राजधर्म : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Rajdharam : Acharya Chatursen Shastri

(यह बुद्ध-धर्म के प्रभाव को व्यक्त करनेवाली कल्पना-प्रसूत कहानी है। इसमें राजधर्म और बुद्ध के प्रेमधर्म का अन्तर्द्वन्द्व प्रकट किया गया है।)

दिगन्त-व्यापी जयघोष से क्षण-भर को समाधिस्थ बुद्ध चल हुए। आनन्द ने आंख उठाकर देखा, महाराजकुमार अपने राजकीय परिच्छद और बहुमूल्य शस्त्रों से सज्जित चपल घोड़े से उतर रहे हैं। उनकी अनुगत सेना पंक्ति बांधे अविचल खड़ी है। वन की वह शान्त तपस्थली राजवैभव से जैसे मुखरित हो उठी है। महाराजकुमार आगे बढ़े और उनके पीछे ही सौ दास बहुमूल्य उपहारों से भरे स्वर्ण-थाल लिए चले। महाराजकुमार ने संकेत किया, थाल महाबुद्ध के सम्मुख रख दिए गए। राजकुमार उन्हें सामने रखकर करबद्ध बैठ गए। आनन्द ने देखा और मस्तक झुका लिया। कुमार ने महाबुद्ध की प्रशान्त समाधिस्थ अचल मुद्रा को एक बार देखकर जलद गम्भीर स्वर में कहा-महागुरु परम भट्टारक महापादीय, महाराजकुमार सुवर्ण आपकी सेवा में भेंट अर्पण कर प्रणाम करता है।

परन्तु कुमार का अभिवादन जैसे वातावरण में एक कम्पन कर वापस लौट आया। प्रबुद्ध ने देखा नहीं, वे हिले भी नहीं। उनके होंठ जड़वत् रहे। आनन्द ने एक बार प्रबुद्ध सत्त्व को देखा, और सिर झुका लिया। महाराजकुमार का मुख क्रोध से तमतमा गया। उनके होंठ फड़के और एक अस्फुट ध्वनि उसमें से निकली ओह इतना घमण्ड!

वे उठे और अपने घोड़े पर सवार होकर लौट गए। उनके जाने पर आनन्द ने शिष्यों से संकेत में कहा-यह सब भेंट की सामग्री महाराजकुमार को लौटा आओ।

अधिकार, यौवन, वंश और अभ्यास ने कुमार के खून को खौला दिया। वे उस रात न सो सके, वे सोचते रहे, उसका इतना घमंड? पाखंडी! मैं उसकी सेवा में गया था। मैं कितनी बहुमूल्य भेंट ले गया था। वह उसने देखी भी नहीं, लौटा दी। और मेरा अभिवादन भी ग्रहण नहीं किया। यह तो क्षत्रिय-कुमार का भारी अपमान हो गया।

महाराजकुमार विकल होकर जल्दी-जल्दी टहलने लगे। रात गम्भीर होती गई। धीरे-धीरे उनकी विचारधारा बदली। उन्होंने सोचा, कहीं कुछ मुझ ही से तो भूल नहीं हो गई। मैं इतनी सेना, हथियार और वैभव लेकर वहां क्यों गया था? एक त्यागी पुरुष का शिष्य बनने के लिए ये सब चीजें किस काम की थीं? जिसने पृथ्वी का सब कुछ त्याग दिया है, उसे यह सब वैभव क्या लुब्ध करेगा? महाराजकुमार सोच में पड़े।

उनका क्रोध शांत हुआ और प्रभात होते ही वे फिर वहां पहुंचे, जहां घने वृक्ष की छाया में महाबुद्ध ध्यान में बैठे थे।

महाराजकुमार ने हाथ जोड़ विनयावनत खड़े होकर कहा-महाप्रभु, प्रतापी लिच्छवि राजकुमार सुवर्ण आपको प्रणाम करता है। और आपकी सेवा में शिष्य बनने के लिए आया है। आनन्द ने देखा, एक क्षीण मुस्कान उनके होंठों पर आई और गई। उन्होंने सिर झुका लिया। महाबुद्ध उसी तरह स्थिर और निश्चल थे। राजकुमार झंझलाकर लौट आया।

अब वह यही सोचता था कि क्यों उसका प्रणाम बुद्ध ने ग्रहण नहीं किया। क्यों उन्होंने उसपर कृपादृष्टि नहीं की। अब मेरा क्या दोष रह गया। परन्तु कुमार की बुद्धि निर्मल हो रही थी। उसने सोचा, ठीक ही तो हुआ! राजमद तो अभी भी मुझमें था। क्या मेरे वस्त्र राजकुसारों जैसे न थे? क्या मैंने अपने को लिच्छविराजकुमार नहीं कहा? क्या यही मेरा परिचय नहीं कि हम भ्रान्त-अशान्त प्राणीमात्र हैं और बुद्ध ही हमारा उद्धार कर सकते हैं? राजकुमार रोने लगे। वे उसी क्षण नंगे पैर, नंगे बदन अर्धरात्रि में चुपचाप जाकर बुद्ध की स्थिर गंभीर मूर्ति के सम्मुख खड़े हो गए। आनन्द ने देखा, उन्होंने धीरे से सिर हिलाया। रात विगलित होने लगी, उषाकाल आया। कुमार उसी भांति बुद्ध की ओर दृष्टि बांधे खड़े थे।

हठात् महाबुद्ध के स्थिर शरीर में गति दीख पड़ी। उन्होंने धीर-गंभीर स्वर में कहा-क्या है पुत्र?

'आपकी शरण में आया हूं।'

'कौन हो?'

'आपका दास सुवर्ण।'

'किसलिए?'

'प्रणाम करने और यह निवेदन करने कि आप सेवक को अपना शिष्य बनाइए।'

बुद्ध ने उत्तर नहीं दिया। कुमार चुपचाप खड़े रहे। रात बीत गई। उषा का उदय हुआ। बुद्धवाणी फिर प्रवाहित हुई-अब क्यों खड़े हो?

'प्रभु प्रसन्न हों, सेवक को शिष्य स्वीकार करें।'

बुद्ध मौन रहे। महाराजकुमार ने साहसपूर्वक कहा-क्या सेवक शिष्य होने के योग्य नहीं?

'नहीं।'

'सेवक का अभिवादन स्वीकार होगा?'

'नहीं।'

राजकुमार ने विगलित वाणी से कहा-प्रभु, मैं आपकी शरण हूं।

प्रबुद्ध विगलित हुए। उन्होंने कहा-अपनी राजधानी लौट जाओ वत्स, और धर्मपूर्वक राज्य-शासन करो।'

'परन्तु मैं महाप्रभु का शिष्य होने आया हूं।'

'उसकी तुममें योग्यता नहीं है। योग्यता प्राप्त होने पर बुद्ध स्वयं तुम्हें शिष्यपद देने पाएंगे। जाओ वत्स, न्याय-राज करो।'

'परन्तु प्रभु, मेरी अयोग्यता क्या है?' राजकुमार ने साहसपूर्वक कहा।

बुद्ध कुछ देर चुप रहकर बोले-तुमने अपने मंत्री को अधिकार-च्युत करके कारागार में डाला है न?

'हां महाराज, उसका अपराध भारी है। उसने प्रजा के साथ क्रूरता की थी, वह पतित और बेईमान था। उसने राजसत्ता का दुरुपयोग किया था। मेरा कर्तव्य था कि मैं अपराधी को दण्ड दूं, फिर वह चाहे जैसा भी प्रतिष्ठित हो। अन्ततः मैं राजा हूं। प्रजापालन मेरा धर्म है।'

'तुम राजा हो, प्रजापालन तुम्हारा धर्म है, अतः तुम अपराधी को दण्ड दो यह ठीक ही है, राजोचित भी है। पर वत्स! बुद्ध के शिष्य को यह उचित नहीं, क्षमा और उदारता ही उसका दण्ड है। हां, तुमने अपनी पत्नी को भी त्याग दिया है न?'

 'खेद की बात है कि वह अविश्वासिनी हो गई, वह पतिव्रता न रही। दूसरों के लिए आदर्श कायम करने के लिए उसे त्याग देना ही उचित था। उसके साथ अति उदार व्यवहार किया गया है। दूसरा व्यक्ति उसे कुत्तों से नुचवा डालता।'

बुद्ध ने हंसकर कहा-नहीं तो वत्स! एक पति और राजा का तो वही कर्तव्य था। इसके लिए तुम्हें दोष नहीं दिया जा सकता। इसीसे मैंने कहा था कि तुम जाओ, राज्य-शासन करो। तुममें राजा होने योग्य सब गुण हैं। पर बुद्ध के शिष्य होने योग्य नहीं। क्षमा बुद्ध का शस्त्र है,उदारता उसकी नीति है, सहिष्णुता उसका धन है, और आत्मनिग्रह उसका मार्ग है।'

'मेरे प्रभु, मुझे आप उसी मार्ग पर लाइए।'

'अभ्यास करो वत्स। ज्योंही तुममें मेरे शिष्य होने की योग्यता प्राप्त होगी, मैं स्वयं ही तुम्हारे पास पाऊंगा।' बुद्ध समाधिस्थ हुए। महाराजकुमार नतमस्तक हो चल दिए।

सारे ही नगर में हलचल मच रही थी। राजधानी में विद्रोह के लक्षण दिखाई दे रहे थे। महाराजकुमार ने पदच्युत मंत्री को न केवल अपने पद पर प्रतिष्ठित किया था, प्रत्युत उसकी सम्पत्ति भी उसे लौटा दी थी। अपनी दुराचारिणी रानी को भी उसने फिर से अन्तःपुर में बुला लिया था और उससे क्षमा मांगी थी। सारा समाज और विद्वत्-समूह उसके इस अनाचारपूर्ण काम से विद्रोही हो उठा था। यही नहीं, उसने सेनाएं विसर्जित कर दी थीं, जेलों के द्वार खोल दिए थे।

मन्त्री ने कहा-महाराज, आपने मुझ अधम को फिर से मंत्री-पद पर प्रतिष्ठित करके जनमत को तुच्छ कर दिया है। मेरा अपराध गुरुतर था। आप मुझे पदच्युत करें, मैं प्रायश्चित्त करूंगा।

राजकुमार ने कहा-मंत्री, मुझे तुम्हारा विश्वास है। प्रेम और सेवा ही सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है।'

'परन्तु महाराज, लोग आपके घात करने की चिंता में हैं।'

'अगर मेरा घात करने से उन्हें सुख मिले तो उन्हें यह काम करने दो। तुम इसकी चिन्ता न करो। तुम अपना काम करो-प्रेम और सेवा।'

न्यायाधीशों का एक दल त्यागपत्र लिए आ पहुंचा। उन्होंने कहा-महाराज, हम न्याय नहीं कर सकते। न सेना, न सिपाही, न जेल। फिर हम दण्ड कैसे दें?

राजकुमार ने कहा-तुम लोग प्रेम करो और सेवा करो। फिर किसीकी ज़रूरत न रहेगी।

अन्तःपुर में जाने पर रानी ने चरणों में लोटकर कहा-स्वामी, इस अपराधिनी से यह महल अपवित्र होता है। मुझे आज्ञा दें कि मैं प्राणनाश करके प्रायश्चित करूं।

'प्रिये, ऐसा न करो। प्रेम और सेवा दोनों का एक रस चखा है फिर प्राणनाश क्यों?'

'हाय नाथ, यह प्रेम और सेवा मुझे अंधी दिशा में ले गई थी।'

'परन्तु अब नहीं प्रिये, यह असम्भव है। अब तुम पात्रापात्र सभी से प्रेम करो, सभी की सेवा करो। निष्काम और जितेन्द्रिय।'

सेनापति ने आकर कहा:

'गज़ब हो गया महाराज, शत्रु संधि पाकर दल-बल से चढ़ आया है।'

'मन्त्री से कहो, उनके आतिथ्य में किसी प्रकार की कमी न रहे। पीछे मैं स्वयं उनसे मिलूंगा।'

'परन्तु महाराज, वे रक्तपात के लिए आए हैं।'

'क्यों, क्यों?'

'महाराज, वे आपका राज्य चाहते हैं।'

'तो ले लें, इसमें रक्तपात की क्या बात है?'

सेनापति निराश भाव से लौट गए।

राजा पागल हो गया है। इसे राजच्युत करो। वरना राज्य की खैर नहीं, सभी राज्यवर्गी एक मुख से यही कह रहे थे।

कुछ कह रहे थे कि इसे तलवार के घाट उतार दो। भ्रष्टा रानी और बदमाश मंत्री को भी। इन सबको मार डालो। वरना सारी राज्य-व्यवस्था धूल में मिल जाएगी।

महाराजकुमार ने कहा-मेरे मारने अथवा राज्यच्युत करने से तुम्हारा कल्याण हो तो खुशी से करो। यह मेरी तलवार लो। उन्होंने तलवार निकालकर विरोधियों को दे दी।

बुद्ध भगवान तेज-विस्तार करते हुए आते दीख पड़े। उन्होंने कहा-वत्स, मैं तुमसे यह भिक्षा लेने आया हूं कि तुम बुद्ध के शिष्य बनो।

राजकुमार बुद्ध के चरणों में नतजानु हुए।

बुद्ध ने कहा:

कहो—बुद्धं शरणं गच्छामि।

संघं शरणं गच्छामि।
सत्यं शरणं गच्छामि।

राजा ने दोहराया और दिगन्तव्यापी जयघोष उठा।

जय, महाराजकुमार की जय!

महाबुद्ध की जय!