राजा साहब को ठेंगा दिखाया (कहानी) : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
Raja Sahib Ko Thenga Dikhaya (Hindi Story) : Suryakant Tripathi Nirala
लोग कहते हैं, ऐसा लिखा जाय कि एक मतलब हो, उसी वक़्त समझ में आ जाय, अनपढ़ लोग भी समझें। बात बहुत सीधी है। मुझे एक उदाहरण याद आया। लिखता हूँ। यह लिखा हुआ, उद्धृत नहीं, देखा हुआ है। तब तक आप लोग ठेंगा दिखाने का मुहावरा याद रक्खें।
बंगाल और उड़ीसा को जोड़नेवाली एक नहर है। रूपनारायण (नद) से काटकर कटक तक निकाली गई है। यह केवल आबपाशी के लिये नहीं, इससे व्यवसाय भी होता है, बड़ी-बड़ी नावें चलती हैं।
इसके किनारे पद्मदल राजधानी है। राजा साहब के छोटे-छोटे स्टीमर, बोट, लांच, बजरे, किश्ती, डोंगी आदि राजधानी के पास चौड़ी की हुई नहर के एक तरफ़ बँधी रहती हैं।
जेठ का महीना, सूरज डूब रहे हैं। ज़ोरों से बहती हुई मलय-वायु में षोड़शी का स्पर्श मिलता है। यह अकेली दक्षिणी हवा बंगाल की आधी कविता है। प्रासाद-शिखरों से सुनहली किरणें लिपटी हैं, उन्हीं के प्रेम की साँस जैसे दक्षिणी हवा में बह रही है। बड़े-बड़े तालाबों में श्वेत और रक्त कमल, खुले हुए अनुभव-जैसे, लोट रहे हैं। स्वच्छ, क़ीमती, चौड़ी किनारीवाली, बारीक, ठोस-बुनी, बँगला-ढंग से कोंछीदार शान्ति-पुरी धोती, रेशमी शर्ट और सुनहरे स्लीपर पहने चश्मा लगाए राजा साहब नाव की सैर के लिये चले। रास्ते में तीन ड्योढ़ियाँ पड़ती हैं, हौदा-कसे हाथियों के निकलते आधी और ऊँची; रास्ते के दोनों तरफ़ बड़े-बड़े तालाब; साफ़-सुथरे दूब जमाए पार्क; दोनों बग़ल बटम-पाम की क़तारें; दूर के देशी बग़ीचों से बेला, जूही और कमलों की ख़ुशबू आती हुई। पहली ड्योढ़ी में बैठे हुए राजा साहब के मुसाहब उनके आने पर क़तार बाँधकर भक्ति-पूर्वक प्रणाम करके उद्दंड प्रसन्नता से साथ हो गए। अर्दली, सिपाही, ख़ानसामे प्रासाद से साथ आए थे। पहली, दूसरी और तीसरी ड्योढ़ी के सिपाही क्रमशः किर्च निकाल-निकालकर, राजा साहब को बाएँ रखकर दाहिने हाथ से सलामी देते गए। तीसरी ड्योढ़ी प्रासाद के अहाते को घेरनेवाली जलाशया चौड़ी खाई के किनारे है—खाई के ऊपर से पुल है।
राजा साहब बाहर निकलकर नहर-घाट की तरफ़ चले। स्टीमर, लांच, मोटर-बोट और देशी किश्तीवाले मुसलमान नौकर कप्तान और माझियों ने भी उसी प्रकार क़तार बाँधकर सलाम किया। राजा साहब खुली छतवाली एक अँगरेज़ी कट की देशी किश्ती पर पतवार पकड़कर बैठ गए। पीछे-पीछे मनोरंजन के लिये पले पहलवान-जैसे मुसाहब आकर एक-एक तख्ते पर डाँड सँभालकर बैठे। माझी खड़े रहे। सिपाही और अर्दली नहर के किनारे-किनारे बोट के साथ दौड़ लगाकर रहने के लिये लाँग समेटने लगे। किश्ती चली, किनारे-किनारे सिपाही दौड़े।
डेढ़ मील के फ़ासले पर शक्तिपुर नाम का एक बाग़ी गाँव है। वहाँ विश्वम्भर भट्टाचार्य नाम का एक ब्राह्मण रहता है। राजा साहब कई रोज़ से किश्ती पर हवाख़ोरी करते हैं, देखकर, सोच-विचारकर, लाँग चढ़ाकर, अपने गाँव के पास नहर के बाँध पर खड़ा विश्वम्भर राजा साहब की प्रतीक्षा कर रहा है।
सिपाही लोग दौड़कर कुछ ही दूर तक साथ रहते हैं, आठ-आठ, दस-दस पट्ठों की डाँड़मारी किश्ती तीर-सी चलती है, तीन-चार फ़र्लांग के बाद सिपाहियों का दम खुल जाता है, किश्ती आगे निकल जाती, वे पीछे-पीछे लट्ठ लिए दुलकी दौड़ते आते हैं।
जब शक्तिपुर के पास किश्ती पहुँची, तब सिपाही तीन-चार फ़र्लांग पीछे थे। विश्वम्भर राजा साहब की ताक में खड़ा हो था; जब किश्ती आती हुई सौ गज़ के फ़ासले पर रह गई, तब उसने एक अद्भुत प्रकार की ध्वनि की, जिससे राजा साहब का ध्यान आकर्षित हो। राजा साहब को अपनी तरफ़ देखते हुए देखकर उसने हवा में उँगली से लिखकर राजा साहब की ओर कोंचा, फिर पेट खलाकर दोनों हाथों मरोड़ा, फिर दाहने हाथ से मुँह थपथपाया, फिर दोनों हाथों के ठेंगे हिलाकर राजा साहब को दिखाया।
राजा साहब देख रहे थे। डाँड धीमे कर देने को कहा। फिरकर देखा सिपाही दूर थे। किश्ती धीरे-धीरे चलती गई। विश्वम्भर पीछे-पीछे दोनों हाथों पेट दिखाता, ठेंगे हिलाता दौड़ा। राजा साहब जब सिपाहियों को फिरकर देखते थे, तब पहले विश्वम्भर ठेंगे हिलाता हुआ देख पड़ता था। बाँध पर और लोग भी आ-जा रहे थे। कुछ भले आदमी हवाख़ोरी को निकले हुए मुस्करा रहे थे। किश्ती की चाल धीमी देखकर सिपाहियों ने जल्दी की। नज़दीक आ एक अजाने को बेअदबी करते देखकर राजा साहब की तरफ़ देखा। राजा साहब ने इशारे से सिर हिलाया। सिपाही विश्वम्भर को पकड़कर प्रहार करने लगे। किश्ती लौट चली।
सिपाहियों ने आते हुए विश्वम्भर की मुद्राएँ देखी थीं, जिनका अर्थ समझने में उन्हें देर नहीं हुई। उसे मारते हुए कहने लगे—"क्यों रे. . ., हमारे महाराज रियाया की ज़बान बन्द करते हैं?—पेट से मारते हैं?—ठेंगा दिखाता है हमारे महाराज को कि कोई इतना भी नहीं समझता?"
विश्वम्भर को पीटकर, दोनों गदोरी और उँगलियाँ कुचलकर सिपाही चले गये। ख़बर विश्वम्भर के घर पहुँची। उसकी पत्नी, सत्रह साल की विधवा बेटी और दो नौ और पाँच साल के छोटे लड़के, फटे कपड़े पहने, रोते हुए बाँध पर पहुँचे। गाँव के और लोग भी गए। विश्वम्भर को सँभालकर उठा लाए। खाट पर लिटा दिया। गर्म हल्दी चूना लगाने लगे। राजा साहब के जासूस छद्म-वेश से पता लगाते रहे।
गाँव के कुछ भलेमानस गर्म पड़े। पर कुछ कर न सके। राजा साहब का प्रताप बड़ा प्रबल है। उनके विरोध में कुछ करने की अपेक्षा विश्वम्भर के समर्थन में कुछ करना अच्छा है, यह सोचकर उसीकी सेवा करने लगे।
विश्वम्भर बड़ा सीधा, सच्चा ब्राह्मण है। विशेष पढ़ा-लिखा नहीं। किसी तरह पूजा कर लेता है। शक्तिपुर से तीन कोस दूर रंगनगर में राज्य की विशालाक्षी देवी हैं। विश्वम्भर इनका पूजक है। तीन रुपया महीना और रोज़ पूजा के लिये तीन पाव चावल और चार केले पाता है। घर में पाँच आदमी खानेवाले हैं। बड़े दुःख के दिन होते हैं। इधर बीस महीने से उसे वेतन नहीं मिला। केवल तीन पाव चावल का सहारा रहा। कुछ और काम वह, उसकी पत्नी और बेटी, तीनों अलग-अलग कर लेते थे। फिर भी पेट-भर को न होता था। विश्वम्भर ने तनख़्वाह के लिये इधर साल-भर में दो दर्जन से ज़्यादा दरख़्वास्तें दी थीं, पर सुनवाई नहीं हुई। इस बार प्राणों की भाषा में उसने अपने भाव प्रकट किये थे—हवा में लिखकर,कोंचकर बताया था, तुम्हें लिख चुका हूँ; पेट मलकर कहा था,भूखों मर रहा हूँ; मुँह थपथपाकर और ठेंगे हिलाकर बतलाया था, खाने को कुछ नहीं है। उतने प्रकाश में, इतनी स्पष्ट भाषा से समझाया था, पर राजा साहब ने अपमान समझा। सिपाहियों ने दूसरे अर्थ लगाये।
जासूसों ने राजा साहब को समझाया कि शक्तिपुर के बाग़ी विश्वम्भर ने से मिले हैं, उन्होंने उसे बेवक़ूफ़ जानकर महाराज का उससे अपमान कराया। विश्वम्भर सरकार की नौकरी का ख़्याल छोड़कर बाग़ियों से मिला है। जासूसों ने इस प्रकार अपनी रोटियों का प्रबन्ध किया।
कुछ दिनों बाद, घाव पुरने पर, स्टेट की तरफ़ से विश्वम्भर को आज्ञा-पत्र मिला—"अब तुम्हारी नौकरी की सरकार को आवश्यकता नहीं रही।"