र पढ़कर सुनाया करता और अन्य लोग सुना करते थे। पढ़नेवाले प्रायः लाला
बालकराम होते थे । वह दसवीं जमायत पास थे और लाहौर बैंक में नौकरी करते थे ।
किसी दिन कोई विशेष समाचार होता तो सड़क पर चलते- चलते लोग भी खड़े होकर सुनने लगते थे ।
मेरी राजनीतिक शिक्षा की दूसरी पाठशाला यही थी । उस दिन भाई साहब ने जब कहा , हम सब चलेंगे तो उनका
अभिप्राय इसी गोष्ठी के सदस्यों से था ।
उस सायंकाल पैसा अखबार समाचार - पत्र पढ़ा गया । यह समाचार था कि बंगाल की स्वदेशी सभा ने यह
फैसला किया है कि पूरे देश में रविवार के दिन सभाएँ की जाएँ , जिनमें यह प्रस्ताव पास किया जाए कि हम विदेशी
माल नहीं लेंगे और स्वदेशी माल खरीदा करेंगे ।
उस दिन की गोष्ठी में भाई साहब ने कहा कि हम सब लोगों को लंगे मंडी, लोहे के तालाब के मैदान में लाला
लाजपतराय का व्याख्यान सनने चलना चाहिए ।
इस स्वदेशी आंदोलन की भी एक पृष्ठभूमि थी । वैसे तो स्वदेशी माल न खरीदने का आंदोलन देश में चिरकाल
से चल रहा था । स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, बालगंगाधर तिलक इत्यादि नेता लोग इसके लिए आग्रह कर
चुके थे। परंतु उन दिनों इस आंदोलन में उग्रता आने का कारण यह था कि कुछ लोगों ने विदेशी सरकार को यहाँ से
निकाल बाहर करने का उपाय यह बताया था कि अंग्रेज हिंदुस्तान में व्यापार करने आए थे और व्यापार में सुविधा
प्राप्ति के लिए ही यहाँ राज्य जमा बैठे हैं । इस कारण यदि इनको यहाँ व्यापार करने में सुविधा नहीं रहेगी तो ये
स्वयमेव देश छोड़कर चले जाएँगे ।
ब्रिटिश सरकार को निकालने की इस योजना को बल मिला था बंगाल-विभाजन के कारण । बंगाल-विभाजन में
सरकार को क्या लाभ था , यह तो स्पष्ट नहीं है, परंतु जनता को यह समझ में आया था कि अंग्रेजी सरकार का
विरोध देश में रहनेवाले प्रायः हिंदू ही करते हैं । अंग्रेजी सरकार हिंदुओं के विरुद्ध थी और बंगाल-विभाजन बंगाल
के धनी- मानी हिंदुओं को हानि पहुँचाने के लिए था । मुसलमान नेता बंगाल -विभाजन का समर्थन कर रहे थे और
हिंदू बंगाली हिंदुओं के नेतृत्व में इसका विरोध कर रहे थे।
वास्तव में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन की नीति का यह एक अंग था । इस कारण आंदोलन के विरोध में
अंग्रेजी सरकार को देश से भगा देने के लिए स्वदेशी आंदोलन जोर पकड़ रहा था ।
अगले दिन हमारे मोहल्ले की गोष्ठी के प्रायः सदस्य लगे मंडी के मैदान में जा पहुँचे। मेरे भाई साहब मुझे भी
साथ ले गए थे। इस सभा में पंडित विष्णु दिगंबर ने वंदे मातरम् गीत गाया ।
पंडित विष्णु दिगंबर भारत के प्रसिद्ध संगीतकारों में हुए हैं । वे रहनेवाले तो महाराष्ट्र के थे, परंतु उन्होंने दो
संगीत विद्यालय खोले हुए थे। एक मुंबई में और दूसरा लाहौर में । जिस मैदान में यह जलसा हो रहा था, उसके
समीप ही एक मकान में इनका उन दिनों गंधर्व महाविद्यालय के नाम से संगीत विद्यालय चलता था और श्री विष्णु
दिगंबरजी ने ही इस सभा में वंदे मातरम् गीत गाया था । इस गीत के विषय में मुझे ज्ञान था । बंकिमचंद्र के
उपन्यास आनंदमठ का अनुवाद उर्दू में छप चुका था और पिताजी की दुकान पर कई दिन तक इस उपन्यास का
संपूर्ण पाठ हो चुका था । उसमें सुजलां सुफलां... इत्यादि गीत की ख्याति का ज्ञान मुझे था । समाचार - पत्रों में यह
विख्यात हो चुका था कि बंगाल में इस गीत को राष्ट्रीय गीत माना जाता है ।
लाला लाजपतरायजी के व्याख्यान के पूर्व पंडित विष्णु दिगंबरजी ने गीत गाया और सभा के सब लोगों ने खड़े
होकर इस गीत को ऐसे ही सुना मानो भगवान् की आरती उतारी जा रही है ।
गीत के उपरांत लाला लाजपतरायजी का व्याख्यान हुआ । लालाजी ने बड़े गर्व से कहा था कि वह हिंदूहैं । उनका
कहना था कि यद्यपि सब ओर से लोग हिंदू की निंदा करते हैं , इस पर भी वह हिंदू हैं , हिंदू रहेंगे, हिंदू के रूप में ही
मरेंगे । इसके साथ ही उन्होंने एक पक्षी की कथा सुना दी ।
किसी वृक्ष को आग लगी थी । उस पर एक तोता बैठा था । वह वृक्ष से उड़कर नहीं जा रहा था । किसी राही ने
उसे कहा, " भले पक्षी! उड़ जाओ । तुम्हारे पास पंख हैं , तुम उड़ सकते हो । वृक्ष को आग लगी है । बैठे रहे तो जल
जाओगे । "
पंछी ने करुण स्वर में उत्तर दिया
फल खाए इस वृक्ष के गंदे कीने पात ।
धर्म हमारा है यही, जलें इसी के साथ ॥
इस पर भी लाला लाजपतराय की यह घोषणा केवल मनोद्गार ही थी और मनोद्गार बुद्धिशील व्यक्ति के लिए
कुछ भी अस्तित्व नहीं रखते ।
लाजपतरायजी का व्याख्यान सुनना मेरे लिए नवीन बात नहीं थी । आर्यसमाज के सत्संगों में लालाजी का
व्याख्यान पहले सुन चुका था ।
मुझे उस दिन की लंगे मंडी वाली सभा की तीन बातें ही स्पष्ट रूप से स्मरण हैं । मैदान खचाखच भरा हुआ
था । सभा में वंदे मातरम् गीत लोगों ने ऐसे सुना था मानो भगवान् की आरती उतारी गई हो और तीसरी बात थी
लालाजी का व्याख्यान । लालाजी ने अपनी घंटी की भाँति तेज तथा स्पष्ट आवाज में कहा था , " इन बनियों की
कौम द्वारा अपने देश को लूटने से बचाने का एक ही उपाय है , अंग्रेजी माल का बहिष्कार करो । "
मेरी राजनीतिक शिक्षा की यह स्मृति अमिट रूप से मेरे मस्तिष्क में अंकित है । मैं इस स्वदेशी आंदोलन से
राजनीति और अर्थव्यवस्था में संबंध की प्रथम झलक पा गया था ।