राजा (नाटक) : रवीन्द्रनाथ ठाकुर अनुवादक : स ० ही ० वात्स्यायन
Raja (Play in Hindi) : Rabindranath Tagore
१
अँधेरा कक्ष
[रानी सुदर्शना और उनकी दासी सुरंगमा ]
सुदर्शना : प्रकाश ---कहाँ है प्रकाश ? इस कक्ष में क्या कभी भी प्रकाश नहीं होगा ।
सुरंगमा : रानी माँ, आपके प्रत्येक कक्ष में तो प्रकाश रहता है— उससे बच निकल आने के लिए क्या एक भी अँधेरा कक्ष नहीं रहेगा ।
सुदर्शना : कही भी अँधेरा क्यों रहेगा ?
सुरंगमा : तब तो न प्रकाश पहचाना जा सकेगा, न अंधकार ।
सुदर्शना : जैसी तू इस अँधेरे कक्ष की दासी है वैसी ही तेरी अँधकार जैसी बातें हैं, कोई अर्थ ही समझ में नहीं आता । पर यह तो बता कि कक्ष है कहाँ ? किधर से यहाँ आती हूँ और किधर से बाहर निकलती हूँ, प्रतिदिन भूल-भुलैयाँ-सा लगता है ।
सुरंगमा : मिट्टी का आवरण भेदकर पृथ्वी के हृदय में यह कक्ष बनाया गया है । राजा ने इसे विशेष रूप से आपके लिए बनवाया है ।
सुदर्शना : उन्हे कमरों की ऐसी क्या कमी थी कि यह अँधेरा कक्ष विशेष रूप से बनवाया गया ।
सुरंगमा : प्रकाशित कमरों में तो सभी का आना-जाना रहता है— इस अंधकार में अकेले आपसे ही मिलन हो सकता है ।
सुदर्शना : नहीं-नहीं, मुझे प्रकाश चाहिए-प्रकाश के लिए मैं छटपटा रही हूँ । तू यहाँ एक दिन अपना प्रकाश ला सके तो मैं तुझे अपना कंठ-हार दूंगी ।
सुरंगमा : मेरे क्या वश है देवी । जहाँ वे ही अंधकार रखते है वहाँ मैं प्रकाश कर सकूंगी !
सुदर्शना : इतनी भक्ति है तेरी ? पर मैंने तो सुना है कि तेरे पिता को राजा ने दण्ड दिया था। यह क्या सच है ?
सुरंगमा : सच है । पिता जुआ खेलते थे । राज्य के सब युवक हमारे घर इकट्ठे होते थे, और मद पीते थे और जुआ खेलते थे ।
सुदर्शना : तू क्या करती थी ?
सुरंगमा : मैया री, तब तो आप सब सुन चुकी हैं ? मैं विनाश के पथ पर जा रही थी । पिता ने जान-बूझकर मुझे उस पथ पर डाला । मेरी मां नहीं थी ।
सुदर्शना : राजा के तेरे पिता को निर्वासित कर देने पर तुझे बुरा नहीं लगा ?
सुरंगमा : बहुत बुरा लगा था। मन हुआ था कि कोई यदि राजा को मार डाले तो बहुत अच्छा हो ।
सुदर्शना : बाप से तुझे छुड़ाकर राजा ने तुझे कहाँ लाकर रखा ।
सुरंगमा : क्या जानूँ कहाँ रखा था । किन्तु कितना कष्ट हुआ था । मानों कोई मुझे सुइयाँ चुभा रहा हो, आग में जला रहा हो ।
सुदर्शना : क्यों, तुझे किस बात का इतना कष्ट था ?
सुरंगमा : मैं विनाश के पथ पर जा रही थी वह पथ बन्द होते ही ऐसा लगा मानों मेरा कोई आसरा ही नहीं रहा । मैं पिंजरे में बन्द जंगली जानवर की तरह गरजती हुई चक्कर काटती, मन होता कि चाहे जिसको नोच लूँ, काट खाऊँ या चीथड़े करके फेंक दूँ ।
सुदर्शना : उस समय राजा को तू क्या समझती थी ।
सुरंगमा : ओ, कितने निठुर-कितने निठुर ! कैसी अविचल निष्ठुरता थी ।
सुदर्शना : फिर उन्ही राजा के प्रति तेरी इतनी भक्ति कैसी हो गई ?
सुरंगमा : क्या जानूं देवी । वह इतने अटल, इतने कठोर थे इसलिए उन पर इतना निर्भर कर सकी। इतना भरोसा कर सकी । नहीं तो मुझ-सी पतिता को कौन आसरा हो सकता ।
सुदर्शना : तेरा मन कब बदला ?
सुरंगमा : क्या जानूं कब बदल गया । सारा विद्रोह एक दिन हार मानकर धरती पर लोट गया । देखा, जितने भयानक हैं, उतने ही सुन्दर है । मैं बच गई, बच गई, जीवन भर के लिए बच गई ।
सुदर्शना : अच्छा सुरंगमा, तुझे कसम है, सच-सच बता, हमारे राजा देखने में कैसे हैं? मैंने उन्हे कभी भी आँखों से नहीं देखा । अंधकार में ही वह मेरे पास आते है और अंधकार में ही चले जाते हैं । कितने लोगों से मैंने पूछा है, कोई स्पष्ट जवाब नहीं देता – सभी कुछ छिपा रखते हैं ।
सुरंगमा : मैं सच कहती हूँ रानी, ठीक-ठीक बता नहीं सकूंगी कितने सुन्दर हैं वह । नहीं, लोग जिसको सुन्दर कहते हैं वह वैसे नहीं है ।
सुदर्शना : क्या कहती है तू । सुन्दर नहीं हैं ?
सुरंगमा : नहीं देवी, उन्हे सुन्दर कहना उन्हे छोटा करना होगा ।
सुदर्शना : तेरी सब बातें ऐसी ही होती हैं, कुछ समझ में नहीं आतीं ।
सुरंगमा : क्या करूँ देवी ? सब बातें तो समझाई नहीं जा सकती । बाप के घर छोटी उम्र में ही अनेक पुरुष देखे थे, उन्हे सुन्दर कहती । उन्होंने मेरे दिन-रात को, मेरे सुख-दुख को क्या-क्या नाच नचाए वह मैं आज तक नहीं भूल सकी । हमारे राजा क्या उनकी तरह हैं ? सुन्दर ? कभी नहीं ।
सुदर्शना : सुन्दर नहीं हैं ।
सुरंगमा : हाँ, यही कहना होगा-सुन्दर नहीं हैं । सुन्दर नहीं हैं इसलिए ऐसे अद्भुत, ऐसे अचरज-भरे हैं । जब बाप के घर से छीनकर मुझे उनके सामने ले गए थे तब वह भयानक दीखे थे । मेरा सारा मन ऐसा विमुख था कि उन्हें कानी आँख भी नहीं देखना चाहती थी । तब से अब ऐसा हो गया है कि जब सवेरे उन्हें प्रणाम करती हूँ तब केवल उनके पैरों तले की मिट्टी की ओर ही देखती रहती हूँ--और जान पड़ता है कि इतना ही मेरे लिए बहुत है कि मेरे नयन सार्थक हो गए हैं ।
सुदर्शना : तेरी सभी बात समझ में नहीं आती । पर उन्हे सुनना अच्छा लगता है । किन्तु तू जो कह, मै उन्हे देखकर रहूँगी । मेरा कब विवाह हुआ था मुझे याद भी नहीं है---तब इतना बोध भी नहीं था । माँ से सुना था कि उन्हें दैवज्ञ ने बताया था कि उनकी लड़की ऐसा स्वामी पायेगी जैसा पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं होगा । माँ से कितनी बार पूछा कि स्वामी देखने में कैसे हैं-वह ठीक-ठीक बताना ही नहीं चाहती । कहती है, मैंने देखा कहाँ है ? घूँघट के भीतर से मैं अच्छी तरह देख ही नहीं सकी । जो सुपुरुषों में श्रेष्ठ है उन्हे देखने का लोभ मैं कैसे छोड़ सकती हूँ ?
सुरंगमा : वह देखिए रानी, हल्की-सी बयार आ रही है !
सुदर्शना : बयार ? कहाँ है बयार ? सुरंगमा यही जो सुगन्ध -- क्या आप तक नहीं पहुँची ?
सुदर्शना : नहीं, कैसी सुगन्ध ? मुझे तो नहीं आती ।
सुरंगमा : बड़ा फाटक खुला है-वह आ रहे हैं, भीतर आ रहे हैं ।
सुदर्शना : तू कैसे आहट पा जाती है ?
सुरंगमा : क्या जानूँ रानी । जान पड़ता है मानो छाती के भीतर पैरों की चाप सुन पाती हूँ। मैं उनके अँधेरे कक्ष की सेविका हूँ न ? तभी मुझमें एक बोध जाग गया है—समझने के लिए मुझे कुछ भी देखने की ज़रूरत नहीं होती।
सुदर्शना : तेरी तरह मेरा भी होता तो मैं तर जाती ।
सुरंगमा : होगा, रानी, होगा । आप जो 'देखूंगी-देखूंगी' सोचती हुई इतनी अधीर हो रही हैं इसीसे आपका सारा मन देखने की ओर ही लगा हुआ है । यह एक टेक जब छोड़ देंगी तब अपने-आप सब सहज हो जायगा ।
सुदर्शना : मुझे रानी होकर भी जो सहज नहीं होता वह तुझे दासी होकर कैसे हो गया ?
सुरंगमा : दासी जो हूँ । इसीलिए इतना सहज हो गया । जिस दिन मुझे इस अँधेरे कक्ष का भार सौंपकर उन्होने कहा-'सुरंगमा इस कक्ष को प्रतिदिन तुम ठीक-ठीक करके रखना, यही तुम्हारा काम है,' मैंने उनकी आज्ञा को सिर आंखों पर लिया-मैंने मन-ही-मन भी यह नहीं कहा कि मुझे उनका काम दीजिए जो आपके प्रकाश वाले कक्ष दिये जलाते हैं । तभी जो काम मैंने लिया उसकी शक्ति अपने-आप भीतर जाग उठी । उसे कोई बाधा नहीं हुई । पर वह आ रहे हैं- कक्ष के बाहर खड़े हैं । प्रभु........
गान-१
खोलो खोलो द्वार, मुझे और बाहर खड़ा न रखो,
इशारा दो, इधर देखो, आओ दोनों बाहु बढ़ाकर,
काज सब हो चुका है, सन्ध्या तारा उग आया है,
आलोक की नाव पहुँच चुकी है अस्तसागर के पार ।
द्वारे आया हूँ, मुझे और बाहर खड़ा न रखो !
झारी भरकर पानी क्या ले आईं,
शुचि दुकूल क्या ओढ़ लिया ?
केश क्या बाँध लिये, फूल क्या चुन लिये,
मुकुलों की माला क्या गूंथ ली ?
गाएँ गोठ में लौटा आई हैं, पाखी नीड़ों में आ गए हैं ।
जगत् में जितने मार्ग थे, अन्धकार में मिलकर एक हो गए हैं।
तुम्हारे द्वारे आया हूँ, मुझे और बाहर खड़ा न रखो !
सुरंगमा : राजा, आपका द्वार कौन बन्द रख सकता है ! द्वार बन्द नहीं हैं, किवाड़ केवल उड़काये हुए हैं, छूते ही अपने आप खुल जायेंगे । क्या उतना भी आप नहीं करेंगे ? जब तक स्वयं उठकर द्वार न खोला जायगा आप भीतर नहीं आयेंगे ?
गान-२
यह जो मेरा आवरण है, इसे दूर करते और कितनी देर !
निश्वास- वायु से भी वह उड़ जायगा - यदि तुम वैसा चाहो ।
मैं यदि भूमि पर पड़ी रहूँ धूल चूमती हुई,
तो तुम द्वार पर ही खड़े रहोगे, यह कैसा है तुम्हारा प्रण ?
रथ चक्रों के रव से जगाओ, जगाओ, सबको -
अपने ही घर में आओ बल से भरकर, आओ गौरव के साथ !
मेरी नींद टूट जाये, मैं प्रभु को पहचान लूं-
दौड़कर जाऊँ द्वार पर, चरणों में कर दूँ अपने को समर्पण !
रानी, तो जाइए द्वार खोल दीजिए, नहीं तो राजा नहीं आयेंगे ।
सुदर्शना : मैं इस कक्ष के अन्धकार में कुछ भी अच्छी तरह नहीं देख सकती- द्वार कहाँ है मैं क्या जानूं ? तू यहाँ का सब जानती है तो मेरी ओर से खोल दे ।
(सुरंगमा द्वार खोलकर प्रणाम करती है । प्रस्थान 1 )
तुम मुझे प्रकाश में दर्शन क्यों नहीं देते ।
राजा : प्रकाश में हजारों और चीजों के साथ मिलाकर मुझे देखना चाहती हो ? क्यों न इस गम्भीर अन्धकार में तुम्हारा एक मात्र होकर मैं रहूँ !
सुदर्शना : सभी तुमको देख पाते है, मैं रानी होकर भी नहीं देख पाऊँगी !
राजा : कौन कहता है देख पाते हैं ? जो मूढ़ हैं वे समझ लेते हैं कि वे देख पा रहे हैं ।
सुदर्शना : जो हो, तुम्हें मुझे दर्शन देना होगा ।
राजा : सहा नहीं जायगा — कष्ट होगा।
सुदर्शना : सहा नहीं जायगा - यह भी कोई बात है ? तुम कितने सुन्दर हो, कितने आश्चर्य भरे, यह तो इस अन्धकार में भी समझ सकती हूँ फिर प्रकाश में क्या नहीं समझ सकूंगी ? बाहर जब तुम्हारी वीणा बजती है तब मुझे न जाने क्या हो जाता है कि मैं समझने लगती हूँ, मैं ही उस वीणा का गान हूँ, तुम्हारा यह सुवासित उत्तरीय जब मेरे गात्र से छू जाता है तब मुझे जान पड़ता है, मेरा सर्वांग सघन आनन्द से वातास के साथ मिल गया । फिर तुम्हें देखकर मैं सह नहीं सकूंगी, यह कैसे हो सकता है ?
राजा : मेरा क्या कोई रूप तुम्हारे मन में नहीं जाता है ।
सुदर्शना : एक तरह से तो जाता ही है। नहीं तो मैं जीती कैसे रह सकती !
राजा : किस रूप में देखा है ।
सुदर्शना : वह कोई एक रूप तो नहीं है । नई वर्षा के दिन जब जल भरे मेघों से भरे आकाश के छोर पर वन की रेखा और घनी हो उठती है, तब बैठी बैठी सोचती हूँ कि मेरे राजा का रूप भी ऐसा ही होगा- इसी प्रकार भटका हुआ, ऐसे ही ढक देने वाला, ऐसा ही आँखें सहलाने वाला, ऐसा ही हृदय भर देने वाला, नयन-पल्लव ऐसे ही छायामंडित, मुस्कान ऐसी ही गम्भीरता में डूबी हुई । फिर शरत्काल में, जब आकाश का पर्दा दूर उड़ जाता है, तब जान पड़ता है कि तुम स्नान करके अपने शेफाली वन के पथ पर चल रहे हो; तुम्हारे गले में कुंद-फूलों की माला है, तुम्हारे वक्ष पर श्वेत चन्दन की छाप, तुम्हारे मस्तक पर हल्के उज्ज्वल वस्त्र का उष्णीष, तुम्हारी आँखों की दृष्टि दिगंत के पार खोई हुई—तब लगता है कि तुम मेरे पथिक बन्धु हो; यदि तुम्हारे साथ चल सकूँ तो दिग्दिगंत में सोने के सिंह द्वार खुल जायेंगे और मैं शुभ्रता के अन्त पुर में प्रवेश कर सकूंगी। और यदि न कर सकूंगी तब इसी झरोखे में बैठकर किसी एक अतिदूर के लिए दीर्घ निश्वास छोड़ती रहूँगी, दिन के बाद दिन और रात के बाद रात मेरा अन्तःस्थल किसी अज्ञात वन- वीथी — किसी अनाघ्रात फूल की गन्ध के लिए बिलख-बिलख कर रोता रहेगा, और मर जायगा, और वसन्त-काल में जब यह सारा वन रंग से रंगीन हो उठता है, तब मैं तुम्हें देख पाती हूँ कानों में कुण्डल धारे, हाथो में अंगद, गात पर वसन्ती रंग का उत्तरीय, हाथ में अशोक की मंजरी । तुम्हारी वीणा के सभी सुनहले तार एक-एक तान में मानों उतावले हो रहे हैं ।
राजा : इतना विचित्र रूप देखती हो ! तब क्यों सब छोड़कर केवल एक विशेष मूर्ति देखना चाहती हो ? वह यदि तुम्हारे मन की न हुई तब तो मन चौपट हो जायगा ।
सुदर्शना : किन्तु मैं निश्चयपूर्वक जानती हूँ कि मन की होगी ।
राजा : मन यदि उसका हो तभी वह मन की हो सकेगी। पहले वह तो हो ।
सुदर्शना : मैं सच कहती हूँ, इस अन्धकार में जब तुम्हें देख नहीं पाती, यद्यपि जानती हूँ कि तुम वही हो, तब कभी-कभी न जाने कैसे एक डर से भीतर-ही-भीतर कांप उठती हूँ।
राजा : उस भय में बुराई क्या है ? प्रेम में भय न होने से उसका रस फीका हो जाता है ।
सुदर्शना : अच्छा मै भी पूछूं, इस अन्धकार में तुम क्या मुझे देख पाते हो ?
राजा : ज़रूर देख पाता हूँ ।
सुदर्शना : कैसे देख पाते हो ? अच्छा, क्या देख पाते हो -
राजा : देख पाता हूँ मानों अनन्त आकाश का अन्धकार मेरे आनन्द से खिचकर चक्कर काटता हुआ कितने नक्षत्रों का आलोक समेटकर, एक जगह स्थापित होकर खड़ा है । उसमें कितने युगों का ध्यान है, कितने आकाशों का आवेश, कितनी ऋतुओं का उपहार !
सुदर्शना : मेरा ऐसा रूप । तुमसे सुनकर हृदय उमड़ आता है । किन्तु पूरा-पूरा विश्वास नहीं होता-अपने में तो यह सब देख नहीं पाती हूँ ।
राजा : अपने दर्पण में अपना आपा नहीं दीखता-छोटा हो जाता है । मेरे चित्त में यदि उसे देख पाओ तो देखोगी यह कितना बड़ा है । क्योंकि मेरे हृदय में तुम केवल तुम नहीं हो, तुम मेरा प्रतिरूप हो जाती हो ।
सुदर्शना : कहो-कहो, ऐसा फिर कहो — मुझे तुम्हारी बातें गान-सी प्रतीत होती हैं-अनादि काल के गान-सी, जिसे मैं मानो जन्म-जन्मातर से सुनती आई हूँ। वह गान क्या तुम्हीं सुनाते रहे हो, और मुझे ही सुनाते रहे हो ? नहीं-नहीं जिसे सुनाते रहे हो वह मुझसे बहुत वड़ी, बहुत सुन्दर है—तुम्हारे गान में उस अलोक-सुन्दरी को मैं देख पाती हूँ — वह क्या मुझमें है या कि तुममें ? तुम जिस रूप में मुझे देखते हो, एक बार एक निमिष-भर के लिए मुझे वह दिखा दो ! तुम्हारे लिए क्या अन्धकार नाम का कुछ है ही नहीं ? इसीलिए तो मुझे तुममें से न जाने कैसा एक डर लगता है । यह कठिन काला लोहे जैसा अन्धकार है, जो मेरे ऊपर नींद-सा, मूर्छा-सा, मृत्यु-सा छाया है, तुम्हारे निकट क्या वह कुछ है ही नहीं ? तब ऐसे स्थल पर तुम्हारे साथ मेरा मिलन कैसे हो सकता है ? नहीं नहीं, हो नहीं सकता मिलन, हो नहीं सकता, यहाँ नहीं, यहाँ नहीं । जहाँ मै पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मिट्टी-पत्थर सब देख सकती हूँ वहीं तुम्हें भी देखूँगी ।
राजा : अच्छा देखो । किन्तु तुम्हें स्वयं ही पहचान लेना होगा, कोई तुम्हें बतायगा नहीं- और बताये भी तो विश्वास क्या ?
सुदर्शना : मैं पहचान लूंगी, पहचान लूंगी । लाखों लाखों लोगों के बीच भी पहचान लूंगी । भूल नहीं होगी !
राजा : आज वसन्त पूर्णिमा के उत्सव में तुम अपने प्रासाद के शिखर पर खडी होना-वहीं से देखना – मेरे उद्यान में हज़ारों लोगों के बीच मुझे देखने की चेष्टा करना ।
सुदर्शना : उनके बीच दिखाई तो दोगे ?
राजा : बार-बार सब दिशाओं से दिखाई दूंगा । सुरंगमा ! ( सुरंगमा का प्रवेश )
सुरंगमा : आज्ञा प्रभु —
राजा : आज वसन्त पूर्णिमा का उत्सव है ।
सुरंगमा : मुझे क्या काम करना होगा !
राजा : आज तुम्हारा साज का दिन है, काज का दिन नहीं । आज मेरे पुष्प-वन के आनन्द में तुम्हें योग देना होगा ।
सुरंगमा : वैसा ही होगा, प्रभु !
राजा : रानी आज मुझे अपनी आँखों से देखना चाहती हैं ।
सुरंगमा : कहाँ देखेंगी ?
राजा : जहाँ वंशी पंचम स्वर में बजेगी, फूलों के केशर का फाग उड़ेगा, ज्योत्स्ना और छाया गले मिलेंगे, उसी हमारे दक्षिण कुंजवन में ।
सुरंगमा : उस लुक-छिपौवल में क्या देखा जा सकेगा ? वहाँ तो हवा भी उतावली हो उठती है, सभी कुछ चंचल होता है । आँखो को उलझन न होगी ?
राजा : रानी का कौतूहल है ।
सुरंगमा : कौतूहल की चीजें हजारों हैं-आप क्या उनके साथ मिलकर कौतूहल मिटायेंगे ? आप ऐसे राजा नहीं हैं। रानी, आपके कौतूहल को अन्त में रोकर लौट आना होगा ।
गान- ३
कहाँ बाहर-दूर वन को उड़ जाती हैं,
तुम्हारी चपल-चपल आँखें वन-पाखी-सी ?
आज हृदय में यदि बज उठे प्रेम की वंशी,
तो वे अपने-आप ही पाश में बंध जायेंगी !
दूर होगी इनकी यह त्वरा, यह इधर-उधर भटकना-
आहा, आज जो आँखें वन-पाखी-सी वन को दौड़ जाती हैं !
तुम देखते नहीं हो, हृदय द्वार पर कौन आता-जाता है !
सुनते नहीं हो दखिनी पवन कानों में क्या कहता है?
आज फूलों की सुवास में, सुख की हँसी में, आकुल गान में
चिर-वसन्त तुम्हारी ही खोज में प्राणों में आया है।
उसे पागल सी बाहर खोजती हुई भटक रही हैं वन में-
तुम्हारी चपल आँखें वन-पाखी-सी !
२
पथ
पहला पथिक : ओ महाशय !
प्रहरी : कहिए ?
दूसरा पथिक : रास्ता किधर है ? हम विदेशी हैं, हमें रास्ता बताइए !
प्रहरी : कहाँ का रास्ता ?
तीसरा पथिक : वहीं का, जहाँ सुना है आज उत्सव होने वाला है । वहाँ किधर से जाना होगा ?
प्रहरी : यहाँ सभी रास्ते रास्ते हैं । जिधर से भी जाओगे, ठीक पहुँचोगे ! सामने चले जाओ !
(प्रस्थान )
पहला : सुनो जरा इसकी बात । कहता है ये सब रास्ते एक हैं । ऐसा ही है तो फिर इतने रास्तों की ज़रूरत क्या थी ?
दूसरा : अरे भई इसमें नाराज़ होने की क्या बात है । जिस देश में जैसी व्यवस्था हो । हमारे देश में तो यही कहा जा सकता है कि रास्ता है ही नहीं बाँकी टेढ़ी गलियाँ, मानो गोरखधंधा हो । हमारा राजा कहता है कि खुला रास्ता न होना ही अच्छा है । क्योंकि रास्ता मिलते ही प्रजा सब बाहर को चल देगी। इस देश में उल्टा है, जाते हुए भी कोई नहीं टोकता, आने से भी कोई नहीं रोकता- फिर भी यहां इतने लोग हैं-- ऐसी खुली छूट होने से हमारा राज्य तो उजाड़ हो गया होता ।
पहला : भई जनार्दन, तुममें यही एक बड़ी बुराई है ।
जनार्दन : वह क्या ?
पहला : अपने देश की बड़ी निन्दा करते हो । खुला रास्ता ही क्या अच्छा होता है ? तुम्हीं बताओ भाई कौण्डिल्य, यह कह रहा है कि खुला रास्ता अच्छा होता है ।
कौण्डिल्य : भाई भवदत्त, तुम तो बराबर देखते आ रहे हो कि जनार्दन की ऐसी ही टेढ़ी बुद्धि है । किसी दिन मुसीबत में पड़ेंगे । कहीं राजा के कानों तक बात पहुँची तो मरने पर इन्हें श्मशान तक ले जाने वाला ढूंढना मुश्किल हो जायगा ।
भवदत्त : भई, हमें तो जब से इस खुली राह के देश में आए हैं उठने-बैठने कभी सुख नहीं मिला । कौन आता है, कौन जाता है, किसी का भी कुछ ठीक ठिकाना नहीं है -दिन-रात अपना शरीर घिनघिनाता रहता है-राम-राम ।
कौण्डिल्य : यहाँ भी तो उसी जनार्दन की राय मानकर ही आये । हमारी गोष्ठी में ऐसे कभी नहीं हुआ । मेरे पिता को तो जानते हो- कितने बड़े महात्मा थे । शास्त्र के अनुसार ठीक ४९ हाथ नापकर मंडल बनाकर उसीके भीतर सारा जीवन काट दिया एक दिन के लिए भी उसके बाहर पैर नहीं रखा । मृत्यु के बाद प्रश्न उठा कि दाह भी तो उसी ४९ हाथ घेरे के भीतर ही करना होगा, बड़ी विकट समस्या थी— अन्त में शास्त्री ने विधान दिया कि ४९ के जो दो अंक हैं उनके बाहर तो नहीं जाया जा सकता इसलिए ४९ ( उनचास ) को उलटकर ९४ ( नौ-चार ) कर दिया जाय-तभी उन्हें घर से बाहर लाया जा सकेगा । नहीं तो घर के भीतर ही दाह -कर्म करना होगा । बाप रे बाप, कैसा कड़ा आचार-विचार ! हमारा देश कोई ऐसा-वैसा थोड़े ही है ।
भवदत्त : ठीक कहते हो। मरने चलने पर भी सोचना होगा, यह क्या कम बात है ।