Rajarshi (Novel) : Rabindranath Tagore

राजर्षि (उपन्यास) : रवींद्रनाथ टैगोर-अनुवाद : जयश्री दत्त

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : तेईसवाँ परिच्छेद

चाचा साहब के लिए क्या आनंद का दिन है। आज दिल्ल्लीश्वर के राजपूत सैनिक विजयगढ़ के अतिथि हुए हैं। प्रबल प्रतापी शाहशुजा आज विजयगढ़ का बंदी है। कार्तवीर्यार्जुन के बाद से विजयगढ़ को ऐसा बंदी और नहीं मिला। कार्तवीर्यार्जुन की बंदी हालत को याद करके निश्वास छोड़ते हुए चाचा साहब राजपूत सुचेत सिंह से बोले, "सोच कर देखो, हजार हाथों में हथकड़ियाँ पहनाने के लिए कितनी तैयारी करनी पड़ी थी! कलियुग आने के बाद से धूमधाम एकदम कम हो गई है। अब तो राजा का पुत्र हो चाहे बादशाह का बेटा, बाजार में दो से ज्यादा हाथ खोजे नहीं मिलते। बंदी बना कर आनंद नहीं मिलता।"

सुचेत सिंह ने हँसते हुए अपने हाथ की ओर देख कर कहा, "ये दो हाथ ही काफी हैं।"

चाचा साहब थोड़ा सोच कर बोले, "वह तो ठीक है, उस जमाने में काम बहुत ज्यादा था। आजकल काम इतना कम हो गया है कि इन दो हाथों का ही कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता। और हाथ रहने पर मूँछों को और ताव देना पडता है।"

आज चाचा साहब की वेशभूषा में कोई कसर नहीं रह गई थी। ठुड्डी के नीचे से पकी दाढ़ी दो हिस्सों में बाँट कर अपने दोनों कानों पर लटका ली है। मूँछें ऐंठ कर कर्ण रंध्रों के आसपास ले जाई गई हैं। सिर पर बाँकी पगड़ी है, कमर में बाँकी तलवार। जरी वाले जूते का सामने का हिस्सा सींग की तरह टेढ़ा मुदा हुआ है। आज चाचा साहब की चाल की भंगिमा ऐसी है, मानो विजयगढ़ की महिमा उन्हीं के सर्वांग में तरंगायित हो रही है। आज इन सभी समझदार लोगों के सामने विजयगढ़ की महिमा प्रमाणित हो जाएगी, इस आनंद में उन्हें न भूख है, न नींद।

सुचेत सिंह को लेकर प्राय: पूरे दिन दुर्ग का मुआयना करते रहे। जहाँ सुचेत सिंह ने किसी प्रकार का आश्चर्य प्रकट नहीं किया, वहाँ चाचा साहब ने स्वयं "वाह वा, वाह वा" करके अपने उत्साह को राजपूत वीर के हृदय में संचारित करने की चेष्टा की। विशेष रूप से दुर्ग-प्राचीर के निर्माण के सम्बन्ध में उन्हें असाधारण परिश्रम करना पड़ा। जिस तरह दुर्ग का प्राचीर अविचलित है, सुचेत सिंह उससे भी अधिक अविचलित है - उसके चेहरे पर किसी भी तरह का भाव प्रकट नहीं हुआ। चाचा साहब घूम-फिर कर उसे एक बार दुर्ग-प्राचीर के बाएँ, एक बार दाएँ, एक बार ऊपर, एक बार नीचे ले जाने लगे - बार-बार कहने लगे, "क्या तारीफ की जाए!" परन्तु किसी भी तरह सचेत सिंह के हृदय-दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सके। अंत में शाम को थक कर सुचेत सिंह ने कहा, "मैंने भरतपुर का गढ़ देखा है, और कोई गढ़ मेरी आँखों को नहीं भाता।"

चाचा साहब कभी किसी के साथ विवाद नहीं करते; अत्यंत उदास होकर बोले, "अवश्य अवश्य। यह बात तो कह ही सकते हो।"

निश्वास छोड़ते हुए दुर्ग के सम्बन्ध में चर्चा बंद कर दी। विक्रम सिंह के पूर्वज, दुर्गा सिंह की बात उठाई। बोले, "दुर्गा सिंह के तीन पुत्र थे। कनिष्ठ पुत्र, चित्र सिंह की एक आश्चर्यजनक आदत थी। वे रोजाना प्रात: अंदाजन आधा सेर चना दूध में उबाल कर खाते थे। उनका शरीर भी वैसा ही था। अच्छा जी, तुम जो भरतपुर के गढ़ की बात कह रहे हो, वह अवश्य ही बहुत विशाल गढ़ होगा - किन्तु ब्रह्मवैवर्त पुराण में तो उसका कोई उल्लेख नहीं है।"

सुचेत सिंह ने हँस कर कहा, "उसके कारण काम में कोई बाधा नहीं पड़ रही है।"

चाचा साहब ने बनावटी हँसी हँसते हुए कहा, "हा हा हा! वह सही है, वह सही है। तो क्या जानते हो, त्रिपुरा का दुर्ग भी कोई बहुत कम नहीं है, किन्तु विजयगढ़ का..."

सुचेत सिंह - "त्रिपुरा फिर कौन देश है?"

चाचा साहब - "वह बड़ा भारी देश है। इतनी बातों की क्या जरूरत है, वहाँ के राजपुरोहित ठाकुर हमारे गढ़ में अतिथि हैं, तुम उन्हीं के मुँह से सब सुन लोगे।"

किन्तु आज ब्राह्मण ढूँढ़ने पर भी कहीं नहीं मिला। वे मन-ही-मन कहने लगे, "इस राजपूत गँवार से वह ब्राह्मण बहुत अच्छा है।" सुचेत सिंह के सामने सैकड़ों मुखों से रघुपति की प्रशंसा करने लगे और विजयगढ़ के सम्बन्ध में रघुपति का क्या विचार है, वह भी प्रकट किया।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : चौबीसवाँ परिच्छेद

सुचेत सिंह को चाचा साहब के चंगुल से छूटने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा। कल प्रात: बंदी सहित सम्राट की सेना के कूच का दिन निर्धारित हुआ है, यात्रा की तैयारी के लिए सैनिक नियुक्त हुए हैं।

शाहशुजा कैदखाने में बहुत असंतुष्ट होकर मन-ही-मन कह रहा है, "ये लोग कैसे बेहूदे हैं! शिविर से मेरा हुक्का ही ला दें, इनके मन में यह भी नहीं आया।"

विजयगढ़ के पहाड़ की तलहटी में एक गहरा तालाब है। उसी तालाब के किनारे एक जगह वज्रपात से जले पीपल का एक तना है। रघुपति घनी रात में उसी तने के बराबर में डुबकी लगा कर अदृश्य हो गया।

गुप्त रूप से दुर्ग में प्रवेश करने के लिए जो सुरंग-मार्ग है, उसका प्रवेश-द्वार इसी तालाब में गहरे नीचे है। उसी मार्ग से तैर कर सुरंग के किनारे पहुँच कर नीचे से बल लगा कर ठेलने पर एक पत्थर उठ जाता है, उसे ऊपर से किसी भी तरह नहीं उठाया जा सकता। इसीलिए जो लोग दुर्ग के भीतर हैं, वे इस मार्ग से बाहर नहीं निकल सकते।

शुजा कैदखाने में पलंग पर सोया हुआ है। कमरे में पलंग के अलावा और कोई सज्जा नहीं है। एक दीपक जल रहा है। सहसा कमरे में छिद्र दिखाई दिया। धीरे-धीरे सिर निकाल कर पाताल से रघुपति ऊपर निकल आया। उसका सर्वांग भीगा हुआ है। भीगे कपड़ों से जल-धारा गिर रही है। रघुपति ने धीर से शुजा का स्पर्श किया।

शुजा चौंक कर कुछ देर आँखें मलते हुए बैठा रहा, उसके बाद आलस्य से भारी स्वर में बोला, "क्या हंगामा है! क्या ये लोग मुझे रात को भी सोने नहीं देंगे! तुम लोगों के बर्ताव पर मुझे अचरज हो रहा है।"

रघुपति ने धीमी आवाज में कहा, "शहजादे, उठने की आज्ञा दी जाए। मैं वही ब्राह्मण हूँ। मुझे याद करके देखिए। भविष्य में भी मुझे याद रखिएगा।"

अगले दिन सुबह सम्राट की सेना कूच के लिए तैयार हो गई। शुजा को नींद से जगाने के लिए राजा जयसिंह स्वयं बन्दीशाला में गए। देखा, शुजा पलंग से उठा नहीं है। निकट जाकर स्पर्श किया। देखा, शुजा नहीं है, उसके वस्त्र पड़े हैं। शुजा नहीं है। कमरे के फर्श के मध्य सुरंग का गड्ढा है, उसका पत्थर का ढकना खुला पड़ा है।

बंदी के भाग जाने की सूचना दुर्ग में फैल गई। तलाश के लिए चारों तरफ लोग दौड़ गए। राजा विक्रम सिंह का सिर झुक गया। बंदी कैसे भागा, इसके विचार के लिए सभा बैठी।

चाचा साहब का वह गर्वित प्रसन्नता का भाव कहाँ चला गया! वे पागल के समान 'ब्राह्मण कहाँ है' 'ब्राह्मण कहाँ है' कहते हुए रघुपति को खोजते घूमने लगे। ब्राह्मण कहीं नहीं मिला। चाचा साहब पगड़ी उतार कर सिर पर हाथ रखे कुछ देर बैठे रहे। सुचेत सिंह पास आकर बैठ गया; बोला, "चाचा साहब, कैसे अचम्भे की बात है! क्या यह सब भूत का किया-धरा है!"

चाचा साहब ने दुखी भाव से गर्दन हिला कर कहा, "नहीं, यह भूत का किया-धरा नहीं है सुचेत सिंह, यह एक नितांत निर्बोध वृद्ध का किया-धरा और एक विश्वासघातक शैतान का काम है।"

सुचेत सिंह ने आश्चर्य के साथ कहा, "अगर आप उन लोगों को जानते ही हैं, तो उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं करवा देते?"

चाचा साहब ने कहा, "उनमें से एक भाग गया है। और एक को गिरफ्तार करके राजसभा में लिए जा रहा हूँ।"

कह कर पगड़ी पहन ली और राजसभा का वेश धारण कर लिया।

उस समय सभा में प्रहरियों की गवाही ली जा रही थी। चाचा साहब ने सिर झुकाए सभा में प्रवेश किया। विक्रम सिंह के पैरों में नंगी तलवार रख कर बोले, "मुझे बंदी बनाने का आदेश दीजिए। मैं अपराधी हूँ।"

राजा ने विस्मित होकर कहा, "चाचा साहब, बात क्या है?"

चाचा साहब ने कहा, "वही ब्राह्मण। यह सब उसी बंगाली ब्राह्मण का काम है।"

राजा जयसिंह ने पूछा, "तुम कौन हो?"

चाचा साहब ने कहा, "मैं विजयगढ़ का वृद्ध चाचा साहब हूँ।"

जयसिंह - "तुमने क्या किया है?"

चाचा साहब - "मैंने विजयगढ़ का रहस्य बता कर विश्वासघातक का कार्य किया है। मैंने नितांत निर्बोध के समान विश्वास करके बंगाली ब्राह्मण को सुरंग-मार्ग की बात बताई थी…"

विक्रम सिंह ने अचानक क्रोधित होकर कहा, "खड्ग सिंह!"

चाचा साहब चौंक गए - वे लगभग भूल ही गए थे कि उनका नाम खड्ग सिंह है।

विक्रम सिंह ने कहा, "खड्ग सिंह, क्या तुम इतने दिन बाद फिर से बालक बन गए हो!"

चाचा साहब चुपचाप सिर झुकाए रहे।

विक्रम सिंह - "चाचा साहब, तुमने यह काम किया! आज तुम्हारे हाथों विजयगढ़ का अपमान हुआ है।"

चाचा साहब चुपचाप खड़े रहे, उनके हाथ थर-थर काँपने लगे। काँपते हाथों से माथा छू कर मन-ही-मन बोले, "भाग्य!"

विक्रम सिंह ने कहा, "मेरे दुर्ग से दिल्लीश्वर का शत्रु भाग गया है। जानते हो, तुमने मुझे दिल्लीश्वर के सामने अपराधी बना दिया है!"

चाचा साहब ने कहा, "अपराधी मैं अकेला ही हूँ। महाराज अपराधी हैं, दिल्लीश्वर इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे।"

विक्रम सिंह ने खीझ कर कहा, "तुम कौन हो? तुम्हारे विषय में दिल्लीश्वर को क्या पता? तुम तो मेरे ही आदमी हो। यह तो, जैसे मैंने अपने हाथ से बंदी के बंधन खोल दिए हैं।"

चाचा साहब निरुत्तर हो रहे। वे अपनी आँखों के आँसू और नहीं रोक पाए।

विक्रम सिंह ने कहा, "तुम्हें क्या दण्ड दूँ?"

चाचा साहब - "जैसी महाराज की इच्छा।"

विक्रम सिंह - "तुम बूढ़े आदमी हो, तुम्हें और अधिक क्या दण्ड दूँ! तुम्हारे लिए निर्वासन का दण्ड ही काफी है।"

चाचा साहब ने विक्रम सिंह के पैर पकड़ लिए; बोले, "विजयगढ़ से निर्वासन! नहीं महाराज, मैं बूढ़ा हूँ, मुझे मति-भ्रम हो गया था। मुझे विजयगढ़ में ही मरने दीजिए। मृत्यु-दण्ड का आदेश कर दीजिए। इस वृद्धावस्था में मुझे सियार-श्वान की तरह विजयगढ़ से मत खदेड़िए।"

राजा जयसिंह ने कहा, "महाराज, मेरा अनुरोध है, इसका अपराध क्षमा कर दीजिए। मैं सम्राट को सारी स्थिति से अवगत करा दूँगा।"

चाचा साहब को क्षमा कर दिया गया। सभा से निकलते समय चाचा साहब काँपते हुए गिर पड़े। उस दिन से चाचा साहब अधिक दिखाई नहीं पड़ते। वे घर से बाहर नहीं निकलते। मानो उनकी रीढ़ टूट गई हो।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : पच्चीसवाँ परिच्छेद

गुजुरपाड़ा ब्रह्मपुत्र के किनारे छोटा-सा गाँव है। एक छोटा-सा जमींदार है, नाम है, पीताम्बर राय; बाशिंदे अधिक नहीं हैं। पीताम्बर अपने पुराने चण्डीमण्डप में बैठा स्वयं को राजा कहता रहता है। उसकी प्रजा भी उसे राजा कहती रहती है। उसकी राजा-महिमा इसी चिरौंजी-वन से घिरे छोटे-से ग्राम में विराजती है। उसका यश इसी ग्राम के निकुंजों के मध्य गूँजते हुए इसी ग्राम की सीमाओं के बीच विलीन हो जाता है। संसार के बड़े-बड़े राजाधिराजों का प्रखर प्रताप इस छायामय नीड़ में प्रवेश नहीं कर पाता। केवल तीर्थ-स्नान के उद्देश्य से नदी के किनारे त्रिपुरा के राजाओं का एक विशाल प्रासाद है, लेकिन दीर्घ काल से राजाओं में से कोई स्नान करने नहीं आता, इसीलिए ग्रामवासियों में त्रिपुरा के राजाओं के विषय में मात्र एक धुँधली-सी जनश्रुति प्रचलित है।

भाद्र माह में एक दिन गाँव में समाचार आया, त्रिपुरा का एक राजकुमार नदी किनारे वाले पुराने प्रासाद में रहने आ रहा है। कुछ दिन बाद बड़ी-बड़ी पगड़ियाँ बाँधे लोगों ने आकर प्रासाद में भारी धूम मचा दी। उसके लगभग एक सप्ताह के बाद हाथी-घोड़े, लाव-लश्कर लेकर स्वयं नक्षत्रराय गुजुरपाड़ा गाँव में आ पहुँचा। तामझाम देख कर ग्रामवासियों के मुँह से एक शब्द नहीं निकला। अब तक पीताम्बर बहुत बड़ा राजा प्रतीत होता था, लेकिन आज किसी को भी वैसा नहीं लगा; नक्षत्रराय को देख कर सभी ने एक बात कही, "हाँ, सही में राज-पुत्र ऐसा ही होता है!"

इस प्रकार पीताम्बर अपने पक्के दालान और चण्डीमण्डप सहित एकदम लुप्त तो हो गया, किन्तु उसके आनंद की सीमा न रही। नक्षत्रराय को उसने ऐसे राजा के रूप में अनुभव किया कि अपनी क्षुद्र राजा-महिमा सम्पूर्णत: नक्षत्रराय के चरणों में समर्पित करके वह परम सुखी हो गया। जब कभी नक्षत्रराय हाथी पर चढ़ कर बाहर निकलता, पीताम्बर अपनी प्रजा को बुला कर कहता, "राजा देखा है? यह देखो, राजा देखो।" पीताम्बर प्रति दिन मछली, तरकारी आदि भोज्य पदार्थ उपहार में लेकर नक्षत्रराय से मिलने आता - उसका तरुण सुन्दर चेहरा देख कर स्नेह से उच्छ्वसित हो उठता। नक्षत्रराय ही गाँव का राजा बन गया। पीताम्बर जाकर प्रजा में शामिल हो गया।

प्रति दिन तीन समय नौबत बजने लगी, गाँव के रास्ते पर हाथी-घोड़े चलने लगे, राज-द्वार पर नंगी तलवारों की बिजली खेलने लगी, हाट-बाजार जम गया। पीताम्बर और उसकी प्रजा पुलकित हो उठी। नक्षत्रराय इस निर्वासन में राजा बन कर सारे दुःख भूल गया। यहाँ राज-शासन की जिम्मेदारी तनिक भी नहीं, जबकि राजत्व का सुख पूरा है। यहाँ वह सम्पूर्णत: स्वाधीन है, स्वदेश में उसका इतना प्रबल प्रताप नहीं था। इसके अलावा, यहाँ रघुपति की छाया नहीं है। मन के उल्लास में नक्षत्रराय विलास में डूब गया। ढाका नगरी से नट-नटी आ गए, नक्षत्रराय को नृत्य-गीत-वाद्य में तिल भर अरुचि नहीं है।

नक्षत्रराय ने त्रिपुरा की राज कार्य-पद्धति का सम्पूर्णत: पालन किया। भृत्यों में से किसी का नाम रख लिया मंत्री, किसी का नाम रख लिया सेनापति, पीताम्बर को दीवानजी के नाम से जाना जाने लगा। रीति के अनुसार राज-दरबार बैठता था। नक्षत्रराय परम दिखावे के साथ न्याय करता था। नकुड़ ने आकर शिकायत की, "मथुर ने मुझे 'कुत्ता' कहा है।" विधान के अनुसार उस पर विचार आरम्भ हुआ। विविध प्रमाण एकत्रित करने के बाद मथुर के दोषी सिद्ध होने पर नक्षत्रराय ने परम गंभीर मुद्रा में न्यायाधीश के आसन से आदेश दिया - नकुड़ मथुर के दोनों कान मरोड़ दे। इस प्रकार सुखपूर्वक समय व्यतीत होने लगा। किसी-किसी दिन हाथ में बिलकुल काम न रहने पर किसी नवीन असाधारण मनोरंजन की उद्भावना के लिए मंत्री को तलब किया जाता। मंत्री राज-सभासदों को एकत्र करके नितांत हैरान-परेशान होकर नवीन खेल सोचने में जुट जाता, गहन चिंतन और सलाह-मशविरे की सीमा न रहती। एक दिन सैनिक-सामंत लेकर पीताम्बर के चण्डी-मण्डप पर आक्रमण किया गया था, उसके पोखर से मछलियाँ और उसके बगीचे से नारियल और पालक-शाक लूट के माल के रूप में अत्यंत धूमधाम के साथ बाजा बजाते हुए महल में लाया गया था। इस प्रकार के खेल से नक्षत्रराय के प्रति पीताम्बर का स्नेह और भी गाढ़ा हो जाता था।

आज महल में बिल्ली के बच्चे का विवाह है। नक्षत्रराय की एक शिशु-बिल्ली थी, मंडल परिवार के बिल्ले के साथ उसका विवाह होगा। चूडामणि घटक को घटकाली स्वरूप तीन-सौ रुपए और एक शाल मिला है। शरीर पर उबटन आदि सारी रस्में हो चुकी हैं। आज शुभ लग्न में संध्या समय विवाह होगा। इन कुछ दिन राजबाड़ी में किसी को तनिक भी फुर्सत नहीं है।

संध्या समय पथ-घाट जगमगाने लगे, नौबत बैठ गई। मंडल परिवार के घर से जरीदार रेशमी कपड़े पहन कर पालकी पर चढ़ कर अति कातर स्वर में म्याऊँ म्याऊँ करते हुए वर ने यात्रा शुरू कर दी है। मंडल परिवार का छोटा लड़का उसकी गर्दन की रस्सी थामे उसके साथ-साथ मितवर के समान आ रहा है। उलु-शंख ध्वनि के बीच पात्र विवाहोत्सव में बैठा।

पुरोहित का नाम केनाराम है, किन्तु नक्षत्रराय ने उसका नाम रख लिया था, रघुपति। दरअसल नक्षत्रराय रघुपति से डरता था, इसी कारण नकली रघुपति के साथ खेल करके सुखी होता था। यहाँ तक कि बात-बात में उसका उत्पीड़न करता था; गरीब केनाराम सब कुछ चुपचाप सहन करता था। आज देव-दुर्विपाक से केनाराम सभा से अनुपस्थित था - उसका बेटा ज्वर से मरणासन्न था।

नक्षत्रराय ने अधीर स्वर में पूछा, "रघुपति कहाँ है?"

भृत्य ने कहा, "उनके घर में कोई बीमार है।"

नक्षत्रराय दुगुने ऊँचे स्वर में बोला, "बोलाओ उस्को।"

आदमी दौड़ा। तत्क्षण रोते हुए बिल्ले के सामने नाच-गाना होने लगा।

नक्षत्रराय बोला, "साहाना (एक रागिनी का नाम) गाओ।" साहाना-गान आरम्भ हो गया।

कुछ देर बाद भृत्य ने आकर निवेदन किया, "रघुपति आए हैं।"

नक्षत्रराय रोष के साथ बोला, "बोलाओ।"

तुरंत पुरोहित ने कक्ष में प्रवेश किया। पुरोहित को देखते ही नक्षत्रराय की भृकुटी गायब हो गई, उसकी सम्पूर्ण मुद्रा बदल गई। उसका चेहरा पीला पड़ गया, माथे पर पसीना दिखाई देने लगा। साहाना-गान, सारंगी और मृदंग सहसा बंद हो गए; मात्र बिल्ले की म्याऊँ म्याऊँ की आवाज निस्तब्ध कक्ष में दुगुने वेग से गूँजने लगी।

यह तो रघुपति ही है। इसमें कोई संदेह नहीं। लंबा, पतला, तेजस्वी, बहुत दिन के भूखे कुत्ते के समान दोनों आँखें जल रही हैं। वह अपने धूल में सने दोनों पैर मखमली दरी पर जमा कर सिर उठा कर खड़ा हो गया। बोला, "नक्षत्रराय!"

नक्षत्रराय चुप रहा।

रघुपति ने कहा, "तुमने रघुपति को बुलाया। मैं आ गया हूँ।"

नक्षत्रराय ने अस्पष्ट स्वर में कहा, "ठाकुर - ठाकुर!"

रघुपति ने कहा, "उठ कर आओ।"

नक्षत्रराय धीरे-धीरे सभा से उठ गया। बिल्ली का ब्याह, साहाना और सारंगी पूरी तरह थम गए।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : छब्बीसवाँ परिच्छेद

रघुपति ने पूछा, "यह सब क्या हो रहा था?"

नक्षत्रराय ने सिर खुजलाते हुए कहा, "नाच हो रहा था।"

रघुपति ने घृणा से मुँह सिकोड़ते हुए कहा, "छी छी!"

नक्षत्र अपराधी के समान खड़ा रहा।

रघुपति ने कहा, "कल यहाँ से चल पड़ना होगा। उसकी तैयारी करो।"

नक्षत्रराय ने कहा, "कहाँ जाना होगा?"

रघुपति - "वह बात बाद में होगी। फिलहाल मेरे साथ बाहर निकल आओ।"

नक्षत्रराय ने कहा, "मैं यहाँ ठीक हूँ।"

रघुपति - "ठीक हूँ! तुम राजवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारे सभी पूर्वज राज्य करते आए हैं। और तुम हो कि आज इस जंगली गाँव में सियार राजा बने बैठे हो और कह रहे हो, 'ठीक हूँ'।"

रघुपति के तीव्र वाक्यों और तीक्ष्ण कटाक्ष ने प्रमाणित कर दिया कि नक्षत्रराय ठीक नहीं है। नक्षत्रराय ने भी रघुपति के चेहरे के तेज में थोड़ा-बहुत उसी प्रकार समझा । वह बोला, "ठीक क्या, ऐसे ही हूँ। लेकिन और क्या करूँ? उपाय क्या है?"

रघुपति - "उपाय ढेरों हैं - उपायों का अभाव नहीं । मैं तुम्हें रास्ता दिखाऊँगा, तुम मेरे साथ चलो।"

नक्षत्रराय - "एक बार दीवानजी से पूछ लूँ।"

रघुपति - "नहीं।"

नक्षत्रराय - "मेरा यह सारा समान…"

रघुपति - "कुछ आवश्यक नहीं।"

नक्षत्रराय - "आदमी…"

रघुपति - "आवश्यकता नहीं है।"

नक्षत्रराय - "मेरे हाथ में इस समय पर्याप्त रुपए नहीं हैं।"

रघुपति - "मेरे हाथ में हैं। और अधिक बहाना-आपत्ति मत करो। आज सोने जाओ, कल सुबह ही चल पड़ना होगा।"

कह कर रघुपति किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चला गया।

उसके अगले दिन भोर में नक्षत्रराय जागा हुआ है। बंदी-जन ललित रागिनी में मधुर गीत गा रहे हैं। नक्षत्रराय ने बाहरी भवन में आकर खिड़की से बाहर देखा। पूर्वी तट पर सूर्योदय हो रहा है, अरुण रेखा दिखाई पड़ रही है। दोनों किनारों के वृक्ष-समूहों के बीच से, छोटे-छोटे गाँवों के सिवाने के निकट से अपनी विपुल जल-राशि के साथ ब्रह्मपुत्र अबाध बहता चला जा रहा है। प्रासाद की खिड़की से नद के किनारे एक छोटा कुटीर दिखाई पड़ रहा है। एक स्त्री आँगन में झाड़ू दे रही है - एक पुरुष उसके साथ एक-दो बातें करके सिर पर चादर बाँध कर, बाँस की लंबी लाठी के अगले भाग में पोटली लटका कर निश्चिन्त मन से कहीं निकल गया। श्यामा और दोएल सीटी बजा रहे हैं, बेने बोऊ विशाल कटहल वृक्ष के घने पत्तों के बीच बैठी गाना गा रही है। खिड़की में खड़े होकर बाहर की ओर देखते हुए नक्षत्रराय के हृदय से एक गहरी लंबी निश्वास निकली, उसी समय पीछे से रघुपति ने आकर उसे छुआ। नक्षत्रराय चौंक उठा। रघुपति ने कोमल-गम्भीर स्वर में कहा, "यात्रा की पूरी तैयारी हो गई!"

नक्षत्रराय ने हाथ जोड़ कर अत्यंत कातर स्वर में कहा, "ठाकुर, मुझे क्षमा कीजिए, ठाकुर - मैं कहीं भी नहीं जाना चाहता। मैं यहीं ठीक हूँ।"

रघुपति ने एक भी बात कहे बिना अपनी जलती हुई दृष्टि नक्षत्रराय के चेहरे पर टिका दी। नक्षत्रराय आँखें झुका कर बोला, "कहाँ चलना होगा?"

रघुपति - "वह बात अभी नहीं हो सकती।"

नक्षत्र - "मैं भैया के विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं कर पाऊँगा।"

रघुपति आग बबूला होते हुए बोला, "सुनूँ तो, भैया ने तुम्हारा कौन-सा महान उपकार कर दिया है!"

नक्षत्र मुँह घुमा कर खिड़की को नाखून से खुरचते हुए बोला, "मैं जानता हूँ, वे मुझे प्यार करते हैं।"

रघुपति ने तेज सूखी हँसी के साथ कहा, "हरि हरि, क्या प्रेम है! तभी तो, ध्रुव को निर्विघ्न युवराज पद पर अभिषिक्त करने के लिए भैया ने झूठा बहाना बना कर तुम्हें राज्य से भगा दिया है - कहीं राज्य के गुरु भार से माखन-पुतली-सा प्यारा भाई दुखी हो जाए तो! निर्बोध, क्या उस राज्य में कभी आसानी से प्रवेश कर पाओगे!"

नक्षत्रराय जल्दी से बोला, "मैं क्या यह सामान्य-सी बात नहीं समझता! मैं सब समझता हूँ - किन्तु बताओ ठाकुर, मैं करूँ क्या, उपाय क्या है?"

रघुपति - "उसी उपाय की बात तो हो रही है। उसी कारण तो आया हूँ। इच्छा हो, तो मेरे साथ चले आओ, नहीं तो इसी बाँस वन में बैठे-बैठे अपने हिताकांक्षी भैया का ध्यान करो। मैं चला।"

बोल कर रघुपति प्रस्थान के लिए तैयार हो गया। नक्षत्रराय जल्दी से उसके पीछे आकर बोला, "मैं भी चलूँगा ठाकुर, किन्तु दीवानजी अगर चलना चाहें, तो क्या उन्हें अपने साथ ले चलने में आपत्ति है?"

रघुपति ने कहा, "मेरे अलावा और कोई साथ नहीं जाएगा।"

नक्षत्रराय के पैर घर छोड़ कर निकलना नहीं चाहते। यह सारा सुख का खेला छोड़ कर, दीवानजी को छोड़ कर, रघुपति के साथ अकेला कहाँ जाना पड़ेगा! लेकिन रघुपति मानो उसके केश पकड़ कर खींच कर ले चला। उसके अलावा नक्षत्रराय के मन में एक प्रकार का भय मिश्रित कुतूहल भी पैदा होने लगा। वह भी एक भारी आकर्षण है।

नौका तैयार है। नदी के किनारे पहुँच कर नक्षत्रराय ने देखा, कंधे पर गमछा डाले पीताम्बर स्नान करने आ रहा है। नक्षत्रराय को देखते ही पीताम्बर ने हँसी से प्रफुल्ल मुख से कहा, "जयोस्तु महाराज! सुना है, कल कहीं से एक कुलच्छनी धूर्त ब्राह्मण ने आकर शुभ विवाह में बाधा खड़ी कर दी।"

नक्षत्रराय बेचैन हो गया। रघुपति ने गंभीर स्वर में कहा, "मैं ही वह धूर्त ब्राह्मण हूँ।"

पीताम्बर हँस पड़ा; बोला, "तब तो, आपके सामने आपका वर्णन करना अच्छा नहीं हुआ। जानता, तो कौन माई का लाल ऐसा काम करता! किन्तु ठाकुर, बुरा मत मानिए, पीठ पीछे लोग क्या नहीं कहते! मुझे सामने जो राजा कहते हैं, वे ही पीछे कहते हैं, पितु। मुँह पर कुछ न कहना ही काफी है, मैं तो यही समझता हूँ। जानते हैं, असली बात क्या है, आपका चेहरा कुछ ज्यादा ही नाराजगी-भरा दिखाई दे रहा है, किसी के भी चेहरे का ऐसा भाव देख कर लोग उसकी निंदा करने लगते हैं। महाराज, इतनी सुबह नदी किनारे?"

नक्षत्रराय ने तनिक करुण स्वर में कहा, "मैं तो चला दीवानजी!"

पीताम्बर - "चला? कहाँ? नवपाड़ा, मंडल परिवार के घर?

नक्षत्र - "नहीं दीवानजी, मंडल परिवार के घर नहीं। बहुत दूर।"

पीताम्बर - "बहुत दूर? तो क्या शिकार पर पाइकघाटा जा रहे हैं?"

नक्षत्रराय ने एक बार रघुपति के चेहरे की ओर देख कर केवल दुखी भाव से गर्दन हिला दी।

रघुपति ने कहा, "समय निकला जा रहा है। नाव पर चढ़ा जाए।"

पीताम्बर ने अत्यंत संदिग्ध और क्रुद्ध भाव से ब्राह्मण के चेहरे की ओर देखा; कहा, "तुम कौन हो रे ठाकुर? हमारे महाराज पर हुकुम चलाने आ गए हो!"

नक्षत्र ने परेशान होकर पीताम्बर को एक किनारे खींच ले जाकर कहा, "वे हमारे गुरु ठाकुर हैं।"

पीताम्बर बोल पड़ा, "होने दीजिए ना गुरु ठाकुर। वह हमारे चण्डी मण्डप में रहे, चावल-केले का सीधा भिजवा दूँगा, मान-सम्मान के साथ रहे - महाराज से उसे क्या लेना-देना!"

रघुपति - "वृथा समय नष्ट हो रहा है - तब मैं चला।"

पीतांबर - "जो आज्ञा, देर करने का क्या लाभ, महाशय झटपट चलते बनिए। मैं महाराज को लेकर महल जा रहा हूँ।"

नक्षत्रराय ने एक बार रघुपति के चेहरे की ओर देखा और फिर पीताम्बर के चेहरे की ओर देखते हुए धीमे स्वर में कहा, "नहीं दीवानजी, मैं जा रहा हूँ।"

पीताम्बर - "तब मैं भी चलता हूँ, लोगों को साथ ले लूँ। राजा की तरह चलिए। राजा जाएगा और दीवान नहीं जाएगा?"

नक्षत्रराय ने रघुपति की ओर देखा। रघुपति बोला, "कोई साथ नहीं जाएगा।"

पीताम्बर उग्र हो उठा, बोला, "देखो ठाकुर, तुम…"

नक्षत्रराय ने उसे जल्दी से रोकते हुए कहा, "दीवानजी, मैं चलता हूँ, देरी हो रही है।"

पीताम्बर ने निराश होकर नक्षत्र का हाथ पकड़ कर कहा, "देखो बेटा, मैं तुम्हें राजा कहता हूँ, किन्तु तुम्हें संतान के समान प्यार करता हूँ - मेरी कोई संतान नहीं है। तुम पर मेरा कोई हक नहीं बनता। तुम जा रहे हो, मैं तुम्हें बलपूर्वक नहीं रोक सकता। लेकिन मेरा एक अनुरोध है, जहाँ भी जाओ, मेरे मरने के पहले लौट आना होगा। मैं अपने हाथ से अपना सारा राजपाट तुम्हें सौंप जाऊँगा। मेरी यही एक साध है।"

नक्षत्रराय और रघुपति नौका पर चढ़ गए। नौका दक्षिण की ओर चली गई। पीताम्बर नहाना भूल कर गमछा कंधे पर रखे अन्यमनस्क भाव से घर लौट गया। गुजुरपाड़ा मानो खाली हो गया - उसके समस्त आमोद-उत्सव का अवसान हो गया। केवल प्रति दिन के प्रकृति के नित्य-उत्सव, प्रात:काल पक्षियों के गान, पत्तों की मर्मर ध्वनि और नदी की तरंगों की ताली को विराम नहीं।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : सत्ताईसवाँ परिच्छेद

दीर्घ पथ। कहीं नदी, कहीं घना जंगल, कहीं छायाहीन प्रांतर - कभी नौका पर, कभी पैदल, कभी टट्टू घोड़े पर - कभी धूप, कभी बारिश, कभी कोलाहल भरा दिन, कभी रात्रि का निस्तब्ध अंधकार - नक्षत्रराय बिना रुके चलता रहा। कितने देश, कितने विचित्र दृश्य, कितने विचित्र लोग - किन्तु नक्षत्रराय के साथ, वही छाया के समान क्षीण, धूप के समान दीप्त एकमात्र रघुपति निरंतर लगा हुआ है। दिन में रघुपति, रात में रघुपति, सपने में भी रघुपति विराज रहा है। रास्ते में पथिक आ-जा रहे हैं, रास्ते के किनारे धूल में बालक खेल रहे हैं, हाट में सैकड़ों-सैकड़ों लोग खरीदना-बेचना कर रहे हैं, गाँव में वृद्ध पासा खेल रहे हैं, स्त्रियाँ घाट पर पानी भर रही हैं, नाविक गाना गाते हुए नौका में जा रहे हैं - किन्तु नक्षत्रराय के बगल में क्षीणकाय रघुपति हमेशा जाग रहा है। संसार में चारों ओर विचित्र खेल चल रहा है, विचित्र घटनाएँ घट रही हैं - किन्तु इस रंगभूमि की विचित्र लीला के बीच से होते हुए नक्षत्रराय का मंद भाग्य उसे खींचे लिए जा रहा है - अपने उसके लिए पराए हैं, लोकालय मात्र शून्य मरुभूमि है।

नक्षत्रराय थक कर अपनी पार्श्ववर्ती छाया से पूछता है, "और कितनी दूर चलना होगा?"

छाया उत्तर देती है, "बहुत दूर।"

"कहाँ जाना होगा?"

इसका कोई उत्तर नहीं। नक्षत्रराय निश्वास छोड़ते हुए चलता रहता है। तरु-श्रेणी के मध्य पत्तों से छाई गई एकांत साफ-सुथरी कुटिया को देख कर उसके मन में आता है, 'अगर मैं इस कुटिया का अधिवासी होता!' गो-धूलि के समय जब ग्वाले लाठी कंधे पर रखे मैदान से ग्राम-पथ पर धूल उड़ाते गाय-बछड़ों को लेकर चलते हैं, नक्षत्रराय के मन में आता है, 'अगर मैं इनके साथ जा पाता, संध्या-समय घर जाकर विश्राम कर पाता!' दोपहर में प्रचण्ड धूम में किसान हल जोत रहा है, उसे देख कर नक्षत्रराय सोचता है, 'आहा, यह कितना सुखी है!'

रास्ते के कष्ट से नक्षत्रराय विवर्ण, कमजोर और मलिन पड़ गया है; वह रघुपति से बोला, "मैं और नहीं बचूँगा।"

रघुपति ने कहा, "अब तुम्हें मरने कौन देगा!"

नक्षत्रराय को लगा, रघुपति से छूटे बिना उसके पास मरने का भी अवसर नहीं है। एक स्त्री ने नक्षत्रराय को देख कर कहा था, 'हाय, किसका लड़का है री! इसको रास्ते में कौन निकाल लाया!' सुन कर नक्षत्रराय का हृदय भर आया, उसकी आँखों में आँसू आ गए, उसकी इच्छा हुई, उसी स्त्री को माँ पुकार कर उसके साथ उसके घर चला जाए।

लेकिन नक्षत्रराय रघुपति के हाथों जितना कष्ट पाने लगा, उतना ही उसके वश में होने लगा, उसका सम्पूर्ण अस्तित्व रघुपति की उँगली के इशारे पर नाचने लगा।

चलते-चलते नदी की बहुलता क्रमश: कम होने लगी। धीरे-धीरे पक्की जमीन आ गई; मिट्टी लाल रंग की, कंकड़ों से भरी हुई, बस्तियाँ दूर-दूर बसी हुई, पेड़-पौधे विरल; दो पथिक नारियल के वनों का देश छोड़ कर ताल वनों के देश में आ पड़े। बीच-बीच में बड़े-बड़े बाँध, सूखे नदी-पथ, दूर बादलों के समान पहाड़ दिखाई पड़ रहे हैं। धीरे-धीरे शाहशुजा की राजधानी राजमहल निकट आने लगा।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : अठाईसवाँ परिच्छेद

अंतत: राजधानी पहुँच गए। पराजय और पलायन के बाद शुजा नवीन सैन्य-संगठन की कोशिश में लगा है। किन्तु राज-कोष में अधिक धन नहीं है। प्रजा-जन कर के भार से पीड़ित हैं। इसी बीच दारा को पराजित और निहत करके औरंगजेब दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया है। शुजा यह समाचार पाकर बहुत विचलित हो गया। किन्तु सेना और सामंत किसी भी तरह तैयार नहीं थे, इसी कारण कुछ समय मिल जाने की आशा में उसने बहाना बना कर एक दूत औरंगजेब के पास भेज दिया। कह कर भेजा, नयनों की ज्योति, हृदय के आनंद, परम स्नेहास्पद प्रियतम भ्राता औरंगजेब, सिंहासन पाने में सफल हुए, इससे शुजा की मृत देह को प्राण मिल गए - अब शुजा के लिए बंगाल के शासन की जिम्मेदारी नए सम्राट द्वारा स्वीकार कर लेने पर आनंद में और कुछ कमी नहीं रहेगी। औरंगजेब ने अत्यंत आदर के साथ दूत की अगवानी की। शुजा के शरीर, मन, स्वास्थ्य और शुजा के परिवार के कुशल-समाचार जानने के लिए विशेष उत्सुकता प्रकट की तथा कहा, "जब स्वयं सम्राट शाहजहाँ ने शुजा को बंगाल के शासन-कार्य हेतु नियुक्त किया है, तो और दूसरे स्वीकृति-पत्र की कोई आवश्यकता नहीं है।" ऐसे ही समय रघुपति शुजा के दरबार में जाकर उपस्थित हो गया।

शुजा ने कृतज्ञता और सम्मान के साथ अपने उद्धारकर्ता की अगवानी की। बोला, "क्या समाचार है?"

रघुपति ने कहा, "बादशाह से कुछ निवेदन है।"

शुजा ने मन-ही-मन सोचा, "निवेदन फिर किसके लिए? कुछ धन न माँग बैठे, तो बचूँ।"

रघुपति ने कहा, "मेरी प्रार्थना यही है कि…"

शुजा ने कहा, "ब्राह्मण, तुम्हारी प्रार्थना मैं निश्चय ही पूर्ण करूँगा। किन्तु कुछ दिन सबर करो। अभी राज-कोष में अधिक धन नहीं है।"

रघुपति ने कहा, "शहंशाह, चाँदी, सोना या और कोई धातु नहीं चाहिए, मुझे इस समय शोणित-इस्पात चाहिए। मेरी नालिश सुन लीजिए, मैं न्याय की प्रार्थना करता हूँ।"

शुजा ने कहा, "भारी मुश्किल है। अभी मेरे पास न्याय करने का समय नहीं है। ब्राह्मण, तुम बड़े असमय आए हो।"

रघुपति ने कहा, "शहजादे, समय असमय सभी का होता है। आप बादशाह हैं, आपका भी समय है; और मैं दरिद्र ब्राह्मण हूँ, मेरा भी है। आप अपने समय के अनुसार न्याय करने बैठेंगे, तो मेरा समय रहेगा कहाँ?"

शुजा निरुपाय होकर बोला, "भारी मुसीबत है। इतनी बातें सुनने की अपेक्षा तुम्हारी नालिश सुनना अच्छा है। बोलो।"

रघुपति ने कहा, "त्रिपुरा के राजा, गोविन्दमाणिक्य ने अपने छोटे भाई, नक्षत्रराय को बिना अपराध के निर्वासित कर दिया है…"

शुजा ने खीझ कर कहा, "ब्राह्मण, तुम दूसरे की नालिश लेकर मेरा समय क्यों नष्ट कर रहे हो? अभी इस सब का न्याय करने का समय नहीं है।"

रघुपति ने कहा, "फरियादी राजधानी में हाजिर है।"

शुजा ने कहा, "जब वह स्वयं उपस्थित होकर अपने मुँह से नालिश पेश करेगा, तब विवेचना की जाएगी।"

रघुपति ने कहा, "उसे यहाँ कब हाजिर करूँ?"

शुजा ने कहा, "ब्राह्मण किसी भी तरह छोड़ेगा नहीं। अच्छा, एक सप्ताह बाद ले आना।"

रघुपति ने कहा, "अगर बादशाह हुकुम करें, तो मैं उसे कल ले आऊँ!"

शुजा ने खीझते हुए कहा, "अच्छा, कल ही ले आना।"

आज के लिए छुटकारा मिल गया। रघुपति ने विदा ली।

नक्षत्रराय ने कहा, "नवाब के सामने जाना है, लेकिन नजराना क्या लूँ?"

रघुपति ने कहा, "उसके लिए तुम्हें नहीं सोचना है।"

उसने नजराने के लिए डेढ़ लाख मुद्राएँ उपस्थित कर दीं।

रघुपति अगले दिन सुबह काँपते हृदय से नक्षत्रराय को लेकर शुजा के दरबार में आ पहुँचा। जब डेढ़ लाख रुपए नवाब के पैरों में रख दिए गए, तो उसकी मुखश्री वैसी अप्रसन्न प्रतीत नहीं हुई। नक्षत्रराय की नालिश अति सहजता से उसकी समझ में आ गई। वह बोला, "अब तुम लोग क्या चाहते हो, मुझे बताओ।"

रघुपति ने कहा, "गोविन्दमाणिक्य को निर्वासित करके उसके स्थान पर नक्षत्रराय को राजा बनाने की आज्ञा दी जाए।"

यद्यपि शुजा ने अपने भाई के सिंहासन में हस्तक्षेप करने में तनिक भी संकोच नहीं किया, तब भी इस मामले में उसके मन में कैसी एक आपत्ति उपस्थित हो गई। किन्तु इस समय उसे रघुपति की प्रार्थना पूर्ण करना ही सबसे सहज अनुभव हुआ - अन्यथा उसे डर है, रघुपति बहुत अधिक बकझक करेगा। विशेष रूप से उसे लगा कि डेढ़ लाख रुपया नजराना लेने के बाद भी आपत्ति करना अच्छा दिखाई नहीं देगा। वह बोला, "अच्छा, गोविन्दमाणिक्य के निर्वासन और नक्षत्रराय के राज्याभिषेक का आदेशपत्र तुम लोगों को देता हूँ, ले जाओ।"

रघुपति ने कहा, "बादशाह के कुछ सैनिक भी साथ भेजने होंगे।"

शुजा ने दृढ़ स्वर में कहा, "नहीं, नहीं, नहीं - वह नहीं होगा, युद्ध नहीं कर पाऊँगा।"

रघुपति ने कहा, "मैं और छत्तीस हजार रुपया युद्ध के व्ययस्वरूप रखे जा रहा हूँ। और नक्षत्रराय के त्रिपुरा का राजा बनते ही एक बरस का खजाना सेनापति के हाथ भिजवा दूँगा।"

शुजा को यह प्रस्ताव अत्यधिक युक्तिसंगत प्रतीत हुआ तथा मंत्री भी उसके साथ एकमत हो गए। रघुपति और नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का एक दल लेकर त्रिपुरा की ओर चल पड़े।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : उन्तीसवाँ परिच्छेद

इस उपन्यास के आरम्भ काल से अब तक दो वर्ष हो गए हैं। तब ध्रुव दो बरस का बालक था। अब उसकी उम्र चार बरस है। अब वह बहुत बातें सीख गया है। अब वह अपने को बहुत बड़ा आदमी समझता है; यद्यपि सारी बातें साफ-साफ नहीं बोल पाता, किन्तु बहुत बलपूर्वक बोलता रहता है। राजा को वह प्राय: 'गुड़िया दूँगा' कह कर परम प्रलोभन और सांत्वना देता रहता है तथा यदि राजा किसी तरह की शैतानी के लक्षण प्रकट करते हैं, तो ध्रुव उन्हें 'कमरे में बंद कर दूँगा' कह कर बहुत डरा देता है। इस प्रकार आजकल राजा विशेष नियंत्रण में हैं - ध्रुव के अभिमत के अभाव में वे कोई काम करने में बहुत ज्यादा भरोसा नहीं करते।

इसी बीच ध्रुव को एक संगिनी मिल गई है। एक पड़ोसी की लड़की, ध्रुव से छह महीने छोटी। दसेक मिनट के भीतर दोनों की चिरस्थायी दोस्ती हो गई। बीच में थोड़ा मनमुटाव होने की संभावना हुई थी। ध्रुव के हाथ में एक बड़ा बताशा था। प्रथम प्रणय के उत्साह में ध्रुव ने अपनी दो छोटी उँगलियों से अति सावधानी के साथ एक छोटा-सा टुकड़ा तोड़ कर एक बार में ही अपनी संगिनी के मुँह में ठूँस दिया और परम अनुग्रह के साथ गर्दन हिलाते हुए कहा, "तुम काओ।"

संगिनी मिठाई पाकर परितृप्त होकर बोली, "और काऊँगी।"

इस पर ध्रुव थोड़ा दुखी हो गया। बंधुत्व पर इतना ज्यादा अधिकार न्यायसंगत अनुभव नहीं हुआ; ध्रुव ने अपने स्वभाव-सुलभ गाम्भीर्य और गौरव के साथ गर्दन हिला कर, आँखें फाड़ कर कहा, "छी - आर केते नेई, अछुक कोबे, बाबा मा'बे।" (छी: - और नहीं खाते, बीमार हो जाओगी, पिताजी पिटाई करेंगे।)

कह कर बिना कोई देर किए पूरा बताशा एक बार में ही अपने मुँह में ठूँस कर खतम कर डाला। अचानक बालिका के चेहरे की मांसपेशियों में खिंचाव आने लगा - अधरोष्ठ फूलने लगे, भौंहें चढ़ने लगीं - आसन्न क्रंदन के समस्त लक्षण प्रकट हो गए।

ध्रुव किसी का भी क्रंदन सहन नहीं कर पाता; जल्दी से गंभीर सांत्वना के स्वर में बोला, "कल दूँगा।"

राजा के आते ही ध्रुव भारी ज्ञानी बनते हुए नवीन संगिनी के सम्बन्ध में निर्देश देकर बोला, "इसे कुछ मत कहना, यह रो पडेगी। छी, मारते नहीं, छी!"

सच में राजा की कोई दुरभिसंधि नहीं थी, तब भी जबरदस्ती राजा को सावधान कर देना ध्रुव ने अत्यंत आवश्यक समझा। राजा ने लड़की की पिटाई नहीं की, ध्रुव ने साफ ही देख लिया, उसका निर्दश निष्फल नहीं गया।

इसके बाद ध्रुव अभिवावक की मुद्रा धारण करके किसी प्रकार की भी विपदा की आशंका को निर्मूल करते हुए परम गाम्भीर्य के साथ लड़की को आश्वस्त करने की कोशिश करने लगा।

इसकी भी कोई आवश्यकता नहीं थी। कारण, लड़की अपने आप ही बिना डरे राजा के निकट जाकर अत्यंत कुतूहल और लालच के वशीभूत उनके हाथ का कंगन घुमा-घुमा कर उसका निरीक्षण करने लगी।

इस तरह अपने प्रयत्न और परिश्रम से संसार में शान्ति और प्रेम की स्थापना करके प्रसन्न-हृदय ध्रुव ने अपना बेला के फूल के समान भरा हुआ गोल कोमल पवित्र चेहरा राजा के मुँह की ओर बढ़ा दिया - राजा की ओर से सद्-व्यवहार का पुरस्कार मिला -- राजा ने उसे चूम लिया।।

इसके बाद ध्रुव ने अपनी संगिनी का चेहरा उठा कर अनुमति और अनुरोध के बीच के स्वर में राजा से कहा, "एके चूमो काओ।" ( इसे चूमो।)

राजा ने ध्रुव के आदेश के उल्लंघन का साहस नहीं किया। तब लड़की बुलावे का जरा भी इंतजार न करते हुए नितांत स्वाभाविक रूप से खिले हुए चेहरे के साथ राजा की गोद पर चढ़ कर बैठ गई।

इतनी देर तक संसार में अशांति अथवा गड़बड़ के लक्षण नहीं थे, किन्तु अब ध्रुव के सिंहासन पर खतरा मँडराते ही उसका सार्वभौमिक प्रेम टलमल करने लगा। राजा की गोद पर अपना निज का एकमात्र अधिकार स्थापित करने की इच्छा बलवती हो उठी। मुँह एकदम चढ़ गया, एक-दो बार लड़की को खींचा, यहाँ तक कि विशेष अवस्था में छोटी बालिका को मारना भी अपने पक्ष में उतना अन्याय प्रतीत नहीं हुआ।

तब राजा ने मेलमिलाप कराने के उद्देश्य से अपनी आधी गोदी में ध्रुव को भी खींच लिया। लेकिन उसमें भी ध्रुव की आपत्ति दूर नहीं हुई। शेष आधी पर अधिकार करने के लिए नए सिरे से आक्रमण की तैयारी करने लगा। उसी समय नए राजपुरोहित बिल्वन ठाकुर ने कक्ष में प्रवेश किया।

राजा ने दोनों को ही गोदी से उतार कर उन्हें प्रणाम किया। ध्रुव से बोले, "ठाकुर को प्रणाम करो।"

ध्रुव ने वह आवश्यक नहीं समझा; मुँह में उँगली घुसाए विद्रोही मुद्रा में खड़ा रहा। लड़की ने राजा की देखादेखी खुद ही पुरोहित को प्रणाम कर लिया। बिल्वन ठाकुर ने ध्रुव को निकट खींच कर पूछा, "तुम्हारी यह संगिनी कहाँ से आ जुटी?"

ध्रुव थोड़ी देर सोच कर बोला, "आमि टक् टक् च'ब।" (मैं घोड़े पर चढ़ूँगा।)

पुरोहित ने कहा, "वाह वा, प्रश्न और उत्तर के बीच क्या मेल है!"

ध्रुव की आँखें सहसा लड़की की तरफ उठीं, उसके बारे में अपना मत और अभिप्राय अत्यंत संक्षेप में प्रकट करते हुए बोला, "ओ दुष्टु, ओके मा'बो।" (वह दुष्ट है, उसकी पिटाई करूँगा।)

कहते हुए अपना छोटा-सा घूँसा हवा में लहराया।

राजा ने गंभीर होकर कहा, "छी ध्रुव!"

जैसे एक ही फूँक से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार ध्रुव का चेहरा तत्क्षण म्लान हो गया। वह पहले आँसू रोकने के लिए दोनों मुट्ठियों से आँखें रगड़ने लगा; अंत में देखते-देखते थोड़ा-सा बड़ा हृदय और नहीं सह पाया, रो पड़ा।

बिल्वन ठाकुर ने उसे हिलाया-झुलाया, गोदी में उठाया, हवा में उछाला, जमीन पर खड़ा किया - इस तरह बेचैन कर डाला; फिर ऊँची आवाज में जल्दी-जल्दी बोला, "सुनो सुनो ध्रुव, तुम्हें श्लोक सुनाता हूँ, सुनो -

कलह कटकटां काठ काठिन्य काठ्यम्

कटन किटन कीटं कुटमलं खटमटम्।

अर्थात, जो बालक रोता है, उसे कलह कटकटां के बीच डाल कर खूब काठ काठिन्य काठ्यम दिया जाता है, उसके बाद इतना सारा कटन किटन कीटं लेकर लगातार तीन दिन तक कुटमलं खटमटम्।"

पुरोहित ठाकुर इसी तरह अनर्गल बकता रहा। ध्रुव का रोना बीच में ही थम गया। पहले वह इस गोलमाल से परेशान और भौचक होकर आँसू भरी आँखें उठा कर बिल्वन ठाकुर के मुँह की ओर देखता रहा। उसके बाद उसके हाथ-मुँह हिलते देख कर उसे बहुत कौतुक अनुभव हुआ।

उसने बहुत खुश होकर कहा, "फिर से बोलो।"

पुरोहित ने फिर से बक दिया। ध्रुव ने हँसी से लोटपोट होते हुए कहा, "फिर से बोलो।"

राजा ने ध्रुव के आँसुओं से सने कपोलों तथा हँसी भरे होठों को बार-बार चूमा। इसके बाद राजा, राजपुरोहित और दोनों बालक-बालिका मिल कर खेल में लग गए।

बिल्वन ठाकुर ने राजा से कहा, "महाराज, आप इन लोगों के साथ बहुत खुश हैं। रात-दिन प्रखर बुद्धिमानों के साथ रहने से बुद्धि लुप्त हो जाती है। छुरी लगातार शान पर चढ़ाने से धीरे-धीरे घिस कर लुप्त हो जाती है। मात्र उसका मोटा हत्था बच रहता है।"

राजा हँस कर बोले, "तब तो, लगता है अभी मेरे सूक्ष्म बुद्धि के लक्षण प्रकट नहीं हुए हैं।"

बिल्वन - "नहीं, सूक्ष्म बुद्धि का एक लक्षण यही है कि वह सहज को जटिल बना डालती है। संसार में ढेरों बुद्धिमान न होते, तो संसार के काम बहुत आसान हो गए होते। नाना सुविधाएँ जुटाने में ही नाना असुविधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। समझ नहीं आता, मनुष्य अधिक बुद्धि लेकर करेगा क्या!"

राजा ने कहा, "पाँच अँगुलियों से यथेष्ट काम चल जाता है, दुर्भाग्यवश सात अँगुलियाँ पाने की इच्छा करके काम बढ़ाना पडता है।"

राजा ने ध्रुव को पुकारा। ध्रुव फिर से अपनी साथिन के साथ शान्ति स्थापित करके खेल रहा था। राजा के बुलाते ही खेल छोड़ कर तुरंत उनके निकट आ गया। राजा उसे सामने बैठा कर बोले, "ध्रुव, ठाकुर को वह नया गीत तो सुनाओ।"

लेकिन ध्रुव ने नितांत आपत्ति की मुद्रा में ठाकुर के चेहरे की ओर देखा।

राजा ने लालच देते हुए कहा, "तुम्हें टक् टक् पर चढ़ाऊँगा।"

ध्रुव अपनी तुतलाती बोली में गाने लगा -

मुझको छह जन मिल पथ दर्शाते, कहते

भूल जाता पग-पग पर पथ रे।

नाना बातों के व्याज से नाना मुनि कहते,

झूलता रहता संशय में रे।

जाऊँ निकट तुम्हारे, यही थी साध,

तुम्हारी वाणी सुन मिटाऊँ प्रमाद,

कानों के निकट सभी करते विवाद

सैकड़ों लोगों की सैकड़ों बोलियाँ रे।

जब दुखी प्राणों से करता तुम्हारी याचना

सभी आस-पास खड़े हो कर देते हैं आड़,

धरती की धूल उसी कारण लिए हूँ -

मिलती नहीं चरण-धूलि रे।

सैकड़ों भाग मेरे सैकड़ों तरफ दौड़ते,

आपस में ही खड़े करते विवाद,

किसको सँभालूँ - यह कैसी मुसीबत है -

अकेला हूँ, वे अनेक हैं रे ।

मुझे एक बना दो, बाँध अपने प्रेम में,

दिखाओ मुझे एक अविच्छिन्न मार्ग,

भँवर के बीच गिर कितना मैं रोऊँ -

चरणों में ले लो रे।

ध्रुव के मुँह से तोतली बोली में यह कविता सुन कर बिल्वन ठाकुर एकदम विगलित हो गया। बोला, "आशीर्वाद देता हूँ, तुम चिरंजीवी होओ।"

ठाकुर ने ध्रुव को गोदी में उठा कर बहुत विनती करते हुए कहा, "एक बार और सुनाओ।"

ध्रुव ने दृढ़ मौन के द्वारा आपत्ति प्रकट की। पुरोहित आँखें ढक कर बोला, "तो, मैं रोऊँगा।"

ध्रुव ने थोड़ा विचलित होकर कहा, "कल सुनाऊँगा, छी रोते नहीं हैं। तुमि एकन बाई (बाड़ी) जाओ। बाबा मा'बे।" तुम अब घर जाओ। पिताजी पिटाई करेंगे।)

बिल्वन ने हँसते हुए कहा, "मधुर गलाधॉक्का।" (अर्थात मीठी- मीठी बातें करते हुए गर्दन पकड़ कर बाहर धकेल देना।)

पुरोहित ठाकुर राजा से विदा लेकर रास्ते में निकल आया।

रास्ते में दो पथिक जा रहे थे। एक दूसरे से कह रहा था, "तीन दिन से उसके दरवाजे पर सिर फोड़ रहा हूँ, एक पैसा नहीं निकलवा पाया - अब वह रास्ते में निकला, तो उसका सिर फोड़ दूँगा, देखता हूँ, उससे क्या होता है!"

बिल्वन ने पीछे से कहा, "उसका भी कोई फल नहीं निकलेगा। भैया, देख ही तो रहे हो, खोपड़ी में बुद्धि जरा-सी भी नहीं, केवल दुर्बुद्धि है। बल्कि अपना सिर फोड़ना ज्यादा अच्छा है, किसी को जवाब नहीं देना पड़ता।"

दोनों पथिकों ने भौचक्के होकर हड़बड़ाते हुए ठाकुर को प्रणाम किया। बिल्वन ने कहा, "भैया, तुम लोग जो कह रहे थे, वह सब अच्छी बात नहीं है।"

दोनों पथिक बोले, "ठाकुर जैसी आज्ञा, ऐसी बात और नहीं कहेंगे।"

पुरोहित ठाकुर को रास्ते में बालकों ने घेर लिया। उसने कहा, "आज शाम को मेरे यहाँ आना, मैं कहानी सुनाऊँगा।" बालकों ने आनंद में धमाचौकड़ी और शोरगुल मचा दिया। बिल्वन ठाकुर कभी-कभी अपराह्न में राज्य के बालकों को इकट्ठा करके सहज भाषा में रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाएँ सुनाता था। बीच-बीच में एक-दो नीरस कथाएँ भी यथा-साध्य सरस बना कर सुनाने की कोशिश करता था। लेकिन जब देखता था कि बालकों की जमुहाई संक्रामक हो उठी है, तो उन्हें मंदिर के बगीचे में छोड़ देता था। वहाँ फलों के असंख्य पेड़ हैं। सारे बालक आकाशभेदी शोर मचाते हुए बानरों की भाँति डाल-डाल पर लूटपाट मचा देते थे - बिल्वन इस आमोद को देखता था।

बिल्वन कौन-से देश का है, कोई नहीं जानता। ब्राह्मण है, लेकिन जनेऊ त्याग दिया है। बलि आदि बंद करके एक प्रकार के नवीन अनुष्ठान से देवी-पूजा करता है - लोगों ने पहले-पहले उसमें संदेह और आपत्ति प्रकट की थी, किन्तु अब सब सहनीय हो गया है। विशेषकर सभी बिल्वन की बातों के वशीभूत हो गए हैं। बिल्वन सभी के घर-घर जाकर सभी के साथ बातचीत करता है, सभी के कुशल-समाचार लेता है, और रोगी को जो दवा देता है, वह आश्चर्यजनक रूप से लग जाती है। आपद-बिपद में सभी उसके परामर्शानुसार काम करते हैं। वह बीच में पड़ कर किसी का झगड़ा सुलझा देता है अथवा किसी बात का समाधान कर देता है, तो उसके ऊपर कोई कुछ बात नहीं बोलता।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : तीसवाँ परिच्छेद परिच्छेद

इस साल त्रिपुरा में एक अभूतपूर्व घटना घटी। सहसा उत्तर से झुण्ड के झुण्ड चूहे त्रिपुरा के खेतों में आ पहुँचे। सारी फसल बर्बाद कर डाली, यहाँ तक कि किसानों के घरों में जितना कुछ अनाज इकट्ठा था, वह भी अधिकतर खा डाला - राज्य में हाहाकार मच गया। देखते-ही-देखते अकाल पड़ गया। लोग जंगल से कंदमूल इकट्ठे करके जान बचाने लगे। जंगलों की कमी नहीं और जंगल में मिट्टी से उत्पन होने वाली तरह-तरह की खाने योग्य चीजें भी हैं। शिकार से मिलने वाला मांस बाजार में ऊँचे दामों पर बिकने लगा। लोग जंगली भैंसे, हिरन, खरगोश, साही, गिलहरी, सूअर, बड़े-बड़े स्थल-कछुओं का शिकार करके खाने। हाथी मिलने पर हाथी भी खा जाते - अजगर साँप खाने लगे - जंगल में खाने योग्य पक्षियों का अभाव नहीं - पेड़ों के कोटरों में मधुमक्खियाँ और शहद मिल जाता है - जगह-जगह नदी के पानी पर बन्दा लगा कर उसमें नशीली लताएँ डाल देने से मछलियाँ अवश होकर ऊपर बहने लगती हैं, लोग उन सब मछलियों को पकड़ कर खाने लगे और सुखा कर इकट्ठा करने लगे। अभी भी किसी तरह भोजन तो चल रहा था, किन्तु बहुत अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। जगह-जगह चोरी-डकैती शुरू हो गई, प्रजा-जनों में विद्रोह के लक्षण दिखाई देने लगे।

वे कहने लगे, "माँ की बलि बंद कर देने से माँ के अभिशाप के कारण ये सब दुर्घटनाएँ घटनी आरम्भ हो गई हैं।" बिल्वन ठाकुर ने उस बात को हँसी में उड़ा दिया। उसने उपहास के व्याज से कहा, "कैलास पर कार्तिक और गणेश के बीच भाईचारा टूट गया है, इसी कारण गणेश के चूहे कार्तिक के मयूर के विरुद्ध शिकायत करने के लिए त्रिपुरा की त्रिपुरेश्वरी के पास आए हैं।" प्रजा-जनों ने इस बात को कोरे उपहास के रूप में ग्रहण नहीं किया। उन्होंने देखा, बिल्वन ठाकुर की बात के अनुसार चूहों का रेला जिस तेजी से आया था, उसी तेजी से समस्त फसल नष्ट करके पता नहीं कहाँ अंतर्ध्यान भी हो गया - तीन दिन के भीतर उनका निशान तक नहीं बचा। किसी को भी बिल्वन ठाकुर के अगाध ज्ञान के बारे में संदेह नहीं रहा। कैलास पर भाईचारा भंग होने के सम्बन्ध में गीत रचे जाने लगे, युवक-युवतियाँ भिक्षुक उन गीतों को गाने लगे, गली-घाट पर वे गीत प्रचलित हो गए।

लेकिन राजा के प्रति विद्वेष का भाव अच्छी तरह नहीं मिट पाया। बिल्वन ठाकुर की सलाह पर गोविन्दमाणिक्य ने दुर्भिक्ष-ग्रस्त किसानों का एक बरस का लगान माफ कर दिया। उसका कुछ फल हुआ। लेकिन फिर भी अनेक लोग माँ के अभिशाप से बचने के लिए चट्टग्राम के पार्वत्य प्रदेश में पलायन कर गए। यहाँ तक कि राजा के मन में भी संदेह पैदा होने लगा।

उन्होंने बिल्वन को बुला कर कहा, "ठाकुर, राजा के पापों से ही प्रजा कष्ट भोगती है। क्या मैंने माँ की बलि बंद करके पाप किया है? यह क्या उसी का दण्ड है?"

बिल्वन ने सारी बात एकदम से उड़ा दी। बोला, "जब माँ के सामने हजारों नरबलियाँ होती थीं, तब आपकी प्रजा का अधिक नुकसान होता रहा है अथवा इस दुर्भिक्ष में अधिक हुआ है?"

राजा निरुत्तर हो रहे, किन्तु उनके मन से संशय पूरी तरह दूर नहीं हुआ। प्रजा उनसे असंतुष्ट हो गई है, उन पर संदेह प्रकट कर रही है, इससे उनके हृदय को आघात पहुँचा, उनमें अपने प्रति भी संदेह उत्पन्न हो गया। वे निश्वास छोड़ते हुए बोले, "कुछ भी नहीं समझ पा रहा हूँ।"

बिल्वन ने कहा, "अधिक समझने की आवश्यकता क्या है! इतने सारे चूहे आकर फसल क्यों खा गए, यह समझ में नहीं आया । किन्तु मैं अन्याय नहीं करूँगा, मैं सभी का हित करूँगा, इतना-सा ही साफ-साफ समझना काफी है। उसके बाद विधाता का काम विधाता करेंगे, वे हम लोगों को हिसाब देने नहीं आएँगे।"

राजा ने कहा, "ठाकुर, तुम घर-घर जाकर अविश्राम कार्य कर रहे हो, संसार का जितना-सा हित कर रहे हो, उतना ही वह तुम्हारा पुरस्कार होता जा रहा है, इस आनंद में तुम्हारा सम्पूर्ण संशय मिट जाता है। मैं दिन-रात केवल एक मुकुट सिर पर बाँध कर सिंहासन पर चढ़ कर बैठा रहता हूँ, केवल थोड़ी-सी चिंताएँ गले में लटकाए हुए हूँ - तुम्हारा कार्य देख कर मुझे लोभ होता है।"

बिल्वन ने कहा, "महाराज, मैं आपका ही तो एक अंश हूँ। आप इस सिंहासन पर न बैठे होते, तो क्या मैं कार्य कर पाता! आप और मैं मिल कर ही हम दोनों सम्पूर्ण हुए हैं।"

यह कह कर बिल्वन ने विदा ली, राजा सिर पर मुकुट बाँध कर सोचने लगे। मन-ही-मन बोले, 'मेरा बहुत काम पड़ा हुआ है, मैं उसमें से कुछ भी नहीं करता। मैं केवल अपनी चिन्ता में निश्चिन्त बना हुआ हूँ। उसी कारण मैं प्रजा-जनों का विश्वास अर्जित नहीं कर पाता। मैं राज्य-शासन के योग्य नहीं हूँ।'

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : इकतीसवाँ परिच्छेद

नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का स्वामी बना रास्ते में तेंतुले नाम के एक छोटे-से गाँव में विश्राम कर रहा था। प्रात:काल रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, यात्रा पर निकलना है, तैयार हो जाइए।"

रघुपति के मुँह से सहसा महाराज शब्द अत्यंत मधुर सुनाई पड़ा। नक्षत्रराय उल्लसित हो उठा। वह कल्पना में संसार के सभी लोगों के मुँह से महाराज संबोधन सुनने लगा। मन-ही-मन त्रिपुरा के उच्च सिंहासन पर चढ़ कर सभा को शोभायमान करते हुए बैठ गया। मन के आनंद में बोला, "ठाकुर, आपको कभी भी छोड़ा नहीं जाएगा। आपको राजा-सभा में रहना होगा। आप क्या चाहते हैं, वही मुझसे कहिए।"

नक्षत्रराय ने उसी समय अनायास मन-ही-मन एक विशाल जागीर रघुपति को दान कर दी।

रघुपति ने कहा, "मुझे कुछ नहीं चाहिए।"

नक्षत्रराय ने कहा, "यह क्या बात हुई? ठाकुर, वह नहीं होगा। कुछ लेना ही पड़ेगा। कयलासर परगना मैंने आपको दिया - आप लिखा-पढ़ी करवा लीजिए।"

रघुपति ने कहा, "वह सब बाद में देखा जाएगा।"

रघुपति ने कहा, "बाद में क्यों, मैं अभी दूँगा। सम्पूर्ण कयलासर परगना आपका हुआ; मैं एक पैसा लगान नहीं लूँगा।"

कहते हुए नक्षत्रराय सिर उठा कर एकदम सीधा होकर बैठ गया।

रघुपति ने कहा, "मरने पर तीन हाथ जमीन मिल जाए, तो ही खुश हो जाऊँगा। मैं और कुछ नहीं चाहता।" कह कर रघुपति चला गया। उसे जयसिंह की याद आई। अगर जयसिंह रहता, तो पुरस्कार के रूप में कुछ लेता - जब जयसिंह ही नहीं रहा, तो सम्पूर्ण त्रिपुरा राज्य मिट्टी के ढेर के अतिरिक्त कुछ और प्रतीत नहीं हुआ।

रघुपति इन दिनों नक्षत्रराय को राज्याभिमान में मत्त बनाने की चेष्टा कर रहा है। सके मन में डर है कि कहीं इतनी तैयारी करके भी सब कुछ व्यर्थ न चला जाए, कहीं दुर्बल-स्वभाव नक्षत्रराय त्रिपुरा पहुँच कर युद्ध किए बिना ही राजा का बंदी न बन जाए! लेकिन दुर्बल हृदय में एक बार राज-मद उत्पन्न हो जाए, तो और सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ती। रघुपति नक्षत्रराय के प्रति और अवज्ञा नहीं दिखाता, उसके प्रति बात-बात में सम्मान प्रदर्शित करता रहता है। हर विषय में उसका मौखिक आदेश लेता है। उसे मुगल सैनिक महाराजा साहब संबोधित करते हैं, उसे देखते ही हड़बड़ा उठते हैं - जिस प्रकार हवा चलने पर सारी फसल झुक जाती है, उसी प्रकार नक्षत्रराय के आकर खड़ा होते ही कतारबद्ध मुगल सैनिक एक साथ सिर झुका कर सलाम करते हैं। सेनापति उसे शीघ्रतापूर्वक सम्मान के साथ अभिवादन करता है। वह सैकड़ों-सैकड़ों खुली तलवारों की चमक के बीच विशालकाय हाथी की पीठ पर रखे स्वर्ण मण्डित, राजचिह्न अंकित हौदे पर चढ़ कर यात्रा करता है, उल्लासजनक बाजा साथ-साथ बजता रहता है - पताकाधारी साथ-साथ राज-पताका लिए चलते हैं। वह जहाँ से होकर गुजरता है, वहाँ के ग्रामवासी सैनिकों के भय से घरबार छोड़ कर भाग जाते हैं। उनका भय देख कर नक्षत्रराय के मन में गर्व उत्पन्न होता है। उसे लगता है, 'मैं दिग्विजय करते हुए चल रहा हूँ।' छोटे-छोटे जमींदार तरह-तरह के उपहार भेंट करके उसे सलाम कर जाते हैं - वे परिजित राजाओं जैसे प्रतीत होते हैं; महाभारत के दिग्विजयी पाण्डवों की बात याद आती है।

एक दिन सैनिक आकर सलाम करके बोले, "महाराजा साहब!"

नक्षत्रराय सीधा होकर बैठ गया।

"हम लोग महाराज के लिए जान देने आए हैं - हम प्राणों की परवाह नहीं करते। हमारा हमेशा का दस्तूर है, युद्ध में जाने के मार्ग में हम गाँव लूटते हुए जाते हैं - इसे किसी शास्त्र में दोष नहीं बताया गया है।"

नक्षत्रराय ने गर्दन हिला कर कहा, "ठीक बात है, ठीक बात है।"

सैनिक बोले, "ब्राह्मण-ठाकुर ने हमें लूट करने से मना कर दिया है। हम जान देने जा रहे हैं, किन्तु जरा-सी लूट भी नहीं कर पाएँगे, यह बड़ा अन्याय है।"

नक्षत्रराय ने फिर से गर्दन हिला कर कहा, "ठीक बात है, ठीक बात है।"

"अगर महाराज का हुकुम मिले, तो हम लोग ब्राह्मण-ठाकुर की बात न मान कर लूट करने जाएँ!"

नक्षत्रराय ने बड़े दर्प के साथ कहा, "ब्राह्मण-ठाकुर कौन है! ब्राह्मण-ठाकुर क्या जानता है! मैं तुम लोगों को हुकुम देता हूँ, तुम लूटपाट करने जाओ।"

कह कर एक बार इधर-उधर ताक कर देखा, कहीं भी रघुपति को न देख कर निश्चिन्त हुआ।

लेकिन इस प्रकार निश्शंक भाव से रघुपति की उपेक्षा करके वह मन-ही-मन अत्यधिक आनंदित हुआ। उसकी शिरा-शिरा में शक्ति-मद मदिरा के समान बहने लगा। संसार को नवीन दृष्टि से देखने लगा। कल्पना के बैलून पर चढ़ कर जैसे पृथिवी बहुत नीचे उड़ने वाले मेघों के समान अदृश्य हो गई। यहाँ तक कि बीच-बीच में कभी-कभी उसे रघुपति भी नगण्य लगने लगा। सहसा ताकत के साथ गोविन्दमाणिक्य पर अत्यधिक क्रोधित हो उठा। बार-बार मन-ही-मन कहने लगा, 'मेरा निर्वासन! एक साधारण प्रजा-जन के समान मुझे न्याय-सभा में बुलाना! अब देखता हूँ, कौन किसे निर्वासित करता है! इस बार त्रिपुरावासी नक्षत्रराय का प्रताप देखेंगे।'

नक्षत्रराय खुशी और घमण्ड से फूल गया।

निरीह ग्रामवासियों के अनर्थक उत्पीड़न और लूटपाट से रघुपति अत्यंत असंतुष्ट था। उसने रोकने की बहुत कोशिशें कीं। किन्तु सैनिकों ने नक्षत्रराय की आज्ञा पाकर उसकी अवहेलना कर दी। वह नक्षत्रराय के पास आकर बोला, "असहाय ग्रामवासियों पर यह अत्याचार क्यों!"

नक्षत्रराय ने कहा, "ठाकुर, ये सब विषय आप अच्छी तरह नहीं समझते। युद्ध-काल में सैनिकों को लूटपाट का निषेध करके निरुत्साहित करना अच्छा नहीं है।"

रघुपति नक्षत्रराय की बात सुन कर थोड़ा अचंभित हुआ। सहसा नक्षत्रराय का श्रेष्ठताभिमान देख कर वह मन-ही-मन हँसा। बोला, "अभी लूटपाट करने देकर बाद में इन्हें सँभाल पाना कठिन होगा। समस्त त्रिपुरा लूट लेंगे।"

नक्षत्रराय ने कहा, "उसमें हानि क्या है? मैं तो वही चाहता हूँ। त्रिपुरा एक बार समझे, नक्षत्रराय को निर्वासित करने का क्या फल होता है! ठाकुर, ये सारी बातें आप बिल्कुल नहीं समझते - आपने तो कभी युद्ध किया नहीं।"

रघुपति ने मन-ही-मन बड़ा आनंद अनुभव किया। लेकिन उत्तर दिए बिना ही चला गया। नक्षत्रराय नितांत पुतली जैसा न होकर थोड़ा कठोर मनुष्य के समान बन जाए, यही उसकी इच्छा थी।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : बत्तीसवाँ परिच्छेद

जब त्रिपुरा में चूहों का उत्पात शुरू हुआ था, तब श्रावण माह था। उस समय खेतों में केवल भुट्टे फल रहे थे और पहाड़ी खेतों में धान में दाने आने प्रारम्भ हुए थे। किसी तरह तीन महीने कट गए - अगहन के महीने में जब निचले खेतों में धान काटने का समय आया, तो देश में आनंद मच गया। किसान (रवींद्रनाथ टैगोर की टिप्पणी : वास्तव में इन लोगों को किसान नहीं कहा जा सकता। कारण, ये विधान के अनुसार खेती नहीं करते। जंगल जला कर बरसात के प्रारम्भ में केवल बीज डाल देते हैं। इस प्रकार के खेत को जूम कहा जाता है, खेती करने वालों को जूमिया बोला जाता है।) स्त्रियाँ, बालक, युवक वृद्ध, सभी मिल कर हाथों में हँसिया लिए खेतों में जा पहुँचे। हैया हैया की ध्वनि के साथ एक-दूसरे को उत्साहित करने लगे। जूमिया रमणियों के गीतों से खेत-खलिहान गूँज उठे। राजा के प्रति असंतोष दूर हो गया - राज्य में शान्ति छा गई। ऐसे समय समाचार आया, नक्षत्रराय राज्य पर आक्रमण करने के उद्देश्य से भारी संख्या में सैनिक लेकर त्रिपुरा राज्य की सीमा पर आ पहुँचा है और बहुत लूटपाट तथा उत्पीड़न आरम्भ कर दिया है - इस समाचार से सम्पूर्ण राज्य भयभीत हो उठा।

इस समाचार ने राजा के हृदय को छुरी के समान बींध डाला। पूरे ही दिन बींधता रहा। उन्हें रह-रह कर हर बार नए रूप में अनुभव होने लगा, नक्षत्रराय उन पर आक्रमण करने आ रहा है। नक्षत्रराय का सरल सुन्दर चेहरा सैकड़ों-सैकड़ों बार उनकी स्नेहभरी आँखों के सम्मुख दिखाई पडने लगा और उसी के साथ महसूस होने लगा, वही नक्षत्रराय कितने सारे सैनिक इकट्ठे करके तलवार हाथ में लिए उन पर आक्रमण करने आ रहा है। एक-एक बार उनके मन में इच्छा होने लगी, एक भी सैनिक लिए बिना विशाल रण-क्षेत्र में नक्षत्रराय के सामने अकेले खड़े होकर पूरी छाती खोल कर नक्षत्रराय के हजारों सैनिकों की तलवारें एक ही साथ अपनी छाती में भुँकवा लें।

वे ध्रुव को निकट खींच कर बोले, "ध्रुव, क्या तू भी इस मुकुट के लिए मेरे साथ झगड़ा कर सकता है?" कहते हुए मुकुट जमीन पर फेंक दिया, एक बड़ा मोती टूट कर बिखर गया।

ध्रुव ने उत्सुकता के साथ हाथ बढ़ा कर कहा, "मैं लूँगा।"

राजा ने ध्रुव के सिर पर मुकुट रख कर उसे गोद में लेकर कहा, "यह ले - मैं किसी के साथ झगड़ा करना नहीं चाहता।" कहते हुए बहुत आवेग में ध्रुव को छाती में भींच लिया।

उसके बाद राजा पूरे दिन 'यह केवल मेरे ही पाप का दण्ड है' कह कर अपने साथ तर्क-वितर्क करते रहे। अन्यथा भाई कभी भाई पर आक्रमण नहीं करता। यह सोच कर उन्हें थोड़ी-सी सांत्वना प्राप्त हुई। उन्होंने सोचा, यही ईश्वर का विधान है। जगतपति के दरबार से आदेश आया है, नक्षत्रराय केवल अपने मानव-हृदय के उत्साह में उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। यह सोच कर उनके आहत स्नेह को किंचित शान्ति मिली। पाप वे अपने कन्धों पर लेने को तैयार हैं - मानो उससे नक्षत्रराय के पाप का भार कुछ कम हो जाएगा।

बिल्वन ने आकर कहा, "महाराज, यह क्या आकाश की ओर ताकते हुए सोचते रहने का है?"

राजा ने कहा, "ठाकुर, यह सब मेरे ही पाप का फल है।"

बिल्वन थोड़ा नाराज होकर बोला, "महाराज, यह सब बात सुन कर मेरा धैर्य चुक जाता है। किसने कहा, दुःख पाप का ही फल होता है, पुण्य का फल भी तो हो सकता है। कितने ही धर्मात्मा पूरा जीवन दुःख में बिता कर गए हैं।"

राजा निरुत्तर हो रहे।

बिल्वन ने पूछा, "महाराज ने कौन-सा पाप किया था, जिसके फलस्वरूप यह घटना घटी?"

राजा ने कहा, "अपने भाई को निर्वासित किया था।"

बिल्वन ने कहा, "आपने भाई को निर्वासित नहीं किया है। दोषी को निर्वासित किया है।"

राजा ने कहा, "दोषी होते हुए भी भाई के निर्वासन का पाप तो है ही। उसके परिणाम से तो बचा नहीं जा सकता। कौरव दुराचारी होते हुए भी पाण्डव उनका वध करके प्रसन्न चित्त राज-सुख भोग नहीं कर सके। यज्ञ करके प्रायश्चित किया। पाण्डवों ने कौरवों से राज्य ले लिया, कौरवों ने मर कर पाण्डवों का राज्य हरण कर लिया। मैंने नक्षत्र को निर्वासित किया, नक्षत्र मुझे निर्वासित करने आ रहा है।"

बिल्वन ने कहा, "पाण्डवों ने पाप का दण्ड देने के लिए कौरवों के साथ युद्ध नहीं किया, उन्होंने राज्य-प्राप्ति के लिए युद्ध किया था। किन्तु महाराज ने पाप का दण्ड देकर अपने सुख-दुःख की उपेक्षा करके धर्म का पालन किया था। मुझे तो इसमें कोई पाप दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसके बावजूद प्रायश्चित का विधान देने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं ब्राह्मण उपस्थित हूँ, मुझे संतुष्ट कर देने भर से प्रायश्चित हो जाएगा।"

राजा थोड़ा हँस कर चुप हो गए।

बिल्वन ने कहा, "जो हो, अब युद्ध की तैयारी कीजिए। और विलम्ब मत कीजिए।"

राजा ने कहा, "मैं युद्ध नहीं करूँगा।"

बिल्वन ने कहा, "वह हो ही नहीं सकता। आप बैठे-बैठे सोचिए। मैं तब तक सैनिक इकट्ठे करने की कोशिश करता हूँ। इस समय सभी जूम में गए हैं, पर्याप्त सैनिक मिलना कठिन है।"

इतना कह कर बिल्वन और किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चला गया।

पता नहीं, अचानक ध्रुव के मन में क्या आया; उसने राजा के निकट आकर उनके मुँह की ओर ताकते हुए पूछा, "चाचा कहाँ है?"

ध्रुव नक्षत्र को चाचा कहता था।

राजा ने कहा, "चाचा आ रहा है, ध्रुव।"

उनकी पलकें थोड़ी गीली हो आईं।

राजर्षि (उपन्यास) : तीसरा भाग : तैंतीसवाँ परिच्छेद

बिल्वन ठाकुर ढेरों कामों में डूब गया। उसने चट्टग्राम के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के उपहारों के साथ द्रुतगामी दूत भेज दिए। वहाँ के कुकी ग्राम-मुखियाओं से कुकी सैनिकों के रूप में सहायता की प्रार्थना की। वे लोग युद्ध का नाम सुनते ही नाच उठे। कुकियों के जितने लाल (ग्रामपति) थे, उन्होंने युद्ध के समाचारस्वरूप लाल कपड़े में बँधे दाव दूतों के हाथों गाँव-गाँव भेज दिए। देखते ही देखते कुकियों का रेला चट्टग्राम की पहाड़ी चोटियों से त्रिपुरा की पर्वत-चोटियों में आ पहुँचा। उन्हें किसी नियम में नियंत्रित करके रखना कठिन होता है। बिल्वन स्वयं त्रिपुरा के गाँव-गाँव जाकर जूम से चुन-चुन कर साहसी युवा पुरुषों को सैनिकों के दल में इकट्ठा करके ले आया। बिल्वन ठाकुर ने आगे बढ़ कर मुगल सैनिकों पर आक्रमण करना उचित नहीं समझा। जब वे समतल भूमि को पार करके अपेक्षाकृत दुर्गम पहाड़ी चोटियों में आ पहुँचेंगे, तब जंगल, पहाड़ और नाना दुर्गम गुप्त मार्गों से सहसा आक्रमण करके उन लोगों को त्रस्त करने का निश्चय किया। बड़े-बड़े शिला-खण्डों से गोमती के जल पर बाँध लगा दिया गया - नितांत पराजय की आशंका देखने पर उसी बाँध को तोड़ कर बाढ़ में मुगल सैनिकों को बहाया जा सकेगा।

इधर नक्षत्रराय देश में लूट मचाते-मचाते त्रिपुरा के पहाड़ी-क्षेत्र में आ पहुँचा। उस समय जूम-कटाई समाप्त हो गई थी। सभी जूमिया हाथों में धनुष-बाण और दाव लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गए। उच्छ्वासोन्मुख जल-प्रपात के समान कुकी-दल को और बाँध कर नहीं रखा जा सकता था।

गोविन्दमाणिक्य बोले, "मैं युद्ध नहीं करूँगा।"

बिल्वन ठाकुर ने कहा, "यह कोई काम की बात ही नहीं है।"

राजा ने कहा, "मैं शासन करने योग्य नहीं हूँ; सारे उसी के लक्षण प्रकट हो रहे हैं। उसी कारण मुझमें प्रजा का विश्वास नहीं है, उसी की वजह से दुर्भिक्ष की सूचना, उसी के चलते यह युद्ध। यह सब राज्य के परित्याग के लिए भगवान का आदेश है।"

बिल्वन ने कहा, "यह कभी भी भगवान का आदेश नहीं है। ईश्वर ने आप पर राज्य-भार अर्पित किया है; जितने दिन राज-कार्य नि:संकट था, उतने दिन अपना सहज कर्तव्य अनायास पालन किया, जैसे ही राज्य-भार गुरुतर हो उठा, वैसे ही आप उसे दूर फेंक कर स्वाधीन होना चाहते हैं और ईश्वर का आदेश बता कर अपने को धोखा देकर सुखी बनाना चाहते हैं।"

बात गोविन्दमाणिक्य के मन में लग गई। वे थोड़ी देर निरुत्तर बैठे रहे। अंतत: नितांत कातर होकर बोले, "बुरा मत मानना ठाकुर, मेरी पराजय हो गई है, नक्षत्र मेरा वध करके राजा बन गया है।"

बिल्वन ने कहा, "यदि वास्तव में वैसा ही घटे, तो मैं महाराज के लिए शोक नहीं करूँगा। किन्तु यदि महाराज कर्तव्य को छोड़ कर पलायन करेंगे, तो हम लोगों के लिए शोक का कारण होगा।"

राजा ने थोड़ा अधीर होकर कहा, "अपने ही भाई का खून बहाऊँ!"

बिल्वन ने कहा, "कर्तव्य के सामने भाई, बंधु कोई नहीं होता। कुरुक्षेत्र में युद्ध के अवसर पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्या उपदेश दिया था, स्मरण करके देखिए।"

राजा ने कहा, "ठाकुर, क्या तुम कह रहे हो, मैं अपने हाथ में तलवार लेकर नक्षत्रराय पर वार करूँ!"

बिल्वन ने कहा, "हाँ।"

सहसा ध्रुव आकर गंभीर मुद्रा में बोला, "छी वैसी बात नहीं बोलते।"

ध्रुव खेल रहा था, दोनों पक्षों में कुछ कहा-सुनी सुन कर अचानक उसके मन में आया कि अवश्य ही दोनों लोग कोई दुष्टता कर रहे हैं, अतएव समय रहते दोनों को थोड़ा-सा डाँट-फटकार आना आवश्यक है। यही सब विचार करके वह हठात आकर गर्दन हिलाते हुए बोला, "छी वैसी बात नहीं बोलते।"

पुरोहित ठाकुर को बड़ा आनंद अनुभव हुआ। वह हँस पड़ा, ध्रुव को गोदी में उठा कर चूमने लगा। लेकिन राजा नहीं हँसे। उन्हें लगा, मानो बालक के मुँह से उन्होंने दैव-वाणी सुनी है।

वे असंदिग्ध स्वर में बोल पड़े, "ठाकुर, मैंने निश्चय किया है, मैं यह रक्तपात नहीं होने दूँगा, मैं युद्ध नहीं करूँगा।"

बिल्वन ठाकुर थोड़ी देर चुप रहा। अंत में बोला, "यदि महाराज को युद्ध करने में ही आपत्ति है, तो और एक काम कीजिए। आप नक्षत्रराय से भेंट करके उन्हें युद्ध करने से रोकिए।"

गोविन्दमाणिक्य ने कहा, "इसके लिए मैं सहमत हूँ।"

बिल्वन ने कहा, "तब उसी प्रकार का प्रस्ताव लिख कर नक्षत्रराय के पास भेजा जाए।"

अंतत: वही तय हुआ।



राजर्षि (उपन्यास) : चौथा भाग

राजर्षि (उपन्यास) : दूसरा भाग

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