राजा की मूर्खता : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Raja Ki Moorakhata : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक बार की बात है, कौशल राज्य पर राजा महेन्द्र राज करता था। प्रजा उसका सम्मान करती थी और साथ ही उससे भय भी खाती थी। राजा की सबसे बड़ी कमज़ोरी थी उसकी रानी मयूरी। वह उसे बहुत प्रेम करता था। उसके बिना एक भी पल रहना राजा महेन्द्र के लिए मुश्किल था।
विवाह के तीन वर्ष पश्चात् मयूरी जुड़वां बच्चों को जन्म देने के बाद चल बसी। राजा पूरी तरह से टूट गया। वह अपनी पत्नी के बिना अब कैसे रह पाएगा? वह आग-बबूला हो उठा। "इस जुड़वां औलाद ने मुझसे मेरी पत्नी को छीन लिया। मैं इनकी मनहूस शक्लें भी नहीं देखना चाहता। ले जाओ इन्हें यहां से। इन्हें इनकी नानी के पास छोड़ आओ," राजा ने अपने प्रधानमंत्री हरिराम को निर्देश दे दिए।
"लेकिन...लेकिन महाराज!" हरिराम ने कारण जानना चाहा। "चुप रहो! तुमने सुना नहीं मैंने क्या कहा? मैं अब इस बारे में कोई बहस नहीं करना चाहता। मेरे आदेश का पालन हो!" राजा भड़क उठा। "जी महाराज...जो आज्ञा महाराज," हरिराम हकलाता हुआ बोला। "एक और बात, आज के बाद मुझे मेरे राज्य में कोई बच्चा दिखाई नहीं देना चाहिए। उन्हें यहां से भगा दो," राजा ने कहा। "महाराज...यह ठीक नहीं होगा...।" हरिराम साहस जुटाते हुए बोला।
"क्या मतलब है तुम्हारा?" राजा महेन्द्र ने रौब से पूछा। "प्रजा अपने बच्चों के बिना मर जाएगी," हरिराम विनम्रता से बोला। यह सुनकर राजा महेन्द्र सोच में डूब गया और फिर बोला, "ठीक है, बच्चों को राज्य से बाहर मत भेजो, पर उनका बचपन समाप्त कर दो।" "मैं कुछ...समझा नहीं महाराज," हरिराम ने अचरज भरे शब्दों में पूछा। "मैं चाहता हूं कि बच्चे अपना बचपना छोड़कर बड़ों की तरह व्यवहार करना सीखें। आज से सब बच्चों का उछल-कूद करना, खेलना और खिलखिलाना, सब बंद।"
"पर क्यों महाराज?" "मैं नहीं चाहता कि कोई भी बच्चा मुझे मेरी जुड़वां औलाद की याद दिलाए। उनका ध्यान आते ही मेरा खून खौलता है। मुझे मेरी मयूरी की याद आती है। मुझे लगता है कि मेरा सब कुछ लुट चुका है।"
अपना सिर झुकाकर हरिराम वहीं खड़ा रहा और कुछ नहीं बोला। "पूरे राज्य में यह ऐलान कर दो कि मेरे आदेश का पालन सभी बच्चों को करना होगा। उल्लंघन करने वाले बच्चे को राज्य से सदा के लिए निकाल दिया जाएगा और उसके माता-पिता भी दंडित होंगे," राजा बोला।
अगले दिन से आदेश लागू हो गया। लोगों में मूर्खता भरे इस आदेश को लेकर काफी रोष था, लेकिन वे राजा के सामने इसका विरोध करने से डरते थे। हारकर उन्होंने अपने बच्चों को जीने का नया तरीका सिखाना शुरू कर दिया। लगभग छह महीनों के बाद बच्चों की किलकारियां सुनाई देनी बंद हो गईं। पेड़ों पर चढ़ते, पतंगें उड़ाते लड़के और रस्सी कूदती व गुड़ियों से खेलती लड़कियां, अब नज़र नहीं आती थीं।
कौशल एक सुंदर राज्य था। तरह-तरह के फूल, विभिन्न आकार के आकर्षक पेड़, मीठे फल, कई प्रजातियों के पशु-पक्षी इस प्रदेश को प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण राज्य बनाते थे, लेकिन जल्दी ही सब कुछ बदलने लगा। पक्षियों ने चहचहाना छोड़ दिया। जिन बुलबुल और पपीहों की कू-कू से कौशलवासियों की सुबह होती थी, वे शांत होते जा रहे थे। हिरणों का कलोल करना और गाय-भैंस के बछड़ों का उछल-कूद करना, सब समाप्त होता जा रहा था। रसीले आम, सेब और अमरूदों से लदे रहने वाले पेड़ अब उजाड़ दिखते थे। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हालात और खराब होते जा रहे थे। वरुणदेव भी प्रदेश से नाराज़ थे जिस कारण वर्षा नहीं हुई। बिना पानी के फसलें बरबाद हो गईं। किसानों में हाहाकार मचने लगी।
एक दिन प्रधानमंत्री हरिराम ने राजा महेन्द्र को राज्य की बदहाली के बारे में जानकारी दी। हरिराम की पूरी बात सुनकर राजा ने घोषणा की, "हमें देवताओं को शांत करना होगा। अनुष्ठान-पूजा का भव्य आयोजन करना होगा। मेरा विश्वास है कि ईश्वर हमारी रक्षा अवश्य करेंगे।"
ग्यारह दिनों तक प्रजावासियों ने मिलकर पूजा-अर्चना की, पर कोई लाभ नहीं हुआ। बल्कि राज्य की स्थिति और भी गंभीर होती चली गई।
कुछ दिन बाद, एक दिन राजा महेन्द्र अपने कक्ष में बैठा था। तभी द्वारपाल ने आकर सूचना दी, "महाराज, स्वामी ऋषि आनंद जी पधारे हैं।" राजा खुशी से बोला, "उन्हें तुरंत सम्मानपूर्वक अंदर ले आओ।"
महेन्द्र की पूरी शिक्षा-दीक्षा स्वामी ऋषि आनंद के आश्रम में हुई थी। पांच वर्ष पहले स्वामीजी हिमालय की कंदराओं में तप करने चले गए थे। उसके बाद किसी को उनकी खबर नहीं थी।
कुछ ही देर बाद स्वामीजी ने कक्ष में प्रवेश किया। उनके चेहरे का तेज़ देखते ही बन रहा था। राजा उनके चरणों में लेट गया। "स्वामीजी, आप सही समय पर पधारे हैं। मेरी सहायता कीजिए।" महेन्द्र को गले लगाकर स्वामीजी मधुरता से बोले, “क्या हुआ राजन?" राजा ने पूरा घटनाक्रम स्वामीजी को कह सनाया। "मैंने उस जुड़वां अभिशाप को तो निकाल बाहर कर दिया, लेकिन संकट का यह दुर्भाग्य मेरी धरती से नहीं जा रहा है। मैं और मेरी प्रजा त्राहि-त्राहि कर रहे हैं।"
स्वामीजी ने शांत स्वर में कहा, “महेन्द्र, तुम उन दो नन्हीं जानों को अभिशाप कह रहे हो। अभिशाप वे दो कोमल सुकुमार नहीं, बल्कि तुम्हारी मूर्खता और अज्ञानता है। अगर बाहर निकालना है तो इन्हें निकालो।" "क्या कह रहे हैं आप स्वामीजी?" राजा बौखलाकर बोला। "क्या, तुम्हें अनुमान है कि तुमने कितनी बड़ी भूल की है? सब बच्चों के बचपन को मारकर तुमने स्वयं प्राकृतिक संतुलन को क्षति पहुंचाने का घोर अपराध किया है," स्वामीजी बोले। -"मैंऽऽ...मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हं स्वामीजी!" राजा हकलाया।
"क्या तुम्हें मालूम है कि ईश्वर का वास कहां है?" स्वामीजी ने पूछा। "ऊपर आकाश में, हमारे चारों और फैले मंदिरों में," राजा ने उत्तर दिया।
"तुम्हारा दृष्टिकोण सीमित है राजन। ईश्वर सृष्टि के प्रत्येक जीव में बसे हैं। क्या तुम ईश्वर की महिमा का एक जीता-जागता उदाहरण देखोगे?"
"जी...अवश्य स्वामीजी!" राजा बुदबुदाते हुए बोला। स्वामीजी राजा महेन्द्र को महल के झरोखे में ले गए। उन्होंने बगीचे की ओर इशारा किया। राजा ने देखा कि वहां दो बच्चे खेल रहे हैं। उनकी आयु लगभग तीन वर्ष होगी। वे दोनों मिलकर तितली पकड़ रहे थे। कभी वे आपस में टकरा रहे थे, तो कभी घास पर गिर रहे थे। उठने में एक-दूसरे की मदद करते और फिर से वे तितली के पीछे दौड़ने लग जाते थे। हँसते-खेलते उन दोनों बच्चों की किलकारियों का शोर पूरे बगीचे में गूँज रहा था। राजा वहीं आश्चर्यचकित खडा देख रहा था। बच्चों की ये आवाजें जैसे उसके मस्तिष्क पर वार कर रही थीं।
स्वामी ऋषि आनंद ने राजा को समझाना शुरू किया, "महेन्द्र, बच्चों में भगवान बसते हैं। वे स्वयं पवित्रता, सत्यता, प्रेम और आनंद की अभिव्यक्ति हैं। कभी ध्यान से किसी बालक का अवलोकन करो। तुम्हें उनमें कभी छल-कपट दिखाई नहीं देगा। प्रत्येक बच्चा प्रसन्नता, आमोद-प्रमोद और जीवन के परमानंद का प्रतीक है। बच्चों के बचपन को समाप्त कर तुमने स्वयं ईश्वर की उपस्थिति का बहिष्कार किया है और जब ईश्वर ही चले गए तो क्या मां प्रकृति यहां रह पाएंगी? इसी के परिणामस्वरूप स्वर्ग-सी तुम्हारी यह हरी-भरी धरा आज उजाड़ बन चुकी है। तुम्हारे देश में केवल जीते-जागते शव रह गए हैं।" "लेकिन...स्वामीजी! मैं अपनी जुड़वां संतान पर आग-बबूला था।"
"वह तुम्हारी मूर्खता थी। तुम्हारी पत्नी की असामयिक मृत्यु उसके भाग्य में थी। तुम उन दोनों निर्दोष मासूमों पर आरोप कैसे लगा सकते हो। वे शिशु अपनी जननी को क्यों मारेंगे महेन्द्र, बताओ?" स्वामीजी स्नेह से बोले।
राजा महेन्द्र अपना सिर पकड़कर बैठ गया। वह लज्जित था। "हे ईश्वर! यह मैंने क्या कर डाला? मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि मेरे बच्चे आज कहां हैं? एक वर्ष पहले मुझे संदेश मिला था कि एक साधु उन दोनों बच्चों को अपने साथ ले गया था," राजा बोला। -"हां, एक साधु उन बच्चों को ले गया था और वही साधु उन्हें वापस तुम्हारे पास लाया है। वे जुड़वां इस समय तुम्हारे बगीचे में खेल रहे हैं।"
"क्याऽऽऽ...क्या कहा आपने?" राजा खुशी के मारे उछल पड़ा। "हां महेन्द्र, मुझे कौशल प्रदेश की प्रजा और तुम्हारी समस्याओं के बारे में कुछ समय पहले ही पता लग गया था। मैं तुम्हारे बच्चों को उनकी नानी के घर से ले गया, तब से वे मेरे ही आश्रम में रह रहे थे।"
राजा दौड़कर आंगन में पहुंचा और अपने बच्चों को देखने लगा। दोनों बच्चे खेल रहे थे। कभी वे घास पर गिर जाते और कभी एक-दूसरे पर। आंगन में महल के कई लोगों की भीड़ लग चुकी थी क्योंकि वर्षों बाद बच्चों को बच्चों जैसा व्यवहार करते देखा जा रहा था।
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एक वर्ष बीत गया। यह जुड़वां बच्चों का चौथा जन्मदिन था। पूरे राज्य में उत्सव मनाया जा रहा था। पक्षी चहचहा रहे थे, पशु उछल-कूद कर रहे थे। फलों से लदी पेड़ों की शाखाएं हवाओं संग झूल रही थीं। कुछ महीने पहले हुई बारिश के कारण खेतों में फसलें लहलहा रही थीं।
नगर की गलियों-चौबारों पर रोशनी जगमगा रही थी। सभी बच्चे महल में कार्यक्रम आयोजन स्थल पर जमा थे। वहां तरह-तरह के खेलों, प्रतियोगिताओं और ढेर सारे पुरस्कारों का इंतज़ाम भी था। महल के बीचोबीच खड़ी बच्चों की भीड़ में गुब्बारे फटने का एक ज़ोरदार धमाका हुआ। सभी बच्चे तालियां बजाकर एक जोकर का स्वागत कर रहे थे। यह जोकर हाथी की तरह चलता हुआ मंच के बीच आकर खड़ा हो गया। जब तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा मंच रोमांचित हो उठा तो उस जोकर ने अपना मुखौटा हटाया। यह कोई और नहीं, कौशल का राजा महेन्द्र था।
मुस्कराते हुए राजा ने वहां उपस्थित बच्चों और अतिथियों का झुककर अभिवादन किया, तो पूरा पंडाल तालियों से गूंज उठा।