राजा चला स्वर्ग की ओर : आदिवासी लोक-कथा

Raja Chala Swarg Ki Oar : Adivasi Lok-Katha

सिंहभूमि में एक राज्य था। उस राज्य का राजा विलासी प्रवृत्ति का था। उसी राज्य में एक ग़रीब जुलाहा रहता था। उस जुलाहे की पत्नी बहुत सुंदर थी। एक दिन राजा अपने राज्य में भ्रमण पर निकला। उसकी दृष्टि जुलाहे की पत्नी पर पड़ी जो उस समय पानी भरकर लौट रही थी। जुलाहे की पत्नी को देखकर राजा के मन में वासना जाग उठी। उसने जुलाहे और उसकी पत्नी के बारे में पता लगवाया। राजा को जब पता चला कि जुलाहा बहुत ग़रीब है किंतु उसके गाँव के सभी लोग उसे बहुत प्रेम करते हैं तो राजा को लगा कि यदि वह जुलाहे की पत्नी को बलात् अपने राजमहल में ले जाएगा तो गाँव के लोग क्रुद्ध हो उठेंगे। अत: राजा ने युक्ति से काम लेने का निश्चय किया।

राजा ने जुलाहे को अपने महल में बुलाया। जुलाहा राजा का आदेश भला कैसे ठुकराता? वह राजा के सामने उपस्थित हो गया।

‘मैंने सुना है कि तुम बहुत साहसी हो इसलिए मैंने तुम्हें एक महत्वपूर्ण काम के लिए चुना है। तुम अभी जाओ और तीन दिन में तीस सियारों के सिर काटकर ले आओ। मुझे एक विशेष अनुष्ठान करना है जिसके लिए मुझे सियारों के सिर की आवश्यकता है।’ राजा ने जुलाहे को आदेश दिया।

‘लेकिन मालिक...।’ जुलाहे ने विनती करना चाहा।

‘यदि तुम हमारे आदेश का पालन नहीं करोगे तो हम तुम्हारा सिर कटवा देंगे।’ राजा ने जुलाहे को टोकते हुए कहा।

मरता क्या न करता। जुलाहा समझ गया कि राजा ने उसकी पत्नी को देख लिया है और इसीलिए उसके मन में खोट आ गया है। अब वह जुलाहे को मरवा कर उसकी पत्नी हड़प लेना चाहता है। जुलाहा दुखी मन से घर लौटा। पत्नी ने जुलाहे को देखा तो उसके दुख का कारण पूछा। जुलाहे ने राजा के आदेश और उसकी कुदृष्टि के बारे में पत्नी को बताया।

‘आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा।’ पत्नी ने जुलाहे को ढाढ़स बंधाया।

‘क्या ठीक हो जाएगा? मैंने आज तक एक ख़रगोश तक तो मारा नहीं है, तीन दिन में तीस सियारों का सिर कैसे हासिल कर पाऊँगा।’ जुलाहे ने चिंतित होते हुए कहा, ‘राजा मुझे मरवाए बिना नहीं छोड़ेगा।’

‘आपको कुछ नहीं होगा। जैसा-जैसा मैं कहूँ, वैसा-वैसा आप करते जाइए।’ जुलाहे की पत्नी ने कहा। वह बहुत समझदार स्त्री थी।

पत्नी के कहने पर जुलाहा जंगल में गया और उसने एक इतनी लंबी सुरंग खोद डाली कि जिसमें तीस सियार आ सकें। इसके बाद दूसरी सुरंग खोदने का अभिनय करने लगा। सियारों का मुखिया बहुत देर से जुलाहे को सुरंग खोदते देख रहा था। जब जुलाहा दूसरी सुरंग खोदने लगा तो वह उत्सुकतावश झाड़ियों से बाहर निकल आया।

‘तुम ये सुरंगें क्यों खोद रहे हो?’ मुखिया सियार ने जुलाहे से पूछा।

‘अरे? तुम्हें पता नहीं है क्या कि आकाश से आग बरसने वाली है? इसीलिए मैं सुरंग खोद रहा हूँ। जब आग बरसेगी तो मैं इसमें छिपकर बच जाऊँगा।’ जुलाहे ने कहा।

‘लेकिन तुम्हारे लिए तो ये एक सुरंग पर्याप्त है फिर ये दूसरी सुरंग क्यों खोद रहे हो?’ मुखिया सियार ने पूछा।

‘मुझे बोंगा देव (देवता) ने आदेश दिया है कि पहले दूसरों के लिए सुरंग खोदो फिर अपने लिए। इसीलिए मैंने ये एक सुरंग खोद ली और अब ये दूसरी खोद रहा हूँ।’ जुलाहे ने कहा।

‘भैया, तुम तो बड़े परोपकारी जीव हो। मैं सियारों का मुखिया हूँ। क्या हम सियार तुम्हारी इस सुरंग में छिप सकते हैं?' मुखिया सियार ने पूछा।

‘क्यों नहीं? ख़ुशी से इसमें छिपो।’ जुलाहे ने कहा। उसी समय जुलाहे की पत्नी जो एक पेड़ के ऊपर चढ़कर बैठी थी और जिसने एक मिट्टी के बर्तन में थोड़े से अँगारे रखे हुए थे, ऊपर से अँगारे बरसाने शुरू कर दिए।

‘भागो! छिपो! आकाश से आग बरसने लगी।’ जुलाहा चिल्लाया और अपनी छोटी-सी सुरंग में घुस गया। यह देखकर मुखिया सियार को विश्वास हो गया कि आकाश से आग बरसने लगी है। उसने ‘हुआ-हुआ’ करके अपने सभी सियारों को बुलाया और वह भी अपने साथियों सहित जुलाहे द्वारा खोदी गई बड़ी सुरंग में घुस गया। जैसे ही सारे सियार सुरंग में घुसे, वैसे ही जुलाहा अपनी छोटी सुरंग से बाहर निकला और उसने सियारों वाली सुरंग के मुँह को बड़े-से पत्थर से ढाँक दिया।

थोड़ी देर बाद जुलाहे ने सुरंग के मुँह से पत्थर को तनिक सरकाया और सियारों से बोला, ‘अब आकाश से आग बरसना बंद हो गई है। अब तुम लोग एक-एक करके सुरंग से बाहर आ जाओ।

सियार एक-एक करके बाहर आते गए और जुलाहा उनका सिर काटता गया।

इस प्रकार कुल तीस सियारों के सिर इकट्ठे हो गए। इसके बाद जुलाहे की पत्नी पेड़ से नीचे उतर आई। जुलाहे ने उसकी टोकरी में सियारों के सिर रखे और चल पड़ा अपने गाँव की ओर। उसने पहले अपनी पत्नी को अपने घर छोड़ा और फिर सियारों के सिर लेकर राजा के पास पहुँचा। राजा ने सिरों की गिनती की। पूरे तीस के तीस निकले। राजा झुँझला उठा। उसकी योजना विफल हो गई थी। इस पर राजा ने दूसरी योजना बनाई और जुलाहे को अपने पास बुलाया।

‘जुलाहे, तुम बहुत बहादुर हो। तुमने मेरे लिए तीस सियारों के सिर लाए। अब मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए एक लोटा शेरनी का दूध ला दो जिससे मैं एक और अनुष्ठान कर सकूँ।’ राजा ने जुलाहे से कहा।

‘लेकिन महाराज...।’

‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, यदि तुम मेरे आदेश का पालन नहीं करोगे तो मैं तुम्हें मृत्युदंड दूँगा और तुम्हारे परिवार को राजसात कर लूँगा।’ राजा ने धमकी दी।

जुलाहा एक बार फिर मुँह लटकाए अपने घर पहुँचा। जुलाहे की पत्नी ने उससे उसके दुख का कारण पूछा। जुलाहे ने राजा के नए आदेश के बारे में बताया।

‘आप चिंता मत करिए। सब ठीक हो जाएगा।’ पत्नी ने जुलाहे को ढाढ़स बंधाया।

‘क्या ठीक हो जाएगा? पिछली बार तो फिर भी सियारों का मामला था किंतु इस बार शेरनी का दूध लाने का प्रश्न है। यह मुझसे नहीं हो सकेगा।’ जुलाहे ने चिंतित होकर कहा।

‘बोंगा देव सब ठीक करेंगे! अब तो बस वैसा ही करिए, जैसा मैं कहूँ।’ जुलाहे की पत्नी ने कहा। इसके बाद जुलाहे की पत्नी ने दूध डालकर मीठे पुए पकाए और कपड़े की एक पोटली में बाँधकर जुलाहे को दे दिया। उसने वह सब कुछ जुलाहे को समझा दिया जो उसे करना था।

जुलाहा मीठे पुए की पोटली लेकर चल पड़ा। जंगल में पहुँचकर उसे एक शेरनी दिखाई दी जो अपने शावकों को दुलार कर शिकार पर चली गई। शेरनी के जाने के बाद जुलाहा शावकों के पास पहुँचा।

‘आप कौन हैं?' शावकों ने पूछा।

‘मैं तुम्हारा मामा हूँ।’ जुलाहे ने कहा।

‘अरे वाह! आप तो दो पैरों वाले हैं फिर भी हमारे मामा हैं। आप हमारे लिए क्या लाए हैं?’ शावकों ने मचलते हुए पूछा।

‘मैं तुम लोगों के लिए पुए लाया हूँ। लो, खा लो!’ जुलाहे ने पुए शावकों को दे दिए। शावकों ने कभी पुए नहीं खाए थे। उन्हें पुए अत्यंत स्वादिष्ट लगे। उन्होंने पेट भरकर पूए खा लिए और जुलाहे के साथ खेलने लगे। थोड़ी देर में शेरनी शिकार करके लौटी। शेरनी को आते देखकर जुलाहा एक पेड़ के पीछे छिप गया।

‘आओ बच्चों, दूध पी लो।‘ शेरनी ने शावकों से कहा।

‘नहीं, पुए खाकर हमारा पेट भर गया है।’ शावकों ने उत्तर दिया। ‘पुए? कौन लाया था पुए?’ शेरनी ने चकित होकर पूछा।

‘दो पैर वाले मामा लाए थे। वे हैं उधर पेड़ के पीछे।’ शावकों ने उत्साहित होकर बताया। तब तक जुलाहा भी पेड़ के पीछे से निकल आया।

‘मैंने तुम्हारे बच्चों को भूखे देखा तो मैंने इन्हें पुए खिला दिए। बच्चों ने पूछा कि मैं कौन हूँ तो मैंने उन्हें कह दिया कि तुम्हारा मामा हूँ ताकि वे डरे नहीं।’ जुलाहे ने शेरनी को बताया।

‘तुमने मेरे बच्चों की भूख शांत करके बड़ा नेक काम किया है। बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकती हूँ?; शेरनी ने पूछा।

‘मुझे अपनी जान बचाने के लिए तुम्हारा दूध चाहिए।’ जुलाहे ने राजा के आदेश के बारे में शेरनी को बताया। शेरनी ने प्रसन्नतापूर्वक एक लोटा दूध दे दिया। जुलाहा दूध लेकर राजा के पास पहुँचा। राजा ने शेरनी का दूध देखा तो वह झल्ला उठा।

उसकी दूसरी योजना भी विफल हो गई। अब राजा ने सोचा कि इस जुलाहे को सीधे-सीधे मरवाना ही होगा।

उधर जुलाहा अपने घर पहुँचा तो उसकी पत्नी ने उसे समझाया कि राजा से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है। वह अतंत: जुलाहे को मरवाकर ही मानेगा।

अत: राजा कोई नया दाँव खेले इसके पहले राजा को मारना होगा। इसके लिए जुलाहे की पत्नी ने एक योजना बनाई और जुलाहे को सिखा-पढ़ा कर राजा के पास भेज दिया।

‘महाराज! मैं आज आपसे अंतिम विदा लेने आया हूँ।’ जुलाहे ने राजा से कहा। ‘हैं? अंतिम विदा?’ राजा चकित रह गया।

‘हाँ, महाराज! मुझे सशरीर स्वर्ग जाने का रास्ता मिल गया है। अब मैं स्वर्ग में जाकर रहूँगा। वहाँ एक से बढ़कर एक सुंदर अप्सराएँ हैं। मैं उनके साथ जीवन बिताऊँगा।’ जुलाहे ने चटखारे लेते हुए कहा।

‘एक से बढ़कर एक सुंदर अप्सराएँ?’ विलासी राजा सुंदर अप्सराओं की चर्चा सुनकर लालायित हो उठा।

‘जी महाराज!’

‘प्रत्येक सुंदर वस्तु पर राजा का अधिकार पहले होता है अत: मैं तुमसे पहले वहाँ जाऊँगा। तुम मुझे स्वर्ग जाने का रास्ता बताओ।’ राजा ने जुलाहे से कहा।

‘किंतु महाराज...’

‘चुप रहो! तुमने यदि मुझे स्वर्ग का रास्ता नहीं दिखाया तो मैं तुम्हें मार डालूँगा।’ राजा ने जुलाहे को डाँटते हुए कहा।

‘जैसी आपकी आज्ञा।’ जुलाहे ने प्रत्यक्षत: दुखी होते हुए बोला।

इसके बाद जुलाहा राजा को लेकर जंगल में बने एक कुएँ के पास पहुँचा।

‘महाराज! इसी कुएँ से होकर जाता है स्वर्ग का रास्ता।’ जुलाहे ने राजा से कहा।

राजा ने आव देखा न ताव और कुएँ में छलाँग लगा दी। कुआँ था अथाह गहरा।

राजा जैसे ही कुएँ में कूदा वैसे ही जुलाहे की पत्नी भी कुएँ के पास आ गई और पति-पत्नी दोनों ने मिलकर कुएँ को एक बड़े पत्थर से ढाँक दिया। इसके बाद दोनों घर लौटकर ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे।

(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)

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