राजकुमारी सुकेशिनी : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Rajkumari Sukeshini : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक गाँव में एक बूढ़ा-बूढ़ी थे। बूढ़े के परिवार में बस तीन सदस्य थे, बूढ़ा-बूढ़ी और उनका इकलौता लड़का बुद्धिआ। ज़मीन-जायदाद कुछ ख़ास नहीं थी। दूसरों के घर रोज़ काम करने पर उसके कुटुंब का पेट पलता। दिन पर दिन बूढ़े की उम्र बढ़ती जा रही थी। काम करने पर अब तकलीफ़ होने लगी। बुद्धिआ भी जवान हो चुका था।
एक दिन रात को सोने से पहले बूढ़ी ने बूढ़े से कहा, “सुनो, हमारा बुद्धिआ जवान हो चुका है। काम-धँधे में उसका मन नहीं है। अगर मज़दूरी नहीं करेगा तो हमारा गुज़र-बसर कैसे होगा? बुद्धिआ का ब्याह कर दें तो कैसा रहेगा? विवाह कर लेगा तो अपने आप सब सीख जाएगा।”
बात बुड्ढे के मन को भा गई। वह बूढ़ी की बात पर राज़ी हो गया। एक रात खाना खाने के बाद बुड्ढा बुद्धिआ से बोला, “बेटा, अब हम कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। जो दिन जा रहे हैं, जा रहे हैं। कितने दिन और ज़िंदा रहेंगे, पता नहीं। हमारे जीते-जी तेरा विवाह हो जाए तो अच्छा है। फिर तू अपना घर-संसार सँभालना।”
पिता की बात सुनकर बुद्धिआ को होश आया। उसने कहा, “बाबा! हम तो ख़ुद अभाव में जी रहे हैं। कभी-कभी एकदम ख़ाली पेट भी रह जाते हैं। दूसरे के घर की लड़की आएगी तो खाएगी क्या? चलेगी कैसे? मैं पहले कमाई करना सीख जाऊँ, उसके बाद विवाह की बात सोचूँगा।”
बुद्धिआ की बात भी बुड्ढे के मन को जँच गई। उसने मन में सोचा कि बुद्धिआ सचमुच बुद्धिमान है। अब जाकर कमाने के बारे में सोचने लगा है। फिर उसने बेटे से पूछा, “बेटा, तू कमाएगा कैसे? हमारी तो ज़मीन-जायदाद भी नहीं है?”
बुद्धिआ बोला, “बाबा! मेरे शरीर में जब तक ताक़त है, मैं जंगल जाऊँगा, लकड़ी इकट्ठा करूँगा और उसे बेचकर पैसा कमाऊँगा। तीन पेट क्या मैं पाल नहीं सकता?”
बुद्धिआ ठीक रास्ते पर आ गया है, यह सोचकर बुड्ढी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।
दूसरे दिन बुद्धिआ जंगल गया। लकड़ी इकट्ठा की और साहूकार, महाजनों के यहाँ बेची। जो पैसा मिला, अपनी माँ के हाथों में रखा। बुड्ढा-बुड्ढी ख़ुश हो गए। घर के ख़र्चे के बाद जो कुछ बचता, बुड्ढी उसे सँभालकर रख लेती। बेटे के लिए बहू लाएगी, ख़ूब धूमधाम से शादी कराएगी, यही हसरत थी उसके मन में। देखते-देखते बुड्ढी के पास काफ़ी रुपया इकट्ठा हो गया।
एक रात सोने से पहले बुड्ढी ने बुड्ढे से कहा, “बुद्धिआ का ब्याह कर देने का समय अब आ गया है। हमें और ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना चाहिए।” वे दोनों बेटे के लिए बहू ढूँढ़ने में लग गए।
उस राज्य की राजकुमारी सुकेशिनी के भँवरे की तरह काले और ख़ूब लंबे बाल थे। बचपन में उसके घने, काले, सुंदर बालों को देखकर ही उसके माता-पिता ने उसका नाम सुकेशिनी रखा था।' वह देवी की भक्त थी। मन में जो चाहती, उसे मिल जाता था।
सुकेशिनी एक दिन अपनी सखियों के साथ नदी में नहा रही थी। नहाते समय उसका एक बाल टूट गया, जिसे हाथ में पकड़कर सुकेशिनी बोली, “मेरे बाल देखकर अगर किसी का मन ललचा रहा है तो वह मेरा बाल ले जाए।” उसकी बात सुनकर सखियाँ बोलीं, “नहीं राजकुमारी, हमारे यह किस काम का? इसे पानी में बहा दो। देखना, इसे पाकर तुम्हारा राजकुमार तुम्हारे पास पहुँच जाएगा। फिर उससे विवाह करके तुम सुख से अपना घर बसा लेना।”
वही किया गया। सखियों के कहे अनुसार एक चाँदी की डिबिया में अपने लंबे बाल को भरकर शपथ ली कि जो पुरुष इस केश को लेकर आएगा उसी से वह शादी करेगी और फिर डिबिया को नदी में बहाकर राजमहल लौट गई।
उसी दिन बुड्ढी नदी में नहा रही थी। ठीक उसी समय उसने देखा कि पानी में एक चाँदी की डिबिया बहती आ रही है। बुड्ढी के मन में लोभ हुआ। सोचा, इतनी सुंदर डिबिया नदी में आई कहाँ से? बुड्ढी नदी के पानी से उस डिबिया को ले आई। उसके अंदर क्या है, इस लोभ में पड़कर उसे खोलकर देखा तो पाया कि भँवरे की तरह काला लंबा एक केश। उसने सोचा कि ज़रूर यह किसी लड़की का है जिसने जान-बूझकर अपना दूल्हा पाने के लिए इसे नदी में बहा दिया है। बुड्ढी ने मन में तय किया कि इसी लड़की से अपने बेटे का ब्याह कराएगी। उस केशवती कन्या को पाकर उसका बेटा ज़रूर ख़ुश होगा। चाँदी की डिबिया और वह केश लेकर बुड्ढी घर लौटी और बुड्ढे को सारी बातें बताईं। बुड्ढा भी बुड्ढी की बात पर राज़ी हो गया। पर वह केशवती कन्या उन्हें कहाँ मिलेगी, इसी चिंता में पड़ गए।
बहुत सोच-विचार के बाद दोनों बुड्ढा-बुड्ढी उस केशवती कन्या की खोज में निकल पड़े। उसी चाँदी की डिबिया में उस केशवती कन्या के बाल को रखा और जिस नदी से डिबिया मिली थी, उस नदी के किनारे-किनारे ऊपर की तरफ़ चलने लगे। इसी तरफ़ काफ़ी दूर चलने के बाद देखा कि लड़कियों की एक टोली नदी में नहाकर एक क़तार में अपने-अपने घर लौट रही है। उस दिन वे उस केशवती कन्या को नहीं देख पाए। बुड्ढा-बुड्ढी उस नदी के किनारे रुककर दूसरे दिन का इंतज़ार करने लगे।
दूसरे दिन केशवती राजकुमारी अपनी सखियों के साथ उसी घाट पर नहाने आई। नहाते हुए राजकुमारी सुकेशिनी से उसकी सखियों ने मज़ाक़ करते हुए पूछा, “राजकुमारी सुकेशिनी, तुम्हारा राजकुमार कहाँ है? उसे कौन-सा राजकुमारियों का अभाव है कि वह तुम्हारा केश लेकर तुमसे ब्याह करने यहाँ आएगा।”
राजकुमारी बोली, “तुम सब ज़रा धीरज रखो। मेरा राजकुमार आएगा ज़रूर। उसके आने तक मैं इंतज़ार करूँगी।”
बुड्ढा-बुड्ढी ने यह बात सुन ली। उन्होंने सोचा कि उन लड़कियों के बीच में ही वह केशवती कन्या है। किसी भी तरह उससे मिलकर उसे अपनी बहू बनाकर ले जाने की बात उसे बता देंगे। इस बीच बुड्ढे ने एक उपाय सोचा और जिस रास्ते वह लड़कियाँ वापस अपने घर लौटेंगी, उसी रास्ते पर पैर लंबा करके रास्ता रोककर बैठ गया।
राजकुमारी सुकेशिनी और उसकी सखियाँ नहाकर उसी रास्ते घर को लौटने लगीं। बुड्ढे के पास जब वे पहुँचीं, तब बुड्ढे ने चाँदी की डिबिया खोलकर उस लंबे केश को बाहर निकालकर कहा, “हे लड़कियों, यह केश जिस किसी का है, वह लड़की मेरे बेटे से विवाह करेगी। अगर वह लड़की तुममें से कोई है तो वह ज़रूर मेरे पैरों को खिसकाकर मुझे सम्मान देगी। बाक़ी लड़कियाँ मेरे पैरों को लाँघकर चली जाएँगी तो भी मैं पैर नहीं हटाऊँगा।”
सारी सखियाँ बुड्ढे के पैरों को लाँघकर चली गईं। पर राजकुमारी सुकेशिनी ने उसकी बात का मान रखकर अपने हाथों से बुड्ढे के पैरों को परे हटाकर सम्मान दिया और विनम्रता के साथ बोली, “पिताजी! यह लंबा बाल मेरा है। मैं वादा करती हूँ कि आपके बेटे से मैं ब्याह करूँगी। मैं एक राजकुमारी हूँ, मेरा नाम सुकेशिनी है। आपका बेटा ग़रीब हो, चाहे मूर्ख, मैं उससे शादी ज़रूर करूँगी। मेरी क़िस्मत की रेखा को कोई नहीं मिटा सकता। आप मेरे पिता के आगे विवाह का प्रस्ताव रखिए।”
बुड्ढा-बुड्ढी यह जानकर आश्चर्य में पड़ गए कि वह लड़की राजकुमारी है। उनके मन में भय समाया। आख़िर में दोनों ने सोचा कि इस पर विचार-विमर्श करके तब राजा के पास जाएँगे प्रस्ताव लेकर। उसके बाद दोनों वहाँ से घर लौट गए।
सखियों की आपस में खुसुर-फुसुर राजा के कान में पड़ी तो उन्होंने राजकुमारी को पास बुलाकर बात की सत्यता जाननी चाही। राजकुमारी ने पिता के सामने सारी बातें खोलकर रख दी और उसी लड़के से विवाह करेगी, यह ज़िद पकड़ ली।
राजा बड़े संकट में पड़ गए। वह लड़का कौन है, उसका घर कहाँ है और वह क्या करता है, यह सब पता करके लाने के लिए दूतों को भेजकर उनका इंतज़ार करने लगे।
राजा के दूत तुरंत उस लड़के के गाँव पहुँचकर उसके बारे में सारा तथ्य संग्रह करके ले आए और राजा को बताया कि वह लड़का एक लकड़हारा है। लकड़ी बेचकर अपने बूढ़े माता-पिता को पाल-पोस रहा है। राजा का वहाँ संबंध बनाना अपमान की बात होगी।
राजा ने दुःखी मन से बेटी को समझाने की कोशिश की, पर बेटी अपनी ज़िद पर अड़ी रही। उसने कहा कि अगर उस लड़के से वह विवाह नहीं करेगी तो वह असती होगी। लोग उसे मिथ्यावादी कहेंगे।
राजा बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि राजकुमारी बहुत धार्मिक और सत्यवादिनी है, इसलिए उसकी इच्छाओं के आड़े नहीं आए। पर लकड़हारे के साथ उसका विवाह करने पर उन्हें अपमानित होना पड़ेगा। यही सोचकर राजकुमारी सुकेशिनी को उन्होंने राजमहल से बाहर निकाल दिया।
राजकुमारी राजमहल छोड़कर सीधे उसी लड़के के घर पहुँची। घर में सास-ससुर को देखकर लड़के के बारे में पूछा। बुड्ढा बोला, “मेरा लड़का लकड़हारा है। हर दिन लकड़ी संग्रह न करने पर परिवार का गुज़ारा कैसे होगा? इसलिए वह पास के जंगल में गया है। तुम अगर वहाँ जाना चाहती हो तो जाओ, देखो वहीं वह लकड़ी काट रहा होगा।”
यह सुनकर राजकुमारी जंगल में गई। लकड़ी काटने की आवाज़ का पीछा करते हुए वह उस जगह पर पहुँची और अपने पति बुद्धिआ को देखा। उसे देखकर राजकुमारी ख़ुशी से उससे गले मिलने के लिए आगे बढ़ी। बुद्धिआ ने उसे देखकर सोचा कि इस जंगल में इतनी सुंदर लड़की कहाँ से आई? यह ज़रूर कोई प्रेतात्मा होगी। यह सोचकर वह अचानक लकड़ी के फट्टे से उसे मारने लगा। राजकुमारी ने अपना परिचय देकर जितना भी समझाया, वह माना नहीं। तब रोते-रोते वह अपने सास-ससुर के पास वापस लौट गई। कैसे उनके लड़के ने उसे मारा, वह सब बखान करने के बाद अपने पिता के घर वापस जाने के लिए रवाना हो गई। उसी समय बुद्धिआ लकड़ी लेकर राजकुमारी सुकेशिनी के पीछे-पीछे जंगल से घर लौटा। बेटे को देखकर बुड्ढा बोला, “बेटा, कितने चाव से बहू तेरे पास गई थी, तूने उसे मारा क्यों?” बुद्धिआ बोला, “बाबा! मैं उसे पहचान नहीं पाया। जंगल में भला सुंदर लड़की आएगी कहाँ से? मैंने उसे प्रेतात्मा समझकर पीटा।” बुड्ढा बोला, ठीक है, जो हो गया सो हो गया। देख बहू अपने पिता के घर वापस लौटे जा रही है, तू उसे वापस ले आ।
बुद्धिआ राजकुमारी के पीछे दौड़ा। उसे वापस लौट आने के लिए बोला, पर उसने नहीं सुना तो वह गीत गाकर उसे बुलाने लगा:
“सुनो-सुनो हे मेरी राजकुमारी
अरी ओ! मेरी राजकुमारी
जान जो नहीं पाया
पहचान जो नहीं पाया
ग़लती जो की मैंने
मन में ना धरो उसे
मन में ना रखो उसे।”
एक बार तो राजकुमारी ने नहीं सुना। उसने फिर गीत गाकर बुलाया। अबकी बार राजकुमारी सुकेशिनी आगे नहीं बढ़ पाई, वहीं चुपचाप खड़ी हो गई। बुद्धिआ ने उसके पास पहुँचकर अपनी ग़लती स्वीकार की। घर लौट चलने के लिए अनुरोध किया। फिर दोनों साथ घर लौटे। तब राजकुमारी सुकेशिनी बोली, “तुम जाओ और लकड़ी का गट्ठर जहाँ फेंककर आए हो, उसे उठा लाओ, फिर हम उसे बेचने चलेंगे।”
लकड़हारा बुड्ढे का लड़का बुद्धिआ वापस आ गया। जहाँ लकड़ी का गट्ठर फेंका था, वहाँ वैसा ही लकड़ी का गट्ठर पड़ा है। उसका रंग बदल गया है। उसे उठाने गया तो उसका वज़न भी बढ़ा हुआ लगा। यह सब देखकर बुद्धिआ को बहुत आश्चर्य लग रहा था। लकड़ी के गट्ठर को कंधे पर रखकर घर पहुँचा और बरामदे में फेंककर घर के अंदर पहुँचा। उसकी पत्नी सुकेशिनी ने गट्ठर देखा तो बोली, “पहले उसे अंदर लाओ।” बुद्धिआ बोला, उसे बेचकर घर के ख़र्च के लिए पैसा लाऊँगा।” सुकेशिनी बोली, “नहीं-नहीं। उसे तुम मत बेचना। पहले उस गट्ठर को घर के अंदर लाओ। अब वह लकड़ी नहीं है, सोने की छड़ों का गट्ठर है। तुम्हें अब जंगल में लकड़ी काटने जाना नहीं होगा।” बुड्ढा-बुड्ढी, बुद्धिआ सभी अचंभित हुए। उसे देवी समझ उसको सम्मान देने लगे। उनका ऐसा व्यवहार देखकर राजकुमारी बोली, “मैं देवी नहीं हूँ। एक मामूली लड़की हूँ।” इसी तरह कई दिन बीत गए। लकड़हारा का बेटा बुद्धिआ एक अमीर आदमी बन गया। उसकी झोंपड़ी की जगह एक महल खड़ा हो गया। नौकर-चाकर काम करने लगे। देखते-देखते बुद्धिआ के बारे में चारों तरफ़ प्रचार होने लगा। लोग-बाग राजकुमारी सुकेशिनी का गुणगान करने लगे।
यह बात राजा के कानों में पहुँची। यह घटना सच है या झूठ, यह जानने के लिए मंत्री को आदेश दिया और कहा कि वह ख़ुद जाकर सच का पता लगाए। तब मंत्री सैन्य-सामंत लेकर छद्मवेश में उस जगह पहुँचे। वहाँ बुद्धिआ का विशाल महल देखकर चकित रह गए। वह तो राजमहल से भी बड़ा था। सब देख-ताककर मंत्री राजमहल वापस लौटे और राजा को सारी बातें कह सुनाईं।
राजा ने मंत्री की बात पर आसानी से भरोसा नहीं किया। वह ख़ुद अपनी बेटी सुकेशिनी को देखने के लिए रानी को साथ लेकर चल पड़े। राजकुमारी के महल में पहुँचकर राजा ने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई। ठीक उसी समय राजकुमारी सुकेशिनी ने अपने पति के साथ वहाँ पहुँचकर राजा और रानी को प्रणाम किया। राजा के चेहरे पर संतोष की हँसी खिल उठी और वह रानी को लेकर महल के अंदर गए। बुद्धिआ सास-ससुर को अपने पास पाकर ख़ुद को धन्य मान रहा था। सुकेशिनी को राज़ी-ख़ुशी रहते देखकर राजा-रानी ख़ूब ख़ुश हुए और बेटी-दामाद को आशीर्वाद देकर अपने राजमहल वापस लौट गए।
(साभार : अनुवाद : सुजाता शिवेन, ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)