राजा प्रसेनजित की चतुराई : उत्तर प्रदेश की लोक-कथा
Raja Prasenjit Ki Chaturai : Lok-Katha (Uttar Pradesh)
अवध के उत्तर में प्रसेनजित नाम का एक राजा राज करता था। एक दिन उस नगर में एक तपस्वी आया । वह दाल-भात न खाकर केवल कच्चे धान पर ही जीता था । उसकी इस बात को देखकर नगर के सेठ ने उसके रहने का प्रबन्ध एक सज्जन के घर में कर दिया। नगर का सेठ उसके लिए प्रतिदिन धान भेजा और कुछ नकदी अशर्फियां भी । तपस्वी को पूरा त्यागी समझ कर नगर के अन्य व्यापारी भी उसे दान-दक्षिणा देते थे ।
वह तपस्वी कंजूस विचार प्रवृत्ति का था। जब उसके पास एक हजार दीनार जमा हो गये तब उसने उन्हें मिट्टी के छोटे से कलश में डाला और जंगल की ओर चल दिया । घने जंगल में उसने यह धन एक पेड़ के नीचे गाड़ दिया। वह प्रतिदिन जंगल में यह देखने जाता कि कहीं वह धन चुराया तो नहीं गया। एक दिन जब वह जंगल में गया तो देखा कि उसका वह धन कोई चुरा ले गया है। यह देख उसकी आंखों में अंधेरा छा गया । उसने निश्चय किया कि मैं गंगा नदी के तट पर अनशन व्रत रखकर अपनी जान दे दूंगा ।
यह बात जब नगर के सेठ तथा वहां के अन्य लोगों ने सुनी तो वे उसके पास आए। सेठ ने तपस्वी को समझाया - " तपस्वी देवता, धन के खो जाने से मृत्यु का वरण करना अच्छा नहीं है । धन-दौलत तो धूप-छांह के समान है, अतः इसके लिए इतना शोक करना व्यर्थ है, पर वह तपस्वी अपनी बात पर अटल रहा । वह अपना डंड-कमंडल उठा कर गंगा तट की ओर चल पड़ा ।
यह बात जब प्रसेनजित के कानों में पहुंची, तो उन्होंने राज - कर्मचारियों को तपस्वी के पीछे दौड़ाया, जो उन्हें लौटा ही लाये । राजा ने उनकी कहानी सुन उनसे पूछा, "तपस्वी देवता, आपने जहां धन दबा रखा था, वहां कोई निशानी भी रहती थी ?"
तपस्वी ने कहा, "हां महाराज, मैंने वह धन जंगल में एक छोटे पेड़ के नीचे दबा दिया था। वही उसकी निशानी थी।" इस पर राजा बोला, "आप धीरज रखिये, मैं स्वयं उस धन की खोज करके आपको लौटा दूंगा । आप मरने का अनशन छोड़िये ।"
राजा सीधा अपने शयनागार में जाकर लेट गया और सिर- दर्द का बहाना किया। राजा को सिरदर्द होने की सूचना पाकर नगर के वैद्यों का राजमहल में आना शुरू हो गया। वे एक-एक . करके आते और अपना उपचार करके चले जाते । राजा प्रत्येक वैद्य से एकान्त में यही प्रश्न करता, "नगर में आजकल किस बीमारी का प्रकोप है ? आपने किस बीमारी की कौन-सी दवाई दी है ?"
वैद्य भी राजा के प्रश्नों के उत्तर देते और विदा हो जाते ।
एक वैद्य ने राजा को बताया- "मेरा एक रोगी मातृ दत्त का व्यापारी है। दो दिन से उसका दिमाग ठिकाने नहीं है । मैंने उसे नागवाला नामक बूटी खाने को कहा है।"
यह सुनकर राजा ने उस व्यापारी को अपने पास बुलवाया। व्यापारी से जब पूछा गया, तो उसने कहा, "राजन, मेरा नौकर जंगल में जाकर नागवाला बूटी ले आया है ।"
राजा ने उसे आज्ञा दी, “जाओ, उस नौकर को मेरे सामने लाओ ।” सरकारी कर्मचारी दौड़ पड़े। राजा ने मातृ दत्त के नौकर से कहा, "तुमने मालिक के लिए जंगल से नागवाला बूटी उखाड़कर लाते समय जो दीनारों से भरा कलश खोद निकाला है, उसे तुरन्त लाओ, नहीं तो अपने पाप का दण्ड पाने के लिए तैयार हो जाओ ।"
नौकर डर के मारे थर-थर कांपने लगा। वह राजा से बोला, "हां महाराज, मैंने घोर अपराध किया है। नागवाला बूटी की खोज करते-करते मुझे तपस्वी का दबाया कलश मिल गया। मेरे मन में बेईमानी घुस आई थी। मैंने उसे छुपा रखा है । मैं अभी दीनारों से भरे कलश को ले आता हूं।"
यह कहकर वह वहां से भागा-भागा अपने घर गया। थोड़ी ही देर में उसने तपस्वी का कलश राजा के सामने रख दिया । उस समय तपस्वी देवता भी वहीं थे । राजा ने तपस्वी को उसका कलश दे दिया । राजा के चतुराईपूर्ण न्याय से सभी नगरवासी प्रसन्न हुए और वे उसकी प्रशंसा करने लगे ।
(साभार : एशिया की श्रेष्ठ लोककथाएं : प्रह्लाद रामशरण)